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कारिका ५ ]
ईश्वर-परीक्षा न हीदमीश्वर-कपिल-सुगतादिषु सम्भवति, बाधकप्रमाणसदभावात् । भगवत्यहत्येव तत्सदभावसाधनाच्चासाधारणविशेषणमिति वक्ष्यामः।
[पराभिमताप्तव्यवच्छेदस्य सार्थक्यप्रतिपादनम् ] $ १९. ननु चेश्वरादीनामप्याप्तत्वे किं दूषणम्, येन तद्व्यवच्छेदार्थमसाधारणं विशेषणं प्रोच्यते ? कि वाऽन्ययोग'व्यवच्छेदान्महात्मनि परमेष्ठिनि निश्चिते प्रतिष्ठितं स्यात् ? इत्यारेकायामिदमाह--
अन्ययोगव्यवच्छेदान्निश्चिते हि महात्मनि । तस्योपदेशसामर्थ्यादनुष्ठानं प्रतिष्ठितम् ॥५॥
२०. भवेदिति क्रियाध्याहारः। महेश्वर, कपिल और सुगत आदि किसीमें भी सम्भव नहीं हैं क्योंकि उनमें उनको माननेमें बाधक-प्रमाण मौजूद हैं और भगवान् अर्हन्तमें ही वे प्रसिद्ध होते हैं और इसीलिए उन्हें असाधारण-अन्योंमें न पाये जानेवाले--विशेषण कहते हैं । इस सबका विवेचन हम आगे करेंगे ॥ ४ ॥
१९., २०. शङ्का ( ५ वीं कारिकाकी उत्थानिका )-यदि महेश्वरादिकको भी आप्त माना जाय तो क्या दूषण है जिससे उनका व्यवच्छेद करनेके लिए उक्त विशेषण कहे जाते हैं ? अथवा, अन्योंके व्यवच्छेदसे अरहन्त परमेष्ठीको सिद्ध करके क्या प्रतिष्ठित-प्रतिष्ठाको प्राप्त हो जायगा?
समाधान---इसका उत्तर यह है।
अन्य-महेश्वरादिकका व्यवच्छेद करके महात्मा-अरहन्त परमेष्ठीका निश्चयप्रसाधन करनेसे उनके तत्त्वोपदेशकी समीचीनतात्मक सामर्थ्यसे उनका मोक्षमार्गानुष्ठान अच्छी तरह प्रतिष्ठित हो जाता है। अतएव उपर्युक्त गुणस्तोत्रमें उक्त विशेषण दिये गये हैं। १. व्यवच्छेदो त्रिधा भिद्यते-अयोगव्यवच्छेदः, अन्ययोगव्यवच्छेदः, अत्यन्ता
योगव्यवच्छेदश्च । तत्रोद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोयोगित्वमयोगव्यवच्छेदः, यथा 'शंखः पाण्डुर एव' इति । विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदोऽन्ययोगव्यवच्छेदः, यथा 'पार्थ एव धनुर्धरः' इति । उद्देश्यतावच्छेदकव्यापकाभावाप्रतियोगित्वञ्चात्यन्तायोगव्यवच्छेदः, यथा 'नीलं सरोज भवत्येव' इति । सप्तभंगित० अत्रान्ययोगव्यवच्छेदः प्रस्तुतः, तेनैव हि 'अर्हन्नेवाप्तः' इति निश्चयात् ।
1. द 'विशेषणं' नास्ति ।
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