________________
५४
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९ तदेवं कार्यत्वं' हेतुस्तनुकरणभुवनादेबुद्धिमन्निमित्त[क] त्वं साधयत्येव सकलदोषरहितत्वादिति वैशेषिकाः समभ्यमंसत ।
[ ईश्वरस्य जगत्कर्तृत्वनिरासे उत्तरपक्षः ] ५८. तेऽपि न समञ्जसवाचः; 'तनुकरणभुवनादयो बुद्धिमन्निमित्तकाः' इति पक्षस्य व्यापकानुपलम्भेन बाधितत्वात् कार्यत्वादिति हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वाच्च । तथा हि-तन्वादयो न बुद्धिमन्निमित्तकास्तदन्वयव्यतिरेकानुपलम्भात् । यत्र यदन्वयव्यतिरेकानुपलम्भस्तत्र न तन्निमित्तकत्वं दृष्टम्, यथा घटघटीशरावोदञ्चनादिषु कुबिन्दाद्यन्वयसाहचर्यसे विशिष्ट एक पुरुषके द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं और इसलिए उक्त उदाहरण साध्यशून्य हो जायगा।
इस प्रकार 'कार्यत्व' हेतु शरीर, इन्द्रिय, जगत् आदिको ईश्वररूप बुद्धिमान् निमित्तकारणजन्य अवश्य सिद्ध करता है क्योंकि वह समस्तदोषरहित है अर्थात् पूर्णतः निर्दोष है, ऐसा वैशेषिक मतानुयायी प्रतिपादन करते हैं ?
उपर्युक्त ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका सयुक्तिक निराकरण
$ ५८. परन्तु उनका वह प्रतिपादन समीचीन नहीं है। कारण, 'शरीर, इन्द्रिय, जगत् आदिक कार्य बुद्धिमान् निमित्तकारणजन्य हैं' यह पक्ष व्यपकानुपलम्भ-(शारीरादिक कार्यका बुद्धिमान् निमित्तकारणके साथ अन्वय-व्यतिरेकका अभाव) से बाधित है और इसलिए 'कार्यत्व' ( कार्यपना ) हेतु कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास है । वह इस प्रकार है
'शरीरादिक बुद्धिमान्निमित्तकारणजन्य नहीं हैं क्योंकि उनका उसके साथ अन्वय-व्यतिरेकका अभाव है। अर्थात् शरीरादिकका बुद्धिमान्निमित्तकारणके साथ अन्वय और व्यतिरेक नहीं है और अन्वय-व्यतिरेकके द्वारा ही कार्यकारणभाव सुप्रतीत होता है। जिसका जिसके साथ अन्वयव्यतिरेकका अभाव है वह उस जन्य नहीं होता देखा जाता है, जैसेजुलाहा आदिका अन्वय-व्यतिरेक न रखनेवाले घड़ा, छोटा घड़ा (चपिया या रेंटकी घड़ो ), सराव ( सकोरा ), उलीचना (पानीको निकालनेका मिट्टीका एक बर्तनविशेष ) वगैरह जुलाहा आदि निमित्तकारणजन्य नहीं
1. द प 'कार्यत्वहेतु'। 2. द 'समभ्यसंत', स 'समभ्यसमंत' । 3. मु 'ति' नास्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org