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प्रस्तावना
एक पद्य इतना दुरूह और गम्भीर है कि प्रत्येकके व्याख्यानमें एक-एक स्वतन्त्र ग्रंथ भी लिखा जाना योग्य है। आ० विद्यानन्दने इस स्तोत्रग्रन्थको ‘युक्त्यनुशासनालङ्कार' नामक सुविशद व्याख्यानसे अलंकृत किया है । यह 'युक्त्त्यनुशासनालंकार' उनका मध्यम परिमाणका टीकाग्रन्थ हैन ज्यादा बड़ा है और न ज्यादा लघु है। इसे उन्होंने आप्तपरीक्षा और प्रमाणपरीक्षाके बाद रचा है क्योंकि इसमें उन दोनोंके उल्लेख हैं। यह टीका मूल ग्रन्थके साथ वि० सं० १९७७ में 'माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला' से प्रकाशित हो चुकी है, यह अशुद्ध भी काफी छपी हुई है। ____अब विद्यानन्दके मौलिक स्वतन्त्र ग्रन्थोंका परिचय दिया जाता है जो इस प्रकार है
१. विद्यानन्दमहोदय-यह आ० विद्यानन्दकी सर्व प्रथम रचना है । इसके बाद ही उन्होंने श्लोकवात्तिक, अष्टसहस्री आदि ग्रन्थ बनाये हैं। श्लोकवात्तिक आदिमें उन्होंने अनेक जगह इस ग्रन्थके उल्लेख किये हैं
और विस्तारसे उसमें जानने एवं प्ररूपण करनेकी सूचनाएँ की हैं । इससे ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ श्लोकवात्तिकसे भी विशाल और महत्त्वपूर्ण होगा। आज यह अनुपलब्ध है। मालूम नहीं, यह ग्रन्थ नष्ट हो चुका है अथवा किसी शास्त्रभण्डारमें दीमकोंका भक्ष्य बना हुआ अपने जोवनकी अन्तिम घड़ियाँ बिता रहा है ? यदि नष्ट नहीं हुआ और किसी शास्त्रभण्डारमें अभी विद्यमान है तो अन्वेषकों को इस महत्त्वके ग्रन्थरत्नका शीघ्र पता लगाना चाहिए। सम्भव है अकलङ्कदेवके 'प्रमाणसंग्रह' की तरह यह ग्रन्थ भी किसी जैन अथवा जैनेतर लायब्रेरीमें मिल जाय। विक्रमकी १३वीं शताब्दी तक इसका पता चलता है। आ० विद्यानन्दने तो इसके अपने उत्तरवर्ती प्रायः सभी ग्रन्थोंमें उल्लेख किये ही हैं, किन्तु उनके तीनचारसौ वर्ष बाद होने वाले वादि देवसूरिने भी अपनी विशाल टीका 'स्याद्वादरत्नाकर' में इसका नामोल्लेख किया है और साथमें उसकी एक पंक्ति भी दी है। आज हम, जब तक यह ग्रन्थरत्न उपलब्ध नहीं हुआ १. देखो, युक्त्यनुशास० टी० पृ० १०, ११ । २. देखो, 'न्यायदीपिका' की प्रस्तावना पृ० ८२ । ३. 'इति परीक्षितमसकृद्विद्यानन्दमहोदये ।'-तत्त्वार्थश्लो० २७२, ‘अवगम्य
ताम् ।। यथागमं प्रपंचेन विद्यानन्दमहोदयात् ।'-तत्त्वार्थश्लो० पृ० ३८५, 'इति तत्त्वार्थालंकारे विद्यानन्दमहोदये च प्रपंचतः प्ररूपितम् ।'
-अष्टस० पृ० २९० ।
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