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कारिका ९]
ईश्वर-परीक्षा षामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्" [ योगद० १-२६ ] इति, तस्य जगनिमित्तत्वसिद्धरनादित्वमन्तरेणानुपपत्ते रित्यानादित्वसिद्धि । ततो न कर्मभूभृतां भेत्ता मुनीन्द्रः शश्वत्कर्मभिरस्ष्टत्वात् । यस्तु कर्मभूभृतां भेत्ता स न शश्वत्कर्मभिरस्पृष्टः, तथोपायान्मुक्तः । शश्वत्कर्मभिरस्पृष्टश्च भगवान् । तस्मान्न कर्मभूभृतां भेत्ता। शश्वत्कर्मभिरस्पृष्टोऽसावनुपायसिद्धत्वात् । यस्तु न तथा स नानुपायसिद्धः । यथा सोपायमुक्तात्मा। अनुपायसिद्धश्चायम् । तस्मात्सदा कर्मभिरस्पृष्टः। अनुपायसिद्धोऽयमनादित्वात् । यस्तु न तथा स नानादिः, अनादिश्चायम् । तस्मादनुपायसिद्धः । अनादिरयं तनुकरणभुवानदिनिमित्तत्वात् । यस्तु नानादिः स न तनुकरणभुवनादिनिमित्तम् यथा परो मुक्तात्मा। तनुकरण
पूर्ववतियोंका भी गुरु है, क्योंकि किसी कालमें उसका विच्छेद नहीं है।" [ योगद० १-२६] योगदर्शनके इस सूत्रवाक्यसे भी उक्त प्रकार के ईश्वरका समर्थन होता है। दूसरे, ईश्वरके निमित्तकारणपनेकी सिद्धि अनादिपनाके बिना नहीं बन सकती है, अतः अनादिपना सिद्ध हो जाता है। अतएव 'मनीन्द्र-भगवान् परमात्मा कर्मपर्वतोंके भेदनकर्ता नहीं हैं, क्योंकि सदा ही कर्मोंसे अस्पृष्ट हैं । जो कर्मपर्वतोंका भेदनकर्ता है वह सदा कर्मोंसे अस्पृष्ट नहीं है, जैसे उपाथसे सिद्ध हुआ मुक्तजीव । और सदा ही कर्मोसे अस्पृष्ट भगवान् हैं, इसलिये कर्मपर्वतोंके भेदनकर्ता नहीं हैं। वह सदा कर्मोसे अस्पृष्ट हैं, क्योंकि अनुपायसिद्ध हैं। जो सदा कर्मोसे अस्पृष्ट नहीं है, वह अनुपायसिद्ध नहीं है, जैसे उपायपूर्वक मुक्त होनेवाला मुक्त जीव । और अनुपायसिद्ध भगवान् हैं, इसलिये सदा ही कर्मोसे अस्पृष्ट हैं। भगवान् अनुपायसिद्ध हैं क्योंकि अनादि हैं। जो अनुपायसिद्ध नहीं है वह अनादि नहीं है, जैसे ईश्वरसे भिन्न मुक्तात्मा। और अनादि भगवान् हैं, इस कारण अनुपायसिद्ध हैं । भगवान् अनादि हैं क्योंकि शरीर, इन्द्रिय, जगत् आदिके निमित्तकारण हैं । जो अनादि नहीं है वह शरीर, इन्द्रिय, जगत् आदिका निमित्तकारण नहीं है, जैसे दूसरे मुक्त जीव । और शरीर,
1. स द 'सर्वेषामपि' । 2. मु स 'कालेनाविच्छेदात्' । 3. द “त्ति'। 4. बद्ध:'। 5. द 'मित्तं'।
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