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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
सूत्रोंद्वारा तर्कका भी समावेश हुआ है। यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंमें कुछ पाठभेदके साथ समानरूपसे मान्य है और दोनों ही सम्प्रदायके विद्वानोंने इसपर अनेक टीकाएँ लिखी हैं। उनमें आ० पूज्यपादकी तत्त्वार्थवृत्ति ( सर्वार्थसिद्धि ), अकलङ्कदेवका तत्त्वार्थवार्तिक, प्रस्तुत आप्तपरीक्षाकार आ० विद्यानन्दका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (सभाष्य), श्रुतसागरसूरिकी तत्त्वार्थवृत्ति और श्वेताम्बर परम्परामें प्रसिद्ध तत्त्वार्थभाष्य ये पाँच टीकाएँ तत्त्वार्थसत्रकी विशाल, विशिष्ट और महत्वपूर्ण व्याख्याएँ हैं। विद्यानन्दने अपने प्रायः सभी ग्रन्थोंमें इसके सूत्रोंको बड़े आदरके साथ उद्धृत किया है। और प्रस्तुत 'आप्तपरीक्षा का भव्य प्रासाद तो इसीके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गलाचरण पद्यपर खड़ा किया गया है। ग्रन्थकारने अपने ग्रन्थोंमें सिर्फ एक ही जगह ( तत्त्वार्थश्लोकवा० पृ० ६ पर) इन आचार्यका 'गृद्धपिच्छाचार्य' नामसे उल्लेख किया है और सर्वत्र 'सूत्रकार' जैसे आदरवाची नामसे ही उनका उल्लेख हुआ है।
२. समन्तभद्रस्वामी-ये विक्रमकी दूसरी-तीसरी शतीके महान् आचार्य हैं। ये वीरशासनके प्रभावक, सम्प्रसारक और खास युगके. प्रवर्तक हुए हैं। अकलङ्कदेवने इन्हें कलिकालमें स्याद्वादरूपी पुण्योदधिके तीर्थका प्रभावक बतलाया है। आचार्य जिनसेनने इनके वचनोंको भ० वीरके वचनतुल्य प्रकट किया है और एक शिलालेखमें तो भ० वीरके तीर्थकी हजारगुनी वृद्धि करनेवाला भी उन्हें कहा है। वास्तवमें स्वामी समन्तभद्रने वीरशासनकी जो महान् सेवा की है वह जैनवाङमयके इतिहासमें सदा स्मरणीय एवं अमर रहेगी। आप्तमीमासा ( देवागम ), युक्त्यनुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार और जिनशतक ( जिनस्तुतिशतक ) ये पाँच उपलब्ध कृतियाँ इनकी प्रसिद्ध हैं। आ० विद्यानन्दने इनकी आप्तमीमांसा ( देवागम ) पर अकलङ्कदेवकी अष्टशतीको समाविष्ट करते हुए आठ हजार प्रमाण 'अष्टसहस्री' टीका लिखी है जिस आप्तमीमांसालंकार और देवागमालंकार भी कहा जाता है। इनके दूसरे ग्रन्थ युक्त्यनुशासनपर भी आ० विद्यानन्दने 'युक्त्यनुशासनालङ्कार'
१. स्वामीसमन्तभद्र और न्यायदी० प्रस्तावना पृ० ८५ । २. अष्टश० पृ० २। ३. हरि. पु० १.३० । ४. वेलूरताल्लुकेका शि० नं० १७ ।
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