Book Title: Subhashit Ratna Sandoha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापूर. ( हिंदी विभाग पुष्प ३१ ) आचार्यश्री अमितगति विरचित सुभाषितरत्न संदोह - संपादक एवं अनुवादक - स्व. श्री पं. बालचंद्र सिद्धान्तशास्त्री 1 बीर संवत् २५२४ - काशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ संतोष भवन, ७३४, फलटण गल्ली, सोलापुर ०३२०००७ ई. सन १९९८ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रकाशक - श्रीमान सेठ अरविंद रावजी अध्यक्ष- जन संस्कृति संरक्षक संघ फलटण गल्ली, सोलापूर :३२०००७ द्वितीयावृत्ति - प्रति ३०० - सन - १९९८ मूल्य -६०३. • सर्वाधिकार सुरक्षित - मुद्रक - एन. से. साखरे प्रिंटर्स सोलापुर. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 जीवराज जैन ग्रन्थमालाका परिचय : सोलापुर निवासी श्रीमान् स्व. प्र. जीवराज गौतमचन्द दोशी कई वर्षोसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्यमें अपनी वृत्ति लगाते रहे। सन् १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठो कि अपनी न्यायोपार्जित सम्पत्तिका उपयोग विशेष रूपसे धर्म तथा समाजको उन्नतिके कार्यमें करें। तदनुसार उन्होंने समस्त मारतका परिभ्रमण कर अनेक जैन विद्वानोंसे इस बातको साक्षात् और लिखित रूपसे सम्मतियां संगहीत की, कि कौनसे कार्यम सम्पत्तिका विनियोग किया जाय । अन्समें स्फुट मतसंचय कर लेने के पश्चात् सन् १९४१ के प्रीष्मकाल में ब्राह्मचारोजीने सिरक्षेत्र श्री गजपंथजोकी पवित्र भूमिपर अनेक विद्वानोंको आमंत्रित कर उनके सामने ऊहापोहपूर्वक निर्णय करने के लिए उक्त विषय प्रस्तुत किया। विद्वत्सम्मेलनके फलस्वरूप श्रीमान ब्रह्मचारीजीने जन संस्कृति तथा जन साहित्यके समस्त अंगोंके संरक्षण-उद्धार-प्रचारके हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ की ' स्थापना की। तथा उसके लिये द. ३०,००० का बृहत् दान घोषित कर दिया। ___ आगे उनकी परिग्रह निवृत्ति बढती गई। सन १९४४ में उन्होंने लगभग दो लाखको अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति संघको ट्रस्टरूपसे अपंग की। इसी संघके अन्तर्गत 'जीवराज जन ग्रम्पमाला' द्वारा प्राचीन संस्कृतप्राकृत-हिन्दी तथा मराठी प्रन्थोंका प्रकाशन कार्य आज तक अखण्ड प्रवाहसे चल रहा है। आज तक इस ग्रन्थमाला द्वारा हिन्दी विभागमें ४८ ग्रन्थ तथा मराठी विभागमें १०१ अन्य और षवला विभागमें १६ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है। प्रस्तुत ग्रन्थ इस प्रन्यमालाके हिंदी विभागका ३१वें पुष्प का द्वितीय संस्करण है। -रतनचंद सखाराम शहा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय 'अमितगति द्वारा विरचित माने जाने वाली रचनाओं से अधिकांश मुद्रित हो चुकी हैं और उनमें से कुछका आलोचनात्मक अध्ययन किया गया है। सुभाषित रत्न सन्दोहका काव्यमाला क्र० ८२ (बम्बई १९०३) में प्रकाशन हुआ था। और उसकी प्रस्तावना में भवदत्त शास्त्रीका ग्रन्थकार एवं उनके रचना कालके सम्बन्धमें एक लेख भी था । इसका अध्ययन करके जे० हर्टेल नामक जर्मन विद्वानने अपने एक विद्वत्तापूर्ण लेखमें यह बात प्रकट की कि इस ग्रन्थका (जो संवत् १०५० में रचा गया था ) संवत् १२१६ में हेमचन्द्र द्वारा रचित योगशास्त्र पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसके पश्चात् जर्मन विद्वान स्मिट् और हर्टेल द्वारा आलोचनात्मक रीतिसे सम्पादित एवं जर्मन भाषामें अनुवाद सहित इस ग्रन्थका प्रकाशन भी कराया गया था । इस संस्करणकी प्रस्तावना में ग्रन्थकार अमितगति, ग्रन्थ के शब्द चयन एवं व्याकरण सम्बन्धी विशेषता तथा उपयोग में लाये गये प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंका विवरण पाया जाता है ( लीपजिग १९०५ - १९०७) । ल्यूसनने इस संस्करणके सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किये है। इस समस्त सामग्री के आधार परसे इस ग्रन्थका संस्करण जीवराज जैन ग्रन्थमाला शोलापुरसे प्रकाशनार्थं तैयार हो रहा है।' भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैनग्रन्थमाला संस्कृत ग्रन्थांक ३३ रूपसे प्रकाशित (सन् १९६८ ) योगसार प्राभृत के प्रधान सम्पादकीयमें डॉ० ए. एन. उपाध्येने उक्त घोषणा की थी। उसीके अनुसार डॉ० उपाध्येके स्वर्गवास के १|| वर्ष पश्चात् यह ग्रन्थ प्रकाशित हो सका है। वह यदि जीवित रहते तो उक्त जर्मन संस्करणके आधारपर वह इसकी प्रस्तावना में सु० २० सं० की विशेषताओं पर विशेष प्रकाश डालते और इस तरह हिन्दीभाषी भी उससे लाभान्वित होते । किन्तु खेद है कि उनके स्वर्गंत हो जानेसे उनके अनेक संकल्पोंके साथ यह संकल्प भी चरितार्थं न हो सका । प्रस्तुत संस्करणको पाण्डुलिपि उक्त जर्मन पुस्तकके आधारपर कोल्हापुरके श्री वि० गो० देसाईने की है। उससे मूल श्लोक लिये है । 'स' इस अक्षरसे जो पाठ भेद दिये गये हैं वे भी उसी प्रतिसे लिये हैं । 'स' का मतलब है SCHIMIDT = स्मिट्, वे जर्मन संस्करणके सम्पादक हैं। स्मिटने छ प्रतियोंसे पाठभेद लिये हैं १. B बर्लिन प्रति । २. L इण्डिया आफिस । ३. S. Strab burger. ४-५ P. भण्डारकर रि० इ० पूना । ६. K. काव्यमाला में मुद्रित । उक्त सूचना हमें श्रीदेसाईसे प्राप्त हो सकी है। हमें वह प्रति देखने को नहीं मिल सकी। श्रीदेसाईने ही संस्कृत पद्योंका अन्वय किया है और भाषान्तर पं० बालचन्दजी शास्त्रीने किया है। में उक्त दोनों सहयोगियोंका आभारी हूँ । इसका मुद्रणकार्य निर्णयसागर प्रेस बम्बई में प्रारम्भ हुआ था। डा० उपाध्येके स्वर्गवासके समय तक केवल प्रारम्भके ६४ पृष्ठ छपे थे और काम रुका हुआ था । ग्रन्थमालाके सम्पादनका भार वहुत करनेपर हमने इसके मुद्रणकी व्यवस्था बनारस में की। और श्रीबाबूलालजी फागुल्लके सहयोगसे उन्हींके मुद्रणालयमें इसका मुद्रण प्रारम्भ हुआ और उन्होंने तीन मासमें ही पूरा ग्रन्थ छाप दिया। इसके लिये हम उनके विशेष आभारी हैं। श्री स्याद्वाद महाविद्यालय भदैनी, वाराणसी वी० नि० सं० २५०३ कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आचार्य अमितति आचार्य अमितगति एक समर्थ ग्रन्थकार थे। उनका संस्कृत भाषापर असाधारण अधिकार था। उनकी कवित्वशक्ति अपूर्व थी। उनकी जो रचनाएं उपलब्ध हैं उनसे उनकी प्रांजल रचनाशैली प्रस्पष्ट अनुभवमें आती है। प्रसाद गुणयुक्त मनोहारी सरल सरस काव्यकौमुदीका पान करके हृदय आनन्दसे गद्गद हो जाता है। वे माथुर संघके जैनाचार्य थे। अतः उनकी सब रचनाएँ उद्बोधन प्रधान है। उन्होंने अपनी रचनाओंके द्वारा मनुष्यको असत्प्रवृत्तियोंकी ओरसे सावधान कर सत्प्रवृत्तियोंको अपनानेकी ही प्रेरणा की है। __आचार या सदाचारको मनुष्यका प्रथम धर्म कहा है। उस सदाचारके दो रूप हैं आन्तरिक और बाह्य । आन्तरिक सदाचारमें काम क्रोध-लोभ आदिका त्याग आता है और बाह्य सदाचारमें मांस, मदिरा, परस्त्रीगमन, वेश्या सेवन आदिका परित्याग आता है। कविने अपनी रसमयी कविताके द्वारा इन सबकी बुराईका चित्रण किया है। और श्रावकाचार रचकर श्रावकके आचारका विस्तारसे निरूपण किया है। जैनसिद्धान्तमें कर्म सिद्धान्त अपना विशेष स्थान रखता है। जीव कमसे कैसे बद्ध होता है, कर्म क्या वस्तु है। उसके कितने भेद-प्रभेद हैं, वे क्या-क्या काम करके जीवको शक्तिको कुण्ठित करते हैं। जीव कैसे उन कर्मोंपर विजय प्राप्त करता है, ये सब विषय कर्मसिद्धान्तसे सम्बद्ध है। आचार्य अमितगति जैनकर्मसिद्धान्तके भी विद्वान थे। उनकी उपलब्ध सभी रचनाएँ प्रकाशमें आ चुकी हैं। इस शताब्दीके प्रारम्भमें ही यूरोपके विद्वानोंका ध्यान उनकी रचनाओंकी बोर आकृष्ट हो गया था। स्व. डा० ए० एन० उपाध्येके लेखके अनुसार बेवर, पिटरसन, भण्डारकर, ल्यूमन, आफैट जैसे विद्वानोंके द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ सूचियोंमें सन् १८८६ से लेकर १९०३ तक अमितगतिकृत रचनाओं का निर्देश हो गया था। अमितगतिने अपना सुभाषितरलसन्दोह सम्वत् १०५० में, धर्मपरीक्षा सम्बत् १०७० में और पंचसंग्रह सम्वत् १०७३ में रचकर समाप्त किया था। धर्मपरीक्षाकी अपनी प्रशस्तिमें उन्होंने अपनी पूरी गुर्वावली इस प्रकार दी है-वीरसेन, देवसेन, अमितगति (प्रथम), नेमिषेण और माधवसेन । किन्तु सुभाषितरलसन्दोह और श्रावकाचारकी प्रशस्तिमें वीरसेनका नाम नहीं है। तथा पंचसंग्रहको प्रशस्तिमें केवल माधबसेनका ही नाम है। वही उनके गरु थे। उसमें उन्होंने स्पष्टरूपसे अपनेको माधवसेनका शिष्य उसी प्रकार बतलाया है जैसे गौतम गणधर महावीर भगवानके शिष्य थे। इसकी रचना मसत्तिकापरमें हुई थी। अन्य रचनाओं के अन्तमें उनके रचना स्थानका निर्देश नहीं है। केवल सु० र० स० की प्रशस्तिमें इतना है कि उस समय राजा मुंज पृथिवीका शासन करते थे। धारा नगरोसे सात कोसपर चगड़ीके पास मसीद विलोदा नामक गाँव मसूतिकापुर था ऐसा किन्हीं विद्वानोंका मत' है। निर्णय सागरसे प्रकाशित (१९३२) सु० २० सं० की भूमिकामें पं० भवदत्त शास्त्रीने वापतिराज और मुंजकी एकता सिद्ध करके उज्जैनीको राजधानी बतलाया है और लिखा है कि धारामें राजधानी भोजने स्थापित की थी। इससे आचार्य अमितगतिका आवास क्षेत्र उक्त प्रदेश तथा रचनाकाल विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका तृतीय चरण सुनिश्चित है। १. देखो बैन माहित्य और इतिहास, पृ० २८० का फुटनोट । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] अमरकीर्तिने वि० सं० १२४७ में अपना छक्कम्मोचएस ( षट्कर्मोपदेश ) नामक ग्रन्थ अपभ्रंश भाषामें रा था । । उसकी प्रशस्तिमें उन्होंने अपनी गुरु परम्परा मुनिचूड़ामणि महामुनि अमितगतिसे प्रारम्भ की है और उन्हें बहुत शास्त्रोंका रचयिता कहा है। यथा— अमिय महामुणि मुणिचूडामणि आसितित्थु समसीलषणु । विरइम बहुसत्थड कित्तिसमुत्थउ सगुणानंदिय विइभणु ॥ अमितगति के शिष्य शान्तिषेण, उनके अमरसेन, उनके श्रीषेण, श्रीषेणके चन्द्रकीर्ति और चन्द्रकीर्तिके शिष्य अमरकोति थे । यह आचार्य अमितगतिकी शिष्यपरम्परा थी । काष्ठा संघ और माथुर संघ अमितगतिने सु० र० सं० और श्रावकाचारकी अपनी प्रशस्तियों में अपने प्रगुरु नेमिषेणको माथुर संघका तिलक कहा है। और पञ्च संग्रहकी प्रशस्ति श्री माथुराणां संघः' की प्रशंसामे ही आरम्भ को है। उनकी शिष्य परम्पराका निर्देश करनेवाले अमरकीर्तिने भी अपने प्रगुरुको माथुरसंधाधिप लिखा है । अत: अमितगति माथुर संघ थे । किन्तु उन्होंने माथुर संघके साथ अन्य किसी भी गण गच्छका निर्देश नहीं किया है । भट्टारक सम्प्रदाय ( पृ० २१० ) में भी लिखा है- 'बारहवीं शताब्दी तक माथुर, बागड़ तथा लाडवागडके जो उल्लेख मिलते हैं उनमें इन्हें संघकी संज्ञा दी गई है तथा काष्ठा संघके साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं कहा है।' माथुर संघके सम्बन्धमें आचार्य अमितगतिका उल्लेख हमारे सामने है। आचार्यं जय सेनने सं० १०५५ में धर्म रत्नाकर रचा था । प्रायः इसी समयके लगभग आचार्य महासेनने प्रद्युम्नचरित रचा। इन दोनोंने अपनी प्रशस्तियोंमें लाट वागण (लाट वर्गट ) गणको प्रशंसा की है किन्तु काष्ठा संघका कोई उल्लेख नहीं किया । किन्तु भट्टारक सुरेन्द्र कीर्तिने, जिनका समय संवत् १७४७ है अपनी पट्टावली में कहा है कि काष्ठा संघ नन्दित, माथुर, वागड़ और लाडवागड़ ये चार गच्छ हुए । उनके ऐसा लिखनेमें तो हमें कोई भ्रम प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उनके समय तक ये चारों गण काष्ठा संघसे सम्बद्ध हो गये थे । ग्वालियर में लिखी गई कई प्रशस्तियों में जो विक्रमकी १५वीं शतीकी हैं काष्ठा संघ, माथुर गच्छ पुष्करण का उल्लेख है । परन्तु देवसेनने वि० सं० २२० में रचे गये दर्शनसारमें जो वि० सं० ७५३ में नन्दितट ग्राम में काष्ठासंघको उत्पत्ति वत्तलाई है और उसके दो सौ वर्ष पश्चात् मथुरा में माथुरोंके गुरु रामसेनको माथुर संघका प्रस्थापक बतलाया है वही चिन्त्य है। अमितगतिके प्रशस्ति लेख तथा दर्शनसारको रचना में ६० वर्षका अन्तराल है । सु० ० सं० से ६० वर्ष पूर्व दर्शनसारको रचना हुई है और दर्शनसारके रचयिता काष्ठा संघ तथा माथुर संघसे परिचित अवश्य होने चाहिए, तभी तो उन्होंने उनका उल्लेख किया है । उनके लेखानुसार सम्बत् १५३ में मथुरा में माथुरोके गुरु रामसेनने पीछो न रखनेका निर्देश किया था। यह समय सु० र० सं० की रचनासे लगभग सौ वर्ष पूर्व पड़ता है। अमित गतिकी गुरु परम्परासे इस कालको संगति भी बैठ जाती है । किन्तु रामसेनके द्वारा माथुर संघकी स्थापना और निष्पिच्छके वर्णनका समर्थन अन्यत्र से नहीं होता । इसके सिवाय अमित गति के साहित्य में ऐसी कोई आगम विरुद्ध बात हमारे देखने में नहीं आई जिसके कारण उन्हें जेनाभास कहा जा सके। उनकी सभी रचनाएँ आगमिक परम्पराके ही अनुकूल हैं। आगे उनका परिचय दिया जाता है। १. जै० सा० ३० पु० २७६ । २. भट्टा० सं० पु० २१७ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ ] .. १. सुभाषितरत्न सन्दोह-इसका प्रकाशन निर्णय सागर प्रेससे हुआ था। सन् १९३२ में प्रकाशित संस्करण हमारे सामने है । हिन्दी अनुवादके साथ इसका प्रकाशन हरिभाई देवकरण ग्रन्थमाला कलकत्तासे हुआ था। ग्रन्यकारने तो अपनी प्रशस्तिमें इसे सुभाषित संदोह नाम ही दिया है। किन्तु इसका प्रकाशन इसी नामसे हुआ है और वह यथार्थ भी है। किसी कविने कहा है-'पृथिवि परतोन ही रत्न हैं-जल, अन्न और सुभाषित । किन्तु मूह लोग पत्थरके टुकड़ोंको रत्न कहते हैं। जो मनुष्य धर्म, यश, नोति, दक्षता, मनोहारि सुभाषित आदि गुण रत्नोंका संग्रह करता है वह कभी कष्ट नहीं उठाता। अतः सुभाषितके साथ रल शब्दका प्रयोग उचित ही है। संस्कृत साहित्यमें सुभाषितोंको प्रचुरता है। सुभाषितोंको लेकर भी ग्रन्थ रचना हुई है। भर्तृहरिका नीति शतक, शृङ्गार शतक और वैराग्य शतक सुभाषित त्रिशती के नामसे सुप्रसिद्ध है। जैन परम्परामें भी गुणभद्राचार्यका आत्मानुशासन, जो जीवराज ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ है, वस्तुतः सुभाषित संदोह ही है। आचार्य अमितगतिने भी इस ग्रन्थ रत्नकी रचना करके सुभाषित रत्न भाण्डागारकी श्री वृद्धि ही को है। संभवतया यह उनकी प्रथम रचना हो। इसमें बत्तीस प्रकरण हैं जिनमें सांसारिक विषय, क्रोध, माया और लोभकी निन्दा करनेके साथ ज्ञान, चारित्र, जाति, जरा, मृत्यु, नित्यता, देव, जठर, दुर्जन, सज्जन, दान, मद्यनिषेध, मांसनिषेध, मधुनिषेध, कामनिषेध, वेश्या संगनिषेध, द्यूतनिषेध, आप्तस्वरूप, गुरु स्वरूप, धर्म स्वरूप, शोक, शौच, थावक धर्म, तप आदिका निरूपण सुललित प्रासाद गुण युक्त पद्योंमें विविध छन्दोंमें किया है। इसके अध्ययनसे इसके रचयिताकी वर्णन शैली, कल्पना शक्ति और कवित्व शक्ति के प्रति पाठककी श्रद्धा होना स्वाभाविक है। संस्कृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है और ललित पदोंका चयन उनको विशेषता है। जिस विषय पर भी वह पद्य रचना करते हैं उस विषयका चित्र पाठकके सामने उपस्थित कर देते है। वह एक निर्मल सम्यक्त्व और चारित्रके धारक महामुनि होनेके कारण जनताको सदुपदेशामृतका ही पान कराते हैं। तदनुसार सुभाषितरत्नसंदोहके सुभाषित सचमुचमें सुभाषित ही हैं। उनके द्वारा उन्होंने मनुष्यकी असत्प्रवृत्तियोंकी बुराइयाँ दिखाकर उनकी ओरसे उसे निवृत्त करनेका ही प्रयत्न किया है । काम, क्रोध, लोभ, मदिरापान, मांसभक्षण, जुआ आदि ऐसी हो असत्प्रवृत्तियाँ हैं। तथा ज्ञानार्जन, चारित्रपालन आदि सत्प्रवृत्तियाँ हैं। ज्ञानकी प्रशंसामें वह कहते हैं परोपदेशं स्वहितोपकार ज्ञानेन देही वितनोति लोके। जहाति दोष श्रयते गुणं च ज्ञानं जनस्तेन समर्चेनीयम् ।।२०८॥ ज्ञानके द्वारा प्राणी दूसरोंको उपदेश देता है, अपना हित करता है। दोषोंको त्यागता है, गुणोंको ग्रहण करता है अतः मनुष्योंको ज्ञानका सम्यक् रूपसे आदर करना चाहिए। पूरा ग्रन्थ इसी प्रकारके विविध सुभाषितोंसे भरा हुआ है। २. श्रावकाचार-श्रावकको उपासक भी कहते हैं अत: उसका आचार उपासकाचार भी कहाता है। अमितगतिने अपनी इस कृतिको उपासकाचार नाम दिया है। किन्तु अमितगति श्रावकाचारके नामसे प्रसिद्ध है और इसी नामसे इसका प्रथम प्रकाशन मुनि श्री अनन्तकीर्ति दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बईसे १९२२ में हुआ था। तथा उसका एक अन्य संस्करण स्व० व शीतलप्रसादजी स्मारक ग्रन्थमाला सुरतसे वि० सं० २०१५ में हुआ था । इन दोनों संस्करणोंमें संस्कृत पाठके साथ पं० भागचन्द्रजी कुत बचनिका भी है, और उसमें इसे अमितगति आचार्यकृत श्रावकाचार लिखा है। तदनुसार ही इसे यह नाम दिया गया और इस तरह यह इसी नामसे प्रसिद्ध हो गया। इसमें पन्द्रह परिच्छेद हैं और उनमें श्रावकके आचारसे सम्बद्ध विभिन्न विषयोंका वर्णन विभिन्न छन्दोंमें सरल सरस साहित्यिक भाषामें किया गया है । इस उपासकाचारसे पूर्व समन्तभद्रकृत Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार और अमृतचन्द्रकृत पुरुषार्थ सिद्धथुपाय रचा जा चुका था। तथा आचार्य बिनसेनने अपने महापुराणमें और सोमदेव सूरिने अपने यशस्तिलक चम्भू काव्यके अन्तिम अध्यायोंमें उपासकाध्ययन नामसे श्रावकके आचारका प्रतिपादन किया था। किन्तु अमितगतिका श्रावकाचार उक सब श्रावकाचारोंसे वैशिष्ट्य रखता है। तथा उक्त सव श्रावकाचारोंसे वहत्काय भी है। प्रथम परिच्छेदमें मनुष्य भवको दुर्लभता और धर्मको महत्ताका साधारण कथन करनेके पश्चात् दूसरे परिच्छेदमें मिथ्यात्वको त्यागनेका उपदेश करते हुए उसके बाधार भूत कुदेव आदि छह बनायतनोंका कचन करके सम्यक्त्वको उत्पत्ति और उसके महत्त्वका वर्णन है। इसके पूर्वके श्रावकाचारोंमें सम्यक्त्वका इतना विस्तारसे विवेचन नहीं है। इस विवेचनमें करणानुयोगका भी अनुसरण किया गया है । सम्यक्त्वको उत्पत्तिका क्रम, उसके छूटनेके वादको अवस्था, उसके भेद, स्थिति, आदि सभी आवश्यक जानकारी दी गई है। जीव अजीव आदि तत्वोंके श्रद्धान पूर्वक सम्यक्त्व होता है अतः तीसरे अध्यायके प्रारम्भमें जोवके भेदोंका विवेचन करते हुए दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय आदि जीवोंके नाम अमृतचन्द्रक तत्त्वार्थसारकी तरह दिये गये है। तथा चौदह मार्गणा और गुण स्थानोंके नाम भी दिये हैं। आगे आस्रव तत्त्वके वर्णनमें तत्वार्थ सूत्रके छे अध्यायके अनुसार प्रत्येक कर्मक भास्रवके कारण कार्योका विवेचन किया है। इसी तरह आगे भी प्रत्येक तत्त्वके सम्बन्ध तत्वार्थ सूत्रके अनुसार संक्षिप्त जानकारी दी है। चतुर्थ अध्यायमें चार्वाक, विज्ञानाद्वैत, ब्रह्माद्वैत, सांख्य, न्यायवैशेषिक, बौद्ध दर्शनको जीव सम्बन्धी मान्यताओंका निरसन करके सर्वज्ञाभाववादियाको समीक्षापूर्वक साकी सिद्धि की है । तथा अन्तमें गोपूजाकी समीक्षा करते हुए कहा है मुशलं देहली चुल्लो पिप्पलश्चपको जलम् । देवा यैरभिधीयन्ते वज्यन्ते ते: परेत्र के ॥९६|| जो मूसल, देहली, चूल्हा, पीपल, जल आदिको देव मानकर उनकी पूजा करते हैं उनसे क्या वच सकता है। इस तरह दार्शनिक और लोकाचारकी समीक्षाको दृष्टिसे यह परिच्छेद महत्त्वपूर्ण है। सोमदेवने अपने उपासकाध्ययन में लोकमूढ़ताको समीक्षा की है किन्तु सव दर्शनोंको नहीं की। पांचवे परिच्छेदमें शावकके अष्टमूल गुणोंका वर्णन है । यहाँ भी मद्य, मांस, मधु आदिको निन्द्य बतलाते हुए अनेक विशेष बातें बतलाई हैं। रात्रि भोजनका निषेष जोरसे किया है ! छठे अव्यायमें अणुवत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंका कथन है। इसमें हिंसाके त्यागको सरल बनानेके लिये जो उसके भेद किये गये हैं वे इससे पूर्वके श्रावकाचारों में नहीं देखे जाते। कहा है हिंसाके दो भेद है-श्रारम्भी और बनारम्भी। जो गृहवाससे निवृत्त है वह दोनों प्रकारको हिंसासे वचता है किन्तु जो घरमें रहता है वह आरम्मी हिंसाको त्यागनेमें असमर्थ है । हिंसा आदिका विवेचन अमृतचन्द्रके पुरुषार्थ सिद्धथुपायसे प्रभावित है। सातवें अध्यायमें व्रतोंके मत्तीचारोंका कथन करनेके पश्चात् तीन शल्योंका वर्मन सुन्दर है। निदान शल्यका वर्णन करते हुए कहा है जो जिनधर्मको सिदिके लिये यह प्रार्थना करता है कि मुझे अच्छी जाति, अच्छा कुल, आदि प्राप्त हो उसका यह निदान भी संसारका ही कारण है। इसी अध्यायके अन्तमें ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूपमात्र कहा है। __ आठवें अध्यायमें छह आवश्यकोंका कथन है, वे हैं-सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग। ये ही छह आवश्यक मुनियोंके मूलगुणोंमें हैं। प्राचीन समयमें ये ही छह आवश्यक थावकोंके भी थे। इनके स्थानमें देवपूजा आदि छह आवश्यक निर्धारित होनेपर इन्हें भुला ही दिया गया। अन्य किसी भी श्रावकाचारमें इनका कथन हमारे देखनेमें नहीं आया। इन्होंके प्रसंगसे इस परिच्छदम आवश्यकोंके योग्य और अयोग्य स्थानका, आसनोंका, कालका, तथा मुद्राका कथन है। आशापुरजोने अपने अनगार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] धर्मामृत में षडावश्यकों का कथन करते हुए इन सवका कथन किया है। अन्तमें कायोत्सर्गका कथन करते हुए उसके बत्तीस दोष मूलाचारके अनुसार कहे हैं। यह सब कथन मुनियोंके आचारसे भी सम्बद्ध है । नवम अध्यायमें दान, पूजा, शील और उपवासका कथन है। ये सब श्रावकोंका मुख्य कर्तव्य है । इसमें दाताके सात गुणोंके साथ उसके विशेष गुणोंका कथन विस्तारसे किया है । तथा भूमिदान, लोहदान, तिलदान, गृहदान, गौदान, कन्यादान, सक्रान्तिमें दान, पिण्डदान, मांसदान, स्वर्णदान आदि लोक प्रचलित दानोंका निषेध किया है । तथा अभयदान, अन्नदान, औषधज्ञान और ज्ञानदान देनेका विधान किया है । दसवें अध्यायमें पात्र, कुपात्र और अपात्रका विचार है। पात्र तीन प्रकारका होता है। तपस्वी उत्तमपात्र है, श्रावक मध्यपात्र है और सम्यग्दृष्टी जघन्यपात्र है। इन तीनों प्रकारके पात्रोंका स्वरूप विस्तारसे कहा है जो अन्य श्रावकाचारोंमें नहीं है । जो व्यसनी है, परिग्रही है, मद्य-मांस परस्त्रीका सेवी है वह अपाय हे उसे दान नहीं देना चाहिये । आगे उत्तमपात्र मुनिको दान देनेकी विधि कही है । ग्यारहवें परिच्छेद में चारों दानोंका वर्णन करते हुए उनके फलका कथन है । बारहवें परिच्छेद में अर्हन्तकी पूजाका विधान है । पूजाके दो प्रकार हैं- द्रव्यपूजा और भावपूजा | शरीर और वचनको जिनेन्द्रकी ओर लगाना तथा गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप अक्षत आदि पूजा करना द्रव्यपूजा है और मनको जिनेन्द्रमें लगाना तथा उनके गुणोंका चिन्तन भावपूजा है । पूजाके पश्चात् शीलका वर्णन करते हुए जुआ, वेश्या, परस्त्री शिकार, आदि व्यसनोंकी बुराइयाँ कही है । आगे भोजन आदि करते हुए मौन धारण करनेकी प्रशंसा की है। मौनके पश्चात् उपवासका वर्णन है जिसमें सब इन्द्रियाँ अपना-अपना विषय सेवनरूप कार्यं त्यागकर आत्माके निकट वास करे वह उपवास है । आगे उपवासके अनेक प्रकारोंका वर्णन है । तेरहवें परिच्छेद में श्रावकको गुरुजनोंकी विनय, वैयावृत्य तथा स्वाध्याय आदिके द्वारा ज्ञानार्जन करते रहनेका सदुपदेश है । चौदहवें परिच्छेद में बारह भावनाओं का चिन्तनका विधान है । पन्द्रहवें परिच्छेद में ध्यानका वर्णन मोलिक है। इससे पूर्वके उपलब्ध साहित्य में ध्यानका ऐसा वर्णन देखने में नहीं आता । ध्यान, ध्याता ध्येयका स्वरूप बतलाते हुए पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंका विवेचन बहुत महत्त्वपूर्ण है । इस तरह अमितगतिकिा श्रावकाचार श्रावकाचारोंमें अपना विशिष्ट स्थान रखता है । ३. धर्म परीक्षा — यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवादके साथ भारतीय सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्तासे प्रकाशित हुआ था । जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बईसे भी इसका दूसरा संस्करण निकला था। स्व० डा० ए० एन० उपाध्येने भारतीय विद्या भवनं बम्बईसे प्रकाशित हरिभद्रके धूर्ताख्यानकी अपनी प्रस्तावनाम धर्मपरीक्षा नामक कृतियोंका विश्लेषणात्मक परिचय दिया है। अमिगतिसे पूर्व हरिषेणने अपभ्रंश भाषामें धर्मपरीक्षा रची थी जो जयरामकी कृतिको ऋणी है । और हरिषेणकी कृतिके आधारपर अमितगतिने अपनी धर्मपरीक्षा मात्र दो मासमें रचकर पूर्ण की थी। इसका नवीन संस्करण जीवराज ग्रन्थमालासे शीघ्र ही प्रकाशित होगा। इसकी रचना अनुष्टुप छन्दमें हुई है। इसमें बीस परिच्छेद हैं। यह एक पुराणों में वर्णित अतिशयोक्तिपूर्ण असंगत कथाओं और दृष्टान्तोंकी असंगति दिखलाकर उनकी ओरसे पाठकों की रुचिको परिमार्जित करनेवाली कथा प्रधान रचना है। उसके दो मुख्य पात्र है मनोवेग और पवनवेग । दोनों विद्याधर कुमार हैं । मनोवेग जैनधर्मका श्रद्धानी है वह पवनवेगको भी श्रद्धानी बनानेके लिये पाटलीपुत्र ले जाता है । उस समय वहाँ ब्राह्मणधर्मका बहुत प्रचार था और ब्राह्मण विद्वान शास्त्रार्थके लिये तैयार रहते थे । दोनों बहुमूल्य आभूषणोंसे वेष्टित अवस्थामें ही घसियारोंका रूप धारण करके नगरमें जाते हैं और ब्रह्मशाला में रखी हुई भेरीको बजाकर सिंहासनपर बैठ जाते हैं। ब्राह्मण विद्वान किसी शास्त्रार्थीको आया जान एकत्र होते हैं और उनका विचित्ररूप देख आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यह देखकर मनोवेग कहता है हम तो केवल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ घाम बेचनेवाले लड़के हैं हमारा मूलरूप महाभारतकी कथाओंमें है। इसीपरसे परस्परमें कथावार्ता चल पड़ती है। मनोवेग अपने अनुभवकी असम्भव घटनाएं सुनाता है और जैसे ही ब्राह्मण विद्वान उसका विरोध करते हैं वह तत्काल उनके पुराणोंसे उसी प्रकारको कथा सुनाकर उन्हें चुप कर देता है। इस प्रकार मनोवेग ब्राह्मणोंने शास्त्रों और धर्मकी बहुत सी असंगत बातें पवनवेगकी समझाता है और पवनवेग जैनधर्मका श्रद्धानी बन जाता है और वे दोनों थावकका सुखी जीवन बिताते हैं। ८. पञ्चसंग्रह–पञ्चसंग्रह मूलका प्रकाशन प्रथम वार १९२७ में माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला बम्बईसे हुआ था । उसके पश्चात् १९३१ में बंशीधर शास्त्री सोलापुरके हिन्दी अनुवादके साथ बालचन्द कस्तूरचन्द गांधी धाराशिवकी ओरसे प्रकाशित हुआ था। बन्धक जीव, बध्यमान कर्मप्रकृति, बन्धके स्वामी, बन्धके कारण और धन्धके भेद इन पांचका कथन होनेसे इसका नाम पंचसंग्रह है। यह स्वतंत्र रचना नहीं है। किन्तु प्राकृत माथाबाम निबद्ध पंचसंग्रहका संस्कृत श्लोकोंमें रूपान्तर है। जब तक प्राकृत पञ्चसंग्रह प्रकाशमें नहीं आया था नब तक इसे स्वतंत्र कृतिके रूपमें माना जाता था। किन्तु प्राकृत पञ्चसंग्रह और उसीके अन्तर्गत लक्ष्मण सुत लड्डाके संस्कृत पञ्चसंग्रहके भारतीयज्ञानपीठसे प्रकाशित होनेके पश्चात् यह स्पष्ट हो गया कि अमितगतिका यह पञ्चसंग्रह लड्वाके पञ्चसंग्रहका भी ऋणी है । अमितगतिने उसका बहुत अनुकरण किया है। कुछ विशेष कथन भी हैं। जैसे इसमें तीन सौ त्रेसठ मतोंकी उत्पत्ति विस्तारसे दी है। किन्तु अनुकरण विशेष है। ५. आराधना भगवती-प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध आचार्य शिवार्यकी भगवती आराधना अति प्रसिद्ध है । इसमें इक्कीस सौके लगभग गाथाएं है। इसपर अनेक टीकाकारोंने टीका टिप्पण' लिखे हैं। इसमें समाधि मरणको विधिका वर्णन है । आचार्य अमितगतिने उसे संस्कृतके छन्दोंमें रूपान्तरित किया है। इसका प्रकाशन शोलापुरसे मूल भगवती आराधना और उसको विजयोदया टीकाके साथ हुआ था। अमितगतिको रचनामें जो सौष्ठव और लालित्य पाया जाता है उसका दर्शन इस कृतिमें भी होता है। सभी पद्य बहुत सरल सरस और पाठ करनेके योग्य है । मूलका भाव उनमें सुस्पष्ट प्रतीत होता है। ६. भावना द्वात्रिंशतिका-यह एक संस्कृतके उपजाति छन्दमें रचित बत्तीस पद्योंकी भावना प्रधान रचना है। इसे सामायिकपाठ भी कहते हैं। इसमें मनुष्य यह भावना भाता है कि सब प्राणियोंमें मेरा मैत्री भाव रहे। गुणी जनोंके प्रति प्रमोद भाव रहे, दुःखी जीवोंके प्रति करुणा भाव रहे और विपरीत वृत्ति वालोंमें मेरा माध्यस्थ्य भाव रहे। मैंने प्रमादक्श या इन्द्रियासक होकर यदि सदाचारको शुद्धि में दोष लगाया हो तो वह मेरा दोष मिथ्या हो । एक मेरा आत्मा ही सदा काल रहने वाला है जो निर्मल ज्ञान स्वभाव है। शेष • सव पदार्थ बाह्य हैं। वे सदा स्थायी नहीं हैं कर्म संयोगजन्य है । इत्यादि । रचना जितनी मधुर हैं भाव भी उतने ही हृदयग्राही है। पढ़कर चित्तवृत्ति प्रशान्त हो जाती है.। अन्तिम श्लोकमें कहा है जो इन बत्तीस पद्योंके द्वारा एकान होकर परमात्माका दर्शन करता है वह अविनाशी पद मोक्ष प्राप्त करता है। इसका प्रकाशन अनेक स्थानोंमे हुआ है । स्व० कुमार देवेन्द्रप्रसाद आराने इसे अंग्रेजो अनुवादके साथ भी प्रकाशित किया था । ७. सामायिक पाठयह भी संस्कृतके विविध छन्दोंमें एक सौ वीस पद्योंमें रचित एक भावनात्मक रचना है। माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला बम्बईसे प्रकाशित सिद्धान्त सारादिसंग्रह (० २१) के अन्तर्गत इसका प्रकाशन हुआ है। इसकी रचनापर गुण भद्रके आत्मानुशासनका स्पष्ट प्रभाव है । इसमें भी वही भाव विस्तारसे वर्णित है जो मंक्षेपमें भावना द्वात्रिंशतिकामें वर्णित है। कविता भी वैसी ही सरस और सरल तथा हृदयग्राही है। ये मात ही रचनाएँ उपलब्ध हैं। १. देखो 'आराधना और उसकी टीकाएँ,' बैन सा. और इति. पृ. ७४ आदि । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२ 1 आदान-प्रदान विभिन्न आचार्योकी विभिन्न रचनाओं में आदान-प्रदान होना स्वाभाविक है। जहाँ रचनाएं पूर्व ग्रन्थकारोंसे प्रभावित होती हैं वहाँ उत्तरकालीन साहित्यको प्रभावित भी करती हैं। जो कृति ऐसी क्षमता नहीं रखतो वह अपने समयकी प्रतिनिधि रचना होनेका दावा नहीं कर सकती । आचार्य अमितगतिका श्रावकाचार एक ऐसी कृति हैं कि वह जहाँ पूर्व कृतियोंसे प्रभावित हैं वहां उसने उत्तरकालीन कृतियोंको प्रभावित भी किया है। १. अमितगति और अमृतचन्द्र प्रभावित करनेको दृष्टिसे विशेष उल्लेखनीय है आचार्य अमृतचन्द्रका पुरुषार्थसिद्धयुपाय । उसने अमितगप्तिके श्रावकाचारको शब्दश: भो प्रभावित किया है। . अमृतचन्द्रने मद्यको बहुतसे जीवोंकी योनि बतलाया है और लिखा है कि मद्यपानसे उनकी हिंसा होती है। यही अमितगतिने भी कहा है। यथा--- रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥३३॥ -पु० सि० । ये भवन्ति विविधाः शरीरिणस्तत्र सूक्ष्मवपुषो रसङ्गिकाः । तेऽखिला झटिति यान्ति पञ्चतां निन्दितस्य सरकस्य पानतः ।।६] श्रा० शराबके लिये अमृतचन्द्रने भी सरक शब्दका प्रयोग (श्लोक ६४) किया है। अन्य श्रावकाचारों में इसका प्रयोग हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। . २. अमृतचन्द्रने कहा है (पु० सि०७४) कि पाँच उदुम्बर तीन मकारका त्याग करनेपर हो मनुष्य जिनधर्म देशनाका अधिकारी होता है । अमितगतिने भी (५-७३) ऐसा ही कहा है। ३. अमृतचन्द्रने हिंसक, दुःखो और सुखीको मारनेका निषेध जिन शब्दों में किया है अमितगतिने भी वैसा ही किया है। देखें--पु०सि० ८३ श्लोक तथा श्रावकाचार ६१३३ श्लोक ! पुसि० ८५ श्लोक तथा अमि० श्रावकाचार ६.३९ । पु० सिं०८६ श्लोक, श्रा० ६४० श्लोक। ४. अमृतचन्द्रने अन्त वचन और उसके भेदोंका जैसा कथन किया है अमितगतिने भी वैसा ही किया हैं। देखें...पु. सि० ९२-९८ श्लोक तथा श्रा० ६४९-५२ । ५. व्रतोंके अतीचार सम्बन्धी कई श्लोकोंमें शाब्दिक परिवर्तनमात्र है । २. अमितमति और सोमदेव-अमृतचन्द्रके पुरुषार्थ सिद्धथुपायके पश्चात् ही सोमदेवने अपने यशस्तिलकचम्पूके अन्तमें उपासकाध्ययनके नामसे श्रावकाचारको रचना की थी। अमितगतिके श्रावकाचारएर उसका भी प्रभाव परिलक्षित होता है। उपासकाध्ययनके प्रारम्भमें अन्यदर्शनोंकी आलोचना है। अमि० के श्रावकाचारके तृतीय परिच्छेदमें भी सब दर्शनोंकी विस्तारसे आलोचना है। उपासकाध्ययनके ४३वें कल्पमें भी दाता दान आदिका विस्तारसे वर्णन है, श्रावकाचारके नवम आदि परिच्छेदोंमें भी दानका वर्णन बिस्तारसे किन्तु प्रायः उसी रूपमें है। उपासकाध्ययनके चतुर्थकल्पमें संक्रान्तिमें दान, गोपूजा आदिका निषेध किया है, श्रावकाचारमें भी दानके प्रकरणमें इस प्रकारके दानोंका निषेध किया है। उपासकाध्ययनमें पूजा विधि और ध्यानका वर्णन है Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] अमितगतिने भी १२ वॅ परिच्छेद में पूजा विधिका और १५ वें ध्यानका वर्णन विस्तारसे किया है। कहींकहीं तो विषयके साथ शब्द साम्य भी है यथा देवतातिथिपित्रर्थं मन्त्रीषविभयाय वा 1 न हिस्यात् प्राणिनः सर्वानहिंसा नाम तद्व्रतम् ॥३२०|| – उपा० देवतातिथि मन्त्रीषध पित्रादिनिमित्ततोऽपि सम्पन्ना । हिंसा धत्तं नरके किं पुनरिह नान्यथा विहिता ॥ श्र० ६-२९ अतः अमितगतिके सन्मुख उपासकाध्ययन अवश्य रहा है ऐसा प्रतीत होता है । ३. अतिगांत और माशाघर — अमितगतिके श्रावकाचार आदिने आशाघरके धर्मामृत ग्रन्थके अनगार और सागार दोनों भागोंको अत्यधिक प्रभावित किया है। दोनोंमें श्रावकाचार और पंचसंग्रहके उद्धरणोंकी बहुतायत है तथा आशाधरने स्वयं उनका नामोल्लेख भी किया है यथा - अनगारधर्मामृतकी टीका ( पृ० ६०५ ) में लिखा है- एतदेव चामितगतिरप्यन्वाख्यात् कथिता द्वादशावर्ता वपुवचन चेतसाम् । स्तव सामायिकाद्यन्तपरावर्तनलक्षणाः ॥ - श्रा० ८१६५ ४. अमितगति और पद्मनन्वि आचार्य पद्यनन्दीकी पचविंशतिकाके अनेक पद्य अमितगत्तिसे प्रभावित है, पञ्चविंशतिकाका एक पद्य इस प्रकार है मनोवचोऽङ्गः कृतमङ्गपीडनं प्रमोदितं कारित यत्र तन्मया । प्रमादतो दर्पत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम ।। अमितगतिकी भावना द्वात्रिंशतिकाके निम्न पद्यांश इस प्रकार है— 'एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः प्रमादतः संचरता इतस्ततः ' X X X मनो वचःकायकषायनिर्मितम् । X X X तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो । अन्य भी अनेक समानताएँ है । ५. अमितगति और प्रभाचन्द्र - आचार्य प्रभाचन्द्रने अपना प्रमेय कमल मार्तण्ड मुंजके उत्तराधिकारो राजा भोजके राज्यकालमें बनाया है। उन्होंने पूज्यपादकी तत्त्वार्थवृत्तिके विषम पदोंपर भी एक टिप्पण लिखा है जो भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित सर्वार्थसिद्धिके द्वित्तीय संस्करणके साथ प्रकाशित हो चुका है। उसके प्रारम्भमें अमितगतिके पंचसंग्रहका निम्न पद्य उद्धृत है वर्ग: शक्तिसमूहोऽणोरणूनां वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धक वर्गणोदिता । स्पर्धेका पहैः ॥ ६. अमितगति और हेमचन्द्र आचार्य हेमचन्द्रका स्वर्गवास सम्वत् १२२९ में हुआ था। उन्होंने कुमारपाल के अनुरोधसे योगशास्त्र रचा था ! इसमें जिस प्रकार शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवका अत्यधिक अनुकरण है उस प्रकार अमितगतिका अनुकरण तो नहीं है। फिर भी उनके सु० ० सं० तथा श्रावकाचारका प्रभाव Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्पष्ट है। श्रावकाचारके अन्तिम परिच्छेदमें अमिगतिने ध्यानोंका वर्णन विस्तारसे किया है। योगशास्त्रमें भी श्रावकाचारके साथ ध्यानका वर्णन है। उदाहरणके लिये एक श्लोक देना पर्याप्त होगा। ध्यानं विधिसता जेयं ध्याता ध्येयं विधिः फलम् । विधेयानि प्रसिद्धयन्ति सामग्रीतो विना नहि ॥ (श्रा० १५/३३) श्रावकाचारका यह श्लोक योगशास्त्रमें इस रूपमें पाया जाता है ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं तथा फलम् । सिद्धयन्ति न हि सामग्री विना कार्याणि कहिचित् ।। (७–१) __इस तरह आचार्य अमितगतिकी कृतियोंसे उत्तरकालीन कृतियां प्रभावित हैं । अतः आचार्य अमितगति अपने समयके एक विशिष्ट ग्रन्थकार थे। और उन्होंने अपने वैदुष्यसे जिनशासनका तथा संस्कृत वाङ्मयका मान बढ़ाया था तथा सुरभारतीके साहित्य भण्डारको समृद्ध किया था। कैलाशचन्द्र शास्त्री Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची १२७ १३६ १४४ १६४ १६९ १. विषय विचार २. कोप निषेध ३. मान माया निषेध ४. लोभ निवारण ५. इन्द्रियराग निषेध ६. स्त्री गुणदोष विचार ७. मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व निरूपण ८. ज्ञान निरूपण ९. चारित्र निरूपण १०. जाति (जन्म) निरूपण ११. जरानिरूपण १२. मरण निरूपण १३. अनित्यता निरूपण १४. देव निरूपण १५. जठर निरूपण १६. जीवसम्बोधन १७, दुर्जन निरूपण १ १८. सुजन निरूपण ८ १९. दान निरूपण १४ २०. मद्य निषेध १९ २१. मांस निषेध २३ २२. मधु निषेध २८ २३. काम निषेध ३७ २४. वेश्यासंग निषेध ४८ २५. धूत निषेध ५५ २६. आप्तविचार ६३ २७. गुरु स्वरूप निरूपण ७२ २८. धर्म निरूपण ८१ २९. शोक निरूपण ८९ ३०. शौच निरूपण ९६ ३१. श्रावकधर्म कयन १०२ ३२. तपश्चरण निरूपण १०७ ग्रन्थकार प्रशस्ति ११६ श्लोकानुक्रमणिका १७३ १८३ १८८ २०१ २०८ २२८ २३७ २३२ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अमितगति-विरचितः सुभाषितसंदोहः [ १. विषयविचारैकविंशतिः ] 1) जनयति सुदमन्तर्भव्यपाथोरुहाणां हरति तिमिरराशि या प्रभा भानवी । कृतनिखिल पदार्थद्योतना भारतीड़ा वितरतु धुतोष साईती भारतीयः ॥ १ ॥ 2 ) न सदरिभिराजः केसरी केतुरुप्रो नरपतिरतिरुः कालकूटो ऽतिरौद्रः । अतिकुपितकृतान्तः पावकः पनगेन्द्रो यदिह विषयशश्रुर्युः स्वमुत्रं करोति ॥ २ ॥ अन्वयः -- धुतदोषा (घुताः विनाशिता दोषाः रागादयो यथा सा, पक्षे धुता विनाशिता दोषा रात्रिः यथामा, तथोक्ता ) कृतनिखिल पदार्थद्योतना भानवी (भानोः सूर्यस्य इयं भानवी) प्रभेव या मध्यपाथोरुहाणाम् अन्तः मुदं जनयति, या तिमिरराशिं हरति सा इद्धा (दीता) भारती व आर्हती भारती वितरतु ॥ १ ॥ इह विषय यात्रुः यत् उग्रं दुःखं करोति तत् अरिः इमराजः केसरी उम्रः केतुः अतिरुष्टः नरपतिः अतिरौद्रः कालकूटः अतिकुपितकृतान्तः पावकः पन्नगेन्द्रः न करोति ॥ २ ॥ [हिन्दी अनुवाद ] सरस्वती सूर्यकी प्रभाके समान है। जिस प्रकार सूर्यकी प्रभा श्रुतदोषा है - दोषा (रात्रि ) के संसर्गले रहित है उसी प्रकार सरस्वती भी धुतदोषा - अज्ञानादि दोषोंको नष्ट करनेवाली है, जिस प्रकार सूर्यकी प्रभा समस्त पदार्थों को प्रकाशित करती है उसी प्रकार सरस्वती भी समस्त पदार्थको प्रकाशित करती है, सूर्यकी प्रभा यदि कमलोके भीतर मोद (विकास) को उत्पन्न करती है तो सरस्वती भव्य जीवोंके अन्तःकरणमें मोद (हर्ष) को उत्पन्न करती है, तथा सूर्यप्रभा यदि तिमिरराशिको अन्धकारसमूहको नष्ट करती है तो सरस्वती भी तिमिरराशिको प्राणियों के अज्ञानसमूहको नष्ट करती है। इस प्रकार प्रदीप्त सूर्यको प्रभाके समान वह समृद्ध सरस्वती आपके लिये जैन त्राणीको प्रदान करे। अभिप्राय यह है कि सरस्वतीकी उपासनासे वह अरहन्त अवस्था प्राप्त हो जिसमें अपनी दिव्य वाणीके द्वारा समस्त संसारका कल्याण किया जा सकता है ॥ १ ॥ संसार में विषयरूपः शत्रुजिस तीव्र दुःखको उत्पन्न करता है उसे शत्रु, गजराज, सिंह, क्रुद्ध केतु, अतिशय कोषको प्राप्त हुआ राजा, अत्यन्त भयानक कालकूट विष प्रचण्ड यमराज, अग्नि और अतिशय विषैला सर्प भी नहीं उत्पन्न कर सकता है ॥ विशेषार्थ -- संसारमें शत्रु आदि दुःख देनेवाले प्रसिद्ध हैं । परन्तु वे शत्रु आदि जितना दुःख देते हैं उससे अधिक दुःख विषयरूप शत्रु देता है। कारण कि शत्रु आदि तो केवल एक ही १ स मानवों च । २स 'पदार्थों । ३ स साहुती । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित संदोहः [ ३:१-२ 3 ) न नर दिविजनांधी येषु तृप्यन्ति तेषु कथमपरनराणामिन्द्रियार्थेषु तृतिः । वहति सरिति यस्यां दर्तिनाथो ऽतिमात्रो" भवति हि शशकानां केन तत्र व्यवस्था ॥ ३ ॥ 4 ) दविषयदोषा ये तु दुःखं सुराणां कथमितरमनुष्यास्तेषु सौख्यं लभन्ते । Hroenale: क्लिश्यते येन हस्ती क्रमपतितमृगं स स्पक्ष्मतीभारि ॥ ४ ॥ ये इन्द्रियार्थेषु नर- दिविजनाथाः न तृप्यन्ति तेषु अपरमराणां कथं तृप्तिः [ स्यात् ] । हि यस्यां सरिति अतिमात्रो दन्तिनाथः बहते तत्र शशकानां केन व्यवस्था भवति ॥ ३ ॥ ये तु विषयदोषाः सुराणां दुःखं ददति, दतरमनुष्याः तेषु कथं सौ लभन्ते । येन महमलिनकपोलः हस्ती क्लिश्यते स इभारिः अत्र क्रमपतितं मृगं ( पादाक्रान्तहरिणं ) व्यस्यति [ कथमपि न या | ] || ४ || यदि समुद्रः सिन्धुतोयेन कथमपि तुतो भवति च यदि वह्निः काठसंघाततः कथमपि सः भवति तद जन्म दुःख दे सकते हैं और वह भी अधिक से अधिक मरण तकका, परन्तु वह विषयरूप शत्रु ( विषयतृष्णा ) सपको संचित कराके अनेक जन्म-जन्मान्तरोंमें दुःख दिया करता है । अत एव उन लौकिक शत्रु आदिकोंकी अपेक्षा प्राणीको इस विषय शत्रु से अधिक भयभीत रहना चाहिये, ऐसा यहां अभिप्राय सूचित किया गया है ॥२॥ जिन इन्द्रियविषयोंके भोगनेसे नरनाथ ( चक्रवर्ती) और इन्द्र भी तृप्तिको नहीं प्राप्त होते हैं उनसे मला साधारण मनुष्य कैसे तृप्त हो सकते हैं + नहीं हो सकते। ठीक है-जिस नदी प्रवाह में अतिशय बलवान् हाथी बह जाता है उसमें क्षुद्र खरगोशोंकी व्यवस्था किससे हो सकती है ? किसीसे भी नहीं हो सकती है ॥ विशेषार्थ - विषयतृष्णा तीव्र नदीके प्रवाहके समान प्रबल है । जिस प्रकार वेगसे बहनेवाली नदीके प्रवाह में जहां बड़े बड़े हाथी जैसे प्राणी बहे चले जाते हैं वहां खरगोश आदि नगण्य पशुओंकी कुछ गिनती नहीं की जा सकती है उसी प्रकार जिन इन्द्रियविषयोंसे अपरिमित त्रिभूतिवाले चक्रवर्ती और देवेन्द्र भी कभी तृप्त नहीं हो सके हैं उनसे परिमित विभूतिको धारण करनेवाले दूसरे सामान्य मनुष्य कभी सन्तोषको प्राप्त होंगे, यह तो आशा नहीं की जा सकती है। कारण कि विषयोंका उपभोग तो उस विषयतृष्णाको उत्तरोत्तर और अधिक बढ़ाता है- जैसे कि अग्रिकी ज्यालाको उत्तरोत्तर इन्धन बढ़ाता है । यही अभिप्राय स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी प्रकट किया है- तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव । त्यित्यैव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत् ॥ अर्थात तृष्णारूप अभिकी जो ज्वालायें प्राणी हृदयमें जला करती हैं उनकी शान्ति अभीष्ट इन्द्रियविषयों की प्राप्तिसे नहीं हो सकती है, उससे तो वे और अधिक बढ़ती ही हैं। कारण कि उनका ऐसा स्वभाव हो हैं । अभीष्ट इन्द्रियविषयोंकी प्राप्ति केवल थोड़ी देरके लिये शरीरके सन्तापको दूर करनेका साधन बन सकती है, किन्तु वह उस विषयतृष्णाको शान्त नहीं कर सकती है। यही कारण है जो हे कुन्यु जिनेन्द्र ! आप इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके चक्रवर्तीकी भी विभूतिका परित्याग करते हुए उस विषयजन्य सुखसे विमुख हुए हैं [ . . ८२ ] ॥ ३ ॥ जो विषयजन्य दोष देवोंको दुख देते हैं उनके रहनेपर भा साधारण मनुष्य कैसे सुख प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं प्राप्त कर सकते। ठीक है- जिस सिंहके द्वारा झरते हुए मदसे मलिन गण्डस्थलवाला अर्थात् मदोन्मत्त हाथी भी कष्टको प्राप्त होता है वह पैरोंके नीचे पड़े हुए मृगको छोड़ेगा क्या ? अर्थात् नहीं छोड़ेगा ॥ विशेषार्थ - विषयसामग्री मनुष्यों की अपेक्षा देवोंके पास १ स नाथो । २ संतुष्यन्ति । ३ स सरति । ४ सयस्यादेतनाथोनमंतो । ५ सत्र मते 'तिमतो | ६ स मृगं सत्पक्ष भारिर, "तीभाररत्र, "मृर्ग किं यक्षती मोरित्र । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -7 : १-७] १. विषयविचारैकविंशतिः 5) यदि भवति समुद्रः सिन्धुतोयेन तृप्तो यदि कथमपि वह्निः काष्ठसंघाततश्च । अयमपि विषयेषु प्राणिवर्गस्तदा स्यादिति मनसि विदन्तो मा विधुस्तेषु यत्नम् ॥५॥ 6) असुरसुरनरेशी यो न भोगेषु सप्तः कथमिहे मनुमानां तस्य भोगेयु तृप्तिः! जलनिधिजलपाने यो न जातो वितृष्णस्तृणशिखरगताम्मापानतः किं स तृप्येत् ॥ ६॥ 7) सततविविधजीवध्वंसनादथैरेपायः स्वजनतनुनिमित्तं कुर्वते पापमुग्रम् । व्यथिततनुमनस्का अन्तयो ऽमी सहन्ते नरकगतिमुपेता दुःखमेकाकिनस्ते. ॥ ७ ॥ ' अर्य प्राणिवर्गोऽपि विषयेषु तृप्तः स्यात् इति मनसि विदन्तः तेषु यत्ने मा विधुः ॥५॥ यः असुर-सुर-नरेशां मोगेषु न तृप्तः तस्य इह मनुजानां भोगेषु कथं तृप्तिः । यः जलनिधिजलपाने वितृष्णाः न जातः सः तृणशिखरगताम्भःपानतः तृप्येत् किम् । [नेच तृप्येत्।]॥ ६ ॥ अमी जन्तवः व्यथिततनुमनस्काः रुतः स्वजन-तनुनिमित्त सततविविधजीवध्वसमादयः उपायैः उन पापं कुर्वते । ते नरकगतिमुपेताः एकाकिनः [एव ] दुखं सहन्ते || ७ || यदि अर्य ( अभीष्ट) विचित्रं द्रव्यं संचितं अधिक रहती है। परन्तु उनको भी उससे सन्तोष नहीं होता। वे भी ऊपर ऊपरके देत्रोंकी अधिक ऋद्धिको देखकर ईर्ष्यालु होते हुए दुखी होते हैं। इसके अतिरिक्त मरणके छह मास पूर्वमें जब कुछ चिह्नविशेषोंसे- मालाके मुरझाने आदिसे- उन्हें अपने मरणका परिज्ञान होता है तब वे प्राप्त भोगसामग्रीके त्रियोगकी सम्भावनासे अतिशय दुखी होते हैं। अब विचार कीजिये कि अभीष्ट विषयसामग्रीको पाकर उससे जय देव भी सुखी नहीं हो सकते हैं तब इच्छानुसार विषयसामग्रीको न प्राप्त कर सकनेवाले साधारण मनुष्य कैसे सुखी हो सकते हैं ! नहीं हो सकते । जैसे-जो सिंह मदोन्मत्त हाथियोंको भी पादाकान्त करके दुखों करता है वह बेचारे दीन-हीन हिरणोंको छोड़ दे, यह कभी सम्भव नहीं है || ! यदि नदियोंके जलसे समुद्र किसी प्रकार तृप्त हो सकता है और यदि किसी प्रकार काष्ठसमूहसे अग्नि तृप्त हो सकती है तो यह प्राणिसमूह भी विषयोंमें तृप्त हो सकता है। [ अभिप्राय यह कि जिस प्रकार समुद्र कभी नदियोंके जलसे सन्तुष्ट नहीं हो सकता है तथा अग्नि कभी इन्धनसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती है उसी प्रकार यह प्राणिसमूह भी कभी उन विषयभोगोंसे तृस नहीं हो सकता है । ] इसीलिये ऐसा मनमें विचार करनेवाले विद्वान उक्त विषयोंके सम्बन्धमें प्रयत्न न करें॥ ५॥ जो प्राणी असुरेन्द्र, देवेंद्र और नरेन्द्र (चक्रवर्ती) के भोगोंमें सन्तोषको नहीं प्राप्त हुआ है वह यहां मनुष्योंके भोगोंमें भला कैसे सन्तोषको प्राप्त हो सकता है ! अर्थात् नहीं हो सकता है। ठीक है-जिसकी प्यास समुद्रप्रमाण जलके पी लेने पर भी नहीं बुझी है वह क्या तुणके अप्रभामपर स्थित बिन्दुमात्र जलके पीनेसे तृप्त हो सकता है ! कभी नहीं ॥६!शारीरिक एवं मानसिक कष्टको भोगते हुए ये जो प्राणी अपने कुटुम्बी जनोंके निमित्तसे और अपने शरीरके भी निमित्तसे निरन्तर जीवहिंसायुक्त अनेक प्रकारके उपायोंके द्वारा (जीवहिंसनादिके द्वारा ) तीव्र पाप करते हैं वे नरकगतिको प्राप्त होकर अकेले ही दुखको सहते हैं | विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जीवहिंसा आदि दुष्कायोको करके जीव जो भी पाप करता है उसे वह दूसरोंके निमित्तसे. करता है- शरीर एवं आत्मीय जनोंके भरण-पोषणादिके निमित्तसे करता है। परन्तु इससे जो उसके पापका संचय होता है उसका फल अकेले उस प्राणीको ही भोगना पड़ता है- उसमें कोई भी दूसरा हाथ नहीं बॅटाता है ।।७।। यदि अनेक प्रकारका अभीष्ट द्रव्य संचित हो जाता है तो उसका उपभोग निकटवर्ती सेवक जन, पुत्र एवं स्त्री . . .१.सख्यधुः। २ स नराणां। ३ स तुप्तो। ४ स कथमपि । ५.स वसनौधै, 'नाये 1..६ स मनस्काः । ७ स सहतो! ८ सकिनस्तु, किमस्तु । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहर 8 ) यदि भवति विचित्रं संचितं द्रव्यमर्थ्य परिजनसुतदारा भुञ्जते तन्मिलित्वा । न पुनरिह समर्थाध्वसितुं दुःखमेते तदपि यत विधत्ते पापमङ्गी तदर्थम् ॥ ८ ॥ १) धनपरिजनभार्याभ्रामित्रादिमध्ये व्रजति भवभृता यो नै एकोऽपि कचित् । सदपि गतविमर्षाः कुते तेषु रागं न तु विदधति धर्म यः समं याति यात्रा ॥ ९ ॥ 10 ) यदि भवति सौख्यं वीतकामस्पृहाणों न समरविभूनां नापि चक्रेश्वराणाम् । [8:2-2 इति मनसि नितान्तं प्रीतिमाधाय धर्मे भजत जहितै चैतान् कामशत्रून् दुरन्तान् ॥ १० ॥ 11 ) यदि कथमपि नश्येद् भोगलेशेनं नृस्वं पुनरपि तदधातिर्दुःखतो देहिनां स्यात् । इति इतविषयाशा धर्मकृत्ये यतध्ये यदि भवमृतिमुक्ते मुक्तिसौख्ये ऽस्ति वाच्छा ॥ ११ ॥ भवति [ तदा] परिजन-सुत-दाराः मिलित्वा तत् भुञ्जते । इह पुनः एते दुःखं ध्वंसितुं समर्थाः न [भवन्ति ]। तदपि अभी तदर्थ पावत (खे) || ८ || धनपरिजन भार्या भ्रामित्रादिमध्ये यः भवभृता [ सह ] ब्रजति एषः एक अपि कश्चित् न [[विद्यते ] | तदपि गतविमर्षाः तेषु रागं कुर्वते । तु यः यात्रा समं याति [तं ] धर्म न विवति ॥ ९ ॥ इह वीतकाम स्पृहाणां यत् स भवति तत् अमरविभूनाम् अपि न चक्रेश्वराणाम् अपि न रति मनसि नितान्तं प्रीतिम् आधाय धर्मं भजत च एतान् दुरन्तान् काम-शत्रून् जहित ॥ १० ॥ यदि देहिनां भोगलेशेन नृत्यं कथमपि नश्येत् पुनरपि तदवासिः दुःखतः स्यात् । यदि भव-मृतिमुक्त (जन्म-मरणरहिते) मुक्तिसौख्ये वाञ्छा अस्ति [ तदा ] हतविषयाशाः इति धर्मकृत्ये यतध्वम् ॥ ११ ॥ आदि सब कुटुम्बी जन मिल करके किया करते हैं । परन्तु उससे जो यहाँ प्राणीको दुख उत्पन्न होनेवाला है उसको नष्ट करनेके लिये ये कोई भी समर्थ नहीं होते हैं। फिर भी यह खेदकी बात है कि प्राणी उनके निमित्त पापको करता ही है ॥ ८ ॥ धन, परिजन (दास-दासी), स्त्री, भाई और मित्र आदिके मध्यमेंसे जो इस प्राणीके साथ जाता है ऐसा यह एक भी कोई नहीं है। फिर भी प्राणी चित्रेकसे रहित होकर उन सबके विषयमें तो अनुराग करते हैं, किन्तु उस धर्मको नहीं करते हैं जो कि जानेवालेके साथ जाता है ॥ विशेषार्थ धन, दासी दास, स्त्री और पुत्र आदि ये सब बाह्य पर पदार्थ हैं। इनका सम्बन्ध जिस शरीर के साथ है यह भी पर ( आत्मासे भिन्न) ही है। इसीलिये प्राणीका जब मरण होता है तब उसके साथ न तो वह शरीर ही जाता है और न उससे सम्बद्ध वे धन एवं स्त्री- पुत्रादि भी जाते हैं । फिर भी आश्वर्यकी बात है कि जो ये सब बाह्य पदार्थ प्राणीके साथ परलोकमें नहीं जाते हैं उन्हींके साथ यह प्राणी सदा अनुराग करता है और जो धर्म उसके साथ परलोकमें जानेवाला है उससे यह अनुराग नहीं करता है। यही कारण है जो वह इस लोक में तो उक्त कुटुम्बी जन आदिके भरण-पोषण आदिकी चिन्तासे व्याकुल रहता है और परलोक में इससे उत्पन्न पापके वश होकर वह दुर्गति आदिके दुखको संहता है। यह उसकी अज्ञानताका परिणाम है ॥ ९ ॥ जिनकी विषयभोगोंकी इच्छा नष्ट हो चुकी है उनको जो यहाँ सुख प्राप्त होता है वह न तो इन्द्रोंको प्राप्त हो सकता है और न चक्रवर्तियों को भी । इसीलिये मनमें अतिशय प्रीति धारण करके ये जो विषयरूप शत्रु परिणाम में अहितकारक हैं उनको छोड़ो और धर्मका आराधन करो ॥ १० ॥ प्राणी जितने भोगोंकी अभिलाषा किया करते हैं उनका लेशमात्र भी वे नहीं भोग पाते हैं । फिर यदि उन भोगोंमें अनुरक्त रहते हुए उनकी यह मनुष्यपर्याय किसी प्रकारसे नष्ट हो जाती है तो उसकी पुनः प्राप्ति उन्हें बहुत कसे हो सकेगी। इसलिये यदि जन्म और मरणकें दुखसे रहित मोक्षसुखकी प्राप्तिके विषय में अभिलाषा है तो विषयतृष्णाको नष्ट करके धर्माचरण में प्रयत्न करो ॥ ११ ॥ १ सदुःखमेतत् । २ स भृतां यो ३ सय, नैत्र ४ स शमं । ५ स खुहानां । ६ स चक्रेश्व'।७स जहीहि । ८ स 'लोभन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -16 : १.१५] १. विषयविचारकविंशतिः 12) विषमविषसमानान् नाशिनः कामभोगीस्त्यजति यदि मनुष्यो दीर्घसंसारहेतून् । प्रजति कथमनन्तं दुःखमत्यन्तघोरं त्रिविधमुपहतात्मा श्वभ्रभूम्यादिभूतम् ॥ १२॥ 13) विगलितरसमस्थि स्वादयन् दारितास्यः स्वकवदनजरते मन्यते श्वा सुखित्वम् । स्वतनुजनितखेाजायमानं जनानां तदुपममिह सौख्यं कामिनां कामिनीभ्यः ॥१३॥ 14) किमिह परमसौख्यं निःस्पृहत्वं यदेतत् किमथ परमदुःखं सस्पृहत्वं यदेतत् । इति मनसि विधाय स्यकसंगाः सदा ये विदधति जिनधर्म से नराः पुण्यवान्तः॥ १५॥ 15) उपधिवसतिपिण्डान राबते नो विरुद्धास्तनुषचनमनोमिः सर्वथा ये मुनीन्द्राः। व्रतसमितिसमेता ध्वस्तमोहप्रपश्चा ददतु मम विमुक्ति ते इतक्रोधयोधाः १५ ॥ यदि मनुष्य: दीर्घसंसारहेतून् विषमविषसमानान् नाशिनः कामभागान त्यजति [तर्हि ] उपहतालमा सन् श्वभ्रभूम्यादिभूतम् अत्यन्तरम् अनन्त त्रिविधं दुःखं कथं मजति ॥ १२॥ विगलितरसम् अस्थि स्वादयन् दारितास्य:श्रा वकवदनजरके सुस्तित्व मन्यते । इह कामिनां जनानां स्वतनुजनितखेदान् कामिनीभ्यः जायमानं सौग्य तदुपमम् [अस्ति ।। १३ ।। इह परमसौख्य किम्, यत् एतत् निःस्पृहत्वम् । अथ परमदुःगई किम् , गत् एतत् सस्पृहत्पम् । इति मनसि विधाय ये त्यतसंगाः सन्तः सदा जिनधर्म विदधति ते नराः पुण्यवन्तः सन्ति] |॥ १४ ॥ ये विरुद्धान् उपधि-वसति-पिण्डान् तनुवचनमनोमिः सर्वथा नो याते व्रतसमितिसमेताः ध्वस्तमोहप्रपञ्चाः हतकोधयोधाः ते मुनीन्द्राः मम विमुक्ति ददनु ।। १५ || जगति स्त्री परिभूति जनयति, धनं जो कामभोग भयानक विषके समान अहितकारक, विनश्चर और दीर्घ संसारके कारण हैं उनको यदि मनुष्य छोड़ देता है तो फिर वह अपनी आत्माको नष्ट करके नरकभूमि आदिके निमित्तसे होनेवाले अतिशय भयानक उस तीन प्रकारके (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक अथवा मानसिक, वाचनिक और कायिक) दुखको कैसे प्राप्त हो सकता है जिसका कि कुछ अन्त भी न हो ? अर्थात नहीं प्राप्त हो सकता है। अभिप्राय यह है कि जो विवेकी जीत्र दुखके कारणभूत उन इन्द्रियविषयोंसे विरक्त हो जाता है वह सब प्रकारके दुःस्त्रोंसे छूटकर निर्वाध मुक्तिसुखको प्राप्त कर लेता है। और इसके विपरीत जो उन विषयों में आसक्त रहता है यह अनन्त संसारमें परिभ्रमण करता हुआ नरकादिके अनन्त दुखको भोगता है॥१२॥ जिस प्रकार कुत्ता नीरस हड्डीका स्वाद लेता हुआ-उसे चबाता हुआ-मुखके फट जानेसे उसी मुखसे उत्पन्न हुए रक्तमें अपनेको सुखी मानता है उसी प्रकार कामी जन भी स्त्रियोंके संभोगवश होनेवाली वीर्यकी हानिसे जो अपने शरीरमें खेद होता है उससे उत्पन्न होनेवाले सुखका अनुभव करते हैं। अत एव उनका यह विषयसुख उस कुत्तेके ही सुखके समान है जो कि कठोर होको चबाकर. अपने ही मुँहसे निकलनेवाले रक्तका आस्वादन करता हुआ अपनेको सुखी समझता है ।। १३ ॥ संसारमें उत्कृष्ट मुख क्या है ! यह जो निःस्पृहता- विषयभोगोंकी अनिच्छा-है वही उत्कृष्ट सुख है। उत्कृष्ट दुख क्या है ! यह जो सस्पृहता-विषयभोगाकांक्षा- है वहीं उत्कृष्ट दुख है । इस प्रकार मनमें विचार करके जो भव्य जीव परिग्रहका परित्याग करते हुए निरन्तर जैन धर्मकी आराधना करते हैं वे पुण्यशाली हैं ॥ १४ ॥ जो मुनिराज मन, वचन और कायके द्वारा कभी मुनिधर्मके विरुद्ध उपधि (परिग्रह ), स्थान और आहारको सर्वथा नहीं ग्रहण करते हैं; जो पौंच महाव्रतों और पाँच समितियोंसे सहित है; मोहके विस्तारसे रहित हैं, तथा जिन्होंने क्रोधरूप सुभटको नष्ट कर दिया है वे मुनिराज मुझे मुक्ति प्रदान करें ॥ १५ ॥ संसारमें स्त्री अनादरको उत्पन्न कराती है, धन नष्ट होनेपर दुखको देता है, विषयतृष्णा सन्तप्त किया करती है, तथा १ स विषय । २ स भोगान् । ३ समास्थि, मति मस्थि। ४ सम्वेदात् । ५ स निस्पृहत्व । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [16 : १-१६ 10 ) जनयति परिभूर्ति स्त्रीधनं नाशदुःखं दहेति विषययाच्छा बन्धनं बन्धुः । इति रिपु विमूढास्तन्वते सौख्यबुद्धि जगति धिगिति कथं मोहनीयं जनानाम् ॥ १६ ॥ 17 ) मदमदनकषायारातयो नोपशान्त्रो न च विषयविमुक्तिर्जन्यदुःखान्न भीतिः । न तनुमुलगि विद्यते यस्य जन्तोर्मयति जगति दीक्षा तस्य भुक्त्यै न मुक्तये ॥ १७ ॥ 18) श्रुतिमतिबलवीर्यप्रेमरूपी युरस्वजनसन यकान्ता भ्रातृपित्रादि सर्वम् । तितजंगराजले वा न स्थिरं वीतेगी तदपि यत विमूढो नात्मकृत्यं करोति ॥ १८ ॥ 19 ) त्यजैव युवतिसौयं क्षान्तिसौख्यं श्रयध्वं विरमत भयमार्गान्मुक्तिमोर्गे रमध्वम् । जहित विषयसंग ज्ञानसंग कुरुध्वममितगतिनिवासं येन नित्यं लभध्यम् ॥ १९ ॥ • नाशदुःखे [ जनयति ] विश्यवाञ्छा दहति बन्धुवर्गः बन्धनम् [अस्ति ], इति रिपुधु विमूढाः सौख्यशुद्धिं तन्वते । कष्टं जनानां मोहनीयं धिक् इति ॥ १६ ॥ जगति यस्य जन्तोः मदमदनकषायातियः न उपशान्ताः च विषयविमुक्तिः न, जन्मदुःखात् भीतिः न विद्यते तनुसुखविरागः न । तस्य जन्तोः दीक्षा भुक्त्यै भवति, मुक्त्यै न भवति || १७ ॥ अङ्गी श्रुतिमतिबलवीर्यप्रेमरूपायुरङ्गस्व जनतनयकान्ताभ्रातृपित्रादि सबै तित (चालनी) गाजलं वा स्थिरं न त्रीचते, तदपि विमूद्रः सन् आत्मकृत्यं न करोति च ॥ १८ ॥ [ भी भय्याः ] युवतिसौख्यै त्यजत । क्षान्तिसौख्यं श्रयध्वम् । भवमार्गात् विरमत मुक्तिमार्गे रमध्वम् । विषयसंग जहित । शानसंग कुरुध्वम् । येन नित्यम् अमितगतिनिवासं लभध्वम् || १९ || अत्र यस्य पुंसः सर्वदा अत्यन्तदीप्ताः बन्धुजनोंका समुदाय बन्धन के समान पराधीनताजनक है। इस प्रकार यद्यपि ये सब अहितकारक होनेसे शत्रुके समान हैं, फिर भी अज्ञानी जन उनके विषयमें अतिशय मोहको प्राप्त होकर सुखकी बुद्धिको विस्तृत करते हैं - उन सबको सुखदायक समझते हैं। प्राणियोंके उस कष्टदायक मोहनीय कर्मको धिक्कार है ॥ १३ ॥ संसारमें जिस जीवके काम, मद और क्रोधादि कषायरूप शत्रु शान्त नहीं हुए हैं; जिसका चित्त विषयोंकी ओरसे हटा नहीं है, जिसे जन्म (संसार) के दुखसे भय नहीं है, तथा जिसे शरीर सुखसे विरक्ति नहीं हुई है; उसके लिये दी गई दीक्षा विषयोपभोगका कारण होती है, न कि मुक्तिका ॥ विशेषार्थ जिनदीक्षा ग्रहण करके जो तपश्वरण किया जाता है ॠ मुक्तिका साधक होता है । परन्तु जिसने जिनदीक्षाको ग्रहण करके भी अपने कामादि विकारोंको शान्त नहीं किया है, जिसके हृदयमें जन्म-मरणके दुःखोंसे भय नहीं उत्पन्न हुआ है, तथा जो शरीरादिमें अनुराग रखता है; यह उस जिनदीक्षाको लेकर भी कभी मोक्षको नहीं प्राप्त कर सकता है। किन्तु इसके विपरीत वह विषयभोगोंमें अनुरक्त रहकर संसारमें ही परिभ्रमण करता है ॥ १७ ॥ श्रुति ( आगमज्ञान ), बुद्धि, बल, वीर्य, प्रेम, सुन्दरता, आयु, शरीर, कुटुम्बीजन, पुत्र, खी, भाई और पिता आदि सब ही चालनी में स्थित पानीके समान स्थिर नहीं हैं-देखते देखते ही नष्ट होनेवाले हैं। इस बातको प्राणी देखता है, तो भी खेदकी बात है कि वह मोहवश आत्मकल्याणको नहीं करता है || १८ || हे भव्य जीवो ! आप लोग खीके संयोगसे प्राप्त होनेवाले सुखको छोडकर शान्तिसुखका आश्रय ले लें, संसारके मार्ग से ( मिथ्यादर्शनादिसे) दूर रहकर मुक्तिके मार्गस्वरूप नत्रयमें अनुराग करें, तथा विषयोंकी संगतिको छोडकर सम्यम्ज्ञानकी संगति करें; जिससे कि सदा अपरिमित ज्ञानवाले मोक्षमें निवासको प्राप्त कर सकें ॥ १९ ॥ संसार में जिस मनुष्यके पासमें अज्ञानरूप अन्धकारके नष्ट करनेमें समर्थ, सर्वदा अतिशय प्रकाशमान और न्यायमार्गको दिखलानेवाले ऐसे आगम, स्वाभाविक विवेकज्ञान एवं सत्संगति १ स परभूतिं । २ स स्त्रीधनं । ३ स ददति । ४ स वर्गाः । ५ स शांती । ६ स मुक्तानन्य' । ७ स धिरोगो । ८ स भुक्त्यौ, मुक्त्यो | ९ श्रुत। १० स रूप । ११ सत्रीयते । १२ स त्यजति । १३ स मुक्तिमार्गेौ । १४ सom. ज्ञानसङ्ग । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -21 : १-२१ १. विषयविचारकत्रिंशतिः 20) श्रुतिसंहजविवेकशानेसंसर्गदीशस्तिमिग्दलनदक्षाः सर्यदात्यन्तदीप्ताः । __ प्रकदितनयमार्गा यस्य पुंसोऽत्र सन्ति स्खलति यदि स मार्ग तत्र देवापराधः ॥२०॥ 21) जिनपतिपदभक्तिर्भावना जैनतखे विषयसुखविरक्तिर्मित्रता सत्त्ववर्गे।। श्रुतिशमयमसतिर्मूकनान्यस्य दोषे मम भवतुं च योधिर्यावदामोमि मुक्तिम् ॥२१॥ ॥इति" विषयविचारैर्विशतिः ॥ १॥ तिमिरदलनदक्षाः प्रकटितनयमार्गः श्रुतिसहजविवेकज्ञानसंसर्गदीपाः सन्ति त यदि मार्गे स्वलति तत्र देवापराधः [ एव शेयः ] ॥ २० ॥ [अहम् ] यावत् मुक्तिम् आमोमि [ तावत् ] मम जिनपतिपदभक्तिः जैनतत्त्वे भावना विषयसुखविरक्तिः सत्त्ववर्ग मित्रता श्रुति-शमन्यमसक्तिः अन्यस्य दोषे मूकता बोधिध भवतु ॥ २१ ॥ ॥ इति विषयविचारेकविंशतिः ॥ १॥ रूप दीपक विद्यमान है वह यदि मार्ग में भ्रष्ट होता है तो इसमें दैवका अपराध समझना चाहिये । विशेषार्थ-दीपकका काम मार्गको दिखलाना है। परन्तु यदि कोई दीपकको ले करके भी गद्दे बादिमें गिरता है तो इसमें उस दीपकका दोष नहीं है, बल्कि उसके भाग्यका ही दोष है। इसी प्रकार जिस मनुष्यके पास उस दीपकके समान न्यायमार्गको दिखलानेवाले- हेयाहेयको प्रगट करनेवाले-आगमज्ञान एवं स्वाभाविक विवेकज्ञान आदि विद्यमान हैं। फिर भी यदि वह कल्याणके मार्ग से भ्रष्ट होता है तो इसमें उसके भाग्यका ही दोष समझना चाहिये, न कि उन आगमज्ञानादिका । कारण कि उनका काम केवल योग्य और अयोग्यके स्वरूपको बतलाना है सो वे बतलाते ही हैं। फिर यदि वह योग्यायोग्यका विचार करता आ भी कल्याणके मार्गसे विमुख होता है तो इसका कारण उसके दुर्भाग्यको ही समझना चाहिये ॥ २०॥ जब सक मैं मुक्तिको प्राप्त नहीं होता हूँ तब तक मुझे जिनेन्द्र देवके चरणों में अनुराग, सर्वज्ञोक्त वस्तुस्वरूएका विचार, विषयजन्य सुखसे विमुखता, समस्त प्राणिसमूहके विषय, मित्रता; आगम, कषायोंकी शान्ति एवं ब्रत-नियममें आसक्ति; अन्यका दोष प्रगट करनेमें गंगापन (चुप्पी) और बोधि (रत्नत्रय) प्राप्त हो। [अभिप्राय) यह है कि जो भव्य जीत्र आत्मकल्याणका इच्छुक है वह निरन्तर यह विचार करता है कि हे भगवन् ! जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता है तब तक ऐसी मुझे बुद्धि प्राप्त हो कि जिसके प्रभावसे मैं निरन्तर जिनेन्द्रकी भक्ति आदि उपर्युक्त हितकारक कार्यों में ही प्रवृत्त रहूँ ॥ २१॥ इस प्रकार इक्कीस श्लोकोंमें विषयसुखके स्वरूपका विचार समाप्त हुआ || १ || १ स श्रुत । २ स विवेक । ३ सज्ञानि । ४ स पुंसे । ५ स भुक्ति । ६ स श्रुत । ७ स om. शमयम, समग्रम । ८ स शक्ति ९ स मम भूवतु । १८ स मुक्त्यं । ११ स om. इति । १२ स इति सांसारिकविषयनिराकरणम् । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२. कोपनिषेधैकविंशतिः] 22 ) फोपोऽस्ति पस्य मनुजस्य निमित्तमुक्तो नो तस्य कोऽपि कुरुते गुणिनोऽपि भक्तिम् । आशीषिवं भजति को ननु देवशूक नानोरोगशमिना मणिनापि युक्तम् ॥१॥ 23) पुण्यं चित व्रतसपोमियमोपवासः क्रोधःक्षणेन पहतीन्धनवमुताशः। ....... मत्वति तस्य वंशमेतिन यो महात्मा तस्यामिद्धिमुपयाति नरस्य पुण्यम् ॥२॥ 24) दोषं न नृपतयो रिपयोऽपि रुष्टाः कुर्षन्ति केसरिकरीन्द्रमहोरगा वा । .... धर्म निहत्य भवकाननदाववाहि के दोषमत्र विदधाति मरस्य रोषः॥ ३ ॥ . यस्य मनुजस्य निमित्तमुक्तः कोपः अस्ति तस्य गुणिनः अपि सतः कोऽपि भक्तिं नी कुरुते । ननु का नानोमरोगशमिना मणिना युसम् अपि दम् आशीवि भजति ॥ १॥ हुताशः इन्धनवन् क्रोधः व्रततपोनियमोपवासैः चितं पुण्य क्षणेन दहति इति मत्वा यो महात्म्स तस्य वर्श न एति तस्य नरस्य पुण्यम् अभिवृद्धिम् उपयाति ॥ २॥ अत्र नरस्य रोषः भवकाननदाववहिं धर्म निहत्य यं दोषं विदधाति त दोष कष्टाः नृपतयः रिपवः केसरिकरीन्द्रमहोरगाः वा न कुर्वन्ति ॥ ३ ॥ : जिस मनुष्पके बिना किसी कारणके ही क्रोध उत्पन्न हुआ करता है वह गुणयान् भी क्यों न हो, किन्तु उसकी कोई भी भक्ति नहीं करता है। ठीक है- ऐसा कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य है जो कि अनेक तीन रोगोंको नष्ट करनेवाले मणिसे भी युक्त होनेपर वार बार काटनेके अभिमुख हुए आशीविष सर्पसे प्रेम करता हो! अर्थात् कोई नहीं करता ॥ विशेषार्थ-क्रोध एक प्रकारका यह विषैला सर्प है कि जिसके केवल देखने मात्रसे ही प्राणी विषसे सन्तप्त हो उठता है। इसीलिये जिस प्रकार कोई भी विचारशील प्राणी अनेक रोगोंको शान्त करनेवाले मणिसे संयुक्त होनेपर भी सर्पसे अनुराग नहीं करता, किन्तु उससे सदा भयभीत ही रहता है, उसी प्रकार अकारण ही क्रोधको प्राप्त होनेवाले गुणवान् भी मनुष्यसें विवेकी जन अनुराग नहीं करते हैं । कारण कि जैसे उस आशीविष सर्पकी संगतिसे प्राणीको अपने प्राण जानेका भय रहता है वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्योंको उस क्रोधी मनुष्यकी संगतिसे भी ऐहिक और पारलौकिक अनिष्ट होनेका भय रहता है ॥ १॥ क्रोध, व्रत, रूप, नियम और उपवासके द्वारा संधित किये हुए पुण्यको इस प्रकारसे क्षणभरमें नष्ट कर देता है जिस प्रकारसे कि अग्नि क्षणभरमें इन्धनको मस्म कर देती है। ऐसा विचार करके जो महात्मा पुरुष उस क्रोधके अधीन नहीं होता है उसका पुण्य वृद्धिको प्राप्त होता है ॥२॥ मनुष्यका क्रोध संसाररूप वनको भरम करनेमें दावानलकी समानताको धारण करनेवाले धर्मको नष्ट करके यहाँ जिस दोषको करता है उस दोषको क्रोधके वशीभूत हुए राजा, शत्रु, सिंह, गजराज और महासर्प भी नहीं करते हैं। अभिप्राय यह है कि क्रोध प्राणीका सबसे अधिक अहित करनेवाला शत्रु है। कारण कि क्रोधको प्राप्त हुए शत्रु या राजा आदि केवल प्राणों तक अपहरण कर सकते हैं, किन्तु वे धर्मको नष्ट नहीं कर सकते हैं। परन्तु यह क्रोधरूप शत्रु तो जीव प्राणवरण के साथ धर्मको भी नष्ट कर देता है, जिससे कि उसे उभय लोकोंमें ही दुख 1 स om. sपि ! २ स नाभोग । ३ स विहत्य । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9:२-८] २. कोपनिषेधैर्विशतिः 25) यः कारणेन वितनोति रुषं मनुष्यः कोपः' प्रयाति शमनं तदभावतो ऽस्य। यस्त्वत्र कुप्यति विनापि निमित्तमङ्गी नो तस्य कोऽपि शमनं प्रविधामीशः॥ ४॥ 26) धैर्ये धुनाति विधुनोति मति क्षणेन रागं करोति शिथिलीकुरुते शरीरम् । धर्म हिनस्ति पचन विवधात्यक्षाच्य कोपग्रहों रतिपतिर्मदिरामवश्व ॥५॥ 27) रागं रशोर्वपुषि कम्पमनेकरूपं चि विवेकरहितानि च चिन्तितामि । पुंसाममार्गगमम समदुःसजातं कोपः करोति सहसा मदिराम ॥ ६॥ 28) मैत्रीतपोयतयशोनियमानुकम्पासौभाग्यभाग्यपठनेन्द्रियनिर्जयायो । नश्यन्ति कोपपुरवैरिहताः समस्तास्तीवाग्नितप्तरसंवरक्षणतो मरस्य ॥ ७॥ 29) मासोपषासनिरतो ऽस्तु तनोतु सत्य" ध्यानं करोतु विदधातु पहिनिवासम्। . प्रक्षत्रतं धरतु भैरतो ऽस्तु नित्य रोपं करोति यदि सर्पमनर्थकं सत् ॥८॥ यः मनुष्यः कारणेन रुषं वितनोति अस्य कोपः तदभावतः शमनं प्रयाति, तु अव यः अली निमित्तं विना अपि कुप्यति तस्य समनं प्रविधातुं क. अपि नो ईश: (भवति) ॥४॥ कोपग्रहः रतिपतिः च मदिरामदः धय धुनाति मति विधनोति राग . करोति शरीरं शिथिलीकुरुते धर्म हिनस्ति (च) अवान्यं वचनं विदधाति ॥ ५॥ कोपः च मदिरामदः पुंसां दृशः राग पषि कम्पम् अनेकरूपं चित्तं विवेकरहितानि चिन्तितानि अमार्गगमनं च सभदुःखजातं सहसा करोति ॥६॥ नरस्म समस्ताः मैत्रीतपोवतयशोनियमानुकम्पासौभाग्यभाम्यपठनेन्द्रियनिर्जयाद्याः कोपपुत्वैरिहताः सन्तः तीवाप्रितप्तरसवत् क्षणतः नश्यन्ति ॥ ७॥ नर: यदि नित्यं रोषं करोति (तदा सः) मासोपवासनिरतः अस्तु सत्यं तनोतु ध्यान करोतु गहिभोगना पड़ता है ॥३॥ जो मनुष्य किसी कारणसे क्रोध करता है उसका यह क्रोध उक्त कारणके इट जानेपर शान्तिको प्राप्त हो जाता है। किन्तु जो मनुष्य विना ही कारणके कोध करता है उसके क्रोधको शान्त करनेके लिये यहां कोई भी समर्थ नहीं है ।। ४ ।। कोषरूप प्रह, कामदेव और मदिराका मद; ये क्षणभरमें धैर्यको नष्ट कर देते हैं, बुद्धिका विधात करते हैं, मत्सरताको उत्पन्न करते हैं, शरीरको शिथिल करते हैं, धर्मको नष्ट करते हैं, तथा निन्ध वचन बोलनेको प्रेरित करते हैं ॥५॥ जिस प्रकार कोध सहसा मनुष्योंको आँखों में लालिमाको, शरीरमें कम्पको, अनेक प्रकारके चित्तको, विवेकरहित विचारोंको तथा दुखसमूहके साथ कुमार्गप्रवृत्तिको करता है उसी प्रकार मदिराका मद (नशा) भी करता है। विशेषार्थ क्रोध और मद्य ये दोनों समान हैं, क्योंकि, जिस प्रकार मघके पीनेसे मनुष्यकी आंखें लाल हो जाती हैं उसी प्रकार क्रोधसे भी उसकी आंखें लाल हो जाती हैं, जैसे शरीरका कम्पन मयके पीनेसे होता है वैसे ही यह क्रोधके कारणसे भी होता है, जिस प्रकार मद्यके पीनेसे चित्त चंचल हो जाता है उसी प्रकार क्रोधके वश होनेपर भी वह चंचल हो जासा है, जिस प्रकार मथ पीनेसे मनुष्यके विचार विवेकसे रहित हो जाते हैं, उसी प्रकार क्रोधके वशीभूत होनेपर भी उसके विचार कर्तव्य-अकर्तव्यके विवेकसे. रहित हो जाते हैं, तथा जिस प्रकार मद्यको पीकर मनुष्य खोटे मार्गमें गमन करता हुआ दुख सइता है उसी प्रकार क्रोधके वश हुआ मनुष्य भी खोटे मार्गमें (जीवघातादिमें ) प्रवृत्त होता हुआ अनेक प्रकारके दुखको सहता है ॥६॥ मित्रता, तप, व्रत, कीर्ति, नियम, दया, सौभाग्य, माम्प, शास्त्राभ्यास और इन्द्रियदमन आदि ये सब मनुष्यके गुण क्रोधरूप महान् बरसे पीडित होकर क्षणभरमें इस प्रकारसे नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार कि तीव्र अग्निसे सन्तप्त होकर जल नष्ट हो जाता है॥७॥ मनुष्य भले ही महिने महिने तकका उपवास करनेमें तत्पर रहे, सत्य बोले, ध्यान करे, बाहिर बनमें 1 स कोपं । २ स यस्तत्र । ३ विदधातु' । ४ स om. मतिं । ५ स कोपोग्रहो। ६ स चित्ते, निते। उस चिन्तनानि । ८ स 'यशोव्रततपो । ९ स निर्जराद्याः : १० स परवैरि , पुरुषवैरि । ११ स नित्यं । १२स भैश्यरतो। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [30:२.९30) आत्माममन्यमय हन्ति जहाति धर्म पापं समाचरति युक्तमपाकरोति। पूज्यं न पूजयति धक्ति विनिन्यवाक्य के किं करोति न न खलु कोपयुक्तः ॥९॥ 31) दीपेषु सत्सु यदि को ऽपि ववाति शाप सत्यं ब्रवीत्ययमिति प्रविचिन्त्य सह्यम्। दोवसत्सु यदि कोऽपि ददाति शापं मिथ्यो ब्रवीत्ययमिति प्रविधिस्य सहाम् ॥१०॥ 32) कोपेन को ऽपि यदि वास्यते ऽय हन्ति पूर्व मयास्य कृतमेतदनर्थबुद्ध्या। शेषो ममैव पुनरस्य म को ऽपि दोषो ध्यात्वेति तत्र मनसा सहनीयमस्य ॥ ११ ॥ 33) व्याध्यादिदोषपरिपूर्णमनिसंग पूतीदमामपनीवाषियर्थ धर्मम् । शुद्धं ददाति गतबाधमनरूपसौम्य लाभो ममायमिति घातकतो विषयम् ॥ १२॥ निवासं विवधातु ब्रह्मवतं धरतु मक्षरतः अस्तु तत् सर्वम् अनर्यकं (भवति) ॥८॥ (स:) आत्मानम् अथ अन्यं हन्ति धर्म जहाति पापं समाचरति युक्तम् अपाकरोति पूज्यं न पूजयति विनिन्यवाक्यं बक्ति । कोपयुक्तः नरः खलु किं किं न करोति (अपि तु सर्वम् अनुचितं करोति) ॥ ९॥ पदि कोऽपि (नरः) योपेषु सस्तु शापं ददाति अयं सत्यं ब्रवीति इति प्रविचिन्त्य सह्यम् । यदि कोऽपि दोषेषु असत्सु शापं ददाति अयं मिथ्या ब्रवीति इति प्रविचिन्त्य साम् ॥ १०॥ यदि को ऽपि कोपेन तारयते मनहन्ति (तवा) ममा अनर्यवुद्ध्या अस्य पूर्वम् एतत् कृतम् । मम एव दोषः अस्प पुनः कः अपि दोषः न इति म्यात्वा सन्न मनसा अस्प सहनीयम् ।। ११॥ व्याध्यादिदोषपरिपूर्णम् अनिष्टसंग पूति इवम् अङ्गम् अपनीय गुवं धर्म विवर्ध्य निवास करे, ब्रह्मचर्यवसको धारण करे, तया निरन्तर भिक्षाभोजनमें भी लीन रहे; किन्तु यदि वह क्रोधको करता है तो उसका वह सब उपर्युक्त आचरण व्यर्थ हो जाता है 1॥ ८॥ क्रोधयुक्त मनुष्य निश्रयसे क्या क्या अनर्ष नहीं करता है ! अर्थात् यह सभी प्रकारके अनर्थको करता है-वह अपने स्वाभाविक क्षमादि गुर्गोको नष्ट करके अपना भी घात करता है और अन्य प्राणीके प्राणोंका त्रियोग कर उसका भी घात करता है, वह धर्मका परित्याग करता है, पापका आचरण करता है, सदाचारको नष्ट करता है, पूज्य जनकी पूजा-स्तुति नहीं करता है, और अत्यन्त निन्ध वचनको बोलता है ॥९॥ दोषोंके होनेपर यदि कोई शाप देता है-अपशब्द बोलता है या निन्दा आदि करता है तो वह सत्य बोलता है, ऐसा विचार कर विवेकी जीवको उसे सहन करना चाहिये। और यदि दोर्षोंके न होनेपर भी कोई शाप देता है तो वह असत्य बोलता है, ऐसा विचार करके उसको सहन करना चाहिये । इस प्रकार यहाँ यह क्रोधके जीतनेका उपाय निर्दिष्ट किया गया है ॥ १०॥ यदि कोई क्रोधसे ताडना करता है- शारीरिक कष्ट देता है-अयवा प्राणवियोग करता है तो मैंने पूर्वमें अहितकी बुद्धिसे इसका यह ताडन-मारण- किया है, इसलिये यह मेरा ही अपराध है, इसका कुछ भी अपराध नहीं है। ऐसा मनसे विचार करके इस आये हुए दुसको सहना चाहिये ॥११॥ जो यह मेरा शरीर रोग आदिसे परिपूर्ण, अनिष्ट पदार्थोंकी संगति करनेवाला एवं दुर्गन्धयुक्त है उसको नष्ट करके और धर्मको बड़ा करके यह घातक मनुष्य शुद्ध, निर्बाध एवं अनन्त आत्मिक सुखको देता है। यह मुझे लाभ ही है ऐसा सोचकर उस घातकके द्वारा किये जानेवाले मरणदुखको सहन करना चाहिये। विशेषार्थ-यदि कोई दुष्ट मनुष्य गाली देकर या शरीरको पीडित करके भी शान्त नहीं होता है और प्राणोंका घात ही करना चाहता है तो भी विवेकी साधु ऐसे समयमें यह विचार करता है कि यह जो मेरा शरीर शारीरिक एवं मानसिक दुःखोंसे परिपूर्ण व संसारपरिभ्रमणका कारण है उसे यह पृथक् करके मेरे धर्मका रक्षण करता है । इससे मुझे वह निर्बाध अनन्त सुख प्राप्त होनेवाला है जो इस शरीरके रहते हुए कभी सम्भव नही है । इस प्रकारसे तो यह मेरा महान उपकारी 1 स युक्ति । २ स सिनियवाच्य । ३ स मिथ्यो । ४ स 'निष्ट । ५ स पूतीह । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38१२-१७] २. कोपनिषेधैक विंशतिः 34 में स्थितस्य यदि को ऽपि करोति कर पापं चिनोति गतवुद्धिरयं वराकः । एवं विचिन्त्य परिकल्पकृतं त्यमुश्य हानान्वितेन भवति क्षमितव्यमत्र ॥ १३ ॥ 35) शप्तो ऽस्यनेन न हतो ऽस्मि नरेण रोषाची मारितोऽस्मि मरणे ऽपि न धर्मनाशः। ___कोपस्तु धर्ममपहन्ति चिनोति पापं संचिन्त्य चारुमतिनेति तितिक्षणीयम् ॥ १४ ॥ 36) दु:खार्जितं खलगत घेलभीकृतं च धान्य यथा वहति धक्षिकणः प्रविष्टः । नानायिधमतदयानियमोपवासै रोषोऽर्जितं भवभृतां पुरुपुण्यराशिम् ॥ १५ ॥ 37) कोपेन यः परमभीप्सति हन्तुमको नाशं स एवं लमते शरभो ध्वनन्तम् । . मेघ लिलबिधुरिधान्यजनों किंचिनोति कर्तुमिति कोपवता न भाव्यम् ॥ १६॥ .. 38) कोपः करोति पितृमावसुजनानामप्यमियत्वमुपकारिजनापकारम् । देहाय प्रकृतकार्यविनाशने च मल्वेति कोपवशिनो न भवन्ति भव्याः ॥ १७ ॥ गतबाधम् अनल्पसौख्यं ददाति अमं मम लाभः इति घातकृतः विषह्यम् ।। १२ ।। यदि कोऽपि धर्मे स्थितस्य फष्टं करोति अयं गतबुद्धिः वराक: पापं चिनोति एवं विचिन्त्य ज्ञानान्वितेन अब अमुष्य परिकल्पकृतं क्षमितव्यं भवति ॥ १३ ॥ अनेन नरेण रोषात् पाप्तोऽस्मि न हतो ऽस्मि नो मारितः अस्मि मरणे ऽपि न धर्मनामः । कोपः तु धर्म हन्ति पापं चिनोति इति पारुमतिना संचिन्त्य तितिक्षणीयम ॥१४॥ यथा प्रविष्ट: वकण: दुःशाजितं खलगतं च बलभीकृतं धान्यं दहति तथा रोषः नानाविधवतययानियमोपवासः अजितं भवभूतां पुष्पुभ्यरामिण दहति ॥१५॥ यः अनः अन्यजनः कोपेन पर इन्तुम् अभीप्सति सः कोपेन ध्वनन्त मेघ लिलहिषुः शरभ इव किंचित् कतुं न शक्नोति इति कोपवता न भाग्यम् ।। १६॥ कोपः है, इसलिये इसके ऊपर क्रोध करना उचित नहीं है। ऐसा विचार करता हुआ वह कभी क्रोध नहीं करता है ।। १२ ।। यदि कोई धर्ममें स्थित साधुको कष्ट पहुँचाता है तो वह सोचता है कि मैं तो धरमें स्थित हूँ, किन्तु यह बेचारा अज्ञानी प्राणी मुझे काट देकर स्त्रयं ही पापका संचय कर रहा है। ऐसा विचार करके विवेकी साधु उस अज्ञानीके द्वारा किये जानेवाले अपराधको यहाँ क्षमा ही करता है।॥१३॥ यदि कोई अपशब्दोंका प्रयोग करता है तो विवेकी साधु यह विचार करता है कि इस मनुष्यने मुझे झोपते गाली हो तो दी है, मारा तो नहीं है। यदि वह मारने भी लग जावे तो फिर वह यह विचार करता है कि इसने मुझे मारा ही तो है, प्राणोंका नाश तो नहीं किया। परन्तु यदि वह प्रार्णोका नाश करनेमें भी उद्यत हो जाय तो बह ऐसा विचार करता है कि इसने क्रोधके वशीभूत होकर मेरे प्राणोंका ही नाश किया है, मेरे प्रिय धर्मका सो नाश नहीं किया; इसलिये मुझे इस बेचारे अज्ञानी प्राणीके ऊपर क्रोध करना उचित नहीं है। कारण कि वह क्रोध धर्मको नष्ट करता है और पापको संचित करता है। ऐसा सोचकर बुद्धिमान् साधु उसको क्षमा ही करता है | १४ | दुखसे उत्पन्न किया गया जो धान्य (अनाज) खलिहानमें राशिके रूपमें स्थित है उसमें यदि अग्निका कण प्रविष्ट हो जाता है तो जैसे वह उस राशीकृत धान्यको जला देता है वैसे ही क्रोधरूप अग्निका कण भी अनेक प्रकारके व्रत, दया, नियम एवं उपवासोंके द्वारा उपार्जित जीवों की महती पुण्यराशिको जला देता है ।। १५ ।। जो अज्ञानी मनुष्य कोषसे किसी दूसरे प्राणीका घात करना चाहता है वह स्वयं ही नाशको प्राप्त होता है । जैसे गरजते हुए मेषको लोचनेकी इच्छा करनेवाला अष्टापद पशु मेधका कुछ भी अनिष्ट न करके स्वयं हो नाशको प्राप्त होता है। वास्तवमें दूसरा मनुष्य किसीका कुछ भी अनिष्ट करनेको समर्थ नहीं है। यही विचार कर बुद्धिमान् मनुष्यको कोधयुक्त नहीं होना चाहिये ।। १६॥ क्रोध पिता, माता और मित्रजनोंका भी १ स 'कल्प्य । २ स स्वमुख्यः, स्वमुष्प । ३ स दोषा | ४ स संचिस्य । ५ स बहुलीकृतं । ६ स जने न्य । ७स प्रकृति। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [39:२-१८39) तीर्थाभिषेकजपहोमदयोपवासा ध्यानवताध्ययनसंयमदानपूजाः। नेफ्फलं जगति देहयतां वदन्ते याग्दमो निखिलकालहितो ददाति ॥ १८ ॥ 40) 5भाभरमुखो विकरालरूपो रक्तक्षणो दशनपीडितदन्तवासाः। त्रासं गतो ऽति मनुजो जननिन्धवेषः क्रोधेन कम्पिततनुभुषि राक्षसों था ॥ १९ ॥ 41) को ऽपीह लोहमतितप्तमुपाददानो देवयते निजकरे' परदाहमिच्छुः। यात्तथा प्रकुपितः परमाजिघांसुवुःखं स्वयं बजति वैरिष विकरूपः ॥२०॥ पितमातसहज्जनानाम् अपि अप्रियत्वम् उपकारिजनापकारं देहलयं च प्रकृतकार्यविनाशनं करोति इति मत्वा भव्या कोपवशिनो न भवन्ति ।। १७ । जगति निखिलकालहितः दमः देहवतां पादुक्फले ददाति तीर्थाभिषेकजपहोमदयोपवासाः ध्यानवताध्ययनसंयमदानपूजाः ईदृक् फलं न ददन्ते ॥ १८॥ क्रोधेन भ्रूभङ्गमरमुख: विकरालरूप: रफ्तेक्षणः दशनपीडितदन्तवासरः जननिन्द्यवेषः अतिवास गतः कम्मिततनुः मनुजः भुवि राक्षसो या (प्रतिभाति) ॥१९॥ परदाहमिच्छु: अतितप्त लोहं निजकरे उपावदानः को ऽपि इह पढत् दंदह्यते तथा प्रकुपितः परम् आजिघांसुः स्वयं दुःखं व्रजति बैरिवधे अनिष्ट करता है। क्रोधके वशीभूत होकर मनुष्य अपने उपकारी जनोंका भी अपकार करता है। यहाँ तक कि क्रोधी मनुष्य अपने शरीरको भी नष्ट करता है। और प्रकृत कार्यको भी नष्ट करता है । ऐसा विचार करके विवेकी भव्य जीव उस क्रोधके वशीभूत नहीं होते हैं ॥ १७ ॥ संसारमें गंगा आदि तीयोंमें बान, जप, हवन, दया, उपवास, ध्यान, व्रत, अध्ययन, संयम, दान और पूजा; ये सब प्राणियोंके लिये ऐसे फलको नहीं दे सकते हैं जैसे कि फलको सब ( तीनों) कालोंमें हित करनेवाला क्रोधका दमन (क्षमा) देता है। | अभिप्राय यह कि यदि क्रोधको वशमें नहीं किया गश है तो फिर उसके साथ किये जाने वाले तीर्थस्नान आदि सब व्यर्थ होते हैं ] 1॥ १८ ॥ क्रोधके वशमें होनेपर मनुष्यका मुख भ्रुकुटियोंकी कुटिलतासे विकृत हो जाता है, आकृति मयानक हो जाती है, नेत्र लाल हो जाते हैं, यह दांतोंसे अपने अधरोष्ठको चबाने लगता है, उसका वेष जनोंसे निन्दनीय होता है, तथा उसका सारा ही शरीर कांपने लगता है। बत प्रकार अतिशय पीडाको प्राप्त हुआ ह क्रोधी मनुष्य साक्षात् राक्षस जैसा प्रतीत होता है ॥१९॥ यहां कोई दसरेको जलानेकी इच्छासे यदि अपने हाथ में अत्यन्त सपे हुए लोहेको लेता है तो दूसरा जले अथवा न भी जले, किन्तु जिस प्रकार वह स्वयं जलता है उसी प्रकार शत्रुको मार डालनेका विचार करके क्रोधको प्राप्त हुआ मनुष्य दूसरेका घात करनेकी इच्छासे स्वयं दुखको अश्श्य प्राप्त होता है। उससे शत्रुका घात हो अथवा न भी हो, यह अनिश्चित ही रहता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार कोई मनुष्य क्रोधके वश होकर दूसरेको जलानेकी इच्छासे यदि हाथमें अंगारको लेता है और उसके ऊपर फेंकता है तो सर्वप्रथम वह स्वयं ही जलता है, तत्पश्रात् यदि वह दूसरेको लग गया तो वह जल सकता है, अन्यथा वह बच भी जाता है। ठीक इसी प्रकार जो क्रोधके वश होकर दूसरे को नष्ट करनेका प्रयत्न करता है वह उस प्रकारके रौद्र परिणामोंसे पापका संचय करके दुर्गतिको प्राप्त होता हुआ प्रथम तो स्वयं दुख को प्राप्त होता है, तत्पश्चात् यदि उस समय दूसरेके से पापका उदय संभव हुआ तो वह नष्ट हो सकता है, अन्यथा उसका बह प्रयत्न निष्फल हो जाता है और वह सुरक्षित ही रहता है। इस प्रकार क्रोध जितना स्वयंका अहित करता है उतना वह दुमरेका नहीं कर सकता है ॥ २० ॥ म लोहाम', लोहमिति । * स पूजा। २ स यादृरक्षमो। ३ गतीषि, गतोसि । ४ स राश्यसो । ६ स 'करो। ७ स 'दोहा । ८ स वैरिविधेर्विकल्प। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42:२–२१] २. कोपनिषेधैकविंशतिः 12) वैरं विवर्धयति सख्यमपाकरोति रूपं विरूपयति निन्द्यमर्ति' तनोति । दौर्भाग्यमानयति शातयते च कीर्तिं रोषो ऽत्र रोगसरशो न हि शत्रुरस्ति ॥ २१ ॥ ॥ इति कोपनिषेधैकविंशतिः " ॥ २ ॥ विकल्पः ॥ २० ॥ अव रोप: वैरं विवर्धयति सख्यम् अपाकरोति रूपं विरूपयति निन्धमति तनोति दौर्भाग्यम् आनयति कीर्ति शातयते । हि अन्न रोषसदृशः शत्रुः न अस्ति ।। २१ ।। ॥ इति कोपनिषेधैकविमतिः ॥ २ ॥ - संसारमें क्रोध भावको बढाता है, मित्रताको नष्ट करता है, शरीरकी आकृतिको विकृत करता है, बुद्धिको मलिन करता है, पापको लाता है, और कीर्तिको नष्ट करता है। ठीक है यहां क्रोधके समान अहित करनेवाला और दूसरा कोई शत्रु नहीं है क्रोध ही सबसे भयानक शत्रु है । विशेषार्य - लोकमें जो 1. जिसका कुछ नष्ट करता है उसे वह शत्रु मान लेता और तदनुसारही वह उसके नष्ट करनेके उपायोंकी योजना भी करने लगता है । परन्तु यह कितनी अज्ञानता की बात है कि जो क्रोध उसका सबसे अधिक नष्ट कर रहा है उसे यह शत्रु नहीं मानता और न इसीलिये वह उसके नष्ट करनेका भी प्रयत्न करता है। इसी अभिप्रायको कत्रि वादित्रसिंह इस प्रकार प्रगट किया है " अपकुर्वति कोपवेत् किं न कोपाय कुप्यसि । त्रिस्यापवर्गस्य जीवितस्य च नाशिने ॥" अर्थात् हे भव्य ! यदि तुझे अपना अपकार करनेवाले ऊपर क्रोध आता है तो तू उस क्रोधके ऊपर ही क्रोध क्यों नहीं करता ? कारण कि वह तो तेरा सबसे अधिक अपकार करनेवाला है । वह तेरे धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गको; मोक्ष पुरुषार्थको और यहां तक कि तेरे जीवितको भी नष्ट करनेवाला है। फिर भला इससे अधिक अपकारी और दुसरा कौन हो सकता है ? कोई नहीं [ क्ष. चू. २-४२. ] ॥। २१ ।। इस प्रकार इक्कीस लोकोंमें क्रोध के निषेधका कथन समाप्त हुआ || २ || प्रदेशः । करेति । २ सom रूपं वि स नियम ४ स तिमोतिः । ५ सont इति इति को निराकरणो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३. मानमायानिषेधाविंशतिः ] 43) रूपेश्वरत्यकुलजातितपोबलामामानातुःसहमदाकुलबुद्धिरशः।। यो मन्यते ऽहमिति नास्ति परोऽधिको मैन्मानास नीथकुलमेति भवाननेकान् ॥ १॥ 44) नीति निरस्थति यिनीतिमपाकरोति कोर्ति शशाधवला मेलिनीकरोति । मान्यान्न मानयति मानवशेन हीनः प्राणीति मानमपहन्ति महानुभावः॥२॥ 45) हीनाधिकेषु विधात्यविवेकमा धर्म विनाशयति संचिनुत्ते च पापम् । दौर्भाग्यमानयति कार्यमपाकरोति किं किं न दोषमथवा कुरुते ऽभिमानः ।। ३॥ . 46माने कृते यदि भवेदिह कोऽपि लाभो अघहानिरथ काचन माईवे स्यात् । याच को ऽपि यदि मानकृतं विशिष्टं मानो भषेयभृतां सफलस्तदानीम् ॥४॥ रूपेश्वरत्वकुलजातितपोबलाशाज्ञानाष्टदुःसहमदाकूलबुद्धिः यः अज्ञः मानात अहम अधिकः मत्परः अधिक: नास्ति इति मन्यते सः अनेकान् भवान् नीषकुलम् एति ।। १॥ हीनः प्राणी मानवशेन नीति निरस्यति विनीतिम् मपाकरोति शशाधवला कीति मलिनीकरोति मान्यान् न मानयति इति महानुभावः मानम् अपहन्ति ।। २॥ अभिमानः हीनाधिकेषु अविवेकभावं विदधाति धर्म विनाशयति पापं संचिनुते दीर्भाग्यम् आनयति च कार्यम् अपाकरोति । अथवा अभिमानः कि कि वोषं न करोति ॥३॥ यदि यह माने कृते भयभृता कः अपि लाभः भवेत् अथ यदि मार्दने (कृते) काषन अर्थहानिः स्यात् यदि च कः अपि मानकतं विशिष्टं झूयात् तवानी भवभूतां मानः सफलः स्यात् ॥४॥ ___जो अज्ञानी मनुष्य सुन्दरता, प्रभुता, कुलं ( पितृपक्ष ), जाति, मातृपक्ष, तप, शारीरिक शक्ति, आज्ञा (ऋद्धि) और ज्ञान; इस आठ प्रकारके मद ( अभिमान) में बुद्धिको लगाकर यह समझता है कि 'मैं ही सबकुछ है, मुझसे अधिक दूसरा कोई नहीं है। वह इस प्रकारके अभिमानसे अनेक भवोंमें नीच कुलको प्राप्त होता है || १ || निकृष्ठ प्राणी अभिमानके वश न्यायमार्गको नष्ट करता है, नम्रताको दूर करता है, चन्द्र के समान निर्मल कीर्तिको मलिन करता है, तया माननीय जनोंका सन्मान नहीं करता है 1 इसीलिये महापुरुष उस अभिमानको नष्ट करता है ॥२॥ अभिमान हीन और अधिक जनोंमें अविवेकिताको उत्पन्न करता है--- गुणाधिक मनुष्योंका हीन जनके समान तिरस्कार करता है, धर्मको नष्ट करता है, पापको संचित करता है, दुर्दैवको लाता है, और कार्यको नष्ट करता है | अथवा अभिमान किस किस दोषको नहीं करता है- वह सब ही दोषोंको करता है ॥ ३ ॥ यदि यहाँ मानके करनेपर कोई लाभ होता है और इसके विपरीत यदि सरलताके होनेपर कुछ धनहानि होती है तथा यदि कोई अभिमान करनेवाले व्यक्तिको विशिष्ट ( महान् ) कहता है सब प्राणियोंका वह अभिमान सफल हो सकता है ! [ अभिप्राय यह है कि न तो मानसे कोई लाभ होता है और न उसके विना मार्दवसे कुछ धन आदिकी हानि ही होती है ! इसके अतिरिक्त अभिमानी जनकी सत्र निन्दा भी करते हैं- प्रशंसा कोई भी नहीं करता है । अत एवं प्राणियोंका अभिमान करना निरर्थक एवं हानिकारक है ] ॥ ४ ॥ १सयाति । २ स 'महा' । ३ स ऽपि for मन् । ४ स भुपाकरोति । ५ स मलिनी । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151: ३-९] ३. मानमायानिषेधविंशतिः 47) मानो विनीतिमपहन्त्यविनीतिरङ्गी' सर्व निहन्ति गुणमस्तगुणानुरागः । ___ सर्वापदा जगति धाम विरागतः स्यादित्याकलय्य सुधियों न धरन्ति मानम् ॥५॥ 48) हीनो ऽयमन्यजनतोऽपहताभिमानाबातो ऽहमुत्तमगुणस्तदकारकत्वात् । अन्य निहीनमयलोकयतो ऽपि पुंसो मानो विनश्यति सदेति वितर्कमार्जेः॥ ६॥ 49) गर्वेण मातृपितृवान्धवमित्रवर्गाः सर्वे भवन्ति विमुखा विहितेन पुसः। अन्यो ऽपि तस्य तनुते न जनोऽनुराग मरवेति मानमपहस्तयते सुबुद्धिः॥७॥ 50) आयासशोकेभयदुःखमुपैति मयो मानेन सर्वजननिन्दितवेषरूपः। विद्यादवादमपमादिगुणांस हन्ति ज्ञात्वेति गर्ववशमेति न शुद्धबुद्धिः ॥ ८॥ 51) स्तब्धो विनाशमुपयाति नतो ऽभिवृद्धि मयों नदीतटगतो घरणीरहो" वा। गर्वस्य दोषमिति चेतसि संनिधाय नाहकरोति गुणवोषविचारदेक्षः ॥९॥ मानी विनीतिम् अपहन्ति अधिनीतिः अङ्गी सर्व गुण निहन्ति अस्तगुणानुरागः किरागतः जगति सर्वापदां धाम स्यात् इति माकलय्य मुधियः मानं न धरन्ति ।। ५ ।। अपहताभिमानात् अयम् अन्यजनतः हीनः जातः सरकारकत्वात् अहम् उसमगुणः जातः इति अन्य निहीनम् अवलोकपतः अपि वितर्कभाजः पुंसः मानः सदा विनश्यति ॥ ६॥ विहितेन गर्वेण सर्वे मातृपितृवान्धवमित्रवर्गाः विमुखाः भवन्ति । अन्यो ऽपि जनः तस्य अनुरागं न सनुते इति मत्वा सुबुद्धिः मानम् अपहस्तयते ॥ ७ ॥ मानेन मत्यः आयासशोकभयदुःसम् उपैति सर्वजननिन्दितवेपल्य; च विद्यादयादमयमादिगुणान् हन्ति इति ज्ञात्वा पञ्चबुद्धिः गर्ववशं न एति ।। ८॥ नदीतटगत: अरणीकहो वा (श्व) स्तब्धः (जीकृतः) मर्त्यः विनाश, नतः अभिवृद्धिम् मानी प्राणी विनयको नष्ट करता है, अप्रिनयी मनुष्य सत्र गुणोंको नष्ट करता है- गुणी जनोंके गुणोंमें अनुराग नहीं करता है, और गुणानुरागसे रहित प्राप्णी गुणोंका विद्वेषी होकर संसारमें सभी प्रकारकी आपत्तियोंका स्थान बन जाता है। यही सोचकर बुद्धिमान् प्राणी उस मानको नहीं धारण करते हैं ॥५॥ यह निकृष्ट अभिमानके कारण दूसरे जनोंकी अपेक्षा हीन हुआ है और उस अभिमानको न करनेके कारण मैं उत्तम गुणवाला हुआ हूँ, इस प्रकार विचार करनेवाले पुरुषका यह अभिमान सदा अन्य हीन जनको देख करके भी नाशको प्राप्त होता है । विशेषार्थ-प्रायः हीन जनको देखकर उत्तम मनुष्योंके हृदयमें अभिमान उदित हुआ करता है । परन्तु वे यह विचार नहीं करते कि ये जो हीन कुलमें ऊपन्न हुए हैं वे इसीलिये हुए हैं कि उन्होंने पूर्वमें अभिमानके वश होकर अन्य गुणी जनोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा की है । कहा भी है-'परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोभावने च नीचैौत्रस्य ।' अर्थात् दूसरोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरोंके विद्यमान गुणोंको टकना और अपने अविद्यमान गुणोंको प्रगट करना, इससे नीच गोत्रका बन्ध होता है [त. सू. ६-२५] | और चूंकि मैंने उस निन्द्य कुलमें उत्पन्न करनेवाले उस अभिमानको पूर्वमें नहीं किया है इसीलिये मैं उच्च कुलमें उत्पन्न होकर गुणवान हुआ हूँ | यदि वे उपर्युक्त विचार करे तो अपनेसे हीन जनोंको देख करके भी उन्हें कभी अभिमान न होगा ॥ ६॥ अभिमानके करनेसे माता, पिता, बान्धव और मित्रवर्ग आदि सब उस अमिमानी पुरुषके प्रतिकूल हो जाते हैं। अन्य जन भी उससे अनुराम नहीं करते हैं। इस प्रकार विचार करके विवेकी जन उस अभिमानको नष्ट करते हैं | ७ || मानके वश होकर मनुष्य सब जनोंके द्वारा निन्दित १ वेष एवं आकारको धारण करता हुआ परिश्रम, शोक, भम और दुखको प्राप्त होता है तथा विद्या, दया, दम (कषापों और इन्द्रियोंका दमन) और संयम आदि गुणोको नष्ट करता है; ऐसा जानकर निर्मल बुद्धिका धारक मनुष्य उस मानके वशमें नहीं होता है |॥ ८॥ नदीके तटपर स्थित वृक्षके समान जो पसरंगा । २ स सच्चा । ३ स सोपदां । ४ स सधियो । ५ स जननो' । ६स पहिना', पिहिताः। स भाजा। ४ स विहतेन । ९स'सोक, "कोश", "कोप" for शोक । १ स तिवृद्धि। 11 स रुहे काः । १२ स विचारक्षः ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [52 : ३-३ 52) हीनानवेक्ष्य कुरुते ददये ऽभिमानं मूर्खः स्वतोऽधिकगुणानवलोक्य मान् । प्राशः परित्यजति गर्वमतीय लोके सिद्धान्तशुद्धधिषणा मुनयो बदन्ति ॥ १० ॥ 53) जिल्हासहसकलितोऽपि समासहसौर्यस्यां न दुःखमुपवर्णयितुं समर्थः।। सखदेवमपहाय परो मनुष्यस्ता वनभूमिमुपयाति नरो ऽतिमानी ॥११॥ 54) या छेदमेदवमनानदाहदोहरातातपासजलरोधषधाविदोषा'। मायावशेन मनुजो जनमिन्दनीयां तिर्यग्मति नजति तामतिःखपूर्णाम् ।। १२ ॥ 55) यत्र प्रियाप्रियवियोगसमागमाम्पप्रेयत्वधाम्यधनबान्धवहीनताथैः । दुःख प्रयाति विविध मनसोप्यसर्थ तं मर्यषालमधितिष्ठति माययाजी ॥ १३ ॥ उपयाति इति गुणवोपविवारदसः चेतसि गर्वस्य दोष संनिधाय न अहंकरोति ।। ९॥ लोके मूर्खः स्वतः हीनान् मान् अवेक्ष्य हृदये अभिमान कुरुते । प्रातः स्वतः अधिकगुणान् मान् अवलोक्य अतीव गवं त्यजति इति सिद्धान्तशुद्धधिपणाः मुनयो वदन्ति ।। १० ।। सर्वदेवम् अपहाय जिलासहस्रकलितः अपि परः मनुष्यः समा (वर्ष) सहस्रः यस्यां दुःखम् उपवयितुं न समर्थः, अतिमानी नरः तां मभूमिम् उपयाति ॥ ११ ।। मायावशेन मनुजः जननिन्दनीयामतिदुःखपूर्णा तां तिर्यग्गति ब्रजति या भेदभेददमनाङ्गलबाहदोहवातातपान्नजलरोधवधादिदोषा (अस्ति) ॥ १२॥ अङ्गी मायया तं मयं. मनुष्य उद्धत रहता है वह नाशको प्राप्त होता है और जो नम्र रहता है वह समृद्धिको प्राप्त होता है। इस प्रकार अभिमानके दोषको चित्तमें धारण करके-उसकी बुराईका विचार करके-गुण और दोषका चतुराईसे विचार करनेवाला पुरुष उस अहंकारको नहीं करता है ॥९॥ लोकमें मूर्ख मनुष्य अपनेसे हीन जनोंको देखकर हृदयमें अभिमान करता है और बुद्धिमान् मनुष्य अपनेसे अधिक गुणत्राले मनुष्यों को देखकर उस गर्वको बहुत दूर करता है, ऐसा आगमके अभ्याससे निर्मलताको प्राप्त हुई बुद्धिके धारक मुनिजन . निरूपण करते हैं। विशेषार्प-अज्ञानी मनुष्य जब अपनेसे हीन मनुष्योंको देखता है तो उसके हृदय यह . अभिमान उत्पन्न होता है कि मैं कितना श्रेष्ठ हूँ, ये बेचारे मेरे सामने कुछ भी नहीं है। इस अभिमानका फल यह होता है कि यह जो भविष्यमें और भी अधिक उन्नति कर सकता था, वह नहीं कर पाता है। इसके अतिरिक्त उक्त अभिमानके निमित्तसे जो पापबन्ध होता है उसके कारण वह भविष्यमें दुखी भी होता है । परन्तु जो बुद्धिमान मनुष्य है वह जब अपनेसे अधिक गुणवाले मनुष्योंको देखता है तो उसे उनके गुणोंमें अनुराग होता है, इसीलिये वह उनके सामने नतमस्तक हो जाता है । फल इसका यह होता है कि वह स्वयं भी वैसा गुणवान बन जाता है तथा उस गुणानुरागसे प्राप्त पुण्यके उदयसे भविष्यमें सुखी भी होता है ॥१०॥ अतिशय अभिमानी मनुष्य जिस नरकभूमिको प्राप्त होता है उसमें प्राप्त होनेवाले दुखका वर्णन करनेके लिये सर्व देवको छोडकर दूसरा कोई मनुष्य, यदि हजार जीभोंसे भी सहित हो तो भी वह हजार वर्षों में भी समर्थ नहीं हो सकता है। [अभिप्राय यह है कि अभिमानके कारण प्राणी नरकमें जाता है और वहां वह वर्णनातीत असह्य दुखोंको चिरकाल तक सहता है । ॥११ ।। मायाचारके वशीभूत होकर मनुष्य लोगोंके द्वारा निन्दनीय एवं अतिशय दुखोंसे परिपूर्ण उस तिथंचगतिको प्राप्त होता है जो कि नाक आदिका छेदना, भेदना (खण्डित करना), दमन (दण्डित करना), किसी अनादिसे विहित करना (दागना), जलाना, दुहना, वायु, घाम, अन्न-जलका रोकना (भूखा-प्यासा रखना) और मारने आदिरूप अनेक दोषोंसे सहित हैं ॥ १२॥ प्राणी मायाचारसे उस मनुष्यक्षेत्र स "नियः, नंद' १स समा सहमें । २ समुपहाय । ३ स भिमानी । ४ स यां। ५ स 'दोषां, दोषः। .स प्रेषत्व', प्रेसव' मेक्षित्व',८स हीनसौधैः । ९ स मनसापिसह्यम् । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 : ३-१८] ३. मानमायानिषेधविंशतिः B6) पत्रावलोक्य दिवि दीनमना विभूतिमन्यामरेवधिककान्तिसुखादिकेषु । प्राप्याभियोगएदचीं लभते ऽतिदुःखं तरैति वञ्चनपरः पुरुषो निवासम् ॥१४॥ 57) या' मातृभर्तृपितृयान्धवमित्रपुत्रवस्त्राशनाभरणमण्डनसौख्यहीनाः । दीनानना मलिननिन्दितवेषरूपा नारीषु तासु भवमेति नरोनिकरया ॥१५॥ 58) शीलवतोचमतपःशमसंयुतो ऽपि नात्रानुते निकृतिशल्यधरों मनुष्यः।। ____ आत्यन्तिकी श्रियमवाधसुखस्वरूपां शल्यान्वितो विषिषधान्यधनेश्वरो वा ॥१६॥ 59) क्लेशार्जित सुखकरं रमणीयमय॑ धान्यं कृषीवलजनस्य शिखीव सर्वम्।। भस्मीकरोति यहुधापि जनस्य सत्यं मायाशिस्त्री प्रचुरदोषकरः क्षणेन ॥ १७॥ 80) विद्वेषवैरिकलहासुखधातभीतिनिर्भर्सनाभिभवनासुविनाशनादीन् । दोषानुपैति निखिलान्मनुजो ऽतिमायी वुद्भवेति धारमतयो न भजन्ति मायाम् ॥१८॥ पासम् अधितिष्ठति या प्रियाप्रियवियोगसमागमान्यप्रेष्यत्वधायधनबान्धवहीनताबेंः मनसा अपि असा विविध दुःख प्रयाति ॥ १३॥ यत्र दिवि अधिककान्तिसुखादिकेषु अन्यामरेषु विभूतिम् अवलोक्य आभियोगपदवों प्राप्य अतिदुःख लभते, वञ्चनपरः पुरुषः तत्र निवासम् एति ।। १४॥ याः मातृभर्तृपितृबान्धवमिनमुन्नवस्त्राशनाभरणमण्डनसोल्पहीना: बीनानना: मलिननिन्दितवेषापाः तासु नारीषु नरः निकृत्या भवमेति ॥ १५ ॥ शल्यान्वितः विविधधान्यधनेश्वरः वा (इव) निकृतिशल्यघर: मनुष्य; अन्न शीलवतोद्यमतपःशमसंयुतोऽपि अबाघसुखस्वरूपाम् आत्यन्तिकी प्रियंन अश्नुते ॥ १६॥ कृषीवलजनस्य क्लेशाजितं सुखकरं रमणीयम् अयं सर्व धान्यं शिखी इव प्रचुरदोषफरः मायातिखी जनस्य क्लेशाजित मुखकरं रमणीयं सर्व सत्यम् अपि बहुधा क्षणेन भस्मीकरोति ॥ १७ ॥ अतिमायी मनुजः विद्वेषवैरकलहासुखपावभीति(मनुष्य पर्याय) में स्थित होता है जहांपर वह इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, दूसरोंकी दासता, धान्यहीनता, धनहीनता और बन्धुहीनता आदि अनेक कारणोंसे नाना प्रकारके असह्य मानसिक दुखको प्राप्त होता है ॥ १३ ॥ जिस देवपर्यायमें प्राणी अपनेसे अधिक कान्ति और सुख आदिसे सम्पन्न दूसरे देवोंकी + विभूतिको देखकर मनमें दीनताको धारण करता हुआ आभियोग्य पदवीको प्राप्त होता है-आभियोग्य जातिका देव होता है और अतिशय दुखको पाता है उस निकृष्ट देवपर्यायमें वह मायाचारी मनुष्य निवासको प्राप्त होता है | १४ || मनुष्य मायाचारसे उन त्रियोंमें जन्म लेता है जो कि माता, पत्ति, पिता, अन्य हितैषी बन्धुजन, मित्र, पुत्र, वस्त्र, भोजन, आभरण, अन्य अलंकारसामग्री एवं सुख; इनसे रहित होकर मलिन एवं निन्दित वेष और आकृतिके साथ मुखपर दीनताको धारण करती हैं ||१५|| जिस प्रकार चिन्तायुक्त मनुष्य अनेक प्रकारके धान्य एवं धनका स्वामी होकर भी निर्बाध सुखको नहीं प्राप्त होता है उसी प्रकार मायाशल्यको धारण करनेवाला (मायाचारी) मनुष्य यहाँ शील व व्रतोंके उधन तथा तप एवं शमसे संयुक्त होकर भी निर्वाध सुखस्वरूप आत्यन्तिकी श्रीको-मोक्षलक्ष्मीको नहीं प्राप्त होता है | विशेषार्य-तत्वार्थसूत्र (७-१८) में कहा गया है कि जो माया मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित बही व्रती हो सकता है। अत एव जो इस मायाशल्यसे सहित है वह भले ही व्रतों व शीलोंके परिपालनका प्रयत्न करता हो तथा तप एवं शमसे भी संयुक्त हो, किन्तु वह इन व्रतश्रीलादिके फलभूत मुक्तिसुखको नहीं प्राप्त कर सकता है। कारण कि मायाशल्यके रहते हुए वे सब शील मतादि व्यर्थ सिद्ध होते हैं ।। १६ । जिस प्रकार अग्नि किसान जनके कष्टसे उत्पादित, सुखकारक, रमणीय एवं बहुमूल्य सब धान्यको प्रायः क्षणभरमें भस्म कर देती है उसी प्रकार अनेक दोषोंको उत्पन्न करनेवाली मायारूप अग्नि भी मनुष्यके कष्टके उत्पादित, सुखकारक, रमणीय एवं बहुमूल्य सब सत्यसंभाषणको क्षणभर में नष्ट कर देती है ॥ १७ ॥ अतिशय मायाचारी मनुष्य द्वेष (क्रोध ), वैर, युद्ध, दुख, हिंसा, स जामातृ । २ मा 'गना । ३ स होनः । ४ स 'नना । ५ स 'रूपो। ६ स आत्यंतकी, की। " स रूपं 1 ८ समर्थ, 'मर्थ । ९ स सर्वः, सर्वो। १० स "भवनां । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सुभाषितसंदोहः 61) या प्रत्ययं बुधजनेषु निराकरोति पुण्यं हिनस्ति परिवर्धयते च पापम् । सत्यं निरस्यति तनोति विनिन्द्यभावं सां सेवते निकृतिमत्र जनो न भव्यः ॥ १९ ॥ 62) प्रच्छादितोऽपि कपटेन जनेन दोषो लोके प्रकाशमुपयातितरां क्षणेन । वर्षो यथा जलगतं विदधाति पुंसा' माया मनागपि न चेतसि संनिधेया ॥ २० ॥ ॥ इति मानमायानिषेधविंशतिः ॥ ३ ॥ निर्भत्सनाभिभवनासुविनाशनादीन् निखिलान् दोषान् उपैति इति युद्ध्वा चारुमतयः मायां न भजन्ति ।। १८ ।। या अक्ष नेषु प्रत्ययं निराकरोति पुष्पं हिनस्ति पापं परिवर्धयते सत्यं निरस्यति च विनिन्द्यभावं तनोति भव्यः जनः तां निकृति न सेवते ।। १९ । लोके जनेन कपटेन प्रच्छादितः अपि दोषः क्षणेन प्रकाशम् उपथातितराम् । यथा जलगतं वचः क्षणेन प्रकाशतो विदधाति । ( अतः ) पुंसा मनाक् अपि माया चेतसि न संनिधेया ॥ २० ॥ ।। इति मानमायानिषेधविंशतिः ॥ ३ ॥ मय, झिडकी, तिरस्कार और प्राणनाश आदि समस्त दोषोंको प्राप्त होता है, ऐसा जान करके बुद्धिमान् मनुष्य उस मायाका व्यवहार नहीं करते हैं || १८ || जो मायाव्यवहार यहां विद्वानोंके मध्य में विश्वास को दूर करता है, पुण्यको नष्ट करता है, पापको बढ़ाता है, सत्यका निराकरण करता है और निन्दनीय भावको विस्तृत करता है, भव्य जन उस मायाव्यवहारकी सेवा नहीं करते हैं । [ अभिप्राय यह कि बुद्धिमान मध्य जीव ऐसे अनर्थकारी कपटव्यवहार से सदां दूर रहते हैं ] || १९ || मनुष्य अपने दोषको यद्यपि कपटसे आच्छादित करता है (ढकता है) तो भी वह लोकमें क्षणभर में ही इस प्रकारसे अतिशय प्रकाशमें आ जाता है- प्रगट हो जाता है- जिस प्रकारसे कि जखमें डाला गया मल क्षणभरमें ही ऊपर आ जाता है। अत एव मनुष्यको उस मायाचारके लिए हृदयमें पोडा सा भी स्थान नहीं देना चाहिये ॥ २० ॥ इस प्रकार बीस लोकोंमें मान व मायाके निषेधपर कथन समाप्त हुआ || ३ || [61: २-१९ १ स सर्वो for वर्चो । २ स पुंस । ३ सom. इति, "निषेषेक", "निषेधा", इति मायाहंकार निराकरणोपदेशः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [४. लोभनिवारणविंशतिः] 63) शीतो रविर्भयति शीतरुधिः प्रतापी स्तब्ध नमो जलनिधिः सरिदम्बुवप्तः । स्थायी मरुद्विदहनो दहनो ऽपि जातु लोमानलस्तु न कदाविदाहक स्थात् ॥१॥ 64) लब्धेन्धनज्वलनवलक्षणतोऽतिवृधि लामेन लोभवानः समुपैति जम्तोः। विद्यागमनततपःशैमसंयमादीन मसीकरोति थमिमां व पुनः प्रमः॥२॥ 65) वित्ताशर्या खनति भूमितलं सवृष्णो धातून गिरेधमतिः भवति भूमिपाने।। देशान्तराणि विविधानि विगाहते च पुण्यं विना न पनरो लभते स सृप्तिम् ॥ ३॥ 66) वर्धस्य जीव जय नन्द चिरं विभो त्वमित्यादिचाटुवचनानि विभाषमाणः । दीनाननो मलिननिन्दितपधारी लोभाकुलो वितते सधनस्य सेवाम् ॥४॥ जातु रविः शीतः भवति शीतरुचिः प्रतापी भवति नभः स्तब्ध (स्तम्भित) भवति जलनिधिः सरिदम्बुतप्तः भवति भयत स्थायी भवति दहनः अपि विदहनः भवति। तु लोभानल: कदाचित् अदाहकः न स्यात् ॥ १॥ जन्तोः लोभवहनः लाभेन लब्धेन्धनज्वलनवत् क्षणतः अतिवृद्धि समुपैति । पुन: प्रवृद्धः सः यमिना विवागमत्रततपःशमसंयमादीन् भस्मीकरोति ॥ २॥ सतृष्ण: नरः वित्तापाया भूमितलं खनति गिरेः धातून धमति भूमिपाये धावति व विविधानि देवान्तराणि विगाहते (किंतु) पुण्यं विना सः नरः सुप्ति न च लभते ॥ ३॥ लोभाकुल: हे विभो, त्वं चिर वर्धन जी अम नन्द इत्यादिचादवचनानि विभाषमाणः दीनाननः मलिननिन्दितस्पधारी सन् सघनस्य सेवां कुते ॥४॥ सूर्य कदाचित् स्तब्ध हो सकता है, चन्द्रमा कदाचित् तीक्ष्ण हो सकता है, आकाश कदाचित त्तन्य हो सकता है-सीमित या स्थानदान क्रियासे शून्य हो सकता है, समुद्र कदाचित् नदियों के जसे सत्ता हो सकता है, वायु कदाचित् स्थिर हो सकती है, तया अग्नि मी कदाचित् दाइक्रियासे रहित हो सकती है; परन्तु लोमरूप अग्नि कभी भी दाह कियासे रहित नहीं हो सकती है । [तात्पर्य यह कि जिस प्रकार सूर्य आदि कभी अपने स्वभावको छोडकर शीतलता आदिको नहीं प्राप्त हो सकते हैं उसी प्रकार शोभ भी कमी अपने स्वभावको छोडकर मनुष्यकी तुष्णाको शान्त नहीं कर सकता है । जिस प्रकार अग्नि इन्धनको प्राप्त करके क्षणभरमें ही अतिशय वृद्धिको प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार. प्राणीको. लोभरूप अग्नि भी धन आदि अभीष्ट वस्तुओंके लाभसे. अतिशय वृद्धिको प्राप्त होती है। इस प्रकारसे वृद्धिंगत होकर वह संयमी जनोंके विद्या, आगमज्ञान, व्रत, तप, शम, और संयम आदि गुणोंको भस्मसात् कर देती है-नष्ट कर देती है ॥२॥ तृष्णायुक्त मनुष्य धनकी आशासे पृथिवीतछको खोदता है, पहाडकी धातुओंको तपाता है, राजाके आगे दौडता है, और अनेक प्रकारके देशोंमें जाताआता है। परन्तु वह पुण्यके विना सन्तोषको नहीं प्राप्त होता है |॥ ३ ॥ लोभसे पीडित मनुष्य हे प्रभो ! तुम वृद्धिको प्राप्त होओ, तुम चिरकाल तक जीवित रहो, तुम्हारी जय होवे, तुम चिरकाल तक समृद्ध रहो, इत्यादि खुशामदी वचनोंका उच्चारण करता है। मुखपर दीनताका भाव प्रगट करता है, तथा मलिन और निन्दित वेष-भूषाको धारण करता हुआ धनत्रान्की सेवा करता है ॥ ४ ॥ १ स सदेहदहनो, महमदहनो । २ स यातु । ३ स दाहकं । ४ स यंतोः । ५ स "सम" । ६ स विताशयः । •स विभो चिरं। ८ स 'वेषधारी । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [07 : ४-५67) चक्षुःशयं प्रचुररोगशरीरबाधास्वान्ताभिधातगतिभङ्गममन्यमानः । ___ संस्कृत्य पत्रनिचयं च मी' विमर्थ तृष्णातुरो लिखति लेखकतामुपेतः॥५॥ 68) विश्वंभरां विविधजन्तुगणेन पूर्णा स्त्री गर्भिणीमिष कृपामपहाय मर्त्यः । नानाविधोपकरणेन हलेन दीनो लोभार्दितः कषति पापमलोकमानः ॥ ६॥ 69) भोगोपभोगसुखतो' विमुखो मनुध्यो रात्रिंदिवं पठनचिन्तनसँक्तचित्तः । शास्त्राण्यधीय विविधानि करोति लोभावभ्यापन शिशुगणस्य विवेकशून्यः ॥ ७॥ 70) वस्त्राणि सीन्यति तनोति विचित्रचित्रं मृत्काष्ठलोहकमकादिविधि चिनोति । नृत्य करोति रजकत्वमुपैति मर्त्यः किं किं न लोभवशवर्तितथा विधत्ते ॥ ८॥ 71) लोकस्य मुग्धधिषणस्य विवञ्चमानि कुर्वत्ररो विविधमानविशेषकस्या । संसारसागरमपारमत्री माणो वाणिज्यमन्त्र विदधाति विवृद्धलोमः ॥ ९॥ 72) अभ्येति नृत्यति लुनाति मिनोति भौतिकीणाति" इन्ति यपते" चिनुते विमेति । मुष्णाति गायति धिनोति विमति मिन्ते लोमेन सीम्मति पणायति याचते च ॥ १० ॥ तुष्णातुरः लेखकताम् उपेतः सन् नःक्षयं प्रचुररीमशरीरबाधास्वान्ताभिपातगतिभङ्गम् अमन्यमानः पत्ननिवयं संस्कृत्य 7 वीं विमर्च लिसति ॥ ५ ॥ दीनः लोभादितः मर्पः पापमलोकमानः कृपाम् अपहाम नानाविधोपकरणेन हलेन गर्भिणी श्रीम् इव विविधजन्तुगणेन पूर्ण विश्वंभरां कृषति ॥ ६ Ir लोभात, भोगोपभोगसुखत: विमुख: रात्रिदिवं पठनचिन्तनसक्तचित्तः मनुष्यः विविधानि शास्त्राणि अधीत्य विवेकशून्यः सन् शिशुगणस्य अत्र्यापनं करोति ॥७॥ वस्त्राणि सीव्यति विचित्रचिन तनोति मुस्काष्ठलोहकनकादि विधि चिनोति नृत्य करोति रजकत्वम् उपति, मत्पः लोभवनवतितया किं किं न विधत्ते ॥ ८ ॥ अव विवृयलोभः नरः अपारं संसारसापरम् अवीक्षमाणः विविधमानविशेषात्या मुग्धधिषणस्य लोकस्म विवञ्चनानि कुर्वन् वाणिज्यं विदधाति ॥ ९ ॥ लोभेन (नरः) तृष्णासे व्याकुल मनुष्य लेखक (मुनीम या कर्क) के स्वरूपको प्राप्त होकर आंखोंकी ज्योतिकी हानिको, अनेक रोगोंसे उत्पन्न होनेवाली शरीरकी पीडाको, मनके अभिघातको, उसकी यथेच्छ प्रवृत्ति होनेवाली बाधाको तथा स्थिरतापूर्वक बैठनेके कष्टको भी नहीं देखता है और पत्रों के समूहको व्यवस्थित कर एवं स्याहीको घोलकर लिखता है॥५॥लोमसे पीडित दीन मनुष्य गर्भिणी सीके समान अनेक जीवोंके समूहसे परिपूर्ण पृथित्रीको निर्दयतापूर्वक अन्य अनेक उपकरणोंके साथ हलके द्वारा जोतता है और उससे उत्पन्न होनेवाले पापको नहीं देखता है ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार कामासक्त मनुष्य गर्भवती स्त्रीके साथ भी विषयसेवन करता है और उससे होनेवाले गर्भपातके पापको नहीं देखता है उसी प्रकार लोभी मनुष्य अनेक जीव-जन्तुओंसे परिपूर्ण पृथिवीको जोतकर खेतीको करता है और उससे होनेवाली जीवहिंसाका वह विचार नहीं करता है ॥६॥ मनुष्य लोभके कारण भोग और उपभोगके सुखसे विमुख होकर दिन-रात अपने चित्तको पढ़ने और पठित अर्थका विचार करनेमें लपाता है । तथा इस प्रकारसे अनेक शास्त्रोको पढ करके वह विवेकसे रहित होता हुआ बालकोंको पढ़ाता है॥ ७॥ मनुष्य लोभके वश होकर वस्त्रोंको सीता है, अनेक प्रकारके चित्रोंको बनाता है, मिट्टी, लकडी, लोहा एवं सुवर्ण आदिके विधानको करता है-उनसे अनेक प्रकारके उपकरणोंको बनाता है। नृत्य करता है, और धोबीके धंधेको प्राप्त होता है-दूसरोंके मलिन कपडे धोता है। ठीक है-लोभके वशमें होकर मनुष्य किस किस कार्यको नहीं करता है ! अर्यात् वह कार्य-अकार्यका विचार न करके सभी कुछ करता है ॥