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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका के लिये उन्होंने उक्त उल्लेख किया है। उसमें कहा गया है कि पूर्वाचार्य भगवान् श्रीदत्तने भी अपने जल्पनिर्णयमें वही दो प्रकारका जल्प-वाद बतलाया है-१ तात्त्विक और प्रातिभ । उक्त उल्लेखमें विद्यानन्दने इन्हें '६३ वादियोंका जेता' भी कहा है। इससे प्रतीत होता है कि 'जल्पनिर्णय' नामक महत्वपूर्ण ग्रंथके कर्ता और ६३ वादियोंके जेता श्रीदत्ताचार्य बहत प्रभावशाली वादी और तार्किक हुए हैं तथा वे विद्यानन्दके बहुत पहले हो चुके हैं। आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन ( वि० की ९ वीं शताब्दि ) ने' भी आदिपुराणके आरम्भमें इनका सश्रद्ध स्मरण किया है और उन्हें वादिगजोंका प्रभेदन करनेवाला सिंह लिखा है। आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्रव्याकरणके 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियाम् । १-४-३४' सूत्रद्वारा एक श्रीदत्तका समुल्लेख किया है । यदि ये श्रीदत्त प्रस्तुत श्रीदत्त हों तो ये पूज्यपाद ( वि० की छठी शताब्दी ) से भी पूर्ववर्ती ज्ञात होते हैं। चार आरातीय आचार्यों में भी एक श्रीदत्तका नाम है जिनका समय वीरनिर्वाणसं० ७०० ( वि० सं० २३० ) के लगभग बतलाया जाता है । श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमीकी सम्भावना है कि ये आरातीय श्रोदत्त जल्पनिर्णयके कर्ता श्रीदत्तसे भिन्न होंगे। आ० अकलङ्कदेवने अपने 'सिद्धिविनिश्चय'में. एक 'जल्पसिद्धि' नामका प्रस्ताव रखा है और उसमें छलादिदूषण रहित जल्पको वाद बतलाकर दोनोंको एक प्रकट किया है तथा विद्यानन्दके५ उल्लेखानुसार उसमें उन्होंने तात्त्विक वादमें जय कहो है। अतः सम्भव है कि श्रीदत्तके जल्पनिर्णयका अकलङ्कके 'जल्पसिद्धि' प्रस्तावपर प्रभाव हो। इस तरह आ० श्रीदत्तका समय वि० की तीसरीसे पाँचवीं शताब्दीका मध्यकाल जान पड़ता है।
४. सिद्धसेन-स्वामी समन्तभद्र के बाद और अकलङ्कदेवके पूर्व इनका उदय हुआ है। ये जैन परम्पराके प्रभावशाली जैन तार्किक हैं । ये जैनवाङमयमें सिद्धसेन दिवाकरके नामसे विशेष विश्रुत हैं । इनका 'सन्मति१. 'श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपःश्रीदीप्तमूर्तये । कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभे
दिने ।।' १-४५ । २., ३., ४. 'जैनसाहित्य और इतिहास' पृ० ११७, १२० । ५. "तत्रह तात्त्विके वादेऽकलङ्क: कथितो जयः।। स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः ।। ४६ ।।"
-तत्त्वार्थश्लो० पृ० २८१ । ६. देखो, हरिभद्र (८वीं, ९वीं शती) कृत तत्त्वार्थवृत्ति पृ० २३ ।
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