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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका करके उसके प्रत्येक पदवाक्यादिका व्याख्यान किया है। अकलङ्कदेवके ग्रन्थवाक्योंका व्याख्यान करनेवाले सर्व प्रथम व्यक्ति आ० विद्यानन्द हैं। विद्यानन्दकी अकलङ्कदेवके प्रति अगाध श्रद्धा थी और वे उन्हें अपना आदर्श मानते थे। इसपरसे डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण, म. म. गोपीनाथ कविराज जैसे कुछ विद्वानोंको यह भ्रम हुआ है कि अकलङ्कदेव अष्टसहस्रीकारके गुरु थे। परन्तु ऐतिहासिक अनुसन्धानसे प्रकट है कि अकलङ्कदेव अष्टसहस्रीकारके गुरु नहीं थे और न अष्टसहस्रीकारने उन्हें अपना गुरु बतलाया है। पर हाँ, इतना जरूर है कि वे अकलङ्कदेवके पद-चिह्नोंपर चले हैं और उनके द्वारा प्रदर्शित दिशापर जैनन्यायको उन्होंने सम्पुष्ट और समृद्ध किया है। अकलङ्कदेवका समय श्रीयुत पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने विभिन्न विप्रतिपत्तियोंके निरसनपूर्वक अनेक प्रमाणोंसे ई० सन् ६२० से ६८० निर्णीत किया है । अतः विद्यानन्द ई० सन् ६८० के उत्तरवर्ती हैं, यह निश्चित है ।
२. अष्टसहस्रोकी अन्तिम प्रशस्तिमें विद्यानन्दने दो पद्य दिये हैं। दूसरे पद्यमें उन्होंने अपनी अष्टसहस्रीको कुमारसेनको उक्तियोंसे वर्धमानार्थ बतलाया है अर्थात् कुमारसेन नामके पूर्ववर्ती विद्वानाचार्यके सम्भवतः आप्तमीमांसापर लिखे गये किसी महत्त्वपूर्ण विवरणसे अष्टसहस्रीके अर्थको प्रवृद्ध किया प्रकट किया है। विद्यानन्दके इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि वे कुमारसेनके उत्तरकालीन हैं। कुमारसेनका समय ई० सन् ७८३ के कुछ वर्ष पूर्व माना जाता है। क्योंकि शकसं० ७०५, ई० सन् ७८३ में अपने हरिवंशपुराणको बनानेवाले पुन्नाटसंघी द्वितीय जिन
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१. देखो, अच्युत ( मासिक पत्र पृष्ठ २८ ) वर्ष ३, अंक ४। २. देखो, न्यायकुमुद प्र० भा० प्रस्तावना।
"श्रीमदकलंकशशधरकुलविद्यानन्दसम्भवा भूयात् । गुरुमीमांसालङ कृतिरष्टसहस्री सतामृद्ध्यै ॥ १॥ कष्ट-सहस्री सिद्धा साऽष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् ।
शश्वदभीष्ट-सहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था ॥ २॥" इन दो पद्योंके मध्यमें जो कनडी पद्य मुद्रित अष्टसहस्रीमें पाया जाता है वह अनावश्यक और असङ्गत प्रतीत होता है और इसलिये वह अष्टसहस्रीकारका
पद्य मालूम नहीं होता ।-सम्पा० । ४. न्यायकुमुद प्र० प्र० पृष्ठ ११३ ।
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