________________
आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका पुरके जैन मन्दिरके लिये दान दिये जानेका उल्लेख है। यह श्रीपुरका जैनमन्दिर सम्भवतः वही प्रसिद्ध जैनमन्दिर है जहाँ भगवान् पार्श्वनाथकी अतिशयपूर्ण प्रतिमा अधर रहती थी और जिसे लक्ष्य करके हो विद्यानन्दने श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र रचा था। श्रीपुरुषका राज्य-समय ई० सन् ७२६ से ई० सन् ७७६ तक बतलाया जाता है। विद्यानन्दने अपनी रचनाओं में श्रीपुरुष राजा ( शिवमारके पिता एवं पूर्वाधिकारी) का उत्तरवर्ती राजाओं ( शिवमार द्वि०, उसके उत्तराधिकारी राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम और इसके पिता विजयादित्य ) की तरह कोई उल्लेख नहीं किया। इससे यह महत्त्वपूर्ण बात प्रकट होती है कि श्रीपुरुषके राज्य-काल (ई० सन् ७२६ ई. ७७६ ) में विद्यानन्द ग्रन्थकार नहीं बन सके होंगे और यदि यह भी कहा जाय कि वे उस समय कुमारावस्थाको भी नहीं प्राप्त हो सके होंगे तो कोई आश्चर्य नहीं है। अतः इन सब प्रमाणोसे आचार्य विद्यानन्दका समय ई० सन् ७७५ से ई० सन् ८४० निर्णीत होता है।
यहाँ यह शंकाकी जा सकती है कि जिस प्रकार हरिवंशपुराणकार जिनसेन द्वितीय ( ई० ७८३ ) ने अपने समकालीन वीरसेनस्वामी ( ई० ८१६ ) और जिनसेन स्वामी प्रथम ( ई० ८३७ ) का स्मरण किया है उसी प्रकार इन आचार्योंने अपने समकालीन आचार्य विद्यानन्द ( ई० ७७५-८४० ) का स्मरण अथवा उनके ग्रन्थवाक्योंका उल्लेख क्यों नहीं किया ? इसका उत्तर यह है इन आचार्योंकी वृद्धावस्थाके समय ही आ० विद्यानन्दका ग्रन्थ-रचनाकार्य प्रारम्भ हुआ जान पड़ता है और इसलिये विद्यानन्द उनके द्वारा स्मृत नहीं हुए और न उनके ग्रन्थवाक्योंके उन्होंने उल्लेख किये हैं। इसके अतिरिक्त एक-दूसरेकी कार्यप्रवृत्तिसे अपरिचित होना अथवा ग्रन्थकाररूपसे प्रसिद्ध न हो पाना भी अनुल्लेखमें कारण सम्भव है । अस्तु। (ज) आ० विद्यानन्दका कार्यक्षेत्र . ऊपर यह कहा जा चुका है कि विद्यानन्दने अपनी ग्रन्थ-रचना गङ्गनरेश शिवमार द्वितीय और राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथमके राज्य-समयमें
१. देखो Guerinot no.121. अथवा, जैन सि० भा० ४ किरण ३, पृष्ठ
१५८ का ८ नं० का उद्धरण । २. देखो, श्री ज्योतिप्रसाद जैन एम० ए० का लेख Gain Anti Quary.
VoL. XII. N. I. जुलाई १९४६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org