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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका २ कृत्स्न निर्जरावत्त्वमप्यसिद्धम् । न चासिद्धं साधनं साध्यसाधनायालम्, इति कश्चित् ।
५. सोऽप्यनालोचिततत्त्वः, प्रमाणतो बन्यस्य प्रसिद्धः । तथा हिविवादाध्यासितः संसारी बन्धवान् परतन्त्रत्वात्, आलानस्तम्भागतहस्तिवत् । परतन्त्रोऽसौ होनस्थानपरिग्रहवत्त्वात्, कामोद्रेकपरतन्त्रवेश्यागृहपरिग्रहवच्छ्रोत्रियब्राह्मणवत् । हीनस्थानं हि शरीरं तत्परिग्रहवांश्च संसारी प्रसिद्ध एव । कथं पुनः शरीरं हीनस्थानमात्मनः ? इति; उच्यते; होनस्थानं शरीरम्, आत्मनो दुःखहेतुत्वात् कस्यचित्कारागृहवत् । ननु देवशरीरस्य दुःखहेतुत्वाभावात्पक्षाव्यापको" हेतुरिति चेत्; न; तस्यापि मरणे दःखहेतुत्वसिद्धेः पक्षव्यापकत्वव्यवस्थानात् ।
कैसे ? अतः सम्पूर्ण निर्जरावान् भी कोई आत्माविशेष सिद्ध नहीं होता है
और इस प्रकार हेतुके विशेषण और विशेष्य दोनों ही दल असिद्ध हैं। ऐसी हालतमें असिद्ध हेतु साध्यकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं है ?
५. समाधान-यह शंका विचारपूर्ण नहीं है क्योंकि बन्ध प्रमाणसे प्रसिद्ध है । यथा-'विचारस्थ संसारी आत्मा बन्धयुक्त है क्योंकि पराधीन है, आलानस्तम्भ ( खूटा )-को प्राप्त हाथोकी तरह ।' 'आत्मा पराधीन है क्योंकि होनस्थानको ग्रहण किये हुए है, कामपीड़ासे अधोन होकर वेश्याके घरको प्राप्त हुए श्रोत्रिय ब्राह्मण (क्रियाकाण्डी ब्राह्मणविशेष ) की तरह।' और यह प्रकट है कि होनस्थान शरीर है और उसे ग्रहण करनेवाला संसारो आत्मा प्रसिद्ध है।
शङ्का-शरीर आत्माका हीनस्थान कैसे है ?
१. सांख्यादिः। २. अयथार्थविचारकः । ३. वन्दीगृह इवेत्यर्थः । ४. परः शंकते नन्विति । ५. हेतोः सामस्त्येन पक्षावृत्तित्वं पक्षकदेशवृत्तित्वं वा पक्षाव्यापकत्वमिति भावः ।
भागासिद्धत्वमिति यावत् । ६. हाथीको बाँधनेका खूटा, रस्सा या जंजीर, देखो, 'संक्षिप्त हिन्दी-शब्दसागर',
पृ० ११५ । ७. ब्राह्मणोंका एक भेद, देखो, 'संक्षिप्त हिन्दी-शब्दसागर', पृ० १०५६ ।
1. म स प 'कृत्स्नकर्म' ।
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