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प्रस्तावना
स्वतन्त्र कृतियाँ ये हैं:
१ विद्यानन्दमहोदय, २ आप्तपरीक्षा, ३ प्रमाणपरीक्षा, ४ पत्रपरीक्षा, ५ सत्यशासनपरीक्षा और ६ श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र । इस तरह विद्यानन्दकी ये ९ रचनाएँ प्रसिद्ध हैं । इन सबका परिचय नीचे दिया जाता है ।
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१ तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक और भाष्य-आ० गृद्धपिच्छके सुप्रसिद्ध 'तत्त्वार्थ सूत्र' पर कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिक और धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिककी तरह विद्यानन्दने पद्यात्मक तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक रचा है और उसके पद्य वात्र्तिकोंपर उन्होंने स्वयं गद्य में भाष्य अथवा व्याख्यान लिखा है । यह भाग्य तत्त्वार्थ श्लोकवार्त्तिकभाष्य, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकव्याख्यान, तत्त्वार्थश्लोकवात्र्तिकालङ्कार और श्लोकवार्त्तिकभाष्य इन नामोंसे कथित होता है । जैनदर्शनके प्राणभूत ग्रन्थोंमें यह प्रथम कोटिका ग्रन्थरत्न है । विद्यानन्द ने इसकी रचना करके कुमारिल, धर्मकीर्ति जैसे प्रसिद्ध इतर तार्किकों के जैनदर्शनपर किये गये आक्षेपोंका सबल जवाब ही नहीं दिया, किन्तु जैन दर्शनका मस्तक भी उन्नत किया है । हमें तो भारतीय दर्शन साहित्य में ऐसा एक भी ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होता जो श्लोकवात्तिककी समता कर सके । श्लोकवातिककी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कितनी ही चर्चाएँ अपूर्व हैं । यह ग्रन्थ सेठ रामचन्द्र नाथारङ्गजी द्वारा १९१८ में प्रकाशित हो चुका है । वह अशुद्ध एवं त्रुटिपूर्ण छपा है । यही ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद एवं विवेचन सहित कई खण्डों में आचार्य कुन्थुसागर ग्रन्थमाला, सोलापुरसे भी प्रकाशित हो चुका है ।
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२. अष्टसहस्री - देवागमालङ्कार - यह स्वामी समन्तभद्रविरचित 'आप्तमीमांसा' अपरनाम 'देवागम' पर लिखी गयी विस्तृत और महत्त्वपूर्ण टीका है। इसमें अकलङ्कदेव के 'देवागम' पर ही रचे गये दुरूह और दुरवगाह 'अष्टशती - विवरण' ( देवागमभाष्य ) को अन्तः प्रविष्ट करते
देवगमकी प्रत्येक कारिकाका व्याख्यान किया गया है । विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें अष्टशतीको इस प्रकार आत्मसात् कर लिया है कि यदि उसे भेदनिदर्शक अलग टाइपमें न रखा जाय तो पाठक यह नहीं जान सकता कि यह अष्टशतीका अंश है और यह अष्टसहस्रीका । उन्होंने अपनी आगे-पीछे और मध्यकी सान्दर्भिक वाक्यरचनाद्वारा अष्टशतीको अनुस्यूत करके न केवल अपनी प्रतिभाका आश्चर्यजनक चमत्कार दिखाया है अपितु उसके गूढ रहस्यको भी अभिव्यक्त किया है । वास्तवमें यदि विद्यानन्द अष्टसहस्त्री न बनाते तो अष्टशतीका गूढ रहस्य उसमें ही छिपा रहता, क्योंकि अष्टशतीका प्रत्येक पद, प्रत्येक वाक्य और प्रत्येक
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