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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३५ $ १०२. स्यान्मतम्-प्रदेशतिनाऽपि ज्ञानेन महेश्वरस्य युगपत्समस्तकारकपरिच्छेदसिद्धेः सर्वकार्योत्पत्तौ युगपत्सकलकारकप्रयोक्तृत्वव्यवस्थितेः, निखिलतन्वादिकार्याणां बुद्धिमन्निमित्तत्वोपपत्ते!क्तदोषः1 प्रसज्यत इति तदप्यसम्यक; क्रमेणानेकतन्वादिकार्यजन्मनि तस्य निमित्तकारणत्वायोगात्। ज्ञानं हीश्वरस्य यद्येकत्र प्रदेशे वर्तमान समस्तकारकशक्तिसाक्षात्करणात्समस्तकारकप्रयोक्तत्वसाधनात्सर्वत्र परम्परया कार्यकारीष्यते तदा युगपत्सर्वकार्याणां सर्वत्र कि न समुद्भवः प्रसज्येत', यतो महेश्वरस्य प्राक् पश्चाच्च कार्योत्पत्तौ निमित्तकारणत्वाभावो न सिद्ध्येत्, समर्थेऽपि सति निमित्तकारणे कार्यानुत्पादविरोधात्। होनेवाले कार्योंके साथ उक्त हेतु व्यभिचारी हैं । अतः कार्यों के बुद्धिमाननिमित्तकारणजन्यता असिद्ध है।
$ १०२. वैशेषिक-यद्यपि ईश्वरज्ञान एकप्रदेशवर्ती है तथापि महेश्वर उसके द्वारा एक-साथ समस्त कारकोंका ज्ञान कर लेता है । अतः समस्त कार्योंकी उत्पत्तिमें एक-साथ सब कारकोंका वह प्रयोक्ता बन जाता है और इसलिए समग्र शरीरादिक कार्य बुद्धिमान् निमित्तकारणजन्य सिद्ध हैं । अतएव उपयुक्त दोष नहीं आता ? ___ जैन-आपका यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्रमसे अनेक शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्तिमें वह निमित्तकारण नहीं बन सकता है। कारण, ईश्वरका ज्ञान यदि एकदेशमें रहकर समस्त कारकोंकी शक्तिका साक्षात्कार कर लेता है और इसलिए उसे समस्त कारकोंका प्रयोक्ता सिद्ध होनेसे सब जगह परम्परासे कार्यकारी कहा जाता है तो एक-साथ समस्त कार्योंकी सब जगह उत्पत्ति क्यों न हो जाय ? जिससे महेश्वरके पहले और पीछे निमित्तकारणताका अभाव सिद्ध न हो और यह सम्भव नहीं है कि समर्थनिमित्तकारणके रहनेपर भी कार्योका उत्पाद न हो । तात्पर्य यह कि ईश्वरज्ञानको यदि शरीरादिकका निमित्तकारण माना जाय तो एकसमयमें ही विभिन्न कालिक और विभिन्न दैशिक कार्य एकसाथ ही उत्पन्न हो जाना चाहिये, क्योंकि वह पूर्णतः समर्थ माना जाता है परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता, अतः वह निमित्तकारण नहीं है ।
1. स प मु ‘दोषाऽनुप्रसज्यते' पाठः । 2. मु स प 'प्रसज्यते' ।
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