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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५ ‘पदार्थानां तत्रैवान्तर्भावादिति नयोऽस्ति।
३० स्यान्मतम्-द्रव्यपदेन सकलद्रव्यव्यक्तिभेदप्रभेदानां संग्रहादेको द्रव्यपदार्थः, गुण इत्यादिपदेन चैकेन गुणादिभेदप्रभेदानां संग्रहाद् गुणादिरप्येकैकपदार्थो व्यवतिष्ठते।
___"विस्तरेणोपदिष्टानामर्थानां तत्त्वसिद्धये ।
समासेनाभिधानं यत्संग्रहं तं विदुर्बुधाः ।।" [ ] इति । "पदार्थधर्मसंग्रहः प्रवक्ष्यते" [प्रशस्तपा० भा. पृ. १ ] इत्यत्र पदार्थसंग्रहस्य धर्मसंग्रहस्य चैवं व्याख्यानादस्त्येव तथाऽभिप्रायो वैशेषिकाणामिति।
३१. तदप्यविचारितरम्यम्; परमार्थतस्तथैकैकस्य द्रव्यादिपदा. र्थस्य प्रतिष्ठानुपपत्तेः। तस्यैकपदविषयत्वेनैकत्वोपचारात् । न चोपचरितपदार्थसंख्याव्यवस्थायां पारमार्थिको पदार्थसंख्या समवतिष्ठते,
का समावेश है' ऐसा नय-उनका अभिप्राय नहीं है ।
३०. शङ्का--'द्रव्य' पदके द्वारा द्रव्यके समस्त भेदों और प्रभेदोंका संग्रह होनेसे एक द्रव्यपदार्थ और 'गुण' इत्यादि एक-एक पदके द्वारा गुणादिके समस्त भेद और प्रभेदोंका संग्रह होनेसे गुणादि भी एक-एक पदार्थ सिद्ध होते हैं।
"विस्तारसे कहे पदार्थोंका एकत्व सिद्ध करनेके लिए जो संक्षेपसे क्थन करना उसे विद्वानोंने संग्रह कहा है।" और 'पदार्थधर्मसंग्रहः प्रवक्ष्यते' [प्रशस्त, भा. पृ० १ ] अर्थात् पदार्थसंग्रह और धर्मसंग्रहको कहेंगे-यहाँ पदार्थसंग्रह और धर्मसंग्रह इस तरह दो प्रकारके संग्रहका कथन किया भी गया है। अतः वैशेषिकोंका वैसा (समस्त पदार्थों को संग्रहादिको अपेक्षा एकरूप आदि माननेका ) अभिप्राय है ?
३१. समाधान--उक्त कथन भी विचार न करनेपर ही सुन्दर प्रतीत होता है। कारण, वास्तव में उक्त प्रकारसे एक-एक द्रव्यादिपदार्थ प्रतिष्ठित नहीं होता-एक पदका विषय होनेसे ही उपचारतः वह एक कहलाया । और उपचारसे मानी गयो पदार्थसंख्या वास्तविक पदार्थसंख्या नहीं मानी जा सकती। तात्पर्य यह कि उपचारसे सिद्ध और परमार्थतः सिद्ध पदार्थों में भारी भेद है और इसलिये एकपदकी विषयतासे सिद्ध हुए द्रव्यादि एक-एक पदार्थ परमार्थतः एक-एक सिद्ध नहीं हो सकते । अन्यथा,
1. व 'वैकस्य ।
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