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कारिका २] परमेष्ठिगुणस्तोत्रप्रयोजन तपश्चरणादिः शिष्टाचारपरिपालनाद्यर्थं न भवतीति शक्यं वक्तुम् । यदि पुनरनियमेन' भगवद्गणसंस्तवनं शिष्टाचारपरिपालनाद्यर्थमभिधीयते तदा तदेव शास्त्रादौ शास्त्रकारैः कर्त्तव्यमिति नियमो न सिद्ध्यतिः । न च क्वचित्तन्न क्रियते इति वाच्यम्, तस्य शास्त्रे निबद्धस्यानिबद्धस्य वा वाचिकस्य मानसस्य वा विस्तरतः संक्षेपतो वा शास्त्रकैसे बतलाया जाता है ? सारांश यह कि मंगलके शिष्टाचारपरिपालन, नास्तिकतापरिहार और निर्विघ्न शास्त्रपरिसमाप्ति ये तीन प्रयोजन हैं और इन तीन प्रयोजनों को लेकर ही शास्त्रकार अपने शास्त्रके प्रारम्भमें परमेष्ठीका गुण-स्तवनरूप मंगल करते हैं। अतएव श्रेयोमार्गसंसिद्धिको मंगलका प्रयोजन न बतलाकर इन्हीं तीन प्रयोजनोंको बतलाना चाहिए ?
समाधान-उक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि यह नियम नहीं बनाया जा सकता कि 'परमेष्ठीका गणस्तवन ही शिष्टाचारपरिपालनादिकके लिये है, अन्य नहीं,' कारण, तपश्चरणादिकसे भी शिष्टाचारपरिपालन आदि देखा जाता है । यह कहना सर्वथा कठिन है कि तपश्चरणादिकसे शिष्टाचारपरिपालनादिक नहीं हो सकता, क्योंकि वह सर्वप्रसिद्ध है। और यदि नियम न बनाकर-सामान्यरूपसे हो परमेष्ठीके गुणस्तवनको शिष्टाचारपरिपालनादिकके लिए कहा जावे तो 'उसे ही शास्त्रारम्भमें शास्त्रकारोंको करना चाहिये' यह नियम सिद्ध नहीं होता। तात्पर्य यह कि 'परमेष्ठीका गुणस्तवन शिष्टाचारपरिपालनादिकके लिए ही किया जाता है' ऐसा न मानकर 'उसके लिये भी किया जाता है' ऐसा मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं है-इन प्रयोजनोंको भी हम स्वीकार करते हैं। परन्तु मुख्य और सबसे बड़ा प्रयोजन तो 'श्रेयोमार्ग-संसिद्धि' है और इसीसे यहाँ (आप्तपरीक्षा कारिका २ में ) उसका कण्ठतः उल्लेख किया गया है।।
शङ्का-कहीं ( किसी शास्त्रमें ) परमेष्ठिगुणस्तवन नहीं किया जाता
समाधान-नहीं, वह परमेष्ठिगुणस्तवन शास्त्रमें निबद्ध अथवा अनि१. नियममकृत्वा, एवकारमन्तरेणत्यर्थः । २. भगवद्गुणस्तवनमेव । ३. शास्त्र। ४. भगवद्गुणस्तवनम् । ५. श्लोकादिरूपण रचितस्य । ६. श्लोकादिरूपणारचितस्य ।
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