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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
[ कारिका ३५
रथमात्रम्; धर्माणां सर्वथा धर्मिणो भेदे धर्मधर्मभावविरोधात् सह्यवि - न्ध्यादिवत् ।
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$ १०९. ननु ' धर्मधर्मिणोः सर्वथा भेदेऽपि निर्बाधप्रत्ययविषयत्वान्न धर्मधर्मभावविरोधः । सह्यविन्ध्यादीनां तु निर्बाधधर्मधर्मसम्प्रत्यय विषयत्वाभावान्न धर्मधनभावव्यवस्था । न हि वयं भेदमेव धर्मधमिव्यवस्थानिबन्धनमभिदध्महे, येन भेदे धर्मधमिभावो विरुध्यते सर्वथैवाभेद इव, प्रत्यय विशेषात्तद्व्यवस्थाभिधानात् । सर्वत्राबाधित प्रत्ययोपायत्वाद्वैशेषिकाणां तद्विरोधादेव विरोधसिद्धेरिति कश्चित् सोऽवि स्वदर्शनानुरागान्धीकृत एव बाधकमवलोकयन्नपि नावधारयति, धर्मर्धामप्रत्ययएकपनसे धर्मों में एकपन आ जाता है । अतः अवस्थाओंको नाना होनेसे ईश्वरको भी नाना हो जाने एवं ईश्वरको एक होनेसे अवस्थाओं को भी एक हो जानेका प्रसङ्गापादन करना उचित नहीं है ?
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जैन - आपकी यह भी मान्यता केवल आपको ही सन्तोषदायक हो सकती है - अन्यको नहीं, क्योंकि धर्मोंको धर्मीसे सर्वथा भिन्न माननेपर सह्याचल और विन्ध्याचल आदिकी तरह उनमें धर्म-धर्मीभाव कदापि नहीं बन सकता है |
$ १०९. वैशेषिक - यह ठीक है कि धर्म और धर्मो में सर्वथा भेद है तथापि वे अबाधित प्रत्ययके विषय हैं और इसलिये उनमें धर्म- धर्मिभावका विरोध नहीं है - वह बन जाता है । लेकिन सह्याचल और विन्ध्याचलआदि पदार्थ अबाधित धर्म-धर्मीप्रत्ययके विषय नहीं हैं - वहाँ होनेवाला धर्म-धर्मीप्रत्यय प्रत्यक्षादिप्रमाणोंसे ही बाधित है और इसलिये उनमें धर्मधर्मीभावकी व्यवस्था नहीं की जाती । यह हम स्पष्ट किये देते हैं कि भेदको ही हम धर्म-धर्मीकी व्यवस्थाका कारण नहीं कहते हैं, जैसे सर्वथा अभेदको उक्त व्यवस्थाका कारण नहीं कहा, जिससे कि सर्वथा भेद अथवा सर्वथा अभेदमें धर्म-धर्मीभावका विरोध प्राप्त होता । किन्तु ज्ञानविशेषसे उक्त व्यवस्था कही गई है । सब जगह अबाधित प्रत्ययको ही हमारे यहाँ उक्त व्यवस्थाका उपाय बतलाया गया है और उसके विरोध ही विरोध माना गया है ?
जैन - आप अपने दर्शन के अनुरागसे इतने विचारहीन हैं कि बाधक देखते हुए भी उन्हें नहीं समझ रहे । हम ऊपर स्पष्ट बतला आये हैं कि
1. व 'ननु च ' पाठः ।
2. द 'पीश्वरदर्शन' पाठः ।
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