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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका पृ० २०५ मं 'हेतुलक्षणं वार्तिककारेणैवमुक्तं' तथा प्रमाणपरीक्षा पृ० ७२ में 'तथोक्त' शब्दोंके साथ उक्त कारिकाको दिया है। अन्य कितने ही ग्रन्थकारोंने भी इस कारिकाको अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत किया है । न्यायावतारकार आ० सिद्धसेनने तो उक्त कारिकाको सामने रखकर अपने न्यायवतारकी 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्' आदि २२ वीं कारिकाके पूर्वार्द्धका निर्माण ही नहीं किया, बल्कि 'ईरितम्' शब्दके प्रयोगद्वारा उसकी प्रसिद्धि एवं अनुसरण भी ख्यापित किया है। इस तरह पात्रस्वामीकी रक्त कारिका समग्र जैनवाङ्मयमें सुप्रतिष्ठित हुई है। पात्रस्वामीकी दूसरी रचना पात्रकेसरीस्तोत्र ( जिनेन्द्रगुणस्तुति ) है जो एक स्तोत्रग्रन्थ है और जिसमें आप्तस्तुतिके वहाने सिद्धान्तमतका प्रतिपादन किया गया है। इसमें कुल ५० पद्य हैं जो अत्यन्त गम्भीर और मनोहर हैं। इसपर एक संस्कृत टीका भी है। इस टीकाके साथ यह स्त्रोत्र माणिकचन्द्रग्रन्थमालासे तत्त्वानुशासनादिसंग्रहमें प्रकाशित हो चुका है और केवल मूल प्रथमगुच्छकमें तथा मराठी अनुवाद सहित 'श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र' के साथ प्रकट हो गया है । संस्कृतटीकाकारने इस स्तोत्रका दूसरा नाम 'बृहत्पंचनमस्कारस्तोत्र' भी दिया है।
६. भट्टाकलदेव-ये विक्रमकी सातवीं शतीके महान् प्रभावशाली और जैनवाङमयके अतिप्रकाशमान उज्ज्वल नक्षत्र हैं। जैनसाहित्यमें इनका वही स्थान है जो बौद्धसाहित्यमें धर्मकीर्तिका है। जैनपरम्परामें ये 'जैनन्यायके प्रस्थापक'के रूपमें स्मृत किये जाते हैं। इनके द्वारा प्रतिष्ठित 'न्यायमार्ग' पर ही उत्तरवर्ती समग्र जैन तार्किक चले हैं। आगे जाकर तो इनका वह न्यायमार्ग 'अकलकंन्याय'के नामसे ही प्रसिद्ध हो गया। तत्त्वार्थवात्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चिय, लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह आदि इनकी अपूर्व और महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। ये प्रायः सभी दार्शनिक कृतियाँ हैं और तत्त्वार्थवात्तिकभाष्यको छोड़कर सभी गृढ एवं दुरवगाह हैं। अनन्तवीर्यादि टीकाकारोंने इनके पदोंकी व्याख्या करने में अपनेको असमर्थ बतलाया है। वस्तुतः अकलंकदेवका वाङ्मय अपनी स्वाभाविक जटिलताके कारण विद्वानोंके लिये आज भी दुर्गम और दुर्बोध बना हुआ है, जबकि उनपर टीकाएँ भी उपलब्ध हैं। विद्यानन्दने पद-पद१. देखिये, अनन्तवीर्यकृत सिद्धिवि० टी० लि० प० ८६३७ । धवला दे० ५०
१८५३, जैनतर्कवा० पृ० १३५, सूत्रकृ० टी० २२५, प्रमाणमी० पृ० ४०, सन्मतिसूत्रटी० पृ० ६९ और ५६९, स्या० रलाव० पृ० ५२१ ।
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