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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका २७ दिहेदमिति प्रत्ययविशेषो न पुनरन्यत्रेति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रयः । सतीहेदमिति प्रत्ययविशेषेऽतिशयानामीश्वरज्ञान एव समवायः सिद्ध्येत् तत्रैव च तेषां समवायात् [ इति सति ] इहेदमिति प्रत्ययविशेषो नियम्यते, इति नैकस्यापि प्रसिद्धिः। भवतु वा तेषां तत्र समवायः, स तु क्रमेण युगपद्वा? क्रमेण चेत्, कथमक्रममीश्वरज्ञानं क्रमभाव्य नेकातिशयसमवायं क्रमेण प्रतिपद्यते ? इति दुरवबोधम् । क्रमत्तिभिरतिशयान्तरैरीश्वरज्ञानस्य क्रमवत्त्वसिद्धरदोषोऽयमिति चेत्, ननु तान्यप्यन्यान्यतिशयान्तराणीश्वरज्ञानादर्थान्तरभूतानि कथं तस्य क्रमवत्त्वं साधयेयुः ? अतिप्रसंगात् । तेषां तत्र समवायादिति चेत्, स तहि तत्समवायः क्रमेण युगपद्वेत्यनिवृत्तः पर्य्यनुयोगोऽनवस्था च । यदि पुनर्युगपदीश्वरज्ञानेऽति
ईश्वरज्ञानमें हो उनका समवाय होनेसे वहीं 'इहेदं' प्रत्ययविशेष उत्पन्न होता है, अन्यत्र उनका समवाय न होनेसे वहाँ ‘इहेदं' प्रत्ययविशेष उत्पन्न नहीं होता, तो यह अन्योन्याश्रय (परस्पराश्रय ) नामका दोष है। 'इहेदं' प्रत्ययविशेषके उपपन्न हो जानेपर अतिशयोंका ईश्वरज्ञानमें ही समवाय सिद्ध हो और ईश्वरज्ञानमें ही अतिशयोंका समवाय है, इसके सिद्ध होनेपर 'इहेदं' प्रत्ययविशेषका नियम सिद्ध हो, इस तरह एककी भी सिद्धि सम्भव नहीं है। और यदि हम थोड़ी देरको यह मान भी लें कि ईश्वर ज्ञानमें ही अतिशयोंका समवाय है तो यह बतलायें कि वे अतिशय ईश्वरज्ञानमें क्रमसे समवेत होते हैं अथवा एक-साथ ? यदि क्रमसे कहें तो अक्रम-क्रमसे रहित (नित्य ) ईश्वरज्ञान क्रमभावी अनेक अतिशयोंके समवायको क्रमसे कैसे प्राप्त हो सकता है ? यह समझमें नहीं आता । अगर कहें कि क्रमवर्ती अन्य अतिशयोंसे ईश्वरज्ञानमें क्रमपना आ जाता है, इसलिए कोई दोष नहीं है तो हम पूछते हैं कि वे अन्य अतिशय भी, जो कि ईश्वरज्ञानसे सर्वथा भिन्न हैं, ईश्वरज्ञान के क्रमपना कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? अन्यथा अतिप्रसंग दोष आयगा। यदि कहें कि उन अन्य अतिशयोंका ईश्वरज्ञानमें समवाय है तो यह स्पष्ट करें कि वह समवाय क्रमसे होगा या एक-साथ ? यह हमारा प्रश्न ज्यों-का-त्यों खड़ा है और अनवस्था बनी हुई है। यदि माना जाय कि एक-साथ ईश्वरज्ञानमें अतिशयोंका समवाय होता है तो अतिशयोंको लेकर जो ईश्वरज्ञानमें क्रम
1. मु 'च' नास्ति । 2. मु स 'वत्ता' पाठः ।
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