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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका २ परमेष्ठिनः प्रसादात्सूत्रकाराणां श्रेयोमार्गस्य संसिद्धेर्युक्तं शास्त्रादौ परमेष्ठिगुणस्तोत्रम्।
११. 'मंगलार्थं तत्" इत्येके'; तेऽप्येवं प्रष्टव्याः । किं साक्षा. न्मंगलार्थ परमेष्ठिगुणस्तोत्रं परम्परया वा ? न तावत्साक्षात्, तदनन्तरमेव मंगलप्रसंगात्, कस्यचिदपि मंगला' नवाप्त्ययोगात् । परम्परया चेत्, न किञ्चिदनिष्टम् । परमेष्ठिगुणस्तोत्रादात्मविशुद्धि विशेषः प्रादुर्भवत् धर्मविशेष स्तोतः साधयत्य धर्मप्रध्वंसं च। ततो मंगं सुखं समुत्पद्यत इति तद्गुणस्तोत्रं मंगलम्, 'मंगं लातोति मंगलम्' इति
परमेष्ठीके प्रसादसे हमें श्रेयोमार्गका ज्ञान हुआ ।' अतः परमेष्ठीके प्रसादसे सुत्रकार अथवा सूत्रकारोंको मोक्षमार्गकी सम्यक् प्राप्ति अथवा सम्यक्ज्ञान होनेसे उनके द्वारा शास्त्रके प्रारम्भमें परमेष्ठीका गुणस्तवन किया जाना सर्वथा योग्य है।
११. शङ्का-'परमेष्ठीका गुणस्तोत्र मङ्गलके लिये किया जाता है-श्रेयोमार्गकी प्राप्ति अथवा उसके ज्ञानके लिये नहीं किया जाता' यह कुछ लोगोंका मत है ?
समाधान-हम उनसे भी पूछते हैं कि आप परमेष्ठीका गुणस्तवन साक्षात् मङ्गलके लिये मानते हैं या परम्परा मङ्गलके लिये ? साक्षात् मङ्गलके लिये तो माना नहीं जा सकता है अन्यथा परमेष्ठीगुणस्तवन करनेके तुरन्त ही मङ्गल-प्राप्तिका प्रसङ्ग आयेगा और इस तरह किसी भी स्तोताको मङ्गल-प्राप्तिका अभाव न रहेगा। और यदि परम्परा-मङ्गलके लिये उसे मानो तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि परमेष्ठोके गुणस्तवनसे आत्मामें विशद्धिविशेष (अतिशय निर्मलता) उत्पन्न होकर वह स्तुतिकर्ताके धर्मकी उत्पत्ति और अधर्म ( पाप) के नाशको करती है और फिर उससे मङ्ग अर्थात् सुख उत्पन्न होता है, इसलिये परमेष्ठीका गुणस्तवन मङ्गल है, क्योंकि ‘मङ्गल' शब्दकी व्युत्पत्ति ( यौगिक अर्थ ) ही यह है कि जो मङ्ग ( सुख ) को लाता है अथवा मल (पाप ) को १. परमेष्ठिगुणस्तोत्रम् । २. वैशेषिकादयः ।
1. द 'न' नास्ति । 2. व 'द्विशुद्धि' पाठः । 3. मु स प 'त्येवा' ।
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