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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
[ कारिका १२
दोषः, सत्यामीश्वरेच्छाभिव्यक्तौ प्राणिनामदृष्टं सति च तददृष्टे महेश्वरेच्छाभिव्यक्तिरिति ।
$ ७३. स्यान्मतम् - प्राणिनामदृष्टं पूर्वेश्वरेच्छानिमित्तकं तदभिव्यक्तिश्च तत्पूर्व प्राण्यदृष्टनिमित्तात्तदपि तददृष्टं पूर्वेश्वरेच्छानिमित्तकमित्यनादिरियं कार्यकारणभावेन प्राणिगणा दृष्टेश्वरेच्छाभिव्यक्त्योः सन्ततिस्ततो न परस्पराश्रयो दोषो" बीजाङ्करसन्ततिवदिति; तदनुपपन्नम्; एकानेकप्राण्यदृष्टनिमित्तत्वविकल्पद्वयानतिक्रमात् । सा हीश्वरेच्छाभिव्यक्तिकप्राण्यदृष्टनिमित्ता तदा तद्भोग्यकायादिकार्योत्पत्तावेव निमित्तं स्यात् न सकलप्राण्युपभोग्यकायादिकार्योत्पत्तौ तथा च सकृदनेक प्राण्युपभोग्य कायादिकार्योपलब्धिर्न स्यात् । यदि पुनरनेकप्राण्यदृष्टनिमित्ता तदा तस्या' कारणसे ? पहले पक्ष में अन्योन्याश्रय दोष है । वह इस प्रकार से हैं— जब महेश्वरको इच्छाकी अभिव्यक्ति हो जाय तब प्राणियोंका अदृष्ट उत्पन्न हो और जब प्राणियोंका अदृष्ट उत्पन्न हो जाय तब महेश्वरकी इच्छा की अभिव्यक्ति हो, इस तरह दोनों एक-दूसरे के आश्रित होनेसे किसी एककी भी सिद्धि नहीं हो सकेगी ।
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$ ७३. शङ्का - प्राणियोंका अदृष्ट पूर्व ईश्वरेच्छा से उत्पन्न होता है और उस ईश्वरेच्छाकी अभिव्यक्ति उससे पूर्ववर्ती प्राणियोंके अदृष्टसे होतो है तथा वह भी अदृष्ट पूर्व ईश्वरेच्छासे उत्पन्न होता है, इस प्रकार प्राणियों के अदृष्ट और ईश्वरेच्छाकी अभिव्यक्तिकी कार्यकारणभावरूप अनादि संतति - परम्परा है, जैसे बीज और अंकुरकी परम्परा । अतः उपर्युक्त अन्योन्याश्रय दोष नहीं है ?
समाधान - यह भी युक्ति युक्त नहीं है; क्योंकि उसमें दो विकल्प पैदा होते हैं - वह महेश्वरेच्छा एक प्राणीके अदृष्टसे अभिव्यक्त होती है या अनेक प्राणियोंके अदृष्टसे ? यदि वह महेश्वरेच्छा एक प्राणी के अदृष्टसे अभिव्यक्त होती है तो उस प्राणीके भोगने में आनेवाले शरीरादिक कार्यों की उत्पत्ति में ही महेश्वरेच्छा कारण हो सकेगी, समस्त प्राणियोंके उपभोग में आनेवाले शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्ति में नहीं, और ऐसी हालत में एक-साथ अनेक प्राणियों के उपभोग योग्य शरीरादिक कार्योंकी उपलब्धि नहीं हो सकेगी । अगर वह महेश्वरेच्छा अनेक प्राणियों के अदृष्टसे अभिव्यक्त
1. द 'मित्तम्' ।
2. मु 'परस्पराश्रयदोषो' ।
१. ईश्वरेच्छायाः ।
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