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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका स्थल इतना दुरूह और जटिल है कि साधारण विद्वानोंकी तो उसमें गति ही नहीं हो सकती। अष्टसहस्रीको विद्यानन्दने जो 'कष्टसहस्री' कहा है' वह इस अष्टशतीको मुख्यतासे ही कहा है। यदि किसी तरह उसके पदवाक्यादिका ऊपरी अर्थ लगा भी लिया जाय तो भी उसके हाईको समझना अत्यन्त कठिन है। विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें अपनी तलपशिनी सूक्ष्मबुद्धिसे उसके प्रत्येक पदवाक्यादिका विशद अर्थ खोला है और अकलङ्कदेवके हार्दको प्रकट किया है । देवागम और अष्टशतीके व्याख्यानके अलावा अष्टसहस्रीमें कितना ही नया विचार और विस्तृत चर्चाएँ भी उपस्थित की गई हैं। विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके बारेमें लिखा है कि 'हजार शास्त्रोंको सुननेसे क्या, अकेलो इस अष्टसहस्रोको सुन लीजिये, उसीसे ही समस्त सिद्धान्तोंका ज्ञान हो जायगा।' वस्तुतः विद्यानन्दका यह लिखना न अतिशयोक्तिपूर्ण है और न गर्वोक्तियुक्त है। अष्टसहस्रो स्वयं ही इस बातकी साक्षी है । यह श्लोकवात्तिककी तुलनाका ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। चूंकि देवागममें दश परिच्छेद हैं, इसलिये उसको टीका अष्टसहस्रीमें भी दश परिच्छेद हैं। प्रत्येक परिच्छेदका प्रारम्भ और समाप्ति एक-एक सुन्दर पद्यद्वारा किये गये हैं । इसपर लघुसमन्तभद्र (वि० की १७वीं शती )ने 'अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका' और श्री यशोविजय ( वि० को १७वीं शती) ने 'अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरण' नामको व्याख्याएँ लिखी हैं। यह अष्टसहस्री सेठ नाथारङ्गजी गाँधीद्वारा कोई सन् १९१५ में मुद्रित हो चुकी है किन्तु अब वह अप्राप्य है । श्लोकवात्तिक और अष्टसहस्री दोनों पाठयक्रम में भी निहित हैं।
३. युक्त्यनुशासनालङ्कार-आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकी बेजोड़ दूसरी रचना 'युक्त्यनुशासन' है। यह एक महत्त्वपूर्ण और गम्भीर स्तोत्रग्रन्थ हैं। इसकी रचना उन्होंने आप्तमीमांसाके बाद की है। आप्तमीमांसामें अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीरकी परीक्षा की गई है और परीक्षाके बाद उनके आप्त सिद्ध हो जानेपर इस (युक्त्यनुशासन) में उनकी गुणस्तुति की गई है। इसमें कुल पद्य केवल ६४ हो हैं, परन्तु एक
१. देखो, अष्टसहस्री प्रशस्ति पद्य नं० २ । २. 'श्रोतव्याऽष्टसहस्रो श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ।।-अष्टस• पृ० १५७ । ३. देखो, प्रथम पद्यकी टीका, युक्त्यनुशा० पृ. १।
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