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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
अनन्तवीर्यने अपने पूर्वज अकलङ्कदेव ( लघीय० का ० ५ तथा वृत्ति' ) का अनुसरण करते हुए धारणाका लक्षण यह बतलाया है कि जो ज्ञान स्मृतिमें कारण होता है वह धारणा है, इसी धारणाको संस्कार कहते हैं और इस तरह उन्होंने अकलङ्ककी तरह धारणा और संस्कारको पर्यायवाची शब्द बतलाया है । इसपर वादि देवसूरिने यह आपत्तिकी है कि धारणाको स्मृतिका कारण साक्षात् बतलाते हैं अथवा परम्परा ? परम्परा कारण बतलाने में कोई दोष नहीं है। किंतु साक्षात् कारण बतलाने में दोष है वह यह कि धारणा प्रत्यक्षरूप ज्ञान है और इसलिये वह स्मृतिकाल तक नहीं ठहर सकता है - वह वस्तुनिर्णय के बाद तुरन्त नष्ट हो जाता है । अतः धारणारूप पर्याय से परिणत आत्माकी शक्तिविशेष हो, जिसका दूसरा नाम संस्कार है, स्मृतिका साक्षात् कारण है, धारणा नहीं । परन्तु उनकी यह आपत्ति कुछ समझ में नहीं आती; क्योंकि जब वे यह स्वीकार करते हैं कि धारणपर्यायसे परिणत आत्माकी शक्तिविशेष संस्का
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संज्ञक स्मृतिका साक्षात् कारण है तव वे स्वयं भी उस आपत्ति से मुक्त नहीं रहते । आत्माकी जिस शक्तिविशेषको स्मृतिका कारण मानकर उस आपत्तिका वे परिहार करते हैं उस ( शक्तिविशेष ) का वे संस्कार और धारणा इन शब्दोंद्वारा ही कथन करते हैं, इसके अलावा वे उसका कोई निर्वचन नहीं कर सके । इस द्राविडी प्राणायामसे तो यही ठोक और
इत्यत्र संस्कारशब्देन धारणामेवाभ्यधात् । महोदये च ' कालान्तरा विस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कार प्रतीयते' इति वदन् संस्कारधारणयोकार्थ्यमचकथत् । अनन्तवीर्योऽपि तथानिर्णीतस्य कालान्तरे तथैव स्मरणहेतु संस्कारो धारणा इति तदेवावदत् । "किमेवं वदतोरनयोर्यः स्मृतिकालानुयायी धर्मविशेषः संस्कार इति सर्ववादिनामविवादेन सिद्धः स धारणात्वेन सम्मतः । तथा चेत्, तहि यस्य पदार्थस्य कालान्तरे स्मृतिस्सा प्रत्यक्षात्मिका धारणा तावत्कालं यावदनुवर्त्तते इति स्यात् । एतच्चानुपपन्नम् । एवं तर्हि यावत्पटपदार्थ संस्काररूपं प्रत्यक्षं पुरुष भवेत्तावत्पदार्थान्तरस्य संवेदनमेव न स्यात् । क्षायोपशमिकोपयोगानां युगपद्भावविरोधस्याभ्यामपि प्रतिपन्नत्वात् ।' 'तस्मादात्मशक्तिविशेष एव संस्कारापरपर्यायः स्मृतेरानन्तर्येण हेतुः न धारणा । पारम्पर्येण तु तस्यास्तद्धेतुताभिधाने न किंचिदूषणम् । ' - स्या० रत्ना० पृ० ३४९-३५० ।
१. “ धारणा स्मृतिहेतुस्तन्मतिज्ञानं चतविधम् । स्मृतिहेतुर्धारणा संस्कार इति यावत्" -- अकलंकग्र० पृ० २, ३ ॥
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