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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटोका [कारिका ९ ५९. स्यान्मतम्-महेश्वरसिसृक्षानिमित्तत्वात्तन्वादिकार्यस्यायमदोष इति; तदप्यसत्यम; तदिच्छाया नित्यानित्यविकल्पद्वयानतिवृत्तेः तस्या नित्यत्वे व्यतिरेकासिद्धिः, सर्वदा सद्भावात्तन्वादिकार्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । नन्वीश्वरेच्छाया नित्यत्वेऽपि असर्वगतत्वाद्ध्यतिरेकः सिद्ध एव, क्वचिन्महेश्वरसिसृक्षाऽपाये तन्वादिकार्यानुत्पत्तिसम्भवादिति चेत्; न; तदेशे व्यतिरेकाभावसिद्धः । देशान्तरे सर्वदा तदनुपपत्तेः कार्यानुदयप्रसंगात् । अन्यथा तदनित्यत्वापत्तेः। अनित्यैवेच्छाऽस्त्विति चेत्, सा तहि सिसक्षा महेश्वरस्योत्पद्यमाना सिसक्षान्तरपविका यदीष्यते तदाऽनवस्थाप्रसंगात परापरसिसक्षोत्पत्तावेव महेश्वरस्योपक्षीणशक्तिकत्वा
५९. यदि कहा जाय कि शरीरादिक कार्य ईश्वरकी सृष्टि-इच्छासे उत्पन्न होते हैं और इसलिए उसके साथ व्यतिरेक बन जायगा, अतः उक्त दोष नहीं है तो यह कथन भी संगत नहीं है, क्योंकि ईश्वरकी इच्छामें भी नित्य और अनित्यके दो विकल्प उठते हैं। अर्थात् ईश्वरकी वह इच्छा नित्य है अथवा अनित्य ? यदि नित्य है तो ईश्वरकी तरह उसकी इच्छाके साथ भी व्यतिरेक असिद्ध है-नहीं बनता है, क्योंकि उसका सदैव सद्भाव रहनेसे शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्ति होती रहेगी । अर्थात् किसी भी कालमें ईश्वरकी नित्य इच्छाका अभाव न हो सकनेसे उसके अभावसे शरीरादि कार्योंके अभावरूप व्यतिरेकका प्रदर्शन नहीं हो सकेगा। ___अगर कहो कि ईश्वरकी इच्छा नित्य होनेपर भी अव्यापक है । अतः कालव्यतिरेक न बननेपर भी देशव्यतिरेक बन जायगा, क्योंकि किसी देशमें महेश्वरकी सृष्टि-इच्छा न होनेपर शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्ति न होना सम्भव है तो यह कहना भी ठीक नहीं है। कारण, जहाँ ईश्वरकी सृष्टि-इच्छा मौजूद है वहाँ व्यतिरेकका अभाव सिद्ध है तथा दूसरे देशमेंजहाँ ईश्वरकी सृष्टि-इच्छा मौजूद नहीं है वहाँ-ईश्वरकी सृष्टि-इच्छाका हमेशा अभाव बने रहनेसे कभी भी शरीरादि कार्योंकी उत्पत्ति न हो सकेगी और अगर होगी तो ईश्वरकी सष्टि-इच्छाको सुतरां अनित्य मानना पड़ेगा, जोकि नित्य ईश्वरेच्छा माननेवालोंके लिये अनिष्ट है।
यदि ‘महेश्वरेच्छा अनित्य है' यह माना जाय तो वह महेश्वरकी इच्छा अन्य इच्छापूर्वक उत्पन्न होगी और ऐसी हालतमें अनवस्थादाष आवेगा । अर्थात् वह इच्छा भी अन्य पूर्व इच्छासे उत्पन्न होगी और वह
1. प 'स्ति। 2. स प मु 'प्रसंगः'।
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