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आप्तपरोक्षा - स्वोपज्ञटीका
[ कारिका २
$ १३. ननु चैवं भगवद्गुणस्तोत्रं स्वयं मंगलं न तु मंगलार्थम्; इति न मन्तव्यम्; स्वयं मंगलस्यापि मंगलार्थत्वोपपत्तेः । यदा हि मलगालनलक्षणं मंगलं तदा सुखादानलक्षणमंगलाय तद्भवतीति सिद्धं मंगलार्थम् । यदापि सुखादानलक्षणं तन्मंगलं तदा पापगालनलक्षणमंगलाय प्रभवतोति कथं न मंगलार्थम् ? यदाऽप्येतदुभयलक्षणं मंगलं तदा तु मंगलान्तरापेक्षया मंगलार्थं तदुपपद्यत एव, 'अनि यसप्राप्तेः परापरमंगलसन्ततिप्रसिद्धेरित्यलं विस्तरेण ।
$ १४. शिष्टाचारपरिपालनार्थम्, नास्तिकतापरिहारार्थम्, निविघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यर्थं च परमेष्ठिगुणस्तोत्रमित्यन्ये; तेऽपि तदेव तथेति नियमयितुमसमर्था एव; तपश्चरणादेरपि तथात्वप्रसिद्धेः । न हि विद्वानोंने उक्त तीनों ही स्थानोंपर मंगल कहा है और वह मंगल जिनेन्द्रका गुणस्तवन है ।" [ ध० १-१-१ उ० ] ।
$ १३. शङ्का — इस तरह तो परमेष्ठीका गुणस्तवन स्वयं मंगल सिद्ध हुआ, वह मंगलके लिये किया जाता है, यह सिद्ध नहीं होता ?
समाधान - यह मानना ठीक नहीं; क्योंकि जो स्वयं मंगल है वह मंगलार्थ भी हो सकता है । इसका खुलासा इस प्रकार है :- जब मंगलका अर्थ मलगालन विवक्षित होता है तो सुखादानरूप मंगलके लिये वह होता है और जब उसका अर्थ सुखादान इष्ट होता है तब वह पापगालनरूप मंगलके लिये होता है । इस तरह परमेष्ठीका गुणस्तवन मंगलके लिये क्यों नहीं सिद्ध हो सकता ? यदि मलगालन और सुखादान दोनों एक साथ मंगलका अर्थ विवक्षित हो तो अन्य मंगलोंकी अपेक्षा वह मंगलके लिये सिद्ध हो जाता है; क्योंकि जब तब निःश्रेयस ( मोक्ष ) की प्राप्ति नहीं होती तब तक छोटे-बड़े अनेक मंगल परमेष्ठि- गुणस्तोता के लिये प्राप्त होते रहते हैं । अतः इस सम्बन्धमें और अधिक विस्तार आवश्यक नहीं है ।
$ १४. शङ्का - शिष्टाचारपरिपालन, नास्तिकतापरिहार और निर्विन शास्त्रकी पूर्णता के लिए परमेष्ठीका गुणस्तवन किया जाता है, यह अनेक विद्वान् मानते हैं । फिर उसे श्रेयोमार्गकी सिद्धि और मंगल के लिये
१. आङ अभिध्वर्थः ।
२. एके आचार्याः ।
३. शिष्टाचारपरिपालनादिप्रसिद्धः ।
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