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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १३ $ ७९. न हि कश्चित्कस्यचित्कार्यस्योत्पत्तौ ज्ञानशक्त्यैव प्रभुरुपलब्धो यतो 'विवादाध्यासितः पुरुषो ज्ञानशक्त्यैव सर्वकार्याण्युत्पादयति प्रभुत्वात्' इत्यनुमानमनुदाहरणं न भवेत् ।
$ ८०. ननु साधोदाहरणाभावेऽपि वैधर्योदाहरणसम्भवान्नानुदा. हरणमिदमनुमानम्। तथा हि 'यस्तु ज्ञानशक्त्यैव न कार्यमुत्पादयति स न प्रभुः यथा संसारी कर्मपरतन्त्रः' इति वैधhण निदर्शनं सम्भवत्येवेति न मन्तव्यम्; साधर्योदाहरणविरहेऽन्वयनिर्णयाभावाद्व्यतिरेकनिर्णस्य विरोधात्। तथा शनादेर्शानेच्छाप्रयत्नविशेषः स्वकार्य कुर्वतः प्रभुत्वेन व्यभिचाराच्च । न हीन्द्रो ज्ञानशक्त्यैव स्वकार्यं कुरुते, तस्येच्छाप्रयत्नयोरपि भावात् । न चास्य प्रभुत्वमसिद्धम्, प्रभुत्वसामान्यस्य सकलामरविषयस्य स्वातन्त्र्यलक्षणस्यापि सद्भावात् ।
७९. निस्सन्देह कोई भी व्यक्ति किसी कार्यको ज्ञानशक्तिके द्वारा ही उत्पन्न करता हआ उपलब्ध नहीं है जिससे 'विचारणीय पुरुष ज्ञानशक्तिसे ही समस्त कार्योंको उत्पन्न करता है क्योंकि प्रभु है-समर्थ है' यह अनुमान उदाहरणहीन न होता। अपितु वह उदाहरणहीन है हो ।
$८०. वैशेषिक-यद्यपि उक्त अनुमानमें साधर्म्य उदाहरण नहीं है लेकिन वैधर्म्य उदाहरण मिल सकता है। अतः अनुमान उदाहरणहीन नहीं है। वह इसप्रकारसे है-'जो ज्ञानशक्तिसे ही कार्य उत्पन्न नहीं करता वह प्रभु–सामर्थ्यवान् नहीं है, जैसे 'कर्माधीन संसारी' यह वैधर्म्य उदाहरण सम्भव है ?
जैन-उक्त मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि साधर्म्य उदाहरणके बिना अन्वयव्याप्तिका निश्चय नहीं हो सकता और अन्वयव्याप्तिका निश्चय हुए बिना व्यतिरेकव्याप्तिका भी निर्णय नहीं हो सकता। अतः व्यतिरेकव्याप्तिके निश्चयके बिना उक्त वैधयं उदाहरण कुछ भी कार्यसाधक नहीं है। दूसरी बात यह है कि इन्द्रादिकप्रभु ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न इन तीनोंके द्वारा ही अपने कार्योको करते हुए देखे जाते हैं अतः उक्त हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास है। इन्द्र केवल ज्ञानशक्तिसे ही अपने कार्यको करता है, यह तो कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि उसके इच्छा और प्रयत्न भी मौजूद हैं । और प्रभुपना भी उसके असिद्ध नहीं है क्योंकि सभी देवोंमें पाया जानेवाला स्वतन्त्रपना ( स्वातव्य ) रूप प्रभुपना भी उसके विद्यमान है। अतः सिद्ध है कि उक्त अनुमान उदाहरणरहित है ।
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