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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १२ भावो विरुद्ध्यते । यदि पुनः प्रत्ययविशेषादिकार्यभेदाद्रव्यगुणादिपदार्थनानात्वं व्यवस्थाप्यते तदा महेश्वरेच्छायाः सकृदनेकप्राण्युपभोगयोग्यकायादिकार्यनानात्वान्नानास्वभावत्वं कथमिव न सिद्ध्येत् ।
७४. यदि पुनरीश्वरेच्छाया नानासहकारिण एव नानास्वभावाः, तव्यतिरेकेण भावस्य स्वभावा योगादिति मतम्, तदा स्वभावतद्वतोभँदैकान्ताभ्युपगम: स्यात्।तस्मिश्च स्वभावत[]द्धावविरोध. सद्यविन्ध्यवदापनीपद्येत । प्रत्यासत्तिविशेषान्नैवमिति चेत्; कः पुनरसौ प्रत्यासत्तिसे युक्त एक द्रव्यपदार्थ माना जा सकता है और उसमें कोई विरोध नहीं आ सकता। यदि प्रत्ययविशेष आदि कार्योंके भेदसे द्रव्य, गुणादिक पदार्थों को नाना सिद्ध करें तो एक-साथ अनेक जीवोंके उपभोगमें आनेवाले शरीरादिक कार्योंके भी नाना होनेसे महेश्वरकी इच्छा भो नानास्वभाववाली क्यों सिद्ध न हो जायगी ? अपितु हो जायगी ।
७४. अगर कहें कि 'ईश्वरेच्छाके नाना सहकारी हैं वे ही उसके नाना स्वभाव हैं, उनके अतिरिक्त पदार्थका और कोई स्वभाव नहीं है, तो स्वभाव और स्वभाववान्में सर्वथा भेद स्वीकार कर लिया जान पड़ता है और उसके स्वीकार करनेपर उनमें स्वभाव और स्वभाववान्का व्यवहार नहीं बन सकेगा, जैसे सह्याचल और विन्ध्याचल में स्वभाव और स्वभाववान्का व्यवहार नहीं है।
वैशेषिक-बात यह है कि महेश्वरेच्छा और सहकारियोंमें सम्बन्धविशेष है । अतः उससे उनमें स्वभाव और स्वभाववान्का व्यवहार बन जायगा, किन्तु सह्याचल एवं विन्ध्याचलमें वह सम्बन्धविशेष नहीं है, इसलिये उनमें स्वभाव और स्वभाववान्का व्यवहार नहीं माना जाता ?
जैन-अच्छा तो यह बतलायें, वह सम्बन्धविशेष कौन-सा है ?
वैशेषिक-सुनिये, हम बतलाते हैं-महेश्वरेच्छाके जो सहकारी कारण हैं वे तीन प्रकारके हैं-१. समवायिकारण, २. असमवायिकारण और ३. निमित्तकारण। इनमें जो समवायिकारणरूप सहकारी कारण है उसका तो महेश्वरेच्छा के साथ समवायसम्बन्ध है क्योंकि महेश्वरेच्छा १. सहकारिव्यतिरेकेण । २. पदार्थस्य। ३. नानास्वभावायोगात् । ४. स्वभाव-स्वभाववद्भावविरोधः ।
1. द ‘भ्युपगतः'।
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