________________
७१
प्रस्तावना यह बहुत ही सरल और सुविशद रचना है ।
४. पत्रपरीक्षा-यह ग्रन्थकारकी चतुर्थ रचना है। इसमें दर्शनान्तरीय पत्रलक्षणों की समालोचनापूर्वक जैनदृष्टिसे पत्रका बहुत सुन्दर लक्षण किया है तथा प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानाङ्ग बतलाया है। हाँ, प्रतिपाद्याशयानुरोधसे दशावयवोंका भी समर्थन किया है, परन्तु ये दशावयव न्यायदर्शन प्रसिद्ध दशावयवोंसे भिन्न हैं। यह रचना विद्यानन्दकी सर्व तर्करचनाओंमें अतिलघु रचना है।
५. सत्यशासनपरीक्षा-आचार्य विद्यानन्दकी पाँचवीं मौलिक स्वतन्त्र रचना सत्यशासनपरोक्षा है। यह आजसे कोई २७ वर्ष पूर्व बिल्कूल अप्रसिद्ध और अप्राप्य थी। जैनसाहित्य-अनुसन्धाता पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने जैनसिद्धान्त भवन, आराको सूचीपरसे इसका पता लगाया और अक्टूबर सन् १९२० में जैनहितैषी भाग १४, अङ्क १०-११ में 'दुष्प्राप्य और अलभ्य जैनग्रन्थ' के नीचे परिचय दिया था। इसके कोई बीस वर्ष बाद न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने इसका कुछ विशेष परिचय अनेकान्त वर्ष ३, किरण ११ में कराया था। इस परिचयसे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ आ० विद्यानन्दकी ही कृति है । इसमें पुरुषाद्वैत आदि १२ शासनोंकी परीक्षा करनेकी प्रतिज्ञा की गई है। परन्तु १२ शासनोंमें ९ शासनोंकी पूरी और प्रभाकरशासनकी अधूरी परीक्षाएँ ही इसमें उपलब्ध होती हैं। प्रभाकर-शासनका शेषांश, तत्त्वोपप्लवशासनपरीक्षा और अनेकान्तशासनपरीक्षा इसमें अनुपलब्ध हैं। इससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ विद्यानन्दकी अन्तिम रचना है और वे इसे पूरा नहीं कर सके। बम्बईके ऐ० पन्नालाल सरस्वतीभवनमें इसकी जो प्रति पाई जाती है वह भी आराप्रति जितनी है। यह ग्रन्थ सन् १९६४ में भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थकी प्रशंसा करते हुए न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने लिखा है :
१. देखो, पत्रपरी० पृष्ठ १० । २. 'इह पुरुषाद्वैत-शब्दाद्वैत-विज्ञानाद्वैत-चित्राद्वैतशासनानि चार्वाक-बौद्ध-सेश्वरनिरीश्वर-सांख्य-नैयायिक-वैशेषिक-भाट्ट-प्रभाकर-शासनानि तत्त्वोपलवशासनमनेकान्तशासनञ्चत्येनेकशासनानि प्रवर्तन्ते ।'
-सत्यशासनपरीक्षाका प्रारम्भिक प्रतिज्ञावाक्य । ३. देखो, 'अनेकान्त' वर्ष ३, किरण ११ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org