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प्रस्तावना न्यायविनिश्चयविवरणके समाप्त होनेके तुरन्त बाद ही उन्होंने प्रमाणनिर्णय बनाया है। परन्तु जहाँ आ० विद्यानन्दके ग्रन्थवाक्योंके उद्धरण इनमें पाये जाते हैं। वहाँ माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखके किसी भी सूत्रका उद्धरण नहीं है। यदि माणिक्यनन्दि विद्यानन्दके समकालीन अथवा वादिराजके बहत पूर्ववर्ती होते तो वादिराज विद्यानन्दकी तरह माणिक्यनन्दिके वाक्योंका भो अवश्य उद्धरण देते। इससे यह कहा जा सकता है कि आ० माणिक्यनन्दि आ० वादिराजके बहुत पूर्ववर्ती नहीं हैंसम्भवतः वे उनके आस-पास समसमयवर्ती हैं और इसलिये उनके ग्रन्थोंमें परोक्षामुखका कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता।
३. मुनि नयनन्दिने अपभ्रंशमें एक 'सुदंसणचरिउ' लिखा है, जिसे उन्होंने धारामें रहते हुए भोजदेवके राज्यमें वि. सं. ११००, ई. सन् १०४३ में बनाकर समाप्त किया है। इसको प्रशस्तिमें उन्होंने अपनी १. 'तन्निर्णयानुपयोगिनः स्मरणादेः पश्चादपि किमर्थं निरूपणमिति चेदनुमान
मेवेति ब्रूमः । "निवेदयिष्यते चैतत् पश्चादेव शास्त्रान्तरे (प्रमाणनिर्णये)।'
न्यायवि. वि. लि. प. ३०६ । २. देखो, न्यायवि. वि. लि. प. ३१ । ३. इस प्रशस्तिकी ओर मेरा ध्यान मित्रवर पं० परमानन्दजी शास्त्रीने खींचा
और वह मुझे अपने पाससे दी है । मैं उसे साभार यहाँ दे रहा हूँ। प्रशस्ति-जिणंदस्स वीरस्स तित्थे महंते । महाकुदकुदंनए एत संते ।
सुणरकाहिहाणो तहा पोमणंदि । खमाजुत्त सिद्धंतउ विसहणंदी ।। जिणिदागमाहासणो एचित्तो । तवारणट्ठीए लद्धीयजुत्तो। णरिंदामरिंदेहि सोणंदवंती । हुऊ तस्स सीसो गणी रामणंदी ॥
महापंडऊ तस्स माणिक्कणंदी । भुजंगप्पहाऊ इमो णाद छंदी । छत्ता-पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मणि णयणंदि अणिंदउ ।
चरिउ सुदंसणणाहहो तेण अवाहहो विरइउ बुहअहिणंदिउ । आरामगामपुरवरणिवेसे । सुपसिद्ध अवंती णामदेसे । सुरवइपुरि व्व विबुहयणइट्ट । तहिं अत्थि धारणयरी गरिट्ठ । रणउद्धंवर अरिवरसेलवज्ज । रिद्धि देवासुर जणि चोल रज्ज । तिहवणणारायण सिरिणिकेउ । तहिं णरवइपुगम, भोयदेउ । मणिगणयहइसियरविगभच्छि । तहिं जिणहरु पडपि विहारु अत्थि ।
णिवविक्कमकालहो ववगएसु । एयारह (११००) संवच्छरसएसु ।' 'एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोकारफलपयासयरे माणिक्कणंदितइविज्जसीसुणयणंदिणा रइए । संधि १२ ।'
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