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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका
शिलालेखोंमेंसे सिद्धरवस्ती उत्तरकी ओर एक स्तम्भपर जो विस्तृत शिलालेख' उत्कीर्ण है और जो शक सं० १३२०, ई० सन् १३९८ का है उसमें नन्दिसंघके जिन आठ आचार्योंका उल्लेख है उनमें आ० माणिक्यनन्दिका नाम है । ये अकलंकदेवकी कृतियोंके मर्मज्ञ और अध्येता थे। इनकी एकमात्र कृति 'परीक्षामुख' है। यह परीक्षामुख अकलंकदेवके जैनन्यायग्रन्थोंका दोहन है और जैनन्यायका अपूर्व तथा प्रथम गद्यसूत्रग्रन्थ है। यद्यपि अकलंकदेव जैनन्यायको प्रस्थापना कर चुके थे और कारिकात्मक अनेक महत्त्वपूर्ण न्यायविषयक स्फुट प्रकरण भी लिख चुके थे। परन्तु गौतमके न्यायसूत्र, दिङ्नागके न्यायमुख, न्यायप्रवेश आदिकी तरह जैनन्यायको सूत्रबद्ध करनेवाला 'जैनन्यायसूत्र' ग्रन्थ जैनपरम्परामें अबतक नहीं बन पाया था। इस कमीकी पूर्ति सर्वप्रथम आ० माणिक्यनन्दिने अपना परीक्षामुखसूत्र' लिखकर की जान पड़ती है। उनकी यह अपूर्व अमर रचना भारतीय न्यायग्रन्थों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। प्रमेयरत्नमालाकार लघु अनन्तवीर्य (वि० ११वी, १२वीं शती) ने तो इसे अकलंकके वचनरूप समुद्रको मथकर निकाला गया 'न्यायविद्यामृत'न्यायविद्यारूप अमृत बतलाया है । वस्तुतः इसमें अकलंकदेवके द्वारा प्रस्थापित जैनन्याय, जो उनके विभिन्न न्यायग्रन्थोंमें विप्रकीर्ण था, बहत ही सुन्दर ढंगसे ग्रथित किया गया है। उत्तरवर्ती आ० वादि देवसूरिके प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार और आ० हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसा पर इसका अमिट प्रभाव है । वादि देवसूरिने तो इसका शब्दशः और अर्थशः पर्याप्त अनुसरण किया है। इस ग्रन्थपर आ० प्रभाचन्द्रने १२ हजार प्रमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामकी विशालकाय टीका लिखी है। इनके कुछ ही पीछे आ० लघु अनन्तवीर्यने प्रसन्न रचनाशैलीवाली 'प्रमेयरत्नमाला' नामकी मध्यम परिमाणयुक्त सुविशद टीका लिखी है। इस प्रमेय
१. देखो शि० नं० १०५ (२५४), शिलालेखसं० पृ० २०० । २. यथा-'विद्या-दामेन्द्र-पद्मामर-वसु-गुण-माणिक्यनन्द्यावयाश्च । ३. “अकलंकवचोम्भोधेरुद्दभ्रे येन धीमता ।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥"-प्रमेयर. पृ. २ । अकलंकके वचनोंसे 'परीक्षामुख' कैसे उद्धत हुआ है, इसके लिये मेरा 'परीक्षामुखसूत्र और उसका उद्गम' शीर्षक लेख देखें, अनेकान्त वर्ष ५,
किरण ३-४ पृ० ११९-१२८ । ४. इन ग्रन्थोंकी तुलना कीजिये ।
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