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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका २
[परमेष्ठिगुणस्तोत्रप्रयोजनाभिधानम् ] $ १. कस्मात्पुनः परमेष्ठिनः स्तोत्र शास्त्रादौ शास्त्रकाराः प्राहुरित्यभिधीयते
श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ॥२॥ ६२. श्रेयो निःश्रेयसं परमपरं च । तत्र परं सकलकर्मविप्रमोक्षलक्षणम् "बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः " [ तत्त्वार्थ सूत्र
'जिन' किसी व्यक्ति विशेषका नाम नहीं है, बल्कि जो आत्मा इस पूर्ण विकसित एवं सर्वोच्च आत्मीय अवस्थाको प्राप्तकर लेता है वह 'जिन' कहलाता है। यहाँ ऐसे ही 'जिन-परमात्मा' अथवा 'जिन-समुदय' को ग्रन्थकार श्रीविद्यानन्दस्वामीने अपनी इस स्वोपज्ञ-टीका-सहित 'आप्त-परीक्षा' नामक कृतिके आरम्भमें स्मरण किया है और उनका मंगलाभिवादन किया है।
'जिनचन्द्राय' पदके प्रयोगद्वारा भगवान् चन्द्रप्रभको भी नमस्कार किया गया प्रतीत होता है और यह कोई अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि भगवान् चन्द्रप्रभ भी ग्रन्थकारके विशेषतया इष्टदेव हो सकते हैं और उन्हें भी 'नमः' शब्दद्वारा अपना मस्तक झुकाया है।
१. शङ्का-ग्रन्थके आरम्भमें ग्रन्थकार परमेष्ठीका स्तवन किस प्रयोजनसे करते हैं ?
समाधान-इसका उत्तर इस प्रकार है
चूँकि परमेष्ठीके प्रसादसे मोक्ष-मार्ग ( सम्यग्दर्शनादि ) की सम्यक् प्राप्ति और सम्यग्ज्ञान दोनों प्राप्त होते हैं। अतएव शास्त्रके प्रारम्भमें मुनिपुङ्गवों-सूत्रकारादिकोंने परमेष्ठीका गुण-स्तवन कहा है ॥२॥
६२. कारिकामें जो 'श्रेयः' शब्दका प्रयोग है उसका निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष अर्थ है । वह दो प्रकारका है-१. परनिःश्रेयस और २. अपरनिःश्रेयस । समस्त कर्मोंका सर्वथा क्षय होना परनिःश्रेयस है; क्योंकि 'संवर और
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१. परमे पदे मोक्षे मोक्षमार्गे वा रत्नत्रयस्वरूपे तिष्ठतीति परमेष्ठी, मोक्षे मोक्ष
मार्गे वा स्थिता अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधवो विशिष्टात्मानः परमेष्ठिनोऽभिधीयन्ते ।
1. द 'मोक्षः' पाठो नास्ति ।
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