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कारिका २७ ]
ईश्वर - परीक्षा
क्षस्य च क्रमस्यासम्भवात् । सन्तानस्याप्यवस्तुत्वात्परमार्थतः क्रमवत्त्वानुपपत्तेः कूटस्थनित्यत्रत् । न हि यथा सांख्याः कूटस्थं पुरुषमामनन्ति तथा वयमीश्वरज्ञानं मन्यामहि, तस्य सातिशयनित्यत्वात्क्रमोपपत्तेः । निरतिशयं हि पुरुषतत्त्वं प्रतिसमयं स्वरूपेणैवास्तोति शब्दज्ञानानुपातिना विकल्पेन वस्तुशुन्येन पूर्वमासीदिदानीमस्ति पश्चाद्भविष्यतीति क्रमवदिव लोकैर्व्यवहारपदवीमानीयते इति न परमार्थतः क्रमवत्त्वं तस्य सांख्यैरभिधोयते । न च क्रमेणानेककार्यकारित्वं तस्याकर्तृत्वात्सदोदासीनताऽवस्थितत्वात् । न च क्रमेणाक्रमेण चार्थक्रियाऽपाये तस्यावस्तुत्वमिति केषाञ्चिदूषणमवकाशं लभते, वस्तुनोऽर्थक्रियाकारित्वलक्षणाप्रतिष्ठानात्, अन्यथोदासीनस्य किञ्चिदकुर्वतो वस्तुत्वाभावप्रसङ्गात् । सत्ताया एव वस्तुलक्षणत्वोपपत्तेरभावस्यापि वस्त्वन्तरस्वभावस्य पुरुष
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काल और एक देशसे दूसरे देश में प्राप्ति सम्भव न होनेसे काल और देशकी अपेक्षा से होनेवाला दोनों ही प्रकारका क्रम ( देशक्रम और कालक्रम ) असम्भव है । सन्तानकी अपेक्षासे भी निरन्वय क्षणिकमें वास्तविक क्रम अनुपपन्न है क्योंकि वह अवस्तु है— वस्तु नहीं है, जैसे कूटस्थ नित्य । जिस प्रकार सांख्य पुरुष ( आत्मा ) को कूटस्थ - सर्वथा अपरिणामी नित्य - मानते हैं और इसलिये उसमें भी क्रम अनुपपन्न है उस प्रकार हम ईश्वरके ज्ञानको नहीं मानते, क्योंकि वह सातिशय नित्य - परिणामी नित्य माना गया है । और इसलिये उसमें क्रम बन जाता है । वास्तव में अपरिणामी पुरुष हर समय 'स्वरूपसे - ही है' इस प्रकारके शब्द और ज्ञानसे उत्पन्न हुये अवस्तुभूत विकल्पके द्वारा वह 'पहले था', 'इस समय है', 'पीछे होगा' इस तरहसे क्रमवान्की तरह लोगोंद्वारा व्यवहारित ( व्यवहारको प्राप्त ) कराया जाता है और इसलिये उसके सांख्य वास्तविक क्रम नहीं बतलाते हैं । दूसरी बात यह है कि उसके क्रमसे अनेक कार्योंका कारकपना है भी नहीं क्योंकि वह अकर्ता है - प्रकृतिको ही उन्होंने कर्त्री स्वीकार किया है और इसलिये वह सदा उदासीन रूपसे स्थित रहता है । पुरुषमें यद्यपि क्रम या अक्रम दोनों ही प्रकारसे अर्थक्रियाका अभाव है फिर भी उसमें अवस्तुपनेका दूषण नहीं आ सकता है क्योंकि अर्थक्रियाकारित्व- अर्थक्रियाको करना वस्तुका लक्षण नहीं है, अन्यथा जो उदासीन है— कुछ नहीं कर रहा है वह वस्तु नहीं हो सकेगा - अवस्तु हो जायगा । अतः सत्ता ( अस्तित्व ) को ही वस्तुका लक्षण मानना सर्वथा उचित है अर्थात् जो है उसीको वस्तु कहते हैं चाहे वह कुछ करे, चाहे न करे - केवल विद्यमानता ही वस्तुका
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