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कारिका २८, २९]
ईश्वर - परीक्षा
९९
शयानां समवायस्तदा तन्निबन्धनोऽपि तस्य क्रमो दूरोत्सारित एव, तेषामक्रमत्वादिति सातिशयस्यापीश्वरज्ञानस्याक्रमत्वसिद्धिः । तथा चाक्रमदीश्वरज्ञानात्कार्याणां क्रमो न स्यादिति सूक्तं दूषणम् ।
[ नित्येश्वरज्ञानं प्रमाणं फलं वेति विकल्पद्वयं कृत्वा तद् दूषयति ] ९५. किञ्च तदीश्वरज्ञानं प्रमाणं स्यात्फलं वा ? पक्षद्वयेऽपि दोषमादर्शयन्नाह -
तद्द्बोधस्य प्रमाणत्वे फलाभाव: प्रसज्यते । ततः फलावबोधस्यानित्यस्येष्टौ मतक्षतिः ॥ २८ ॥ फलत्वे तस्य नित्यत्वं न स्यान्मानात्समुद्भवात् । ततोऽनुद्भवने तस्य फलत्वं प्रतिहन्यते ॥ २९ ॥ $ ९६. नेश्वरज्ञानं नित्यं प्रमाणं सिद्ध्येत् तस्य फलाभावात्, फलज्ञानस्यानित्यस्य परिकल्पने च महेश्वरस्य नित्यानित्यज्ञानद्वयपरि
स्थापित किया गया था उसे अब छोड़ दिया जान पड़ता है क्योंकि अतिariat अक्रम ( युगपद् ) मान लिया गया है और इसलिए ईश्वरज्ञानको सातिशय माननेपर भी उसमें अक्रमपना ही प्रसिद्ध होता है । अतएव 'अक्रम ईश्वरज्ञानसे कार्योंका क्रम नहीं बनता' यह दूषण बिल्कुल ठीक ही कहा गया है ।
९५. दूसरे, वह ईश्वरज्ञान प्रमाणरूप है या फलरूप ? दोनों ही पक्षोंमें आचार्य दोष दिखाते हैं
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ईश्वरका नित्यज्ञान यदि प्रमाण है तो फलका अभाव प्राप्त होता है । और अगर उससे अनित्य फलज्ञान माना जाय तो सिद्धान्तकी हानि होती है । यदि कहा जाय कि ईश्वरका ज्ञान फल है तो वह नित्य नहीं बन सकता, क्योंकि प्रमाणसे वह उत्पन्न होता है । अगर उसे उत्पन्न न मानें तो वह फल नहीं हो सकता । तात्पर्य यह कि सिद्ध होता है और न फल, क्योंकि दोनों ही पक्षोंमें दोष आते हैं ।
ईश्वरज्ञान न तो प्रमाण
१९६. अतएव हम कह सकते हैं कि नित्य ईश्वरज्ञान प्रमाण नहीं
है क्योंकि उसका फल नहीं है और यदि अनित्य फलज्ञानकी कल्पना करें तो महेश्वर के नित्य और अनित्य दो ज्ञान कल्पित करना पड़ेंगे और उस
1. द 'स्यान्मम' इत्यधिकः पाठः ।
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