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आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका
[ कारिका २
विरत्यां सत्यामपैति । प्रमादश्चाप्रमादपरिणतौ, कषायोऽकषायतायां, योगश्चायोगतायामिति बन्धहेत्वभावः सिद्धः, “अपूर्व कर्मणामात्रवनिरोधः संवरः” [ त. सूत्र ९- १ ] इति वचनात् ।
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S८. ननु च ' "स गुप्तिसमितिधर्मानुपेक्षापरीषह जयचारित्रेभ्यो भवति " " [ तत्त्वार्थ सूत्र ९ - २ ] इति सूत्रकारमतं न पुनः सम्यग्दर्शनादिभ्यः; इति न मन्तव्यम्; गुप्त्यादीनां सम्यग्दर्शनाद्यात्मकत्वात् । न हि सम्यग्दर्शन रहिता गुप्त्यादयः सन्ति सम्यग्ज्ञानरहिता वा, तेषामपि विरत्यादिरूपत्वात् । चारित्रभेदा होते प्रमादरहिताः कषाय रहिताश्चा
इसी तरह अविरति विरति ( संयम ) के होनेपर नहीं रहती है । प्रमाद अप्रमादरूप परिणति, कषाय अकषायरूप परिणाम और योग अयोगरूप अवस्था के होनेपर नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार बन्धहेतुओंका अभाव अर्थात् संवर सिद्ध हो जाता है । यही तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वातिने कहा है- 'अनागत कर्मोंका रुक जाना संवर है ।'
$ ८. शङ्का - 'संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रसे होता है' यह तत्त्वार्थ सूत्रकारका मत अर्थात् कथन है वह समयदर्शनादिसे होता है ऐसा उनका मत नहीं मालूम होता । तात्पर्य यह कि तत्त्वार्थ सूत्रकार के कथनसे जो उक्त प्रतिपादन प्रमाणित किया गया है वह ठीक नहीं जान पड़ता है क्योंकि उन्होंने गुप्त्यादिसे संवर माना है, सम्यग्दर्शनादि से नहीं ?
समाधान - ऐसा मानना ठीक नहीं है; क्योंकि जो गुप्त्यादि हैं वे सम्यग्दर्शन आदि स्वरूप हैं - उनसे भिन्न नहीं हैं । वस्तुतः गुप्ति आदि न तो सम्यग्दर्शन रहित हैं और न सम्यग्ज्ञानरहित हैं । कारण, वे विरति आदिरूप हैं और विरति सम्यक्चरित्र है जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका सर्वथा अविनाभावी है तथा इस सम्यक् चारित्र के ही भेद ये गुप्ति वगैरह हैं जो प्रमाद तथा कषायरहित होते हुए अयोग अवस्था से भी विशिष्ट हैं अर्थात् योगरहित हैं । तात्पर्य यह कि गुप्त्यादिक सम्यग्दर्शनादिकसे भिन्न नहीं हैं और इसलिए सम्यग्दर्शनादिकसे संवर प्रतिपादन करना अथवा गुप्ति, समिति आदि से संवर बतलाना एक ही बात है— दोनोंका अभिप्राय
1. द 'च' नास्ति ।
2. 'संवर इति शेष:' द टिप्पणिपाठः ।
3. 'सम्यग्दर्शनादीनां' इति द टिप्पणिपाठः ।
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