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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३२ विशेषाद्धर्मस्यादृष्टविशेषस्योत्पादात्ततो बुद्धिविशेषस्य प्रादुर्भावाददृष्टसन्ताननिबन्धनाया एव बुद्धिसन्ततेरभ्युपगमादिति मतम् तदाऽपि कथमीश्वरस्य सकर्मता न सिद्ध्येत् । तत्सिद्धौ च सशरीरताऽपि कथमस्य न स्यात ? तस्यां च सत्यां न सदा मुक्तिस्तस्य सिद्ध्येत् । सदेहमुक्तेः' सदा सिद्धौ तदेहेन च कार्यत्वादेः साधनस्य तन्वादेबुद्धिमत्कारणत्वे साध्ये कथमनैकान्तिकता परिहत्तुं शक्यते ?, तस्य बुद्धिमत्कारणत्वासम्भवात् । सम्भवे चानवस्थानुषङ्गादिति प्रागेवोक्तम् ।। [ अधुना व्यापित्वाव्यापित्वाभ्यां तदीश्वरज्ञानं दूषयन्
व्यापित्वपक्षं दूषयति ] $ १००. किञ्च, इदं विचार्यते-किमीश्वरज्ञानमव्यापि, किं वा व्यापीति प्रथमपक्षे दूषणमाह
अव्यापि च यदि ज्ञानमीश्वरस्य तदा कथम् ।
सकृत्सर्वत्र कार्याणामुत्पत्तिर्घटते ततः ॥३२॥ सन्तानका सद्भाव मानते हैं और इसलिये यह दोष नहीं है क्योंकि पूर्व समाधिविशेषसे अदृष्टविशेषरूप धर्म उत्पन्न होता है और उससे बुद्धिविशेषकी उत्पत्ति होती है । अतएव ईश्वरके हमने अदृष्टसन्ताननिमित्तक बुद्धिसन्तान स्वीकार को है' तो इस प्रकार स्वीकार करने में भी ईश्वरके सकर्मता कैसे सिद्ध न होगी? और सकर्मता सिद्ध होनेपर उसके सशरीरीपन भी क्यों नहीं आयेगा ? और इस प्रकार सशरीरीपन आनेपर वह फिर सदामुक्त कैसे सिद्ध हो सकेगा ? तथा यदि सशरीरमुक्ति सदा सिद्ध हो तो ईश्वरशरीरके साथ कार्यत्व आदि हेतु शरीरादिकार्यको बुद्धिमान्कारणजन्य सिद्ध करने में अनैकान्तिक हेत्वाभास होनेसे कैसे बच सकेंगे ? क्याकि वह बुद्धिमान्कारणजन्य नहीं है। यदि है तो अनवस्था दोषका प्रसङ्ग आयेगा, वह पहले ही कहा जा चुका है। __ १००. अब ईश्वरज्ञानमें और भी जो दोष आते हैं उनपर विचार करते हैं-बतलाइये ईश्वरज्ञान अव्यापक है अथवा व्यापक ? प्रथम पक्षमें दूषण कहते हैं :
'यदि ईश्वरका ज्ञान अव्यापक है तो उससे सब जगह, एक साथ १. जीवन्मुक्तेः। २. नित्यत्वे । ३. जीवन्मुक्तदेहेन ।
1. मु 'शक्या' पाठः।
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