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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
[ कारिका १२
स्वभावत्वं दुर्निवारम्, कायादिकार्योत्पत्तौ तत्सहकारित्वसिद्धेरिति सर्वमसमञ्जसमासज्येत, नानास्वभावैकेश्वरतत्त्वसिद्धेः । तथा च परमब्रह्मेश्वर इति नाममात्र भिद्य ेत् परमब्रह्मण एवैकस्य नानास्वभावस्य व्यवस्थितेः ।
$ ७५. स्थान्मतम् - कथमेकं ब्रह्म नानास्वभावयोगि भावान्तराभावे भवेत् भावान्तराणामेव प्रत्यासत्तिविशिष्टानां स्वभावत्वात् ? इति; • तदप्यपेशलम् ; भावान्तराणां स्वभावत्वे कस्यचिदेकेन स्वभावेन प्रत्यासत्तिविशेषेण प्रतिज्ञायमाने नानात्वविरोधात् । प्रत्यासत्तिविशेषैर्नानास्वभावैस्तेषां स्वभावत्वान्नानात्वे तेऽपि प्रत्यासत्तिविशेषाः स्वभावास्तद्वतोऽपरैः प्रत्यासत्तिविशेषाख्यैः स्वभावैर्भवेयुरित्यनवस्थाप्रसंगात् । सुदूरमपि
महेश्वरके स्वभाव हो जायँगेः क्योंकि वे सब भी शरीरादिककार्यों की उत्पत्ति में महेश्वरेच्छा अथवा महेश्वरके सहकारीकारण हैं और इस तरह सब अव्यवस्थित ( गड़बड़ ) हो जायगा । कारण, नानास्वभावोंवाला एक ईश्वरतत्त्व ही सिद्ध होगा । तात्पर्य यह कि जो विभिन्न स्वभावोंको लिये हुए विभिन्न पदार्थ उपलब्ध हो रहे हैं वे कोई भी नहीं बन सकेंगे और ऐसी दशा में वेदान्तियोंके परमब्रह्म और आपके ईश्वरमें नाममात्रका भेद रहेगा, क्योंकि वेदान्ती भी नानास्वभावोंसे युक्त एक परमब्रह्मकी सिद्धि करते हैं ।
१७५ वैशेषिक – वेदान्तियोंके यहाँ ब्रह्मसे अतिरिक्त कोई पदार्था - अन्तर- दूसरा पदार्थ ही नहीं है, अतएव एक परमब्रह्म नानास्वभावों से युक्त कैसे हो सकता है, क्योंकि सम्बन्धविशेषसे सम्बद्ध पदार्थान्तरों को ही हमारे यहाँ स्वभाव कहा गया है ?
जैन - यह भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि पदार्थान्तरोंको आप किसीका स्वभाव सम्बन्धविशेषरूप एक स्वभावसे स्वीकार करेंगे और उस हालत में पदार्थान्तरों में नानापना नहीं रहेगा - वे सब एक हो जायेंगे ।
वैशेषिक - अनेक सम्बन्धविशेषरूप नानास्वभावोंसे पदार्थान्तर स्वभाव हैं और इसलिए उनमें नानापना बन जाता है उसमें कोई विरोध नहीं
है ।
जैन - तो फिर वे सम्बन्धविशेषरूप स्वभाव अन्य सम्बन्धविशेषरूप स्वभावोंसे अपने स्वभाववान् के स्वभाव कहे जायेंगे और इस तरह अन
द्विधा भवतीति भावः । एतदुभयकारणभिन्नं यत्कारणं तन्निमित्तकारणम्, यथा पटस्य तुरीवेमादि, घटस्य च दण्डचक्रादिकमिति ।
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