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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका है, उसकी निम्न पंक्ति द्वारा ही उसके दर्शन कर सकते हैं । वादि देवसूरिद्वारा दी गई वह पंक्ति इस प्रकार है:__"महोदये च 'कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते' इति वदन् ( विद्यानन्दः ) संस्कारधारणयोरैकार्थ्यमचकथत् ।"
-स्या० रत्ना० पृ० ३४९ हमें आशा है यह ग्रन्थरत्न 'प्रमाणसंग्रह' और 'सिद्धिविनिश्चयटीका' की तरह श्वेताम्बर जैन शास्त्रभण्डारमें मिल जाय; क्योंकि उनके यहाँ शास्त्रोंकी सुरक्षा और सुव्यवस्था यति-मुनियोंके हाथमें रहनेसे अच्छी और सुपुष्कल रही है। उक्त दो ग्रन्थ भी उन्हींके भण्डारोंसे सम्प्राप्त हुए हैं। अन्वेषकोंको यह ध्यान रखना चाहिए कि इस ग्रन्थरत्नका उल्लेख 'विद्यानन्दमहोदय' और 'महोदय' दोनों नामोंसे हुआ है, जैसा कि आ० विद्यानन्द और वादि देवसूरिके उपयुक्त उल्लेखों से प्रकट है। यह विद्यानन्दकी मौलिक और स्वतन्त्र रचना है, यह उसके नामसे हो स्पष्ट है।
२. आप्तपरीक्षा प्रस्तुत ग्रन्थ है।
३.प्रमाणपरीक्षा-यह विद्यानन्दकी तीसरी स्वतन्त्र रचना है। इसे उन्होंने आप्तपरीक्षाके बाद रचा है; क्योंकि प्रमाणपरोक्षामें आप्तपरीक्षाका उल्लेख हुआ है और वहाँ अनादि एक ईश्वरके प्रतिक्षेप करनेका निर्देश किया गया है। विद्यानन्दने इसकी रचना अकलङ्कदेवके प्रमाणसंग्रहादि प्रमाणविषयक प्रकरणोंका आश्रय लेकर की जान पड़ती है। यद्यपि इसमें परिच्छेद-भेद नहीं है तथापि प्रमाणको अपना प्रतिपाद्य विषय बनाकर उसका अच्छा निरूपण किया गया है। प्रमाणका 'सम्यग्ज्ञानत्व' लक्षण करके उसके भेद, प्रभेदों, विषय तथा फल और हेतुओंकी इसमें सुसम्बद्ध एवं विस्तृत चर्चा की गई है। हेतु-भेदोंके निदर्शक कुछ महत्त्वपूर्ण संग्रहश्लोकोंको तो उद्धृत भी किया गया है, जो पूर्ववर्ती किन्हीं जैनाचार्योंके ही प्रतीत होते हैं। तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक और अष्टसहस्रीकी तरह इसमें भी प्रत्यभिज्ञानके दो हो भेद बतलाये गये हैं ।
१. 'तस्यानादेरेकेश्वरस्याप्तपरीक्षायां प्रतिक्षिप्तत्वात् ।'--पृ० ७७ । २. 'तद्विधकत्व-सादृश्यगोचरत्वेन निश्चितम् ।'--पृ० १९० । ३. 'तदेवेदं तत्सदृशमेवेदमित्येकत्वसादृश्यविषयस्य द्विविधप्रत्यभिज्ञानस्य"" ।'
पृ० २७९ । ४. प्रमाणप० पृष्ठ ६९ ।
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