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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका पहला आधार तो यह है कि प्रभाचन्द्रने परीक्षामुख-टीका ( प्रमेरकमलमार्तण्ड ) को आरम्भ करते हुए लिखा है कि 'मैं अल्पज्ञ माणिक्यनन्दिके चरणकमलोंके प्रसादसे इस शास्त्रको बनाता हूँ। क्या छोटा-सा झरोखा सूर्यकी किरणोंद्वारा प्रकाशित हो जानेसे लोगोंके इष्ट अर्थका प्रकाशन नहीं करता ? अर्थात् अवश्य करता है।' इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने गुरु माणिक्यनन्दिके चरणोंमें बैठकर परीक्षामुख और समस्त इतर दर्शनोंको, जिनके माणिक्यनन्दि प्रभाचन्द्र के शब्दोंमें 'अर्णव' थे पढ़ा होगा और उससे उनके हृदय में तद्गत अर्थका प्रकाशन हो गया होगा और इसलिये उनके चरणप्रसाद से उसको टीका करनेका उन्होंने साहस किया होगा। गुरुकी कृतिपर शिष्य द्वारा टीका लिखना वस्तुतः साहसका कार्य है और उनके इस साहसको देखकर सम्भवतः उनके कितने ही साथी स्पर्धा और उपहास भी करते होंगे और जिसकी प्रतिध्वनि प्रारम्भके तीसरे', चौथे और पाँचवें पद्योंसे भी स्पष्टतः प्रकट होती है। __ दूसरा आधार यह है कि प्रभाचन्द्रने टीकाके अन्तमें जो प्रशस्ति दो है उसमें माणिक्यनन्दिका गुरुरूपसे ही स्पष्टतया उल्लेख किया है और उनके आनन्द एवं प्रसन्नताकी वृद्धि-कामना को है। __ तीसरा आधार यह है कि टीकाके मध्य में एक स्थलपर प्रभा चन्द्रने 'इत्यभिप्रायो गुरूणाम्' शब्दोंद्वारा माणिक्यनन्दिको अपना गुरु स्पष्टतः प्रकट किया है और उनके अभिप्रायको प्रदर्शित किया है ।
चौथा आधार यह है कि नयनन्दि, उनके गुरु महामण्डित माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र इन तीनों विद्वानोंका एक काल और एक स्थान है। १. 'शास्त्रं करोमि वरमल्पतरावबोधो माणिक्यनन्दिपदपंकजसत्प्रसादात् । अर्थ न किं स्फुटयति प्रकृतं लधीयाँल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिताद्गवाक्षः ॥'
-श्लोक २ । २. 'ये नूनं प्रथयन्ति नोऽसमगुणः' इत्यादि । ३. 'त्यजति न विदधानः कार्यमुद्विज्य धीमान्' इत्यादि । ४. 'अजऽमदोषं दृष्ट्वा ' आदि । ५. यथा-गुरुः श्रीनन्दि-माणिक्यो नन्दिताशेषसज्जनः । नन्दतादुरितकान्तरजाजैनमतार्णवः ॥
-प्रमेयक० प्रश० श्लो० ३ । ६. देखो, प्रमेयकमलमार्तण्ड (नई आवृत्ति पृ० ३४८) ३-११ सूत्रकी व्याख्या ।
इसको ओर मेरा ध्यान प्रो० दलसुख माल वणियाने आकर्षित किया है जिसके लिये उनका आभारी हूँ।
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