________________ कारिका 12] ईश्वर-परीक्षा सम्भवति, 'सोपायमुक्तस्येच्छाऽपायात् / न च तद्वदीश्वरस्य तदसम्भव इति मतम्; तदा सा महेश्वरेच्छाशक्तिरभिव्यक्ताऽनभिव्यक्ता वा ? न तावदभिव्यक्ता, "तदभिव्यञ्जकाभावात् / तज्ज्ञानमेव तदभिव्यञ्जकमिति चेत्, न; तस्य शश्वत्सद्वावादीश्वरस्य सदेच्छाभिव्यक्तिप्रसङ्गात् / न चैवम, तस्याः४ कादाचित्कत्वात" / अन्यथा “वर्षशतान्ते वर्षशतान्ते महेश्वरेच्छोत्पद्यते" [ ] इति सिद्धान्तविरोधात / यदि पुनस्तन्वाद्य पभोक्तप्राणिगणाऽदष्टं तदभिव्यञ्जकमिति मतिः, तदा तददृष्टमीश्वरेच्छानिमित्तकमन्यनिमित्तकं वा ? प्रथमपक्षे परस्पराश्रय हैं उनके इच्छाका अभाव है, न कि उनकी तरह ईश्वरके उस इच्छाका अभाव सम्भवित है, तो हम पूछते हैं कि वह महेश्वरकी इच्छाशक्ति अभिव्यक्त (प्रकट) है या अनभिरक्त (अप्रकट) ? अभिव्यक्त तो वह बन नहीं सकती; क्योंकि उसे अभिव्यक्त करनेवाला नहीं है / महेश्वरका जो ज्ञान है वही उसका अभिव्यञ्जक है, यह कहें तो वह ठीक नहीं, क्यों कि महेश्वरका ज्ञान सदैव विद्यमान रहनेसे उसकी इच्छा भी सदैव अभिव्यक्त रहेगी, लेकिन ऐसा नहीं है-महेश्वरकी इच्छा सदैव अभिव्यक्त स्वीकार नहीं की गई है क्योंकि वह जब कभी होती है। अन्यथा "सौ-सौ वर्षके अन्तमें महेश्वरकी इच्छा उत्पन्न होती है" इस सिद्धान्तका विरोध आएगा। यदि शरीरादिकको भोगनेवाले प्राणियोंका अदृष्ट ( पुण्य और पाप ) उस इच्छाका अभिव्यञ्जक है, यह मानें तो वह अदृष्ट किससे उत्पन्न होता है ? ईश्वरकी इच्छारूप निमित्तकारणसे अथवा किसी अन्य निमित्त 1. सोपायमुक्तवत् / 2. इच्छाया अभावः / 3. महेश्वरज्ञानस्य / 4. ईश्वरेच्छायाः। 5. अनित्यत्वात् / 6. कादाचित्कत्वाभावे / 1. द 'निमुक्तस्य। 2. द 'च' नास्ति / 3. व 'अभि'। 4. व स 'ज्ञानमेव' / 5. व 'भावा' / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org