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ईश्वर - परीक्षा
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कारिका ३६ ] नित्यमीश्वरज्ञानं तत्वादिकार्योत्पत्तिनिमित्तमपाकृतं वेदितव्यम्; तस्येश्वरवत्सर्वगतत्वेन क्वचिदेशे नित्यत्वेन कदाचित्काले व्यतिरेकाभावनिश्चयात् । तदन्वयमात्रस्य चात्मान्तरवन्निश्चेतुमशक्तेः । तस्मि सति युगपत्सर्वकार्याणामुत्पत्तिप्रसङ्गात् सदा कार्यक्रमहेतुत्वहाने: कालदेशकृतक्रमाभावात् । सर्वथा स्वयं क्रमाभावात् क्रमवत्वे नित्यत्व सर्वगतत्वविरोधात्पावकादिवत् ।
$ ११७. स्यान्मतम् - प्रतिनियत देशकाल सहकारिकारणक्रमापेक्षया कार्यक्रमहेतुत्वं महेश्वरस्येव तद्विज्ञानस्यापि न विरुद्ध्यते इति; तदप्यशक्यनिष्ठम्; सहकारिकारणेषु क्रमवत्सु सत्सु तन्वादिकार्याणां प्रादुर्भवतां
और अन्वयके सन्देह होनेका प्रतिपादन किया जा चुका है । उसी प्रतिपादन से व्यापक नित्य ईश्वरज्ञानमें भी उक्त दोष समझना चाहिये और इसलिये वह भी शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण नहीं हो सकता है, क्योंकि जिस प्रकार ईश्वर सर्वगत और नित्य है और इसलिये उसके व्यतिरेक के अभावका निश्चय है और केवल अन्वय अन्य आत्माओंकी तरह उसके अनिश्चत है – सन्देहापन्न है । दूसरी बात यह है कि ईश्वरज्ञान जब नित्य और व्यापक है तो उसके होनेपर समस्त कार्य एक-साथ उत्पन्न हो जाना चाहिये और तब कभी भी वह कार्योंका क्रमशः जनक नहीं हो सकता है । कारण उसके व्यापक और नित्य होनेसे कालकृत और देशकृत दोनों ही तरहका क्रम नहीं बन सकता है और स्वयं भी सर्वथा क्रमरहित है । यदि उसे क्रमवान् माना जाय तो वह नित्य और सर्वगत नहीं हो सकता है। जैसे अग्नि आदिक क्रमवान् - अनित्य और एकदेशीहोनेसे नित्य और सर्वगत नहीं हैं क्योंकि उनमें विरोध है ।
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$ १७. वैशेषिक - तत्तत् देश और काल में प्राप्त होनेवाले सहकारी कारणों के क्रमको अपेक्षा से महेश्वर की तरह महेश्वरज्ञानके भी कार्योंकी उत्पत्ति में क्रमसे कारण होना बन जाता है— कोई विरोध नहीं है । मतलब यह कि महेश्वरज्ञान विभिन्न देशों और कालोंमें क्रमसे प्राप्त सहकारी कारणों की अपेक्षा से कार्यों के प्रति क्रमसे जनक हो जाता है और इसलिये उपरोक्त दोष नहीं है ?
जैन - आपका यह कथन भी प्रतिष्ठायोग्य नहीं है, क्योंकि इस तरह
1. व 'सर्वथा स्वयमक्रमात् ।
2. मु ' क्रममापेक्ष्य' ।
3. मु स प 'महेश्वरस्य च' ।
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