८॥ बढ़े हुए लोभके वशमें होकर मनुष्य भोले प्राणियोंको अनेक प्रकारके मानविशेषोंसे-नापने व तौलनेके हीनाधिक उपकरणोंसे-धोखा देकर यहां व्यापारको करता है और अपरिमित संसाररूप समुद्रको नहीं देखता है- लोभ स बाधाः, चाधा, बाधा। २ स स्वान्तावि, श्रांतामि', शोभि वाता", 'वांता", (Gloss:, चेतसनिरोध, अंधकार]। ३ स मपीविमर्थ । ४ स स्त्री । ५स' सुखितो। इस दिनं । सशक्ति', "शक्त', om वित्तः। ८ स 'धीति। ५स सत्यति। १.सकरोति। ११ सचिनोति । १२सदीक्ष्य। १३सक्रीणन्ति । १४स चपते। १५स विभर्ति पिनोति। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77:४-१५] ४. लोभनिधारणविंशतिः 73) कुन्तासिशक्तिभरतोमरतद्वलादिनानाविधायुधभयंकरमुग्रयोधम् । ___संग्राममध्यमधितिष्ठति लोभयुक्तः स्वं जीवितं तृणसम विगणय्य जीवः ॥ ११ ॥ 74) अत्यन्तभीमवनजीवगणेन पूर्ण दुर्ग वनं भवभृतां मनसाप्यगम्यम् ।। चौराकुलं विशति लोभवशेन मयो नो धर्मकर्म विदधाति कदाचिदशः ॥ १२ ॥ 75) जीवानिहन्ति विविध वितयं प्रवीति स्तेयं तनोति भजते वनितां परस्य। ___ गृह्णाति दुःखजननं धनमुप्रदोष लोमग्राहस्य वशवर्तितया मनुष्यः ॥१३॥ 76) उद्यन्महानिलवशोत्थविचित्रवीचिविक्षिप्तनक्रमकरादिनितान्तभीतिम् । अम्भोधिमध्यमुपयाति विवृद्भवेलं लोभाकुलो मरणदोषममन्यमानः ॥ १४ ॥ 77) निःशेषलोकवनदाहविधी समर्थ लोमानलं निखिलतापकर ज्वलन्तम् । झानाम्बुवाहजनितेन विवेकिजीवाः संतोषविष्यललिलेन शमं नयति ॥१५॥ अध्येति नृत्यति लुनाति भिनोति नीति क्रीणाति हन्ति वपते चिनुते बिभेति मुष्णाति गायति धिनोति (प्रीणयति) बिभति भिन्ते सीव्यति पणायति (स्तौति) च याचते ॥१०॥ लोभयुक्तः जीवः स्वं जीवितं तृणसमं विगणम्य कुन्तासिशक्ति (कामूः) भर (अतिशयः) तोमरतबलादि (तस्मिन् लक्ष्ये एवं बलं यस्य स तबल: बागविशेषः तदादि)-नानाविधायुधभयंकरम् उग्रयोधं संग्राममध्यम् अधितिष्ठति ।।११।। अशः मर्त्यः लोभवशेन अस्पन्तभीमवनजीरगणेन पूण भवभूतां मनसा अपि अगम्यं चौराकुस दुर्ग (दुर्गम) वनं विशति कदाचित् धर्मकर्म नो विदधाति ॥ १२॥ लोभग्रहस्य वशवतितया मनुष्यः जीवान् निहन्ति विविधं वितयं ब्रवीति स्तेयं तनोति परस्य वनितां भजते उग्रदोष दुःसजननं धनं गृहाति ।।१३।। लोभाकुलः (नरः) मरगदोषम् अमन्यमानः उद्यन्महानिलवसोत्पविचित्रवीचिविक्षिप्तनकमकरादिनितान्तभीति विवृद्धवेलम् अम्भोधिमध्यम् उपयाति ।। १४॥ विवेकिजीवा: ज्ञानाम्बुवाजनितेन संतोषविष्यसलिलेन जनित पापसे होनेवाले दीर्घ संसारपरिभ्रमणका विचार नहीं करता है ॥९॥ मनुष्य लोभके कारण अध्ययन करता है-अनेक विषयोंका ज्ञान प्राप्त करता है, नाचता है, फसल आदिको काटता है, नापता-सौलता है, दूसरोंकी स्तुति करता है, खरीदता है-बाजारमें अनेक प्रकारकी वस्तुओंको खरीदता और बेचता है, हत्या करता है-चाण्डाल आदिका धंधा करता है, बोता है-खेती करता है; गृह आदिको बनाता है, भय खाता है, चोरी करता है, गान करता है, प्रीति करता है, बोझा धारण करता है, विदारण करता है, कपडे सीता है, प्रतिज्ञा करता है, और भीख मांगता है ॥ १० ॥ लोभयुक्त जीव अपने जीवनको तृणके समान तुच्छ समझकर ऐसे युद्ध के मध्यमें स्थित होता है जो कि भाला, तलवार, शक्ति (आयुधविशेष ), बाण और लक्ष्यवेधक विशेष बाण आदि अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे भयको उपन्न करनेवाला तथा बलवान् योद्धाओंसे परिपूर्ण होता है ॥ ११ ॥ अज्ञानी मनुष्य लोभके वश होकर ऐसे दुर्गम वनमें तो प्रविष्ट होता है जो कि अतिशय भयानक जंगली जीवों (सिंह-व्याघ्रादि) के समूहसे परिपूर्ण है, जिसके विषयमें प्राणी मनसे भी विचार नहीं कर सकते हैं, तथा जो चोरोंसे व्याप्त है । परन्तु वह धर्मकार्यको नहीं करता है ॥१२॥ मनुष्य लोभरूप पिशाचके वशमें होकर जीवोंका घात करता है, अनेक प्रकारका असत्य वचन बोलता है, चोरी करता है, परस्त्रीका सेवन करता है, तया महान् दोषोंसे परिपूर्ण दुखदायक धनको ग्रहण करता है। अभिप्राय यह कि लोभी मनुष्य हिंसा आदि पांचों ही पापोंको करता है ॥ १३ ॥ लोभसे व्याकुल मनुष्य अपने मरणके कटको भी न देखकर ऐसे समुद्र के मध्यमें पहुंचता है जिसका कि किनारा जलकी वृद्धिसे बढ़ रहा है तथा जो उत्पल हुई महावायुके वश उठनेवाली विचित्र लहरोंके द्वारा इधर उधर फेंके जानेवाले घड्याल एवं मगर आदि हिन जलजंतुओंसे अतिशय भयको उत्पन्न करनेवाला होता है ।। १४ ॥ जो जलती हुई लोभरूप अग्नि समस्त लोकरूप १स"तजबलादि',' तज्जलादि, "तद्वतादि। २ सयोधा । ३ स om, कर्म। ४ स लामा । ५ स समं । ६ स नियन्ते नयन्ते। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सुभाषित संदोहः [78 : ४१६ 78) द्रव्याणि पुण्यरहितस्य न सन्ति लोभात्सम्स्यस्य चेन तु भवन्त्यचलानि तानि । सन्ति स्थिराणि यदि तस्य न सौख्यदानि ध्यात्वेति शुद्धधिषणो न तनोति लोभम् ॥ १६ ॥ 79) चक्रेश केशवलायुधभूतितो ऽपि संतोषमुक्तमनुजस्य न तृप्तिरस्ति । तृप्तिं विना न सुखमित्यवगभ्य सम्यग्लोभग्रहस्य वशिनो न भवन्ति धीराः ॥ १७ ॥ 80) दुःखानि यानि ' नरकेष्यति दुःसहामि तिर्यक्षु यानि मनुजेष्वमरेषु यानि । सर्वाणि तानि मनुजस्य भवन्ति लोभादित्याकलय्य विनिहन्ति तमत्र धन्यः ॥ १८ ॥ 81) लोभं विधाय विधिना बहुधापि पुंसः संचिन्वतः क्षयमनित्यतया प्रयान्ति । व्याण्यवश्यमिति चेतसि संभिक कोभं त्यजन्ति सुधियो घुतमोहनीयाः ॥ १९ ॥ 82) तिष्ठन्तु बाघाम्बपुः सरार्थाः संवर्धिताः प्रसुरलोभैयशेन पुंस । कायो ऽपि नश्यति मिजो ऽयमिति प्रचिन्त्य लोभारिमुप्रमुपइन्ति विरुद्धतत्वम् ॥ २० ॥ ॥ इति लोभनिवारणविंशतिः ॥ ४ ॥ निःशेषलोकदनदाविधौ समर्थ निखिलतापकरं ज्वलन्तं लोमानलं समं नयन्ति ।। १५ ।। पुण्यरहितस्य लोभात् द्रव्याणि न सन्ति, अस्प सन्ति चेत् तानि तु अचलानि न भवन्ति, यदि तस्य स्थिराणि सोम्पदानि न सन्ति इति ध्यात्वा शुद्धधिषणः लोभं न तनोति ।। १६ ।। संतोषमुक्तमनुजस्य चक्रेशमेशबहलायुधभूतितः अपि तृप्तिः न अस्ति, तृप्ति विन्दा सुखं न इति सम्यक् अवगम्य धीराः लोभग्रहस्य वशिनो न भवन्ति ।। १७ ।। यानि नरकेषु अतिदुःसहानि दुःखानि यानि तिर्यक्षु मानि मनुजेषु यानि अमरेषु (सन्ति) तानि सर्वाणि मनुजस्य लोभात् भवन्ति इति आकलव्य अन धन्यः तं विनिहन्ति ॥ १८ ॥ लोभं विधाय बहुधा द्रव्याणि संचिन्वतः अपि पुंसः (तानि) विधिना अनित्यतया अवश्यं कयं प्रयान्ति इति चेतसि संनिरूप्य धुतमोहनीयाः सुधियः लोमं त्यजन्ति ॥ १९ ॥ प्रदुरलोभवशेन पुंसा संबंधिताः बाह्यधनधान्यपुरःसरार्थाः तिष्ठन्तु जयं निजः कामः अपि नश्यति इति प्रचिन्त्य ( सुधीः) उसे विरुद्धत्तस्त्वं लोभारिम् उपहन्ति ॥ २० ॥ ॥ इति लोभनिवारणविधातिः ॥ ४ ॥ न जलाने में समर्थ है तथा सब प्राणियोंको सन्तप्त करनेवाली है उसको विवेकी जीव ज्ञानरूप मेधसे उत्पन्न हुए सन्तोषरूप दिव्य जळके द्वारा शान्त करते हैं ॥ १५ ॥ जो प्राणी कोभके वश होकर धनको प्राप्त करना चाहता है वह यदि पुण्यहीन है तो प्रथम तो उसे वह धन इच्छानुसार प्राप्त ही नहीं होता है, फिर यदि वह प्राप्त भी हो गया तो वह उसके पास स्थिर नहीं रहता है, और यदि स्थिर भी रह गया तो वह चिन्ता यां रोगादिसे सहित होनेके कारण उसको सुख देनेवाला नहीं होता है; ऐसा विचार करके निर्मलबुद्धि मनुष्य उस लोभको विस्तृत नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ जो मनुष्य सन्तोषसे रहित है उसको चक्रवर्ती, नारायण और बलदेवकी विभूति से भी तृप्ति नहीं होती है, और जब तक तृप्ति (सन्तोष) नहीं होती है तब तक सुखकी सम्भावना नहीं है | इस बातको भले प्रकार जान करके विद्वान् मनुष्य उस लोमरूप पिशाचके वशमें नहीं होते हैं ॥ १७ ॥ जो असह्य दुख नरकोंमें हैं, जो दुख तियंचोंमें हैं, और जो दुख देनोंमें हैं वे सब दुख मनुष्यको लोभके कारणसे प्राप्त होते हैं; ऐसा निश्चय करके श्रेष्ठ मनुष्य यहाँ उस लोभको नष्ट करता है ॥ १८॥ जो मनुष्य लोभके वश होकर बहुत प्रकारसे धनका संचय करता है भाग्यवश उसका वह धन नश्वरस्वभाव होनेसे नष्ट हो जाता है, ऐसा मनमें विचार करके बुद्धिमान् मनुष्य मोहसे रहित होकर उस लोभका परित्याग करते हैं ॥ १९ ॥ मनुष्य तीव्र लोभके वश होकर जिन धन व धान्य आदि बाह्य पदार्थों को बढाता है वे तो दूर रहें, किन्तु मनुष्का यह अपना शरीर भी नाशको प्राप्त होता है; ऐसा विचार करके घिवेकी जीव विपरीत स्वभाववाले उस प्रबल लोमरूप शत्रुको नष्ट करता है ॥ २० ॥ इस प्रकार इन बीस श्लोकोंमें लोभके दूर करनेका कथन किया गया है ॥ ४ ॥ D १ स जानि । २ स मनुजेश्वरेषु । ३ स लोभे । ४ स प्रयाति । ५ स प्रमुखलोभ । ६ स पुंसः । ७ सom, इति इति लोभनिराकरणोपदेशः । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५. इन्द्रियरागनिषेधविंशतिः ] 83) स्वेच्छाविहारसुखितो' निवसन्नगानां भक्षैद्वने किसलयानि मनोहराणि । आरोहणकुशविनोदनबन्धनादि दन्ती त्वगिन्द्रियवशः समुपैति दुःखम् ॥ १ ॥ 84) तिष्ठन् जले ऽतिविमले विपुले यथेच्छ सौल्येन भीतिरहितो रममाणचित्तः । गृधो रसेषु रसनेन्द्रियतो ऽतिकष्टुं निष्कारणं मरणमेति षडीक्षणो ऽत्र ॥ २ ॥ 85) नानातरुप्रसवसौरभवासिताको प्राणेन्द्रियेण मधुपो यमराजधिष्ण्यम् । गच्छत्यशुद्धमतिर गतो विषर्किं गन्धेषु पद्मसदनं समवाप्य दीनः ॥ ३ ॥ 86) सजाति पुष्पकलिकेयमितीय मत्वा दीपार्चिषं हतमतिः शलभः पतित्वा । . रूपावलोकनमना रमणीयरूपे मुग्धो ऽवलोकनवदशेन यमास्यमेति ॥ ४ ॥ 87) दूर्वाङ्कुराशनसमृद्धषपुः कुरङ्गः क्रीडन्वनेषु इरिणीमिरसी विलासैः । अत्यन्तगेयरवदमना वराकः श्रोगेन्द्रियेण सैमवर्तिमुखं प्रयाति ॥ ५ ॥ स्वेच्छाविहारसुखितः निवसन् नगानां मनोहराणि किसलयानि भक्षद् बन्ती त्वगिन्द्रियवशः सन् बारोहणा कुशविनोदन ( प्रेरण) बन्धनादिदुःखं समुपैति ॥ १ ॥ अतिविमले विपुले जले सौस्येन तिष्ठन् भीतिरहितः यथेच्छं रममाणचित रसेषु गृधः षडीक्षण: ( मत्स्थः) अन्न रसनेन्द्रियतः निष्कारणम् अतिकष्टं मरणम् एति ॥ २ ॥ अक्ष नानातरुप्रसवसौरभवाः सिताङ्गः अशुद्धमतिः पद्मसदनं समवाप्य गन्धेषु विषक्ति यतः दीनः मधुपः प्राणेन्द्रियेण यमराजधिष्ण्यं ( कृतान्तालयं ) गच्छति || ३ || रूपावलोकनमनाः रमणीयरूपे मुग्धः हतमतिः शलभः इयं सज्जातिपुष्पकलिका इति मस्था इव दीपाचिष पतित्वा अवलोकनवशेन समास्यमेति ॥ ४ ॥ वनेषु दूर्वा राशनसमृद्धवपुः विलासैः हरिणीभिः क्रीडन् अत्यन्तगेयवरदत्तमता . जो हाथी इच्छानुसार गमनसे मुखको प्राप्त होकर वनमें निवास करता है तथा वहां वृक्षोंके मनोहर कोमल पत्तोंको खाता है वह स्पर्शन इन्द्रियके वशमें होकर मनुष्योंके द्वारा की जानेवाली सवारी, अंकुश और बन्धन आदिको दुखको प्राप्त होता है । विशेषार्थ - हाथी जंगलमें रहता है। उसे पकड़नेके लिये मनुष्य गहरा गड्ढा खोदकर उसमें हथिनीकी मूर्ति बनाते हैं। इसे साक्षात् इथिनी समझता हुआ वह हाथी कामासक्त होकर उस गड्ढे में जा गिरता है। इस प्रकारसे वह सहजमें पकड़ लिया जाता है। अब वह सर्वथा पराधीन हो जाता है। इसीलिये मनुष्य उसके ऊपर सवारी करते हैं, अंकुशसे ताडन करते हैं, और बन्धनमें रखते हैं । यह सब दुख उसे एक मात्र स्पर्शन इन्द्रियके वशीभूत होनेसे ही सहना पडता है, अन्यथा वह इतना विशालकाय पशु साधारण मनुष्यके वशमें नहीं हो सकता था ॥ १ ॥ मछली अतिशय निर्मल एवं विशाल जल में स्वेच्छापूर्वक सुखसे रहती है और वहां निर्भय होकर चित्तको रमाती है। वह रसना इन्द्रियके वश रसोंमें गृद्धिको प्राप्त होकर अकारण ही यहां अतिशय दुखदायक मरणको प्राप्त होती है ॥ २ ॥ यहाँ अनेक वृक्षोंके फूलों के सुगंधसे जिसका शरीर सुगन्धित हुआ है, ऐसा बेचारा निर्बुद्ध भ्रमर कमलरूप घरमें रहता हुआ इन्द्रियसे गन्धमें आसक्त होकर मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ३ ॥ रूपके देखनेकी इच्छा करनेवाला मूर्ख दुर्बुद्धि पतंग रमणीय रूपमें मूढ होकर दीपककी शिखाको 'यह उत्तम जाति पुष्पकी कलि है' ऐसा समझ करके ही मानो उसके ऊपर गिरता है और नेत्र इन्द्रियके वश यमके मुखको प्राप्त होता है- जलकर मर जाता है ॥ ४ ॥ जिस मृगका शरीर वन में दूर्वा के अंकुरों (घास ) १ स स्वेच्छावि । २ स 'सुखतो । ३ सयक्ष ४ स गुद्धो । ५ स धिष्ण्यां । ६ स त्रिशक्ति। ७स यमवर्ति । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ [ 88 : ५-६ सुभाषितसंदोहः 88) एकैकमपि भजताममीषां संपद्यते यदि कुनान्तगृहातिथित्वम् । पञ्चाक्षगोचररतस्य किमस्ति वाच्यमार्थमित्यमलधीरधियस्त्यजन्ति ॥ १६ ॥ 80) दन्तीन्द्रदन्तदनेकविधौ समर्थाः सन्त्यत्र रौद्रमृगराजबधे' प्रत्रीणाः । आशीविषोरगवशीकरणे ऽपि दक्षाः पञ्चाक्षनिर्जयपरास्तु न सन्ति मर्त्याः ॥ ७ ॥ 90) संसारसागरनिरूपणदत्तचित्तः सन्तो वदन्ति मधुरां विषयोपसेवाम् । आदौ विपाकसमये कटुकां नितान्तं किंपाकपाकफलभुक्तिमिवाङ्गभाजाम् ॥ ८ ॥ (91) तारो भवति तत्त्वविदस्तदोषो मानी मनोरमगुणो मननीयवाक्यैः । शूरः समस्तजनतामद्दिर्तः कुलीनो यावषीकविषयेषु न संकिमेति ॥ ९॥ I बराकः असौ कुरः श्रोत्रेन्द्रियेण समवर्तमुखं (यमास्यं ) प्रयाति ॥ ५ ॥ एकैकम् अक्षविषयं भजताम् अमीषां यदि कृतान्तगृहातिथित्वं संपद्यते ( तहि ) पञ्चाक्षगोचररतस्य किं वाच्यमस्ति इति अमलधीरधियः अक्षार्थ त्यजन्ति ॥ ६ ॥ अव मर्त्याः दन्तीन्द्रदन्तदलनेकविधौ समर्थाः सन्ति । रौद्रमृगराजवधे प्रवीणाः सन्ति । आशीवियोरगवशीकरणे ऽपि दक्षाः सन्ति । तु पञ्चाक्षनिर्जयपराः न सन्ति ॥ ७ ॥ संसारसागरनिरूपणदत्तचिताः सन्तः अङ्गभाजां किपाक - ( कुत्सितः पाकः परिणामो यस्य सः किम्पाकः ) ११ फलभुक्तिमिव विषयोपसेवाम् आदी मधुरां विपाकसमये नितान्तं कटुकों वदन्ति ॥ ८ ॥ यावत् नरः हृषीकविषयेषु सबित न एति तावत् (सः) तस्मवित्, अस्तदोषः, मानी मनोरमगुण:- मननीयवाक्पः शूरः - → को खाकर वृद्धिंगत हुआ है और जो वह विलासपूर्वक हरिणियोंके साथ कीडा किया करता है वह बेचारा मृग कर्ण इन्द्रियके वशीभूत होकर उत्तम गानके सुननेमें अपने मनको अतिशय आसक्त करता है और इसीलिये यमके मुखको प्राप्त होता है- व्याधके द्वारा पकड़कर मारा जाता है ॥ ५ ॥ यदि एक एक इन्द्रिय विषयका सेवन करनेवाले इन हाथी आदि ( मछली, भौंरा, पतंग और हरिण ) जीवों को यमराज के घरका अतिथि बनना पड़ता है मरना पडता है तो फिर जो मनुष्य उन पांचों ही इन्द्रियोंके विषय में अनुरक्त रहता है उसके विषयमें क्या कहा जा सकता है ? अर्थात् वह तो मरण आदिके अनेक कष्टों को सहता ही है। इसीलिये निर्मल और धीर बुद्धिके धारक मनुष्य इन्द्रियविषयका परित्याग करते हैं ॥ ६ ॥ जो गजराजके दांतोंके तोडनेरूप अनुपम कार्यक्रे करनेमें समर्थ हैं, जो भयानक सिंहका वध करनेमें चतुर हैं, सथा जो आशीविष सर्पके वश करनेमें भी समर्थ हैं ऐसे मनुष्य तो यहां बहुत हैं। परन्तु जो पाचों इन्द्रियोंके जीतनेमें तत्पर हों ऐसे मनुष्य यहां नहीं हैं । [ अभिप्राय यह कि पांचों इन्द्रियोंके ऊपर विजय प्राप्त करना अतिशय कठिन है। जो विवेकी मनुष्य उनको वशमें करते हैं वे प्रशंसा के योग्य हैं और बेही आत्मकल्याण करते हैं ] ॥ ७ ॥ जो सज्जन संसाररूप समुद्रके निरूपण में अपने चित्तको देते हैं संसारके खरूपको जानते हैं - वे विषयोंके सेवनको महाकालफल विषफलके मक्षणके समान प्रारम्भ में सेवन करनेके समयमें ही प्राणियोंके लिये मधुर, परन्तु फल देनेके समयमें उसे अतिशय कटु बतलाते हैं। विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार विषफल खाते समय में तो स्वादिष्ट प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में वह प्राणघातक ही होता है; उसी प्रकार ये इन्द्रियविषय भी भोगते समय में तो आनन्ददायक दिखते हैं परन्तु परिणाममें वे अतिशय दुखदायकही सिद्ध होते हैं । कारण कि रोगादिजनक होनेसे वे इस भय भी प्राणीको कष्ट देते हैं तथा नरकादि दुर्गतिको प्राप्त कराकर परभवमें भी वे उसे दुख देते हैं ॥ ८ ॥ जब तक मनुष्य इन्द्रियोंके विषयोंने आसक्ति को नहीं प्राप्त होता १२ सचिता । ३ सविधुरां । ४ स भवते । ५ स चान्यः ६ स सहितः, जज्ञसामहिनः । ७ स शक्ति । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96: ५-१४] ५. इन्द्रियरागनिषेधविंशतिः 02) मयै हपीकविषया यदमी त्यजन्ति नाश्चर्यमेतदिह किंचिदनित्यतातः। एतत्तु चित्रमनिशं यदमीयु मूढो मुक्तोऽपि मुञ्चति मतिं न विवेकशून्यः ॥ १० ॥ 93) आदित्यचन्द्रहरिशंकरयासवाद्याः शक्ता न जेतुमतिदुःखकराणि यानि । तानीन्द्रियाणि बलवन्ति सुदुर्जयानि ये' निर्जयन्ति भुवने' यलिनस्त एके ॥ ११ ॥ 94) सौख्यं यत्र विजितेन्द्रियशत्रुदर्पः प्राप्नोति पापरहितं विगतान्तरायम्।। ___स्वस्थ तदात्मकमनात्मधियोविलभ्यं किं तहुरन्तविषयानलतप्तचिप्सः ॥ १२ ॥ 95) नानाविधव्यसनधूलिविभूतिवातं तत्त्वं विविक्तमवगम्य जिनेशिनोक्तम् । यः सेचते विषयसौख्यमसी विमुच्य हस्ते ऽमृतं पिबति रौद्रविषं निहीनः ॥ १३ ।। D6) वासत्यमेति वितनोति निहोर्मसेवां धर्म धुनोति विदधाति चिनिन्धकर्म । "रेपचिनोति कुरुते ऽतिविरूपवर्ष किं वा हपीकवशंतस्तनुते में मर्यः ॥ १४ ॥ समस्तजनतामहितः कुलीनः भवति ।। ९॥ यत् इह अनित्यतातः अमी हषीकविषया: मत्यं त्यजन्ति एतत् किंचित् आश्चर्य न । तु यत् मुक्तो ऽपि अमीषु मूढः विवेकशून्म: अनिशं मति न मुञ्चति एतत् चिवम् (अस्ति) ।। १० ।। आदित्पचन्द्रहरिशकरवासवाद्या; अतिदुःखकराणि यानि जेतुं न शक्ताः तानि सुदुर्जयानि बलवन्ति इन्द्रियाणि ये निर्जयन्ति भुवने ते एके पलिनः ॥११॥ अन्न विजितेन्द्रिमशत्रपः यत् पापरहितं विमतान्तरायं स्वस्थं तदात्मकं सौख्यं प्राप्नोति दुरन्तविषयानसतप्तचित्तः अनात्मधियाविलम्यं तत् प्राप्नोति किम् ।। १२॥ जिनेशिना उक्तं नानाविधव्यसनधूलिविभूतिवात विविक्तं तस्वम् अवगम्य य: विषमसौख्यं सेवते असौ निहीनः हस्ते (स्थितं) अमृतं विमुच्य रौद्रविष पिबति ॥ १३॥ मत्यः षीका है तभी तक वह वस्तुस्वरूपका जानकार, दोषोंसे रहित, स्वाभिमानी, उत्तम गुणोंसे संयुक्त, आदरणीय, वक्ता, पराक्रमी, समस्त जनसमूहसे पूजित और कुलीन रहता है। [ अभिप्राय यह कि मनुष्यके इन्द्रियविषयोंमें आसक्त होनेसे उसके उपर्युक्त सब ही गुण नष्ट हो जाते हैं ] ॥९॥ यहाँ यदि ये इन्द्रियविषय मनुष्यको छोड़ देते हैं तो यह कुछ भी आर्यकी बात नहीं है, क्यों कि वे अनित्य है- विनश्वर ही हैं। परन्तु आश्चर्य तो इसमें है कि उक्त इन्द्रियविषयोंके द्वारा छोडा गया भी यह मनुष्य अविवेकतासे इनमें मोहको प्राप्त होकर दिनरात उनकी ओरसे अपनी बुद्धिको नहीं हटाता है~ सर्वदा उन्हें. भोगनेकी ही अभिलाषा रखता है।॥ १०॥ जिन दुखदायक इन्द्रियोंको जीतनेके लिये सूर्य, चन्द्र, विष्णु, महादेव और इन्द्र आदि समर्थ नहीं हुए हैं उन अतिशय दुर्जय बलवान् इन्द्रियोंको जो इस संसारमें जीतते हैं वे अद्वितीय बलवान् हैं- उनके समान पराक्रमी दूसरा कोई भी नहीं है ॥ ११ ॥ जिसने इन्द्रियरूप शत्रुओंके अभिमानको चूर्ण कर दिया है वह यहां आधारहित जिस निर्दोष आत्मिक सुखको प्राप्त करता है वह क्या कभी उस मनुष्यको प्राप्त हो सकता है जो शरीरादि बाह्य वस्तुओंको अपना समझता है तथा जिसका मन दुखदायक विषयरूप अग्निसे सदा सन्तप्त रहता है ! अर्थात् वह निर्बाध सुख विषयी प्राणीको कभी नहीं प्राप्त हो सकता है ॥ १२ ॥ जिन भगवानके द्वारा उपदिष्ट जो निर्देोष वस्तुस्वरूप अनेक प्रकारके व्यसनरूप लिके वैभवको नष्ट कर देनेके लिये बायुके समान है उसको जान करके भी जो जीव विषयसुखका सेवन करता है वह मूर्ख हाथमें स्थित अमृतको छोडकर भयानक विषको पीता है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिसने जिनागमके अभ्याससे यह भले प्रकार जान लिया है कि। ये इन्द्रियविषय प्राणीको अनेक जन्मों में कष्ट देनेवाले हैं तथा इनका परित्याग उसे निराकुल सुखको उत्पन्न करनेवाला है, फिर भी यदि वह उन्हीं विषोंके सेवनकी अभिलाषा करता है तो उसे उस मूर्खके समान ही समझना चाहिये जो कि प्राप्त हुए अमृतको छोडकर प्राणघातक विषके पीनेमें प्रवृत्त होता है ॥ १३ ॥ विषयी मनुष्य दासका काम करता है, नीव जनकी सेवा करता है, धर्मको नष्ट करता है, नीच कार्यको १ स केशवायाः। २ स जे। ३ स भवने। ४ स एव । ५ स 'धिया लि । ६ विहीन । स धुनाति । दस रेफ, रेफ' । ९ स बसत । १० स स मर्त्यः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [97:५-१५97) अन्धिर्न तृप्यति यथा सरितां सहनों' धेन्धनैरिव शिखी बहुधोपनीतः। जीवः समस्तविषयैरपि तदेवं संचिन्त्य पारुधिषणस्त्यजतीन्द्रियार्थान् ॥ १५ ॥ 98} आपातमात्ररमणीयमतृप्तिहेतुं किंपाकपाकफलतुल्यमथो विपाके। ____नो शाश्वतं प्रचुरदोषकर विदित्वा पञ्चेन्द्रियार्थसुखमर्थधियस्त्यजन्ति ॥ १६ ॥ 99) विद्या श्या बुतिरनुसतता तितिक्षा सत्यं तपो नियमनं विनयो नयो वा। सर्वे भवन्ति विषयेषु रतस्य मोधा मत्येति चारुमतिरेति न तद्वशित्वम् ॥ १७ ॥ 100) लोकार्चितोऽपि कुलो ऽपि बहुश्रुतोऽपि धर्मस्थितोऽपि विरतोऽपि शमान्वितोऽपि। अक्षार्थपनगविषाकुलितो मनुष्यस्तनास्ति कर्म फुरुतेन यवत्र निन्धम॥१८॥ 101) लोकाचितं गुरुजने पितरं सवित्री बन्धु सनामिमवला सुरवं स्वसारम् । , भृत्यं प्रभुं तनयमन्यजनं च मयों नो मन्यते विषयवैरिवशः कदाचित् ।। १९॥ यमतः दासस्वम् एति निहीनसेवां वितनोति, धर्म धुनोति, विनिन्धकर्म विदधालि, रेगः ( रेप्यते निन्यते इति रेप: निन्दितः अथवा 'रेफः' इति पाटे रिफतीति रेफः (सकारान्तः) कुत्सितः, तस्म द्वितीयैकवचने रेफः ) चिनोति, अतिविरूपवेषं कुरुते । किं वा न तनुते । (सर्वमपि अकार्य तनुते) ॥१४ ।। यथा अन्धिः सरितां सहस्रः न तृप्यति । व बहुधा उपनीतः इन्धनैः शिखी नो इव । तद्वत् जीवः समस्तविषयः अपि न तृप्यति । एवं संचिन्त्य चारुधिषणः इन्दियार्थान् त्यजति ।। १५ ॥ अधियः पञ्चेन्द्रियार्थसुखम् आपातमानरमणीयम् अतृप्तिहेतुम् अथो विपाके किपाकमाकफलतुल्यं नो शाश्वतं प्रचुरदोषकर विदित्वा तत् स्यजन्ति ॥ १६॥-विषयेषु रतस्य विधा, दया, द्युतिः, अनुबतता, तितिक्षा, सत्यं, तपः, नियमन, बिनयः वा नयः, सर्वे मोषाः भवन्ति इति मत्वा चारुमतिः तशित्वं न एति ॥ १७ ॥ अवार्थपनगविषाकुलितः मनुष्यः सोकाचितः अपि कुलजः अपि बहुश्रुतः अपि धर्मस्थितः अपि विरतः अपि शभान्वितः अपि अन्न यत् निन्छ कम न कुरुते तत् मास्ति ॥१८॥ विषयवैरिवशः मत्यः लोकार्चित गुरुजनं पितरं सवित्री बन्धं सनाभिम् अबलां सुहृदं स्वसारं भृत्यं प्रभु करता है, कुत्सित पापका संचय करता है, तथा विकृत वेषको धारण करता है। ठीक है- मनुष्य इन्द्रियों के अधीन होकर कौन कौनसे अकार्यको नहीं करता है ! अर्थात् वह सब ही निन्ध कार्यों को करता है ॥ १४ ॥ जिस प्रकार समुद्र हजारों नदियोंके जलसे नहीं सन्तुष्ट होता है- नहीं पूर्ण होता है, तथा जिस प्रकार अग्नि कभी बहुत प्रकारके लाये गये इन्धनोंसे सन्तुष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार जीव सब विषयोंसे भी कभी सन्तुष्ट नहीं होता है- उत्तरोत्तर उसकी वह विषयाभिलाषा बढ़ती ही जाती है यह, विचार करके ही निर्मलबुद्धि मनुष्य उन इन्द्रियविषयोंका परित्याग करता है ॥ १५ ॥ उत्तरोत्तर तृष्णाको बढानेवाला यह नश्वर विषयसुख इन्द्रायणफल (विषफळ) के समान केवल भोगनेके समयमें ही रमणीय प्रतीत होता है, परन्तु वह फलकालमें अनेक दोषोंको उत्पन्न करनेवाला है, यह जान करके ही बुद्धिमान् मनुष्य पों इन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न होनेवाले उस दुरन्त सुखका परित्याग करते हैं ॥ १६ ॥ जो जीव विषयोंमें आसक्त होता है उसकी विद्या, दया, कान्ति, निरभिमानता, क्षमा, सत्य, तप, नियम, विनय और नीति ये सब गुण व्यर्थ हो जाते हैं। ऐसा जान करके निर्मळ बुद्धिका धारक मनुष्य उन विषयोंके अधीन नहीं होता है ॥ १७ ॥ मनुष्य यमपि लोगोंके द्वारा पूजित भी है, कुलीन भी है, अतिशय विद्वान् मी है, धर्ममें स्थित भी है, हिंसादि पापोंसे विरत भी है तथा शान्तिसे सहित भी है, फिर भी यदि वह इन्द्रियविषयरूप सर्पके विषसे व्याकुल है तो फिर ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिस निन्ध कार्यको वह न करता हो । [ तात्पर्य यह कि विषयी पुरुष अपनी लोकप्रतिष्ठा, कुलीनता एवं विद्वत्ता आदिको भूलकर अतिशय घृणित कार्य करने लगता है ] || १८ | विषयरूप शत्रुके वश हुआ मनुष्य छोकपूजित स नो बन्धनैरिव । २ स देव । ३ स आयात्र, आताप। ४ स विवेकः for नयो वा। ५ स कुलयो । ६स समन्वितो। ७स 'चलं for 'चला। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 : ५-२० ] ५. इन्द्रिय रागनिषेधविंशतिः 102 ) येनेन्द्रियाणि विजिताभ्यतिदुर्धराणि तस्याभिभूतिरिह नास्ति कुतो ऽपि लोके । वाच्यं च जीवितमनर्थविमुक्तमुक्तं पुंसो विविक्तमतिपूजिततत्त्वबोधैः ॥ २० ॥ * ॥ इतीन्द्रिय रागनिषेधविंशतिः ॥ ५ ॥ २७ तनयं च अन्यजनं कदाचित् नो मन्यते ॥ १९ ॥ इह लोके येन अतिदुर्धराणि इन्द्रियाणि विजितानि तस्य कुतः अपि अभिभूति नास्ति । अतिपूजिततत्त्वबोधः तस्य पुंसः जीवितं माध्यम् अनयविमुक्तं च विविक्तम् उक्तम् ।। २० । ॥ इतीन्द्रियरागनिषेधविमतिः ॥ ५ ॥ गुरुजन, पिता, माता, भाई, सगोत्री, श्री, मित्र, बहिन, दास, खामी, पुत्र और दूसरे जनको भी कभी नहीं मानता है [ अभिप्राय यह कि वह योग्यायोग्यके विवेकसे रहित होकर पूज्य पुरुषोंका भी निरादर किया करता है ] || १९ ॥ जिस भव्य जीवने इन दुर्जय इन्द्रियोंको जीत लिया है उसका यहां लोकमें किसी से भी अभिभव ( तिरस्कार ) सम्भव नहीं है। जिनका तस्वज्ञान अतिशय पूजित है ऐसे महापुरुष उस जितेन्द्रिय जीवके प्रशंसनीय जीवनको शुद्ध एवं अनर्थसे रहित बतलाते हैं ॥ २० ॥ इस प्रकार बीस श्लोकोंमें इन्द्रियरागनिषेधका कथन हुआ ॥ ५ ॥ १ व बि, ति for भि । २ स पुंसां । ३ स निषेक", इतीन्द्रियनिग्रहोपदेशः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६. स्त्री [ गुण ] दोषविचारपञ्चविंशतिः ] 103) उद्यन्बन्ध' परमसुखरसा' कोकिलालापजल्पां* पुष्पसौकुमार्या कुसुमशरवधूं रूपतो निर्जयन्तीम् । सौख्यं सर्वेन्द्रियाणामभिमतमभितः कुर्वतीं मानसेां सत्सौभाग्याँल्लभन्ते' कृतसुकृतवशाः कामिनीं मर्त्यमुख्यः ॥ १ ॥ 104 ) अक्ष्णोर्युग्मं विलोकान्मृदुतनुं गुणतस्तर्पयन्ती शरीरं दिव्यामोवेन artiदपगतमरुता नासिकां चारुवाचा । श्रोत्रद्वन्द्वं मनोशासनमपि रसादयन्ती" मुखाब्जं यद्वत्पञ्चाशसौख्यं चितरति युवतिः कामिनां नान्यदेवम् ॥ २ ॥ 105) या मथाङ्घ्रिपृष्ठारुणचरणतला वृसजङ्घा वरोरुः स्थूलश्रोणीनितम्बा प्रविपुलजघना दक्षिणावर्तनाभिः । इन्द्रास्त्रामध्या कनककुकुचा पारिजावर्तकण्ठा पुष्पस्नम्बाहुयुग्मां शशधरषदना पक्वबिम्बाधरोष्ठी ॥ ३ ॥ . कृतसुकृतवशाः मर्त्यमुख्याः सत्सौभाग्यात् उयगन्धप्रबन्धां परमसुखरसां कोकिलालापचस्पां पुश्पससौकुमार्या रूपतः कुसुमशरवधूं निर्जयन्त सर्वेन्द्रियाणाम् अभिमतं सौख्यम् अमितः कुर्वती मानसेष्टां कामिनीं कमन्ते ॥ १ ॥ विलोकात् अक्ष्णोः युग्मं मृदुतनुगुणतः शरीरं वक्त्रात् अपगतमरुता दिव्यामोदेन नासिकां चाचाचा भोत्रद्वन्दं, मुखान्नम् अर्पयन्ती (सती) मनोशात् रसात् रसनम् अपि तर्पयन्ती युवतिः कामिनां यद्वत् पञ्चाक्षसौख्यं वितरति एवम् अन्यत् न ( वितरति ) ॥ २ ॥ या मांहि (मि) पृष्ठा, अरुणचरणतळा, पुत्तनमा, वरोरूः, स्थूलश्रोणीनितम्ब, विपुलघना, दक्षिणावर्तनाभिः इन्द्रास्त्रश्चाममध्या, कनककुट (कलश) कुचा, वारिचावर्तकण्ठा, पुष्पसग्बाहु युग्मा, शशधरवदना, पक्वचिम्बाधरोष्ठी, संशुम्भत्पाण्डुगण्डा, प्रचक्तिहरिणीलोचना, कीरनासा, सच्येष्वासानतभ्रूः जिस खीसे सुगन्ध उत्पन्न हो रही है अर्थात् जो घ्राण इन्द्रियको सुखकर है, जिसका रस अतिशय सुखोत्पादक है अर्थात् जो अधरोष्ठपानादिके द्वारा रसना इन्द्रियको सन्तुष्ट करनेवाली है, जो कोयळके समान मधुरवाणी बोलकर कानोंको आनन्दित करनेवाली है, जो फूलोंके समान सुकुमार शरीरके द्वारा स्पर्शन इन्द्रियको तृप्त करनेवाली हैं, तथा जो सुन्दरतासे कामदेवकी प्रिया ( रति ) को भी जीतकर चक्षु इन्द्रियको सुखप्रद है; इस प्रकारसे जो सब ओरसे सबही इन्द्रियोंके लिये अभीष्ट सुख को उत्पन्न करनेवाली तथा मनको भी अभीष्ट है उस बीको सौभाम्यसे पुण्यशाली श्रेष्ठ मनुष्यही प्राप्त करते हैं ॥ १ ॥ युवति स्त्री देखनेसे कामी जनके दोनों नेत्रोंको संतुष्ट करती है, शरीर के मृदुता ( सुकुमारता ) गुणसे शरीर ( स्पर्शन इन्द्रिय) को सन्तुष्ट करती है, मुखसे निकलनेवाली दिव्य सुगन्धयुक्त वायुसे प्राणको सन्तुष्ट करती है, मधुर वाणी से दोनों कानोंको सन्तुष्ट करती है, तथा अपने मुखकमलको देकर मनोहर रससे रसना इन्द्रियको भी सन्तुष्ट करती है । इस प्रकार कामी जनकी पांचोंडी इन्द्रियोंको जैसे युवति श्री सुख देती है वैसे अन्य कोई I १ स प्रबन्धाः, प्रबन्धा। २ सरसः, रसाः । स जल्पाः, "करूपा । ४ स कुमार्याः । ५ स जयंती: "जयंती । ६ स कुतीर्मा, कुर्वती मानश्रेयशः, मानसेष्ट ७ स सौभाग्यान्, "भाग्या । ८ स लभती । ९स कामिनी, कामिनी । १० मुख्य मुख्या ११ स तन । १२ स वक्प्रादुध", "दुए"। १३ स मनोन्या" मनोक्षा", रशन, मनोशा दशनमा रसा तर्पयन्ती । १४ स रसादतीमुखा । १५ स "देव । १६ स कूर्मोचांहि । १७ सदक्षणा । १८ सयाम १९स 'पुट' for "कुछ" । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 : ६-8६ ] ६. स्त्री [ गुण] दोषविचारपञ्चविंशत्तिः 108) संशुम्भत्पाण्डुगण्डा प्रचकितहरिणीलोचना कीरनासी सज्येवौसानतभ्रूः सुरभिकचचया त्यक्तपद्ये पद्मा । अर भजन्ती धृतमदनमदैः प्रेमतो वीक्ष्यमाणा नेरग्यस्यास्ति योषा स किमु वरतपो भक्तितो नो विधते ॥ ४ ॥ 107) संत्यक्तव्यक्तबोधस्तरुरपि बकुलो मद्यगण्डूषसिषतैः पिण्डीवृक्षश्च मुञ्श्चंश्चरणतलहतः पुष्परोमाञ्चमर्थ्यम् ॥ सौख्यं जानाति यस्याः कृतमदनपेतेयभावास्पदायास्तां नारीं वर्जयन्तो विदधति तरुतो ऽप्यूनमात्मानमशाः ॥ ५ ॥ 108) गौरी देहार्धमीशो हरिरपि कमलां नीतवानेत्र घो यत्संगात्सौख्यमिच्छुः सरसिजनिलयो ऽष्टार्धवक्त्रो बभूव । गीर्वाणानामत्रीशो दशशतभगता माप्तवानस्तधैर्यः सा देवानामपीष्टा मनसि सुवदना वर्तते नुन कस्य ॥ ६ ॥ २९ सुरभिकचचया, त्यक्तपद्मा पद्मा इव धृतमदनमदैः अः अहं भजन्ती, प्रेमतः षीक्षमाणा, ईदृक् यस्म योषा नास्ति सः भक्तितः वरतपः नो विधत्ते किमु ॥ ३४ ॥ कृतमदनपतेः हावभावास्पदायाः यस्याः मद्यगण्डूषसिक्तः संत्यक्तम्यक्तबोषः बकुलः तपः च चरणतलहतः पिण्डीवृक्ष: ( अशोकः ) अयं ( पूजोपचारार्थ ) पुष्परोमा मुञ्चन् सौख्यं जानाति, तां नारी वर्जयन्तः अशाः आत्मानं तरुतः अपि अनं विदधति ॥ ५ ॥ अत्र मत्संगात् सौख्यम् इच्छुः ईशः गौरी देहार्ध, हरिः अपि कमलां वक्षः नीतवान् | सरसिजनिलयः अष्टाक्क्त्रः बभूव । गीर्वाणानाम् अधीशः अस्तभी वस्तु सुख देनेवाली नहीं है || २ || जिसके पात्रोंका पृष्ठ भाग कछुएकेसमान ऊंचा है, चरणोंका तल भाग लाल है, जंघाएं (पिंडरी ) गोल हैं, ऊरु (घुटनोंके ऊपरका भाग) सुन्दर हैं, कटि भाग और नितम्ब स्थूल हैं, जघन विस्तृत है, नाभि सरल करके समान हैं, मध्य भाग इन्द्रके अस्त्र ( बज्र ) के समान कुश है, स्तन सुवर्णकलशके समान हैं, कण्ठ शंखके घुमायके समान है, उभय भुजाएं पुष्पमाळाके समान हैं, मुख चन्द्रके समान आल्हादजनक है, अधरोष्ठ पके हुए कुंदुरु फलके समान लाल है, शोभायमान कपोल सफेद हैं, नेत्र भयभीत हरिणीके नेत्रोंके समान चंचल हैं, नाक तोतेकी चोंचके समान है, भौंहें सुसज्जित धनुके समान नम्रीभूत हैं, तथा बालों का समूह सुगन्धित है, ऐसी जो स्त्री मानो कमलको छोड़कर आयी हुई लक्ष्मी के समान प्रतीत होती है तथा जो प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखकर कामोत्पादक अपने अंगों ( अवययों ) कामी शरीरका सेवन करती हुई उसे सुखित करती है, वह जिस मनुष्यके पास नहीं है वह भक्तिसे उत्तम तपको क्यों नहीं करता है ? अर्थात् उक्त लीकी प्राप्तिके लिये उसे उत्कृष्ट तप करना चाहिये ।। ३-४ ॥ हावभावोंको दिखाकर कामको उद्दीप्त करनेवाली जिस स्त्रीके मयके कुल्लेसे खींचा जाकर विशिष्ट बोधसे रहित बकुल वृक्ष तथा जिसके पादतलसे ताड़ित होकर पिण्डीवृक्ष ( अशोकवृक्ष ) भी योग्य पुष्परूप रोमांचको छोड़कर -- प्रफुल्लित होकर सुखका अनुभव करते हैं उस स्त्रीका जो परित्याग करते हैं वे अज्ञानी मनुष्य अपने को उन वृक्षोंसे भी हीन करते हैं ॥ ५ ॥ जिस स्त्री के संयोगसे सुखकी इच्छा करनेवाले महादेवने पार्वती को अपने शरीर के अर्थ भागको प्राप्त कराया, विष्णूने भी लक्ष्मीको वक्षस्थलपर धारण किया, ब्रह्माने चार मुख धारण किये, तथा अधीरतावश इन्द्रको सौ योनियां धारण करनी पड़ी; इस प्रकार देवों को भी वह सुन्दर मुखवाली किस मनुष्यके मन में नहीं रहती है ? अर्थात् मनसे उसे सब ही चाहते हैं ॥ ६ ॥ १ स कीरणाशा | २ संयासा, राच्छेच्छासा (Gloss: आरोपितधनुषवत् ) । ३स पद्मेन । ४ स वीक्ष। ५. स शिक्तः । ६ समये । ७ सयानाति, जातिना । ८ स यस्याकृत ९स पते १० स भावास्यदोषा", "भावस्यदाया", "भावस्यदीया । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः 109 ) यत्कामार्तं धुनीते सुखमुपचिनुते प्रीतिमाविष्करोति सत्पात्राहारदानप्रभववरनृपस्थास्तदोषस्थ हेतुः । वंशाभ्युद्धारकर्तुर्भवति तनुभुवः कारणं काम्तकीर्ते स्तत्सर्वाभीष्टदात् प्रवदत न कथं प्रार्थ्यते श्रीसुरत्नम् ॥ ७ ॥ 110) कृष्ण केशपाशे वपुषि च शतां मीचतां नाभिविम्बे वक्रत्वं भूलतायामलककुटिलतां मन्दिमानं प्रयाणे । ari नेत्रयुग्मे कुचकलशयुगे कर्कशत्वं दधाना चित्र दोषानपि स्त्री लसति मुखरचा वस्तदोषाकरधीः ॥ ८ ॥ 111) बाइ मालां मलविकलतथा पद्धर्ति स्वर्भवानां स गत्यान्यपुष्टां मधुरवचमतो नेत्रतो" मार्गभार्थामें । सीतां शीलेन काट्या शिशिरकरतनुं क्षान्तितो भूतधात्रीं" सौभाग्याया विजिग्ये गिरिपतितनयां करूपतः कामपत्नीम् ॥ ९H [ 100: ६-७ चैवंः दशशतभगताम् आप्तवान् । देवानाम् अपि शष्टा सा सुबदना कस्य तुः मनसि न वर्तते ॥ ६ ॥ यम् कामार्ति धुनी, सुखम् उपचिनुते, प्रीतिम् आविष्करोति, भस्तदोषस्य सत्पात्राहारदानप्रभववरस्य हेतुः शान्युद्धारकर्तुः कान्तकीर्तेः समुर्भुवः कारणं भवति तत् सर्वाभीष्टदा स्त्रीसुरत्नं कथं न प्राप्ते, प्रवदत ॥ ७ ॥ केशपाशे कृष्णले पुषि कुलता, नाभिनिम्बे नीचत्वं, भ्रूलतायां ऋत्वम्, अलककुटिलतां प्रमाणे मन्दिमानं, नेत्रयुग्मे पापल्यं, कुचकलयुगे कर्मश च ( एतानंं) दोषान् दधाना अपि स्त्री मुखच्चा भ्यस्तदोषाकर ( दोषां रात्रिं करोतीति दोषाकरन्द्रः, पक्षे दोषाणामाकरः खनिः) श्रीः लसति चित्रम् ॥ ८ ॥ या बाहुइन्छेन मालां, मळविकलतया स्वर्भवानां पद्धति (सुराणां मार्गम् आकाशम् ), गत्या ईसीं, मधुरवचनतः भन्मपुष्ट, नेत्रतः मार्गभाव (मृर्गी), शीलेन सीतां, कान्त्या शिशिर जो बीरूप उचम रत्न मनुष्यकी कामपीडाको नष्ट करता है, सुखको उत्पन्न करता है, प्रेमको प्रगट करता है, उत्तम पात्रको दिये जानेवाले आहारदानसे उत्पन्न होनेवाले निर्दोष धर्मका कारण है तथा वंशकी रक्षा करनेवाले ऐसे निर्मल कीर्तिके धारक पुत्रका कारण है; कहिये कि उस इच्छित सब वस्तुओंके देनेवाले खीरूप रत्नकी प्रार्थना कैसे नहीं की जाती है ! अर्थात् उसकी सब ही जन अभिलाषा करते हैं ॥ ७ ॥ स्त्री बाके समूह में कालेपनको, शरीरमें दुर्बलताको ( कमर में पतलेपनको), नाभिमें नीचता ( गइरेपन) को मोंमें तिरछेपनको, बालोंमें कुटिलता ( घुंघरालेपन ) को, गमनमें मन्दताको, नेत्रयुग में चंचलताको और दोनों स्तनोंमें कठोरताको; इन दोषोंको धारण करती है। फिर भी वह अपने मुखकी कान्तिसे चन्द्रमाकी कान्तिको जीतनेवाली समझी जाती है, यह आश्वर्यकी बात है। क्षेत्र रूपमें यहां यह भी प्रगट किया गया है कि अनेक दोषोंको धारण करनेसे वह स्त्री दोषाकर दोषोंकी (खानि) है। इसीलिये वह दोषाकर (दोषोंकी खानीभूत, रात्रिको करनेवाले चन्द्र ) की कान्तिको तिरस्कृत करती है। अभिप्राय यह कि जो श्यामता आदि छोकमें दोष माने जाते हैं वे खीमें संश्लिष्ट होकर गुणरूप परिणमते हैं इनसे कामी जनकी दृष्टिमें उसकी सुन्दरता बढ़ती है ॥ ८ ॥ जिस स्त्रीने दोनों भुजाओंसे मालाको, निर्मलतासे देवोंके मार्गस्वरूप आकाशको, गमनसे हंसीको, मधुर भाषणसे कोको, नेत्रोंसे मुगकी स्त्री (मुगी) को, शीळ गुणसे सीताको, कान्ति से चन्द्रमाके शरीरको, सभुद्वार" । २स कीर्ति ३ स स्त्रीनुरने, नुरत्ने ४ स मंदमानं, मंदमाने, मंदिमाणं । ( Gloss: गजगमन 1 ) ५ स दोषादपि । ६ स लशति । ७ सom राहुदेन ८ स पद्धतीं। ९स पुष्टं १० स नेत्रयो । ११ समभाषा, मार्गभायो । १२ स धूतधात्री । L T Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113:६-११] ६. स्त्री [गुण ] दोषविचारपञ्चविंशतिः 112) घमोजो कठिनौ न वाग्पिरचना मन्दा गतिनों मति पक्रं' भूयुगलं मनो न जठर सामं नितम्बीन चे। युग्मं लोचनयोश्चलं न चरितं कृष्णाः कचा नो गुणा नीचे नाभिसरोवरं न रमणं यस्या मनोशाकृतेः ॥१०॥ 113) स्त्रीतः सर्वक्षनाथः सुरतचरणो जापते बाधषोध स्तस्माचीर्थ श्रुतास्यं जनहितकथक मोक्षमार्गावबोधः। तस्मात्तस्माद्विनाशो भवदुरितंततेः सौस्यममाद्विबाचं बुद्ध्वैवं स्त्री पवित्र विषसुखकरणी सजना स्वीकरोति ॥११॥ करतर्ने, क्षान्तितः भूतधात्री, सौभाग्यात् गिरिपतितनयां, रूपतः कामपल्ली विनिग्ये ॥ ९॥ मनोशकतेः यस्याः महोत्री कठिनी, वाग्विरचना न । गतिः मन्दा, मतिः न । भ्रूयुगल वर्क, मनः न । बठरं माम, नितम्बौ न । लोचनयोः युग्म जल परिसं न । कचाः कृष्णाः गुणाः नो। नामिसरोवर नीच रमण न ।। 1 । स्त्रीतः सुरनतचरकः सर्वशनामः भयात्रमोधर मायते । तस्मात् अनहितकयक. भुताख्य. वीर्यम्। वस्मात् मोशमार्गावमोभः। तस्मात् मबहरितवतेः विनाशः आमासे पृथिवीको, सौभाग्यसे पार्वतीको तषा सुन्दरता से कामकी पत्नी रतिको भी जीत लिया है। इसके भतिरिक्त मनोहर आकार को धारण करनेवाली जिस स्त्रीके केवल स्तर ही कठोर रहते हैं, न कि वचनप्रबन्ध; जिसकी केवळ गति ही धीमी होती है, न कि बुद्धि; जिसकी केवल दोनों मोहें कुटिल होती हैं, न कि मन जिसका केवल उदर कुश रहता है, न कि दोनों नितम्ब; जिसके दोनों नेत्र ही चंपक रहते हैं, न कि चरित्र; जिसके केवल बाल काले होते हैं, न कि गुण; तथा जिसका नामिरूप ताव नीच ( गहरा ) होता है, न कि रमण ( रमना)। उस सीसे जिनके चरणोंमें देवगण नमस्कार करते हैं तथा जो निर्वाध डान (अनन्त जान ) के धारक होते हैं ऐसे सर्वजनाथ ( तीर्थकर) जन्म लेते हैं, उनसे प्राणियोंके लिये हितकर कहनेवाला श्रुत नामका तीर्घ प्राट होता है, उस श्रुततीर्यसे मोक्षमार्गका मान प्राप्त होता.है उस मोक्षमार्ग के स्वरूपको जान लेनेसे संसारके बढानेवाले पापसमूहका नाश होता है, और फिर इससे निर्वाध सुख ( मोक्षमुख) प्राप्त होता है। इस प्रकार उस पवित्र स्त्रीको परम्परासे मोक्षसुखकी कारणीभूत जान करके सत्पुरुष स्वीकार करता है। विशेषार्य-प्राणीका हित निर्वाध शाश्चतिक सुखकी प्राप्तिमें है, वह सुख शानावरणादिरूप कोंके बन्धनसे छुटकारा पा जानेपर ही मिल सकता है, उक्त कमौके बन्धनसे प्राणी सब ही छूट सकता है जब कि उसे मोक्षमार्गका यथार्थ शान हो, वह मोक्षमार्गका ज्ञान श्रुततीर्थ (आगम) से प्राप्त होता है, इस श्रुततीर्षकी उत्पति जिनेन्द्र देवसे होती है, और उन जिनेन्द्र देवको जन्म देनेवाली वह पवित्र स्त्री ही होती है। इस प्रकार उस सुखकी प्राप्तिका कारण परम्परासे वह स्त्री ही है। इसीलिये सम्जन पुरुष उसे स्वीकार करके आत्मकल्याणके मार्ग प्रवृत्त होते हैं। परन्तु यह खेदकी बात है कि कामी जन उसकी इस पवित्रताको भूलकर केवल उसके निम्ब शरीरमें ही अनुरक्त होते हुए उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं ॥९-११॥ 1स वक्त्रं । २ स नितम्बो। ३ स नवा। Y स सुरणत । ५ स कम्छ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सुभाषितसंदोहः 114) भृत्यो मन्त्री विपसौ भवति रतिविधौ यात्रे वेश्या विदग्धां लज्जालुर्या विनीता गुरुजनविनतां गेहिनी गेहकृत्ये । भक्त त्यो सखी या स्वजनपरिजने धर्मकर्मैकदक्षा साल्पक्रोधादपपुष्यैः सकलगुणनिधिः प्राप्यते स्त्री न मत्यैः ॥ १२ ॥ 115) कृत्याकृत्ये न वेत्ति त्यजति गुरुवचो नीचवाक्यं करोति लज्जालुत्वं जहाति व्यसनमतिमहद्वाहते निन्दनीयम् । यस्यां सक्तो मनुष्यो निखिलगुणरिपुर्माननीयो ऽपि लोके सामर्थानां निधाने वितरति युवतिः किं सुखं देहभाजाम् ॥ १३ ॥ 116) शश्वमायां करोति स्थिरयति न मनो मन्यते नोपकारं या वाक्यं वत्सत्यं मलिनयति कुलं कीर्तिवल्लीं लुनाति । सर्वारम्भैकहेतुर्विरतिसुखरतिध्वंसिनी निन्दनीया तां धर्मारामभत्र भजति न मनुजो मानिनी मान्यबुद्धिः ॥ १४ ॥ [114 : ६-१२ अस्माद् विबाधं सौख्यम् । एवं बुद्ध्वा सज्जनः शिवसुखकरणी पवित्रां स्त्रीं स्वीकरोति ॥ ११ ॥ अत्र या विपत्ती भृत्यः मन्त्री (वा), रतिविधौ विदग्धा वेश्या, या गुरुजनविनता छज्जा: विनीता, गेहकृत्ये गेहिनी, पत्यो भक्ता, स्वजनपरि जने सख्खी, या धर्मकर्मकदक्षा, अल्पक्रोधा, सकलगुणनिधिः भवति, सा स्त्री अस्पपुण्यैः मत्यैः न प्राप्यते ॥ १२ ॥ लोके माननीयः अपि मनुष्यः यस्यां सक्तः निचिलगुणरिपुः ( सन् ) कृत्याकृत्ये न वेत्ति, गुरुषवः त्यनति, नीचवाक्यं करोति, लज्जालुत्वं जाति, भतिमइत् निन्दनीये व्यसनं गाइते, सा अनर्थानां निधानं युवतिः देहभाजां सुखं वितरति किम् || १३ || या शश्वत् मार्याां करोति, मनः न स्थिरयति, उपकारं न मन्यते भवत्यं वाक्यं वक्ति, कुलं महिनयति, कीर्ति लुनाति, सर्वारम्भैकहेतुः विरतिसुखरतिध्वंसिनी, निन्दनीया ( अस्ति ) तां धर्मारामभवत्र मानिन मान्यबुद्धिः । जो स्त्री यहां आपत्ति समयमें दासीके समान पतिकी सेवा करती है, संकटके समयमें मंत्री के समान पतिके साथ योग्यायोग्यका विचार करती है, विषयभोगके समयमें चतुर वेश्या के समान पतिको आनन्दित करती है, छज्जाशील होती है, विनम्र रहती है, गुरुजनोंका आदर करती है, घरके कार्यमें योग्य गृहिणी ( गृहस्वामिनी) के समान चतुर होती है, पतिके विषयमें अनुराग करती है, कुटुम्बी जन और दासी दास आदि अन्य जनोंके विषय में मित्रतापूर्ण व्यवहार करती है, धर्मकार्यमें अतिशय निपुण होती हैं, तथा जो प्रतिकूल व्यवहारमें किंचित् ही कभी क्रोधको प्रगट करती है; ऐसी समस्त गुणोंकी स्थानभूत उस स्त्रीको साधारण पुण्यवाले मनुष्य नहीं प्राप्त कर सकते हैं किन्तु विशेष पुण्यात्मा पुरुष ही उसे प्राप्त करते हैं ॥ १२ ॥ लोक में प्रतिष्ठित मनुष्य भी जिस स्त्रीमें आसक्त होकर समस्त गुणका शत्रु होता हुआ कार्य व अकार्यका विचार नहीं करता है, महापुरुषोंके वचनका उल्लंघन करता है, निन्द्य वाक्यको बोलता है, छज्जाशीलताको छोड़कर निर्लज्ज बन जाता है, तथा निन्दनीय महान् दुर्व्यसनका सेवन करता है, वह समस्त अनर्थों ( दोषों) की स्थानभूत युवति की क्या प्राणियोंको सुख दे सकती है? अर्थात् कभी नहीं दे सकती है ॥ १३ ॥ जो निन्दनीय स्त्री निरन्तर कपटपूर्ण व्यवहार करती है, मनको स्थिर नहीं करती है-चंचलचित्त रहती है, उपकारको नहीं मानती है, असत्य वचन बोलती है, कुलको कलंकित करती है, कीर्तिरूप कताको काटती है, समस्त आरम्भोंकी अद्वितीय कारण है, तथा संयम जनित सुखके अनुरागको नष्ट करती है, धर्मरूप उद्यानको 1 १ स यत्र । २ स विगीता । ३ स गेहूनी ४ स भक्त्या स यत्या शक्ती, यस्याः शक्तो । ६ स रिपोर्मानवीयो । ७ स सानधनां । ८ स वितरतु । ९स वितरतिमुखं । १० स रतिध्वं ( मैं ) । ११ स भक्ती | Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119:६-१७] ६. स्त्री [गुण] दोषविचारपञ्चविंशतिः 117) या विश्वासं मराणां जनयति शतधालीकजल्पप्रपञ्चै नं प्रत्येति स्वयं तु व्यपहरति गुणानेकदोषेण सर्वान् । कृत्वा दोषं विचित्रं रचयति निकृति यात्मकृत्यैकेनिष्ठां तां दोषाणां धरित्री रमयति रमणी मानधो नो वरिष्ठः ॥१५॥ 118) उद्यवालावलीभिरमिह भुवनप्लोषके व्यवाहे रङ्गद्वीचौ प्रविष्टं जलनिधिपयसि प्राहनकाले वा। संग्रामे यारिरौद्रे विविधशरहतानेकपोधेप्रधाने मो नारीसौख्यमध्ये भवशतअमितानम्तदुःसप्रवीणे ॥ १३ ॥ 119) विद्युइयोतेनं रूपं रजनिषु तिमिरे पीक्षितुं शक्यते थैः पारं गन्तुं भुजाभ्यां विविधजलचरक्षोभिणी वारिधीनाम् । शातुं चारो ऽमितानां वियति विचरतां ज्योतिषां मण्डलस्य नो चित्तं कामिनीनामिति कृतमतयो दूरतस्तास्स्यजन्ति ॥ १७ ॥ मनुजः न भजति ॥ १४॥ या शतधा अलीकजल्पप्रपञ्चः नराणां विश्वास जनयति । स्वयं तु न प्रत्येति । एकदोगेण सर्वान् गुणान् व्यपहरति । या विचित्र दोष कृत्वा निकृति रचयति । वरिष्ठः मानवः आत्मकूपकनिष्ठा, दोषाणां परित्री, वा रमणी नो रमयति ।। १५|| बइ उद्यज्वालावलीभिः भुवनप्लोषके (लोकदाहके) हण्यवाहे प्रविष्ट घरम् | वा रक्तदीची प्राइनकाकुले जलनिधिपयसि प्रविष्टं वरम्। का विविधशरइतानेकयोधप्रधाने अरिरोटे संग्रामे प्रविए परम् । परं भक्शतजनितानन्तदुःस्त्रप्रवीणे नारीसौख्यमध्ये प्रविष्ट नो वरम् ।। १६ ।। यैः रणनिषु तिमिरे विद्युयोतेन रूपं बीक्षित शक्यते, यैः भुजाभ्यां विविधजलचरक्षोभिणां वारिधीनां पार गन्तुं शस्यते, यः वियति विचरवाम् अमिवाना न्योतिषां मण्डलस्य चारः ज्ञातुं शक्यते, (तैः) कामिनीनां चित्तं (शा) नो (शक्यते)। अतः कृतमतयः ताः दूरतः त्यन्ति ॥ १७ ॥ नष्ट करनेवाली अभिमानिनी उस स्त्रीका सेवन निर्मबुद्धि मनुष्य कभी नहीं करता है।॥१४॥ जोखी सैकड़ों प्रकारके झूठ बचनोंको बोलकर मनुष्योंको विश्वास उत्पन्न कराती है, परन्तु स्वयं उनका विधास नहीं करती है; जो एकही दोषसे समस्त गुणोंको नष्ट करती है, अनेक प्रकारके दोष ( अपराध ) को करके कपटताका व्यवहार करती है, तथा जो अपने कार्यमें दृढ़ रहती है उस समस्त दोषोंकी खानिभूत स्त्रीको कोई भी श्रेष्ठ मनुष्य नहीं रमाता है ॥ १५॥ संसारमें उत्पन्न हुई अपनी ज्वालाओंके समूहसे लोकको भस्म कर देनेवाली अग्निमें प्रवेश करना अच्छा है, जिसमें बड़ी बड़ी लहरें उठ रही हैं तथा जो मगर व षड़याल आदि हिंसक जलजन्तुओंसे भयको उत्पन्न करनेवाला है ऐसे समुद्रके जलमें प्रवेश करना अच्छा है, अथवा जहां नाना प्रकारके बाणों (शस्त्रों) के द्वारा अनेक शूरवीर मारे जा रहे हों ऐसे शत्रुओंसे भयानक युद्धमें भी प्रवेश करना अच्छा है; परन्तु सैकड़ों भवोंमें अनन्त दुखको उत्पन्न करनेवाले स्त्रीसुखके मध्यमें प्रवेश करना अच्छा नहीं है । [तात्पर्य यह कि खोजन्य सुख उपर्युक्त जाज्ज्वस्यमान अग्नि आदिसे भी भयानक है ]॥१६॥ जो जन रात्रिके समय अंधेरे में बिजलीके प्रकाशसे रूपको देख सकते हैं, जो अनेक जलचर जीवोंसे क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रोंको भुजाओंसे तैरकर पार जा सकते हैं, तथा जो आकाशमें संचार करनेवाले अगणित ज्योतिषियोंके मण्डलके संचारको जान सकते हैं; वे भी स्त्रियोंके चित्तको उनके मनोगत भावको नहीं जान सकते हैं। ११ जन्म। २ स कृते। ३ स रमण। १ स नावेला। ५ स योधा। ६ स विद्युतघातेन ७स क्षोभिनां। ८ स कृति । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ सुभाषितसंदोहः [120 : ६-१८120) कात्र श्रीः श्रोणियिम्बे सबबुदरपुरावस्ति खद्वारवाच्ये लक्ष्मीः का कामिनीनां कुचकलशयुगे मांसपिण्डस्वरूपे । का कान्तिनेत्रयुग्मे जलकलुषर्जुधि लेपरफ्ताविपूर्ण का शोभावर्तगतै निगदत पददो मोहिनस्ताः स्तुवन्ति ॥१८॥ 121) व लालाद्यचद्यं सफलरसंभृता स्वर्णकुम्भश्येन मांसग्रन्थी स्तनौ च प्रगलदुरुमला स्यर्वनाङ्गेन योनिः । निर्गकछद् दूषिकानं यदुपमितमहो पनपत्रेण नेत्र तबिध नात्र किंचियपंगतमतिर्जायते कामिलोकः ॥ १९॥ 122) यत्त्वमांसास्थिमजाक्षतजरसवसाशुक्रधातुप्रवृद्ध विष्ठामूत्रासंगथुप्रभृतिमलनवस्रोधमत्र त्रिदोषे । वर्चसमोपमाने कृमिकुलनिलये ऽस्यन्तबीभत्सरूपे रज्यनले वधूनां मजति गतमतिः वधगम कमिषम् ॥२०॥ भत्र कामिनीनां सवदुदरपुरौ खद्वारवाच्ये श्रोणिबिम्बे का श्रीः अस्ति। मांसपिण्डस्वरूपे कुचकलशयुगे का लक्ष्मीः।। बलकल्पषि नेत्रयुग्मे का कान्तिः। श्लेष्भरक्तादिपूर्णे भावर्तगते का शोभा अस्ति। अहो निगदत। यत् मोहिनः ताः दवन्ति ॥ १८॥ लालावा वक्त्रं सकलरसभृता (चन्द्रेण), मांसमन्थी स्तनौ स्वर्णकुम्भद्येन, प्रगलदुस्मला योनिः स्यन्दनान, निर्गच्छदृषिकास्त्रं (निर्गममन्ती दूषिका नेत्रयोर्मलः असाभ्यां कोणाभ्यां यस्य तत् । अथवा दूषिकार : असाणि-अणि च दूषिकासाणि । निर्गच्छन्ति दूषिकालाणि पस्मात् तत् ।) नेत्र पनपत्रेण उपमितम् । तस् भत्र , किंचित् चित्रं न । यत् कामिलोकः अपगतमतिः जायते ॥ १९॥ यत् समासास्थिमजाक्षवजरसवसाशुक्रधातुमा : विष्ठापासगभुप्रभृतिमलनघतोत्रं (वर्तते) वधूना त्रिदोषे वर्चसोपमाने कृमिकुलनिलये अत्यन्तबीभत्सकमे मत्र भरे इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्य उनका दूरसे ही परिस्पाग करें ॥१७॥ यहाँ स्त्रियोंके उस श्रोणिबिम्ब (योनि) में, | जो कि निरन्तर मध्यसे अधिक रुधिर आदिको बहाता रहता है तथा जो इन्द्रियदार शन्दसे कहा जाता है, कौन-सी शोभा है; उनके मांसके पिण्डभूत दोनों स्तनरूप घटोंमें कौन-सी लक्ष्मी है; मलिन जल (अश्रु) से संयुक्त उनके दोनों नेत्रोंमें कौन-सी कान्ति है; तथा कफ व रुधिर आदिसे पूर्ण उनके आवर्तगर्तमें-मुखरूप गड्ढेमें-कौन-सी शोभा है; यह बतलाइये जिससे कि अज्ञानी जन उनके इन अवयवोंकी प्रशंसा करते हैं। [ अभिप्राय यह है कि स्त्रीके ये सब अवयव केवल घृणित रुधिर एवं मल-मूत्रादिके ही स्थान हैं, फिर भी कामी जन मोहके वशीभूत होकर उन्हें शोभायुक्त बतलाते हैं, यह आश्चर्य की बात है ] ॥१८॥ कामी जन जो स्त्रियोंके लार आदिसे दूषित मुखको पूर्ण चन्द्रमाकी, मांसकी गांठोंरूप दोनों स्तनोंको सुवर्णमय घटोंकी, अतिशय मलको निकालनेवाली योनिको रयके पहियेकी तथा कोनोंसे कीचड़को निकालनेवाले नेत्रको कमलपत्रकी उपमा देते हैं। इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। कारण यह कि कामान्ध जनोंकी भुद्धि नष्ट हो जाती है ।। १९ ।। जो त्रियोंका शरीर चमड़ा, मांस, हसी, मज्जा, रुधिर, रस, वसा (चर्बी) और वीर्य इन धातुओंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है; जो विष्ठा, मूत्र, रक्त और अश्रु आदि नौ प्रकारके मलको बहानेवाला है। जो वात, पित्त और कम इन तीन दोषोंसे सहित है, जो पुरीषालय (संडास) की उपमाको धारण करता है, जो कीड़ोंके समूहका घर है, तथा जो अतिशय घृणाको उत्पन्न करनेवाला है। ऐसे उस नियों के शरीरमें अनुराग १स पुरोनास्ति । २ स खटद्वार। ३ स कुचवालश । ४ स जलुपयुषि, कलुषिगलवाष्पकिदादि', 'वत्रमादि', दक्त्रले , नत्र । ५ स शोभा वक्त्र । ६ स दास्तर्वसि। ७ स सकलशशिभृता, 'शश। ८ स स्पेदि स्पंदनांगेन । ९ स निग्गच्छखिलान, निगच्छद् दूस्त्रिकाध । - Hom. तचित्र। 11 दपिगत १२ स 'सगर्छ। ११ स श्रोत्र । १४ सनिलयो। १५ स "स्वरूपे। १६ स रच्य', रिप्यन्नंगे। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 ६-२३) ६. स्त्री [गुण] दोषविषारपञ्चविंशतिः 123) छायावद्या न वन्ध्याचिरकचिचपला खलधारेव तीक्ष्णा धुद्धिर्वा लुब्धकस्य प्रतिहतकरुणा व्याधिवन्नित्यदुःस्रा । वक्रा वा सर्परीतिः कुनृपमतिरिवावद्यकश्यप्रचारा चित्रा वा शकचाएं भषचकितयुधः सेव्यते स्त्री कथं सा ॥२१॥ 124) संबातो ऽपीन्द्रजालं यदुत युवतयो मोहविस्वा मनुष्या नानाशाखलेषु दक्षानपि गुणकलितं दर्शयन्त्यात्मरूपम् । डाकासंग्यातनास्तं ततकथितमलैः प्रक्षरत्नोगतः सरुचारपुंज कुथितजठरभृच्छिद्रितं यदक्ष ॥२२॥ 125) या सर्वोकिएषक्त्रा हितजनभाषणों सद्गुणास्पर्शनीया पूर्वाधर्मात्प्रजाता सततमलभृती निन्धकृत्यप्रवृत्ती । दानस्नेहा शुनीव भ्रमणकृतरतिमानुकर्मप्रवीणा योषा सा साधुलोकैरवगतजननैईरतो चर्जनीया ॥२३॥ रज्यन् गतमतिः (नरः) श्वभ्रगर्भ (विष्वागतमध्ये) कृमित्व प्रजति ॥ २०॥ या छायावत् बन्ध्या न, अचिरकरिचपला, खड्गधारेव तीक्ष्णा, लुब्धकस्प प्रतिहतकरुणा बुद्धिर्षा, व्याधिवत् नित्यदुःखा, वक्रा सर्परीतिः बा, कुनुपगतिरिख अवधकृत्यप्रचारा, शकनापं वा चित्रा सा स्त्री भवच कितबुधैः कथं सेव्यते ॥२१॥ बदुत युवतयः संशातः इन्द्रजालम् अपि (यतस्ता.) अत्र नानाशास्त्रेय दक्षान् अपि मनुष्यान् मोहयित्वा शुक्रासुग्यातनाक्त ततकुषितमलैः सर्वः सोत्रगतः निहितं कुथितजठरभृत् (कुथितभूतपटं) यवत् उच्चारपुख प्रक्षरत् आत्मरूपं गुणकलितं दर्शयन्ति ॥ २२॥ या सर्वोष्टिवक्त्रा. द्वितजनभषणा (भषण बक्कन कक्करशब्दः). सदगणास्पर्शनीया, पूर्वाधर्मात्प्रजाता, सततमलमता, निन्धकृपप्रवृत्ता, शुनोव दानस्नेहा, भ्रमणकृतरतिः, चादुकर्मप्रवीणा सा योषा अवगतजननः साधुलोकैः दूरतः वर्जनीया ।। २३।। करनेवाला मूर्ख मनुष्य विष्ठाके मध्य में कृमि पर्यायको प्राप्त करता है ॥२०॥ जो स्त्री छायाके समान त्रिफल नहीं है अर्थात् साथमें रहनेवाली है, जो बिजलीके समान चंचल है, तलवारकी धारके समान तीक्ष्ण है, व्याधकी बुद्धिके समान दयासे रहित है, व्याधिके समान निरन्तर दुख देनेवाली है, सर्भके संचारके समान कुटिल है, कुत्सित राजाकी प्रवृत्ति के समान पापकार्यका प्रचार करनेवाली है, तपा जो इन्द्रधनुषके समान विचित्र रूपको धारण करती है, उस स्त्रीका संसारसे भयभीत हुए विद्वान् मनुष्य कैसे सेवन करते हैं । अर्थात् विद्वान् मनुष्योंको उस अहितकारक स्त्रीका परित्याग करना चाहिये ॥२१॥ अथवा युवति खियां नामसे इन्द्रजाल भी हैं। क्योंकि वे अनेक शाखोंमें प्रशण भी पुरुषोंको मोहित करके अपने उस रूपको गुणयुक्त दिखलाती हैं जो कि वीर्य, रुधिर एवं पीड़ासे संयुक्त तथा दुर्गन्धपूर्ण विपुल मलसे भरे हुए सब लोगों (थोत्रादि नौ द्वारों) के द्वारा मलसे परिपूर्ण छिद्युक्त वनके समान मलको बहानेवाले अपने स्वरूपको गुणयुक्त दिखलाया करती हैं। विशेषार्य-जिस प्रकार मलसे भरे हुए छिद्रयुक्त वस्त्रसे वह मल सदा चूता रहता है उसी प्रकार नियोंके नौ द्वारयुक्त शरीरसे भी निरन्तर रक्त, मल व मूत्र आदि बहता रहता है। फिर भी वे स्त्रियां विद्वान् मनुष्यों को भी मोहित करके अपने उस निन्ध शरीरको गुणयुक्त एवं सुन्दर प्रगट करती हैं। यह उनकी प्रवृत्ति इन्द्रजालके समान कपटसे परिपूर्ण है। अत एव उनको नामसे इन्द्रजाल भी कहा जा सकता है। कारण कि इन्द्रजाल भी इसी प्रकार दर्शकोंको मुग्ध करके कुछ का कुछ दिखलाया करता है ।। २२ ॥ जो श्री सबके द्वारा जूठे किये गये -- सबसे चुम्बितमुखसे सहित है, जो हितैषी जनोंके ऊपर कुत्तेके समान भोंकती है-उनसे रुष्ट रहती है, गुणवान् मनुष्य जिसका स्पर्श करना भी योग्य नहीं समझते हैं, जो पूर्व पापसे स्त्री हुई है, निरन्तर मलसे पूर्ण रहती १ सवद्यानबद्या २ स वश्या ३ स "बिझानि । म चपला। स प्रत्तहत। ६ करणा, 'करुणाव्या । स शुकोसृगपातनात, शुक्रामृग्यातनांत! ८ स गतै, गतः गर्नेः। ९स चारपुंजां। १. स कुथितभृबठरं, कुथिततप, कुथितभृतपर्ट । ११ स भुषणा । १२ स मलकृतां । १३ सप्रवीणा । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ सुभाषितसंदोहः 126) दुःखानां या निधानं भवनमविनयस्यार्गला स्वर्ग पुर्याः श्वभ्रावासस्यं वर्त्म प्रकृतिरयशसः साहसानां निवासः । धर्मारामस्य शत्री गुणकमलहिमं मूलमेनोद्वैमस्व . मायावल्लीर्धरित्री कथमिह वनिता सेव्यते सा विदग्धैः ॥ २४ ॥ 127) श्रोणीसशमैपः कृमिभिरतिशयातुधैस्तुद्यमाना यत्पीडातो ऽतिदीना विदधति चलनं कोचनानां रमण्यः । तन्मन्यन्ते ऽतिमोहापहृतमनसः सद्विलासं मनुष्या इत्येतत्तथ्यमुचैरमितगतियतिप्रोक्तमाराधनातः ॥ २५ ॥ इति ली [गुण] दोष विचारपश्चविंशतिः ॥ ६ ॥ [ 120 : ६-२४ या दुःखानां निधानम्, अविनयस्य भवनं, स्वर्गपुर्या: मंगला, श्रभ्रावासस्य वर्त्म, अयशसः प्रकृतिः, साहसानां निवासः, धर्मारामस्य शस्त्री, गुणकमलहिमम्, एनोमस्य मूलं, मायावल्लीधरित्री सा वनिता इह विदग्धैः कथमिव सेव्यते ॥ २४ ॥ श्रोणीस पप्रपन्नः अतिशयास्तुदैः कुमिभिः तुद्यमानाः रमण्यः सत्पीडातः अतिदीनाः सत्यः लोचनानां चलनं विदधति, अतिमहात् उपहृतमनसः मनुष्याः तत् सद्विलासं मन्यन्ते । इत्येतत् उच्चैः तथ्यम् आराधनातः अमितगतियतिप्रोक्तम् ॥२५॥ || इति स्त्री (गुण) दोषविचारपञ्चविंशतिः || ६ || है, जिन्य कार्यमें प्रवृत्त होती है, कुत्तीके समान दानमें स्नेह रखती है, इधर उधर घूमने-फिरनेमें आनन्दित रहती है, तथा जो चापलूसी ( खुशामद) करनेमें चतुर होती है; ऐसी उस खीका संसारस्वरूपके जानकार साधुजन दूरसे ही परित्याग करें ॥ २३ ॥ जो स्त्रो दुःखोंका भण्डार है, अविनयका घर है, स्वर्गरूप पुरीकी प्राप्ति अर्गला (बेंडा ) के समान बाधक है, नरकनिवासका मार्ग (कारण) है, अपयशको उत्पन्न करनेवाली है, साइसोंका निवास है - निन्य कार्य करनेका साहस करती है, धर्मरूप उद्यानको नष्ट करनेमें शस्त्रका काम करनेवाली है, गुणोंरूप कमलोंको सुखानेके लिये तुषार के समान है, पापरूप वृक्षको स्थिर रखनेके लिये जड़के समान है, तथा मायारूप बेलिको उत्पन्न करनेके लिये पृथिवीके समान है; उस स्त्रीका सेवन यहां चतुर पुरुष कैसे करते हैं ! अर्थात् विद्वान् मनुष्योंको स्त्रीके ऊर्युक्त स्वभावको जानकर उसका परित्याग करना चाहिये ॥ २४ ॥ स्त्रियोंके नेत्रोंमें जो चंचलता होती है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनके योनि स्थानमें जो पीड़ाजनक कीड़े होते हैं उनसे पीड़ित हो करके ही मानो वे चंचल नेत्रोंसे देखा करती हैं। परन्तु उनके नेत्रोंकी इस चंचलताको अविवेकी मनुष्य अतिशय मोहके वशीभूत होकर उत्तम विलास समझते हैं। इस अतिशय सत्यको अमित गति मुनिने यहां आराधना ( भगवती आराधना ) से कहा है ॥ २५ ॥ इस प्रकार पच्चीस श्लोकोंमें बीके गुण-दोषोंका विचार समाप्त हुआ ।। ६ ।। १ सोस । २ सरपञ्चः । ३ स मूलमेनु । ४ सी धरित्री | ५ स श्रोणी । ६ स प्राक्तभावनात् । ७ सom इति, इति स्त्रीदोष विचारविदस समासः इति स्त्रीगुणदोषविचारः । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापश्चाशत् ] 128) दुरन्तमिथ्यात्वतमोदिवाकरा बिलोकिताशेषपदार्षविस्तराः। उशन्ति मिथ्यात्वतमो जिनेश्वरा यथार्थतत्त्वप्रतिपसिलक्षणम् ॥१॥ 120) चिदतैकाम्तविनीतिसंशयप्रतीपतामाहनिसर्गभेदतः । जिनैश्च मिथ्यास्वममेकघोवितं भवार्णवभ्रान्तिकर शरीरिणाम् ॥२॥ 130) परिग्रहेणापि युतांस्तपस्विनो वधे ऽपि धर्म बाधा शरीरिणाम् । ___ अनेकदोषामपि देवतां जनैलिमोहमिथ्यात्ववशेन भाषते ॥३॥ 131) विबोधनित्यत्वसुखित्वकर्दताविमुक्तिसबेतुकृतज्ञतादयः ।। - न सर्षथा जीवगुणा भवस्यमी भवन्ति चकारतरशेति बुध्यते ॥४॥ दुन्तमिथ्यात्वतमोदिवाकराः विलोकिताषपदार्थविस्तराः जिनेश्वराः मिथ्यात्वतमः यथार्यतस्याप्रतिपत्तिलक्षणम् उशन्ति ॥ १॥ जिनः च शरीरिणां भवार्णवधान्तिकरं मिप्यास्वं विमूढता-एकान्त-विनीति-संशय-प्रतीपता माह-निसर्पभेदतः अनेकधा उदितम् ।। २ ।। जनः निमोहमियाखवशेन परिग्रहेण युतान् अपि तपस्विनः; शरीरिणी बहुध वधे ऽपि धर्मम्, अनेकदोषाम् अपि देवतां भाषते ॥ ३॥ विनोष-नित्यत्व-मुखित्व-कर्तृतो-विमुक्ति-सबेतु कृतज्ञतावयः जो कटिनतासे नष्ट होनेवाले मिथ्यात्वरूप अन्धकारको नष्ट करनेके लिये सूर्यके समान हैं तथा जिन्होंने समस्त पदार्थोके विस्तारको जान लिया है ऐसे वे जिनेन्द्र देव मिथ्यात्वरूप अन्धकार को पदापोंके ययार्थस्वरूपके अश्रद्धानरूप बतलाते हैं। [ अभिप्राय यह है कि जीवाजीवादि पदापोंका यथार्थ श्रद्धान न होना यह मिथ्यात्व कहलाता है ] || १ | जो मिथ्यात्व प्राणियोंको संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण कराता है उसे जिन भगवान्ने अज्ञान, एकान्त, विनय, संशय, विपरीत, गृहीत और स्वभाव (अगृहीत)के मेदसे अनेक प्रकारका बतलाया है |॥ २ ॥ तीन मूढतारूप मिथ्यावके वशसे मनुष्य परिग्रहसे सहित भो जनोंको तपस्यी, बहुत प्रकारसे किये जानेवाले प्राणियोंके वधमें भी धर्म तथा अनेक दोषोंसे संयुक्त देवोंको भी यथार्थ देव बतलाया करता है | विशेषार्थ-लोकमहता (धर्ममूढता) गुरुमूढ़ता और देवमूढताके भेदसे मूढ़ता तीन प्रकारकी है। इनमें धर्म मानकर यज्ञादिकमें प्राणियोंका वध करना, गंगा आदि नदियों में स्नान करना,हिमालयके बर्फमें गलकर प्राण देना और सती होनेके रूपमें अनिमें जलना आदि कार्योको लोकमढ़ता या धर्ममूढ़ता कहा जाता है। जो आरंभ और परिग्रहसे सहित होकरके भी महत्त्वस्यापन करनेके लिये साधुका वेष धारण करते हैं उनकी गुरु समझ करके पूजा-भक्ति आदि करना गुरुमुदता कहलाती है। राग-द्वेषसे दूषित देवताओंको अभीष्टसिद्धिका कारण समझकर इसी आशासे उनकी उपासना करनेको देवमूढ़ता कहते हैं। इन मूढताओंके रहनेपर कभी निर्मल सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हो सकती है ॥ ३ ॥ विज्ञान, नित्यत्व, सुखित्व, कतत्वविमुक्ति-अकर्तृत्व (अथवा कर्तृत्व, विमुक्ति) और उस कर्तृत्वहेतुक कृतज्ञता (उपकारस्मरण ) आदि ये सर्वथा जीवके गुण नहीं हैं-विवक्षाभेदके अनुसार वे कथंचित् जीवके गुण हैं और कयचित् नहीं भी हैं; परन्तु एकान्समिथ्या दृष्टि उन्हें सर्वथा ही जीवगुण मानता है। विशेषार्थ-प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म होते हैं। उनमेंसे प्राणीको जब जिस धर्मकी विवक्षा होती है सदनुसार ही वह अपेक्षाकृत वस्तुका वैसा स्वरूप मानता है। उदाहरणके रूपमे किसी एक ही व्यक्तिमें पितृत्व, पुत्रव, मातुलस्व एवं भागिनेयत्व आदि अनेक धर्म हैं। उनमेंसे जब जिसकी अपेक्षा होती है तदनुसार पिता-पुत्र आदिका व्यवहार किया जाता है । यही त्वमनोदिवा । २ स उसति। ३ स वि (वि) मदि। ४ स 'विनीत'। ५ स धनकमि', थिनेक', जिनेश्च । ६ स भ्रांत । ७ सयुतास्त । ८ स बो। ९स धम्मे। • सजना | 11 स दयाः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सुभाषित संदोहः 132 ) न धूयमानो भवति ध्वजः स्थिरों यथानिलैर्देव कुलोपरिस्थितः । समस्तधर्मानिलधूतचेतनों' विनीतिमिथ्यात्वपरस्तथा नरः ॥ ५ ॥ 133) समस्ततत्त्वानि न सन्ति सन्ति वा विरागसर्वच निवेदितानि वै । विनिश्चयः कर्मवशेन सर्वथा जनस्य संशीतिरुचेर्न जायते ॥ ६ ॥ 134) पयो युतं शर्करया कटूयते यथैव पित्तज्वरभाविते अने । तथैव तत्त्वं विपरीतमङ्गिनः प्रतीपमिध्यात्वशो विभासते ॥ ७ ॥ 135) प्रपूरितञ्चर्मलवैर्यथाशनं न मण्डलब्धर्मकृतः समिच्छति । कुहेतुदृष्टान्तवचः प्रपूरितो जिनेन्द्रसत्यं वितथं प्रपद्यते ॥ ८ ॥ [132: Į अमी जीवगुणाः सर्वथा न भवन्ति । च एकान्तदृशां भवन्ति इति बुध्यते ॥ ४ ॥ यथा देवकुलोपरि स्थितः ध्वजः अनिले, धूयमानः स्थिरः न भवति तथा विनीतिमिध्यात्वपरः नरः समस्तधर्मा निलधूतचेतनः भवति ॥ ५ ॥ विराग सर्वत्र निवेदितानि समस्ततस्वानि सन्ति वा न सन्ति इति कर्मवशेन संशीतिरुपेः जनस्य सर्वथा विनिश्वयः न वै जायते ।। ६ ।। यथैव पित्त रभाविते जने शर्करा युतं पयः कटूयते तथैव प्रतीपमियात्यदुमः निः तत्त्वं विपरीतं विभासते ॥ ७ ॥ यथा चर्मकृतः चर्मलकैः प्रपूरितः मण्डलः अशनं न समिच्छति तथा कुहेतुदृष्टान्तवचः प्रपूरितः जनः जिनेन्द्रतस्त्वं वितथं प्रपद्यते ॥ ८ ॥ ॥ Ti I ... १ स भजति ध्वज: ( ज ) स्थिति । ५ स वचः । वस्तुस्वरूपकी यथार्थता है । परन्तु एकान्तमिध्यादृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता है। उसकी प्रतीतिमें जिस समय जो धर्म आता है उसे ही वह सर्वथा उसका धर्म मान बैठता है। जैसे- जीव सर्वथा पूर्णज्ञानस्वरूप ही है अथवा सर्वथा नित्य ही है आदि । इससे उसे वस्तुस्वरूपका यथार्थज्ञान व श्रद्वान नहीं हो पाता है और इसीलिये वह मोक्षमार्गसे दूर ही रहता है ॥ ४ ॥ जिस प्रकार देवगृहके ऊपर स्थित ध्वजा वायुसे कम्पित होकर स्थिर नहीं रहती है-चंचल रहती है उसी प्रकार विनयमिथ्यात्यके अधीन हुए प्राणीको प्रतीति भी समस्त धर्मो रूप वायु कम्पित होकर स्थिर नहीं रहती है। [ अभिप्राय यह है कि विनयमिध्यादृष्टि जीव देव - कुंदेव, गुरु-कुगुरु और धर्म-कुधर्म आदिमें विवेक न करके सबको समानरूपसे ही मानता है और तदनुसार ही उनकी भक्ति आदि भी करता है ] || ५ | मिध्यायके उदयसे जिस मनुष्य के वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा निर्दिष्ट समस्त तत्र वैसे ही हैं अथवा नहीं है, ऐसा सन्देह बना हुआ है उसे तत्त्वका निश्चय सर्वथा नहीं हो पाता है । [ अभिप्राय यह है कि वीतराग सर्वज़क द्वारा जो वस्तुस्वरूप बतलाया गया है वह वैसा ही है या नहीं है, ऐसी जिसके चलित प्रतिपत्ति ( अस्थिरता ) है उसे सांशयिक मिध्यादृष्टि समझना चाहिये ] ॥ ६ ॥ जिस प्रकार पित्तज्वर से पीड़ित मनुष्यको शक्कर से संयुक्त मीठा दूध कडुबा प्रतीत होता है, उसी प्रकार विपरीत मिथ्यादृष्टि प्राणीको भी वस्तुस्वरूप विपरीत ही प्रतिभासित होता है ॥ ७ ॥ जिस प्रकार चमड़ेके टुकड़ोंसे परिपूर्ण चमारका कुत्ता अनरूप भोजनकी इच्छा नहीं करता है उसी प्रकार खोटे हेतु ( युक्ति) और उदाहरणरूप वचनोंसे परिपूर्ण पुरुष भी जिनेन्द्रद्वारा कथित यथार्थ वस्तुस्वरूपको अन्यथा स्वीकार करता है। [ अभिप्राय यह है कि जो एकान्तवादी विद्वानोंकी कुयुक्तियों आदिसे प्रेरित होकर वस्तुस्वरूपको अन्यथा ( अयथार्थ ) स्वीकार करता है वह गृहीतमिप्पादृष्टि कहा जाता है ] ॥ ८ ॥ २ धूम | ३ सवि (वि) नीत । ४ स भयोयुतं । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140:७-१३] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्यनिरूपणद्वापञ्चाशत् 136) यथान्धकारान्धपटावृतो जनो विचित्रचित्रं न विलोकितुं क्षमः । यथोक्ततत्त्वं जिननाथभौषितं निसर्गमिथ्यात्वतिरस्कृतस्तथा ॥९॥ 137) दयादमध्यानतपोव्रतादयो गुणाः समस्ता न भवन्ति सर्पयो । दुरन्त मिथ्यात्वरजोर्हतात्मनो रजोयुतालाबुगतं यर्थों पयः ॥१०॥ 138) अवैति तत्वं सदसत्वलक्षणं विना विशेष विपरीतरोचनः । यहच्छया मत्तयवस्तचेतनो जनो जिनानां वचनात्परास्मुखः ॥११॥ 139) त्रिलोककालत्रयसंमवासुर्ख• सुदुःसहं यत्रिविधं विलोक्यते । घराचराणां भवगर्तवर्तिनां तदत्र मिथ्यावयशेन जायते ॥१२॥ 140) वरं विष भुक्तमसुक्षयक्षम' वरं वनं श्वापदयभिषेवितम् ।। वरं कृतं बहिशिखाप्रवेशने मरस्य मिथ्यात्वयुतं म जीवितम् ॥ १३॥ यथा अन्धकारान्धपटावृतः जनः विचित्रचित्रं विलोकितुं न क्षमः तथा निसर्गमिथ्यात्वतिरस्कृत: जिननायभाषित यथोक्ततत्त्वं विलोकितुं न क्षमः ॥ ९॥ पथा रजोयुतालाबुगतं पय: (तथा) दुरन्त मिभ्यास्वरजोहतात्मनः दमामध्यानतपोवतादयः समस्ता गुणाः सर्वथा न भवन्ति ॥ १०॥ जिनाना वचनात् परामुखः विपरीतरोचनः जनः अस्तचेतनः (सन्) मतवत् यदृच्छया विशेष विना सदसत्वलक्षणं तत्त्वम् अवैति ।। ११॥ यत् सुदुःसहं त्रिविध विलोककालत्रयसंभवासुखं भवगवतिनां चराचराणां विलोक्यते तत् अत्र मिथ्यात्वपशेन जायते ।। १२ ।। असुक्षयक्षम विष मुक्तं बरम् । श्वापदवत् वनं निषेवितं वरम् । वहिशिखाप्रवेशनं कृतं वरम् । नरस्य मिथ्यात्वयुतं जीवितं न वरम् ।। १३॥ जिस प्रकार अंधेरेमें काले वस्त्रसे वेष्टित मनुष्य भीतरके अनेक प्रकारके चित्रको-अनेक वस्तुओं को नहीं देख सकता है उसी प्रकार अगृहीत मिथ्यात्व से तिरस्कृत जीव जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हुए यथार्य वस्तुस्वरूपको नहीं देख सकता है । [तात्पर्य यह कि मिथ्यात्वके उदयसे जिसे योग्य उपदेश आदिके प्राप्त होनेपर भी वस्तुस्त्ररूपका यथार्थ श्रद्धान प्राप्त नहीं होता है उसे अगृहीतमिथ्या दृष्टि समझना चाहिये ] ॥९॥ जिस प्रकार धूलियुक्त सूखी हुई बड़ी से बीजोंके निकल जानेपर जो शेष धूलि रह जाती है उसे संयुक्त तूंचड़ीमें स्थित दूध नहीं रहता है-वह विकृत हो जाता है-उसी प्रकार दुर्विनाश मिथ्यात्वरूप लिसे दूषित आत्मामें दया, दम (इन्द्रियदमन) ध्यान, तप और ब्रत. आदि गुण भी सर्वथा नहीं रहते हैं ॥ १० ॥ विपरीतरुचि ( मिथ्यादृष्टि ) मनुष्य विवेक से रहित होकर जिन भगवान्के वचनोंसे विमुख होता हुआ सत्य असत् स्वरूप पदार्थको पागलके समान विना किसी प्रकारकी विशेषताके ही मनमाने ढंगसे जानता है। [ अभिप्राय यह कि जैसे पागल पुरुष अन्तरंग दृढ़ताके बिना ही कमो माताको माता और कभी उसे एनी भी मानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव भी अन्तरंग विश्वासके बिना कभी सत् पदार्थको सत् और कभी असत् तथा कभी असत् पदार्थको असद और कभी उसे सत् भी मानता है ]॥ ११॥ संसाररूप गड्डेमें रहनेवाले उस-स्थावर जीवों के जो तीन प्रकारका असह्य दुख ( आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) तीन लोक और तीन कालोंमें सम्भव दिखता है वह उस मिथ्यात्वके वशसे ही होता है ॥ १२ ॥ प्राणोंके संहारक विषका भक्षण करना अच्छा है, व्याघ्रादि हिंसक जीवोंसे व्याप्त वनमें रहना अच्छा है, तथा अनिकी म्वालामें प्रवेश करना भी अच्छा है; परन्तु मनुष्यका मिथ्यालके साथ जीवित रहना अच्छा नहीं है।॥ १३ ॥ १ स तत्वले । २ स 'नाषितं । ३ स सर्यकाः। ४ स रजोयुता । ५ स स्वथाक पय। ६ स 'लोचनः । ७'भवा सुख। ८ स विलोच्यते । ९ स भवनात', 'गर्ति', भवगर्भ ।। 1. स भक्त । 11 क्षमा। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [141 :७-१४141) करोति दोष न तमत्र केसरी न इन्दशूको न करी न भूमिपः । अतीव रष्टो न च शत्रुरुद्धतो यमुग्रमिथ्यारवरिपुः शरीरिणाम् ॥२४॥ 142) धातु धर्म दशधा तु पावन करोतु भिक्षाशनमस्तदूषणम् । तनोतु योगं धृतचित्तविस्तर तथापि मिथ्यात्वयुतो न मुच्यते ॥१५॥ 143) ददातु दानं बहुधा चतुर्विधं करोतु पूजामतिमक्तितोऽहता। दधातु शील तनुतामभोजनं तथापि मिथ्यात्ववशो न सिध्यति ॥१६॥ 144) अवै शास्त्राणि नरो विशेषतः करोतु चित्राणि तपालि भावतः । अतत्त्वसंसक्तमनास्तथापि नो विमुक्तिसौख्यं गतषाधमैथुते ॥ १७॥ 145) विचित्रवर्णाञ्चितचित्रमुत्तम पधा गताक्षो न जनो विलोकते । प्रदयमान न तथा प्रपंचते कुडष्ट्रिजीवो जिननाथशासनम् ॥ १८ ॥ 146) अभव्यजीवो वचनं पठन्नपि जिनस्य मिथ्यात्वविषं न मुञ्चति । यथा विषं रौद्रविषो ऽति पन्नगः सशर्करं चारु पयः पिबन्नेपि ॥ १९ ।। उग्रमिथ्यात्वरिपुः शरीरिणी यं दोषं करोति, अत्र तं केसरी न करोति, न दन्दशकः (सर्पः), न करी, न भूमिपः, न ब अतीय रुष्ट: उद्धतः शत्रुः करोति ॥ १४॥ मिथ्यात्वयुतः पावनं दशधा धर्म दधातु। तु अस्तदूषणं भिक्षाशनं करोतु। धृतषिसविस्तरं योगं तनोतु । तथापि (स.) न मुच्यते ॥ १५॥ मिथ्यात्वदश: चतुर्विधं दानं बहुधा ददातु । अतिभक्तितः अर्हता पूजा करोतु। शीलं दधातु। अभोजनं तनुताम् । तथापि (स:) न सिध्यति ।। १६॥ अतत्त्वसंसक्तमनाः नरः विशेषतः शास्त्राणि अबैतु। भावतः चित्राणि तपांसि करोतु। तथापि गतबाघ विमुक्तिसौख्यं नो अश्नुते ।। १७ ।। यया गताक्षः जनः उत्तम विचित्रवर्णाञ्चितचित्र प्रदश्यमानम् (अपि) न बिलोकते, तथा कुदृष्टिजीवः जिनमाथशासनं न प्रपद्यते ।। १८॥ मया सशकर चारु पयः अति पिबन् अपि रौद्रविषः पन्नगः विषं न मुञ्चति तथा जिनस्य वचनं पठन्नपि प्राणियोंके जिस दोषको तीन मिथ्यात्वरूप शत्रु करता है उसे यहा न सिंह करता है न सर्प करता है, न हायी करता है, न राजा करता है, और न अतिशय क्रोधको प्राप्त हुआ बलवान् शत्रु भी करता है। [तात्पर्य यह कि प्राणियोंका सबसे अधिक अहित करनेवाला एक यह मिथ्यात्व ही है ]|| १४ | मियादृष्टि जीव भलेही दस प्रकारके पवित्र धर्मको भी धारण करे, निर्दोष भिक्षाभोजनको भी करे, और मनको विस्तृत करके ध्यान भी करे; तो भी वह मुक्त नहीं हो सकता है | १५ | मिथ्यादृष्टि जीव बहुत प्रकारसे चार प्रकारका दान भी दे, अत्यन्त भक्तिसे जिनपूजा भी करे, शीळको भी धारण करे, और उपवास भी करे तो भी वह सिद्धिको प्राप्त नहीं हो सकता है ॥ १६॥ तसश्रद्धानसे रहित मिथ्यादृष्टि मनुष्य विशेषरूपसे शास्त्रोंका परिज्ञान भले ही प्राप्त करले तया भावसे अनेक प्रकारके तपोंका भी आचरण क्यों न करे, तो भी वह निर्वाध मोक्षसुखको नहीं प्राप्त कर सकता है 11 १७॥ जिस प्रकार अन्धा मनुष्य दिखलाये जानेवाले अनेक वर्णयुक्त उत्तम चित्रको नहीं देख सकता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीत्र जिनेन्द्र भगवान्के मतको नहीं देख सकता है-उनके द्वारा निर्दिष्ट वस्तुस्वरूपको स्वीकार नहीं करता है ॥ १८॥ जिस प्रकार भयानक विषसे संयुक्त सर्प शकरसहित उत्तम दूधको अतिशय पीकर भी विषको नहीं छोड़ता है उसी प्रकार अभव्य जीव जिनवाणीका अध्ययन करके भी मिथ्यात्वलप विषको नहीं छोड़ता है। [ तात्पर्य यह कि अभव्य जीवका मिथ्यात्व कभी नष्ट नहीं हो सकता है और इसीलिये उसे कभी मोक्षकी प्राप्ति भी नहीं होती है ] ॥ १९ !! १स यस्त्वन", यमुप्र। २स दशधातुपावनं। इस करोति। ४ स om योग....करोतु। ५ स "तोईणं १६ । ६ स शोला। . सवशे। ८ स शुपति १७।९ स अवैति। १० स 'संशात, 'संतस्त । 11स विमुक्त । १२ स 'शुते १८॥ १३ स विलोक्यते। १४ स प्रदर्श। १५ स प्रवर्तते। १६९|| १७ स अभाष्य" । १८ स "विशोपि, "विषो ऽपि ! १९ स २०॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148.७-२१] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापञ्चाशत् 147) भजन्ति नैकैकगुणं अयस्त्रयो इयं द्वयं च अयमेककः परः। इमे ऽत्र सप्तापि भवन्ति दुईशो यथार्थतत्त्वप्रतिपत्तिपर्जिताः ॥ २०॥" 148) अनन्तकोपादिचतुष्टयोदये त्रिभेदमिथ्यात्वमलोदये तर्था । दुरन्तमिध्यात्यविषं शरीरिणामनम्तसंसारकर प्ररोहति ॥२६॥ अभव्यजीव मिथ्यात्वविषं न मुञ्चति ।।१९।। त्रयः एकैकगुणं न भजन्ति । त्रयः द्वमं द्वयं च न भजन्ति । पर: एकक: अयं न भजति। अत्र इमे सप्त अपि दुर्दशः यथार्पसत्यप्रतिपत्तिवर्जिताः भवन्ति ॥२० 11 अनन्तकोपादिचतुष्टयोदये तथा विमेदमिथ्यात्वमलोदये (सति) शरीरिणाम् अनन्तसंसारकरं दुरन्त मिथ्यास्वविष प्ररोहसि ॥ २१।। यथा तदुद्भवः कृमि: तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दर्शन आदि तीन गुणों से किसी एक एकको नहीं मानते हैं। इनके अतिरिक्त तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि जीव उनमेंसे किन्हीं दो दो गुणोंको नहीं मानते हैं। अन्य एक मिष्यादृष्टि उन तीनोंको ही स्वीकार नहीं करता है। यहां ये सातों ही मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्गके यथार्थ ज्ञानसे रहित हैं। विशेषार्थ-मोक्षकी प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंकी एकतासे होती है, परन्तु कुछ मिथ्पादृष्टि. जीव ऐसे हैं जो इनमेंसे किसी एकको, दोको अथवा तीनोंको ही मोक्षके साधनभूत नहीं मानते हैं । यथा--- १ एक मिथ्यादृष्टि वह है जो कि उपर्युक्त तीनों गुणोंमें सम्यादर्शन व सम्यग्ज्ञान इन दो गुणोंको मानता है, परन्तु वह सम्यक्चारित्र को मोक्षका साधक नहीं मानता है। २ दूसरा मिश्यादृष्टि सभ्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को तो स्वीकार करता है, किन्तु वह सम्यग्ज्ञानको स्वीकार नहीं करता है । ३ तीसरा मिथ्यादृष्टि, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको तो स्वीकार करता है, परन्तु वह सम्यग्दर्शनको स्वीकार नहीं करता है । ४ चतुर्य मिथ्यादृष्टि वह है जो केवल सम्यग्दर्शनको ही मोक्षका साधक मानकर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका निषेध करता है । ५ पांचवां मिथ्यादृष्टि केवल सम्याज्ञानको ही मोक्षका साधक मानकर सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र्य इन दोनोंका निषेध करता है । ६ छठा मिथ्यादृष्टि केवळ सम्यक्चारित्रको ही मोक्षका साधक मानकर सभ्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इन दोनोंका निषेध करता है | ७ सातवा मिथ्यादृष्टि उपर्युक्त उन तीनों ही गुणोंको मोक्षके साधनभूत नहीं मानता है । इस प्रकार ये सातों ही मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्गसे विमुख हैं। अतएव उनका परित्याग करना चाहिये ।।२०॥ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारका तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिरूप तीन प्रकारके मिथ्यात्वका भी उदय होनेपर प्राणियोंके अनन्त संसारको करनेवाला यह मिथ्यात्वरूप विष उत्पन्न होता है जिसको कि नष्ट करना अतिशय कठिन है। विशेषार्थ-प्राणीके जब तक अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्पग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियोंका (अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्वके विना पाचका ही) उदय रहता है तब तक उसे सम्यग्दर्शनंकी प्राप्ति नहीं होती है-तब तक वह मिथ्यादृष्टि रह कर अनन्त संसारमें परिभ्रमण करता है । और जब उसके इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अधत्रा क्षयोपशम हो जाता है तब उसके औपशमिक, क्षायिक अयत्रा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है जिससे कि उसके संसारपरिभ्रमणका अन्त निकट आ जाता है ॥२१॥ जिस प्रकार नीममें उत्पन्न हुआ कीड़ा दूध आदि न प्राप्त हो सकनेसे उनके स्वादसे अनभिज्ञ रहता है और इसीलिये उसको नीमका रस ही स्वादिष्ट प्रतीत होता है उसी प्रकार जिस जीवने कभी जिनेन्द्रके वचनरूप रसायनका अनुभव नहीं किया है उसे कुतत्त्व ही - मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा प्ररूपित स ने (चै) कैकगुणत्रय। २ स om, द्वयं। ३ स दुर्दशा, दुर्दशो। ४ स २१॥ ५ सदयो । ६ स यथा, ७स २२|| Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सुभाषितसंदोहः 149) अलब्धदुर्गादिरसो रखावहं तदुद्भचो निम्बरसं कुभिर्यथा । भष्टजैनेन्द्रवचोर सायनस्तथा कुतत्त्वं मनुते रसायनम् ॥ २२ ॥ 150) ददाति दुःखं बहुधातिदुःसहं तनोति पापोपचयोन्मुख मतिम् । यथार्थबुद्धि विधुनोति पावन करोति मिथ्यात्वविषं न किं नृणाम् ॥ २३ ॥ 151) अनेकधेति प्रगुणेन चेतसा विविच्य मिध्यात्वमलं सदूषणम् । विमुच्य जैनेन्द्रमतं सुखावहं भजन्ति भव्या भवदुःखभीरवः ॥ २४ ॥ 152 ) विमुक्तसंगादिसमस्तदूषणं विमुक्ततत्त्वप्रतिपत्तिमुज्ज्वलम् । 18 — वदन्ति सम्यक्त्यमनन्तदर्शना जिनेशिनो नाकिनुतापिङ्कजाः ॥ २५ ॥ ३ 153) परोपदेशेन शशाङ्कनिर्मलं नरो निसर्गेण तदा तदद्भुते । क्षयं शर्म मित्रमुपति मले यथार्थतस्यैकदचेर्निषेधके ॥ २६ ॥ * अलब्धदुग्धादिरसः निम्बरसं रसावहं मनुते तथा अष्टर्जनेन्द्रवचोरसायनः जनः कुतत्त्वं रसायनं मनुते ॥ २२ ॥ मिथ्यास्वविषं नृणाम् अतिदुःसहं बहुधा दुःखं ददाति । मति पापोपचयोन्मुखां तनोति । पावनी यथार्थबुद्धि विधुनोति । तत् किं न करोति ॥ २३ ॥ भवदुःखभीरषः जनाः प्रगुणेन चेतसा सदूषणं मिथ्यात्वमलम् इति अनेकधा विविच्य विमुच्य सुखावहं जैनेन्द्रमतं भजन्ति ॥ २४ ॥ अनन्तदर्शनाः नाकिनुतापिङ्कजाः जिनेशिनः विमुक्तसंगादि ( शङ्कादि) समस्तदूषणं विमुक्ततत्त्वाप्रतिपत्तिम् उज्जलं सम्यक्त्वं वदन्ति ।। २५ ।। यथार्थतत्त्वेकरुचेः निषेधके मले क्षयं शर्मा, मिश्रम् पदार्थका अययार्थ स्वरूप ही रसायन ( हितकर औषध ) प्रतीत होता है ॥ २२ ॥ मिथ्यात्वरूप विष ● मनुष्यों का क्या क्या अहित नहीं करता है ? अर्थात् वह उनका अनेक प्रकारसे अहित करता है- वह उन्हें अनेक प्रकारसे अत्यन्त असह्य दुखको देता है, उनकी बुद्धिको पापसंचयके उन्मुख करता है, तथा निर्म यथार्थबुद्धिको नष्ट करता है ॥ २३ ॥ संसारके दुखसे डरनेवाले भव्य जीव इस प्रकार सरळ चित्रासे बहुत दोषों से संयुक्त मिथ्यात्वरूप मलका अनेक प्रकारसे विचार करके उसे छोड़ देते हैं और सुखकारक जैन मतका आराधन करते हैं ॥ २४ ॥ जो अनन्तदर्शन ( अनन्तचतुष्टय) से सहित हैं तथा जिनके चरणकमलोंमें देवगण नमस्कार करते हैं ऐसे वे जिनेन्द्र देव निर्मल सम्यग्दर्शनको शंका आदि समस्त दोषोंसे तथा अतत्त्व श्रद्धानसे रति बतलाते हैं ॥ विशेषार्थ – जीवादि तत्वोंके यथार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। उसके ये निम्न पच्चीस दोष हैं जिनके कि दूर करनेपर ही वह निर्मल रह सकता है- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ; ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, जातिमद, जलमद धनमद, तपमद, और रूपमद ये आठ मद, कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरुभक्त, कुदेवभक्त और कुधर्मभक्त ये छछ अनायतन; तथा धर्ममूढता, गुरुमूढता और देवमूढता ये तीन मूढतायें ॥ २५ ॥ तत्त्वोंके यथार्थ श्रद्धानको रोकनेवाले मलके - अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोइनीय तीन इन सात प्रकृतियोंके क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशमको प्राप्त होनेपर मनुष्य (जीव ) परके उपदेश से अथवा स्वभावसे ही चन्द्रके समान निर्मल उस सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है ॥ विशेषार्थ – यथार्थ तत्त्वश्रद्धानरूप वह सम्यग्दर्शन तीन प्रकारका है - औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । जो सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि उपर्युक्त सात प्रकृतियो उपशमसे प्राप्त होता है वह औपशमिक, जो उनके क्षयसे प्राप्त होता है वह क्षायिक, तथा जो उनके क्षयोपशमसे प्राप्त होता है वह क्षायोपशमिक कहलाता है । इनके अतिरिक्त उसके ये दो भेद उत्पत्तिकी अपेक्षासे भी हैं - निसर्गज और अधिगमज । जो सम्यग्दर्शन परोपदेश आदिके बिना पूर्व संस्कारसे स्वभावतः ही उत्पन्न हो जाता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इसके विपरीत जो सम्यग्दर्शन परोपदेश ४ सन्मुखं, 'त्सु १ स दुःखादि । २ स रसायणं । ३ स २३ ॥ ८२५ ॥ "शंका", "का" १४ स समं । १५ स मपागते। १६ स येधिके, 'पेधको । १० स तत्त्वम" | ७ स विवेच्य । १३ स भुता । [ 149 : ७-२२ । ५ स विधुनाति । ११ सतांहि । १७ स २७ ॥ ६ स २४ ॥ १२ स २६ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 : ७-३१] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापञ्चाशत् 154) सुरेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रसंपदः सुखेन सर्वा लभते भ्रमन्भवे । अशेषदुःखक्षणकारणं पैरं न दर्शनं पावनमश्रुते जनः ॥ २७ ॥ 155) जनस्य यस्यास्ति विनिर्मला रुचिर्जिनेन्द्रचन्द्रप्रतिपादिते मवे । अनेकधर्मान्विततत्त्वसूचके किमस्ति नो तस्य समस्तविष्टपे ॥ २८ ॥ 156) विधायक जैनमतस्य रोचनं मुहूर्तमन्येकमथो विमुञ्जति । " अनन्तकालं भवदुःखसंतति न सो ऽपि जीवो लमते कथंचन ॥ २९ ॥ 157) यथार्थतत्त्वं कथितं जिनेश्वरैः सुखावहं सर्वशरीरिणां सदा । निधाय कर्णे विहितार्थनिधयो नमष्यजीयो बितनोति दुर्मतिम् ॥ २० ॥ 158) विरागसर्वपदाम्बुजद्वये येतौ निरस्तालिलसंगसंगती । वृषे च हिंसारहिते महाफले करोति वर्ष जिनवाक्येभाषितः ॥ ३१ ॥ 1 उपागते सति नरः तदा परोपदेशन निसर्गेण व शशाङ्क निर्मलं तत् (सम्यग्दर्शनम् ) अश्रुते ॥ २६ ॥ भवे भ्रमत् जनः सर्वाः सुरेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रसंपदः सुखेन लभते । परम् अशेषदुःखक्षयकारणं पावनं दर्शनं न अभुते ॥ २७ ॥ यस्य जनस्य अनेकधर्मान्तितत्त्वसूचके जिनेन्द्रचन्द्रप्रतिपादिते मते विनिर्मला रुचिः अस्ति, समस्तबिष्टपे तस्य किं नो अस्ति । २८ H यो जीवः एक मुहूर्तम् अपि जनमतस्य रोषनं विधाय अथो विमुञ्चति सः अपि अनन्तकालं भवदुःखसंतति कथंचन न लभते ॥ २९ ॥ भव्यजीवः सर्वशरीरिणां सदा सुखावहं जिनेश्वरः कथितं यथार्थतत्त्वं कर्णे निधाय विहितार्थनिश्चयः सन्, दुर्मति न वितनोति ॥ ३० ॥ जिनवाक्यभावितः विरागसर्वज्ञपदाम्बुजद्वये निरस्ताखिलसंगसंगती यती महाफले हिसारहिते वृषे हर्षं करोति ॥ ३१ ॥ सदुचिः भकुरात्मना नारीजनचित्तसंततिम् अपि जयत्सु भवार्णवभ्रान्तिविधान i. आदिके निमित्तसे उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहा जाता है | || २६ ॥ प्राणी संसाररूप इनमें परिभ्रमण करता हुआ इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तीकी सत्र सम्पत्तियोंको तो सुखपूर्वक पा लेता है; परन्तु इस प्रकारसे व समस्त दुःखोंकों नष्ट करनेवाले पवित्र सम्यग्दर्शनको नहीं प्राप्त कर पाता है || २७ ॥ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा निरूपित जो मत अनेक धर्मात्मक वस्तुस्वरूपको प्रगट करता है उसके विषयमें जो जी निर्मल श्रद्धान करता है उसके पास इस समस्त लोकमें क्या नहीं है ? अर्थात् सब कुछ ही है ।। २८ ।। जो जीव एक मुहूर्त के लिये भी जैन मतके ऊपर श्रद्धा करके उसे छोड़ देता है वह भी किसी प्रकारसे अनन्त कालतक संसारदुखकी परम्पराको नहीं प्राप्त करता है । विशेषार्य इसका अभिप्राय यह है कि जिस जीवने एक अन्तर्मुहूर्त के लिये भी सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है वह अर्धपुद्गपरिवर्तन कालके भीतर अवश्य ही मुक्तिको प्राप्त कर लेता है। जहां कि वह अनन्त काल रहता है। किन्तु जिस अनादि मिध्यादृष्टि जीवको अभीतक एक वार भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है उसके संसार परिमणका अन्त नहीं है वह अनन्त काल तक भी संसारमें परिभ्रमण कर सकता है || २९ ॥ जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा गया धस्तुका यथार्थ स्वरूप सब प्राणियोंको निरन्तर सुख देनेवाला है। जो भव्य जीव उसको सुन कर पदार्थका निश्चय करता है उसकी दुर्बुद्धि (अविवेक) नष्ट हो जाती है ॥ ३० ॥ जिनवचनके ऊपर विश्वास करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव वीतराग सर्वज्ञ देवके दोनों चरणकमलों, समस्त परिग्रहके संयोगसे रहित निर्मन्थ गुरु और महान् फलदायक अहिंसारूप धर्मके विषय में हर्ष ( अनुराग ) को धारण करता है ॥ ३१ ॥ जो संसार, शरीर और भोग संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण करानेवाले हैं, तथा जो विनश्वर स्वभावसे स्त्रीजनकी चित्तपरम्पराको भी जीतते हैं अर्थात् स्त्रीजनके चित्त के समान चंचल हैं उनके विषयमें सम्यग्दृष्टि जीव विरागताको धारण करता है - उनसे विरक्त १ स भवे for परं । २ स२८ ॥ ३ स ७ स ३० ॥ ८ व्यहिता । ९ स ३१ ॥ तिष्टये, 'विष्टये, 'विष्टपो। ४ स २९ ॥ ५स जो । ६ संगतिं । १० स पतौ यतो । ११ स वाच्यभावितः । ३२ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सुभाषितसंदोहः 150) भवानभोगेष्वपि भङ्गरात्मनो जयस्तु नारीजनचितसंततिम् । भवार्णवश्रान्तिविधानहेतुषु विरागभावं विदधाति समुचिः ॥ ३२ ॥ 160) कलत्रपुत्रादिनिमित्ततः कचिद्विनिन्द्यरूपे विहिते ऽपि कर्मणि । व कृतं कर्म विनिन्दितं सतां मयेति भव्यश्वषितो विनिन्दति ॥ ३३ ॥ 161) गलन्ति दोषाः कथिताः कथंचन प्रतप्तलोहे पतितं यथा पयैः । न येषु तेषां वतिनां स्वदूषणं निवेदयत्यात्महितोद्यतो जनेः ॥ ३४ ॥" 102) निमित्ततो भूतमनर्थकारणं य यस्य कोपादिचतुष्टयं स्थितिम् । करोति रेखा पयसीय मामले स शैतभावो ऽस्ति विशुद्धदेशनः ॥ ३५ ॥" 163) विशुद्ध विधैतदूषणं करोति भर्कि गुरुपञ्चके थुते । श्रुतान्विते जैनगृहे जिनाकृती जिनेशतत्त्यैकरुचिः शरीरवान् ॥ ३६ ॥ " हेतुषु भवानभोगेषु विरागभावं विवधाति ॥ ३२ ॥ क्वचित् कलत्रपुत्रादिनिमित्ततः विनिन्द्यरूपे कर्मणि विहिते अपि मया सतां विनिन्दितम् इदं कर्म कृतम् इति भव्यः चकितः सन् विनिन्दति ॥ ३३ ॥ यथा प्रतलोहे पतिर्त पयः (तथा) कथिताः दोषाः कथंचन गलन्ति । आत्महितोद्यतो जनः येषु दूषणं न तेषां व्रतिनां स्वरूषण निवेदयति ॥ ३४ ॥ निमि ततः भूतम् अनर्थकारण कोपादिचतुष्टयं यस्य मानसे, पयसि रेखा इव स्थिति न करोति सः शान्तभाव विशुद्धवर्शनः अस्ति ॥ ३५ ॥ जिनेशतत्त्वैकरूचिः शरीरवान् विशुद्धभावेन विधूतदूषणं ( यथा स्यात् तथा ) गुरुपञ्चके, भूते श्रुतान्विते, जनगृहे, जिनकी भक्ति करोति ॥ ३६ ॥ गौः नवे वर्णके व सुदर्शनः निरस्तमिथ्यात्वमले अतिपादने जिनाभिते [ 159 : ७-३२ रहता है ॥ ३२ ॥ संसारके दुखसे भयभीत हुआ भव्य जीव ( सम्यग्दृष्टि ) यदि कदाचित् स्त्री और पुत्र आदिके निमित्तसे लोकनिन्द्य कार्य भी करता है तो वह ' मैंने यह सज्जनोंसे निन्दित खोटा कार्य किया है' इस प्रकार आत्मनिन्दा करता है ॥ विशेषार्थ - यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव जिनदेव और उनके द्वारा प्ररूपित पदार्थस्वरूपके विषय में पूर्णतया श्रद्धान करता है तथा वह संसार परिभ्रमण के दुखसे भयभीत भी रहता है तो भी चारित्र मोहमोहनीय (अप्रत्याख्यानावरण आदि) के वशीभूत होकर वह जब तब विषयजन्य सुखमें तथा निमित्त आरम्भादिमें भी प्रवृत्त होता है । परन्तु चूंकि वह हेयको हेय और उपादेयको उपादेय ही समझता है अत एक ऐसे कार्योंको करता हुआ भी बहू निरन्तर आत्मनिन्दा किया करता है। इसी कारण वह पापसे सन्तप्त नहीं होता है || २३ || जिस प्रकार अतिशय रूपे हुए छोके ऊपर गिरा हुआ पानी नष्ट हो जाता है उसी प्रकार गुरुसे कहे गये अपने दोष भी किसी न किसी प्रकारसे नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये आत्मकल्याण करनेमें उथत प्राणी जिन संयमी जनों में वह दूषण नहीं है उनसे अपने उस दोषको कहता है ॥ ३४ ॥ जिस जीव के मनमें अनर्थकी कारणभूत क्रोधादि कषायें किसी निमित्तके वश उत्पन्न हो करके भी जलमें की जानेवाली रेखाके समान स्थितिको नहीं करती हैं वह शान्त स्वभाववाला जीव निर्मल सम्यग्दृष्टि होता है। [अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जलमें की गई रेखा तत्काल ही नष्ट हो जाती है-स्थिर नहीं रहती है - उसी प्रकार निर्मल सम्यग्दृष्टि जीवके यदि कदाचित् किसी निमित्तविशेष को पाकर कषाय उत्पन्न होती भी है तो वह तत्कालही नष्ट हो जाती है-स्थिर नहीं रहती है ] ॥ ३५ ॥ जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्ररूपित तत्त्वमें असाधारण रुचि रखनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव विशुद्ध परिणामोंसे दोषोंको नष्ट करके पांचों परमेठी, श्रुत, श्रुतसे संयुक्त संयमी जन, जिनमन्दिर और जिनप्रतिमाके विषय में भक्ति करता है || ३६ || १ सरमन ८ सनयेषु । ९स १४ सदूषणां । १५ सभ्रांत ३ स सद्भुवि । ३३ ॥ ४ स इई तेजस । १०.स २५ ।। ११ स स्थितं जना । १६ स ३७ ॥ ५ स विनिंदितां । ६ स ३४ ॥ ७स परः पुन चतुष्टय स्थिति । १२ स सशान्तं । १३ स ३६ ।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 :७-४१] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापञ्चाशत् 164) चतुर्विधे धर्मिजने जिनाधिते निरस्तमिध्यात्वमले ऽतिपावने । करोति वात्सल्यमनर्थनाशनं सुदर्शनी गौरिव तर्णके नवे ॥ ३ ॥ 165) दुरन्तरोगोपैहतेषु संततं पुरार्जितनोवंशतः शरीरिषु । करोति सर्वेघु विशुद्धदर्शनो दयां परामस्तसमस्तदूषणः ॥ ३८", 166) विशुधमेवंगुणमस्ति दर्शन" जनस्य यस्ये? विमुक्तिकारणम् । प्रर्त बिनाप्युत्तममश्चितं सतां स" तीर्थकत्वं लभते तिणवनम् ॥ ३१॥ 107) दमो दया" ध्यानमहिसनं तपो जितेन्द्रियत्वं विनयो नयस्तथा । वदाति नो तरफलमङ्गधारिणां सदा सभ्यक्त्वमनिन्दितं घृतम् ॥४.", 168) वरं.निवासो नरके ऽपि देहिनां विशुद्धसम्यक्त्वविभूषितात्ममाम् । दुरस्त मिथ्यास्वषिषोपमोगिनां न देवलोके वसतिषिराजते ४ पसुविधे धमिजने अनर्थनाशनं वात्सल्यं करोति ।। ३७ ।। अस्तसमस्तदूषण: विशुद्धदर्शन : पुराजितनोवंशत: सर्वेषु दुरन्त रोगोपहतेषु शरीरिषु संततं परां दयां करोति ॥ ३८॥ यस्य जनस्य व्रतं विनापि एवंगुणं विमुक्तिकारणं विपुलं दनम् अस्ति सः उत्तम सुपावनं सताम् अञ्चितं तीर्थकृत्त्वं लभते ।। ३९॥ अत्र अङ्गधारिणां धृतम् अनिन्दितं सम्यक्त्वं यत्फलं ददाति तत्फलं दमः, दया, ध्यानम् , अहिंसनम् , तपः, जितेन्द्रियत्न, विनयः तथा नयः नो ददाति ॥४०॥ विनुवसम्यक्त्वविभूषितात्मनां देहिनां नरके अपि निवासः वरम् । दुरन्तमिथ्यात्वविषोपभोगिनां देवलोके वसतिः न विराजते ॥४१॥ जिस प्रकार गाय अपने नवीन बछड़ेसे प्रेम करती है उसी प्रकार शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वरूप मलको नष्ट करके जिन भगवान्की शरणमें आये हुए मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चार प्रकारके पवित्र धर्मात्मा जनके विश्यमें आपत्तियोंको नष्ट करनेवाले वात्सल्य (प्रेमभाव) को करता है। [ अभिप्राय यह कि सम्यग्दृष्टि जीव उपर्युक्त चतुर्विध संघमें ऐसा स्नेह करता है जैसे कि गाय अपने नवजात बलदेसे करती है ] ॥ ३७॥ समस्त दोषोंसे रहिते विशुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोपार्जित पापके वश होकर असाध्य रोगसे पीडित हुए समस्त प्राणियों में निरन्तर उत्कृष्ट दया को करता है ॥ ३८॥ यहां जिस जीवके पास बसके बिना भी इस प्रकारके उपर्युक्त गुणोंसे विभूषित एवं मुक्तिका कारणभूत निर्मल सम्यग्दर्शन है वह सननोंसे पूजित निर्मल उत्तम तीर्थंकर पदको प्राप्त करता है। विशेषार्थ-तीर्थकर प्रकृतिकी बन्धक जो दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनायें निर्दिष्ट की गई हैं उनमें मुख्य दर्शनविशुद्धि ही है। दर्शनविशुद्धिसे अभिप्राय यहां तीन मूढताओं एवं शंका-काक्षा आदि दोषोंसे रहित निर्मल सम्यग्दर्शनका है। इस प्रकारका सम्यग्दर्शन जिस जीवके होता है उसके इस दर्शनविशुद्धिके साथ शेष पन्द्रह भावनाओंमेंसे यदि एक दो भी रही तो भी तीर्यकर प्रकृतिका बन्ध हो जाता है (प. खं. पु. ८. पृ.९१)। इसके विपरीत यदि दर्शनत्रिशुद्धि नहीं है तो अन्य विनयसम्पन्नता आदि सभी ( पन्द्रह) भावनाओंके होनेपर वह तीर्थकर प्रकृति नहीं बंधती है। इसी कारणसे यहां विशुद्ध सम्यग्दर्शनको तीर्थंकर पदकी प्रासिका कारण बतलाया है।॥३९॥ धारण किया गया निर्मल सम्यग्दर्शन प्राणियों के लिये जिस अपूर्व फलको देता है उसको यहा दम (कषायविजय), दया, स्थान अहिंसा, तप, जितेन्द्रियता, विनय और न्यापनीति; ये सब नहीं दे सकते हैं ॥ ४०॥ अपनी आत्माको निर्मल सम्यग्दर्शनसे विभूषित करके प्राणियोंका नरकमें भी रहना अच्छा है, परन्तु कठिनतासे नष्ट होनेवाले सधर्म, वर्म। रस जनाश्रते।३ स सुदर्शना, 'नो, न । ४ स गोरित । ५ स वने। ६ स ३८ ॥ ७ स रागों। . ८ स पुराजिते नो वशता, पुराजिनेनौ । ९ स रांधेषु। १० सदूषणा, दूषणं । ११ स ३९ || १२ om. कि, विशुद्धिमेक । १३ स दूषणं । १४ स जस्येह। १५ स विना शुभ मसंचितै सतां, संचितं, 'मर्चित। १६ स सतीर्थ १७ समते पि। १८ स..॥ १९ स दयायनमस्सिने, दयाभ्यानमहिंसने। २० स ने, ने। २१ स भगि । २२ स४॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ सुभाषितसंदोहः [169:७-४६169) अधस्तनश्वभ्रभुवो न याति' पन सर्वनारीषु न सअितोऽन्यतः। न जायते व्यस्तरदेवमातिषु न भावनज्योतिषिकेषु सद्रुषिः ॥४२॥ 170) न बान्धवा नो सुहदो न घल्लभा न देहजा नो धनधान्यसंचयाः । तथा हिताः सन्ति शरीरिणां जने ययौन सम्यक्त्वमदूषितं हितम् ॥४॥ 171) तनोति धर्म विधुनोति पातक" ददाति सौम्य विधुनोति बाधकम् । ___ चिनोति मुक्ति विनिहन्ति संसर्ति जनस्य सम्यक्त्वमनिन्वितं धृतम् ॥४॥ 172) मनोहरं सौक्यकर शरीरिणां तदस्ति .लोके सकले न किंचन ।। यदा सम्यक्स्वधनस्य दुर्लभमिति प्रचिरपात्र भवन्तु तत्पराः ॥४६॥ 173) विहाय देवी गतिमर्षितां सतां ब्रजन्ति नाम्यत्र विशुखदर्शना । ततच्युताधधराविमानवा भवन्ति भव्या भवभीरयो" भुवि ॥४६॥ सद्रुचिः षड् अधस्तनश्वभ्रभुवः न याति । सर्वनारीषु न, संजितः अन्यत: न (याति) । व्यन्तरदेवनाति न जायते। भावनज्योतिषिकेषु न जायते ॥ ४२ ।। अब जने यथा अदूषितं सम्यक्त्वं शरीरिणां हितं तया न बान्धवाः,नो सुहृदः, न वक्षमाः, न देहजाः, नो धनधान्यसंचयाः हिताः सन्ति-।। ४३ ॥ धृतम् अनिन्दितं सम्यक्त्वं जनस्य धर्म तनोति, पातकं विधुनोति, सौख्यं ददाति, बाधकं विधुनोति, मुक्ति चिनोति, संसृति विनिहन्ति ।। ४४ ।। अत्र सकले लोके शरीरिणां मनोहरं सौम्यकर तत किंचन न अस्ति यत् सम्यक्पधनस्थ दुर्लभम् इति प्रचिन्त्य ग (मव्याः) तत्परा भवन्तु ॥ ४५ ॥ विशुददर्शना सताम् अचितां देवी गति विहाय अन्यत्र न वन्ति । ततः च्युताः भवभीरवः भव्या: भुवि चक्रधरादिमानवाः भवन्ति ॥४६॥ मिथ्यात्वरूप विषका उपभोग करते हुए स्वर्ग में भी रहना अच्छा नहीं है ॥ ११॥ सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथिवीको छोड़कर नीचेकी शेष छह पृषिवियोंमें, सब नियोंमें, संझीको छोड़कर अन्य असंही पर्यायमें तथा व्यन्तर, भवनवासी एवं ज्योतिषी देवजातियों में भी उत्पन्न नही होता है॥४२॥ कोकमें प्राणियोंका जैसा हितकारक निर्मल सम्यग्दर्शन है वैसे हितकारक न तो बान्धन (समान गोत्रवाले ) हैं, न मित्र हैं, न स्त्रियां हैं, न पुत्र हैं, और न धनसंचय है ॥ ४३ ॥ धारण किया गया निर्मल सम्यग्दर्शन मनुष्य के पापको नष्ट करके धर्मका विस्तार करता है, विबाधाओंको दूर करके सुखको देता है, तथा संसारको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त कराता है ।। ४४|| समस्तही लोको प्राणियों के लिये ऐसी कोई भी सुखकारक रमणीय वस्तु नहीं है जो कि यहाँ सम्यग्दर्शनरूप सम्पत्तिसे सहित जीवको दुर्लभ हो, ऐसा विचार करके भव्य जीव उस निर्मल सम्यग्दर्शनमें लीन होवें । [अभिप्राय यह कि प्राणीको जब इस निर्मल सम्यग्दर्शनसे ऐहिक और पारलौकिक सब प्रकारका ही सुख प्राप्त हो सकता है तब उसे उस निर्मल सम्यग्दर्शनको अवश्य धारण करना चाहिये] ॥ ४५ ॥ निर्मल सम्पादृष्टि जीव सज्जनोंद्वारा पूजित देवगतिको छोड़कर दूसरी किसी भी गतिमें नहीं जाते हैं। फिर वहासे युक्त होकर वे भव्य जीव संसारसे भयभीत होते हुए पृथिवीके ऊपर चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ मनुष्य उत्पन्न होते हैं। विशेषार्थ- इसका अभिप्राय यह है कि जिस भव्य जीवके सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके पूर्वमें किसी श्रीयुका बन्ध नहीं हुआ है उसके फिर एकमात्र देवायुका ही बन्ध होता है। परन्तु यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके पूर्वमें उसके किसी आयुका बन्ध हो चुका है तो फिर वह उस आयुके अनुसार ही किसी गतिमें जावेगा । जैसे-यदि उसके सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेके पूर्वमें नारक आयुका बन्ध हो चुका है तो वह नियमतः नरकगसिमें ही जावेगा । परन्तु वह ऊपरके श्लोक ४२ के अनुसार प्रथम नरकमें ही जावेगा, आगे नहीं । इसी प्रकार यदि उसके पूर्वमें तिर्यगायुका बन्ध हो चुका है, तो फिर वह सिंयंच गतिमें ही जावेगा, परन्तु जावेगा वह भोगभूमिज तिर्यचों में न कि कर्मभूमिज तिर्यचोंमें ॥ ४६॥ , स जाति। २ स सशितो, मंशितो। ३ स नतः, न्यल। ४ स भावनघोति । ५ स ४२ ६ सचिताः। ७स जथात्र, यथा हि। ८ सजनेः lor हितम्। ९.स ४४|| १० स पापक। 21 स वृतां १२ स४५|| १३ सकिं घना । १४४६॥ १५स देवीं। १६ स विशुद्धिदर्शनो, दर्शनां! १७ स तीरवो। १८ || Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17980-५२] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापञ्चाशत् 174) प्रमाणसिद्धाः कथिता जिनेशिना ग्ययोद्भवधौव्ययुताविमोहिना । समस्तभावा वितथा न वेति यः करोति शक्का स निहन्ति दर्शनम् ॥४॥ 175) सुरासुराणामथ चक्रधारिणां निरीक्ष्य लक्ष्मीममला मनोहराम् । अनेन शीलेन भवेन्ममेति यस्तनोति कारक्षा स धुनोति सदचिम् ॥४८॥ 176) मलेन दिग्धानवलोक्य संयताप्रपीढितान्या तपसा महीयसा। नरश्चिकित्सा विदधाति यः परा निहन्ति सम्यक्त्वमसावधेतनः ॥४९॥ 177) विलोक्य रौदॆवतिनो न्यालिङ्गिना प्रकुषतः कन्दफलाशमादिकम् । इमे ऽपि कर्मक्षयकारणवता विचिन्वतेर्सि' प्रतिहम्यते इधिः ।५॥ 178) कुदर्शनशानचरित्रचिजानिरस्ततस्वार्थरुचीनसंयतान् । निषेवमाणो मनसापि मानयो लुनाति सम्यक्त्वतई महाफलम् ॥ ५॥ I79) जिनेन्द्रचन्द्रामलभक्तिभाषिनी निरस्समिथ्यास्वमलेन वेहिना । प्रधार्यते येन विशुद्धदर्शममवाप्यते तेम विमुक्तिकामिनी ॥२॥ इति मिथ्यावसम्यक्रवनिरूपणापश्चाशत् ॥७॥ विमोहिना जिनेशिना कथिताः व्ययोद्भवप्रौव्ययुताः समस्तभावाः प्रमाणसिवाः। (ते) बितषा: न वा इति यः शर्श करोति स: दर्शनं निहन्ति ।। ४७ ॥ यः सुरासुराणाम् अथ पक्रधारिणाम् अमलां मनोहरां लक्ष्मी निरीक्ष्य अनेन शीलेन मम (सा) भवेत् इति कालांतनोति सः सनुचि धुनोति ।। ४८॥ यः नरः संयतान् मलेन दिग्धान् अबलोक्य वा महीयसा तपसा प्रपीडितान अवलोक्य परां चिकित्सा विदधाति असो अचेतनः सम्यक्त्वं निहन्ति ।। ४९॥ कन्दफलाशनादिकं प्रकवतः रौद्रवतिनः अन्यलिङ्गिनः विलोक्य इमे अपि कर्मक्षयकारणव्रताः इति विचिन्वता रुचिः प्रतिहल्यने ।। ५० ॥ कुदर्शमज्ञानचरित्रचित्तजान् निरस्वतत्वाधरुषीन् असंयतान् मनसा अपि निषेवमाण: मानवः महाफलं सम्यक्त्वतरूं। निरस्तमिथ्यात्वमलेन जिनेन्द्रचन्द्रामलभक्तिभाविना येन देहिना विशुद्धदर्शनं प्रधार्यते, तेन विमुक्तिकामिनी अवाप्यते ।।५२।। इति मिथ्यात्वसम्यस्त्वनिरूपणदापञ्चाशत् ।। ७ ।। वीतराग जिनेन्द्र देव के द्वारा जो प्रमाणसे सिद्ध एवं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त पदार्य कहे गये हैं वे असत्य है या सत्य, इस प्रकार की जो जीव शंका करता है वह अपने सम्यग्दर्शनको नष्ट करता है। इस प्रकारसे यहाँ सम्यग्दर्शनके 'शंका' दोषका निर्देश किया गया है ॥४७॥ देव, असुर और चक्रवर्तियोंकी मनोहर निर्मल लक्ष्मीको दोखकर इस रूपसे वह सम्पत्ति मेरे लिये प्राप्त हो; ऐसी जो इच्छा करता है वह कांक्षा दोषके कारण अपने सम्यादर्शनको नष्ट करता है॥१८॥ मलसे लिप्त अथवा महान तपसे अतिशय पीडाको प्राप्त हुए संयमी जनोंको देखकर जो मनुष्य अतिशय घृणाको करता है वह अज्ञानी अपने सम्यग्दर्शनको नष्ट करता है। विचिकित्सा दोषसे मलिन करता है ।। ४९ || जो कन्द एवं फलों-आदिको खाकर भयानक व्रतोंकापंचाग्मितप आदिका-आचरण करनेवाले कुलिंगियोंको देखकर 'ये भी कोंका क्षय करनेवाले व्रतोंके धारक है ऐसा विचार करता है वह अपने सम्यादर्शनको नष्ट करता है अन्यदृष्टिसंस्तव दोषसे दूषित करता है।॥५०॥ जिनका चित्त मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र रूप परिणामोंसे सहित व तत्वार्थप्रधानसे रहित है ऐसे (मिथ्यादृष्टि) असंयमी जनोंकी मनसे भी आराधना करनेवाला प्राणी महान् फलको देनेवाले अपने सम्यक्त्वरूप वृक्षको काटता है-अन्यदृष्टिप्रशंसा दोषसे कालषित करता है ॥५१॥ मिथ्यात्वरूप मलको नष्ट करके जिनेन्द्ररूप चन्द्र के प्रति निर्मल भक्तिसे युक्त हुआ जो प्राणी विशुद्ध सम्पादर्शनको धारण करता है वह मुक्तिरूप स्त्रीको प्रास करता है ।। ५२॥ इस प्रकार बाक्न श्लोकोंमें मिथ्यात्व व सम्यक्त्वका निरूपण हुआ।॥७॥ 1स न्ययोज्जव। २ स युता विमोहितः । ३ स वेत्ति । ४ स ४८ || ५, स निरीक्ष, निरीक्ष्य। ६ स om. || ७ स ४९॥ ८ स दग्धा', दिग्धावन । ९स५.|| १० स "लिंगिनो, व्रतं | 11 स "तिप्रति । १२ स ५ ॥ १३ स चित्रजा, चित्रजान, निद्रजा। 1४स समक्त। १५ स ५२॥ १६ स "भावितास "कामिनी । 1८ स ५.३ ॥ १९ स om. इति, तृपंचाशत्, त्रि, इति सदसत्स्वरूपनिरूपणम् । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८. ज्ञाननिरूपणात्रिंशत् ] 180 ) अनेकपर्यायगुणैरुपेतं विलोक्यते येन समस्ततत्यम् । तदिन्द्रियानिन्द्रियमेदमिनं ज्ञानं जिनेन्द्रैर्गदितं हिताय ॥ १ ॥ 181) रत्नत्रयीं रक्षति येनै जीवो विरज्यते ऽत्यन्तशरीरसौष्यात् । रुद्धि पापं कुरुते विशुद्धिं ज्ञानं तदिष्टं सकलार्थविद्भिः ॥ २ ॥ 182) को धुनीते विदधाति शान्ति तनोति मैत्री विहिनस्ति मोहम् । पुनाति चित्तं मदनं लुनीते येनेह बोधं समुशन्ति सन्तः ॥ ३ ॥ 183) ज्ञानेन बोधं कुरुते परेषां कीर्तिस्तान्द्र मरीचिगौरी | ततो ऽनुरागः सकले ऽपि लोके ततः फलं तस्य मनोनुकूलम् ॥ ४ ॥ 184) शानादितं वेत्ति ततः प्रवृत्ती रक्षत्रये संचितकर्ममोक्षः । ततस्ततः सौख्यम्बाधर्मुस्तेनात्र यत्नं विदधाति दक्षः ॥ ५ ॥ ये अनेक पर्यायगुणैः उपेतं समस्ततत्त्वं विलोक्यते तत् इन्द्रियानिन्द्रियमेदमित्रं ज्ञानं जिनेन्द्रैः हिताय गदितम् ॥ १ ॥ येन जीवः रत्नत्रयीं रक्षति, अत्यन्तशरीरसौख्यात् विरज्यते पापं रुणद्धि, विशुद्धि कुरुते तत् ज्ञानं सकलार्थविद्भिः इष्टम् || २ || (भष्यः ) येन इह क्रोधं धुनीते, शान्ति विधाति, मंत्री तनोति, मोहं विहिनस्ति चित्तं पुनाति मदन लुनीते, सन्तः तं बोधम् उशन्ति ॥ ३ ॥ ( भव्यः ) ज्ञानेन परेषां बोर्ष कुरुते । ततः चन्द्रमरीचिगौरी कीर्तिः, ततः सकले अपि लोके अनुराग ततः तस्य मनोनुकूलं फलम् ॥ ४ ॥ दक्षः शानात् हितं वेति । ततः रत्नश्ये प्रवृत्तिः । ततः संचितकर्ममोकः । ततः अबाधम् उच्चैः सौख्यम् । तेन अत्र यत्नं विवधाति ॥ ५ ॥ अंज्ञजीवंः भवकोटिलक्षेरुः तपोभिः यत् कर्म विधुनोतिः जो अनेक गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त समस्त तत्त्वको देखता जानता है वह ज्ञान कहा जाता है। वह इन्द्रिय और अनिन्द्रियके भेदसे दो प्रकारका अथवा छह प्रकारका है। जिनेन्द्र देवने उसे प्राणियोंका हित करनेवाला बतलाया है ॥ १ ॥ जीव जिस गुणके द्वारा शारीरिक सुखसे अतिशय विरक्त होकर रत्नत्रयकी रक्षा करता है तथा पापको रोककर आत्मविशुद्धिको करता है वह समस्त पदार्थों के जानकार सर्वदर्शियोंके लिये ज्ञान अभीष्ट है। विशेषार्थ - जब तक प्राणी के ज्ञान ( हिताहितविवेक ) नहीं होता है तब तक वह शारीरिक सुखको ही यथार्थ सुख समझकर उसकी पूर्ति के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है और पापका संचय करता है । परन्तु जब उसे वह सुबोध प्राप्त हो जाता है तब वह उस सुखको परिणाममें दुखकारक समझ करके उससे विरक्त हो जाता और यथार्थ सुखके कारणभूत रत्नत्रयमें अनुराग करने लगता है। इस प्रकारसे उत्तरोत्तर विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ वह अन्तमें शाश्वतिक सुखको भी प्राप्त कर लेता है। यह सब माहात्म्य उस ज्ञानका ही है || २ || जिसके द्वारा प्राणी क्रोधको नष्ट करता है, शान्तिको उत्पन्न करता है, मित्रताको विस्तारता है, मोहका घात करता है, चित्तको पवित्र करता है, तथा कामको खण्डित करता है उसे साधुजन ज्ञान कहते हैं ॥ ३ ॥ ज्ञानी जीव ज्ञानके द्वारा दूसरों को प्रबुद्ध करता है। इससे उसकी समस्त लोकमें चन्द्रकिरणोंके समान are कीर्ति फैलती है। उससे समस्त लोक में अनुराग होता है अर्थात कीर्तिके फैलनेसे सब प्राणी उसके विषयमें अनुराग करने लगते हैं। और इससे उसे इच्छित फल प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ प्राणी ज्ञानसे अपने हितको जानता है। उससे उसकी रत्नत्रयमें प्रवृत्ति होती है, उससे संचित कर्मका क्षय होता है, और उससे निर्बाध महान सुख प्राप्त होता है । इसीलिये चतुर पुरुष इस ज्ञानके विषय में प्रयत्न करता है ॥ ५ ॥ 1 १ये रयति । २ स जेन । ३ स विराज्यते । ४ सवद्भिः । ५ स बोधः ६ स मनो ऽनुकूलम् | ७ समु, मु, मुध्त्र । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 189: ८-१० ८. ज्ञाननिरूपणात्रिंशत् 185) यवज्ञजीवो विधुनोति कर्म तपोभिचप्रे में 'वकोटिलक्षं । ज्ञानी तु चेकक्षणतो हिनस्ति तदत्र कर्मेति जिना वदन्ति ॥ ६ ॥ 186) 'चौरादिदापातनूजभूपेरहार्यमयं सकले ऽपि लोके । धनं परेषां नयनैरश्यं ज्ञानं नरा "अन्यतमा वहन्ति ॥ ७ ॥ 187 ) विनश्वरं पापसमृद्धिवक्षं विपाकःखं बुधनिन्दनीयम्' । ० सदन्यथाभूतगुणेन तुल्यं' ज्ञानेन राज्यं न कदाचिदस्ति ॥ ८ ॥ 188) पूज्यं स्वदेश भवतीह राज्यं ज्ञानं त्रिलोके ऽपि सदर्चनीयम् । ज्ञानं विवेकाय मदाय राज्यं ततो न से सुरुयगुणे भवेताम् ॥ ९ ॥ 189) तमो धुनीते कुरुते प्रकाशं शर्म विधते विनिहन्ति कोपम् । सनोति धर्म विषुनोति पापं ज्ञानं न कि कि कुवते नराणाम् ॥ १० ॥ ४९ तत् तु कर्म अत्र ज्ञानी व एकक्षणतः हिनस्ति इति जिनाः वदन्ति ॥ ६ ॥ धन्यतमाः नराः चौरादिदायादतनूजभूपैः अहायं, सकले ऽपि लोके अच्छे परेषां नयनैः अदृष्यं ज्ञानम् (एव) धनं वहन्ति ॥ ७ ॥ विनश्वरं पापसमृद्धिदक्षं विपाकदुःखं बुधनिन्दनीयं राज्यं तदन्यथाभूतगुणेन ज्ञानेन तुल्यं कदाचित् न अस्ति ॥ ८ ॥ इह स्वदेशे राज्यं पूज्यं भवति । त्रिलोकेऽपि ज्ञानं सदनीयम् । ज्ञानं विवेकाय, राज्यं मदाय (भवति) । ततः ते तुल्यगुणे न भवेताम् ॥ ९ ॥ ज्ञानं नराणा (विषये) किं कि न कुरुते । तमः श्रुनी । प्रकाशं कुरुते । शमं विषते । कोपं विनिहन्ति । धर्मं तनोति पापं विषुनोति ॥ १० ॥ जीवः जिन भगवानने कहा है कि अज्ञानी जीव लाखों करोड़ो भव तक कठोर तप करके जितने कर्मकी निर्जरा करता है, ज्ञानी उतने कर्मकी निर्जरा एक क्षण में ही कर देता है ।। ६ ।। इस ज्ञानरूपी धनको चोर डाकू चुरा नहीं सकते, भागीदार कुटुम्बी पुत्र आदि बांट नहीं सकते, राजा हर नहीं सकता, तीनों लोकों में यह ज्ञान पूज्य है । दूसरे लोग इस ज्ञानरूपी घनको अपनी आँखोंसे देख नहीं सकते। ऐसे ज्ञानरूपी धनको संसारके श्रेष्ठतम भाग्यशाली पुरुष ही धारण करते हैं। भावार्थ-धनको तो चोर चुरा सकता है पुत्रादि बाँट सकते हैं, राजा हर सकता है, पड़ोसी देखकर डाह करते हैं । किन्तु ज्ञानरूपी घन ही ऐसा धन है जिसे न कोई चुरा सकता है न बांट सकता है, न हर सकता है। जिनके पास यह शानरूपी धन है वे ही धन्य हैं ॥ ७ ॥ राज्य भी ज्ञानको समानता नहीं कर सकता। क्योंकि राज्य विनश्वर है एक दिन अवश्य नष्ट हो जाता है । किन्तु ज्ञान अविनाशी है वह आत्माका गुण है। राज्य पापको बढ़ाने वाला है किन्तु ज्ञानसे पापका नाश होता है । राज्यका फल अन्त में दुःख हो है, शत्रुओंको चिन्ता सदा सताती रहती है । किन्तु ज्ञानका फल मोक्ष सुख है । राज्यकी पण्डितजन निन्दा करते हैं किन्तु ज्ञानको प्रशंसा करते हैं। इस तरह राज्यसे ज्ञान और ज्ञानले राज्य विपरीत गुणवाला होने से कभी भी राज्य ज्ञानकी बराबरी नहीं कर सकता | ८ || इस संसारमें राज्य या राजाकी पूजा केवल अपने राज्यमें ही होती है और वह तभी तक होती है जब तक राज्य रहता । किन्तु ज्ञानकी पूजा तीनों लोकोंमें सदा होती है। ज्ञान हित अहित, हेय उपादेय आदिवा विवेक कराता ह किन्तु राज्य मद पैदा करता है। अतः ज्ञान और राज्य समान गुणवाले कैसे हो सकते हैं ॥। ९ ॥ ज्ञान मनुष्यों के लिये क्या क्या नहीं करता । वह अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करता है । आत्मामें स्वानुभूतिरूप प्रकाशको उद्भूत करता है । परिणामोंमें शान्ति लाता है, कोषका विनाश करता है, धर्मभावको विस्तारता है और १ स नवकोटि । २ स ज्ञानी हि । ३ स चोरादि । ४ स धने । ५ स वान्य ६ स निन्दनीयां । ७ स तदन्यथा भूत ८ स तुल्यः । ९ स स्वदेहे । १० स रायं । ११ भने । सु. मं. ७ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सुभाषितसंदोहः [ 190 : ८-११ 190) यथा यथा ज्ञानवलेन जीवो जानाति तत्वं जिननायदृष्टम् । तथा तथा धर्ममतिः' प्रास्ता प्रमायते पापविनाशशक्ता ॥११॥ 191) आस्तो महाबोषबलेन साप्यो मोक्षो विवाषामलोल्ययुक्तः।। धर्मार्थकामा अपि नो भवन्ति ज्ञानं बिना तेल तवचनीयम् ॥१२॥ 192) सर्वे ऽपि लोके विषपो हितार्था ज्ञानावृते नेव भवन्ति जातु। अनारमनीयं परिहतुकामास्तदपिनो शानमतः पयन्ति ॥१॥ 193) शक्यो विजेतुं न मनःकरोन्द्रो गन्तुं प्रवृत्तः प्रविहाय मार्गम्। ज्ञानाकुशेनात्र विना मनुष्यविनाशं मत्तमहाकरीव ॥ १४ ॥ शानबलेन यथा यथा जिननापदृष्ट तत्त्वं जानाति तपा तपा (तस्य) पापविनाशभक्ता प्रशस्ता धर्ममतिः प्रजायते ।। ११ ॥ महाघोषवलेन साध्यः बिबाषामलसोमययुक्तः मोक्षः (सावत) आस्ताम् । धर्यिकामाः अपि ज्ञानं विना नो भवन्ति । तेन तत् अपनीयम् ॥ १२ ।। लोके जातु सर्व ऽपि विधयः कानाइते हिताः नैव भवन्ति । मतः तदथिन अनारमनीयं परिह - कामाः शान श्रर्यान्त ।। १३ ॥ मत्तमहाकरी अशं विना इव मनुष्यैः अत्र मान प्रविहाय गन्तुं प्रवृत्तः मनः करीन्द्रः जाना पापोंका विनाश करता है ॥ १० ॥ जैसे जैसे शानके रलसे यह जीच जिनेन्द्रदेयके द्वारा केवलशानरूपी लोचनों से देखे हुए जीव अजीव आदि तत्त्वोंको जानता है वैसे वैसे उसकी धार्मिक बुद्धि प्रशस्त होती जाती है, जो समस्त पापोंका विनाश करने में समर्थ है। अर्थात् ज्ञानके द्वारा तत्त्वोंको जान लेनेसे धार्मिक भावनामें दृढ़ता और निर्मलसा आती है और उससे पापोंका विनाश होता है ॥ ११ ॥ महाबोष अर्थात् केवलज्ञानके बलसे ही प्राप्त होनेवाले अव्याबाष अर्थात् बाधारहित और अमल अर्थात् कर्ममलसे रहित शाश्वत सुखके भण्डार मोक्ष की बात जाने दो। मानके बिना तो धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थ भी नहीं हो सकते । अतः शान पूज्य है। भावार्थ-चार पुरुषार्थों में से सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ मोक्ष है। वह मोक्ष स्थायी सुखका भण्डार है और वह केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही प्राप्त होता है। किन्तु मोक्ष जनसाधारणके लिये बद्दश्य है उसे वे देख नहीं सकते अतः उसके प्रति उनकी श्रद्धा होना भी कठिन ही है। अतः शानसे मोक्ष सुख मिलता है ऐसा कहने पर लोग ज्ञानके प्रति अनादर व्यक्त कर सकते हैं, इसलिये ग्रन्यकार मोक्षको बात दूर रखकर कहते हैं कि लोग जिन धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थके प्रति लालायित रहते है वे भी ज्ञानके बिना दुर्लभ हैं। बिना ज्ञानके न धर्माचरण किया जा सकता है, न धन कमाया जा सकता है और न सुख भोगा जा सकता है ॥ १२॥ इस संसार में जितने भी विधि विधान हैं वे सब ज्ञानके बिना कभी भी कल्याणकारी नहीं होते। अर्थात् समक्ष बूझकर करने पर हो वे सब व्यवहार हितकारी होते हैं। इसीलिये अपने अहितसे बचनेके इच्छुक और हिसके अभिलाषी पुरुष ज्ञानका ही आश्रय लेते हैं ॥ १३ ॥ जैसे मदोन्मत्त हाथी अंकुशके बिना वशमें नहीं होता। वैसे ही मनरूपी मदमत्त हायो जब सुमार्गको छोड़कर कुमार्गमें जाने लगता है तो मनुष्य ज्ञानरूपी अंकुशके बिना उसे वशमें नहीं कर सकते । अर्थात् मनुष्योंका मन मदमस्त हाथोके समान उम्छुसल है । जब वह कुमार्गमें जाता है तो उसे शानके बलसे ही रोका जा सकता है। दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ १४ ॥ ज्ञान मनुष्यका तीसरा नेत्र है जो समस्त तत्त्वों और पदार्थोको देखने में समर्थ है। उसे किसी अन्य प्रकाशकी अपेक्षा नहीं है और वह बिना १स मति । २१ प्रशक्ताः, प्रसक्ताः शमस्ता। ३ स शफ्ताः । ४ स महावाप । ५ स सांधोोनो। ६ स विधियो यथा । ७स भवतु 1८ समनः करीन्द्रो। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 : ८-१९] ८. जाननिरूपणाविशत् 194) ज्ञानं तृतीयं पुरुषस्प नेत्रं समस्ततत्त्वाविलोकवनम् । तेजो ऽनपेक्ष विगतान्तरायं प्रवृत्तिमस्सबंजगत्त्रये ऽपि ॥ १५ ॥ 195) निःशेषलोकव्यवहारवक्षो ज्ञानेन मयों महनीयकोतिः।। सेव्यः सतां संतमसेन होतो विमुक्तिकृत्यं प्रति बदचित्तः ॥१६॥ 196) धर्मार्थकामव्यवहारशूग्यो "विनष्टनिःशेषविचारसुतिः। रात्रिदिवं भक्षण सक्तचित्तो शानेन होनः पधुरेव शुवः॥१७॥ 197) तपोवया दानयमक्षमाधाः सर्वे ऽपि पुंसां महिमा गुणा ये। भवन्ति सोल्याय न ते अनस्य ज्ञान विना तेन तदेषु पूज्यम् ॥१८॥ 198) ज्ञानं विना नात्यहितानिवृत्तिस्ततः प्रवृत्तिन हिते जनानाम् । ततो न पूजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभते ऽयभीष्टम् ॥१९॥ हुशेन विना बिजेतुं न शक्यः ॥ १४ ॥ समस्ततत्वार्यविलोकदक्षं, तेजोऽनपेक्षं, विगतान्तराय, सर्वजगत्यये ऽपि प्रवृत्तिमत् शार्न पुरुषस्य तृतीयं नेयम् ।। १५ ।। मर्मः, शानेन निःशेषलोफव्यवहारदक्षः, महनीयकोतिः, संतमसेन होन:, विमुषितकृत्यं प्रति बद्धचित्तः, सतां सेव्यः (भवति) ॥ १६ ॥ ज्ञानेन होनः (मनुजः) धर्मार्थकामध्यबहारशून्यः, विनष्टनिःशेषविचारपुद्धिः, रात्रिदिवं भक्षणसक्तचितः शुबः पशुः एव ।। १७ ।। ये पुंसां तपोदयाशनयमक्षमाचाः सर्वेऽपि महिमाः गुणाः, ते जाने विना जनस्य सौख्याय न भवन्ति । तेन एष (गुणेषु) तत् (ज्ञान) पूज्यम् ॥ १८ शान दिना जनानाम् अहितात, । किसी प्रकारको रुकावटके तीनों लोकोंमें सर्वत्र गतिशील है । भावार्थ-मनुष्यके दो नेत्र होते हैं किन्तु वे समस्त पदार्थोको जाननेमें समर्थ नहीं हैं बौर न वे सर्वलोकको ही देख सकते हैं। उनके सन्मुख जो स्थिर स्थूल | पदार्थ आता है मात्र उसको ही देख सकते हैं। यह भी प्रकाश होने पर ही देख सकते हैं। किन्तु ज्ञानरूपी नेत्र । उन दोनोंसे विलक्षण है। वह विना प्रकाशके ही सर्वत्र सबको जान सकता है ॥ १५ ॥ ज्ञानके द्वारा मनुष्य समस्त लोक व्यवहार में प्रवीण हो जाता है। उसका यश विश्वमें फैल जाता है। सज्जन भी उसकी सेवा करते हैं। वे उसके पास ज्ञानार्जनके लिये आते हैं। वह अज्ञानरूपी अन्धकारसे रहित होता है तथा मुक्तिरूपी कार्यको सम्पादन करने में अपने चित्तको दृढ़तापूर्वक लगाता है ॥ १६ ॥ किन्तु जो शानसे शून्य होता है वह कोरा पशु ही होता है; क्योंकि जैसे पशु धर्म अर्थ और काम पुरुषार्य सम्बन्धी व्यवहारोंको नहीं जानता। वैसे ही वह भी उनसे अनभिज्ञ रहता है । उनके विषयमें यथेच्छ प्रवृत्ति करता है। पशुके समान ही उसकी समस्त विचारशील बुद्धि नष्ट हो जाती है। और वह रात दिन पशु की तरह हो खाने पीनेमें लगा रहता है । उसे भक्ष्य अभक्ष्यका विवेक नहीं रहता ॥ १७ ॥ इस संसारमें तप-वस-दयान्दान-प्रशम-क्षमा प्रभृति पुरुषके जो मुख्य गुण है, जिनके धारण करनेसे जोवको शाश्वत सुखकी प्राप्ति होती है वे सब ज्ञानकी सहायतासे ही सुखदायी होते है । जानपूर्वक किये गये व्रत-तप मुक्तिके कारण हो सकते है । विना ज्ञानके वे सुख प्राप्तिके कारण नहीं हो सकते है। इसलिये उन सब मुख्य गुणोंमें मी एक ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ मुख्य गुण है !। १८ ॥ ज्ञानके विना मनुष्यको अहितरूप पाप क्रियाओंसे निवृत्ति नहीं होती और आत्महित कार्यों में प्रवृत्ति नहीं होती। हित कार्यमें प्रवृत्ति न होनेसे पूर्व संचित कोका नाश भी नहीं हो सकता । संसार दुःखका नाश हुये विना सब जीवोंका अंतिम अभीष्ट जो शाश्वत् सुख, वह भी उनको प्राप्त नहीं हो सकता। विशेषार्थ-ज्ञानी जीव ज्ञानके १ स दक्ष्यं, बिलोकक्ष। २ सपेश्यं । ३ स विमुक्त । ४ स प्रतिबद्ध । ५ स विनिष्ट। ६ सशक्त । ७ स दानश्रमसनवद्धिः। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [ 199 : ८-२० 199) क्षेत्रे प्रकाशं नियतं करोति रविधिने स्तं पुनरेव रात्री। ज्ञानं त्रिलोके सकले प्रकाशं करोति नाच्छावनमस्ति किंचित् ॥ २० ॥ 200) भवार्णवोत्तारणपूतनावं निःशेषदुःखेन्षनवावलिम् । दशानभम न करोति येन ज्ञानं तविष्टं न लिनेमचन्द्रः ॥ २१ ॥ 201) गम्तुं समुल्लय भवाटबों यो शानं विना मुक्तिपुरों समिन्छेत् । सोज्यो जयकारेषु विलाध्य दुर्ग वनं पुरं प्राप्तुमना विधनुः ॥२२ ।। 202) ज्ञानेन पुंसा सककार्यसिविर्शानाहते काचन मार्षसिविः। . शामस्य मवेति गुणाम् कवाधिमान र मुम्बन्ति महानुभाषाः ॥ २३ ॥ निवृत्तिः न अस्ति । ततः हिते प्रवृत्तिः । ततः पूजितकर्मनावः न । ततः अभीष्टं सौश्यम् अपि न लभते ॥ १९ ॥ रविः दिने क्षेत्रे नियतं प्रकाशं करोति । पुनः रात्री बस्सम् एव करोति । ज्ञानं सकले त्रिलोके प्रकाशं करोति । (तस्य) पाच्छादनं किंचित् अस्ति ॥ २० ।। येन भवाणवोसारणपूतनावं निःशेषदुःलेन्धनवावहिं दशाङ्गधर्म न करोति, तत् जान जिनेन्द्रचन्द्र ने इष्टम् ॥ २१ ॥ यः शानं विना मवाटवी समुल्लष्य मुक्तिपुरों गन्तुं समिन्छेत्, सः अन्धकारेषु दुर्गं वनं विलय पुरं प्राप्तुमना: विचक्षुः बन्धः (एव) ॥ २२ ॥ पुंसां जानेन सकलार्वसिद्धिः । ज्ञानादृते काचन अर्थसिद्धिः न । इति ज्ञानस्य गुणान् मत्वा महानुभावाः कदाचित् शान न मुम्वन्ति ॥ २३ ॥ उग्रदोषं विषं भक्षित्रं परम् । अतिरोने बलसे ही अशुभसे निवृत्ति कर शुभमें प्रवृत्ति करता है। जानसे ही उसके पूर्वोपार्जित कोका नाश होकर शाश्वत सुख मिलता है ॥ १९ ॥ सूर्य तो केवल दिनमें ही अपने नियत क्षेत्रमें नियत परिमिप्त प्रकाश ही करता है। रात्रिमें अस्तको प्राप्त होता है। मेघोंके आच्छादनसे उसका प्रकाश रुक जाता है। परन्तु ज्ञानका प्रकाश संपूर्ण तीन लोकमें और अलोकमें भी, तया भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों कालोंमें सदा सर्वदा दिन-रात बिना रोक-टोक होता है। इसलिये ज्ञानका प्रकाश सूर्य प्रकाशसे भी अधिक है ॥ २० ॥ जानका फल क्षमा. दिक दशधोका पालन करना है। दशधौका पालन संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये पवित्र नावके समान है। अथवा संपूर्ण दुःख रूपी इंघनको मस्मसात् करर्नेवाले दावानलके समान है। अर्थात् जो दशधर्मोका पालन करता है वही संसार समुद्रसे पार हो सकता है। और संसारके समस्त दुःखोंसे मुक्त होता है। परन्तु जो शानी होकर भी दशधोका पालन नहीं करते उनके ज्ञानको सर्वस देवने ज्ञान ही नहीं कहा है। विशेषायं"हतं ज्ञानं क्रियाहीन" जो ज्ञान क्रियाशील नहीं है वह जान सच्चा ज्ञान हो नहीं है । क्रियाशून्य मान-चारित्र रहित शान सम्यग्ज्ञान नहीं है । ज्ञानका फल अहितसे निवृत्ति और हिसमें-धर्ममें प्रवृत्ति करना है। जो शान धर्ममें प्रवृत्त नहीं वह शान फलदायक न होनेसे वास्तव में प्रान नहीं कहा जाता ॥ २१ ॥ जो पुरुष मानके बिना इस संसाररूपी पृथ्वीको पार करके मुक्तिपुरीको जाना चाहता है वह आंखोंसे हीन अन्धा पुरुष गहन अन्धकारमें गहन वनको पार करके नगरको जाना चाहता है। अर्थात् जैसे अन्धे मनुष्यका रात्रिके घोर अन्धकारमें गहन वनको पार करके नगरमें पहुंचना संभव नहीं है वैसे ही प्रानके बिना संसाररूप गहन वनको पार करके मोक्ष प्राप्त करना संभव नहीं है ।। २२ ॥ इस संसारमें समस्त पुरुषोंको ज्ञानसे ही समस्त प्रयोजनोंकी सिद्धि होती है । ज्ञानके बिना केवल क्रियाकांडसे किंचित मात्र भी इष्ट सिद्धि नहीं होती। इस प्रकार मानका महत्त्व जानकर अपना हित चाहने वाले संत पुरुष ज्ञानको कभी भी छोड़ते नहीं। सदैव ज्ञानके उपार्जनमें लगे १स नियति । २ स सकल । ३ स विचाषुः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 : ८-२८] ८. ज्ञाननिरूपणात्रिंशत् 203) वरं विर्ष भक्षितमुग्रदोवं वरं प्रविष्ट ज्वलने तिरौ। वरं कृतान्ताय निवेदितं स्वं न जीवितं तत्वविवेकामुक्तम् ॥ २४ ॥ 204) 'शौनक्षमासत्यतपोवमाछा गुणाः समस्ताः भवतश्वसन्ति। ज्ञानेन होनस्य नरस्य लोके वारपाहता पातरपि मूछाद ॥ २५ ॥ 205) माता पिता बन्यजनः कम पुत्रः सुहर भूमिपतिश्च तुष्टः। न तत्सुखं कर्तुमलं नरानां ज्ञानं यदेव स्पितमस्तकोषम् ॥ २६॥ 206) शक्यो पशोकसुमिमो ऽतिमत्तः सिंहः फलोगः कुफ्तिो नरेनः। ज्ञानेन होनो न पुनः कर्मचिविस्यस्म पूरेण भवन्ति सन्तः ॥२७॥ 207) करोति संसारशरीरभोगविरागभावं विदधाति रागम् । शीलवतध्यान तपःकृपासुशानी विमोक्षाय कुस'प्रयासः ॥ २८॥ ज्वाने प्रविष्टं परम् । कृतान्ताय स्वं निवेदितं परम् । तत्त्वविवेकमुक्तं जीवितं न (वरम्) ।। २४ ।। वास्याहताः तरक: मुलात वा लोके ज्ञानेन होनस्य नरस्य शौचक्षमासस्यतपोदमाणः समस्ताः अपि गणाः क्षणतः फलन्ति ॥ २५ ॥ अस्तवोपं स्षितं ज्ञानं नराणां यदेव सुखं कर्तुम अलम, तत सुखं माता, पिता, बन्जनः करून, पत्रः, महत, तुष्टः भमि R विलम १२६।। अतिमतः इभः, सिंहः, फणीन्द्रः, पितः मरेन पीकतुं शस्यः । पुनः शानेन हीनः (नर)कषित् म। इति सन्तः अस्य दूरेण भवन्ति ॥ २७ ॥ मानी विमोक्षाय स्वप्रयासः (सन्) संसारगारीरभोगविरागमावं करोति । रहते हैं ॥ २३ !। ज्ञान प्राप्तिके लिये कितने भी संकट आये, कदाचित् भयंकर हालाहरू विष खानेका भी प्रसंग आवे तो अच्छा, अथवा भयंकर अतिरुद्ध अटवीमें प्रवेश करनेका मी प्रसंग आवे तो अच्छा, अग्निमें जलकर भस्मसात हो जाना अच्छा, अथवा अन्त में अन्य भी किसी कारणसे यमराजको गोदमें चला जाना अच्छा । परंतु सत्त्व शानसे रहित होकर जीना इस संसारमें अच्छा नहीं है। ज्ञानहोन जीवन इन भयंकर दुःखोंसे भी महान दुःख है ॥ २४ ॥ जिस प्रकार आँधीके वेगसे वृक्ष मूलसे उखड़ कर गिर पड़ते है, उसी प्रकार जो पुरुष शानसे हीन होते है, अज्ञानमय जीवन जीते हैं उनके शुचिता-पवित्रता-समा-सत्य-तप-संयम इत्यादि समस्त गुण क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं । विशेषार्थ-अज्ञानी जीव प्रसंग आने पर क्षमादि गुणोंसे च्युत होते हैं। परंतु जानी कितना भी संकट आने पर भी गुणोंसे ध्युत नहीं होते। दृढ़ प्रतिज्ञ होकर गुणोंका पालन करते हैं ॥ २५ ।। इस जीवको निर्दोष पवित्र शान जो सुख देता है वह सुख संतुष्ट हुये माता-पिता-बन्धुजन, स्त्री-पुत्र-भित्र तथा प्रसन्न हुआ राणा भी नहीं दे सकता। विशेषार्ष-माता-पिता आदि कौटुबिक जन स्वार्थ वश भौतिक पदार्थ ऐश्वर्य देकर सुख देने वाले प्रतीत होते हैं 1 परंतु वह सुख सच्चा सुख नहीं है । अंतमें उसका कटु फल दुःख हो । प्राप्त होता है। परंतु भान ऐसा सुख देता है जो कि कभी भी नष्ट न होकर दिन दूना बढ़ता ही जाता है ॥ २६ ॥ लोक मदोन्मत्त हाथीको अंकुशके सहायसे वशमें ला सकते हैं, कुपित सिंह, सर्प या राजाको भो किसी प्रकार शांत कर सकते हैं। परंतु ज्ञानसे-विवेकसे होन पुरुषको किसी भी प्रकारसे सुमार्ग पर लाना महान कठिन है। इसलिये संत लोक ज्ञानसे कभी दूर नहीं रहते । ज्ञानके उपार्जनसे कभी भी अपना मुंह नहीं मोड़ते । सदैव शानमें तत्पर रहते हैं ।। २७ ।। जो ज्ञानी होते हैं वे सदैव संसार-शरीर-भोगोंसे सहज उदासीन रहते हैं। विषय वासनाओंमें कभी फसते नहीं । सदा विरक्त रहते हैं। और शील-वत-ध्यान-तप-दया आदिका पालन करने में अनुराग रखते हैं । संसार दुःखसे मुक्त होनेके लिये प्रयत्न करते हैं । आत्मज्ञानमें, ध्यानमें सदैव लोन १ स सोचं, सौच्यं, शोनं। २ स दुष्टं । ३ स यदेवं । । स दूरेन, दूरे नः । ५ स तपःदयासु । ६ स कृतः प्रयासः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सुभाषितसंदोहः 208) परोपदेशं स्वहितोपकारं ज्ञानेन देही वितनोति लोके । जहाति दोषं अयते गुणं च ज्ञानं जनेश्शेन समर्थनीयम् ॥ २९ ॥ 209) एवं विलोक्यास्य गुणाननेकान् समस्तपापारि निरासदक्षान् । विशुद्धयोषा न वाचनापि ज्ञानस्य पूजां महतों त्यजन्ति ॥ ३० ॥ इति ज्ञाननिरूपणात्रिंशत् ॥ ८ ॥ [ 208 : ८-२९ पीलव्रतष्यानतपःकृपासु रागं विदधाति ।। २८ । लोके वेही ज्ञानेन परोपदेशं ( वितनोति), स्वहितोपकारं वितनोति, दोघं जहाति, गुणं च श्रयते । तेन जनैः ज्ञानं समर्चनीयम् ॥ २९ ॥ विशुद्धबोषाः एवम् अस्य शानस्य समस्त पापारिनि रासदक्षान् अनेकान् गुणान् विलोक्य, कदाचन अपि महतीं पूजन यजन्ति ॥ ३० ॥ ॥ इति ज्ञाननिरूपणात्रिंशत् ॥ ८ ॥ रहते हैं || २८ || इस लोकमें ज्ञानी पुरुष ज्ञानके बलसे अपना आत्म कल्याण करता है तथा परोपदेश देकर अन्य जीवोंका भी सहज कल्याण कर सकता है। काम-क्रोधादि विकार भावोंको सर्वथा हेय जानकर छोड़ता है। दोषोंसे बचनेका उपाय करता है । तया रत्नत्रय गुणोंका सदा आश्रय करता है। इसलिये ज्ञानी पुरुषोंके द्वारा ज्ञान सदा आदरणीय पूजनीय है। ज्ञानी जनोंको सदेव शानकी ही आराधना करनी चाहिये ।। २९ ।। इस प्रकार ज्ञानके समस्त पापोंका नाश करनेमें समर्थ अनेक गुणोंका विचार करके विशुद्ध ज्ञानधारी पुरुष ज्ञान देवताकी महान् पूजा-आराधना करनेमें कभी भी प्रमाद नहीं करते। निरन्तर ज्ञान देवताकी ही आराधना करते है ॥ ३० ॥ १ स देश । २ स Om इति, ०निरूपण, इति ज्ञाननिरूपणम् । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९. चारित्रनिरूपणत्रयस्त्रिंशत् ] 210) सदर्शनज्ञानबकेन भूता पापहियाया विरतिस्त्रिया था। जिनेश्वरैस्तदवितं चरित्र समस्तकमलयहेतुभूतम् ॥१॥ 211) शमं क्षयं मिभमुपागतायो तमानि कर्म तो विधातः । . द्विषा सरागेतरभेवतश्च प्रजायते 'सामनसायकपम् ॥२॥ सदर्शनशानबलेन भूता या पापक्रियायाः विषा वितिः, तत् जिनेश्वरः समस्तकर्मक्षयहेतुभूतं परिवं मदितम् ॥ १॥ व्रत् नाशि कर्म शमं क्षयं मित्रम् उपागतायां प्रातो अतः विषा (प्रजायते)। च असाधनसाप्यस्पं सरानेतरभेदतः विषा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके बलसे जो पापक्रियाओंसे मन-वचन-काय पूर्वक विरक्तिरूप परिणाम उत्पन्न होता है उसे सर्वशदेवने सम्यकचारित्र कहा है। सम्पग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्र ही समस्त कर्मोंका क्षय करनेमें प्रधान कारण है। विशेषार्थ-सर्वत्र प्रतिपादित सप्ववत्वोंका यषा श्रद्धानशान होनेसे हित-अहितका विवेक जागृत होता है। अनादिकालसे मिथ्यात्वमूलक जो विषय-कषाय-भावोंके साथ एकत्वाध्यास या वह दूर हो जाता है। संसारमें परिभ्रमण करानेवाले राग-द्वेषमोड़ भावोंका नाश करनेका अभ्यास प्रयत्न करता है। पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे तथा पापक्रियाओंसे मन-वचन-कायसे घृणा-विरति उत्पन्न होती है उसोका नाम सम्यक्चारित्र है ॥ १ आत्माके चारित्रगुण घातक चारित्रमोहनायकर्मके उपशम-मय तथा क्षयोपशम होनेपर जो चारित्रगुण प्रगट होता है वह सम्पचारित्र है। इसलिये उसके तीन भेद हैं। अथवा सरागचारित्र तथा वीतराग चारित्रके भेदसे सम्पचारित्र दो प्रकारका कहा गया है। उनमें सरामचारित्र साधनरूप है। और वीतराग चारित्र साध्यरूप है। विशेषार्थ-इस एकोकमें चारित्रके भेद गिनाये हैं। सम्यक्चारित तीन प्रकारका है--१. औपशमिक चारित्र, २. क्षायिक पारित्र, ३. क्षायोपशमिक चारित्र । चारित्रमोहनीयको २१ प्रकृतियोंका उपशम होनेपर जो चारित्र गुण प्रकट होता है वह भोपशमिक चारित्र है। यह चारित्र उपशम श्रेणी चढ़नेवाले उपशम सम्यग्दृष्टि अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टिको गुणस्थान ७ से ११ तक होता है। चारित्रमोहनीयको २१ प्रतियोंका क्षय होनेपर जो चारित्रगुण प्रगट होता है उसे क्षायिक चारित्र कहते हैं । यह चारित्र क्षायिक सम्पम्हष्टि को हो से १४ गुणस्थान तक (११वा उपशान्तमोह गुणस्पान छोड़कर ) तथा सिद्ध जीवोंको होता है। मायोपमिकचारित-पारित्रमोहनीय कर्मके कुछ सर्वघाति कर्मोका उदयाभावी क्षय (उदयक्षय) तथा कुछ सर्वघाति कोका सदवस्थारूप उपशम और देशवासिका उदय होनेपर जो चारित्रगुण प्रगट होता है उसे क्षायोपशमिक चारित्र कहते हैं। यह चारित्र से ७ गुणस्थान सक होता है। तथा चारित्रके दूसरे प्रकारसे दो मेद कहे हैं। १. सराग चारित्र, २. वीतराग चारित्र । यहाँ राग का अर्थ प्रमाद है। प्रमाद सहित जो चारित्रगुण प्रगट होता है उसको सरागचारित्र कहते हैं। यह मारित्र प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनिके होता है। प्रमादका अभाव होनेपर जो चारित्रगुण प्रगट होता है उसे वीतरागचारित्र कहते हैं। यह चारित्र अप्रमत्त ७वे गुणस्थानसे लेकर १४ गुणस्थान तक होता है। इनमें बीसराग १ स विरतस्त्रिया । २ स सम्यक्तकर्मत्त्वय । ३ स वनाशिकर्म । ४ स om. s। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [212 सुभाषितसंदोहः 212) हिंसानृतस्तेयमयान्यसङ्गनिवृत्तिरुक्तं व्रतभङ्गभाजाम्। पप्रकार शुभभूतिहेतु जिनेश्वरतिसमस्ततत्त्वैः ॥३॥ 213) 'जीवास्त्रसस्थावरभेदभिन्नास्त्रसाश्वसुर्धान भवेपुरन्ये।। 'पञ्चप्रकारास्त्रिविषेन तेषां रक्षा स्वहिसावतमस्ति पूतम् ॥ ४॥ 214) स्पर्शेन वर्णेन रसेन गन्धायवन्यपा चारि गत स्वभावम् । तत्प्रासुकं साधुजनस्य योग्य 'पातुं मुनोत्रा निगम्ति जैनाः ॥५॥ 215) उष्णोधक साधुजनाः पियन्ति मनोवचःकापविशुद्धिसम्यम् । एकान्ततस्तत्पिवता मुनीनां षड्जीवघातं कषयन्ति सन्तः ॥ ६ ॥ प्रजायते ॥२॥ प्रातसमस्ततत्त्वैः जिनेश्वरः शुमभूविहेतुः हिंसानृतस्तेषजयान्यसंगनिवृत्तिः (इति) पश्चप्रकारं पतम् अङ्गभाजाम् उक्तम् ॥ ३ ॥ जीवाः सस्थावरभेदभिम्माः । अत्र प्रसाः चतुर्षा भवेयुः । अम्ये पचप्रकाराः । तेषां त्रिविधन रक्षा पूतम् अहिंसाव्रतम् अस्ति ॥ ४॥ यत् स्पर्शन, वर्णेन, रसेम, गम्घात् अन्यथा, गतस्वभावं शरि तत् प्रासुकं, जैनाः मुनीन्द्रा. साधुजनस्य पातुं योग्यं निगदन्ति ।। ५ ।। साधुजनाः मनोवचःकाय विशुशिलब्धम् उष्णोदकं पिवन्ति । सन्तः एकान्ततः तत् चारित्र आत्माका स्वभावभाव होनेसे साध्यरूप है। और सरागचारित्र वीतराग चारित्रकी भावना सहित होनेसे उसको वीतराग चारित्रका साधन उपचारसे कहा गया है। वास्तवमें सरागता वीतरागताका साधक नहीं है। सरागतामें सरागताके अभावकी ही भावना मुख्य होनेसे उपचारसे सरागताको भी साधक कहा गया है ।।२॥ हिंसा-अनृत-स्तेय-जनी (स्त्री) संग (परिग्रह ) इन पांच प्रकारके पापपरिणामों से निवृत्तिरूप व्यवहारचारित्र पांच प्रकारका है। यह व्यवहार चारित्र पुण्यकमके बंधका कारण है ऐसा समस्त पदाथोंको जाननेवाले सर्वज्ञदेवने कहा है। विशेषार्थ—इस श्लोकमें पं पापोंसे निवृत्तिरूप व्यवहारचारित्रके ५ भेदोंका वर्णन किया है। यह व्यवहारचारित्र पांच प्रकार का है। १. हिंसाविरति व्रत, २. असत्यविरति व्रत, ३. स्तेयविरति यत, ४. ब्रह्मचर्य व्रत (स्त्रीनिवृत्ति व्रत), ५. परिग्रहनिवृत्ति प्रप्त । यह पाँच प्रकारका व्रत पुण्यकर्म बन्धका ही कारण है। पापोंसे निवृत्तिरूप होनेसे पापबन्धका कारण नहीं है। इसलिये यावत्काल संसार जीवन है तावत्काल नरकादि दुर्गति असाता दुःखसे बचाकर सुगसि साता सुखमय जीवनके लिये कारण है। इसलिये जानी जीवोंके तावत्काल प्रवृत्ति करने योग्य है। तथापि उसमें भी शुभ प्रवृत्तिसे भी निवृत्तिकी भावना ही मुख्यतासे रहती है। तब ही यह व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्रका साधक कहा जाता है ॥ ३ ॥ संसारी जीवके २ मेद है-१ अस २ स्थावर । स जीव चार प्रकारके है और स्थावर जीव पांच प्रकारके है । इन त्रस स्थावर जोवोंकी मन-वचन-काय पूर्वक तोन योग पूर्वक रक्षा करना, उनके घात करनेके परिणाम नहीं रखना यह पवित्र अहिंसा व्रत है॥४॥ जो अहिंसा व्रतको पालन करनेवाले मुनि है उन्हे अहिंसा व्रतका निर्दोष पालन करनेके लिये प्रासुक जल हो पीना चाहिये । मिस जलका स्पर्श-रस-गंध-वर्ण स्वभाव बदल गया है ऐसे उष्ण जलको प्रासुक जल कहते हैं। ऐसा जैन आचार्य कहते हैं ॥ ५ ॥ जो साघुलोक सब प्रकारके हिसाके त्यागी है वे मन-वचन-काय मुद्धि पूर्वक प्राप्त हुआ उष्ण उदक ही पीते हैं। और वो ऐसा नहीं करते, केवल उष्ण उदकका ही मतलब रखते है, मन वचन-कायको शुद्धताको सावधानी नहीं १ स हिसावृत । २ स °स्तेय-जनीति जनाति । ३ स निवृत्तिरूपं । ४°प्रकारांशु । ५ स हेतुभूति । इस जीवश्व, जीवात्र। ७ स पंचप्रकारात्रि, प्रकारं"।८ स राममहिंसा । ९ स गतं । १० स प्राशुकं, प्रांशुकं । ११ स योग । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 : ९-११ ] ९. चारित्र निरूपणत्रयस्त्रशत् 216) हतं घटोयन्त्रचतुष्पदावि सूर्येन्दु वासाग्निकरैर्मुनीन्द्राः । "अस्पतवातेन हतं वहत्व यत्प्रासुकं तनिगदन्ति वारि ॥ ७ ॥ 217) भवत्यवयाहिमांशु 'घूमरोरीघनाम्बु शुद्धोदकमिन्दुशोकरान् । विहाय शेषं व्यवहारकारणं मुनोशिनां वारिविशुद्धिमिच्छताम् ॥ ८ ॥ 218) उष्णोदकं प्रतिगृहं यवकारि' लोकैस्तच्छ्रावकः " विवति नान्यजनः' काचित् । तत्केवलं मुनिजनाय विधीयमानं बलीयसंततिविराधनसाधनाय ॥ ९ ॥ 219) यथार्थवाक्यं रहितं कषायैरवीडनं प्राणिगणस्य" पूतम्" । गृहस्थभाषा विकल' हितार्थ " सत्यवतं स्याद्वदतां यतीनाम् ॥ १० ॥ 220) प्राभाविनष्टानि धनं परेषामगुत्तो" उत्पादि" मुनेस्त्रिषापि । भवत्यवसप्रहषजं नाख्यं व्रतं मुनीनां गदितं हि लोके ॥ ११ ॥ ू पितां मुनीनां पञ्जीवधातं कथयन्ति ।। ६ ।। यद् वारि घटीयन्त्रचतुष्पवादि सूर्येन्दुबातान्निकरः हतं, अत्यन्तवतिन हृतं वहत् च मुनीन्द्राः तत् प्रासूकं निगदन्ति ॥ ७ ॥ वारिविशुद्धिम् इच्छतां मुनीनाम् अवश्याय हिमांशुधूमरीघनाम्युशुद्धोदकविन्दुशीकरान् विहाय शेषं व्यवहारकारणं भवति ॥ ८ ॥ लोकः प्रतिगृहं यद् उष्णोदकम् मकारि तत् भावकः पिवति । कदाचित् अन्यजनः न केवलं मुनिजनाय विधीयमानं तत् षड्जीवसंततिविराधनसाधनाय (भवति) ।। ९ ।। कषायैः रहितं प्राणिगणस्य अपीडनं, पूतं, गृहस्थभाषाविकलं यथार्थवाक्यं हितायं वदतां यतीनां सत्यवतं स्यात् ।। १० ।। परेषां ग्रामादिनष्टादि अल्पादि धनं त्रिघापि अगुहृतः मुनेः लोके मुनीनाम् अदसग्रहवर्जनात्र्यं व्रतं गतिं भवति ॥ ११ ॥ मासां स्त्रीणां रखते हैं उनको षट्कायिक जीवोंके घातका दोष लगता हैं ऐसा संत पुरुष कहते है ॥ ६ ॥ जो जल घटीयंत्र द्वारा आहत हो, जो चतुष्पद गाय-भैंस आदि जानवरोके पाँवोंसे ताडित हो, जो सूर्य-चंद्रकी किरणोंसे, वायुसे, अग्निसे, तथा हाथोंसे आहत हो, अत्यंत वेगवान वायुसे आहत हो, अथवा जो जल प्रवाहरूपसे बहता है उसको प्रासुक जल कहते हैं ॥ ७ ॥ " पाला, मोले, मोस बिन्दु" मेघकी जलधारा आदि छोड़ कर शेष जल विशुद्धि करनेकी इच्छा करने वाले मुनिजनोंको व्यवहार करने योग्य है ॥ ८ ॥ जो उष्णजल प्रत्येक घरमें श्रावक लोकों द्वारा ही अपने लिये गरम किया हो वह मुनि जनोंको पीने योग्य है। श्रावकोंके सिवाय अन्य लोकोंने गरम किया हुआ जल, अथवा जो केवल मुनिजनोंके लिये गरम किया हो, वह जल पीने योग्य नहीं है; क्योिं वह षट् काय जीवोंकी संततिकी विराधनाका कारण होता है ॥ ९ ॥ जो वचन यथार्थ है, कषायोंसे रहित प्राणियोंको पीड़ा न पहुँचाने वाला है। पवित्र भावनासे युक्त है, गृहस्य लोक व्यापार आरंभ विषयक जो वचन बोलते हैं उससे रहित है, अथवा गृहस्थी जनोंके साथ कुशल वार्ता आदि विषयक जो भाषा बोली जाती है। उससे रहित है, ऐसे यथार्थं वचन बोलने वाले मुनियोंके सत्य व्रत होता है। विशेषार्थ - जो हित-मित है, तथा जीवोंको पीड़ा कारक न हो ऐसा सार्थक वचन बोलना ही, वचनयोगो मुनियोंका सत्य व्रत कहा जाता है ॥ १० ॥ मन, वचन, काय पूर्वक दूसरेका राज्य आदि तथा खोया हुआ घन आदि अथवा अल्पसी कोई चीज भी बिना दिये ग्रहण न करना यह मुनियोंका अदल ग्रहणत्याग नामक व्रत कहा गया है। भावार्थ १ स प्रत्यंता, अत्यंवाते, अत्यंसवाये । २ स निहितं ३ स प्राशुकं प्रांशुकं । ४ स हिमासु, हिमांस घूसरी । ५ स मनीषिणां । ६ स यदकार। ७ स तच्छुवकैः तच्छ्रावकैः । ८ स नान्यजनैः । ९ स वाच्यं । १० स पीडितं । ११ स तस्य । १२ सपुतें । १३ स विरलं । १४ स यथार्थ । १५ स सत्यं व्रतं । १६ स परेषां न गृहृतौ । १७ स पादिमुने । सु. शं. ८ 1 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 226 : ९-१५ मुभाषितसंदोहः 221) विलोक्य मातृस्वसृबेहजावत् स्त्रीणां त्रिक रागवशे न यासाम् । बिलोकनस्पर्शनसंकयाम्यो निवृत्तिरुक्तं तवमैथुनस्वम् ॥ १२॥ 222) सचेतनाचेसनभेक्नोत्याः परिग्रहाः सन्ति विचित्ररूपाः । तेभ्यो निवृत्तिस्त्रिविधेन यत्र संग्यमुक्तं तवणस्तसंगैः॥१३॥ 223) पुगान्तरप्रेक्षणतः स्वकार्यादिवा पथा अन्तुविजितेन । यतो मुनेर्जीवविवावहान्या गतिवरे समितिः समुक्ता ॥१४॥ 224) आत्मप्रवासापरबोषहासपैशुन्यकाश्यविस्यवाश्यम् । विषय भाषां पवता मुमोना यान्ति भाषा समिति जिनेन्द्राः॥१५॥ 225) अनुवगमोत्पादनवल्भवोषा ममोवचःकायविकल्पशुखा। सकारणा" या मुनिपस्य मुक्तिस्तामेवनाल्यां समिति पन्ति ॥१६॥ 226) आवाननिक्षेपविधेविषाने व्यस्म योग्यस्य मुनेः प्रयत्नः। आदाननिक्षेपणनामधेयां' वन्ति सम्तः समिति पवित्राम् ॥१७॥ त्रिक मातृस्वसदेहज़ावत् विलोक्य रागवशे न (तपा) विलोकनस्पर्शनसंकयाम्यो निवृतिः सद् अभपुनत्वम् उक्तम् ।। १२॥ सचेतनाचेतनभेदनोत्याः विचित्ररूपाः परिग्रहाः सन्ति । यत्र तेभ्यः त्रिविधेन निवृत्तिः तद् अपास्तसंगैः नैसंग्यम् उक्तम् ॥ १३ ॥ दिवा स्थकार्यात् जन्तुविजितेन पपा युगान्तरप्रेक्षणतः यतः मुनेः जीवविवाघहान्या वरा गतिः ईर्यासमितिः समुक्ता ॥ १४॥ जिनेन्द्राः आत्मप्रशंसापरदोषहासप्रेक्षम्यकाकंश्यविरुद्धवाक्यं विवर्ण्य भाषां वदतां भुनीना भाषासमिति वदन्ति ॥ १५ ॥ भुनिपस्य या अनुगमोत्पादनवरभदोषा मनोवधःकाषिकल्पशुद्धा सकारणा मुक्तिः ताम् एषणास्यां समिति वदन्ति ॥ १६ ॥ मुनेः योग्यस्य द्रव्यस्य वादाननिक्षेपविधे: विषाने प्रयत्नः । सम्तः (ता) आवामनिक्षेपणनामधेयां पवियां किसीको रक्खी हुई, गिरी हुई, भूलो हुई छोटीसे छोटी भी चीज बिना दिये मन-वचन-कायसे ग्रहण न करना तीसरा बचौर्यवत है ।। ११॥ वृद्धाको मां के समान, यूवतीको बहिनके समान, कन्याको पुत्रीके समान मानकर, सब स्त्रीमात्रके साथ राग भावसे उनके अंग-उपांगोको देखना, उनको स्पर्श करना, उनसे राग कथा-गोष्ठी करना इन सबका त्याग मैथुन विरति नामक चौथा ब्रह्मचर्यव्रत है ॥ १२ ॥ सचेतन और अचेवनके भेदसे परिग्रह अनेक प्रकारका है। उनसे मन-वचन-कायसे निवृत्ति करना, उन पर मूर्खा-ममत्व परिणाम न रखना उसे परिग्रह त्यागी मुनियोंने परम निग्रंथ नामक परिग्रहत्याग पत कहा है ॥ १३ ॥ चलते समत एर्केद्रियादि जीवोंकी विराधना न हो, उनको बाधा न पहुंचे इस सावधानीसे आगेकी हस्तप्रमाण जमीन देखकर चलना, अपने आरम-हित कार्यके लिये ही गमन करना, दिनमें हो गमन करना, जीव जन्तु रहित मार्गसे गमन करना यह मुनियोंको श्रेष्ठ ईर्यासमिति कही गई है ।। १४ || आत्मप्रशंसा, परनिदा, उपहास, पिशुनता (चुगल) ककंशकठोर वचन तथा आगम विरुद्ध वचनको छोड़कर जो हित-मित-प्रिय वचन बोलते है उन वचनयोगी मुनियोंकी वह भाषा-समिति है ऐसा सर्वज्ञ देव कहते हैं ॥ १५ ॥ उद्गम आदि छयालीस दोष तथा बत्तीस अंतरायोंसे रहित मन-वचन-कायको शुद्धि पूर्वक, रत्नत्रयका निर्दोष पालन करनेके उद्देशसे शरीरकी स्थिसिके लिये प्रासुक आहार लेना, उसे मुनियोंकी एषणासमिसि कहते हैं ।। १६ ॥ दिगंबर मुलिके योग्य पिच्छि कमंडल, शास्त्र १स देहयाव । २ स तक, स्विकं, विकं । ३ स.°वशेन । ४ स am. °हतं to यत्र in verse No. 13 । ५ स भेदतोर्याः, दतोक्ता। ६ स या च, यात्रा । ७ स यथा। ८ स सत्लो मुने, यत्र मुने, यत्लान्मुने । ९ वर्या स।१० स भाषां स । ११ सबला; कल्म । १२ स °शुद्धाः । १३ स स्वकारणा । १४ विधि। १५ स योगस्य, योग्यंस । १६ स सपनः । १७ सयं, येयं । १८ स पवित्र। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 : ९-२२] ९. धारित्रनिरूपणत्रयस्त्रिंशत् 227) दूरे विशाले 'जनजन्तुमुक्ते गूढे ऽविरुद्धे त्यजतो मलानि । पूतां प्रतिष्ठापननामधेयां वदन्ति साघोः समिति जिनेन्द्राः ॥१८॥ 228) समस्तजन्तुप्रतिपालनार्थाः कर्मानव द्वारनिरोषवक्षाः । हमा मुनीनां निगन्ति पश्न पञ्जत्वमुक्ताः समितोजिनेन्द्राः ॥ १९ ॥ 229) प्रवृत्तयः स्वान्तवचस्तनूनां सूत्रानुसारेण निवृत्तयो वा। यास्ता जिनेशाः कथयन्ति तिम्रो गुप्तौविष्ताक्षिलकर्मयन्याः ॥२०॥ 230) एवं चरित्रस्य चरित्रयुक्तस्त्रयोदशाङ्गस्य निवेवित्तस्य । व्रताविभेवेन भवन्ति भेवाः सामापिकाचाः पुमरेव पञ्च ॥ २१ ॥ 231) पञ्चाधिका विशतिरस्तदोषेरक्ताः कषायाः अपतः शमाद्वा। तेषां यथाख्यातचरित्रमुक्तं तन्मियतायामितरं चतुष्कम् ।। २२।। समिति पदन्ति ।। १७ ।। जिनेन्द्राः दूरे विशाले जनजन्तु मुक्त गूढे अविरुदे (स्थाने) मलानि त्यजतः सापोः पूतां प्रतिष्ठापननामधेयां समिति वदन्ति ।। १८ ॥ जिनेन्द्राः मुनीनां समस्वजन्तुप्रतिपालनार्थाः, कर्मानद्वारनिरोघदक्षाः, पञ्चत्वमुस्ताः इमाः पञ्च समिती: निगन्ति ॥ २० ॥ स्वान्तवचस्तमूनां मूत्रानुसारेण या प्रवृत्तयः निवृत्तयः वा, ता. जिनेशाः विधूताखिलकमबन्धा. तित्रः गुप्तीः कषयन्ति ।।२०।। परिचयुक्तै: एवं निवेदितस्य त्रयोदशाङ्गस्य चरित्रस्य व्रतादिभेदेन सामायिकाद्याः पुनः पञ्च एव भेदाः भवन्ति ॥ २१॥ अस्तदोषः पञ्चाषिका विशतिः कषाया, सयतः शमाढा उक्टाः आदि पदार्थोका सावधानीसे धरना-उठाना यह मुनियोंकी मादान निःपण नामको चौथी पवित्र समिति संतपुरुषोंने कही है ॥ १७ ॥ ग्रामसे दूरवर्ती, विशाल, जोवजंतु विरहित, एकांत स्थान पर मलमूत्र विसर्जन करना मुनियोंकी प्रतिष्ठापन समिति जिनेंद्र देवने कही है ॥ १८॥ जन्म मरणसे मुक्त जिनेन्द्रदेवने समस्त जीव जंतुको सुरक्षा हो इस हेतुसे, तथा शुभ-अशुभ कर्मानवको रोकनेके लिये यह मुनियोंके लिये पाँच प्रकारको समिति कही है ॥ १९॥ सर्वज्ञ प्रतिपादित शास्त्रके अनुसार मन-वचन-कायकी आत्म स्वरूपके सरफ प्रवृत्ति अथवा शुभ-अशुभ कार्यसे निवृत्ति यह मुनियोंकी तीन प्रकारकी गुप्ति हैं ऐसा समस्त कर्मबंधका नाका करनेवाले जिनेंद्रदेवने कहा है ।। २०॥ पाँच वत, पांच समिति, तीन गुप्ति इसतरह तेरह मेद सहित चारित्र चारित्रधारी मुनियोंने कहा है । तथा व्रतादि मेदोंसे इस चारित्रके (१) सामयिक (२) छेदोपस्थापना (३) परिहार विशुद्धि (४) सूक्ष्मसांपराय (५) यथाख्यात ऐसे पांच भेद होते हैं:।। २१ ॥ इन सामायिकादि पांच मेदोंमें जो यथाख्यात नामक चारित्र है वह क्रोध-मान-माया-लोभ आदि पच्चीस कषाय दोषोंका क्षय अथवा उपशम होनेपर होता है और शेष चार चारित्र उन कषायोंका क्षयोपशम होनेपर होते हैं। विशेषार्म-चारित्र मोहनीय कर्मकी पचीस प्रकृति-अनंतानुबंधीक्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोष मान माया लोभ, संञ्चलनक्रोध मान माया लोभ, ये सोलह प्रकृति और नव नोकषाय-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुसकवेद इन पच्चीस प्रकृतियोंका उपशमश्रेणी चढ़नेवाला जीव सर्वथा उपशम करता है उस समय उसको औपमिक यथाख्यात चारित्र होसा है { गुण ११)। इन्हीं पच्चीस प्रकृतियोंका क्षपकणी चढ़नेवाला जीव क्षय करता है उसको क्षायिक यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है (गुण १२ से १४)। तथा अनंतनुबंधो, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण इन कुल सर्वघात्तिप्रकृतियोंका उदयाभावीक्षय और कुछ प्रकृतियों १स जीवजन्तु। २ स विरुदे। ३ सप्टापण । ४ स श्रव° ! ५ स निवृत्तयो गा। ६ स हक्त । ७स तामिश्रि, बन्मि। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [235:९-२६ सुभाषितसंवोहः 232) सद्दर्शनशानफलं चरित्रं ते तेन हीने भवतो यथव । 'सूर्यादिसंगेन विवेव नेत्रे नेतत्फलं येन वदन्ति सन्तः ।। २३ ॥ 233) कवायमुक्तं कथितं चरित्रं कषापमाषुपधातमेति। पवा कषायः सममेति पुंसस्तवा परित्रं पुनरेति पूतम् ॥ २४ ॥ 234) कबायसंगो सहते न वृत्तं सभाईच नं दिन व रेणम्। कषायसंगो विधुनन्ति तेन चारित्रवम्तो मनयः सदापि ॥ २५ ॥ 235) नि:शेषकल्याणविषो समय यस्यास्ति वृत्तं शशिकान्तिकान्तम् । मरयस्य तस्य द्वितये ऽपि लोके न विद्यते काचन जातु भीतिः ॥ २६ ॥ तेषां यथाक्ष्यातयरित्रम् उक्तम् । तन्मिश्रतापाम् इतरं चतुष्कम् ॥ २२ ॥ चरित्रं सद्दर्शनज्ञानफलम् । दिवा मूर्यादिसंगेन (होने) ने इव तेन हीने ते बुधव भवतः । पेन सन्तः एतत् फलं न वदन्ति ।। २३ ।। परिवं कषायमुक्त कषितम् । कराययो उपचाप्तम् एति । यदा पुंसः कषायः शमम् एति, तवा बरिसं पुनः पूतम् एति 11 २४ ।। वृतं कगायसंगो न सहते। सभाषक्षुः न दिन रेणु च (सहते) । तेन चारित्रवन्तः मनुयः सदापि कषायसंगौ विधुनम्ति ।। २५ ॥ निःशेषकस्याणविधी समये शक्षिकान्तिकाम्स यस्य वृत्तम् अस्ति, तस्य मर्यस्य हित्तये ऽपि लोके जातु कायम भीतिः न विद्यते ।। २६ ॥ संग्रतस्य का सदवस्थारूप उपशम, तथा संज्वलन देशधातिका उदय होनेपर जो क्षायोपमिक चारित्र प्रगट होता है , उसके चार भेद है । (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापना (३) परिहारविशुद्धि (४) सक्ष्मसांपराय । सामायिक-का अर्थ है आत्मा-आत्मस्वभावमें लीन रहना वह सामायिक चारित्र है। छेदोपस्थापना-स्वभावसे च्युत होनेपर छेद-प्रायश्चित्त लेकर फिरसे स्वभावमें स्थापना करना इसको छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं (गुण ६ से ९)। परिहारविशुद्धि-आत्मविशुद्धिके बलसे विहार करते समय भूमीसे अधर चलनेकी ऋद्धि प्राप्त होना यह परिविशति चारित्र है। सूक्ष्मसांपराय-सूक्ष्म लोभ कषाय रहनेपर जो चारित्र प्रगट होता है उसे सूक्ष्मसांपराय चारित्र कहते हैं । यथाख्यातचारित्र-जैसा आरमाका स्वरूप है ध्रुव स्वभाव है उस स्वरूप परिणत होना इसको यथाख्यात चारित्र कहते हैं ॥ २२॥ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका फल सम्यक् चारित्र है। सम्यक्चारित्रसे रहित सम्यग्दर्शन-शान वृथा निरर्थक है। जिसप्रकार नेत्र होकर भो दिनको सूर्यादिक का प्रकाश न हो तो नेत्रका फल (कार्य) देखना संभव नहीं है। उसीप्रकार विना चारित्रके केवल सम्यग्दर्शन-ज्ञानसे अभीष्ट सिद्धि नहीं होती। ऐसा संतपुरुष कहते है ॥ २३ ॥ कषायके अभाव होनेपर ही चारित्र होता है। ऐसा कहा है। कषायको वृद्धि होनेपर चारित्रका विनाश होता है। जब कषाय शमनको प्राप्त होता है सब ही चारित्र पवित्र निर्दोष होता है ॥ २४॥ चारिश कषाय और संग (परिसह मूर्खापरिणाम), इनके सद्भाव को सहन नहीं करता । जिसप्रकार नेत्ररोगसे पीड़ित आंख दिनका प्रकाश तथा धूलिकणको सहन नहीं करतीं। इसलिये जो चारिशधारी मुनि कषाय और परिग्रहका सदाके लिये स्याग करते हैं वे ही सच्चे शानी मुनि कहलाते हैं। ॥ २५ ॥ पूर्ण चंद्रमाकी कांतिसमान जिनका चारिश निर्दोष और पूर्ण है उनका ही चारिश परिपूर्ण आत्म. कल्याण करने में समर्थ होता है । उस वोरपुरुषको इस लोकमें तथा परलोकमें कदापि रचमाश भी भोति नहीं होती । विशेषार्थ-जो कषाय और परिग्रहसे सहित है उनको हो सदेव भीति रहती है। वेहो (अप+ राधी) १स सादि', सादि", सादिसमेन दिश्ये वि, सात" दिये वि । २ स "वृक्षाचयद्या, "वपाद्या । ३ स पूंस। ४स संगो, संगेः । ५ स सह तेन । ६ स शेगो, संगो, संगं । ७ स विधुनोति । ८ स मसंस्म, मूतस्य । ९ स द्वितयो। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240: 3-? 1 ९. चारित्र निरूपणत्रयस्त्रशत् 236) न चक्रनाथस्य न नाकिराजो न भोगभूपस्य न नागराजः । आत्मस्थितं शाश्वतमस्तदोषं यत्संयतस्यास्ति सुखं विबाधम् ॥ २७ ॥ 237) निवृत्तलोकव्यवहार वृत्तिः संतोषवानस्तसमस्तदोषः । यत्सौख्यमाप्नोति मसान्तराय किं तस्य लेशो ऽपि सरागचित्ते ॥ २८ ॥ 230 ) ससंशयं नश्वरमन्सतुः खं सरागचित्तस्य जनस्य सौख्यम् । तदन्यथा रागविवजितस्य तेनेह संतो न भजन्ति रामम् ॥ २२ ॥ 239) बिनिमलं पार्वणचन्द्रकान्तं यस्यास्ति चारित्रमसी गुणज्ञः । मानी कुलीनो जगतोऽभिगम्यः कृताचंजन्मा महनीयबुद्धिः ॥ ३० ॥ 240) गर्भे विलीनं वरमत्र मातुः " प्रसूतिकाले ऽपि वरं विनाशः । असंभवो वा वरमङ्गभाजो न जीवितं चास्वरित्रमुक्तम् ॥ ३१ ॥ ६१ आत्मस्थितं अस्तदोषं शाश्वतं विश्वाधं यत् सुखम् अस्ति (तत्) न चक्रमाचस्य न नाकिराजः, न मोगनूपस्य, न नागराजः ( अस्ति ) ॥ २७ ॥ निवृत्त लोकव्यवहारवृत्तिः, संतोषवान्, अस्तसमस्तदोषः यद् मतान्तरायं सौस्थम् आप्नोति तस्य लेशः मपि सरागचित्ते (अस्ति ) किम् ? ॥ २८ ॥ सरागचित्तस्य जनस्य सोख्यं ससंशयं नववरम् अन्तदुःखं (च) रागनिर्वाजितस्प तरम्यथा । तेन इह सन्तः रागं न भजन्ति ॥ २९ ॥ यस्य पार्वणचन्द्रकान्तं विनिर्मलं चारित्रम् बस्ति, असौ गुणशः, मानी, कुलीनः, जगतः अभिगम्यः कृतार्थजन्मा, महनीयबुद्धिः ॥ ३० ॥ मत्र मातुः गर्भे विलीनं वरम् । प्रसूतिकाले विनाश: ग्रपि I , आत्माकी अराधनासे दूर होनेसे अपराधी है । अपराधी चोर हो भयभीत होता है। रात्रिमें कोई न देखे, न सुने इस डर से धीमे-धीमे पांव रखकर चलता है। परंतु जो निरपराधी है, चारित्रधारी है, आत्माकी अराधना में सदैव तत्पर है वह सदा निर्भय है ।। २६ ।। चारित्रधारी संयत्तमुनिको जो निर्वाघात्मास्थित, ध्रुवस्वभावरूप, समस्तदोष रहित शाश्वत सुख होता है वह सुख चक्रवर्तीको भी नहीं है। स्वर्गस्थ देवेंद्र को भी नहीं है । भोगभूमिमें रहनेवालोंको भी नहीं है। नागराज धरणेंद्र को भी नहीं है। इनका सब बाह्य अनात्म जडवेभव आत्मवैभवके सामने तुच्छ है ।। २७ ।। जिसने सांसारिक समस्त लोकव्यवहारोसे अपनी वृत्ति अपना उपयोग हटाया है, जो परमसंतोषवान् है, समस्त दोष भय जिनके नष्ट हो गये हैं उसको सब अंतराय - विघ्नबाधाओंसे रहित निरंतराय अखंड जो साधन सुख मिलता है, उसका लेशमात्र भी सरागीको प्राप्त नहीं होता ॥ २८ ॥ जो सरागत्रित है; सरागचरित्र धारण करने वाले हैं, उनको चारित्रके बलसे जो कुछ स्वर्गादि ऐहिकसुख मिलता है संशयसहित होता है । उस सुखसे च्युत होनेकी शंका-भीति देवलोकमें सदैव रहती है। वह नश्वर है। शाश्वत नहीं है । अंत में महान दुःख उत्पन्न करने वाला है। परंतु जिनका चिरा रागरहित है, वीतरागचारित्र को जो धारण करते हैं । उनको जो सुख मिलता है यह उक्त ऐहिक सुखसे विलक्षण है। उस सुखसे च्युत होनेका भय नहीं होता है । वह अविनश्वर शाश्वत होता है। उसका अंत नहीं, निरंतर ऐसा अनंत सुख वीतरागचारित्र धारी मुनिको प्राप्त होता है। इसलिये संत पुरुष रागको कपायको कभी नहीं चाहते । रागको आगके समान भयंकर समझते हैं। उससे सदैव दूर ही रहते हैं ।। २९ ।। जिसका चारित्र पूर्णमासी चंद्रमा के समान निर्मलनिर्दोष पूर्ण है, वहीं श्रेष्ठ है । गुणज्ञ है। वही सच्चा सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है । वही सम्मान करने योग्य है। कुलीन है । उसीने अपना जन्म अपना कुल सार्थक किया। वहीं जगत में श्रेष्ठ है ॥ ३० ॥ जिसका जीवन चारित्र से हीन रहित है, उसका इस लोक में जन्म लेकर माताके गर्भमें ही विलीन होना अच्छा है । अथवा जन्म ४ स माणी । ५ स प्रसोति । १ स लेश्यो स वित्तः ३ सागपाश Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [ 242 : ९-३३ 241) निरस्तभूषोऽपि यथा विभाति पवित्रचारित्रविभूषितास्मा । अनेकभूषाभिरलंकृतोऽपि विमुक्तवृत्तो न तथा मनुष्यः ॥ ३२ ॥ 242) सद्दर्शनशानतपोद मायापचारित्रभाजः सफलाः समस्ताः । व्यश्चरित्रेण विना भवन्ति शारवह सन्तश्चारिते यतन्ते ॥ ३३ ॥ इति चारित्रनिरूपणत्रयस्त्रिशत् ॥९॥ वरम् । अङ्गभाजः असंभवः वा वरम् । चारुचरित्रमुक्त जीवितं न ॥ ३१ ॥ यथा निरस्तभूषः अपि पवित्रचारित्रविभूषितारमा विभाति तथा विमुक्तवृत्तः मनुष्यः अनेकभूषामिः अलंकृतः अपि न (विभाति) ॥ ३२ ॥ सद्दर्शनज्ञानतपोदमायाः पारित्रभाजः समस्ताः सफलाः । चरित्रेण विना पर्याः भवन्ति । (इति) मात्वा सन्तः इह परिते यतन्ते ॥ ३३ ॥ ॥ इति चारित्रनिरूपणत्रयस्त्रिशत् ॥ ९॥ लेकर प्रसूतिकालमें ही मर जाना अच्छा है । अथवा उस शरीरधारी जीवका उत्पन्न न होना ही अच्छा है। परंतु चारित्र रहित जीवन जीना निरर्थक है ।। ३१ । जिसने पवित्र चारित्ररूपी अलंकार भूषणसे अपना आत्मा विभूषित किया है वह संत पुरुष बाह्य भूषण-अलंकार-वस्त्र आदि परिग्रह न होनेपर भी जिस अपूर्व शोभाको प्राप्त करता है, उस शोमाको अनेक मूषण-अलंकार-महीनवस्त्र आदि धारण करने वाला किंतु चरित्रहीन पुरुष कदापि प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ३२ ॥ जो संतपुरुष चारित्रको धारण करते हैं उनका सम्यग्दर्शन सम्यशान-तप-दया-आदि सब गुण सार्थक होते हैं । चारित्रके बिना वे सब व्यध-निरर्षक है। कार्यकारी नहीं है। इष्ट सिद्धिको देनेवाले नहीं हैं । ऐमा जानकर संतपुरुष चारित्रकी आराधनामें निरंतर प्रयत्न करते हैं ।। ३३ ॥ १ स नि for वि, विमुक्त न । २ स °दयाः, धाः। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०. जातिनिरूपणषड्विंशतिः ] 243) बनेकमलसंभये, कृमिकुलैः सदा संकुले विचित्रबहुवेदने बुधविनिन्विते वुःसहे। भ्रमन्नयमनारतं व्यसनसंकटे बेहवान् पुराजितवशो भवे भवति भामिनीगर्भके ॥१॥ 244) शरीरमसुरवावहं विविषदोषव|गृहं सशुक्ररुधिरोदभवं भवभूता भवे भ्रम्पते । प्रगृह्य भवसंततेविवषता निमित्तं विधि सरागमनसा सुखं प्रचुरमिस्छता तस्कृते ॥ २॥ __245) किमस्य सुखमादितो भवति वेहिनो गर्भके किमङ्ग मलभक्षणप्रभृतिषिते शंशवे । किमङ्गजकृतासुखव्यसनपीडित यौवने किमङ्ग गुणमर्दनक्षमजराहते वाईके ॥३॥ अयं देहवान् पुराजितवशः व्यसनसंकट भवे अनारत भ्रमन्, अनेकमलसंभवे, सदा कृमिकुल: संकुले, विचित्रबहुवेदने, बुपविनिन्दिते, दुःसहे भामिनीगर्भके भवति ॥ १॥ भवसंततेः निमित्त विधि विक्षघता, तस्कृते प्रधुरं सुखम् इच्छता, सरागमनसा भवभृता, असुखावह, विविषदोषवटैगृहं, सशुक्ररुधिरोदभवं शरीरं प्रगृह्य भवे भ्राम्यते ॥ २ ॥ अस्य देहिनः गर्भके आदितः किं सुखं भवति ? हे अङ्ग, मकभक्षणप्रभृतिषिते शंशवे कि (सुखं भवति) ? अमजकूतासुखव्यसनपोस्ति यौवने यह शरीरधारी प्राणी अपने पूर्वोपार्जित कर्मोदय वश नाना दुःखोंसे पूर्ण योनियोंमें भ्रमण करता हुमा माताके गर्भ में जन्म लेता है, जो कि नाना प्रकारके रक्त-मांस आदि सप्त धातु मलसे बना है। निरंतर उसमें कृमी-कीटक आदि स जीव उत्पन्न होते हैं । गर्भमें संकुचित रूपसे नाना प्रकारकी भयंकर वेदना सहता है। ज्ञानी सज्जन ऐसे गर्भमें उत्पन्न होनेकी निंदा करते हैं ॥१॥ यह जीव जन्म धारण कर जो शरीर प्राप्त करता है वह यद्यपि इस जीवको सुखावह नहीं है, निरंतर दुःख ही देने वाला है। नाना प्रकारके दोष विष्टामल का घर है, पिताके वीर्य और माताके रजसे उत्पन्न होने वाला है। तो भी यह जीव उस शरोरके प्रेममें बंधा हो उससे अधिकाधिक सुख मिले ऐसी खोटी आशा करता हुआ उस शरीरके लिये अनुराग बुद्धिसे नाना प्रकारके उपाय करता है और जम्म-मरण संततिके कारणभूत इस शरीरको धारण करके संसारमें चिरकाल काल तक घूमता है ।। २ ।। इस देहधारो जीवको शरीरको किसी भी अवस्था सुख नहीं मिलता। देखो ! जब यह गर्भमें आता है तब वहाँ शरीर संकुचित रहनेसे कष्ट होता है। गर्भसे निकलते समय कितने कष्ट होते हैं वे बालकके रुदनसे ज्ञात हो सकते हैं । बालकपनमें वह अंगमल-विष्टान्नाकका मल वगैरह खाता है | अज्ञानसे उसमें घृणा नहीं समझता। यौवन अवस्थामें काम विकार आदि पोड़ाओंसे पीड़ित होता है। वृद्धा अवस्थामें शारीरमें खून कम हो जानेसे शरीर जीणं होता है। हाथ-पांव वातसे पीड़ित होते हैं । इस प्रकार सब अवस्थाओं १ स अनेफमूत्र । २ स संकुलः । ३ स सुशुक्र, सुसुक्र । ४ स भ्राम्यते । ५ स विधं । ६ स गर्मको । ७ स किमगमलभक्षणे । ८ स कृता सुप्त । ९ स किमङ्गगुण । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [248 : १०-६ 246) किमत्र विरसे सुखं वयितकामिनीसेयने किमन्यजनप्रीतये द्रविणसंचये नश्वरे। किमस्ति सुविभनरे तनयवर्शने वा भवे यतोऽत्र गतचेतसा तमुमता रतिबध्यते ॥४॥ 247) गतिविगलिता वपुः परिणतं हृषीक मितं कुलं नियमितं भवो ऽपि कलितः सुखं संमितम् । परिभ्रमकृतं भवे भवभूता घटोयन्त्रवन् भवस्थितिरियं सवा परिमिताभ्यनन्ता कुता ॥ ५ ॥ 248} तवस्ति न वपु ता पविह नोपभुक्तं सुखं न सा गतिरनेकषा गतवता न या गाहिता। न ता नरपतिधियः परिचिता न या संसतो न सोऽस्ति विषयो न यः परिचितः सदा देहिना ॥६॥ कि (सुखं भवति) ? हे अङग, गुणमर्दनक्षमजराहते वार्ड के किं (सुखं भवति) ? ॥ ३ ॥ अत्र विरसे दयितकामिनीसेवने कि सुखम् ? अन्यजनप्रीतये नश्वरे द्रविणसंचये कि मुनम् ? सुविमङ्गरे तनयदर्शने वा किं (सुझम्) अस्ति ? यतः बत्र भवे गतचेतना तनुमता रतिः बध्यते ।। ४ ॥ गति विगलिता । वपुः परिणतम् । हृषीके मितम् । कुलं नियमितम् । भवो ऽपि कसितः । भवे परिभ्रमकृतं सुखं संमितम् । भवभूता घटीमन्त्रवत् इयं परिमिता अपि भवस्थितिः सदा अनन्ता कृता ।। ५ ॥ में दुःख हो दुःख भोगना पड़ता है ॥ ३ ॥ वास्तवमें देखा जाय तो इस संसारमें न तो सुंदर प्यारी स्त्रियोंके सेवनमें सुख है। विरसे-विरस होने पर शरीरका वीर्यरस स्खलन होने पर, काम भोगमें भी रस-आनंद नहीं आता । स्त्री-पुत्र आदि अन्य जनोंके रक्षणके लिये, दूसरे लोकोंके भोगके लिये कष्ट साध्य और नश्वर धनका संचय करनेके लिये यह जोय अनेक कष्ट सहन करता है। भाग्यसे स्त्री मिली, धन मिला, तथापि इतनेसे आशाको तृप्ति नहीं होती । पुत्रके मुख दर्शनको आशा चिंता लगती है। वास्तवमें देखा आय तो क्या उसमें भी सुख है ? उससे भी आशाको तृप्ति नहीं होती। तथापि यह जीव इस चेतन अचेतन परवस्तुओंमें तन्मय होकर उनमें ही प्रेम करता है। उनमें प्रेम बंधनमें अपनी यात्माको फसाता है। यह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥ ४॥ जिस प्रकार घटीयंत्र परिमित होकर भी सदैव घूमते रहनेसे अपरिमित अनंत सा प्रतीत होता है उसी प्रकार इस शरीरधारी जीवने संसारमें परिभ्रमण करते हुये संसारकी प्रत्येक अवस्था परिमित-मर्यादित होकर भी बार-बार उन अवस्थाबोंको धारण कर अनंत काल तक बनाये रखा। यह बड़ा आश्चर्य है ! वास्तव में यह जीव एक गतिमें स्थिर नहीं रहता। एक गति नष्ट होने पर दूसरी गति धारण करता है। शरीर भी जीर्ण होनेसे एक शरीरको छोड़ कर दूसरा शरीर धारण करता है। इंद्रियोंकी शक्ति परिमित है तथापि यह जीव इंद्रिय विषयोंकी आशाको अपरिमित-अमर्याद अनंत बनाता है। यह जीव जिस कुलमें उत्पन्न होता है वह कुल भी परिमित है । भव-वैभव भी परिमित मर्यादित होता है। परंतु वैभवकी इच्छा अपरिमित अमर्याद होती है । इंद्रिय विषयजन्य सुख भी तावत्काल परिमित होता है। परंतु सुखकी आशा इस जीवको अपरिमित अमर्याद होती है। इस प्रकार इस जीवने अपनी भवस्थिति वास्तवमें परिमित मर्यादित होकर भी उसकी आशा अमर्याद होनेसे अपनी भवस्थितिको अमर्याद-अनंत काल बनाये रखा है ॥ ५॥ इस संसार चक्र १ स जनदुर्लभे । २ स चिभ, सु(भाविभ° । ३.स मतं for मितं । ४ स om. कुल नियमितं । ५ समक्ते । ६ स या । ७ स परिनतः । ८ स देहिनाम् । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 251 : १०-९] १०. जातिनिरूपणषड्विंशतिः 249) इदं स्वजनदेहजातनयमातृभार्यामयं विचित्रमिह केनचिद्रचितमिन्द्रजालं ननु । क्य कस्य कथमत्र को भवति तत्त्वतो देहिनः स्वकर्मवशतिनस्त्रिभुवने निजो वा परः॥७॥ 250) होकविषयं सुखं किमिह यन्न भुक्तं भवे किभिक्छति नरः परं सुखमपूर्वभूतं नमु । कुतुहलमपूर्वज भवति नाङ्गिनो ऽस्यास्ति चे मछमैकसुखसंग्रहे किमपि नो विषसे मनः ॥ ८॥ 251) क्षणेन शमवानतो भवति 'कोपवान् संसृतो विवेकविकल: शिशुविरहकातरो वा युवा । "जराक्तितनुस्ततो विगतसर्वश्रेष्टो जरी धाति नटवन्नरः प्रचुरवेषरूपं वपुः ॥९॥ वपुभुता इह यत्सुखं न उपभुक्तं तत् न अस्ति । अनेकधा गतवता या न गाहिता, सा गतिः न । संसृती याः न परिचिताः, ताः नरपतिश्रियः न । यः देहिना सदा न गरिचितः सः विषयः न अस्ति ॥ ६ ॥ इह इदं स्वजनदेहजातनयमातृभामिय विचित्रम् इन्द्रजाल केनचित् रचितं ननु । अत्र त्रिभुवने तत्त्वतः स्वकर्मवशवर्तिनः कस्य देहिनः कः निजः वा परः कथं व मवति ? || ७॥ इह भवे यत् न भुक्तं (सत) हषीकविषयं सुखं किम् (अस्ति) ? ननु दरः अपूर्वभूतं परं सुसम् इति किम् ? अस्य मङ्गिनः अपूर्वजं कुतुहलं न भवति । अस्ति चेत् शर्मकसुखसंग्रहे मनः किं मो विषते ।। ८ ।। नरः संसृती क्षणेन शमवान् अतः कोपवान् भवति । विवेकविकल: शिशः विरहकातरः युवा वा (भवति)। ततः में घूमते हुये इस जीवने एकेंद्रियसे लेकर पंचेंद्रिय तक ऐसा एक भी शरीर नहीं कि जो इसने धारण नहीं किया! इस संसारमें ऐसा कोई सुख नहीं जो इस जीवने नहीं भोगा। ऐसी कोई गति नहीं जो इस गतिमान जीवने धारण नहीं की । ऐसा कोई राजवेमय नहीं जो इस जोवको परिचित नहीं, इस जीवने भोगा नहीं । ऐसा कोई चेतन-अचेतन पदार्थ या क्षेत्र नहीं जो इस जीवको परिचित अनुभूत नहीं है ॥ ६ ॥ इस संसारमें यह अपनी कन्या, पुत्र, माता, स्त्री, इत्यादिको लेकर विचित्र इंद्रजाल नाटक किसने रचा है इसका पता नहीं चलता । वास्तवमें कहाँ कौन किसका किस तरह हो सकता है । अर्थात् कोई भी किसीका नहीं है । अपने अपने कर्मोदयवश इस त्रिभुवनमें ये अपने भाई-बहन बनते है। बादमें यह भव छूटनेपर पर हो जाते हैं। विशेषार्थ-जिस प्रकार इंद्रजालमें देखी गई चोर्जे वास्तवमें सत् रूप यथार्थ नहीं होती। जब सक इंद्रजाल है तब तक दे दीखसों हैं। बादमें नष्ट हो जाती हैं। उसी प्रकार ये भाई बहन इस पर्यायमें जब तक संबंध है तब तक ही रहते हैं। पर्याय बदलने पर सब भिन्न भिन्न हो जाते है॥७॥ जन्म-मरण रूप इस संसारमें ऐसा कोई भी इंद्रिय अन्य सुख नहीं है कि जो इस जीवने अनेकों बार न भोगा हो । परंतु यह जीव ऐसा मूर्ख है कि उस पूर्वभुक्त सुखको ही बार बार भोगना चाहता है। वास्तवमें अपूर्व मुक्त पहले न भोगा हुआ जो सुख होता है वहीं श्रेष्ठ सुस है। इस जोवको अभूतपूर्व सुख भोगनेका कुलूहल ही नहीं है। यदि है तो यह जीव समतारूप उस्कृष्ट सुखके संग्रहके लिये अपना चित्त क्यों नहीं लगाता है ॥ ८॥ यह जीव कभी शांत होता है, तो कभी क्षणमात्रमें क्रोधयुक्त होता है। कभी विवेकशून्य होकर बालक अवस्था धारण करता है। कभो युवा होकर युवतियोंके विरहसे व्याकुल होता है। कभी वृद्ध होकर बुढ़ापेसे सब शरीर पीड़ित-शिथिल होता है, इसलिये कोई भी शरीर १ स त for ननु । २ स रस्ममै १ ३ स सम°। ४ स लोकवान् । ५ स जरादितनस्तदा । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः 1254 : १०-१२: 252) अनेकगतिचित्रितं 'विविधजातिभेदाकुलं समेत्य तनुमद्गणः प्रचुरचित्र'चेष्टोद्धतः । पुराजितविचित्रकर्मफलम विचित्रो सर्नु प्रगृहा नटवत्सवा भ्रमति जन्मरमाङ्गणे ॥१०॥ 253) अचिन्त्यमतिदुःसहं "त्रिविषवुःखमेनो ऽजितं चतुनिषगतिभितं भवभूता न किं प्राप्यते । शरीरमसुखाकरं जगति गृलतामुतता' तनोति न तथाप्ययं विरतिमूजिता पापतः ॥११॥ 254) "भजस्मतनुपोस्तिो विरहकातरः कामिनी करोति मदनोजिमतो विरतिमङ्गनासङ्गतः । तपस्यति मुनिः सुखी हसति विक्लयः क्लिष्यति विचित्रमति चेष्टितं श्रयति संस्तो जन्मवान् ।। १२॥ जरादिततनुः विगतसर्वचेप्टः जरी भवति । (एवं) नटवत् प्रचुरवेषरूपं वपुः दधाति ॥ ९॥ अनेकगतिचित्रितं विविषजातिभेदाकुलं समेत्य प्रचुरचित्रचेष्टोवतः पुराजितविचित्रकर्मफलमुक् तनुमद्गगः विचित्रां तनु प्रगृह जन्मरगाङ्गणे नटवत् सदा भ्रमति ॥ १० ।। जगति मसुखाकरं शरीरं गल्ता मुञ्चता भवभूता चतुर्विधगतिश्रितम् अचिन्त्यम् अतिदुःसहम् एनोजितं त्रिविषदुःख म प्राप्यते किम् ? तथापि अयं पापतः जिर्ता विरतिं न तनोति ॥ ११ ॥ अम्मवान् संसृती विचित्रमति चेष्टितं अयति । अतनुपीरितः विरहफातरः कामिनी भजति । मदनोज्यितः अङ्गनासङ्गतः चेष्टा करनेको, हाथ-पांव हिलानेको भी शक्ति नहीं रहती है। इसप्रकार इस संसारस्पो रंगभूमीपर यह जीव नाना प्रकारके शरीररूप वेष धारण कर नटकी तरह नाट्यलीला करता है ॥ ९॥ जिसप्रकार रंगभूमिमें नट अनेक प्रकारके चित्र विचित्र पात्रोंके रूप धारण कर उन्हीं जैसी चेष्टा करता है और दर्शकलोकोंको वास्तविक की सी भ्रांति करा देता है, उसीप्रकार यह जीव भी बन्ममरणरूप इस संसाररंगभूमिपर मनुष्य सियंच नरकदेव इन गप्तियोंमें नानाप्रकारकी एकोद्रियादि जातियोंमें जन्म लेकर नानाप्रकारको शुभ-अशुभ भावरूप चेष्टा करता हुआ अपने पूर्वोपाणित नानाप्रकारके कोका सुख-दुःख फल भोगता हुवा भ्रमण करता है। जब जिस पर्यायको धारण करता है उस समय उससे तन्मय होकर में उस पर्यायरूप ही हूं ऐसा भ्रमसे मानता है ॥ १०॥ इस संसारमें भय धारण करनेवाले इस बीयने चतुर्गसिमें पापकर्मसि उत्पन्न होने वाला शारीरिक, वाचिक, मानसिक तीनों प्रकारका प्रचित्य अति दुःसह ऐसा कौन-सा दुःख है जो कि नहीं भोगा । अर्थात् जन्म लेते समय दुःखकारक शरीर धारण करते हुए और मरण आनेपर उसे छोड़ते हुए नानाप्रकारका दुःख भोगा है। तथापि यह जीव पापकर्मसे उत्कृष्ट विरति-विराग परिणतिको धारण नहीं करता, यह बड़े आश्चर्य की बात है ॥११॥ यह जीव संसारमें कभी अनंग-कामदेवसे पीड़ित होकर प्रिय स्त्रियोंके विरहसे माकुलित होकर स्त्रियोंका संगम करता है । कभी कामविकार शांत हो जानेपर स्त्रियोंसे विरक्ति धारण करता है। कभी मुनि-तपस्वी होकर तप करता है। कभी वैमवसुखसे सुखी होता है तब आनंद मानता है हंसता है । कभी दुःखसे दुःखी होता है । तब शोक करता है। इस प्रकार इस संसारमें यह एकही जीव नाना १ स बिबिधि" । २ स मद्गुणः । ३ स "चित । ४ स विचित्र । ५ स त्रिविधि । ६ स गृलता मुञ्चता । ७ स भजन्त्य । ८ स सुखा । १ स सहति । ... Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 : १०-१५ ] १०. जातिनिरूपणषड्विंशतिः 255) अनेकभवसंचिता इह हि कर्मणा निमिता:' प्रियाप्रिय वियोगसंगमविपत्तिसंपत्तयः । भवन्ति सकलास्विमा गतिषु सर्वदा देहिना जरामरणवीचिके जननसागरे मज्जताम् ॥ १३ ॥ 256) करोम्यहमिदं तदार तमिवं करिष्याम्यवः पुमानिति सवा क्रियाकरणकारणव्यावृतः । विवेकरहिताशयो' विगतसर्वधर्मक्षमो" न बेसि गतमप्यहो जगति कालमत्याकुलः ॥१४॥ 257) इमे मम घनाजस्वजनवल्लभावहजा'--- मुद्दज्जनकमासुलप्रभूतयो भृशं वल्लभाः। मुषेति हतचेतनो भववने चिरं खिखते यतो भवति कस्य को जगति वालुकामुष्टियत् ॥ १५ ॥ विरतिं करोति । मुनिः तपस्यति । सुखी हसति । विक्लक क्लिश्यति ।। १२ ॥ हि इह सर्वदा जरामरणवीचिके जननसागर मज्जतां देहिनां सकलासु गतिषु इमाः अनेकभवसंचिताः कर्मणा निर्मिताः प्रियाप्रियवियोगसंगमविपत्तयः भवन्ति ॥ १३ ॥ महम् इदं करोमि, इदं तदा कृतम्, अदः करिष्यामि, इति सदा कियाकरणकारणव्यावृतः, अत्याकुलः, विवेकरहिताशयः, विगतसर्वधर्मक्षमः पुमान् जगति गतमपि कालं न वेसि अहो ॥ १४ ॥ इमे मम धनाङ्गजस्वजनवल्लभादेहबासुहजनकमासुलप्रभुतयः भृशं वल्लभाः इति हतचेतनः मुषा भवचने चिरं सिंद्यते। यतः जगति वालुकामुष्टिवत् कस्य कः भवति ।। १५ ।। निखिला जनाः कृतगरस्परोत्पत्तयः तनूअजननीपितृस्वससुताकलवादयो भवन्ति । किंबहुना, अत्र जगति आत्मनः प्रकारको चेष्टाएं करता रहता है ॥ १२॥ यह संसार समुद्र के समान अपरिमित है। इसमें यह जीव जन्ममरणरूपी लहरोंसे पीड़ित होकर मनुष्य आदि गतियोंमें अनेक भवोंमें संचित पूर्वोपार्जित कर्मोदयवश कभी इष्टवियोग, कभी अनिष्ट संयोग, कभी दारिद्रय, कभी विपत्ति, कभी संपत्ति-वैभव इस प्रकार नाना अवस्थाएं भोगता है ॥ १३ ॥ मैं अब यह करता हूँ, मैंने पूर्व में ऐसा किया, आगे मैं यह करूगा इसप्रकार सदैव क्रियाध्यापारके कारणोंमें ही व्याप्त होता है, विशेष प्रकारसे चित्त लगाता है। हित-अहितके विवेकसे रहित होता है। सर्व धर्म-कर्म क्षमा-दया दान की ओर ध्यान नहीं देता। क्षण-क्षणमें जीवनकाल कम हो रहा है, दिन पर दिन बीत रहे हैं इसका इस जीवको भान नहीं रहता ॥ १४ ॥ यह जीव रात-दिन यह मेरा धन, यह मेरा पुत्र, यह मेरा बंधु, यह मेरी स्त्री, यह मेरी पुत्री, यह मेरा मित्र, यह मेरा पिता, यह मेरी माता, यह मेरा मामा आदि हैं, ये मेरे बड़े प्यारे हैं । ये मुझपर बड़ा प्यार करते हैं । इन्हें छोड़कर मैं जीवित नहीं रह सकता । इसप्रकार मोहके वश होकर इन सब मिथ्या बातोंको सच्चा समझता है। उनके संयोग-वियोगसे बिना कारण दुखी होता है । वास्तवमें इस संसारबनमें कौन किसका होता है। कोई भी किसीका होता नहीं। जिसप्रकार हाथको मूठ्ठीमें बालुके कण रखो तो वे मुट्ठीमें रहते नहीं । एक-एक कण मूठीमें से गिरता रहता है। उसी प्रकार ये सब माता-पिता आदि परिवार समय पाकर विछुर जाते हैं। अपने-अपने कर्मोदय वश भिन्न-भिन्न गतिको जाते हैं ॥ १५ ॥ जो इस भवमें पुत्र है वह अन्य भवमें पिता होता है। जो इस भव में माता है वह १स कर्मणां निर्मताः । २ स संपतो। ३ स तथा। ४ स रहितावियो। ५ स क्षमा । ६ सहजा सु०।७४ ___ मुद्येति । ८ स विद्यरो, विद्यते, विद्यन्ते । ९ स वालिका", वालिकामुष्ट°, वाहुकाशुष्टि" । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सुभाषितसं बोह 253) तनूजजननीपितस्य ससुता कलत्रावयो भवन्ति निखिला जनाः कृतपरस्परोत्पत्तयः । किमत्र बहुनात्मनो जगति बेहजो जायते fare भवसंत तिर्भवभूतां सदा दुखवा ॥ १६ ॥ 259) विधाय नृपसेवतं धनमवाप्य खित्तेप्सितं करोमि परिपोषणं निजकुटुम्बकस्याङ्गनाः । मनोनयनवल्लभाः समवना निषेवे तथा सदेति कृतचेतसा स्वहिततो भवे अश्यते ॥ १७ ॥ 260) विवेकविल: ' शिशुः प्रथमतो ऽधिकं मोबले ततो मवमपीडित युवतिसंगमं वाञ्छति । पुनर्जरसमाश्रितो भवति 'नष्ट सर्वक्रियो 'विचित्रमति जीवितं 'परिणतेने लज्जायते ।। १८ ।। 261) विनश्वरमिदं वपुर्युवतिमानसं चालं भुजङ्गकुटिलो विधि: पवनगत्वरं जीवितं । १ १० अपायबहुलं मनं वत परिप्लवं यौवनं तथापि न जना भवव्यसनसंतते बिम्पति ३ ॥ १९ ॥ [261: १०-१९ देहजः जायते । भवभूतां सदा दुःखवा भवसंततिः धिक् अस्तु ।। १६ ।। नृपसेवनं विधाय चित्तेप्सितं धनम् अवाप्य निजकुटुम्बकस्य परिपोषणं करोमि तथा मनोनयनवल्लभाः समदनाः अङ्गनाः निषेवे । इति भवे सदा कृतचेतसा स्वहिततः भ्रश्यते ॥ १७ ॥ प्रथमतः विवेकविकलः शिशुः अधिकं मोदते । ततः मदनपीडितः युवतिसंगम वान्छति । पुनः जरसम् आश्रितः नष्टसक्रियः भवति । विचित्रमति जीवितं परिणतेः न लज्जायते ।। १८ ।। इदं वपुः विनश्वरम् युवतिमानसं `चञ्चलम् विषिः मुजङ्गकुटिलः । जीवितं पवनगत्वरम् । धनम् अपायबहुलम् । बस यौवनं परिप्लवम् । तथापि जनाः भवअन्य भवमें पुत्री होती है। इसप्रकार पुत्र माता-पिता-बहिन कन्या स्त्री इनमें परस्परसे परस्परकी उत्पत्ति देखी जाती है । ज्यादा क्या कहें, यह जीव मरकर स्वयं अपना पुत्र उत्पन्न हो जाता है। इसप्रकार इन संसारी जीवोंको सदा दुःखमय इस संसार परंपराको धिक्कार है ॥ १६ ॥ में राजाकी सेवाकर यथेच्छ धन प्राप्त करके उस घनसे मेरे कुटुंबका परिपोषण करूंगा। तथा मनको और नेत्रको आनंद देनेवाली काम बाणसे पीड़ित स्त्रीका सेवन करूंगा, उसको भोगूंगा। इसप्रकार मनमें नाना विकल्प करता हुआ यह जीव अपने मात्मकल्याणसे च्युत होता है ॥ १७ ॥ हित-अहितका विवेक रहित होनेसे शिशु अवस्थामें यह जीव प्रथम तो बड़ा आनंद मानता है। उसके बाद युवा होनेपर काम विकारसे पीड़ित होता हुका स्त्रीके साथ संगम की इच्छा करता है । वृद्ध अवस्थाका आश्रय लेनेपर अवयव शिथिल हो जानेसे कोई भी क्रिया करनेका उत्साह नष्ट हो जाता है । इसप्रकार एकही जीवनमें ऐसी विचित्र अवस्थाओंका अनुभव करता हुआ यह जीव लज्जित नहीं होता यह बड़ा आश्चर्य है || १८ || इस संसारमें यह शरीर तो नश्वर है ! कब नष्ट होगा इसका पता नहीं । जिनपर यह प्रेम करता है उन युवतियोंका मन चंचल होता है । आज किसी पुरुषपर तो कल किसी अन्य पुरुष १ स संततिभ° ° संतति, 'संततेर्भ" । २ स दुःखदा, दुःखजा । ३ स करोतु करोति । ४ स कुटुंबस्व सांगणाः, कुटुम्ब, कुबं स्वस्यां स्वस्वां । ५ स भ्रस्यते, भूस्यते, भूस्यते, भ्रम्यते, भ्रंस्यते, भ्राम्यते । ६° विगलः । ७ स सर्वनष्ट । ८ स विचित्रमिति, मतिजीवितं । ९ स परिणते न । १० स आपाय । ११ स धनं तप । १२ स जनो । १३ स विभ्यत, व्विल्पति । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 : १०-२२] १०. जातिनिरूपणपविशतिः 262) विपप्तिसहिताः श्रियो ऽसुखयुतं सुखं अन्मिनां वियोगविषदूषिता जगति सम्जनः संगतिः । जोहाबिलं वपुमरणनिन्दितं प्राणिनां" तदाप्ययमनारतं हतमतिर्भवे रज्यति ॥ २०॥ 263) 'अशान्तहुतभुक्शि खाकवलितं जगन्मविरं सुखं विषमवातभुग्नसनवन्चलं कामजम् । जलस्थशशिचनाला भुवि विलोक्य लोकस्थिति विमुश्चत जनाः सदा विषयमूर्छनो तस्वतः ॥ २१ ॥ 264) भवे न कठिनस्तनीस्तरललोचनाः२ कामिनी अर्धरापरिढधियश्चपल चामरभाजिता:"। रसादिविषयांस्तथा'"सुखकराल का सेवते भवेद्यवि जनस्प नो तृणशिरो ऽम्युज्जिीवितम् ॥ २२ ॥ व्यसनसंततेः न विम्यति ॥ १९ ॥ जगति जन्मिनां प्राणिनां श्रियः विपत्तिसहिताः । सुखम् असुखयुप्तम् । सजनैः संगतिः वियोगविषदूषिता । वपुः रुजोरुगबिलं मरणनिन्दितम् । तदपि अयं हतमतिः अनारतं भवे रज्यति ॥ २० ॥ हे जनाः, बगमन्दिरं अपान्तहुतभुकिशखाकवलितम् । कामजं सुन विषमवातभुम्नसनवच्चलम् । भुवि बलस्वशशिवम्बलां लोकस्थिति तत्त्वतः विलोक्य विषयमूर्छनां सदा विमुञ्चत ॥ २१ ॥ अत्र भत्रे यदि जनस्य जीवितं तृणशिरोम्बुबह नो भवेत्, कः कठिपर । विधि दैवभाग्य भुजंगके समान टेढ़ा चलता है। कभी वैभवके शिखरपर चढ़ाता है तो कभी विपत्तिको खाई में गिराता है। आज श्रीमंत है तो कल दरिद्री बनकर घूमता फिरता है । जीवन पवनवेगकी तरह चचल है ! धन कमाने में कष्ट । उसकी रक्षा करनेमें कष्ट। अंतमें किसी कारणसे धनका वियोग होनेपर यह जीव अति कष्टो होता है । यौवन शीघ्र ही नष्टप्राय होता है । तथापि यह जोव संसारकी नानाविध संकट परंपरासे भयभीत होता नहीं। यह बड़ा आश्चर्य है ।। १९ ।। यद्यपि इस संसारमें जीवोंको जो संपत्ति मिलती है वे विपत्तियोंसे सहित होती है। सुखके अनंतर दुःख अपना स्थान जमाता है । सन्जनोंकी संगति वियोगरूपी विषदोषसे दूषित है। शरीर रोग रूपो सर्पका बिल है। जन्म मरणसे सहित है। तो भी जिसकी बुद्धि जिसका विवेक नष्ट हुआ है ऐसा यह जीव निरंतर इस दुःखसय संसारमें ही अनुरक्त होता है। संसार सुखमें ही आसक्त होता है । यह बड़ा आश्चर्य है ।। २० ।। यह जगत् रूपी महल असातारूपी अग्निको प्रज्वलित ज्वालासे सर्वदा जलता रहता है । काम विकार जन्य सुख विषम वायु फूत्कार छोड़ने वाले सर्पकी जिह्वाके समान चंचल है। यह लोकस्थिति-लोकमें दीखने वाली जो भी वस्तु है वह सब जल में दोखने वाले चंद्रबिंबके समान चंचल है। ऐसा देखकर हे भव्य जीवों, ययार्थ तत्त्वज्ञान प्राप्त करके इन विषयोंकी वांछाका तया सब प्रकारके परिग्रह मूर्छाका सर्वथा त्याग कर दो ॥ २१ ।। यदि इस संसारमें मनुष्यका जीवन तुणके शिरोभागपर पड़ने वाले जल बिंदुके समान चंचल क्षणभंगुर न होता तो, ऐसा कोन पुरुष है कि जो कुंभकलश समान कठिन स्तन १ स सपत्ति , सपन्नि । २ स थियो सु, श्रियो दुख° , ३ स रखो । ४ स जन्मिनां for प्राणिनां, प्राणितं । ५ स स्पति, रति, रपते, रज्यते । ६ स असात', अशात । ७ स भुक्षिसा', भुक्शिा ' । ८ स "भुन । ९ स चंचला, चंचलं । १० स विमुचति । ११ स जनां । १२ °लोचना कामिनीं। १३ स °घरापति° । १४ स श्रियं । १५ स चपला । १६ स भ्राजिता । १७ स स्तथा सुख° । १८ स का। १९ स 'यदि for भवेद्यदि । २० स वृतशिरोवु । २१ स जीवितां । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ هوا सुभाषितसंोहः I 265 ) हसन्ति धनिनो' जना गतवना यवन्त्यातुराः पठन्ति कृतबुद्धयो ऽकृतधियो ऽनिशं शेरते तपन्ति मुनिपुङ्गवा विषयिणो रमन्ते तथा करोति नटनर्तनक्रममथं भवो जम्मिताम् ॥ २३ ॥ 266) न किं तरललोचना समदकामिनी वल्लभा ४ विभूतिरपि भूभुजां धवलचामरचछत्रभृत् । भरच्चलित दीपवज्जगवियं विलोक्यास्थिरं परं तु सकला" जनाः कृतधियो बनान्ते गताः ॥ २४ ॥ 267) इति प्रकुपितोरगप्रमुख भङ्गुरां सर्वदा निधाय निजचेतसि प्रबल 'दुःखवां संसृतिम् " । विमुत परिग्रहमनार्जवं सज्जना बोच्छत सुखामृतं रसितुमस्तसर्वाशुभम् ॥ २५ ॥ [ 267 : १०-२५ नस्तनीः तरललोचनाः कामिनीः, चपलचामरभ्राजिताः घरापरिवृढश्रियः तथासुखकरान् रसादिविषयान् न सेवते ? ।। २२ ।। धनिनः जनाः हसन्ति । गतधनाः आतुराः सवन्ति । कृतबुद्धयः पठन्ति । अकृतधियः अनिशं शेरते । मुनिपुङ्गवाः तपन्ति । तथा विषयिणः रमन्ते । अयं भवः जन्मिनां नटनर्तनक्रमं करोति ॥ २३ ॥ तरललोचना समदकामिनी वल्लभा न किम् । भूभुजां धवलचामरच्छ्त्रभूत् विभूतिरपि (वल्लभा न किम् ) परं तु कृतधियः सकला जनाः इदं जगत् मरुच्चलितदीपवत् अस्थिरं विलोक्य वनान्ते गताः ॥ २४ ॥ हे सज्जनाः, इति प्रकुषितोरगप्रमुखभङ्गुरां संसृति सर्वदा निजचेतसि युगलको धारण करने वाली और चंचल नेत्रवाली कामिनियों का संसर्ग न करता । तथा ढोलते हुये चामरोंसे शोभित पृथ्वीपतिके राजवैभवको सेवन न करता । तथा मधुर रसादि पंचेंद्रियोंके विषयों को सेवन न करता । अर्थात् इन विषयोंको छोड़नेकी इस जीवको कदापि इच्छा नहीं होती । परंतु इसका जीवन पानीके बुलबुले के समान क्षणभंगुर होने से इस जीवको स्वयं इन विषयोंको छोड़कर चला जाना पड़ता है। इसलिये तत्त्वज्ञानी अपने जीवनको चंचल जानकर इन विषयोंको स्वयं त्यागकर तपस्वी बनकर आत्मकल्याणकी साधना करते हैं || २२ || जिनको भाग्यवश धन मिलता है वे आनंदसे हंसते हैं । देववश जिनका धन चला जाता है वे शोकाकुल होकर रोते हैं । जिनको कुछ बुद्धि क्षयोपशम प्राप्त है वे शास्त्र पढ़ते हैं। जिनको बुद्धि नहीं क्षयोपशम नहीं वे निरंतर प्रमादमें नींद लेने में जीवनको खोते हैं । जो मुनिश्रेष्ठ संसारसे विरक्त होते हैं वे तपोवन में जाकर तप करते हैं, आत्मसाधना करते हैं । जो विषयोंके अनुरागी हैं वे पंचेंद्रिय विषयों में ही रमते हैं । इस प्रकार यह जीव इस संसाररूपी रंगभूमिपर नटके समान विविध क्रिया करता रहता है || २३ || जिनके लोचन तरल हैं चंचल हैं, कामके मदसे विह्वल वे प्रिय कामिनियां क्या अस्थिर नहीं है। श्वेत चामर और छत्रसे शोभित राजा महाराजाओं की विभूत्ति भी क्या अस्थिर नहीं है । इस प्रकार पवनके द्वारा चलित होने वाली दीपककी लोके समान इस संपूर्ण जगत् को अस्थिर देख बुद्धिमान पुरुष इस जगतके मायाजालसे विमुख होकर वन प्रदेश में जाकर तप करते हैं ।। २४ ।। इसलिये हे सज्जनों, यदि तुम्हारी इच्छा समस्त दुःखोंसे रहित चिरस्थायी परम सुखामृत पीने की हो तो यह प्रक्षुब्ध सर्पादिक से युक्त क्षणभंगुर संसारका जीवन महान दुःख १ स घनिजो । २ सहृत, इत° । ३ स भवे जन्मनां । ४ स कामिनीवल्लभा । ५ स सकलं, झकला । ६ सom. प्रबल ७ स दुःखदां सदा संसृति । ८ स सुखासुखं । ९स सर्वाशुगं, "शुगां, "सुगं । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ 268 : १०-२६ ] १०. जातिनिरूपणषविंशतिः 268) मनोभवशरादितः स्मरति कामिनी यां' नरो विचिन्तयति सापरं मवनकातराङ्गो परम्। परोऽपि परभामिनीमिति विभिन्नभावे स्थिती विलोक्य जगतः स्थिति सुधजनास्तपः कुर्वते ॥ २६ ॥ इति जातिनिरूपणपविशतिः ॥१०॥ प्रबलदुःसदा निघाय, यदि अस्तसर्वाशुभं सुखामृतं रसिंतुम् इच्छत, परिग्रहग्रहं धनार्जवं विमुन्नत ॥ २५ ॥ मनोभवशरावितः नरः या कामिनी स्मरति सा मदनकातरामी अपरं विचिन्तयति । परं परोऽपि परभामिनी (विचिन्तयति)। इति विभिन्नभावे स्थिता जगतः स्थिति विलोक्य सुषजनाः तपः फुर्वते ।। २६ ।। ॥ इति जातिनिरूपगविशतिः ॥ १०॥ देनेवाला है ऐसा अपने चित्तमें निर्णय लेकर उससे छुटकारा पाने के लिये कुटिल परिग्रहको ग्रहण करनेकी इच्छा का त्याग करो। समस्त पदार्थोसे ममस्वभाव छोड़ दो॥ २५ ॥ जो पुरुष मनोभव कहिये कामदेवके बाणसे पीड़ित होकर जिस कामिनी-स्त्रीको चाहता है, उसके साथ समागमका निरंतर आर्तध्यान करता है, वह स्त्री उसको नहीं चाहती । वह कामसे पीड़ित होकर किसी दूसरे परपुरुषके समागमको इच्छा करती है। वह परपुरुष भी अन्य किसी दूसरी स्त्रीको इच्छा करता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न इच्छारूप भावोंसे युक्त इस संसारकी स्थितिको देखकर ज्ञानीजन संसारसे विरक्त होकर तपोवनमें जाकर तपोनुष्ठान कर अपनी बास्माकी साधना करते हैं ।। २६ ।। १सयो । २ स परां। ३ स भावेप्सिता, स्थितं । ४ स om. इति, इति जातिनिरूपणम् । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११. जरानिरूपणचतुर्विंशतिः ] 269) अनयति वचो ऽव्यक्तं वक्त्रं सनोति मलाविलं स्वलयति गति हन्ति स्थान रेलमीकुरुते तनुम् । दहति शिखिवत्सा सर्वाङ्गीण यौवनकाननं गमयति वपन वा करोति जरा न किम् ॥ १ ॥ 270) जलपवनापातथ्वस्तप्रदीपशिलोपमें - रमलमिमैः " कामोदभूतेः सुखविवर्भिः । शमपरिचितो दुःखप्रान्तेः " सतामतिनिन्दितेरिति कृतमनाः शङ्क वृद्धः प्रकम्पयते' करो" ॥ २ ॥ 272) चलयति तनुं दृष्टेति करोति शरीरिणा रवयति लावव्यक्ति तनोति गतिशतिम् । जनमत कने ऽनुधा" निम्बामनर्थपरंपरां हरति सुरभि गन्धं बेहाज्जरा मदिरा मया ॥ ३ ॥ जरा वचः अव्यक्तं जनयति । वक्त्र मलाविलं तनोति । गति स्वस्पति, स्थाम हन्ति । तनुं लचीकुरुते । सर्वाङ्गीwatवनकाननं शिखिवत् दहति । मर्त्यानां वपुः वा गमयति । सा किं न करोति ॥ १ ॥ प्रबलपवनापातध्वस्त प्रदीपशिखोपमैः विषसं निर्भ:, रामपरिचितो दुःखप्रान्तैः सताम् अति निन्दितैः इमैः कामोद्भूतैः सुखैः अलम् अलम् इति कृतमनाः वृद्धः करो प्रकम्पयते (इति) शके ॥ २ ॥ जरा यथा मदिरा शरीरिणां तनुं चलयति । दृष्टेः भ्रान्ति करोति । बलात् अभ्यनतोषित बुढ़ापा आने पर मनुष्यके वचन अस्पष्ट निकलते हैं। श्वासके रुक जानेसे वह स्पष्ट बोल नहीं सकता । जीभ लड़खड़ाने लगती है । मुँह सर्वदा मलसे भरा हुआ रहता है। लार-कफ आदि भुंइसे बहने लगते हैं । यति स्वलित हो जाती है। पेरमें पेर अटक जाते हैं। स्थान कहिये सामर्थ्य नष्ट हो जाता है। शरीरके अवयव शिथिल हो जाते हैं। शरीर, हाथ-पाँव हिलने लगते हैं । शरीरको सब जवानी अग्निसे जलाये गये बनके समान खाक में मिल जाती है। अंतमें शरोरको गमाना पड़ता है। और क्या कहें यह बुढ़ापा इस मृत्युलोकमें स्थित जीवोंकी कौन-सी दुःखद अवस्था नहीं करता है। अर्थात् बुढ़ापा महान दुःखदायी है ॥ १ ॥ हमारा अनुमान है कि बुढ़ापेके कारण मनुष्यके जो दोनों हाथ कंपित होते हैं के मानों अपने अंतरंगके इस प्रकारके भाव प्रकट करते हैं कि- भाइयों ! हमने जो यौवन अवस्थामें काम जन्य सुख भोगे थे वे अब विषके समान हानिकारक सिद्ध हुए । आंधी के वेगसे बुझाई गई दीपकके लौ के समान विनश्वर निकले। जिनका सब जीवोंको समान परिचय है और दुःख ही जिनका अंत है, ऐसे इन विषयोंकी सज्जन पुरुष सदा निंदा ही करते हैं । तुच्छ समझते हैं । कदापि उनको नहीं चाहते। ऐसा मनमें भाव रखकर ही मानों यह वृद्ध पुरुष अपने दोनों हाथ हिलाता है । ऐसा हम अनुमान करते हैं || २ || जिस प्रकार मदिरा पीने से शरीर चल-विचल होता १ स व्यक्तं । २ स इलयों, दलधीं, ग्लषां, स्थलों, स्थली । ३ स "सर गर्वागना यो", "त्सर्धानांनग° ° सर्वानंगेन यौ सर्व्वेषां गतयो । ४ स म । ५ स रलमलनिश्च, मलनिनः, मलनिनिस्वः, मलसिमैः, मलनिचेः । ६ स समपरिचितेः परिचितो७स प्राप्तः प्राप्तः । ८ स प्रकृपायते । ९स कनो, करें । १० स दृष्टे । ११ स नुचा । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ 274: ११-६] ११. अरानिरूपणचतुर्विंशतिः 272) भवति मरणं प्रत्यासन्नं विनश्यति यौवनं प्रभवति जरा सर्वाङ्गाणां विनाश विधायिनी। विरमत' बुधाः कामार्थेभ्यो वर्षे कुवतावर' वचितुमिति या 'कर्णोपान्ते स्थितं पलित बने ॥ ४॥ 273) मदनसदृशं यं पश्यन्ति विलोपनहारिणी शिथिलततनुः कामावस्या गता मदनातुरा। तमपि अगता शोचं मत्य बलादिह भोज्यते जगति युवतीर्वा भैषज्यं विमुफ्तरतस्महा" ॥५॥ 274) भवति विषयाम्मोक्तुं भोक्तुं न च क्षमचेष्टितो ___वपुषि अरसा जीर्ण वेही विभूतबल:१५ परम्। रसति तरसा स्वस्थीनि" श्या" यथा अपयोग्मितः कररसनया धिजीवाना विचेष्टितमीपशम् ॥ ६॥ रचयति गतिकति तनोति । अने अनुशा निन्दाम् अनर्थपरंपरा (च) जनयति । देहात सुरभि गन्धं हरति ॥ ३ ॥ बुधाः, मरणं प्रत्यासन्नं भवति, यौवनं विनश्यति, सर्वाङ गाणां विनाशविधायिनी बरा प्रभति, कामापेभ्यः विरमत, इर्षे आदरं कुरुत, इति जने वदितुं वा कर्णोपान्ते पलितं स्थितम् ॥ ४॥ इह जगति विलोचनहारिणी युवतिः यं मत्यं मदनसदृर्श पश्यन्ती कामावस्था गता मदनातुरा (भवति स्म सैव अषुना) शिपिलिततनुः विमुफ्तरतस्पृहा जरमा शीर्णम् अपि त भैषज्यं । वा बलात् भोज्यते ॥ ५ ॥ वपुषि जरसा जीर्ण विधूतबलः देही विषयान भोक्तुं मोक्तुं च न समष्टितो भवति । परंतु है। आँखें घुमती रहती है । टूटे-फूटे अस्पष्ट वचन मुखसे निकलते हैं। चलते समय पैरमें पैर अटक जाते हैं। चलते चलते गिर पड़ता है । लोक उपहास-निंदा करते हैं । शरीरसे दुर्गन्धी फैलती है। इस प्रकार मदिरापान नाना अनर्थ परंपराका कारण होता है। उसी प्रकार वृद्धावस्थामें शरीर-पष्टी हिलती है । दृष्टि में ज्योति कम होनेसे स्पष्ट नहीं दीखता । भ्रांति पैदा होती है। मुखसे दूटे-फूटे कुछके कुछ शब्द निकलते हैं। पांवमें पलनेकी शक्ति न होनेसे पैरमें पैर अटकते हैं। चलते-चलते गिर पड़ता है। बालक लोक हंसी उड़ाते हैं। शरीरसे दुगंधी फैलती है । इस प्रकार वृद्धावस्था नाना अनर्थ परंपराका कारण बन जाती है ।। ३ ॥ वृद्धावस्था आनेपर जो शिरमें केश श्वेत हो जाते हैं वे मानों लोकोके कानके पास आकर अपने आगमनसे इस बातको सूचना देते हैं कि-हे सज्जनों, हिसाहित विवेकीजनों सावमान हो, तुम्हारा मरण अब समीप आया है। यौवनकी अवधि पूरी हो चुकी है । सरुणावस्था नष्ट हो गई है। सर्व शरीरके अवयवोंको शिथिल बनाने वाला बुढ़ापा आ गया है । इसलिये अब तो काम पुरुषार्थको और अर्य पुरुषार्थको छोड़ दो। काम और अयं पुरुषार्थसे अपनी उपयोग वृत्ति हटाकर धर्म पुरुषार्थमें अपनी उपयोग वृत्ति लगायो । धर्मका आदर करो। अंतके दिनोंमें भी कुछ अपना आत्महित कर लो॥ ४ ॥ अपने नेत्र कटाक्षोंसे पुरुषोंके चित्तको हरण करनेवाली, जो स्त्री युवावस्थामें जिस मदन सदृश कामी पुरुषको देखकर मदनसे पीड़ित होकर फाम विकारको प्राप्त होती थी। अब उसो पुरुषको वृद्धावस्थामें बुढ़ापेसे जीर्ण शीर्ण देखकर कामको इच्छासे रहित हो जाती है। फिर भी औषधके समान जबरन भोगी जाती हैं ॥५॥ यद्यपि बुढ़ापेसे ग्रस्त पुरुष निर्बल हो जाता है, उसको शारीरिक शक्ति १ स विरमति, विरमता । २ स वृष । ३ स कुरुते १४ स कणें । ५ स स्थिति । ६ स पश्यति । ७ स हारिणि । ८ स कानावस्था, काना, कांता । ९ स तदपि । १. स orL. मुवति । ११ स विमुक्तस्पृहा । १२ स भोक्षु, भोक्तुं । १३ समक्ष । १४ स जीर्णा, जीर्णो । १५ स विधुत', विमूवितवलः । १६ स स्वस्थीनि । १७ स श्चा, स्वा। सु. रां, १० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंवोहः [277 : ११.९ 275) तिमिरपिहित नेत्रे लालाव'लोमलिनं मुखं विगलितगती पादौ बेहो 'विसंस्थुलतां गतः । पलिसकलितो मूर्धा कम्पत्यबोधि' जरागाना *मिति कतपदा तृष्णानारी' तयापि न मुञ्चति ॥७॥ 276) गलति सकलं रूपं लालां विमुञ्चति जल्पने ___ स्खलति गमनं बन्ता नाशं भयन्ति शरीरिणः । विरमति मतिर्नो शुश्रूषां करोति च गहिनी वपुषि अरसा ग्रस्ते वाक्य तनोति म हजः ॥ ८॥ 277) रचयति मति धर्मे नीति तनोत्यतिनिर्मला विषयविरति पत्ते चेतः शर्म नपते परम्'। व्यसननिहति २ बाते सूते विनीतिमयाञ्चिा मनसि निहिता" प्रायः पुंसां करोति जरा हितम् ॥९॥ यथा स्वा अस्थीनि (तया) पयोजिसतः कररसनया तरसा रसति । जीवानाम् ईदृशं विचेष्टितं धिक् ॥ ६ ॥ नेत्र तिमिरपिहिते, मुखं लालावलीमलिनं, पादौ विगलितगतो, देहः विसंस्थुलतां गतः, पलितकलितः मूर्धा कम्पति । इति कृतपदा जरा गनाम् अबोधि । तथापि तृष्णानारी न मुञ्चति ॥ ७ ।। वपुषि जरसा प्रस्ते परीरिणः सकलं रूपं गलति । अल्पने लाला विमुञ्चति । गमनं स्वलति । बस्ताः नाशं श्रयन्ति । मतिः विरति । गहिनी शुश्रूषा न करोति । देहजः व वाक्य न तनोति ॥ ८ ॥ मनसि निहिता जरा प्रायः पुंसां हितं करोति। धर्मे मति रचयति । अतिनिर्मला नीति तनोति । चन: एकदम क्षीण हो जाती है तथापि उसको इंद्रिय विषयोंको छोड़नेको इच्छा न होकर, प्रत्युत भोगनेकी ही इच्छा बनी रहती है। जिस प्रकार कुत्ता रक-मांस रहित हड्डोको तृष्णाके वश चबाया ही करता है । उसी प्रकार निलंज्ज होकर यह जोव वृद्धावस्थामें भी उन इंद्रिय विषयोंको सेवन करनेकी ही इच्छा करता है । इस प्रकार संसारी जीवकी इस चेष्टाको धिक्कार है ॥ ६॥ संसारका ऐसा कायदा है कि स्त्री एक पुरुषको तब सक ही अनुराग (प्रेम) करती है जब तक वह पुरुष उसी स्त्रीको चाहता है। ज्योंही उस पुरुषने अन्य स्त्रीको चाहा, त्योंही वह उस पर गुस्सा करने लगती है। उसे छोड़नेके लिये उतावली हो जाती है। परंतु तृष्णारूपी यह स्त्री ऐसी निर्लज्ज है-स्त्रियोंके कायदेके विरुद्ध काम करने वालो है-कि पुरुषको, अपने पतिको जरा रूपी अन्य स्त्री पर आसक्त होते हुये देखकर भी उसे छोड़ना नहीं चाहती। यद्यपि उस पुरुषके नेत्र मंद ज्योतिसे अंघुक हो गये हैं, लार गलनेसे मुख मलीन है, पैर चलनेमें लहखड़ाते हैं, शरीर शिथिल झुर्रातार हो गया है, शिरका माथा केसके गलनेसे पलित हो गया है, शिर हिलता है, कांपता है, इसलिये जरारूपो अन्य स्त्रीने इसे अपना लिया है, स्वाधीन कर लिया है, ऐसा जानकर भो यह तृष्णारूपो नारी इसे छोड़ना नहीं चाहती । अर्थात् इस पुरुषको विषय भोगोंको इच्छा बनी ही रहती है। यह बड़ा आश्चर्य है ॥ ७॥ जब यह पुरुष जरासे ग्रस्त हो जाता है तब इसका संपूर्ण रूप-सौंदर्य नष्ट होता है। बोलते समय लार बहसा है। चलनेमें गति स्वलित हो जाती है। दांत गिर जाते हैं। बुद्धि कुंठित हो जाती है । स्त्रो सेवा शुश्रूषा करनेको इच्छा नहीं करती। अपना १ स वलिम"। २ स विसंस्थ', विसंस्क', विशंस्थु । ३ स 'बोजरांगना। ४ स इव कृतपदां, जरांगनानिमि कृमपदा । ५ सतृष्णा नारी । ६ स वा for च। ७ स काव्यं । ८ स तनोसिभिनि । ९ स समं । १० सनयति। ११ स परां । १२ स निहितं । १३ स याचिता, यांचितं, योचिता, धार्चिता, पच्युतां । १४ स हिता, निहता। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 : ११-१२ ] ११. जरानिरूपणचतुर्विंशतिः 278) पुवतिरपरा तो भोक्तव्या त्वया मम संनिधाविति निर्वादितस्तूष्णां योषां न मुखसि कि शठ । निगदितुमिति श्रोत्रोपान्तं गतेव जराङ्गना पलितमिषतो न स्त्रीमन्य' यतः सहते ऽङ्गना ॥ १० ॥ 279) वचनरचना जाता व्यक्ता मुखं बलिभिः श्रितं नयनयुगलं ध्वान्तायातं श्रितं पलितं शिरः । विघटितगत पाव हस्तो सवेपथुतां गतौ तदपि मनसस्तृष्णा कष्टं व्यपैति " म केहिनाम् १२ ॥ ११ ॥ 280) सुखकरतनुस्पर्शा गौरी करग्रह लालितो नयनदयितां यशोद्भूतां शरीरमलप्रवाम् । घृतसरलता बुद्धो यष्टि न विभूषितां त्यजति तरुण त्यक्त्वाप्यन्यां जरावनितासखीम् ॥ १२ ॥ ७५ विषयविरति धत्ते । परं शमं (च) नयते । व्यसननिहति दत्ते । अथ मंञ्चितां विनोति सुते ॥ ९ ॥ श वया मम संनिधौ अपरा युवतिः नो भोक्तव्या इति निगदित ( एवं ) सूष्णां योषां किं न मुञ्चसि । इति निगदितुम् इव जराङ्गना श्रोत्रयान्तं पलितमितो गता । यतः अङ्गना अन्यां स्त्रीं न सहते । १० ११ वचनरचना अभ्यक्ता जाता । मुखं बलिभिः श्रितम् नयनयुगलं ध्वान्ताघ्रातम् । पलितं शिरः श्रितम् । पादौ विघटितगती । हस्तो सवेपथुतां गतौ । तदपि तृष्णा देहिनां मनसः न व्यपैति कष्टम् ॥ ११ ॥ वृद्धः सुखकरतनुस्पर्शा, गौरीं, करग्रहृलालितां नयनदयिता, वंशोद्भूतां शरीरबलप्रदां घृत . पुत्र भी अपनी माज्ञा नहीं मानता है। इस प्रकार वृद्धावस्था में अत्यंत दयनीय स्थिति होती है ॥ ८ ॥ परंतु ऐसा करने पर भी यदि हित बुद्धिसे विचार किया जाय तो बुढ़ापा एक सरहसे इस प्राणीका प्रायः हित भी करता है । देखो - बुढ़ापा आने पर प्रायः विवेको पुरुषोंकी बुद्धि धर्म में लगती है । अति पवित्र नीतिका आच रण होने लगता है । विषयोंसे विरक्ति सहज का जाती है । चित्तमें अभूतपूर्वं शांति-प्रशम भाव उत्पन्न होता है । पाप बुद्धि नष्ट हो जातो है । मनमें श्रेष्ठ पवित्र विनय उत्पन्न होता है ।। ९-१० ॥ तथा वृद्धावस्था में यह जरारूपी स्त्रो पलित केशके रूपमें मानों कानके समीप यह कहनेके लिये आयी हैं कि तूने मेरी संगतिकी है । अब पुनः दूसरी स्त्रीको नहीं भोगना । ऐसा कहने पर भी हे शठ तू इस तृष्णारूपी स्त्रीको क्यों नहीं छोड़ता । क्योंकि कोई भी स्त्री अन्य स्त्रीको अपने सौतके साथ आसक्त होना सहन नहीं करतो । जरा कहतो है मैं तुम्हारी हितकारिणी स्त्री आ गई हूं। मेरे सामने इस दुष्ट तृष्णाका संपर्क न करना चाहिये। इसको संगतिसे तुमने आज तक नाना कष्ट उठाये । वृद्धावस्थामें मनुष्यकी भाषा अस्पष्ट होती है । मुख पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। दोनों नेत्र ज्योति मंद होनेसे अंध हो जाते हैं । बाल सफेद होनेसे शिर पलित हो जाता है। दोनों पैर टेड़े मेढ़े पड़ने लगते हैं । दोनों हाथ कंपने लगते हैं । सो भो इसके मनकी तृष्णा नहीं मिटती । यह बड़े खेदको बात है ॥ ११ ॥ वृद्धावस्था आने पर मनुष्य यद्यपि जिसका शरीर स्पर्श सुखकर है, जो गौर वर्णवाली है, जिसका पाणिग्रहण कर प्यार किया, जो नेत्रको तृप्त करती है, कुलीन है, उच्च कुलमें उत्पन्न हुई हैं, जिसने आज तक १] गदिता, गदितं तृ । २ स मुञ्चति । ३ स सतः, सताम्, शठां:, सगं शयं । ४ स श्रोतां । ५ स पानं, "पांते, यांतं । ६ स श्रीमन्यां । ७ स याता, जाला, जाता व्यक्ता । ८ स सूतं श्रुतं । ९ स शितं श्चितं सितं । १० स सर्वेपयतां, पितां समुखं वलिभिः सुतं नयनयुगलं वेधिलां गतौ । ११ स व्युपैति । १२ स देहिना । १३ स पूर्व Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः [ 283 : ११-१५ 281) त्यजसि न हते तृष्णायोपे जराङ्गनया नरं रमितवपुषं षिक्त स्त्रीत्वं शठे ऋषयोजिाते। इति निगदिता कर्णाभ्यणे गतः पलितेरियं तदपि न गता तुष्णा का वा नु मुजति वल्लभम् ॥ १३॥ 282) त्यजत' विषयात् दुःखोत्पत्तो' पटूननिशं खलान् भजत विषयान जन्मारानिरा सकतौ हितान् । जरयति यतः काल: कार्य निहन्ति च जीवित "थदिमिति वा कर्णोपान्ते मतं पलितं जना॥१४॥ 283) हरति विषयान् वण्डालम्बे करोति गतिस्थिती स्खलयति पनि स्पष्टं नार्थ विलोकपितुं क्षमा। परिभवकतः सर्वानचेष्टास्तनोस्यनिवारिता: कुनृपमतिबहे हं नृणां जरा परिजम् ॥१५॥ सरलतां, पर्वविभूषिता, तरुणी त्यक्त्वापि अन्यां जरावनिताखों (सुखकर-इत्यादि विशेषणविशिष्टां) यष्टि न त्यजति ॥ १२ ॥ शाठे, हते, अपयोज्सिते, तृष्णापोषे, जराङ मनया रमितवपुष नरं न स्पजसि । ते स्त्रीत्वं धिक् । इति काम्यर्णे गतेः पलितः तृष्णा निमविता । तदपि इमं न गता। का नु वा बल्लभं मुश्वति ।। १३ ॥ जनाः, अनिशं दुःखोत्पत्तौ पटून् खलान् विषयान् त्यजत 1 जन्मारातेः निरासकृतो हितान् विषयान् भषत । यतः कालः कार्य जरयति । जीवितं च निहन्ति । हति वदितुं वा पलित कर्णोपान्ते गतम् ।। १४ ।। जरा कुनुपमतिवत् विषयान् हरति । दण्डालम्बे गतिस्थिती करोति । पषि शरीर भोगसे शरीरको बल-उत्साह प्रदान किया, माया, कपट, छल न करते हुये सच्ची पतिव्रता रहकर जिसने सरलता, ऋजुता धारण को है, धर्म पर्वसे जो विभूषित है ऐसी धर्म पलीको छोड़ देता है किंतु जरारूपी स्त्रोकी जो प्यारी सखी है, जिसका सनुस्पर्श सुखकर है, जो सफेद है, जिसको हाथमें पकड़ना लाभदायक लगता है, जो नेत्रका काम करती है, जो वंश (बांस) से बनी हुई है, जिसको पकड़ने पर शरीरमें बल आता है, जो सीधी सरल है , वक्र नहीं, जो पर्वोसे (गांठ) से सुंदर दिखाई देती है उस तरुण यष्टीरूपी स्त्रीको छोड़ना नहीं चाहता । यष्टीको पकड़ कर उसके सहारे चलता है ॥ १२ ॥ वृद्धावस्थामें कानों तक गये हुये सफेद केश मानों तृष्णारूपो स्त्रीको बार बार धिक्कारते हुये यह बात कहते हैं कि-हे अभागी तृष्णारूपी स्त्री अब यह पुरुष जरारूपी स्त्रीसे प्रेम करने लगा है। अब भी तू इसको छोड़ती नहीं। हे शठे तेरे स्त्रीत्वको धिक्कार है। तूने सब लज्जा छोड़ दी हैं। क्योंकि जो श्रेष्ठ स्त्रियां होती हैं वे अपने सामने अपने सौतके साथ, अपने पतिको रमते हुये देखना नहीं चाहती । अब यह पुरुष जरारूपी स्त्रीके चक्करमें फंसा है | अब इसके साथ रमना तुझे धिक्कार है। परंतु यह तृष्णारूपी स्त्री ऐसी निर्लज्ज है कि इस पुरुषको अब भी छोड़ना नहीं चाहती। अथवा ठोक है। केवल दूसरेके धिक्कारनेसे कोई कैसे अपने प्यारे वल्लभको छोड़ सकता है ।। १३ ।। अरे सज्जनो, जो विषय सदा नानाप्रकारके दुःख देनेमें पटु है, महा दुष्ट हैं उनका त्याग करो। और जो जन्म-मरणका नाश करने वाले परम हितकारी हैं उनका अवलंबन करो। क्योंकि काल एक एक समय करके शरीरको जीर्ण बना रहा है। जीवन प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। ऐसा कहनेके लिये हो मानों पलित हये केश कानों तक गये हैं ॥ १४ ॥ जिस प्रकार दुष्ट राजाकी दुष्ट बुद्धि दूसरोंके देश-राज्यका हरण करना चाहती है, लोकोंको दंड देती १ सवालमा, वल्लभ । २ स सजति । ३ स त्पत्ति । ४ स निराश, मिरासकृतो, निरासा । ५ स विदितु । ६ स नाधं । ७ स वारिता, वारिता ! ८ स परा For जरा । ९ स ज़'भिते । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ 286 : ११-१८} ११. जरानिरूपणचतुर्विंशतिः 284) शिरसि निभृतं कृत्वा पादं प्रपातयति' द्विजान् पिवति रुधिरं मांस सर्व समत्ति शरीरतः'। स्थपुरविषमं चर्माङ्गाना बघाति शरीरिणा विचरति जरा संहाराय विस्ताविव राकासी ॥ १६ ॥ 285) भुवनसवनप्राणिग्रामप्रकम्पविधायिनी पनिकुचिततनु माकारा जरा जरति स्था। निहितमनसं तुष्णानार्या निरोक्य नरं भूश पलितमिषतो जातेष्या' वा करोति कधग्रहम् ॥१७॥ 286) विमवमृषिवल्ट्रीकण्ठं वा गवाक्तिविग्रह शिशिरकरवतका वेषं विरूपविलोचनम् । रविमिव तमोयुक्तं बण्याधित च यम यमा वृषमपि विना मत्य निन्या करोतितरा परा॥ १८ ॥ स्खलयति । स्पष्टम् अर्थ विलोकयितुं न मा । परिमवातः सर्वाः चेष्टाः अनिवारिता. तनोति । नृणां देहं परिम्भते ॥१५॥क्षितो राक्षसी इव जरा शिरसि निभृतं पा था दिवान् प्रपातयति । शरीरतः रुधिरं पिबति । स मांसं समत्ति वर्माङगनां स्थपुटविषम पधाति । (एव) शरीरिणा संहाराय विवरति ।। १६॥ भुवनसदनप्राणिग्रामप्रकम्पषिधायिनी नि विततनुः भीमाकारा जरती जरा, स्पा तृष्णानार्या निहितमनसं नरं निरीक्ष्य जातेा, पलितमिषतः वा भृशं कवग्रहं करोति ॥ १७ ॥ निन्द्या जरा वृष विना अपि मत्यं ऋषिवत् विमद, श्रीकण्ठं वा गतिविग्रह, शिशिरफरवद् सत्र, वेषं विकहै। मार्गमें लोगोंकी गति-स्थितिमें रुकावट डालती है। सत्य-असत्य, न्याय-अन्यायका विचार करने में समर्थ नहीं होती। इस प्रकार परिभव-अपमान-तिरस्कार करनेवाली ही सब वेष्टायें करती है । उससे उसको कोई भी निवारण नहीं कर सकता। उसी प्रकार यह वरा भो पंचेंद्रियोंके विषयोंको सेवनको सघ इच्छा करती है । चलते समय दंडयष्टीका आश्रय लेती है । मार्गमें चलने में खड़े रहने में रुकावट पैदा करती है। दृष्टि मन्द होनेसे पदार्योको स्पष्ट देखनेमें असमर्थ होती है । इस प्रकार वृद्धावस्थामें पुरुषको सब चेष्टायें उसके उपहासका ही कारण बनती हैं। यह जरा अनिवार्य है। उसका कोई भी निवारण नहीं कर सकता ॥ १५ ॥ जिस प्रकार पृथ्वी पर राक्षसी मनुष्यके संहारके लिये विचरण करती है। वह ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्योंको नीचे दबाकर उनके शिर पर पांव रखती है । उनका रक्त-पीती है। सब मौस खाती है। चर्म-अंगको तितर-विसर कर फेंक देती हैं । उसी प्रकार वृद्धावस्था भी प्रथम शिर पर पैर रखकर केशोंको सफेद कर देती हैं । द्विज-दांतोंको गिराती है। फिर खूनको सुखा डालती है । मांसको भी सुखा डालती हैं। केवल हड्डी हो शेष रह जाती है। शरीर चर्मको मुरीदार कर देती है । इस प्रकार जरास्पी राक्षसी मनुष्यके संहारके लिये ही पृथ्वी पर संचार करती है । १६ ।। जिस प्रकार कोई स्त्री अपनी सौतको अपने पतिके साथ आलिंगन करते देखकर ईर्ष्यासे कुपित होकर रुद्ररूप धारण कर अपने पतिके केशोंको पकड़ लेती है। और इस प्रकार सब कुटुबी जनोंके धारीरमें कपकपी पैदा कर देती हैं। उसी प्रकार यह जरारूपी स्त्री अपनी सौत तृष्णारूपी नारीमें आसक्त पुरुषको देखकर ईषसे मानों उसके केश पलित करनेके मिषसे उसके केशोंको पकड़ती हैं। उससे संसारके सब प्राणियोंके शरीरमें कंपकपी पैदा कर देती है ॥ १७ ।। यह निंदनीय जरा विना ही धर्म किये मनुष्यको देवोंका स्वरूप १स प्रतापतयति, प्रयातयप्ति । २ स शरीरिणां । ३ स चम्मगिना, गणां । ४ स दधति । ५ स कुरिततर्भमा । ६ स भार्यां । ७ स जाते, ज्ञातेय, जतेा । ८ स "मृषवच्छीकठं । ९ तमोमुक्तं । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सुभाषितसंदोहः 287) विगतदशनं शरवल्लाला 'स्रयाकुलस्क्कर्क स्खलितचरणाक्षेपं वक्त्रापरि स्फुटजल्पनम् । रहितकरणव्यक्तारम्भं मृक्कतमूर्धजं पुनरपि नरं पापा बालं करोतितरां जरा ॥ १९ ॥ 288) अहह नयने 'मिथ्यादृग्वत्सदीक्षणर्याजते श्रवणयुगलं दुष्पुत्रो वा शृणोति न भाषितम् । स्खलति चरणद्वन्द्वं मार्गे मदाकुललोकबद् वपुषि अरसा जीर्णे वर्णो व्यपैति कलत्रयत् ॥ २० ॥ १० [ 288 : ११-२० पविलोचनं, रविम् इव तमोयुक्तं यमं यथा च दण्डाश्रितं करोतितराम् ॥ १८ ॥ पापा जरा नरं विगतदशनं शरवल्लालास्रवाकुलसृक्कर्क, स्खलितच रणाक्षेपं वक्त्रापरिस्फुटजल्पनं रहितकरणव्यक्तारम्भं मृगकतमूर्धजं पुनरपि बालं करोतितराम् ॥ १९ ॥ अहह, वपुषि जरसा जीर्ण नयने मिथ्यादृग्यत् सदीक्षणवर्जिते । श्रवणयुगलं दुष्पुत्रो वा भाषितं न शृणोति चरणद्वन्द्व मदाकुललोकवत् मार्गे स्वलति । वर्णः कलत्रवत् व्यर्पति ॥ २० ॥ षरात्रये जनीजनाः नदीयम् अकृत्रिमं रूपं दे देती है । देखो - जिस प्रकार ऋषि मद रहित होते हैं। उसी प्रकार यह जरा मनुष्यको विमद- वीर्यरहित बना देती है। जिस प्रकार श्रीकृष्ण गदा अस्त्रसे चिह्नित हैं, उसी प्रकार यह जरा मनुष्यको गद-रोगसे युक्त बना देती हैं। जिस प्रकार चंद्रका बिब लांछन युक्त होता है, उसी प्रकार यह जरा मनुष्यके मुखको लांछन युक्त बनाती है । जिस प्रकार महादेव विशिष्ट रूपधारो विशिष्ट लोचन त्रिनेत्रधारी होता है उसी प्रकार यह जरा मनुष्यको कुरूप और दृष्टि रहित बनाती है। जिस प्रकार सू अंधकार से मुक्त हो जाता है उसी प्रकार यहाँ जरा मनुष्यको तममुक्त निद्रासे रहित बना देती है। जिस प्रकार यमदेव दंडधारी होता है उसी प्रकार यह जरा मनुष्यको दंडधारी बनाती है || १८ | अथवा यह जरा मनुष्यको बालकके समान बना देती है। जैसे बालकके मुखमें दाँत नहीं होते, वृद्धके मुख में भी दाँत नहीं होते हैं । जिस प्रकार बालकका मुँह सदा लारसे व्याप्त रहता है, सूक्क कहिये ओठोंके भाग हिलते रहते हैं, उसी प्रकार वृद्धके मुखसे भी लार-कफ गलता रहता है । ओठोंके भाग हिलते है । जिस प्रकार बालक चल नहीं सकता, चलनेकी धड़पड़ करता है तो बार बार गिरता है। उसी प्रकार वृद्ध पुरुष पनिमें शक्ति न होनेसे चल नहीं सकता । चलनेको छटपट करता है तो बारबार गिरता है । जिस प्रकार बालक टूटे-फूटे बोल बोलता है स्पष्ट बोल नहीं सकता। उसी प्रकार वृद्ध पुरुष भी स्पष्ट नहीं बोल सकता । जिस प्रकार बालककी इंद्रियां कमजोर होनेसे अच्छी तरह कार्य नहीं करती, उसी प्रकार वृद्ध पुरुषकी इंद्रियाँ भी कमजोर होनेसे काम नहीं करती । जिस प्रकार बालकके केश कोमल होते हैं । उसी प्रकार वृद्ध पुरुषके केश भी सफेद होनेसे कोमल बनते हैं ।। १९ ।। वृद्धावस्थामें मनुष्यके नेत्र मिथ्यादृष्टि के समान सम्यग्दृष्टिसे ( स्पष्ट देखनेसे ) रहित होते हैं। जिस प्रकार दुष्ट पुत्र पिताकी बात नहीं सुनता उसी प्रकार वृद्ध पुरुषके कान दूसरेका कहना नहीं सुन सकते। जिस प्रकार मदोन्मत्त पुरुष चलते समय मार्गमें इधर उधर गिरता है उसी प्रकार वृद्ध पुरुषके पाँव चलते समय मार्ग में इधर-उधर पड़ते हैं। जिस प्रकार मनुष्यके जरासे जीर्ण होने पर उससे युवती स्त्री दूर भागती है, उसी प्रकार वृद्ध पुरुषकी अंगकांति उससे दूर भागती · १ स लाला ताकुल, लालांस्तता २स सुक्कं । ३ स स्वलति । ४ स चरण चरणापेक्षं । ५ मुखापरि मुखा: " । ६ स पापावाल । ७ स मिथ्या दुग्ग° ८ स भाषते । ९ स व्यपेत्म | १० स कुलत्रवत् । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 : ११-२३] ११. जरानिरूपणचविंशतिः 289 ) मुक्तिमनसो दृष्ट्वा रूपं यवीयमकृत्रिमं परवशधियः कामक्षिप्तैर्भवन्ति शिलीमुखः । वलितमुखभ्रूमूर्धानं जरसा' धरात्रये झटिति मनुजं चाण्डाल वा त्यजन्ति जनीजनाः ॥ २१ ॥ 290 ) नयनयुगलं व्यक्तं रूपं विलोकितुमहामं पलितकलितो सूर्षा कम्पो श्रुती श्रुतिर्वाजते । वपुषि जरसाश्लिष्टे मष्टं विचेष्टितमुत्तमं मरणचकितो नाङ्गो घंसे तयापि तपो हितम् ॥ २२ ॥ 291) 'तिगतिवृतिप्रज्ञालक्ष्मीपुर: सरयोषितः १० सितकचयलिव्याजानुमर्त्य निरीक्य' जरां गतम् । प्रदर्धात रुवं" तृष्णानारी पुननं विनिर्गता त्यजति हि न वा स्त्री प्रेयसं कृतागसमप्यलम् ॥ २३ ॥ ७९ त्यजन्ति ॥ २१ ॥ जरसा वपुषि आश्लिष्टे श्रुती श्रुतिवजिते । उत्तमं विचेष्टितं नष्टम् लक्ष्मीपुरःसरयोषितः सितकचव लिम्याजात् मत्यं अलंकृतागसमपि प्रेयांसं न त्यजति ।। २३ ।। दृष्ट्वा मुदितमनसः कामक्षिप्तः शिलीमुखैः मुदितमनसः भवन्ति, जरसा भवस्तिमुखभ्रुमूर्षानं मनुजं वा चाण्डालं मटिति नयनयुगलं व्यक्तं रूपं विलोकितुम् अक्षमम् । पलितकलितः मूर्धा कम्पी । मरणचकितः अङ्गी तथापि हितं तपः न बत्ते ॥ २२ ॥ युतिगतिधृतिप्रज्ञाजरां गतं निरीक्ष्य तृष्णानारी रुषं प्रदधति, पुनः न विनिर्गता हि स्त्री नराः तमोः गुणनाशिनीं परिणतिम् अतिस्पष्टां दृष्ट्या संसाराब्धेः समुतर है ॥ २० ॥ जो स्त्रियाँ पहले जिसका अकृत्रिम स्वाभाविक सौंदर्य रूप देख कर हर्षित चित्त होती थीं । तथा कामदेवके फेंके हुये बाणोंसे विद्ध होकर उसके आधीन होती थीं, वे ही स्त्रियाँ अब उस पुरुषके जरासे ग्रस्त होनेसे उसको कांतिहीन देख उस वृद्ध पुरुषको चांडाल-भूत समझ कर उसका शीघ्र त्याग करती हैं ॥ २१ ॥ बुढ़ापा आनेसे मनुष्यकी आँखें स्पष्ट देखने में असमर्थ होती हैं। बाल सफेद हो जाते हैं। शिर कॅपने लगता है। दोनों कान किसी बात को सुन नहीं सकते । शरीर जरासे आलिंगित होनेसे नीचे झुकता है। धर्म कार्य, उत्तम व्रत-तप करना सब भूल जाता है। मरणके दिन समीप आनेसे मनुष्य भयसे आश्चर्य चकित होता है । तथापि यह जीव हितकारक तप धारण नहीं करता ॥ २२ ॥ पुरुषको जरारूपी स्त्रीमें आसक्त देखकर रोषसेति - कांति, गति, धृति-प्रज्ञा, बुद्धि, लक्ष्मी वैभव इत्यादि सब स्त्रियाँ उस वृद्ध पुरुषको छोड़ कर चली जाती हैं। परंतु तुष्णा रूपी स्त्री नहीं जाती । ठीक ही है-अपने प्रिय पतिको अपराधी देखकर भी कौन पतिव्रता स्त्री छोड़ सकती है । विशेषार्थ - वृद्धावस्था आने पर कांति आदि घटती है परंतु तृष्णा घटती नहीं । प्रत्युत बढ़ती ही जाती है || २३ || इसलिये जो लोक बुद्धिमान है- शरीरकी रात-दिन प्रत्यक्ष नष्ट होने वाली परिगतिको देखते हैं । वे संसार समुद्रसे पार होनेके लिये तत्पर होकर वीतराग जिनदेवका और पवित्र आगमका १ स दृष्टा । २ स रजसा, जरापरिणामतः । स त्रयं । ४ स चंडालं । ५ स जहांजनाः । ६ स विवज्जिते । ७ सहितां वपोहितम् । ८ स बुति । ९स निरीक्ष, om. निरीक्ष्य । १० स गताः, गनां व्रजां गतं । ११ स प्रदती चेष, ष विष्ण° । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंवोहः [292 : ११-२४ 292) परिणतिम तिस्पष्टां दृष्ट्वा तनोर्गुणनाशिनी मादिति न नराः संसाराब्वेः समुत्तरणोधताः । जिनपतिमतं भित्वा पूतं विमुच्य परिग्रहं विवषति हितं कृत्यं सम्यक्तपश्चरणादिकम् ॥ २४ ॥ ___ इति अरानिरूपणचतुर्विशतिः ॥ ११ ॥ पोचताः (सन्तः) पूतं जिनपतिमतं श्रित्वा परिग्रह विमुध्य सम्यक्तपश्चरणाधिक हितं कृत्यं झटिति न विवति ॥ २४ ॥ [इति जरा निम्मणचतुविशतिः ] आश्रय लेकर, सब परिग्रहोंका, ममस्व बुद्धिका त्याग कर सम्यग्ज्ञानी होकर तपश्चरणादि कार्योंमें लगने १ स om. दृष्ट्वा । २ स नु नराः । ३ स विमुचा । ४ स om, इति, इति जरानिरूपणम् । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२. मरणनिरूपणषड्विंशतिः ] 293) संसारे भ्रमता पुराजितवशाचुःखं सुखं वास्तुता' चित्र जीवितभगिनां स्वपरतः संपण्मानापदाम् । वन्तान्तःपतितं मनोहररसं कालेन पक्वं फलं स्थास्यत्यत्र कियच्चिरं तनुमतस्तीवक्षुषा चवितम् ॥ १॥ 294) नित्यं व्याधिशता कुलस्य विधिना संक्षिप्यमानायुषो नाश्चयं भवतिनः श्रममतो' यज्जायते पचता। कि नामावभुतमन्त्र काननतरोरत्याकुलात्पक्षिभि यत्प्रोद्यत्पवनप्रतापनिहतात्त्यक्तं फलं भ्रश्यति ।। २ ॥ 295) निर्घतान्यवलो ऽविचिन्त्य महिमा प्रध्वस्तदुर्गक्रियो विश्वव्यापिगतिः कृपाविरहितो दुर्दोषमन्त्रः शठः । "शस्त्रास्त्रोवकपावकारिपवनव्याष्यादिनानायुषो . गर्भावावपि हन्ति जन्तुमखिलं दुरवीयों' यमः ॥३॥ संसारे भ्रमतां पुराजितवशात् दुःखं सुखं वा अश्नुतां स्वपरतः संपधमानापदाम् अङ्गिना जीवितं चित्रम् । सनुमतः पन्तान्तःपतितं मनोहररसं कालेन पक्वं तीनक्षुधा नबितं फलं किच्चिरम् अत्र स्थास्पति ॥ १॥ नित्यं व्याधिशताकुलस्य विधिना संक्षिप्यमाणायुषः श्रममतः भवर्तिनः यत् पञ्चता जायते [ तत् ] न आश्चर्यम् । पक्षिभिः अस्याकुलात् प्रोवत्यवनप्रतापनिहतात् काननतरोः त्यक्तं यत् फलं भ्रश्यति अत्र किं नाम अद्भुतम् ॥ २॥ निघूतान्यवल: अविचिन्त्यमहिमा प्रध्यस्तदुर्गक्रियः विश्वव्यापिगतिः कृपाविरहितः दुर्योधमन्त्रः शठः शस्त्रास्त्रोदकपावकारिपवनव्याध्यादिनानायुधः दुरणीयः पूर्व जन्ममें उपार्जित पुण्य-पाप कर्मोके वश दुःख सुखको भोगते हुए संसारमें भ्रमण करने वाले और अपने या दूसरों के द्वारा की गई विपत्तियोंका सामना करने वाले प्राणियों का विचित्र जीवन तीव्र भूखसे पीड़ित मनुष्यके दांतोंके बीचमें चबाये हुए मधुर रससे भरे और समय पर पके फलके समान कितने समय तक ठहर सकता है। अर्थात् जैसे मधुर रससे भरा और यथा समय पका फल सोख भूखसे पीड़ित मनुष्यके दांतोंके द्वारा चबाया जाने पर उसके पेटमें चला जाता है उसी प्रकार मनुष्यका जीवन भी आयु पूर्ण होने पर समाप्त हो जाता है ॥ १॥ नित्य हो सैकड़ों रोगोंसे पोड़ित और दैववश क्षीण आयु के धारक तथा परिश्रमसे थके संसारी प्राणीका जो मरण होता है इसमें कोई अचरण नहीं हैं। क्योंकि पक्षियोंसे अत्यन्त घिरे रहने वाले वनके वृक्षसे पका हुभा फल प्रचण्ड वायुके झोंकोंसे आघात पाकर गिर जाता है इसमें क्या अचरजकी बात है ।। २ ।। यह यम बड़ा ही बलवान है इसके सामने किसीका बल काम नहीं देता। यह सबको निर्बल कर देता है। दुर्ग आदिमें छिपनेसे भी काम नहीं चलता। यह वहाँ भी पहुंच जाता है। इसकी गति विश्वव्यापी है। इसे दया भी नहीं है। इसका मन्त्र किसी की समझमें नहीं आता। यह बड़ा दुष्ट है। शस्त्र, १स वाश्रुता, वाश्रता । २ स चैवं, वेत्र, चैत्रीं। ३ स तीवं । ४ स वचित, चचितं, चम्नितं । ५ स शाता, सता, शिता । ६ सश्रमतो। ७ स निहितात्पक्वं । ८ स भ्रशति, भ्रस्यति । ९ स विचित्य, चिस्य । १० स शस्त्री ध्याधादिनानापुषो । ११ स वीयर्या मम, वीर्योपमः। मु. सं. ११ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [299 : १२-७ सुभाषितसंवोहः 296) प्राज्ञ" मूर्खमनार्यमार्यभषनं द्रव्याधिपं दुःखितं सौख्योपेतमनाममामपिहितं धर्मापिनं पापिनम् । प्यावृत्तं व्यसनावराध्यसनिनं व्याशाकुलं वानिनं शिष्टं दुष्टमनर्यमर्यमखिलं लोक निहन्स्यन्सकः ॥ ४॥ 297) देवाराधनतन्त्रमन्त्रहवनध्यानग्रहे ज्याजप स्थानत्यागराप्रवेशगमनवज्या विजार्चादिभिः । अत्युप्रेण यमेश्वरेण तनुमानङ्गीकृतो भभितुं व्यात्रेणेव बुभुक्षितेन गहने नो शक्यते रक्षितुम् ॥ ५ ।। 298) प्रारम्षो ग्रसितुं यमेन तनुमान् दुरवीर्येण य स्तं त्रातुं भुवने न को ऽपि सकले शाको मरो"वा सुरः । नो वेददेवनरेश्वरप्रभृतयः पृथ्व्या सवा स्युर्जना विज्ञायेति करोति शुद्धषिषणो धर्म मति शाश्वते ॥६॥ 299) चन्द्रावित्यपुरन्दर शितिघरधीकण्ठसीर्यादयो ये कोतिधुतिकाम्तिषीधनबलप्रख्यातपुण्योदयाः। स्वे स्वे ते ऽपि सान्तवन्तवलिताः "काले ब्रजन्ति शायं कि चान्येषु कथा "सुचारुमतयो धर्मे मतिं कुर्वताम् ॥७॥ यमः मखिलं जन्तुं गर्भावी अपि हन्ति ।। ३ ।। अन्तकः प्रानं मूर्खम् अनार्यम् आर्यम् अधनं द्रव्याधिपं दुःखितं सौख्योपेतम् अनामम् आमपिहितं धर्माधिनं पापिन व्यसनादराद् ब्यावृत्तं व्यसनिनं व्याशाकुलं दानिनं शिष्टं दुष्टम् अनर्यम् अयम् अखिलं लोकं निहन्ति ॥ ४॥ गहने बुभुक्षितेन व्याघ्रण इव अत्युग्रेण यमेश्वरेण भक्षितुम् अङ्गीकृतः तनुमान् देवाराधनमन्त्रतन्त्रहवनध्यानग्रहेज्याअपस्थानस्यागपराप्रवेशगमनवज्याद्विजार्यादिभिः रक्षितुं नो शक्यते ।। ५ ।। दुरवीण यमेन यः तनुमान ग्रसितुं प्रारम्पः तं वातुं सकले भुषमे नरः वा सुरः को ऽपि न शनतः । नो चेत् देवन रेश्वरप्रभृतयः जनाः पन्या सदा स्युः । इति विज्ञाय शुद्धषिषणः शाश्वते धर्मे मतिं करोति ।। ६॥ ये चन्द्रादित्यपुरन्दरक्षितिषरत्रीकण्ठसीर्यादयः कीर्तिपुतिकान्ति अस्त्र, जल, आग, शत्रु, पवन, रोग आदि नाना आयुध इसके पास हैं, यह अपने इन आयुधोंसे प्राणियोंको मार डालता है। अधिक क्या, गर्भ आदि जैसे स्थानोंमें भी पहुंच कर यह सब प्राणियोंको मार डालता है॥३॥ यह यमराज किसोको नहीं छोड़ता। पण्डित, मूर्ख, आयं, अनार्य, धनी, निर्धन, दुःखी, सुखी, निरोगी, रोगी, धर्मात्मा, पापी, निर्व्यसनी, व्यसनी, दानी, लोभी, सज्जन, दुर्जन, श्रेष्ठ अधम सबको मारता है ॥ ४॥ जैसे गहन घनमें भखे व्याघ्रसे बचना शक्य नहीं है उसी प्रकार जब यमराज अत्यन्त कुपित होकर किसीको खाना चाहते हैं तो देवताका आराधन, मंत्र, तंत्र, हवन, ध्यान, पूजा, जप आदि करनेसे वह बच नहीं सकता। भले ही वह व्यक्ति अपना स्थान छोड़ कर पृथ्वीके गर्भ में चला जाये, गृह त्याग कर साधु बन आये, ब्राह्मणों की पूजा करें, किन्तु यमराजसे उसकी रक्षा नहीं हो सकती ॥ ५ ॥ जिसकी शक्ति दुर्वार है उस यमराजने जिसे खानेका निर्णय किया उसे समस्त लोकमें कोई देव या मनुष्य नहीं बचा सकता। यदि ऐसा होता तो देव राजा आदि इस पृथ्वी पर सदा रहते। ऐसा जान कर शुद्धबुद्धि वाले मनुष्य सदा धर्ममें मन लगाते १ सप्रज्ञं 1 २ स निहित, निहितं, पहतं, "निहतं । ३ स व्यासा° 1 ४ स लोके । ५ स गहे । ६ स व्रज्या वि° १७ स व्याघेणैव, व्यालेनैव । ८ स "वीर्येन । ९ स भवने । १. स शकले । ११ स नरा। १२ स वासुरः, मुरा। १३ स पृथ्वी, पृथ्वा । १४ स पुरन्दरक्षितघरं । १५ स कलिताः । १६ स कथामु चार । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 : १२-८] १२. मरणनिरूपणषड्विंशतिः 300) ये लोकेशशिरोमणियतिजलप्रक्षालिताघ्रिद्वया लोकालोकविलोकि केवललसत्साम्राज्यलक्ष्मीधराः । प्रक्षीणायुषि यान्ति तीर्थपतयस्ते ऽप्यस्तदेहास्पद तत्रान्यस्य कथं भवेद भवभृतः क्षीणायुषो जीवितम् ॥ ८॥ 301) द्वात्रिंशन्मुकुटावतंसितशिरोभूभृत्सहस्राधिता: षट्च्डक्षितिमन्ना नपतयः साम्राज्यलक्ष्मीधराः। नोता येन विनाशमत्र विपिना सोन्यान्विमुश्रोत्कथं । कल्पान्तश्वसनो गिरीश्चलपति स्येयं तृणानां कुतः ॥९॥ 302) 'यत्रावित्यशशाङ्कमात्तपना नो सन्ति सन्त्यत्र ते देशा यत्र न मृत्पुरञ्जनानो नो सो ऽस्ति वेशः स्यचित् । सम्यग्दर्शनबोषवृत्तजनिता मुक्या विमुक्तिक्षिति संचिन्त्येति विचक्षणाः पुरु' तपः कुर्वन्तु तामीप्सवः ॥ १० ॥ धोधनबलप्रपातपुण्योदयाः तेऽपि कृतान्तदन्तदलिताः स्व स्वे काले क्षयं वन्ति । अन्येषु किं कषा। [ अतः ] मुचारुमतयः धर्मे मति कुर्वताम् ।। ७n ये लोकेशशिरोमणिद्युति जलप्रक्षालिताङ्घियाः लोकालोकविलोकिकेवललसत्साम्राग्यलक्ष्मीपराः ते तीर्थपतयः अपि प्रक्षीणायुषि अस्तदेहास्पदं यान्ति । तत्र क्षीणापुषः अन्यस्य भवभूतः जीवितं कयं भवेत् ॥ ८॥ येन विधिना द्वात्रिशन्मकुटावसंसितशिरोभूभत्सहस्राचिसाः षट्खण्डक्षितिमण्डनाः साम्राज्यलक्ष्मीपराः नपतयः बिनाश नीताः सः अन्यान् कषं विमुञ्चत् । कल्पान्तश्वसनः गिरीन् चलवति । [ तत्र] तृणानां स्यं कुतः ॥ ९ ॥ यत्र आदित्यशशारामारुतधना: नो सन्ति अत्र ते देशरः सन्ति । मत्र सम्यग्दर्शनबोषसजनिता विमुक्तिमिति मुक्त्वा मत्युरम्बनबनः न सः देशः क्वचित् न अस्ति । इति संचिन्त्य ताम् ईम्सकः विवक्षणाः पुरु तपः कुर्वन्तु ॥ १०॥ येषां स्वीस्तनबक्रवाकयुगले -- -- - हैं।। ६ ।। इस संसारमें ये जो प्रख्यात पुण्यशालो चन्द्र, सूर्य, देवेन्द्र, नरेन्द्र, नारायण, बलभद्र आदि कोर्ति, कान्ति, द्युति, बुद्धि धन और बलके धारी हैं, वे भी यमराजको दाढ़में जाकर, अपने अपने समय पर मृत्युको प्राप्त होते हैं सब दूसरोंकी तो बात ही क्या है ? अतः बुद्धिवानोंको धर्ममें मन लगाना चाहिये ॥७॥ जिनके दोनों चरण तीनों लोकोंके स्वामी इन्द्र, नरेन्द्र वादिके मुकुटोंमें जड़ित मणियोंको कान्तिरूपी जलसे प्रक्षालित किये जाते हैं अर्थात् तीनों लोकोंके स्वामी जिन्हें नमस्कार करते हैं, जो लोक बोर बलोकको जानने देखनेवाले केवलनान केवलदर्शनसे शोभित धर्मसाम्राज्यको लक्ष्मीके धारी हैं वे तीर्वाषिराज तीर्थकर भी जहाँ आयुके क्षीण होने पर शरीर रहित अवस्थाको प्राप्त होते हैं वहां अन्य क्षोण बायुवाले प्राणीका जीवन कैसे स्थिर रह सकता है ॥ ८ ॥ बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजाओंसे पूजित और छह खण्ड पृथ्वीके स्वामी तथा साम्राज्य लक्ष्मीके धारी चक्रवर्ती राजा भी जिस दैवके द्वारा यहां विनाशको प्राप्त हुए, वह दूसरोंको केसे छोड़ सकता है ? प्रलयकालकी जो वायु पर्वतों तकको विचलित कर देती है उसमें तृण कैसे स्थिर रह सकते है॥९॥ संसारमें ऐसे देश वर्तमान हैं जहाँ सूर्य, चन्द्र, वायु और मेध नहीं पाये जाते। किन्तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे उत्पन्न मुक्ति रूपं पृथ्वीको छोड़ ऐसा कोई देश नहीं है जहाँके मनुष्य मृत्युके १ स क्लिोक। २ स तेप्यदेहास्पदं । ३ स विपिनो। ४ स स्वजनो, "श्नशनो, गिरिश्च । ५ स मृगाना, नराणां, भवानां for तृणानां । ६ स यात्रा । ७ स वृति', वृद्धजतां मृत्वा । ८स विमुक्ति, स्थिति । ९ स कुरु for पुरु। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ [305:१२-१३ सुभाषितसंदोहः 303) येषां 'स्त्रोस्तनचक्रवाकयुगले पोतांशुराजत्तटे नियंत्कौस्तुभरत्न रश्मिसलिले "वानाम्बुजभ्राजिते । 'श्रीयक्षःकमलाकरे गतभया क्रीडां चकारापरा" श्रीहि श्रीहरयो ऽपि ते मृतिमिताः कुत्रापरेषा स्थितिः॥ ११॥ 304) भोक्ता यत्र वितप्तिरन्तकविभुर्भोज्याः समस्ताङ्गिनः कालेशः परिवेषको श्रमतनुर्मासा' विशन्स्यक्रमैः । यको तस्य निशासवन्तकलितें तत्र स्थितिः कोशों जीवानामिति" मृत्युभीतमनसो जैनं तपः कुर्वते ॥ १२॥ 905) उद्धर्तुं धरणी निशाकररवी क्षेप्तुं मान्मार्गतो वातं स्तम्भयितुं पयोनिधिजसं पातुं गिरि चूर्णितुम्" । शक्ता यत्र विशन्ति मृत्युवदने कान्यस्य तत्र स्थितियस्मिन् याति गिरिविले सह वनैः कात्र व्यवस्था ह्मणोः ॥ १३ ॥ पोताणराजत्तटे निर्यकौस्तुभरत्नरस्मिसलिले दानाम्बुजञाजिते श्रीवक्षःकमलाकरे गतभया श्रीः अपरां क्रीडां चकार ते श्रीहरयः अपि मृतिम् इताः । अपरेषां स्थितिः कुत्र ॥ ११॥ यत्र मोक्ता वितृप्तिः अन्तकविभुः, भोज्याः समस्ताङ्गिन., परिवेषकः अधमतनुः कालेशः, तस्य निशातदन्तकलिते वो ग्रासा अक्रम. विशन्ति, तत्र जीवानां स्थितिः कीदृशी । इति मृत्युभीतमनसः जनं तपः कुर्वते ॥ १२ ॥ धरणीम् उद्धतुं निशाकररषी मन्मार्गतः क्षेप्तुं वातं स्तम्भयितु पयोनिधिजलं पातु गिरि चूणितु शक्ताः यत्र मृत्युवदने विशन्ति तत्र अन्यस्य का स्थितिः । हि यस्मिन् बिले वनैः सह गिरि: याति अत्र अणोः का व्यवस्था ॥ १३ ॥ सुग्रीवाङ्गदनीलमारुतसुतप्रष्ठः कृताराधनः, विभुषनप्रख्यातर्फीतिध्वजः, रामः येन विनाशितः शिकार नहीं होते। ऐसा विचार कर उस मुक्तिके इच्छुक बुधजन उत्तम सप करें ॥१०॥ जिनके स्त्रीके स्तनरूपी दो चकवोंसे युक्त, तथा पीताम्बररूपी तटसे शोभित, कौस्तुभ मणिसे निकलती हुई किरणरूपी जलसे पूर्ण और मुखरूपी कमलसे शोभित ऐसे श्रीवत्ससे चिह्नित छातो रूपी सरोवरमें लक्ष्मी निर्भय होकर कीड़ा करतो यो वे श्रीकृष्ण भी जब मृत्यु को प्राप्त हुए तो दूसरोंका कहना ही क्या ? के केसे मृत्युसे बच सकते हैं॥ ११॥ जिस संसारमें कभी तृप्त न होनेवाला यमराज भक्षक है और समस्त प्राणी उसके भक्ष्य है। कभी न थकने वाला काल प्रभु उन भक्ष्य प्राणियोंको खोज खोजकर लाने वाला है । यमराजके पास लेनेका कोई क्रम नहीं है एक साथ अनेकोंको खा जाते हैं। उस यमराजके तीक्ष्ण दाढवाले मुखमें प्राणियोंकी स्थिति कैसे सम्भव है। इसीसे मृत्युसे डरे हुए मनुष्य जैन तपका आचरण करते हैं ॥ १२॥ जिस संसारमें पृथ्वीको उलटनेमें, आकाश मार्गसे चन्द्र सुर्यको उतार फेकनेमें, वायुको अचल करनेमें, समुद्रके जलको पी डालनेमें तथा पर्वतको चूर्ण करनेमें समर्थ पुरुष मृत्युके मुखमें प्रवेश करते हों, वहाँ दूसरोंको क्या स्थिति है ? ठीक ही है जिस बिलमें दनोंके साथ पर्वत समा जाता है उसमें परमाणुका समा जाना कौन बड़ी बात है ? ॥ १३ ॥ जिन १स स्त्री स्तन । २ स °युगलो पीनांसु', पौनासु', पीतांशु रा । ३ स निर्जको निजिको । ४ रस्मिरत्न', रश्मिरत्न । ५ स आस्याम्बु । ६ स श्रीवृक्षः, श्रीवक्षः कमलाकरे । ७ स परांश्चाईच्छी । ८ स °वेशको । ९ स प्रासाविसन्त्य ! १० स निशांत° ११ स जावानाम् । १२ स कुछते । १३ स चूणितं । १४ स शका । १५ स माति । १६ स एणी, झनो, हाणो । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 309 : १२-१७ ] १२. मरणनिरूपणषविंशतिः 306) सुग्रीवाङ्गदनीलमारुतसुतप्रष्ठे' कृताराधनो रामो येन विनाशितस्त्रिभुवनप्रख्यातकोतिध्वजः । मृत्योस्तस्य परेषु देहिषु कथा का निधनतो' विद्यते कात्रास्था नयतो द्विपं हि शशके निर्यापकस्रोतसः ॥ १४ ॥ 307) अत्यन्तं कुरुतां रसायनविधि वाक्यं प्रियं जल्पतु वाः पारमियतुं गच्छतु नभो वेवाहिमारोहतु। पातालं विशतु प्रसतु विशं वेशान्तरं भ्राम्यतु न प्राणी तदपि प्रहर्तुमनसा संत्यज्यते मृत्युना ॥ १५ ॥ 308) कार्य यावदिवं करोमि विषिवत्तावत्करिष्याम्पव स्तत्कृत्वा पुनरेतवध कृतवानेतत्पुरा कारितम् । इत्यात्मीयकुटुम्ब पोषणपरः प्राणी क्रियाण्याकुलो मृत्योरेति करप्रहं हतमतिः सत्यक्तधर्मक्रियः ॥१६॥ 309) मान्धाता भरतः शिबी वधारथो लक्ष्मोषरो रावणः कर्णः कशिरिपुबलो भृगुपतिर्भामः परे ऽप्युम्नताः । मृत्युं जेतुमलं नवं नृपतयः कस्तं परो जेष्यते'५ भग्नो यो न महातद्विपवरस्तं कि शशो" भक्ष्यति ॥ १७ ॥ तस्य निघ्नतः मृत्योः परेषु देहिषु का कथा विद्यते ! हि द्विपं निर्यापकस्रोतसः नयतः अत्र शशफे का आस्था ॥ १४ ॥ प्राणी अत्यन्तं रसायनविधि कुरुताम् । प्रियं वाक्यं जल्पतु । वार्धेः पारम् इयतुं । नभः गश्यतु । देवाद्रिम् आरोहतु । पाताले विशतु विशं प्रसर्पतु । देशान्तरं माम्यतु । तदपि प्रतुंमनसा मृत्युना प्राणो न संत्यज्यते ॥ १५ ॥ यावत् इदं कार्य करोमि । अब तावत् विधिवत् करिष्यामि । तत् कृत्वा अध पुनः एतत् कृतवान् । एतत् पुरा कारितम् । इति आत्मीयकुटुम्बपोषणपरः क्रियाब्याकुलः हतमतिः सत्यस्तधर्मक्रियः प्राणी मृत्योः करप्रहम् एति ॥ १६ ॥ मान्धाता, भरतः, शिबी, दशरपः, लक्ष्मीरामचन्द्रकी आराधना सुग्रीव, अंगद, नील और हनुमान जैसे बलशाली करते थे, जिन रामको कीति ध्वजा तोनों लोकोंमें प्रख्यास थी। उन रामको भी जिसने नष्ट कर डाला उस मृत्युको अन्य प्राणियोंको मारनेकी कथा हो व्यर्थ है। क्योंकि जो नदीका प्रवाह हाथीको बहा ले जाता है उसके लिये खरगोशको न बहा ले जाना कैसे संभव है ? ।। १४ ॥ मृत्युसे बचनेके लिये मनुष्य कितना ही रसायनोंका सेवन करे, मोठे मोठे वचन बोले, समुद्र के पार चला जावे, आकाशमें उड़ जावे, सुमेरुके कपर चढ़ जावे, पातालमें प्रवेश कर जावे, दिशान्तरमें चला जावे, या देशान्तर में भ्रमण करे। किन्तु जब मृत्यु उसे हरनेका संकल्प करती है तो वह मृत्यु के मुख से नहीं बच सकता ॥ १५ ॥ तब तक मैं यह कार्य करता हूँ। इसे कल विधिपूर्वक करूगा। आज मैंने अमुक कार्य करके अमुक कार्य किया है । यह कार्य दूसरोंसे कराया है | इस प्रकार क्रियाओंसे व्याकुल प्राणो धर्म कर्म छोड़कर अपने कुटुम्बके पोषणमें लगा रहता है और एक दिन उस अभागेको मृत्यु अपने चंगुलमें फांस लेती है ॥ १६ ॥ जिस मृत्युको मांधाता, भरत, शिबी, दशरथ, श्रीकृष्ण, रावण, कर्ण, बलदेव, परशुराम, भीम सप्रष्टः, "पृष्टः । २ स निष्णतो, निद्यतो । ३ स न यतो । ४ स शशिको, शशको, निर्यापकः, 'पका, नियोपये, निर्यापये । ५ स श्रोतसः । ६ स कुरुतं । ७ स इयंतु, इयतु । ८ स प्रविशंतु प्रशर्ण्यतु । ९ स संत्पजते । १० स पराकारितं, परं । ११ स °कुटम् । १२ स कंश,केश । १३ स भयं for न यं। १४ स परे। १५ स जेष्यति, मेष्यति, येष्यते । १६ स शिशो। १७ स भक्षति, भक्षति । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ सुभाषित संदोह 310 ) सर्व शुष्यति' साईमेति निखिला पाथोनिधि निम्नगा सर्व म्लायति पुष्पमत्र महतो' सम्पेव सर्वं चलम् । सर्वं नश्यति कृत्रिमं च सफलं यद्वपक्षीयते" सर्वस्तद्वदुपैति मृत्युवदनं ही भवंस्तत्त्वतः ॥ १८ ॥ 311) प्रख्यातद्युतिकान्तिकीर्तिधिषणा प्रज्ञाकलाभूतयो देवा येन 'पुरन्दरप्रभृतयो नीताः क्षयं मृत्युना । तस्यान्येषु जनेषु का गणना हिंसात्मनो विद्यते मत्तेभं हि हिनस्ति यः स हरिणं कि सुनाते केसरी' ॥ १९ ॥ 312) श्रीकीर्तिरति यु तिप्रियतमाप्रशाकलाभिः सभ यद्मासीकुरुते नितान्तकठिनो मत्यं कृतान्तः शठः । तस्मात् कि सपार्जनेन" भविनां कृत्यं विबुद्धात्मनः कि त भेयसि जीविते सति चले कार्या "मतिस्तत्त्वतः ॥ २० ॥ [ 312 : १२-२० धरः, रावणः कर्षः, के शिरिपुः, बलः, भूगुपतिः, भीयः परे ऽपि जम्नताः नृपढ्यः, यं मृत्युं जेतुं न अलं तं कः परः जेष्यते । यः महातरुः द्विपवरः न भग्नः तं किं क्षणः भङ्क्ष्यति ॥ १७ ॥ सर्व साई शुध्यति । निखिला निम्नगा पायोनिधिम् एति । सर्व पुष्पं म्लायति । भवतः झम्पा हव अत्र सर्व वलम् । सर्व कृत्रिमं नश्यति । यत् प सकलं षषि अपक्षीयते । तद्वत् सर्वः तत्त्वतः भवन् देही मृत्युवदनम् उपैति ॥ १८ ॥ येन मृत्युना प्रख्यातद्युतिकान्ति कीर्तिघिषण प्रज्ञाकला भूतयः पुरन्दरप्रभूतयः देवाः क्षयं नीता हिंसात्मनः तस्य अन्येषु जनेषु मंत्र का गणना विद्यते । हि यः केसरी मत्तेभं हिनस्ति सः कि हरिणं मुञ्चते ॥ १९ ॥ नितान्तकठिनः कृतान्तः शठः मत् श्रीह्रीकीतिरतिद्युतिप्रियतमा प्रज्ञाकलाभिः समं भयं ग्रासीकुरुते तस्मात् विबृद्धात्मनां भविनां तदूपार्जनेन कि कृत्यम् । कि तु तत्त्वतः जीविते चले सति श्रेयसि मतिः कार्या ।। २० ।। यः निर्दयः, निर , तथा अन्य भी बड़े बड़े राजा नहीं जीत सके उसे दूसरा कौन जीत सकता है । जिस वृक्षको उत्तम हाथी नहीं गिरा सके क्या उसे खरगोश तोड़ सकेगा ? ॥ १७ ॥ | सब गीले पदार्थ एक दिन सूख जाते हैं। सब नदियों समुन्द्र में चलो जाती हैं । सब पुष्प म्लान हो जाते हैं। तब पदार्थ बिजलीकी तरह चंचल हैं। जितने कृत्रिम पदार्थ है वे सब विनाशशील हैं। जिस तरह वे सब नष्ट हो जाते हैं उसी तरह सब प्राणी यथार्थमें मृत्युके मुखमें चले जाते हैं ।। १८ ।। जिस मृत्युके द्वारा कृति, कान्ति, कीर्ति, बुद्धि, प्रज्ञा और कला में प्रख्यात इन्द्र आदि देवगण विनाशको प्राप्त हुए उस हिंसा में तत्पर मृत्युके सामने सामान्य मनुष्यों को क्या गिनती है ? जो सिंह मदोम्मत हाथीको मार डालता है वह क्या हिरणको छोड़ देता है १२ ।। यह अत्यन्त कठोर धूर्व यमराज मनुष्यको लक्ष्मी, लज्जा, कीर्ति प्रेम, द्युति, अत्यन्त प्यारी स्त्री, प्रज्ञा और कलाके साथ अपना ग्रास | बनाता है अर्थात् मनुष्य के साथ उसके सद्गुणों और प्रिय जनोंका भी अन्त कर देता है। अतः आत्मस्वरूपके ज्ञाता जनोंको कीर्ति आदि संचित करनेसे भी क्या लाभ है ? उन्हें तो जीवनको क्षण भंगुरताको जानकर अपने यथार्थ कल्याण में ही मनको लगाना चाहिए || २० || जो भ्रष्टबुद्धि विधाता (देव) पहले तो मनुष्यको तीनों ।। १ स शुक्ष्यति सुस्यति । २ स स्लायति । ३ स मस्तः, शेपॅक सर्व चर, मरुतः संपेच सर्व च° शंपेव, पृध्यमत्र शर्म्यव । ४ स सकलो, शकलो, सकुलो । ५ स माम्यप, यवद्वपप, यद्यप" पद्धघप, यद्वद्य१० ६ स भवां° देहीभ वंस्तावतः । ७ स प्रख्याता, त्रिपणाः । ८ स पुरूं । ९ स कैशरी । १० स घृति for रति युत्तिरतिप्रियतमा प्रज्ञा कलाभिः । ११ स उपज्जितेन । १२ स काममिति, कार्यमिति । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 315 : १२-२३] १२ मरणनिरूपणषड्विंशतिः _313) यो लोकेकशिरःशिस्वामणिसमं सर्वोपकारोधतं' राजन्छीलगुणाकरं नरवरं कृत्वा पुननिर्वयः । पाता हन्ति निरगंलो हतमति: किं तक्रियायां फलं प्रायो निर्दयचेतसा न भवति श्रेयोमतिभूतले ॥२१॥ 314) रम्याः किन विभूतयो ऽतिललिताः सच्यामरभ्राजिताः कि वा पीनढोन्नतस्तनयुगास्त्रस्सैणदोघेक्षामाः । कि वा सज्जनसंगतिनं सुखदा 'चेतश्चमत्कारिणी किं त्वत्रानिलघूतदीपकलिकाछायाचलं जीवितम् ॥ २२॥ 315) ययेतास्तरलेक्षणा युक्तयो न स्युगलचोवना' "भूतिर्वा यदि भूभृतां भवति नो सौवामिनीसंनिभा। 'वातोधूततरंगचञ्चलमिदं नो वेद भवेज्जीवितं । को नामेह तदेव' सौल्यविमुखः कुर्याज्जिनानां तपः ॥ २३ ॥ गलः, हतमतिः पाता लोकैकशिरःशिलामणिसमं सर्वोपकारोद्यत राजच्छीलगुणाकरं नरवरं कृत्वा पुनः हन्ति । ततिक्रयायां किं फलम् । प्रायः निदयचेतसां भूतले श्रेयोमतिः न भवति ॥ २१ ॥ सच्चामरभाजिताः अतिललिताः विभुतयः रम्याः न किम् । वा अस्तैणदोघेक्षणाः पीनदृढोन्नतस्तनयुगाः [न ] किम् । वा चेतश्चमत्कारिणी सज्जनसंगतिः सुखदा न किम् । किं तु अत्र जीवितम् अनिलघुतदीपकलिकाछायाचलम् ।। २२ । यदि एताः तरलेक्षणाः युवतयः गलद्यौवनाः न स्युः, यदि वा भूभृतां भूतिः सौदामिनीसंनिभा नो भवति, इदं जीवितं वातोततरङ्गनश्चलं नो भवेत् चेत्, तदेव को नाम सोस्यविमुखः इह जिनानां तपः कुर्यात् ॥ २३ ॥ मांसासारसलालसामयगणव्यावः समध्यासितां नानापापवसुधराम्हनितां जन्माटवीम् लोकोंके मस्तक पर शिखामणिके समान, सबका उपकार करनेमें तत्पर तथा शोभनीय शील और गुणोंकी खान पुरुषोत्तम बनाता है और पीछे निर्दयतापूर्वक उसे मार डालता है । उसकी इस क्रियाका क्या फल है अर्थात् उसका पुरुषको श्रेष्ठ बनाना व्यर्थ ही है | ठोक ही है जिनका चित्त दयासे होन होता है उनकी बुद्धि प्रायः इस भूतल पर कल्याणकारी नहीं होती ।। २१ ।। इस संसारमें जीवन वायुसे कम्पिस दीपककी लौ की छायाके समान चंचल है। यदि ऐसा न होता तो समीचीन चामरोंसे शोभित अत्यन्त ललित विभूति, स्थूल तथा दृढ़ उन्नत स्तनोंसे शोभित और भयभीत मृगोके समान दोघं नेत्र-वाली स्त्रियां क्यों मनोहर नहीं होती। तथा चित्तमें चमत्कार पैदा करनेवाली सुखदायक सज्जनोंकी संगति क्यों रमणीक न होतीं। अर्थात् जीबनके क्षणभंगुर होनेसे ही संसारकी सुखदायक वस्तुओंका कोई मूल्य नहीं है । इसीसे इन्हें त्याज्य कहा है ।। २२॥ यदि चंचल नेत्रपाली युवतियोंका यौवन न ढलता होता, यदि राजाओंकी विभूति बिजलीके समान चंचल न होती, अथवा यदि यह जीवन वायुसे उत्पन्न हुई लहरोंके समान चंचल न होता तब कौन इस सांसारिक सुखसे विमुख होकर जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट तपश्चरण करता |॥ २३ ॥ १स कारंघुतं, कारद्युत। २ स निर्दयां । ३ स विभूतियो। ४ स कि ज्वा। ५ स श्वेतश्च । ६ स गलयो', ग्गलध्वौवनौ। ७ स भूतिभू यदि भू° भ° ना शो' । ८ स वातोद्धृत , पातोयूत° । ९ स तदव, तदेव । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ सुभाषितसंबोहः [318 : १२-२६ 316) मांसासग्रसलालसामयगणव्याधैः समध्यासितां' नाना पाप'वसुंधरारहचितां जन्माटवीमाश्रितः। धावन्नाकुलमानसो निपतितो दृष्ट्वा जराराक्षसी "क्षुत्क्षामोघृतमृत्युपन्नगमुखे प्राणी किपत्प्राणिति ॥ २४ ॥ 317) मृत्युख्यानभयंकराननगतं भौतं जराव्यात स्तीवष्याधितुरन्तदुःखतमसंसारकान्तारगम् । कपाश्नोति शरीरिण' त्रिभुवने पातुं नितान्तातुरं' त्यक्त्वा जातिजरामृति क्षतिकरं जैनेन्द्रपर्मामृतम् ॥२५॥ 318) एवं सर्वजगद्विलोक्य कलित दुरवीर्यास्मना निस्त्रिशेन' समस्तसत्त्व समितिप्रध्वंसिना मृत्पुना। सद्रत्नत्रयशात''मागंणगणं१२ गहन्ति तच्छित्तये' सन्तः "शान्तषियो जिनेश्वरतपःसाम्राज्यलक्ष्मीश्रिताः ॥ २६॥ __ इति' मरणनिरूपणषड्विशतिः ॥१२॥ आश्रितः प्राणी जराराक्षसी दृष्ट्या आकुलमानसः धावन् क्षुरक्षामोदतमृत्युपन्नगमुखे निपतित: कियत्प्राणिति ॥ २४ ॥ त्रिभूवने मृत्युम्याघ्रभयंकराननगतं जराव्याधतः भीतं तीव्रव्याधिदुरन्तदुःखतरुमत्संसारकान्तारगं नितान्तातुरं शरीरिणं पातुं जातिजरामतिक्षतिकरं जैनेन्द्रधर्मामृतं त्यक्त्वा कः शक्नोति ।। २५ ।। एवं दुरवीय त्मना निस्त्रिशेन समस्तसत्वसमितिप्रध्वंसिना मृत्युना कलितं विलोक्य तच्छित्तये शास्तधियः जिनेवरतपः साम्राज्यलक्ष्मीधिताः सन्तः सदस्नत्रयशातमार्गणगणं गृहन्ति ॥ २६ ॥ इति मरणनिरूपणषड्विंशतिः ॥ १२ ॥ यह जन्मरूपी अटवी-भयानक वन मांस रुघिर आदि धातुओंके लोलुपी रोगोंके समूह रूप शिकारियोंसे व्याप्त है, नाना अपापरूपी वृक्षोंसे भरी हैं। इनमें आश्रय लेनेवाला प्राणी जरारूपी राक्षसीको देख व्याकुलचित्त हो भागता है और भागता हुआ भूखसे पीड़ित मृत्युरूपी सर्पके मुखमें गिरता है ! अब वह कितनी देर जीवित रह सकता है अर्थात् उसका अन्त निश्चित है। विशेषार्थ-जो जन्म लेता है वह यदि रोगोंसे बच भी जाता है तो बढापा उसे नहीं छोड़ता। और बुढ़ापे के पश्चात् मृत्यु अवश्य होती है ॥ २४ ॥ तीव्र रोग और कठोर दुःखरूपी वृक्षोंसे भरे संसाररूपी भयानक वनमें वृद्धावस्थारूपी शिकारीसे डरकर मृत्युरूपो व्याघ्रके भयानक मखमें चले गये प्राणीको तोनों लोकोंमें कौन बचा सकता है। उसे यदि बचा सकता है तो जन्म जरामरणका विनाश करनेवाला बिन भगवानके द्वारा उपदिष्ट धर्मामृत ही बचा सकता है। उसे छोड़ अन्य कोई नहीं बचा सकता ।। २५ ॥ इस प्रकार यह समस्त जगत् समस्त प्राणीसमुदायकाविनाश करने वाली निर्दयी मृत्युसे घिरा है जिसकी शक्तिका वारण अशक्य असा है ! यह देखकर शान्त बुद्धिवाले सन्तपुरुष जिनेश्वरके तपरूपी साम्राज्य लक्ष्मीका पाश्रय लेकर उस मृत्युके विनाशके लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी तीक्ष्ण वाणोंको ग्रहण करते हैं। विशेषार्य-मृत्युके चक्रसे छूटनेका उपाय भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट रत्नत्रय ही है। उन्हींको धारण करनेसे उससे छुटकारा हो सकता है ।। २६ ॥ १स समाध्यासिता, समाष्याषितां । २ स गणा' । ३ सपाय । ४ स भुक्षामोद्धृत", क्षुद्रामोधर' । ५ स प्राणिभि, प्राणितिः। ६ स शरीरिणां । ७ स पातुरसंतातुर । ८ स मृतिक्षिति । १ स निर शेन । १० स तत्त्व° for सत्त्व । ११ स सात, शांत । १२ स मणं । १३ स गृहंतु । १४ स यक्षित्तये, यक्छित्तये, यच्छित्तय, यरीतयेत्सं० १५ स शात, शोति । १६ स लक्ष्मीन्विता, लक्ष्म्यान्विताः । १७ स on. इति । १८ स मृत्युनिरूपणम् । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३. सामान्यानित्यता निरूपणचतुर्विंशतिः ] 319) कार्याणां गतयो भुजंगकुटिलाः स्त्रीणां मन चञ्चलं नैश्वयं स्थितिमत्तरङ्गचपलं नृणां वयो धावति । संकल्पाः समवाङ्गनाक्षितरला मृत्युः परं निश्चितो मत्वैवं मतिसत्तमा विवधता धर्मे मति तत्त्वतः ॥ १ ॥ 320) श्रीविद्युच्चपला वपुर्विधुनितं नानाविषव्याधिभिः सौख्यं दुःखकटाभितं तनुमत सत्संगतिदुर्लभा । " मृत्यध्यासितमाथुरत्र बहुभिः किं भाषितैस्तत्वतः संसारेऽस्ति न किचिङ्गिसुखकृतस्माज्जना जाग्रत ॥ २ ॥ 321) * यद्येताः स्थिरयौवनाः शशिमुखी : " पीनस्तनीर्भामिनी: " कुर्याद्यौवनकालमानमथ वा घासा रतं जीवितम् । १० सिन्तारयेयं मशोचमन्तविरसं सौख्यं वियोगं न तु " को नामेह विमुच्प चाधिवणः २ कुर्यात्तयो दुश्च रम् ॥ ३ ॥ १२ कार्याणां गतयः भुजंगकुटिलाः । स्त्रीणां मतः चञ्चलम् । ऐश्वर्य स्थितिमत् न नृणां तरङ्गचपलं वयः धावति । संकल्पाः समदाङ्गनाक्षितरलाः । परं मृत्यूः निश्चितः । एवं मत्वा मतिसत्तमः: तत्त्वतः धर्मे मत विदधताम् ॥ १ ॥ वनुमां श्रीः विद्युच्चपला, वपुः नानाविधव्याधिभिः विधुनितम्, सौख्यं दुःखकटाक्षितम्, सत्संगतिः दुर्लभा । अत्र आयुः मृत्यभ्यासिम् । बहुभिः भाषितः किम् । तस्वतः संसारे किंचित् अङ्गिसुखकृत् न । तस्मात् जनाः जाग्रत ॥ २ ॥ यदि भाता एताः पीनस्तनोः शशिमुखीः भामिनीः स्थिरयोवनाः कुर्यात् अथ वा जीवितं रतं [च] यौवनकालमा कुर्यात् तु चिन्तास्य कर्मोकी गति सर्प के समान कुटिल है। कभी राजा बना देते हैं कभी रंक । स्त्रियोंका मन भी चंचल है । संसारका ऐश्वर्यं भी स्थायो नहीं है, पानीकी लहरोंके समान चपल है । मनुष्योंका मन भी इधर-उधर दौड़ा करता है। संकल्प मदसे मत्त स्त्रियोंकी आँखोंकी तरह बहनेवाला है। ये सब अस्थिर है केवल एक मृत्यु हो निश्चित है। ऐसा मानकर बुद्धिमान् पुरुष तात्त्विक धर्ममें मनको लगावें ॥ १ ॥ लक्ष्मी बिजलीकी तरह चंचल है । सदा एकके पास नहीं रहती। शरीर नाना प्रकारके रोगोंसे ग्रस्त होनेवाला है । संसारके सुख पर दुःखकी दृष्टि लगी रहती है सुखका स्थान दुःख ले लेता है। सज्जन पुरुषोंको संगति सुखदायक है किन्तु वह अत्यंत दुर्लभ है । आयुके पीछे मृत्यु लगी हुई है। आयुके समाप्त होते ही मृत्यु पकड़ लेती है । बहुत कहने से क्या । वास्तवमें संसार प्राणियोंको किंचित् भी सुखकारी नहीं है । अतः हे मनुष्यों सावधान हो जाओ || २ || यदि विधाता इन चन्द्रमुखी तथा पीन स्तनवाली स्त्रियोंके यौवनको स्थायी कर देता, अथवा यौवनकालको जीवनपर्यन्त कर देता, चिन्ताकी स्थिरता, अशीच, सुखकी विरसता और इष्टवियोग न करता १ स मना° । २ स च यो for वयो। ३ स ° तरलाः । ४स श्रीविद्यञ्चपलाव" । ५ स मृत्युर्ष्या रनबहुभिः । ६ सयेद्यताः । ७स मुखी। ८ स भामिनिः, भामिनीः । ९ स जीवितां । १० सवितास्थय ११ स नतु । विपणाः । १२ स सु. सं. १२ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंवोहः [ 324 : १३-६ 322) कान्ताः किं न शशाङ्ककान्तिधवलाः सौधालयाः कस्यचित् कानोवामविराजितोयजघना' सेव्या न कि कामिनी । किं वा श्रोत्ररसायनं सुखकर श्रव्यं न गीताविक विश्वं किं तु विलोक्य मारतच सम्तस्तपः कुर्वते ॥ ४॥ 323) कृष्टेष्यासविमुक्तमार्गणगतिस्थेयं जने योवनं कामान् कुलभुजङ्गकायकुटिलान् विद्युच्चलं जीवितम् । अङ्गारा"नलतप्तसूतरसवव दृष्ट्वा थियो ऽप्यस्थिरा निष्कम्यान सुबुसयो परतपः कतुं बनान्तं गताः ॥ ५ ॥ 324) वपुष्यसनमस्यति प्रसभमन्तको जीवितं धनं नृपसुतावयस्सनुमा जरा यौवनम् । वियोगवहनः सुखं समवकामिनीसंगचं तपापि मत मोहिनों दुरितसंग्रहं कुर्वते ॥६॥ मशीयमन्तविरसं सौख्यं वियोग न कुर्यात् कः नाम चाषिषणः [एतत् ] विमुष्य दुश्वरं तपः कुर्यात् ॥ ३ ॥ पाशाङ्ककान्तिपवलाः सौषालयाः कस्यचित् कारताः न किम्। काञ्चीदामविराजितोराणघना कामिनी सेव्या न किम् । वा सुखकरं श्रोत्ररसायनं गीतादिकं प्रव्यं न किम् । किंतु विश्व मास्तचलं विलोक्य सम्तः तपः कुर्वते ।। ४॥ जने कुष्टेष्वासविमुक्तमार्गणगतिस्पर्य यौवनं, कुखभुजङ्गकायकुटिलान् कामान्, विधुचलं जीवितं, बनारानलप्तप्तसूतरसद् श्रियः मपि अस्थिराः दृष्ट्या अत्र निष्क्रम्य मुद्धयः वरतपः कर्तुं वनान्तं गताः ॥ ५॥ व्यसन तनुमतां वपुः अस्पति । अन्तकः प्रसभं जीवितं अस्यति । नृपसुतादयः धनम् अस्यति । जरा यौवनम् अस्पति । वियोगदहनः समदकामिनीसंगजं सुखम् अस्यति । तपापि यत मोहिमः दुरितसंग्रहं कुर्वते ।। ६ ॥ जगति तनुः अपायकलिता । संपदः सापदः । इदं विषयकं सुखं विनश्वरम् । तो कौन बुद्धिमान इन सबको छोड़कर कठोर तपश्चरण करता ॥ ३ ॥ चन्द्रमाको कान्तिके समान स्वच्छ सफेद प्रासाद किसे प्रिय नहीं लगते। जिसका जघन सुन्दर मेखलासे वेष्ठित है ऐसी सुन्दर स्त्रीको कौन सेवन करना नहीं चाहता। कानोंके लिये रसायन रूप सुखकर गीत आदिको कौन सुनना नहीं चाहता। किन्तु सन्त पुरुष इस विश्वको वायुकी तरह चंचल देखकर तप करते हैं। विशेषार्थ-संसारको रमणीक वस्तुएँ सबको प्यारी लगती हैं। किन्तु उनमें स्थिरता नहीं है। सब हो विनाशीक हैं इसीसे ज्ञानी पुरुष क्षणिक सुखका मोह त्यागकर शाश्वत सुखके लिये प्रयत्न करते हैं ॥ ४ ॥ बुद्धिमान् पुरुषोंने देखा कि मनुष्यका यौवन चढ़े हुए धनुषसे छूटे हुए बाणको गसिके समान अस्थिर है। कामभोग कुब हुए सर्पके शरीरके समान कुटिल हैं। जीवन बिजलीकी तरह चंचल है । लक्ष्मी भी अंगारेकी आग पर तपाये हुए पारेके समान अस्थिर है। यह देखकर बुद्धिमान् पुरुष इन सबको त्याग उत्कृष्ट तप करनेके लिये वनमें चले गये ॥ ५॥ प्राणियोंके शरीरको रोग खा जाता है। यमराज बलपूर्वक जीवनको अस लेता है । धनको राजा पुत्र आदि छीन लेते हैं। यौवनको बुढ़ापा ग्रस लेता है। मदमत्त नारियोंके संसर्गसे होनेवाले सुखको वियोगरूपी आग नष्ट कर देती है। फिर भी खेद है कि मोही पुरुष पापका संचय करते हैं। अर्थात् ये सब विनाशीक हैं फिर भी मनुष्य इनके मोहमें पड़कर पापकार्य करता है और इस तरह पापकर्मका संचय करके मर जाता है ।। ६ ॥ स अपनाः, जपनाः । २ स कामिनो । ३ स कुष्टे । ४ स यने । ५ स अंगादा, ६स बपुर्वस्पति, मस्पति । ७ स दहन । ८ स मौहिनौ ! ९ स दुरतसंग्रह। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. सामान्यानित्यता निरूपणचतुविंशतिः 328 : १३-१० ] 325) अपायकलिता तनुजंगति सापदः संपदो विनश्वरभिवं सुखं विषयज' श्रियश्चञ्चलाः । भवन्ति ज 'रसारसास्तरललोचना योषितस्तवप्यय' महो जनस्तपसि नो परेर रज्यति ॥ ७ ॥ 326) भने विहरतो ऽभवन् भवभृतो न के बान्धवाः स्वकर्मवशतो न के ऽत्र शत्रवो भविष्यन्ति था । जनः किमिति मोहितो नवकुटुम्बकस्यापवि विमुक्तजिनशासनः स्वहिततः सा भ्रश्यते ॥ ८ ॥ 327) वृढोन्नतकुचात्र या चपललोचना कामिनी शशाङ्कवदनाम्बुजा मदनपीडिता' योवने । मनो हरति रूपतः सकलकामिनां वेगतो १० न सेव जरसविता "भवति वल्लभा कस्यचित् ॥ ९ ॥ 328) इमा यदि भवन्ति नो "गलितयौवना नीरचस्तदा कमललोचनास्तरण मानिनीर्मा मुचत् विलासमदविश्वमान् १४ भ्रमति लुण्ठयत्री " जरा यतो भुवि बुधस्ततो भवति निःस्पृहस्तन्मुखे ॥ १० ॥ 13 "T ९१ श्रियः चञ्चलाः । तरललोचनाः योषितः जरसा मरसाः भवन्ति । तदपि मयं जनः परे तपसि नो रम्यति ॥ ७ ॥ भवे विहरतः भवभूतः के बान्धवाः न अभवन् । अत्र स्वकर्मवशतः के या शत्रवः न भविष्यन्ति । नवकुटुम्बकस्यापदि मोहितः विभुक्तजिनशासनः जनः किमिति स्वहिततः सदा प्रक्ष्यते ॥ ८ ॥ अत्र दृढोन्नतकुचा चपललोचना शशावदनाम्बुजा यौवने मदनपीडिता कामिनी रूपतः सकलकामिनां मनः वैगतः हरति सैव जरसादिता कस्यचित् वल्लभा न भवति ॥ ९ ॥ यदि इमाः कमललोचनाः तरुणमानिनीः गलितयौवनाः नीरुचः नो भवन्ति तदा विकासमदविभ्रमान् मा मुचत् । यतः भूवि लुण्ठ इस संसार में शरीर अनेक बुराइयोंसे भरा है । सम्पत्तियाँ आपत्तियोंसे घिरी हैं। यह विषयजम्य सुख विनश्वर है। लक्ष्मी चंचल है। चंचल नेत्रवाली स्त्रियां वृद्धावस्थाके आने पर विरस हो जाती हैं। फिर भी आश्चर्यं है कि यह मनुष्य उत्तम तपमें अनुराग नहीं करता ॥ ७ ॥ अनादिकालसे इस संसार में भ्रमण करते हुए इस जीवके अपने कर्मवश कौन बान्धव नहीं हुए और कौन शत्रु नहीं होंगे । अर्थात् अपने-अपने कर्मवश सभी जीव एक दूसरेके मित्र और शत्रु हुए हैं तथा होंगे। फिर भी न जाने क्यों यह मनुष्य नवोन कुटुम्बके मोहमें पड़कर आपत्ति में पड़ता है और जैनधर्मको छोड़कर सदा अपने हितसे भ्रष्ट होता है, बात्महित में नहीं लगता ॥ ८ ॥ इस लोक में जो स्त्री यौवन अवस्था में दृढ़ और उन्नत स्तनवाली होती है, उसकी आँखों में चपलता रहती है, मुखकमल चन्द्रमाके समान होता है, कामविकारसे पीड़ित रहती है तथा अपने रूपसे कामी जनों मन बड़े वेगसे हरती है । वही स्त्री बुढ़ापे से ग्रस्त होने पर किसीको भी प्रिय नहीं होती ॥ ९ ॥ यदि इन स्त्रियोंका यौवन न ढलता और ये कान्तिहीन न होतीं तो इन कमलके समान नेत्रवाली युवती स्त्रियों १ सत्रिय । २ स जरसा रसा । ३ स तदप्यजमहो । ४ स पर, परि । ५ स विरहितो । ६ स भवन्भ । ७ स मोहिनो । ८ स भ्रस्यते । ९ स पीडिते । १० स योगतो ! ११ स जरसादितो । १२ स गलति । १३ स मानिनी मामुचत्, " माननी, भामिनी । १४ स विभ्रमा भ्र" । १५ स ष्टमित्री । १६ स निस्पृ° । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [331 : १३-१३ सुभाषितसंबोहः 329) इमा रूप'स्थानस्यजन'सनयद्रव्यवनिता' सुतालक्ष्मीकोतिअतिरति मतिप्रोतिषतयः । मदान्धस्त्रीनेत्रप्रतिवपलाः सर्वभविना महो कष्टं मस्पस्सपि विषयान् सेवितुमनाः ॥११॥ 330) सहात्र स्त्री किचित सुतपरिजनैः प्रेम कुचते बशप्राप्तो भोगो भवति रतये किंचिदमधाः । श्रियः किंचितुष्टि विवधति परां सौल्यजनिकां न किचित्तूंसा हो कतिपयविनरेतदलितम् ॥ १२॥ 331) विजित्योपी सर्वा सततमिह संसेग्य विषयान् धियं प्राप्याना तनयमवलोक्यापि परमम् । निहत्यारातीनो बसमयमत्यन्तपरमं विमुक्ताव्यो हो" मुषित्ववर्य माति मरणम् ॥ १३ ॥ यत्री जरा भ्रमति, ततः गुषः तन्मुखे निःस्पृहः भवति ॥ १ ॥ सर्वभक्निाम् इमाः रूपस्थानस्वजनतनयद्रव्यवनिवासुता. लक्ष्मीकीर्तिद्युतिरतिमतिप्रीतितमः मदान्धस्त्रीनेत्रप्रकृतिरपलाः । तदपि मत्यः विषयान् सेवितुमनाः । अहो कष्टम् ॥११॥ अत्र स्त्री सुतपरिजनैः सह किंचित प्रेम कुरुते । वक्षप्राप्त: भोमः किंचित रतये भवति । अनषाः प्रियः परी सोस्पजनिका कांचितुष्टि विवर्षात । हो । साम् एतत् मखिलं कतिपयदिनः किंचित् न ।। १२ । इह सततं सर्वाम् उर्वी विजित्य विषया संसेव्य अना श्रियं प्राप्य परमं तनयम् भवलोक्यापि बरातीनाम् भत्यन्सपरमं बलवालयं निहत्य ही मुषितवत् विमुक्त ॥ १३॥ श्रियः अपायाघाखा: इदं जीवितं तृणवलपरम् । स्त्रीणां मनः पित्रम् । कामनसुखं भुजग को कोन छोड़ता? किन्तु इस पृथ्वी पर विलास, मद और सौन्दर्यको लूटनेवाली इरा घूमा करती है । इसलिये सानी विवेकी उनके सुखसे निस्पृह हो जाता है वह उन्हें त्यागकर आत्मकल्याणमें लगता है ॥ १०॥ सभी प्राणियोंके रूप, स्थान, स्वजन, पुत्र, धन, परली, पुत्री, यश, कान्ति, रति, मति, प्रीति, धैर्य ये सब मदमत्त स्त्रीके नेत्रोंके समान स्वभावसे ही चल है, स्थायी नहीं हैं। फिर भी बड़ा खेद है कि मनुष्यका मन विषयोंके सेवनमें हो लगा रहता है ।। ११॥ इस संसारमें स्त्री पुत्रादि कुटुम्बियोंके साथ जो थोड़ा-सा प्रेम करती है, और जो अपने वशमें प्राप्त हुए मोग इस स्त्रीके साथ थोड़ा-सा राग पैदा करते हैं, तथा लक्ष्मीसम्पदा उत्कृष्ट सुख देनेवाली थोड़ी सी तुष्टि करती है। यह सब कुछ भी नहीं है क्योंकि ये सब कुछ दिनोंका ही खेल है । कुछ समय पश्चात् सब नष्ट होनेवाला है ।। १२ । यह मनुष्य इस संसार में समस्त पृथ्वीको जीत, निरन्तर विषयोंका सेवन कर, बहुमूल्य लक्ष्मीको प्राप्त कर तथा उत्तम पुत्रको भी देखकर और अत्यन्त महान् शत्रुओंके समूहका विनाश करके भी सब कुछ छोड़ लुटे हुए यात्रीकी तरह मरणको प्राप्त होता है अर्थात् संसारके सब सुखोंको प्राप्त करके भी अन्समें सब कुछ छोड़कर एकाको चला जाता है ॥ १३ ॥ संसारको सब विभूतियां नाशशील हैं । यह १ स "स्थाना' । २ ० स्नान । ३ स वनिता सुता । ४ स Om. रति । ५ स तुष्टं, किंघनुष्टं । ६ स हि । ७ स भुरि for सर्वा । ८स विषयां । ९ स परमा। १० स निहम्त्या । ११ स हि । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 335 : १३-१७ ] १३. सामान्यानित्यतानिरूपणचतुर्विंशतिः ___332) श्रियो पायाघ्रातास्तुणालचर जीवितमिवं मनश्चित्रं स्त्रीणां भुजगकुटिलं कामजसुखम् । मणध्वंसी कायः प्रकृतितरले योवनषने इति मात्वा सन्तः स्थिरतरपियः श्रेयसि रताः ॥ १४ ॥ 333) गसत्यायुर्वेहे वति विलय रूपमखिल अरा प्रत्यासमोभवति लभते व्याधिलायम् । "तुटुम्बस्नेहातः प्रतिहतमतिर्लोभकलितो __ मनो जन्मोच्छित्यै तवपि कुरुते नायमसुमान् ॥ १५ ॥ 334) बुधा ब्रह्मोत्कृष्टं परमसुखाववाञ्छितपर्व' विवेकश्वस्ति प्रतिहत मसः स्वान्तवसतो'। पूर्व सम्मोभोग 'प्रभृति सकलं यस्य कशतो" न मोहमस्ते तम्मनसि विदुषां भावि सुसवम् ॥ १६॥ 335) भवन्त्येता लक्ष्म्यः कतिपयविनान्येव सुलवा स्तब्यस्तारण्ये विवति मनःप्रोतिमतकाम् । तरिल्लोला भोगा वपुरपिपलं व्याषिकलितं बुखाः संचिम्स्येति प्रगुणमनसोब्रह्मणि रताः ॥१७॥ कुटिलम् । कायः मणध्वंसी । यौवनपने प्रतितरले। इति ज्ञात्वा सन्तः स्थिरतरषियः श्रेयसि रताः ॥ १४॥ आयुः गलति । देहे अखि स्पं विलयं वति । जरा प्रत्यासन्नीमवति । व्याषिः उदयं लमते । तदपि कुटुम्बस्नेहातः प्रतिहतमति: लोमकलितः अयम् असुमान् जन्मोच्छित्यै मनः न कुस्ते ।। १५॥ दुषाः, वान्तवसती प्रतिहतमल: विवेकः अस्ति चेत् पाझोत्कृष्ट परमसुखकद् वाश्कितपदम् । मस्य वशतः इदं लक्ष्मीभोमप्रति सकळं सुखदं सत् विदुषो मोहास्ते मनतिन भावि ।। १६ ।। एताः लक्षम्यः कतिपयदिनान्येव सुखदाः भवन्ति । तरूण्य: तारुण्ये अतुमा ममःमीति विवति । भोनाः जीवन तिनके पर पड़े जलबिन्दुकी तरह मणस्थायी है। स्त्रियोंका मन विचित्र है। कामजन्य सुख सर्पको तरह टेढ़ा है। शरीर क्षणमरमें नष्ट होनेवाला है । यौवन और धन स्वभावसे हो चपल हैं। ऐसा जान अति स्विर विचारवाले सन्तपुरुष अपने कल्याणमें लीन रहते हैं ॥ १४ ॥ वासु क्षन-झनमें घटती जाती है। शरीरका सब सौन्दयं विनाशकी ओर जाता है। बुढ़ापा निकट आता जाता है। रोग उत्पन्न होते जाते हैं। फिर भी । यह बुविहीन प्राणी कुटुम्बके स्नेहमें ब, लोभमें पड़कर इस जन्ममरणके विनाशमें मन नहीं लगाता ॥ १५ ॥ हे शानियों! यदि तुम्हारे अन्तःकरणमें निर्मल विवेक है तो यह उस्कृष्ट ब्रह्म ही परमसुखको करनेवाला और इच्छित पदार्यको देनेवाला है। यह सब लक्ष्मी भोग वगैरह उसीके अधीन हैं। जिनका मन मोहसे ग्रस्त होता है उन्हें ये पदार्थ सुखदायक नहीं होते ॥ १६ ।। ये सांसारिक सम्पदायें कुछ दिनों तक ही सुख देनेवाली प्रतीत होती है। युवती स्त्रियो बवानोमें ही मनको अत्यधिक अनुराग प्रदान करनेवाली होती हैं। भोग १ सत्रियोपाया घाता। २ स तृणजचलं। ३ स सुखम् । ४ स उदयां । ५ स कुटुम्बः स्ने । ६ स अशुमान् । ७ न ब्रह्मोत्कर। ८ स द्वांछत°। ९ स परं। १० स प्रतिहति । ११ स वचतो। १२ स "मोगा। १३.स वनसो । १४ स ब्रह्मनिरताः। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंवोहः [ 339 : १३-२१ 336) न कान्ता' कान्तान्ते विरहशिखिनी बोघनयना न कान्ता भूपश्री'स्तडिदिव चला चान्तविरसा। न कान्तं प्रस्तान्तं भवति जरसा यौवनमतः श्रयन्ते सन्तो ऽवस्थिरसुखमयीं मुक्तियानताम् ॥१८॥ 337) वयं येम्पो जाता मृतिमुपगतास्ते ऽत्र सकला: सम यैः संवृद्धा ननु विरलतां ते ऽपि गमिताः । इवानीमस्माकं मरणपरिपाटी हमकृता न फायन्तो ऽप्येवं विषयविरतिं यान्ति कृपणाः ॥ १९ ।। 338) सयातो यात्येष स्फुटमयमहो यास्यति मृति परेषाम गणयति जनो नित्यमबुधः । महामोहाघ्रातस्तनुघनकलत्रादिविभवे' न मृत्युं" स्वासन्नं व्यपगतमतिः पश्यति पुनः ॥ २० ॥ 339) सुखं प्राप्तुं बुद्धिर्यदि गतमल मुक्तिबसतो" हितं सेवध्वं भो जिनपतिमतं प्रतचरितम् । भजवं मा तृष्णा कतिपयविनस्थायिनि बने पतो नायं सन्तः कमपि मृतमन्वेति विभवः ॥ २१ ॥ तडिल्लोलाः । पपुरपि चलं व्यापिकलितम् । बुधाः इति संचिन्रम प्रगुणमनसः ब्रह्मणि रताः ॥ १७॥ दीनयना विरहशिखिनी कान्ता अन्ते न कान्ता । दरिदिव चला अन्तविरसा प भूपश्रीन कान्ता । जरसा प्रस्तान्तं यौवनं कान्तं न भवति । अतः सन्तः अवस्थिरसुखमयों मुक्तिवनितां श्रयन्ते ॥ १८॥ येभ्यः वयं जाताः ते सकलाः अत्र मुतिम् उपगताः । यः सम संपृक्षाः तेऽपि ननु विरलतां गमिताः । इदानीम् अस्माकं माता मरणपरिपाटी। एवं पश्यन्तः अपि कुपणा; विषयविरतिं न यान्ति ॥ १९ ॥ सः मूर्ति यात: । एषः मृति पाति । अहो, अयं स्फुटं मृविं यास्यति । अत्र अबुधः जनः तनुधनकलत्राविविमने महामोहाघातः परेषाम् एवं गणयति । पुनः व्यपगतमतिः स्वासन्नं मृत्युं न पश्यति ॥२०॥ यदि बिजलीके समान चंचल हैं। व्याधियोंसे युक्त शरीर भी चल है, टिकाऊ नहीं है। ऐसा विचार कर सरलचित्त विद्वान ब्रह्म में आत्मध्यानमें लीन होते हैं ।। १७ ।। अन्समें विरहकी आगमें जलनेवाले प्रेमीके लिये बड़ीबड़ी बाँखोंवाली पत्नी प्रिय प्रतीत नहीं होती। राजलक्ष्मी भी बिजलीकी तरह चंचल और अन्तमें विरस होनेसे प्रिय नहीं है । यौवन भी प्रिय नहीं है क्योंकि अन्तमें उसे बुढ़ापा अस लेता है। इसीसे सन्तपुरुष स्थायो सुखसे पूर्ण मुक्तिरूपी नारोका आश्रय लेते हैं ।। १८ ॥ जिन माता-पिता आदिसे हमारा जन्म हुआ वे सब मरणको प्राप्त हो गये। जिन मित्र बन्धु बान्धवोंके साथ खेल कूदकर हम बड़े हुए उन सबने भी आँखें फेर लो-वे सब भी कालके गालमें समा गये । अब इस क्रम परिपाटीमें हमारे मरणका समय आया है। ऐसा जानते देखते हुए भी मूढ़ प्राणी विषयोंसे विरक्त नहीं होता ॥ १९ ॥ यह अन्नानी प्राणी अमुक मर गया, अमुक मरणोन्मुख है और अमुक भी निश्चय ही मरेगा, इस प्रकार नित्य हो दूसरोंकी गणना तो किया करता है। किन्तु शरीर धन स्त्री आदि वैभवमें महा मोहसे ग्रस्त हुआ मूर्ख मनुष्य अपनी पासमें बाई मृत्युको भी नहीं देखता ॥ २० ॥ १स कान्ताः । २ स शिखिनो । ३ स भूपस्त्री' । ४ स प्रयन्ते ते। ५ स om. ऽय । ८ स वक्यकालाः । ७ स परपाटिः, परिपाटिः, °पाटीक्रम। ८ स परेषां यत्रयं । ९ स स विभवो । १० स मृत्यं, स्वाशनं । ११ स °वशती । १२ सपूतरचित । १३ स किमपि। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 337 : १०-१५] १३. सामान्यानित्यतानिरूपणचतुर्विशतिः 340) न संसारे किचिस्थिरमिह निजं वास्ति सकले विमुच्याज्यं रत्नत्रितयमनघं मुक्तिजनकम् । अहो मोहार्तानां तदपि विरतिनास्ति भवात स्ततो मोक्षोपापाविमुखमनसा ना कुशलम् ॥ २२॥ 341) अनित्यं निस्त्राणं जननमरण व्यापिकलितं जगन्मिम्या त्वार्थैरहमहमिकालिङ्गितमिवम् । विचिन्त्येवं सन्तो विमलमनसो धर्ममतय स्तपः कतुं वृत्तास्तवपसृतये जैनमनधम् ॥ २३ ॥ 342) तडिल्लोलं तृष्णाप्रचयनिपुर्ण सोल्यमखिलं तृषो वृद्धस्तापो बहति स मनों वह्निवदलम् । ततः खेदो स्यन्तं भवति भविना चेतसि तुषा निधायेदं० पूते जिनपतिमते सन्ति निरताः ॥ २४ ॥ इति" सामान्यानित्यतानिरूपण चतुर्विशतिः॥ १३ ॥ मुक्तिवसतो गतमलं सुखं प्राप्तुं बुद्धिः भोः पूतचरितं हितं जिनपतिमतं सेवध्वम् । कतिपयदिनस्थायिनि भने तृष्णा मा भवष्यम् । [ हे ] सन्तः, यतः अयं विभवः कमपि मृतं न अन्वेति ॥ २१ ॥ इह सकले संसारे धनषं मुक्तिजनकम् मर्य रत्नत्रितयं विमच्य किंचित् स्थिर निजं वान अस्ति । सवपि अहो मोहानिां भवतः विरतिः न अस्ति । ततः मोक्षोपायात् विमुखमनसाम् अत्र कुशलं न ॥ २२ ।। जननमरणण्याषिकलितं निस्त्राणम् अनित्यम् । इदं जगत् मिथ्यास्वापः अहमहमिकालिङ्गितम् । विरलमनसः धर्ममतयः सन्तः एवं विचिन्स्य तदपसूतये भनषं जैनं तपः कतुं वृत्ताः ॥ २३ ॥ तृष्णापचयनिपुणम् अखिलं सौख्यं तहिल्लोलम् । तुषः पढ़ेः तापः । सः वह्विवत् अलं मनः दहति । ततः भगिनां वेतसि अत्यन्तं खेवः भवति । बुधाः इदं निषाय पूते जिनपतिमते निरताः सन्ति ।। २४ ।। इति सामान्यानित्यतानिरूपणम् ॥ १३ ।। इसलिये यदि मुक्तिरूपी निवास स्थानमें निर्मल सुख प्राप्त करनेकी भावना है तो हे प्राणी ! पवित्र माचार वाले तथा हितकारो जैनधर्मका पालन करो। तथा धनको तृष्णा मत करो । धन कुछ ही समय तक ठहरता है। क्योंकि सांसारिक वैभव किसी भी मरने वालेके साथ नहीं जाता ॥ २१ ॥ इस समस्त संसारमें मुक्ति देने वाले पूज्य तथा निष्पाप रत्नत्रयको छोड़ अन्य कोई वस्तु न तो स्थायी है और न अपनी है। आश्चर्य है कि फिर भी मोहसे पीड़ित प्राणी संसारसे विरत नहीं होते। अत: मोक्षके उपायोंसे अर्थात् रत्नत्रयसे जिनका मन विमुख है उनका इस संसारमें कल्याण नहीं है ।। २२ ।। यह संसार अनित्य है, इसमें किसीकी रक्षा नहीं है, जन्ममरणरूपी महारोगसे युक्त है, सथा में पहले मैं पहले करके मिथ्यात्व रूप पदापोंसे घिरा हुआ है। ऐसा विचार कर निर्मल बुद्धिवाले धर्मात्मा सन्त पुरुष उस संसारसे छूटने के लिये निपार जैन तप करनेमें प्रवृत हुए है ।। २३ । संसारका समस्त सुख बिजलीके समान चंचल और तृष्णाके समूहको एकत्र करने में वक्ष है। तृष्णा. के बढ़नेसे संताप होता है। वह सन्ताप आगकी तरह मनको जलाता है । उससे प्राणियोंको अत्यन्त खेद होता है। ऐसा मनमें विचार विद्वज्जन पवित्र जैनधर्ममें लीन होते हैं ॥ २४ ॥ १ सीना, ताना । २ सौख्य° lior नात्र । ३ स निस्वाणां । ४ स जनमरण° । ५ स मिथ्यात्वाधर, मिथ्यात्वधर । ६ स °स्तपदसू । ७ स अपमृतये । ८ स शमना । ९ स स्वेदो । १० स यद for निधायेदं । ११ स om इति । १२ स निरूपणा, निरूपणम् । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४. देवनिरूपणद्वात्रिंशत् ] 343) यत्पाति हन्ति' जनयति रजस्तमः सत्त्वगुणयुतं विश्वम् । तद्धरिशंकरविषिवज्जयतु जगत्यां सदा कर्म ॥ १ ॥ 344) भविष्यता विधाता कालो नियतिः पुरस्कृतं कर्म । aur four स्वभावो भाग्यं देवस्य नामानि ॥ २ ॥ 345) खजनकं प्राणभूता संचितं पुरा कर्म । स्मरति पुनरिदानों तद्देयं मुनिभिः समाख्यातम् ॥ ३ ॥ 346) दुःखं सुखं च लभते यद्य ेन यतो यदा यथा यत्र । देवनियोगात्प्राध्यं तत्तेन ततस्तदा तथा तत्र ॥ ४ ॥ 347 ) यत्कर्म पुरा विहितं यातं' जीवस्य पाकमिह किंचित् । न तदन्यथा विधातुं कथमपि शक्रोऽपि शक्नोति ॥ ५ ॥ यत् रजस्तमः सत्वगुणमुखं विश्वं जनयति पाति हन्ति तत् कर्म हरिशंकर विधिवत् जगत्यां सदा जयतु ॥ १ ॥ भवि तम्यता, विधाता, कालः, नियतिः पुराकृतं कर्म वेधाः, विधि: स्वभाव:, भाग्यम् [ इति ] देवस्य नामानि ॥ २ ॥ मत् सौम्यदुःखजनकं प्राणभृता संचितं पुरा कर्म पुनः इदानों स्मरति तत् मुनिभिः दैवं समाख्यातम् ॥ ३ ॥ यत् येन यतः यवा यथा यत्र दुःखं सुखं च लभते तत् तेन ततः तदा तथा तत्र दैवनियोगात् प्राप्यम् ॥ ४ ॥ यत् कर्म पुरा विहितम् इह् जीवस्य किचित् पार्क यातं तद् अन्यथा विधातुं शक्रः अपि कथमपि न शक्नोति ॥ ५ ॥ धाता तावत् त्रिलोकस्य ललाम जो रजोगुण तमोगुण और सतोगुणसे युक्त विश्वकी विष्णुके समान रक्षा करता है, महादेवके समान विनाश करता और ब्रह्माके समान उत्पत्ति करता है वह कर्म अर्थात् देव जगतमें सदा जयवन्त हो ॥ १ ॥ विशेषार्थं - सांख्य दर्शनमें जगत्को त्रिगुणात्मक कहा है । रजोगुणका कार्य उत्पाद है, तमोगुणका कार्य विनाश है और सतोगुणका कार्य स्थिति है। यह जैनोंका उत्पाद व्यय धौव्य है। देव भी ये तीन कार्य करता है। यह मारता भी है, जिलाता भी है। बनाता भी है। बिगाड़ता भी है। समस्त संसार हो दैवका खेल है। यहाँ उसीकी तूती बोलती है इस लिये उसकी जयकामना की है ॥ १॥ भवितव्यता, विधाता, काल, निर्यात, पूर्वोपाजित कर्म, वेधा, विधि, स्वभाव और भाग्य, ये सब देवके नामान्तर है ||२|| पूर्वमें प्राणीने जो सुख दुःख देने वाले कर्म संचित किये हैं जिन्हें इस समय स्मरण करता है उसे मुनिगण दैत्र कहते हैं ||३|| जिस जीवने जिस तरहसे जब जहाँ जो दुःख सुख प्राप्त करना होता है उस जीवको उस तरह से उस स्थानमें; उस कालमें, वह दुःख सुख देवके नियोगसे अवश्य प्राप्त होता है ॥४॥ पूर्वकालमें जीवने जो अच्छा या बुरा कर्म किया और इस समय वह पक कर फल देनेके सन्मुख हुआ तो उसको किचित् भी अन्यथा करने में इन्द्र भी किसी तरह समर्थ नहीं है । अर्थात् किये हुए हुए कर्मका फल जीवको अवश्य भोगना होता है । कोई दूसरा उसमें कुछ भी हेरफेर नहीं कर सकता ||५|| देव मनुष्यको तीनों लोकोंका १ स om. हन्ति । रस संकरि" । ३ स विजयतु for जयतु । ४ स विधि । ५ सत्यागं for भाग्यं । ६ स मुनिभिरारूपातं । ७ स लम्भेद्यद्य ेन, लभतेद्यज्येन लभ्येधद्य ेन लभ्यद्य ेन, लभेययेन । ८ स तत्र । ९ सom. यातं । १० स्र सक्तो for शक्रो । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 353 : १४-११] १४. देवनिरूपणद्वात्रिंशत् 348) धाता जनयति तावल्ललामभूतं' नरं त्रिलोकस्य । यदि पुनरपि गतबुद्धिर्नाशयति किमस्य तत्कृत्यम् ॥ ६॥ 349) निहतं यस्य ममखोनं तमः संतिष्ठते. दिगन्ते ऽपि । . उपयाति सोऽपि नाशं नापदि कि तं विधिः स्पृशति ।। ७॥ 350: विपरीते सति पातरि साधनमफलं प्रजायते पुंसाम्। शशतकरोऽपि भानुनिपतति गगनावनबसम्मः ॥८॥ 351) यत्कुपनपि नित्यं कृत्यं पुरुषो न पाश्छितं लभते । तत्रायशो विधातुर्मुमयो न वदन्ति देहभूतः ॥ ९ ॥ 352) बान्धवमध्ये ऽपि जनो दुःखानि समेति पापपाकेन । पुण्येन वैरिसवनं यातो ऽपि न मुख्यते सौल्यैः ॥१०॥ 153) पुरुषस्य भाग्यसमये पतितो वो ऽपि जायते कुसुमम् । कुसुममपि भाग्यविरहे बनावपि निष्ठुरं भवति ॥ ११ ॥ भूते नरं जनयति । यदि गतबुद्धिः पुनरपि नाशयसि, किम् अस्य तत् कृत्यम् ॥ ६ ॥ यस्य मयूख. निहतं समः बिगन्ते ऽपि न संतिष्ठते, सो ऽपि नाशम् उपयाति । विषि: आपदि तं किन स्पृशति ॥ ७॥ पातरि विपरीते सति पुसा साधनम् वफलं प्रजायते । भानुः दशशतकरः अपि बनवलम्ब: गगमात् निपतति ॥ ८॥ नित्यं कृत्यं कुर्वन् अपि पुरुषः यत् बाशित न लभते तत्र मुनयः विषातुः अयशः वदन्ति । देहभृतः न ॥ ९॥ जनः पापपाकेन गन्तवमध्ये ऽपि दुलानि समेति । वैरिसदन मातः अपि पुष्पेन सोल्यैः न मुच्यते ।। १० । पुषस्य माग्यसमये पतितः वचः अपि कुसुमम् जायते। भाग्य प्रधान बनाकर पैदा करता है। यदि पुनः उसको मति बदलती है तो नष्ट कर डालता है। यह देवका काम है। इसमें किसीको क्या कहना ।। ६॥ जिस सूर्यको किरणोसे भगाया हुमा अन्धकार विशाम्तमें भी नहीं व्हरता अर्थात् जब सूर्यका उदय होता है सब दिशाएं उसके तेजसे प्रकाशित होती हैं किन्तु वह सूर्य भी दिन तुलने पर पश्चिममें जाकर अस्त हो जाता है। क्या विपत्तिके समय दैव उसके साथ नहीं होता ? अवश्य होता है। यही तो दैवका खेल है ॥ ७॥ जब माग्य प्रतिकूल होता है तो मनुष्योंके सब साधन निष्फल हो जाते है। देखो, सूर्यके हजार हाय होते हैं फिर भी भाग्य प्रतिकूल होने पर सन्ध्याके समय वह बिना सहारेके आकाशसे गिर जाता है। विशेषार्थ-सूर्यको सहसकर कहते हैं । करका अर्थ किरण भी है और हाथ भी है। एक हजार हाय वाला भी सूर्य आकाशसे गिरकर दूब जाता है। यह भाग्यको विपरीसताका खेल है। जब तक भाग्य अनुकूल रहता है मनुष्य जो करता है सब सफल होता है। प्रतिकूल होने पर सारे उपाय व्यर्ष हो जाते हैं ।।८।। पुरुष नित्य करने योग्य कामको करते हुए भी जो इच्छित फलको प्राप्त नहीं करता, उसमें मुनिगण देवको हो दोष देते हैं, पुरुषको नहीं । अर्थात् पुरुषके प्रयत्न करने पर भी जो कार्य सिद्धि नहीं होती उसमें पुरुषका दोष नहीं है उसके भाग्यका हो दोष है ऐसा मुनिगण कहते हैं ॥९॥ पापकर्मके उदयसे मनुष्य बन्धु-बांधवोके मध्यमें रहते हुए भी दुःख भोगता है। और पुण्य कर्मके उदयसे शत्रुके घरमें रह कर भी सुख भोगता है ।। १० । जब १ स भूरं for भूतं । २ स कथमपिः मतबुधिर्नाशयति किमस्य तत्कृतं । ३ स निहितं यस्य मयूखन तमः संति पृते. दिगतेपि शक्तोपि शक्ताति । ४ स निहित । १ स उपजाति । ६ स सर । ७ स न्यकुर्वन्न । ८ स for न । ९ स वा । १० स भाग्यहीने । मु. म. १३ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 359 : १४-१७ सुभाषितसंदोहः 354) कि सुखवुःखनिमित्तं मनुलो ऽयं खिग्रते' गतमनस्कः। परिणमति विधिविनिर्मितमसुभाना कि वितर्कण ॥१२॥ 355) दिशि विदिशि विषति शिखरिणि संयति गहने बनेऽपि यातानाम् । पोजयति विषिरभीष्टं जन्मवतामभिमुखीभूतः ॥१३॥ 356) "यदनीतिमतां लक्ष्मीयंद'पम्यनिषेविण व कल्यत्वम् । अनुमीयते विधातुः स्वेच्छाचारित्वमेतेन ॥१४॥ 357) जलधिगतोऽपि न कश्चित्कश्चित्सटगों ऽपि रत्नमुपयाति । पुण्यविपाकान्मयों मत्वेति विमुच्यता खेवः ॥ १५॥ 358) सुखमसुखं च विषत्ते जीवानां यत्र तत्र जातानाम् । कर्मव पुरा चरितं कस्तनोति वारयितुम् ॥१६॥ 359)ोपे बात्र समबे धरणीधरमस्तके दिशामन्ते। यात कूपे ऽपि विषी रतं योजयति जन्मवताम् ॥ १७ ॥ विरहे कुसुमम् अपि वनादपि निष्ठुरं भवति ॥ ११॥ गतममस्क: बयं मनुजः सुखदुःखमिमित्तं किं खिद्यते । असुभानां विधिविनिमित्रं परिणति । वितण किम् ॥ १२ ॥ विशि विदिशि वियति शिखरिणि संयसि गहने व पि यातानां जन्मपताम् अभिमुखीभूतः विषिः अमीष्टं योजयति ।। १३ ।। यत् अनीतिमतां लक्ष्मीः, यत् व अपमिषेविणां कल्यस्वम्, एनेन विधातुः स्वेच्छाकारित्वम् अनुमोयते ॥ १४ ॥ पुण्यविपाकात् कश्चित् मयः बलविंगत अपि रत्नं न उपयाति । कश्चित तटगः अपि रलम् उपयाति । इति मस्या खेदः विमुच्यताम् ।। १५॥ पुरा चरितं कर्म एव यत्र तत्र जाताना जीवाना सुखम् असुखं च विपत्ते । तत् वारयितुं कः शक्नोति ॥ १६ ॥ विधिः द्वीपे व अत्र समुद्रे घरणीपरमस्तके दिशाम् बन्ने पुरुषका भाग्योदय होता है तो वञपात भी फूल बन जाता है। और भाग्यके अभावमें फूल भी वजसे कठोर हो जाता है ॥ ११ ॥ यह मनुष्य अन्य मनस्क होकर सुख दुःखके लिये व्यर्थ ही खेद खिन्न होता है अर्थात् विपत्ति और संपत्तिमें यह मनुष्य व्यर्थ ही चिन्ता करता है कि ऐसा कैसे हो गया; क्योंकि प्राणियोंको जो कुछ सुख दुःख होता है वह सब दैवके द्वारा किया होता है। उसमें तर्क वितर्क करना बेकार है ॥ १२ ॥ जिस समय प्राणियोंका देव उनके अनुकूल होता है उस समय वे दिशा, विदिशा, आकाश, पर्वत अथवा गहन वनमें कहा भी चले जायें, देव उनके इच्छित मनोरथ पूरे करता है ॥ १३ ॥ लोकमें देखा जाता है कि जो अन्याय करते हैं उनके पास लक्ष्मी माती है और जो अपथ्यका सेवन करते हैं वे रोगी न होकर नीरोग रहते हैं। इससे अनुमान होता है कि विधाता बझा स्वेच्छाचारी है उसके मनमें जो बाता है सो कर डालता है ॥ १४ ।। कोई मनुष्य तो समुद्रमें गोता लगाने पर भी रत्न नहीं पाता और कोई समुद्रके तट पर रहकर भी पा जाता है। यह सब जीवोंके पाप-पुण्यका खेल है। ऐसा मानकर मनुष्यको खेद नहीं करना चाहिये कि क्यों दूसरे सुखी है और वह दुःखी है ॥ १५ ।। संसारमें सर्वत्र उत्पन्न हुए जीवोंको उनके द्वारा पूर्व जन्ममें किया गया पुण्य-पाप ही सुख अथवा दुःख देता है । उसे रोकना शक्य नहीं है ।। १६ ॥ प्राणियोंको उनका भाग्य द्वोपमें, समुद्रमें, पर्वतके शिखर पर, दिशाभोंके अन्तमें और कूपमें भी गिरे रत्नको मिला देता है ॥ १७ ॥ इस संसारमें पुण्य स om. ऽयं । २ स खिधते, विद्यते । ३ स असुभुजां । ४ स जातानां । ५ स यदि नीति । ६ स यदि पथ्य । ७ सom, कश्चित् ८ स कस्तं छ° वारयतुं । ९ स पातं । १० स जोजयति । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 365 : १४--२३ ] १४. देवनिरूपणद्वात्रिंशत ___360) विषदो ऽपि पुण्यभाजां जायन्ते' संपदो ऽत्र जन्मवताम् । पापविपाकाद्विपदो जायन्ते संपदो ऽपि सवा ॥ १८॥ 361) चित्रयति यन्मपूरान् हरितयति शुकान् अकान् सितोफुरुते। कमेव तत्करिष्यति सुखासुखं कि मनःखेवैः ॥ १९ ॥ 362) अन्यत् कृत्यं मनुश्चिन्तयति विवानिशं विशुद्धधिया । वेघा विदधात्यन्यत् स्वामोव न शक्यते धतुंम् ॥ २० ॥ 361) द्वीपे जलनिधिमध्ये गहनक्ने वैरिणां समहे ऽपि । रक्षति मत्यं सुकृतं पूर्वकृतं भूत्यषत सततम् ॥ २१ ॥ 364) नश्यतु यातु' विदेश प्रविशतु घरणीतलं खमुत्पततु । विदिशं दिशं तु गच्छतु नो जीवस्त्यज्यते विधिना ॥ २२ ॥ 365) शुभमशुभं च मनुष्यैर्यत्कर्म पुराजितं विपाकमितं । तवभोक्तव्यमवश्यं प्रतिषेधे शक्यते केन ।॥ २३ ॥ रूपे अपि यातं रत्नं जन्मवता योजयति ।। १७ ।। अत्र पुण्यभाजा जन्मवतो विपदः अपि संपदा जायन्ते । सवा पापविणाकात संपदः अपि विपद: जायन्ते । १८ ।। यत् मयूरान् वित्रयत्ति, शुकान् हरितयति, बकान् सितोकुख्ते तत कर्म एव सुखासुखं करिष्यति । मनःखेदैः किम् ।। १९ ।। मनुजः विशुद्धधिया दिवानिशम् अन्यत् कूरयं चिन्तयति । षाः अन्यत् विदधाति सः स्वामी इव धम् न शक्यते ।। २० ॥ द्वीपे जलनिधिमध्ये गहनवने वैरिणां समूहे अपि मस्यं पूर्वकृतं सकतं भत्यवत सततं रक्षति ।। २१ ।। जीवः नश्मतु, विदेश यातु, धरणीतलं प्रविशतु. खम् उत्परातु, विदिशं दिशं गलत । तु विधिना नो स्यज्यते ॥ २२ ॥ मनुष्य पुरा शुभम् अशुभं च यत् कर्म अर्जितम्, विपाकम् इतं तत् अवश्यं भोक्तव्यम् । केन प्रतिषेध शाली जीवोंकी विपदा भी सम्पदा बन जाती है। और पाप कर्मके उदयसे संपदा भी विपदा बन जाती है ।। १८ ।। जो दैव मयूरोको चित्र विचित्र रंगवाला बनाता है, तोतोंको हरा और बगुलोंको सफेद बनाता है। वहो देव प्राणियोंको सुखी और दुःखी बनाता है। व्यर्थ खेद करनेसे क्या लाभ है ? | १९ ॥ मनुष्य विशद्ध बुद्धिसे रात दिन कुछ अन्य ही करनेका विचार करता है। किन्तु यह देव कुछ अन्य ही कर देता है। अर्थात मनुष्य जो सोचता है वह नहीं होता। और जो उसने सोचा भी न था वह हो जाता है। यह सब देवका खेल है। वही जीवका स्वामी है उसे कोई रोक नहीं सकता। विशेषार्थ-यद्यपि देवका निर्माण स्वयं जीव ही करता है किन्तु फिर वही जीवका विधाता हो जाता है और उसके सामने जीवको एक नहीं चलती ॥२०॥ पूर्व जन्ममें जो पुण्य कर्मका संचय किया है वह मनुष्यको द्वीपमें, समुद्रके मध्यमें, गहन वनमें, और शत्रओके समूहमें सदा सेवककी तरह रक्षा करता है। अर्थात् यदि देव शुभ कर्म रूप होता है तो नौवका शभ करता है और यदि अशुभरूप होता है तो जोवका अनिष्ट करता है ।। २१ ॥ प्राणो मर जाये, या विदेश चला जाये या पृथ्वीमें समा जाये या आकाशमें उड़ जाये या दिशा विदिशामें चला जाये किन्तु देव उसका पीछा नहीं छोड़ता ॥ २२ ॥ मनुष्योंने पूर्व में जिस शुभ या अशुभ कर्मका उपार्जन किया है वह जब स्वयमें आता है तो १ स जायते, जायाते। २ स स्वामी च । ३ स पूर्वकृत् । ४ स om. यातु । ५ स दिशन्तु । ६ स त्यजते । ७H प्रतिषेधुप्रधिपघं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-- -. १०० सुभाषितसंदोहः [371 : १४-२९ 366) धनधान्यकोशनिचयाः सर्वे जीवस्य सुखकृतः सन्ति । भाग्येनेति विविस्था विदुषा न विधीयते खेवः ॥ २४ ॥ 367) देवायत्तं सर्व जीवस्य सुखासुखं त्रिलोके ऽपि । बुवेति शुद्धधिषणाः कुर्वन्ति ममःक्षति' नात्र ॥ २५ ॥ 368) वातुं हतुं किंचित् सुखासुखं नेह कोऽपि शक्नोति। त्यक्त्वा कम पुरा कतमिति मत्वा नाशुभं कृत्यम् ॥ २६ ॥ 369) नरबरसुरवरविद्याधरेषु लोके न दृश्यते को ऽपि । शक्नोति यो निषेधु भानोरिय कर्मणामुदयम् ।। २७॥ 370) कयितजनेन वियोग संयोग खलजनेन जीवानाम् ।। सुखदुःखं व समस्तं विधिरेव निरङ्कुशः कुरुते ॥२८॥ 371) अशुभोदये जनानां नश्यति बुद्धिर्न विद्यते रक्षा। सुहृदो ऽपि सन्ति रिपवो विषमविषं जायते ऽप्यमृतम् ॥ २९ ॥ शक्यते ।। २३ ।। भाग्येन सर्वे धनधान्यकोशनिचयाः जीवस्य सुखकृतः सन्ति । इति विदित्वा विदुषा खेदः न विधीयते | ।। २४ ॥ त्रिलोके अपि सर्व सुखासुखं जीवस्य देवायत्तम् इति वृद्ध्वा शुद्धषिषणाः अत्र मनः सतिं न कुर्वन्ति ॥ २५ ॥ इह पुरा कृतं कर्म त्यावा कः अपि किंचित् सुखासुखं दातुं हर्तुं न शक्नोति । इति मत्वा अशुभं न कृत्यम् ॥ २६ ॥ लोके | नरवरसुरवरविद्याधरेषु कः अपि न दृश्यते । यः भानोः उदयम् इव कर्मणाम् उदयं निषेधु शक्नोति ॥ २७ ॥ निरयाः विधिः एव जीवाना दयितजनेन वियोग खलजनेन संयोग समस्तं सुखदुःखं च कुरुते ॥ २८ ॥ अशुभोदमे जनानां दुद्धिः | नश्यति, रक्षा न विद्यते, सुहृदः अपि रिपवः सन्ति । अमृतम् अपि विषमविषं जायते ॥ २९ ।। लोके पुष्यविहीनस्य देहिनः | उसका फल अवश्य ही भोगना होता है। उसे कोई रोक नहीं सकता ॥ २३ ॥ धन धान्य और खजाना ये सब | भाग्यके अनुकूल होने पर ही जीवको सुखदायक होते हैं। यह जानकर ज्ञानीको खेद नहीं करना चाहिये । अर्थात् धन धान्यादिके होते हुए भी यदि कोई दुःखी है तो उसका भाग्य अनुकूल नहीं है ऐसा जानकर उसे | खेद नहीं करना चाहिये। क्योंकि एक ओर लाभान्सरायका क्षयोपशम होनेसे उसे धान्य सम्पदा प्राप्त है | किन्तु दूसरी ओर भोगान्सरायका और असाता वेदनीयका उदय होनेसे वह उसका उपभोग करके सुखी नहीं | होता ।। २४ ॥ तीनों लोकोंमें जावका सब सुख दुःख देवके अधीन है ऐसा जानकर शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष उसके | विषयमें अपने मनको खेद खिन्न नहीं करते ॥ २५ ।। पूर्व में किये गये कर्मको छोड़ इस लोकमें कोई भी किचित् भी सुख या दुःखको देनेमें या हरने में समर्थ नहीं है । अर्थात् इस जन्ममें न कोई व्यक्ति या देवता या ईश्वर न तो जीवको सुष या दुःख दे सकता है और न उसे हर सकता है। सुख दुःख देना या हरना मनुष्यके पूर्वजन्ममें किये शुभ अशुभ कर्मोके अधीन है। अतः ऐसा जानकर मनुष्यको बुरे काम नहीं करना चाहिये ॥२६॥ जिस प्रकार इस लोकमें मनुष्यों, देवों और विद्याधरों में कोई ऐसा नहीं है जो सूर्यके उदयको रोक सके, उसी तरह कर्मोके उदयको भी कोई अन्य पुरुषश्रेष्ठ या देवोत्तम या विधाधर नहीं रोक सकता ॥ २७ ।। जीवोंका प्रियजनोंसे वियोग, दुष्टजनोंसे संयोग और समस्त सुख दुःख देव ही करता है। उस पर किसीका अंकुश नहीं है ।। २८ ॥ अशुभ कर्मका उदय होने पर मनुष्योंकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। रक्षाका कोई उपाय नहीं रहता। १ स सुकृतः । २ स om, न। ३ स क्षिति। ४ स . किंचित् । ५ स नो शुभं । ६ स उदयः, उदनं । ७ स om प्य, ल्वमतं । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ 374 : १४-३२] १४. देवनिरूपणद्वात्रिंशत् 372) नश्यति हस्तादर्थः पुष्यविहीनस्य देहिनो लोके । दूरादेत्य करस्थं भाग्ययुजो जायते रत्नम् ॥ ३०॥ 373) कस्यापि कोऽपि कुरुते न सुख कुःख व देवमपहाय। विवधाति वृथा गर्ष खलो हमाहितस्य हन्तेति ॥३१॥ 374) गिरिपसिराजसानुमधिरोहतु यातु सुरेन्द्रमविरम् विशतु समुद्रपारि परणीतलमेकषिया प्रसपंतु। गगनतलं प्रयातु विवधातु सुगुप्तमनेकषायुषैस्तदपि न पूर्वकर्म सततं बस मुञ्चति देहधारिणम् ॥ ३२ ।। इति वेवनिरूपण'वात्रिशत समाप्ता ॥१४॥ हस्तात् अर्थः नश्यति । भाम्ययुजः रत्नं दूरात् एत्य करस्थं जायते ॥ ३० ॥ देवम् अपहाय को ऽपि कस्यापि सुखं दुःखं च न कुरुते । खलः अहं अहितस्य हन्ता इति वृथा गर्व विदधाति ॥ ३१ ।। गिरिपतिराजसानुम् अपिरोहतु । सुरेन्द्रमन्दिरं मातु । समुद्रपारि विशतु । एकधिया धरणीतलं प्रसपंतु । गगनतलं प्रपातु । अनेकधा आयुषः सुगुप्तं विदधातु । तदपि सततं पूर्वकर्म देहधारिणं न मुश्चति बत ॥ ३२ ॥ इति देवनिरूपणम् ।। १४ ॥ मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। और अमृत भी विष हो जाता है। विशेषार्थ--रामचन्द्रजी अशुभ कमका उदय होने पर लोक विश्रुतिके अनुसार सोनेके मृगके पीछे दौड़ पड़े। यह बुद्धि विनाशका उदाहरण है। द्वारिकाके जलने पर श्रीकृष्ण और बलदेवने आग बुझानेके लिये समुद्रका जल फेंका तो वह तेलकी तरह जलने लगा। यह अमृतके विष होनेका उदाहरण है ॥ २९ ॥ इस लोकमें पुण्यहीन मनुष्यके हाथमें रखा पदार्थ भी नष्ट हो जाता है। और भाग्यशालीके दूरसे बाकर रत्न हाथमें आ जाता है ॥ ३० ॥ देवके सिवाय कोई भी किसीको सुख या दुःख नहीं देता। मूर्ख पुरुष व्यथं ही गर्व करता है कि मैंने उसको मार दिया या जिला दिया ॥३१॥ यह मनुष्य सुमेरुपर्वतके शिखर पर चढ़ जाये या देवेन्द्रके मन्दिरमें चला जाये, या समुद्रके जलमें प्रवेश कर जाये, या पृथ्वी तलमें समा जाये, या आकाशमें उड़ जाये या अनेक प्रकारके अस्त्र शस्त्रोंसे अपनी रक्षा कर ले । फिर भी इस प्राणीको पूर्वमें किया कम कभी भी नहीं छोड़ता ॥ ३२ ॥ इस प्रकार बत्तीस श्लोकोंमें देवका निरूपण समाप्त हुआ। १ स भाग्ययुतो । २ स पथा। ३ स हतोपि । ४ स मुघते, मुञ्चत । ५ स धारिणम् । ६ स °निरूपणम् । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५. जठरनिरूपणषड्विंशतिः ] 375) तावअल्पति सर्पति तिष्ठति माद्यति विलसति 'विभाति । यावन्नरो न जठरं वेहभृतां जायते रिक्तम् ॥१॥ 376) गद्यकरिष्य हातो निक्षिप्ततव्यनिगमद्वारम। को वार शक्यः कर्तुं जठरघटोपूरणं मयः ॥२॥ 377) शक्येतापि समुद्रः पूरयितुं निम्तगाशतसहलेः। नो शक्यते कदाचिज्जठरसमुद्रो ऽन्नसलिलेन ॥ ३ ॥ 378) वैश्वानरो न तुप्यति नानाविष काष्ठनिधयतो यद्वत् । तवज्जठरहताशो नो तृप्यति सर्वयाप्यशनः ॥ ४ ॥ 379) यस्यां वस्तु समस्तं न्यस्त नाशाय कल्पते सततम् । दुष्परोवरपिठरों' कस्ता शक्नोति पूरयितुम् ॥ ५॥ 380) तावन्नरः कुलीनो मानी शूरः प्रजापते स्पर्थम् । यावज्जठरपिशाचो वितनोति न पोजनं देहे ॥६॥ यावत् देहभृती जठरं रिक्तं न जापते तावत् नरः जल्पति , सर्पति, तिष्ठति, माति, विलसति, विभाति च ॥ १॥ यदि वातः निक्षिप्तद्रव्यनिर्गमद्वारम् अकरिष्यत् कः वा मत्यः जठरघटीपूरणं कर्तुं शक्यः ।। २ ।। समुद्रः अपि निम्नगाशतसहस्रः पूरयितु शक्येत । जठरसमुद्रः अन्नसलिलेन कदाचित् नो शक्येत ॥ ३॥ यत् वैश्वानरः नानाविषकाष्ठनिचयतः न तृष्यति, सद्वत् जठरहताशः अशनैः सर्वथापि नो तृप्यति ॥ ४॥ यस्यां सततं न्यस्तं समस्तं वस्तु नाशाय कल्पते तां दुष्पूरोदरपिठरी पूरयितुकः शक्नोति ।। ५ ।। नरः तावत् कुलीनः मानी अत्यर्ष शूरः प्रजायते । यावत् जठरपिशाचः देहे जब तक प्राणियोंका पेट खाली नहीं होता अर्थात् भरा होता है तभी तक मनुष्य वार्तालाप करता है, चलता है, उठता बैठता है, हर्षित होता है, आनन्द मनाता है और शोभित होता है। पेट खाली होते हो सब उछल-कूद बन्द हो जाती है ॥ १ ॥ अब वायु इस उदररूपी घड़ेमें डाले गये पदार्थोंके निकलनेका द्वार बनाता है तब कौन मनुष्य इस उदररूपी घहेको भरनेमें समर्थ है। अर्थात् इधर हम भोजन करते हैं उधर मलद्वारसे पूर्व संचित द्रव्य निकल जाता है ।। २॥ लाखों नदियोंसे समुद्रको भरना तो शक्य है। किन्तु अन्नरूपी जलसे उदररूपी समुद्रको भरना कभी भी शक्य नहीं है ॥ ३ ॥ जैसे आग नाना प्रकारके काष्ठोंके ढेरसे तृप्त नहीं होती । उसी प्रकार उदरकी आग विविध प्रकारके भोजनोंसे सर्वथा तृप्त नहीं होती ।। ४ ।। जिस उदररूपी पिटारीमें रखी हुई समस्त वस्तु निरन्तर नष्ट होती रहती है, उस कभी न भरनेवाली पिटारीको कोन भर सकता है ॥ ५॥ जब तक यह पेटरूपी पिशाच शरीरमें पीड़ा पैदा नहीं करता तब तक ही मनुष्य कुलीन, मानी और अत्यन्त शूरवीर रहता है । विशेषार्थ---जब पेटमें भूख सताने लगती है और उसको भरना आवश्यक हो जाता है तब मनुष्यके सब सद्गुण विलीन हो जाते हैं और उसे पेटके लिये दूसरोंको खुशामद १ स orm. च । २ स करिष्यति, पद्यत्करिष्यति । ३ स को नाम । ४ स शक्य शक्यत । ५ स नानाविषि ६ स पिठरी। ७स पीडित। ८ स देदो । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ 385 : १५-११] १५. जठरनिरूपणपविशतिः 381) यदि भवति जठरपिठरो नो मानविनाशिका शरोरभृताम् । कः कस्य तवा वीनं जल्पति मानापहारेण ॥ ७॥ _382) गायति नृत्यति वल्गति धावति पुरतो म्पत्य वेगेन । किं किं न करोति पुमानुवरगृह पवनवशीभूतः ॥८॥ 383) जोवान्निहन्स्यसत्यं जल्पति बहुषा परस्वमपहरति । यवकृत्यं तदपि जनो जठराम लसापितस्तनुते ॥९॥ 384) तिगतिमतिरतिलकमीलता लसन्ति तमुषारिणां तावत् । माकजाठरववाग्निनं ज्वलति शरीरकान्तारे ॥१०॥ '385) संसारतरणवको विषयविरतो अरावितों ऽप्यसुमान् । 'गर्वोद्ग्रोवं पश्यति सबनमुखं अठरनृपगदितः ।। ११ ॥ पीरनं न वितनोति ।। ६ ।। शरीरभृतां मानविनाशिका जठरपिठरी यदि नो भवति, सवा कस्य मानापहारेण क: दोन जल्पति ॥ ७ ॥ उदरगृहपवनवशीभूतः पुमान् नपस्य पुरतः गायति, नृत्यति, बलाति वेगेन धावति । किं किं न करोति ।। ८ ।। जीवान् निहन्ति । असरयं जल्पति । बहुधा परस्वम् अपहरति । जठरानलतापितः जनः यत् अकृत्यं तदपि तनुते ॥९॥ यापत् अठरववाग्निः शरीरकान्सारे न ज्वलति वावत् तनुषारिणां पतिमतिमतिरतिलक्ष्मीलताः लसन्ति ।। १० ॥ संसारतरणदसः विषयविरक्तः परादितः अपि असुमान जठरनुपादितः सघनमुखं गोपीवं पश्यति ॥ ११॥ तनुमाम् जठ आदि करना पड़ता है ॥ ६ ॥ यदि यह पेटरूपी पिटारी प्राणियोंके मानको नष्ट करनेवाली न होती तो कोन अपना मान खोकर किसके सामने दीन-वचन बोलता। विशेषार्थ-मनुष्य इस पेटके लिये ही अपना मान स्यागकर दूसरोंके सामने दोन बनता है। यदि पेट न होता सो कोन अपना मान खोना पसन्द करता ॥७॥ इस पेटरूपी पिशाचके वशमें होकर मनुष्य राजाके सामने वेगसे गाता है, नाचता है, कूदसा है, दौड़ता है, यह क्या-क्या नहीं करता ॥ ८॥ इतना ही नहीं, किन्तु पेटको मागसे संतप्त मनुष्य जो काम नहीं ही करने योग्य है वे काम भी करता है। वह पेटके लिये जीवोंका धात करता है। बहुषा सूठ बोलता है और पराया धन हरता है। विशेषार्थ--राजाके सामने गाना-नाचना आदि काम उतने बुरे नहीं हैं उनमें दूसरोंका बुरा नहीं होता। कितु हिंसा करना, मूठ बोलना, चोरी करना तो ऐसे कार्य हैं जो किसीको नहीं करने चाहिये । किन्तु पेटके लिये मनुष्य ये सब न करने योग्य काम भी करता है ॥ ९॥ प्राणियोंको कान्ति, गति, मति, रति और लक्ष्मीरूपो लता तभी तक शोभायुक्त रहती है जब तक शरीररूपी वनमें उवरस्पी आग नहीं जलती। विशेषार्थ जैसे ही मनुष्यको भूख न मिटनेसे उदराग्नि प्रज्वलित होती है उसका सब राग-रंग समाप्त हो जाता है ॥ १०॥ जो व्यक्ति संसार समुद्रको पार करनेमें चतुर होते हैं, विषयोंसे विरक्त रहते हैं और वृद्धावस्थासे पीड़ित होते हैं उनको भी जब पेटरूपी राजाका हुकुम होता है तब वे भी गर्षसे गर्दन उठाये धनिकोंके मुखको ओर भाशाभरी दृष्टिसे ताकते हैं । विशेषार्थ-साधारण गृहस्थोंको तो बात हो क्या, संसारसे विरक्त साधु जनोंको भी मूखसे सताये जाने पर धनिकोंके मुखको ओर देखना पड़ता है ॥ ११॥ १ स विनाशका। २ स वलाति, जल्पति for बल्गति। ३ स पुरो, पुरुषो; पुस्तो। ४ स "पहलवनवशीभूतः, ग्रहपीडितो लोके । ५ स अपिहरति । ६ स जठरानिल° ! ७ त ज्वल्यति । ८१ जरादिते । ९ स गर्बोप्येवं । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [391 : १५-१७ १०४ सुभाषितसंबोहः 386) कर्षति वपति लुनीते योग्यति सीव्यति पुनाति वयते च । विवधाति किं न कृत्यं जठरानलशान्तये तनुमान् ॥ १२॥ 387) लज्जामपहन्ति नुणां मानं नाशयति वैम्पमुपचिमूते। वर्धयति दुःखमखिलं जठरशिखो पमिलो बेहे ॥ १३ ॥ 388) गुणकमलशशाङ्कतनु गर्वग्रहनाशने महामन्त्रः । सुखकुमदो घविनेशो जठरशिखी बाधते कि मैं ॥१॥ 989) शिपिलोभवति शरीरं दृष्टिम्पित्ति विनाशमेति मतिः । - मूर्छा भवति जनानामुदरभुजगेन रष्टामाम् ॥ १५ ॥ 390) उत्तमकुहे ऽपि जातः सेवा विदधाति नोचलोकस्य । वदति च वार्चा नीचाभवरेश्वरपीडितो मर्पः॥१६॥ 391) वासोभूय मनुष्यः परवेश्मसु नोचकर्म विदधाति । चादुशतानि च कुरुते अठरवरीपूरचाकुलितः ॥ १७ ॥ रानसशान्तये कर्षति वपति सुनीते वीव्यति सोम्यति पुनाति वयते च । किं कृत्यं न विदधाति ॥ १२॥ नणां देहे वर्षितः जठरशिली लज्जाम् अपहन्ति, मानं नाशयति, देन्यम् उपचिनुते, अखिलं दुःखं वर्धयति ॥ १३ ।। गुणकमलशशाक्तनुः, गर्वप्रहनाशने महामन्यः, सुखकुमुदौदिनेशः जठरविलीम बाषते किम् ।। १४ ।। उदरमुजंगेन दष्टानां जनानां शरीरं शिथिलीभवति । दृष्टिः भाष्यति । मतिः विनाशम् एति । मूछों भवति ॥ १५॥ उदरेश्वरपीरितो मयः उतमकुले जातः अपि नौचलोकस्य सेवां विदधाति । नीचां वाचां प वदति ॥ १६ ॥ अठरदरीपूरणाकुलितः मनुष्यः परवेश्मसु दासोभूय इस पेटको मागको शान्त करनेके लिये मनुष्य क्या नहीं करता। उसीके लिये वह तपती हुई दोपहरीमें खेत जोतता है, फिर उसमें बीज बोता है। खेती पकने पर उसे काटता है। पेट भरनेके लिये जुआ खेलता है। कपड़े सीनेका काम करता है। सफाईका काम करता है और कपड़े बुनता है ॥ १२॥ शरीरमें प्रज्वलित उदराग्नि मनुष्योंको लज्जाको नष्ट कर उन्हें निर्मज्ञ बना देती है। उनके सम्मानको नष्ट कर देती है। उनमें दीनता ला देती है । इस प्रकार यह समस्त दुःखोंको बढ़ाती है। विशेषार्थ-मनुष्योंको जब भूख सताती है तो वे लज्जा और मानको त्याग दूसरोंके आगे हाय पसारते हैं और दीनतापूर्ण वचन कहते हैं ॥ १३ ॥ उदराग्नि गुणरूपी कमलोंको चन्द्रमाके समान है। जैसे चन्द्रमाके उदित होते ही खिले कमल बन्द हो आते हैं वैसे पेट में भूख लगने पर मनुष्यके सब गुण मन्द पड़ जाते हैं। गर्वरूपी प्रहको नष्ट करनेके लिये महामंत्र है । जैसे महामंत्रसे ग्रहपीड़ा नष्ट हो जाती है वैसे ही पेटको भूख मनुष्यके गर्वको चूर-चूर कर देती है। सुखरूपी सफेद कमलोंके लिये सूर्यके समान है। जैसे सूर्यके उदयमें सफेद कमल मुी जाते हैं ऐसे पेटमें भूख सताने पर सब सुख म्लान पड़ जाते हैं ।। १४ ॥ जिनको यह पेटरूपी सर्प डस लेता है अर्थात् जब पेटमें अन्न नहीं पहुंचता तो मनुष्योंके शरीर शिथिल हो जाते हैं, दृष्टि घूमने लगती है, सिरमें चक्कर आ जाता है। बुद्धि नष्ट हो जाती है। और उन्हें मूर्छा आ जाती है ॥ १५ ॥ उदररूपी ईश्वरसे सताया हुआ मनुष्य उत्तमकुलमें जन्म लेकर भी नीच लोगोंकी सेवा करता है। और नीच वचन बोलता है ॥ १६॥ इस पेट १ स om. सीव्यति । २ स चिनोति, विनोति, पचनोति। ३ स जठरानिलबद्धिते देहे । ४ स तनुगर्व । ५ स भय। ६ स 'कुमुदोध्व', कुमुदोध ,. "कुमुदोष । ७ स दिनेसा । ८ स के न, किं नः । ९ स वदति न । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 : १५-२४ ] १५. जठरनिरूपणषड्विंशतिः 392) क्रीणाति खलति याचति गणयति रचयति विचित्रशिल्पानि । जठरपिठरीं न शक्तः पूरयितुं गतशुभस्तदपि ॥ १८ ॥ 393) प्रविशति वारिधिमध्यं संग्रामभुवं च गाहृते विषमाम् । लङ्घति सकलधरित्रीमुदरग्रहपीडितः प्राणी ॥ १९ ॥ 394) कर्माणि यानि लोके' दुःखनिमित्तानि लज्जनीयानि । सर्वाणि तानि कुरुते जठरनरेन्द्रस्य वशमितो' जन्तुः ॥ २० ॥ 395) अर्थ: कामो धर्मो मोक्षः सर्वे भवन्ति पुरुषस्य । तावद्यावत्पीडां जाठरवह्निनं विवधाति ॥ २१ ॥ 36) एवं सर्वजनानां दुःखकरं जठरशिखिनमतिविषमम्' । संतोष जलैरमलैः शमयन्ति यतीश्वरा ये ते ॥ २२ ॥ 397 ) ज्वलिते ऽपि जठरहुतभुनि कृतकारितमोवितेनं 'वाहारैः । कुर्वन्ति जठरपूर्ति मुनिवृषभा ये नमस्तेभ्यः ॥ २३ 398) तावत्कुते पापं जाठरवह्निनं शाम्यते यावत् । तिवारिणा शमित्वा तं यतयः पापतो विरताः ॥ २४ ॥ १०५ नौचकर्म विदधाति । चाटुशतानि च कुरुते ॥ १७ ॥ गतशुभः क्रीणाति खलति यावति गणयति विचित्रशिल्पानि रचयति । तदपि जठरपिठरीं पूरयितुं न शक्तः ॥ १८ ॥ उदरप्रपीडितः प्राणी वारिधिमध्यं प्रविशति विषमां संग्रामभुवं गाहते, सकलधरित्रीं च लङ्घति ।। १९ ।। लोके दुःखनिमित्तानि यानि लज्जनीयानि कर्माणि तानि सर्वाणि जठरनरेन्द्रस्य वशम् श्तः जन्तुः कुरुते ।। २० ।। यावत् जाठरवह्निः पीडां न विदधाति तावत् पुरुषस्य अर्थः कामः धर्मः मोक्षः सर्वे भवन्ति ॥ २१ ॥ ये यतीश्वराः ते एवं सर्वजनानां दुःखकरम् अतिविषमं जठरशिक्षिनं बमले संतोषजल: समयन्ति ॥ २२ ॥ जठरहुतमचि ज्वलिते अपि कृतकारितमोदितैः माहारैः ये मुनिवृषभाः जठरपूर्ति न कुर्वन्ति तेभ्यः नमः ॥ २३ ॥ यावत् जाठररूपी गढेको भरनेके लिये व्याकुल हुआ मनुष्य दास बनकर दूसरोंके घरोंमें नीच कर्म करता है । और सैकड़ों प्रकारसे चापलूसी करता है || १७ || अभागा मनुष्य व्यापार करता है, भीख मांगता है । गणनाका काम करता है । अनेक प्रकारके शिल्प रचता है। फिर भी पेटरूपी गढेको भरनेमें समर्थ नहीं होता । अर्थात् अनेक कार्य करके भी पेट नहीं भर सकता ॥ १८ ॥ पेटरूपी ग्रहसे पीड़ित प्राणी समुद्रके मध्यमें प्रवेश करता है। गोताखोर लोग समुद्र में डुबकी लगाकर मोती वगैरह चुनते हैं । भयंकर युद्धभूमिमें जाकर युद्ध करता है । समस्त पृथ्वीको लांघता है । सर्वत्र आता जाता है ॥ १९ ॥ पेट राजाके अधीन हुआ प्राणी लोकमें जितने भी दुःख देने वाले और लज्जाके योग्य काम है वे सब करता है ॥ २० ॥ मनुष्य तभी तक धर्म अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषायकी साधना करता है जब तक उदरकी आग उसे नहीं सताती है ॥ २१ ॥ इस प्रकार संसारके सब प्राणियोंको जो उदराग्नि अत्यन्त भयंकर दुःख देती है, उसे जो यतीश्वर होते हैं वे निर्मल सन्तोष जलसे शान्त करते हैं ॥ २२ ॥ उदरमें आगके प्रज्ज्वलित होने पर भी अर्थात् अति तीव्र भूख से पीड़ित होने पर भी जो यतीश्वर कृत कारित और अनुमोदित आहारसे पेट नहीं भरते उन मुनि श्रेष्ठोंको नमस्कार है । विशेषार्थजैन मुनि अपने उद्देशसे बनाये गये आहारको ग्रहण नहीं करते । तथा छियालीस दोषों और बत्तीस अन्तरायों ++ १ स विषमं । २ स लोक । ३ स नरेंद्र | ४ स वशमेति । ५ स तावज्जाव । ६ स जठरविगममतिशिखिनों । ७ स विमले । ८ स नवा, न चा९स पूर्ण सु. सं. १४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [400 : १५-२६ १०६ सुभाषितसंदोहः 399) श्रीममितगतिसौख्यं परमं परिहरति मानमपहन्ति । विरमसि वृषतस्तनुमानुदरदरीपूरणासक्तः ॥ २५ ॥ 400) शुभपरितोष वारिपरिषेकबलेन यतिः सुदुःसहं शमयति यः कृतान्तसमचेष्टितमुत्थितमोदरानलम् | व्रजति स रोगशोकमदमत्सरःखवियोगजितं विगलितमृत्युजन्म मपविघ्नमन मनन्तमास्पवम् ॥ २६ ॥ इति जठरनिरूपणषड्विंशतिः ॥ १५ ॥ वह्निः न शाम्यते' तावत् पापं कुरुते । यतयः धृतियारिणा तं शमित्वा पापतः विरताः ।। २४ ।। उदरदरीपूरणासक्तः तनुमान् परमं श्रीमदमितगतिसौख्यं परिहरति, मानम् अपहन्ति, वृषतः विरमति ॥ २५ ।। मः यतिः शुभपरितोषवारिपरिषेकबलेन सूदुःसहं कृतान्तसमचेष्टितम् उत्थितम् औवरानलं शमयति सः रोगशोकमदमत्सरदूःखवियोगजितं विगलितमृत्युजन्मम् अपविघ्नम् अनम अनन्तम् आस्पदं व्रजति ।। २६ ॥ इति जठरनिरूपणम् ॥ १५ ॥ को टालकर ही भोजन ग्रहण करते हैं ॥ २३ ।। मनुष्य तभी तक पाप करता है जब तक उसकी उदराग्नि शान्त नहीं होती। अर्थात् उसको शान्त करनेके लिये ही मनुष्य पापाचरण करता है। इसलिये मुनीश्वर उस उदराग्निको धैर्यरूपी जलसे शान्त करके पापसे विरत रहते हैं ॥ २४ ॥ जो इस उदररूपी गढ़ेको ही भरनेमें लगे रहते हैं उसीके पीछे जीवन बिता देते हैं वे अमितगति-मोक्षगतिके उत्कृष्ट सुखसे वंचित रहते हैं, अपनी मान मर्यादाको नष्ट करते हैं और धर्मसे हाथ धो बैठते हैं ॥ २५ ।। जो यति सन्तोषरूपी जलके सिंचनके बलसे अत्यन्त दुःसह और यमराजके समान चेष्टावाली प्रज्ज्वलित हुई पेटकी आगको शान्त करता है । वह अनन्त सुखके भण्डार ऐसे निर्विघ्न स्थानको प्राप्त होता है जहाँ रोग, शोक, मद, डाह, दुःख और वियोग नहीं होते तथा जन्म-मरण भी नहीं होता | अर्थात् मुक्तिपुरीको प्राप्त करता है ।। २६ ।। इस प्रकार छब्बीस पद्यों से जठरका निरूपण समाप्त हुआ। १ सशक्तः । २ साभसंतो° । ३स सरोग' । ४ स जननमप, मनथम । ५ स निरूपणम् । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६. जीवसंबोधनपञ्चविंशतिः 401) सर्पस्स्वान्त'प्रसूतप्रततत मतमः स्तोममस्तं समस्तं सावित्रीव प्रदोमिनयति वितनुते पुण्यमम्पटिनस्ति। सूते संमोधमैत्री'अतिसुगति मतिनीधिता कान्तिकोति कि किंवा नो विषत्ते जिनपति पदयोमुक्तिकों च दृष्टिः॥१॥ 402) शुश्रूषामाश्रय त्वं' दुषजनपदों याहि कोपं विमुद्र ज्ञानाम्यासं कुष्य त्या विषयरि धर्ममित्रं भजात्मन् । निस्त्रिशत्वं जहाहि व्यसनविमुखतामेहि मोति विधेहि श्रेयशेवस्ति पूतं परमसुखमयं कम्युमिच्छास्तदोषम् ॥२॥ __जिनपतिपदयोः दृष्टिः सावित्री प्रदीप्तिः इव समस्तं सर्पत्स्वान्तप्रसूतप्रतततमतमःस्तोमम् अस्तं नयति,, पुण्यं वितते, अन्यत् हिनस्ति, गंमोदमंत्रीद्युतिसुगतिमतिश्रीश्रिता सती कान्तिकीति सूते । मुक्विकी च सा कि कि मो विद्यते ॥ १ ।। हे आत्मन्, अस्सदोषं परमसुखमयं पूतं श्रेयः लब्धम् इक्छा अस्ति घेत त्वं शुश्रूषाम् आश्रय, बुधजनपदवीं याहिं, कोप विमुञ्च शाना यासं कुरुष्व, निषपरिपुत्सब, धर्ममित्रं भज, निस्त्रिंशत्वं ब्रहीहि, व्यसनविमुखताम् एहि, नीति विहि ॥ २ ॥ हे 1 इतात्मन्, तारुण्योद्रेकरम्यां दृढकठिनकुचां पनपत्रायताक्षी स्थूलोपस्थी शशिमुखी परस्त्री वीक्ष्य किमिति खेदं प्रयासि । जिनेन्द्र देवके चरणोंका दर्शन (जिनभक्ति ) अन्तःकरणमें उत्पन्न होकर विस्तारको प्राप्त हुए समस्त । अज्ञानको इस प्रकारसे नष्ट कर देता है जिस प्रकार कि इसलोकमें फैले हुए समस्त अन्धकारको सूर्यकी प्रभा नष्ट कर देती है। वह पुण्यको विस्तृत करता है, पापको नष्ट करता है, तथा प्रमोद, मैत्री, कान्ति, उत्तम गति, बुद्धि और लक्ष्मोका आश्रय लेकर कान्ति व कोक्ति को उत्पन्न करता है। ठीक है जो बिनचरणोंका दर्शन मुक्तिको भी प्राप्त करा देता है वह अन्य क्या क्या नहीं कर सकता है ? सब कुछ कर सकता है ॥ १॥ हे आत्मन् ! यदि तुझे पवित्र, निर्दोष एवं उत्तम सुखस्वरूप मोक्षको प्राप्त करनेको इच्छा है तो तू जिनदेवादिको आराधना कर ( अथवा बिनवाणीके सुननेकी इच्छा कर ), विद्वानोंके मार्गका अनुसरण कर, क्रोषको छोड़ दे, शानका अभ्यास कर, धर्मरूप मित्रकी सेवा कर, निर्दयताको छोड़ दें, विषयोंसे विरक्तिको प्राप्त हो, और न्याय मार्गका अनुसरण कर ॥२॥ हे मूर्ख आत्मन् ! जो परस्त्री यौवनके प्रभावसे रमणीय दिखती है, जिसके स्तन दृढ़ एवं कठोर हैं, जिसके नेत्र पद्मपत्रके समान लम्बे हैं, जिसकी योनि स्थूल है, तथा जिसका मुख चन्द्र के समान आनन्द जनक है; उसको देखकर तू क्यों खेदको प्राप्त होता है। यदि तुझे सुन्दर शरीरको धारण करने वाली स्त्रियोंकी इच्छा है तो तू अन्य सब कार्यको छोड़कर पुण्यका उपार्जन कर । कारण यह कि १ स सर्वत्कांतप्रसूता । २ स om. °तम । ३ सप्तमस्तोम । ४ स सूते । ५ स संमोह । ६ स मंत्रीमितिद्य । | Hom, मति । ८ स पिताकान्तिकीत्तिः। ९ स पदपो. १० स पदयो मुक्तीकर्ती, [मुक्ति"], 'मुदयोमुक्तीकर्तर, | भक्तिवर्ती। ११ सयध्वं । १२ स जहीहि । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ [ 405 : १६ सुभाषितसंवोहः 403) तारुण्योदेकरम्य दृढकठिन कुचां पापनायताक्षों स्थूलोपस्थां परस्त्री किमिति शशिमुखों वीक्ष्य खेवं प्रयासि । स्यक्त्वा सर्वान्यकृत्यं कुरु सुकृतमहो कान्तमुस्य जनानां वाञ्छा चेते हतारमन्न हि सुकृतमृते वाञ्छितावाप्तिरस्ति ॥ ३॥ 404) लक्ष्मी प्राप्याप्य नामखिलपरि जनप्रीतिपुष्टिप्रवात्रों कान्सां कान्तायष्टि विकसितवदनां चिन्तय स्थातचित्तः । तस्याः पुत्र पवित्र प्रथितपृथुगुणं तस्य भार्या पतस्याः पुत्रं तस्यापि कान्तामिति विहत मतिः विधसे जीव मूखः ॥४॥ 405) जन्मक्षेत्र पवित्र क्षणचित्रपले दोषसोहर बेहे व्याध्यादि सिन्धुप्रपतन जलयो पापपानीयकुम्भे । कुर्वाणो बन्षदि विविधमलभूते" यासिरे जीव माशं संचिन्त्यैव शरीरे कुरु हतममतो धर्मकर्माणि नित्यम् ॥ ५ ॥ कान्तमूर्त्यानानां ते वाञ्छा [ अस्ति ] चेत् अहो सर्वान्यकृत्यं त्यक्त्वा सुकृतं कुरु । हि सुकृतम् ऋते वाग्छितावाप्तिः न अस्ति ।। ३ ॥ हे जीव, आतंचित्तः त्वं अखिलपरजनप्रीतिपुष्टिप्रदात्रीम् अनयां लक्ष्मी प्राप्य अपि, विकसितबदना कान्ताङ्गयष्टि कान्तां चिन्तयसि । च तस्याः प्रथितपथगुण पवित्र पुर्व चिन्तयसि । च तस्य भार्या, तस्याः पुत्र, तस्य अपि कान्तां चिन्तयसि । इति विहतमतिः मूढः त्वं खिद्यसे 11 ४ ॥रे जीय, अपवित्र क्षणचिचपले दोषसोकरन्धे व्यायादिसिन्धप्रपतनजलधी पापपानीयकुम्भे विविधमलभूते देहे बन्धुद्धि कुर्वाणः नाशं यासि । एवं संपिन्स्य शरीरे इतममतः नित्यं धर्मकर्माणि कुरु ॥ ५ ॥ स्मरशरनिहतः त्वं यद्वत् कामिनीसंगसांस्ये विसं करोषि तद्वत् जिनेन्द्रप्रणिगदितमते मुक्तिमार्गे चित्तं पुण्यके बिना प्राणीको अभीष्ट वस्तुको प्राप्ति होती नहीं है ॥ ३ ॥ हे जीव ! तू मूढ़ बनकर समस्त कुटुम्बी जनको प्रीति एवं सन्तोषको देनेवाली अमूल्य सम्पत्तिको पा करके फिर सुन्दर शरीरको धारण करने वाली प्रसन्नमुख युक्त स्त्रीको चिन्ता करता है । तत्पश्चात् व्याकुल मन होकर उससे प्रसिद्ध उत्तम गुणवाले निर्दोष पुत्रकी इच्छा करता है । इसके बाद भी उसकी पत्नी, उसके भी पुत्र और फिर उसकी भी पत्नीको चिन्ता करता है। इस प्रकारसे नष्ट बुद्धि होकर तू खेदको प्राप्त होता है ॥ ॥ हे जीव ! जो तेरा शरीर जन्मका स्थान है-अन्य जन्मका कारण है, अपवित्र है, बिजलीके समान नष्ट होने वाला है, दोषरूप सपोका महाबिल है, व्याधियोंरूप नदियोंके गिरनेके लिये समुद्रके समान हैअनेक रोगोंका कारण है, पापरूप पानीको भरनेके लिये घड़ेके सदृश है, तथा अनेक प्रकारके मलसे—मल, मूत्र एवं कफ आदिसे परिपूर्ण हैं; उसको तू बन्धुके समान हितकारक मानकर नाशको प्राप्त होता है-दुःसह दुखको सहता है। ऐसा विचार करके तू उस शरीरसे ममताको छोड़ दे और निरन्तर धर्म कार्योंको कर ॥ ५ ॥ हे आत्मन् ! तू जिस प्रकार कामके बाणोंसे पीड़ित होकर स्त्रीके संयोगसे प्राप्त होनेवाले सुखके विषयमें अपने चित्तको करता है उसी प्रकार यदि मुक्तिके कारण १ स कठिण । २ स 'नाम', मध्यम । ३ स परजन । ४ स चितयन्नात्त । ५ स "गुणं । ६ स विहित । ७ स विद्यते । ८ स पवित्र। ९ स व्याधादि । १० स "प्रतपन । ११ स मलभूते । १२ याशि । १३ स हत ममतो। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ 408 : १६-८] १६. जीवसंबोधनपश्चविंशतिः 406) यच्चित्तं करोषि स्मरशर निहतः कामिनीसंगसौख्ये । ततत्त्वं चेज्जिनेन्द्रप्रणिवतमते मुक्तिमार्गे विवष्याः । कि कि सौख्यं न यासि प्रगतभव'जरामृत्युदुःखप्रपत्रं संचिन्त्यैवं विधत्स्व स्थिरपरमधिया तत्र चित स्थिरत्वम् ॥६॥ 407) सद्यः पातालमेति प्रविज्ञप्ति जलधि गाहते वेषगर्भ भुक्त' भोगाप्नराणाममरयुवतिभिः संगम यायते । वाञ्छत्यैश्वर्य मार्य रिपुसमितिहते कीर्तिकान्तो तसव घृत्वा त्वं जीव वित्तं स्थिरमतियपाळ स्वस्य कृत्यं कुरुक ।। ७॥ 408) नो शक्यं यनिषेव त्रिभुवनभवन प्राङ्गणे वर्तमान सर्वे नश्यन्ति' बोषा भवभयानका रोषातो यस्य पुंसाम् । जीवाजीवादित 'त्त्वप्रकटननिपुणे जैनवाक्ये निवेश्य तत्त्वे चेतो विवध्याः स्ववशसुखप्रद स्वं तदा त्वं प्रयासि ॥८॥ विदव्याः चेत् प्रगतभवजरामृत्युदुःखप्रपञ्चं किं कि सौख्यं न मासि । एवं संचिन्त्य स्थिरसरमधिया तत्र चित्तस्थिरत्वं विषत्त्व ॥ ६ ॥ हे जीव, तब चित्तं सद्यः पातालम् एति, जलधि प्रविशति, देवगर्भ गाहते, नराणां भोग मुक्ते प अमरपुरतिभिः संगम याचते । रिपुसमितिहतेः आर्यम् ऐश्वर्य वाञ्छति । घ ततः कीर्तिकान्ता वाञ्छति । स्वम् बतिचपलं चित्तं स्थिरं घृत्वा स्वस्य कृत्यं कुरुष्व ॥ ७ ॥ त्रिभुवनभवनप्राङ्गणे वर्तमानं यत् निषेधु नो शक्यम्, यस्य रोषतः पुंसां भवभयजनकाः सर्व दोषाः नश्यन्ति । चेतः जीवाजीवादितत्त्वप्रकटननिपुणे बनवाक्ये निवेश्य तत्त्वे विदष्याः तदा त्वं स्वयशसुखप्रदं स्वं प्रयासि ॥८॥ शत्रुः मित्रत्वं याति, कथमपि सुकृतम् अपहतुं समर्थः न, भविनाम् एकत्र जन्मनि दुःखं जनयति च अपधातुं शक्यते। भूत जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट मत्तके विषयमें उस चित्तको करता तो जन्म, जरा और मरणके दुःससे छूटकर किस किस सुखको न प्राप्त होता-सब प्रकारके सुखको पा लेता; ऐसा उत्तम स्थिर बुद्धिने विचार करके उक्त जिनेन्द्र के मतमें चित्तको स्थिर कर ॥ ६ ॥ यह पित्त बहुत चंचल है वह कभी शीघ्र ही पातालमें जाता है, कभी समुद्र में प्रविष्ट होता है, कभी देवोंके मध्य में पहुंचता है, कभी मनुष्योंके भोगको भोगता है, कभी देवांगनाओंके संयोगको प्रार्थना करता है, कभी श्रेष्ठ ऐश्वर्यकी इच्छा करता है, तत्पश्चात् कभी शत्रु समूहको नष्ट करके कीर्तिरूप कामिनीकी अभिलाषा करता है। हे जीव ! तू उस चंचल चित्तको स्थिर करके अपने कर्तव्य कार्यको कर ॥७॥ तीन लोकरूप धरके मध्यमें संचार करनेवाले जिस चित्तका रोकना शक्य नहीं है तथा जिसके रोकनेसे मनुष्योंके संसारके ( जन्म-मरणके ) भयको उत्पन्न करनेवाले सब दोष नष्ट हो जाते हैं, हे जीव ! उसको तू यदि जोवाजोदादि पदार्थोके यथार्य स्वरूपको प्रगट करने वाले जिनागममें स्थिर करके तत्त्वचिन्तनमें लगाता है तो तू स्वाधीन सुखके देने वाले अपने पदको ( मोक्षको ) प्राप्त हो सकता है ॥ ८ ॥ कल्पित शत्रु कभी मित्रताको प्राप्त होता है, वह प्राणीके पुण्यको नष्ट करनेके लिये किसी भी प्रकारसे समर्थ १ स नव for भव । २ स विधिस्त्वं । ३ स चित्त स्थि' । ४ स भुक्ते भोगीन्न ।५ मयं, मर्थ । ६ स समिति हतेः। ७स जीदि। ८ om. भवन। ९समश्यन्ति । १० सरोघतो। ११ स त्वत्व, तत्वे १२सवाच्ये। १३ स स्त्वं तदा । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4]] : १६-११ सुभाषितसंदोहः 409) मित्रत्वं याति शत्रुः कथमपि सुकतं' नापहर्तुं समर्थो जन्मन्येकत्र दुःखं जनयति भविना शक्यते चापधातुम् । नैव भोगो ऽय बेरी मृति जननजरादुःसत्तो जीव शश्वत् । तस्मादेनं निहत्य प्रशमशितशरेर्मुक्तिभोग भज स्वम् ॥१॥ 410) रे जीव, त्वं विमुञ्च कणचिचपलानिनियार्थोपभोगा नेभिःख न नोतः किमिह भववने अत्यन्तरोद्रे हतारमन् । तृष्णा चित्त न तेन्यो विरमति विमते ऽयापि पापात्मकेम्पः संसारास्यन्तवुःखत्किथमपि न तवा मुग्ष मुक्ति प्रयाति ॥१०॥ 411) मतस्त्रीनेत्रलोकाविरम रति सुखायोषिता"मन्तदुःक्षात प्रामा" प्रेक्षातितिक्षामतिषतिकमामित्रताषीगृहांश्च । एता"स्तारुण्यरम्या न हि तरलदृशो मोहयित्वा तरुभ्यो चुःखात्पातुं समर्या मरकगतिमितानङ्गिनो जीव जातु ॥११॥ अब शश्वत् मृतिजननजरादासतः[] भोगः वैरी एवं न । तस्मात् प्रश्नमशिनवरैः एनं निहत्य त्वं मुक्तिमोमं भव ॥ ९॥रे जीव, रवं क्षणरुचिष्पलान् इन्द्रियार्थोपभोगान् विमुश्च । हे हतात्मन्, यह अत्यन्तरोने भगवने एभिः व दुःखं न नीतः किम् । हे विमते, अद्यापि पापात्मकम्यः तेभ्यः पित्ते तृष्णा न विरमति। हे मुग्ध, तदा संसारात्पन्तदुःखात् कथमपि मक्ति न प्रयाति ।। १०॥ हे जीव, योषितां मत्तस्त्रीनेत्रलोलात् अन्तदुःखात् रसिसुखात् विरम । एताः तारुष्यरम्याः तरलदृशः वरुण्यः प्रक्षातितिक्षामतितिकरुणामित्रताश्रीगृहान् प्रान्नान् मोहयित्वा नरकगतिम् इवान् अङ्गिनः जातु दुःखात् पातुं न समर्याः ।। ११॥ हे हतमते, परेषां लक्ष्मी दृष्ट्वा अन्तः खेदं किमिति करोषि । एषा न, एते न, त्वं च न । येन कतिपय नहीं होता, वह एक हो जन्ममें प्राणियोंके लिये दुःखको उत्पन्न करता है, तथा उसका नाश भी किया जा सकता है । परन्तु निरन्तर जन्म जरा और मरणके दुःखको देने वाला भोगरूप शत्रु ऐसा नहीं है-यह लौकिक शत्रुके समान कभी मित्रताको नहीं प्राप्त होता, पुण्यको नष्ट करने में समर्थ है, प्राणियोंको अनेक जन्मोंमें दुख देता है, तथा प्रतीकार करनेके लिये अशक्य है। इसीलिये हे जीव ! तू कषायोंके उपशमरूप तीक्ष्ण वाणोंके द्वारा इसको नष्ट करके मुक्ति सुखका सेवन कर ।। ९ ।। हे जीव ! तू बिजलीके समान अस्थिर इन इन्द्रियविषयभोगोंको छोड़ दे। हे दुर्बुद्धि ? क्या तू इन विषयभोगोंके द्वारा अतिशय भयानक इस संसाररूप वनमें दुखको नहीं प्राप्त हुआ है ? अवश्य प्राप्त हुआ है । हे भूखं ! अब भी यदि उन पापरूप विषय मोगोंकी ओरसे तेरी मनोगस तृष्णा नहीं हटती है सो फिर हे मूड ! तू उस संसारके सीव दुःखसे किसी प्रकार भी छुटकारा नहीं पा सकता है ।। १० ॥ हे जीव ! तु मदोन्मत स्त्रीके नेत्रके समान चंचल और अन्तमें दुख देनेवाले स्त्रियोंके विषम सुखसे विरक्त हो जा। जवानीमें रमणीय दिखने वाली ये चंचल नेत्रोंको घारक युवतियां विवेक, क्षमा, बुद्धि, धैर्य, दया, मित्रता और लक्ष्मोके स्थानभूत विद्वानोंको मोहित करके नरक गतिको प्राप्त हुए प्राणियोंको वहकि दुखसे बचानेके लिये कभी भी समर्थ नहीं हो सकती हैं ॥ ११ ॥ हे दुबुद्धि ! तू दूसरोंकी १ स सुकृतां । २ स समर्था, समर्थ । ३ स चापधातं, पातुं । ४ स नैव भोगार्थ, नैव भोगोर्थ, भोनोप्य । ५ स मत । ६ स दुःखदो जीवसश्च । ७ स तृष्णां चेत्तेन। ८ स दुःलान्कथ' | ९स विरति व मु', विरमतिसुखा । १० स । योषितान' । ११ स प्राजो°; प्राज्ञान्ने । रस श्रीगृहांप। १३ स एतां । १४ स मोदयित्वा । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ 414 :१६-१४] १६. जीयसंबोधनपञ्चविंशतिः +12) दृष्ट्वा लक्ष्मी परेषां किमिति हतमते खेवमन्तः करोषि नैषा नेते' न च त्वं कतिपयदिवसंगत्वरं येन सर्वम् । तत्त्वं धर्म विधेहि स्थिरविशवधिया जोष मुक्त्वान्यवाञ्छां येन प्रध्यस्तबाधां विततसुखमयीं मुक्तिलक्ष्मीमपैषि ॥१२॥ 413) भोगा' नश्यन्ति कालात्स्वयमपि न गुणो जापते तत्र को ऽपि तज्जीवतान् विमुच व्यसनभयकरानात्मना धर्मबुद्धया। स्वातन्त्र्यायेन याता" विषति मनसस्तापमत्यन्तमुझं तन्वन्त्येते तु' मुक्ताः स्वयमसमसुख स्वात्मजं नित्यमच्यम् ॥ १३ ॥ 414) धर्मे चित्तं निहिं श्रुतकथितविधि जीव भास्याविधेहि सम्यक्स्वान्तं पुनीहि व्यसनकुसुमितं कामवृक्ष लुनीहि । पापे बुद्धि धुनीहि प्रशमयमवमा पिछडि पिण्टि प्रमा छिन्ति क्रोधं विभिन्दि' प्रचुरमवगिरीस्ते ऽस्ति चेग्मुक्तिवाञ्छा ॥ १४ ॥ दिवस: सर्व गत्वरं तत् हे जीव, त्वम् अन्यवाञ्छा मुक्या स्थिरविशदधिया धर्म विधेहि, येन प्रध्वस्तपाषां वित्तवसुखमयीं मुक्त्तिलक्ष्मीम् उपैषि ॥ १२ ॥ भोगाः कालात् स्वयम् अपि नश्यन्ति, तत्र कः अपि गुणः न जायते । तत् हे बीव, व्यसन __ भयकरान् एतान् आत्मना धर्मबुद्धया विमुञ्च । पेन स्वातन्त्र्यात् याताः मनसः अत्यन्तम् उग्रं तापं विदषति । तु स्वयं मुक्ताः एते स्वात्मजम् अयं नित्यम् असमसुखं तन्वन्ति ।। १३ ।। हे जीव, ते मुक्तिवाञ्छा अस्ति चेत् चित्तं धर्मे निषेहि । भक्त्या श्रुतकथितविधि विहि । स्वान्तं सम्यक् पुनीहि। व्यसनकुसुमित कामवृक्षं लुनीहि । पापे बुद्धि धुनीहि । प्रशमयमदमान् शिफ्छि । प्रमादं पिण्डि । कोषं छिन्दि । प्रचुरमदगिरीन् विभिन्द्धि ॥१४॥ हे जीव, बाधाब्याचावकीर्ण विपुलभववने भ्राम्यता सम्पत्तिको देखकर मनमें क्यों खेद करता है ? कारण कि न तो यह लक्ष्मी रहने वाली है, न वे लक्ष्मीपति रहने वाले हैं, और न तू भी रहने वाला है। यह सब कि कुछ ही दिनमें नष्ट हो जाने वाला है इसीलिये हे जीव ! तू अन्य विषयादिकी इच्छाको छोड़कर स्थिर एवं निर्मल बुद्धिसे धर्मका आचरण कर | इससे तू निर्वाष एवं अनन्त सुखस्वरूप मुक्तिरूप लक्ष्मीको प्राप्त हो सकता है ॥ १२॥ विषयभोग समयानुसार स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं और ऐसा होने पर उनमें कोई गुण नहीं उत्पन्न होता है-उनसे कुछ भी लाभ नहीं होता है। इसलिये हे जीव ! तू दुख और भयको उत्पन्न करने वाले इन विषय भोगोंको धर्म बुद्धिसे स्वयं छोड़ दे। कारण यह कि यदि ये स्वयं हो स्वतन्त्रतासे नष्ट होते हैं तो मनमें अतिशय तीव्र सन्तापको करते हैं और यदि इनको तू स्वयं छोड़ देता है तो फिर वे उस अनुपम आत्मिक सुखको उत्पन्न करते हैं जो सदा स्थिर रहनेवाला एवं पूज्य है ॥ १३ ॥ हे जीव ! तुझे यदि मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा है तो तू अपने चित्तको धर्ममें लगा, आगममें कहे हुए अनुष्ठानको भक्ति पूर्वक कर, अपने अन्तःकरणको भले प्रकार पवित्र कर, दुःखों रूप फूलोंसे व्याप्त कामरूप वृक्षको काट डाल, पापविषयक वुद्धिको नष्ट कर दे; प्रशम, यम एवं दमको विशिष्ट करवृद्धिंगत कर; प्रमादको चूर्ण कर, क्रोधको दूर कर, बोर अतिशय गर्वरूप पर्वतोंको खण्डित कर ॥ १४ ॥ हे जीव ! बाघारूप भोलोंसे व्याप्त ऐसे विशाल संसाररूप वनमें परिभ्रमण करते हुए प्राणीके द्वारा संचित किये १ नैतेन । २ स उपति, उपैसि, उपैहि । ३ स भोगान्न । ४ सजायते । ५ स जाता। ६ स त्व for तु । ७स भक्स । ८स प्रशमदमयमान । ९स विभिन्ध 1१० स गिरिस्ते । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः 415) बाधाव्य धावकीर्णे विपुलभववने भ्राम्यता संचितानि Ear कर्मेन्धनानि ज्वलित शिखिवदत्यन्तदुःखप्रदानि । यद्दते नित्यसौख्यं व्यपगतविपदं जीव मोक्षं समीक्ष्प बाह्यान्तन्यमु तपसि जिनमते तत्र तोषं कुरुष्व ॥ १५ ॥ 416) एको मे शाश्वतात्मा सुखमसुखभुजो ज्ञानदृष्टिस्वभावो नायक चिशि मे तनुधन करणभ्रातृभार्यासुखादि । कर्मोद्भूतं समस्तं चपलमसुखदं तत्र मोहो मुषा मे पर्यालोच्येति' जीव स्वहितमवितथं मुक्तिमार्ग" श्रय स्वम् ॥ १६ ॥ 417) ये बुध्यन्ते ऽत्र तस्वं न प्रकृतिचपलं ते ऽपि शक्ता निरोद्धुं प्रोद्यत्कल्पान्तवातक्षुभितजलनिधिस्फीत 'बीचिस्यवो था । प्रागेवान्ये मनुष्यास्सरलतरमनोवृत्तयो दृष्टनष्टा स्तं उचेत दुगेत स्थिर परमसुखं त्वं तदा किं न यासि ॥ १७ ॥ ११२ [ 417 : १६-१७ संचितानि ज्वलितशिखिवत् अश्यन्तदुःखप्रदानि कर्मेन्धनानि दग्ध्वा यत् समीक्ष्य व्यपगत विपदं नित्यसौख्यं मोक्षं दत्तं तत्र बाह्यान्तर्ग्रन्यमुक्ते जिनमते तपसि स्वं तोषं कुरुष्व ।। १५ ।। असुखभुजः मे शाश्वतात्मा एकः सुखं ज्ञानदृष्टिस्वभावः तनुचनकरण भ्रातृभार्यासुखादि अन्यत् किंचित् में निजं न समस्तं कर्मोद्भूतं चपलम् असुखदम् । तत्र मे मोहः मुषा । है जीव, इति पर्यालोच्य स्वं स्वहितम् अवितथं मुक्तिमार्ग श्रय ॥ १६ ॥ अत्र ये तत्त्वं दुष्यन्ते, ते अपि प्रोद्यत्कल्पान्तवातक्षुभितजलनिषिस्फीतवीचिस्यदः वा प्रकृतिपलं ( मन ) निरोद्धुं न शक्ताः । प्राकू एवं तरलसरमनोवृत्तयः अन्ये मनुष्याः दृष्टनष्टाः । तत् एतत्तः ईदृक् तदा त्वं स्थिरपरमसुखं किं न यासि ॥ १७ ॥ रे पापिष्ठ, अतिदुष्ट, व्यसनगतमते, निन्द्यकर्मप्रसक्त, गये एवं जलती हुई अग्निके समान भीषण दुःख देनेवाले कमरूप इन्धनोंको जला करके जो तप विघ्न-बाधाओंसे रहित एवं अविनश्वर सुखसे संयुक्त मोक्षको देता है उसका विचार करके तू बाह्य एवं अभ्यन्तर परिग्रहसे रहित ऐसे जिनसंमत उस तपमें सन्तुष्ट हो || १५ || मैं जो यह दुःखको भोग रहा हूँ सो मेरी आत्मा एक, नित्य, सुखस्वरूप एवं ज्ञान दर्शन स्वभाव वाली है। इसको छोड़कर अन्य मेरा अपना कुछ भी नहीं है। शरीर, धन, इन्द्रिया, भाई, स्त्री, और सुख आदि सब कर्मके अनुसार उत्पन्न हुआ है । यह सब अस्थिर एवं दुःखको देनेवाला है । उसके विषयमें मेरा मोह करना व्यर्थ है । इस प्रकार विचार करके हे जीव ! तू जो मोक्षका मार्ग सत्य एवं आत्मा के लिये हितकर है उसका आश्रय ले ॥ १६ ॥ यहाँ जो जीव तत्त्वज्ञ हैं वे मी प्रगट हुई प्रलयकालीन वायुके द्वारा क्षोभको प्राप्त हुए समुद्र की विशाल तरंगोंके वर्ग के समान स्वभावसे चंचल चित्तको रोकने के लिये समर्थ नहीं है । जिनकी मनोवृत्ति अतिशय चंचल थी ऐसे दूसरे कितने ही मनुष्य पहले हो देखते देखते नष्ट हो चुके हैं। इसलिये जब यह चित्त ऐसा अस्थिर है तब हे जीव तु स्थिर उत्कृष्ट सुख (मोक्ष सुख को क्यों नहीं प्राप्त होता है ? ।। १७ ।। हे अतिशय पापिनु, दुष्ट, व्यसनोंमें बुद्धिको लगानेवाले, नीच कार्यमें आसक्त, न्याय-अन्यायको न जाननेवाले, निर्दय व सन्मार्ग से भ्रष्ट बुद्धिवाले ! चूंकि इस पापके १ स कोर्ण, बाधा, व्याधा व कीर्णे । २स दग्धा । ३ स यद्वत्ते माग । ६ स निरंदधुं । ७स स्फीति, स्फीटवी चिसो वा । ८ स यद्वते यद्वृत्ते । ४ स पर्यालोम्पेहि । ५ स स्तच्वेतश्च दुगे । ९ स जासि । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ 420 : १६-२० १६. जीवसंबोधनपञ्चविंशतिः 418) रे पापिष्ठातिदुष्ट' व्यसनगतमते निन्यकर्मप्रसक्तः न्यायान्यायानभिज्ञ प्रतिहतकरण "व्यस्तसन्मार्गबुदधे। कि कि दुःखे न यातो ऽविनय वशगतो येन जीयो विषय स्वं तेनेनों नित्य प्रसभमिह मनो जैनतत्वे निधेहि ॥ १८॥ 489) लज्जाहोनात्मशको कुमतगतमते स्पत्ततत्वप्रणीते। १॥धृष्टानुष्ठाननिष्ठ स्थिरमदनरते मुक्ति मार्गाप्रवसे । संसारे कुःखमुन सुखरहितगताविन्द्रियैः प्रापितो ये___ उस्तेषामयापि जोय.४ मसि गतघृण ध्वस्तबु वशित्वम् ।। १९ ॥ 420) संपंव्याघ्रभवैरिज्वलनविषयमग्राहशत्रु ग्रहाधान् हित्वा "तुष्ट स्वरूपान् ववति तनुभृतां ये वयषां सर्वतोऽपि । तान्कोपावोनिकृष्टानतिविषमरिपूग्निजय त्वं प्रवीणाघेरे जीव प्रलोन प्रशमगतिमते मनस्वशत्रो ॥२०॥ न्यायान्यायानभिन्न, प्रतिहतकण, म्यस्तसम्मार्गबुद्ध, येन अविनयवशगत जीवः विषह्य किं किं दुःखं न यातः । तेन त्वम् एनः निवयं इह जैनतत्त्वे मनः प्रसभं निहि ।। १८ ।। लमहीन, मारमशत्रो, कुमतगसमते, त्यक्ततत्वप्रणीते, षष्टानुष्ठाननिष्ठ, स्थिरमदनरते, मुक्तिमार्गाप्रवृत्ते, गतषण, वस्तबुद्धे, जीव, सुखरहितगतौ संसारे त्वं यः इन्द्रियः उग्रं दुःख प्रापितः तेषां वशित्वम् अद्यापि व्रजसि ॥ १९ ॥ रे रे प्रलीनप्रशमगतिमते, अदम्पभग्नस्वशत्रो, बीव, दुष्टस्वरूपान् सपथ्याने. भवरिज्वलनविषयमग्राहशत्रुम्हाद्यान् हित्वा ये तनुभृतां सर्वतः अपि व्यवां ददति, अतिविषमरिपून निकृष्टान् तान् प्रवीणान् कारण जीव अविनयके वशीभूत होकर किस किस दुःसह दुखको नहीं प्राप्त हुआ है-सब प्रकार दुःसह दुखको प्राप्त हुआ है इसीलिये तु बलपूर्वक पापको छोड़कर यहां जैन तत्त्वमें मनको स्थिर कर ।। १८॥हे निर्लज्ज, अपने आपका शत्रु, एकान्स मतोंमें बुद्धिको लगानेवाले, तत्त्व रुचिसे रहित (मिथ्यादृष्टि), विनयहीन (निन्य) आचरणमें विश्वास करनेवाले, काममोगमें आनन्द माननेवाले और मोक्ष मार्गमें न प्रवृत्त होने वाले ! तू जिन इन्द्रियोंके वशीभूत होकर संसारमें सुख रहित गति (नरकादि दुर्गति) में तीव्र दुखको प्राप्त हुआ है, हे निर्दय दुर्बुद्धि जीव ! आज भी तू उन्हीं इन्द्रियोंके वशीभूत हो रहा है ॥ १९॥ हे शान्तिरहित मार्गमें प्रवर्तमान एवं अपने क्रोधादि शत्रुओंको न नष्ट करनेवाले जीव ! सर्प, व्याघ्र, हाथी, बैरी, अग्नि, विष, यम, ग्राह ( हिसक जल-जन्तु), शत्रु और ग्रह ( शनि आदि ) आदिको छोड़कर तु जो क्रोधादि निकृष्ट शत्रु प्राणियोंको सब ओर से ही दुख देते हैं तथा जो स्वभावसे ही दुष्ट हैं ऐसे उन चतुर भयानक शत्रुओंको जीत ॥ २० ॥ विशेषार्थलोकमें सर्प आदिको शत्रु माना जाता है। परन्तु वे वास्तवमें ऐसे भयानक शत्रु नहीं है जैसे कि क्रोधादि भयानक शत्रु हैं। इसका कारण यह है कि उपर्युक्त सर्प आदि तो प्राणियोंको एक ही जन्ममें कष्ट दे सकते हैं, परन्तु क्रोधादि कषायरूप शत्रु प्राणियोंको अनेक जन्मों में दुख देने वाले हैं। इसीलिये जीवको सम्बोधित करके यहाँ यह उपदेश दिया है कि हे जीव ! तू जिन सादिकोंसे भयभीत होता हैं वे तेरा उतना अहित करनेवाले ष्टव्यसन। २सशक्त । ३ स म्यायान्यायानभवत प्र. ४स व्यास्त. ध्वस्त । ५ स विनय । ६ स विषय । ७स तिवर्त्य । ८ सलज्जादि । ९ सशशे°for शत्रो। १०स स्विष्टा स्विष्टा, बिष्टा । ११स निष्टस्थिर । १२ स °मार्ग° । १३ सश्लेषाम् । १४ स जीवो। १५ स om. शत्रुगृहाद्या १६ स दुष्टरूपान् । १७९ रिपूनि । १८ सप्रलोनो। १९ सदाप । सु, सं. १५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंवोहः [421 : १६-२१ 421) मैत्री सत्त्वेषु मोबं गुणवति करुणां' क्लेषिते बेहभाजिर मध्यस्थत्वं प्रतीपे जिनवचसि रति निग्रहं क्रोधयोधे। अक्षार्थेभ्यो निवृत्ति मृतिजननभवाद्धीतिमत्पन्तदुःखान रे जीव त्वं विषस्स्व च्युतनिलिलमले मोअसौख्ये ऽभिलाषम् ॥ २१ ॥ 422) कर्मानिष्टं विधत्तं भवति परवशो लज्जते नो जनानां धर्माधमो न वेत्ति त्यजति गुरुकुलं सेवते नीचलोकम् । भूस्वा प्रायः कुलोनः प्रथितपृथगुणो माननीयो बुधो ऽपि प्रस्तो येनात्र केही नुव मवनरिj जीव' तं दुःखवक्षम् ।। २२॥ 423) रागोयुक्तो ऽपि देवो ऽतरवितरजनप्रन्यसस्तो ऽपि सार्ष जीवध्वंसो ऽपि धर्मस्तनुविभवसुखं स्थाष्णु मे सर्वदेति । संसारापातहेतुं मतिगतिदुरित कार्यते येन जीव स्त मोहं मदय स्वं यदि सुखमतुलं वाञ्छसि श्यक्तबाघम् ॥ २३ ॥ कोपादीन् एवं निजंय ।। २० ॥ रे जीव, त्वं सत्त्वेषु मैत्री, गुणवति मोदं, फ्लेशिते देहभाजि करुणां, प्रतीपे मध्यस्थत्त्वं जिनवचसि ति, क्रोषयोधे निग्रह, अक्षार्थेभ्यः निवृत्ति, मृतिजननभवात् अत्यन्त दुःखात् भोति, व्युतनिखिलमले मोक्ष सोपे अभिशापं विधत्स्व ।। २१॥ हे जीव, अत्र पेन प्रस्तः देही प्राशः कुलीनः प्रथितपय गुणः माननीयः वृषः अपि भूत्वा अनिष्ट कर्म विपत्ते, परवशो मति, जनानां नो लज्जते, धर्माधमों न वेत्ति, गुरुकुलं त्यजति, नीचलोक सेवते, तं दुःखदक्षं मदनरिपु नुद ॥ २२ ॥ स्वं यदि अतुलं त्यक्तबाधं सुखं वाञ्छसि तहि त भोहं मर्दय । येन रागोद्य क्तोऽपि देव: अतरत्, इतरजनग्रन्थसक्तः अपि साधुः, जीवध्वंसः अपि धर्मः, मे तनुविभवसुखं सर्वदा स्थास्नु इति जीवः [ मन्यते ] येन जीवः नहीं हैं जितने कि क्रोषादि अहित करने वाले हैं। अतएव तू उक्त कोधादि शत्रुओंके ऊपर विजय प्राप्त करनेका प्रयत्न कर । ऐसा करने पर ही तुझे निराकुल सुखको प्राप्ति हो सकेगी, अन्यथा नहीं ॥ २० ॥ हे जीव ! तू सब प्राणियोंमें मित्रताका भाव रख---किसीको शत्रु न समझ, उक्त सब प्राणियोंमें भी जो विशेष गुणवान हैं उनको देख कर हर्षको धारण कर, दुखी जनके प्रति दयाका व्यवहार कर, जिनका स्वभाव विपरीत है ननके विषयमें ! मध्यस्थताका भाव धारण कर, जिनवाणीके सुनने और तदनुसार प्रवृत्ति करने में अनुराग कर, क्रोधरूप सुभटको पराजित कर, इन्द्रिय विषयोंसे विरक्त हो, मृत्यु एवं जन्मसे उत्पन्न होनेवाले अतिशय दुखसे भयभीत हो, और समस्त कम मलसे रहित मोक्ष सुखको अभिलाषा कर ॥२१॥ जिस कामरूप शत्रुसे पीड़ित होकर प्राणी विद्वान्, कुलीन, प्रसिद्ध उत्तम गुणोंको धारण करनेवाला, स्तुत्य एवं पण्डित होता हुआ भी यहां निन्ध कार्यको करता है, दूसरों के अधीन होता है, मनुष्योंमें लज्जित नहीं होता है-निलंग्ज हो जाता है, धर्म व अधर्मका विचार नहीं करता है, उत्तम जनोंको छोड़ देता है और नीच जनोंकी सेवा करता है; हे जोव ! तू उस दुखदायी कामरूप शत्रुको नष्ट कर दे ॥ २२ ॥ हे आत्मन् ! यदि तु निर्बाध अनुपम सुखको प्राप्त करना चाहता है तो उस मोहको नष्ट कर दे जिसके द्वारा जीव रागमें लद्युक्त प्राणीको देव, अभ्यन्तर व बाह्य परिग्रहमें आसक्त व्यक्तिको साघु, प्राणि हिंसाको धर्म तथा शरोर एवं सम्पत्तिसे उत्पन्न होने वाले सुखको सर्वदा स्थिर रहनेवाला मानकर अपनी संसार परिभ्रमणको कारणभूत बुद्धि, प्रवृत्ति एवं पापको करता है ।। २३ ॥ हे आत्मन् ! १स करुणं । २ भाजे । ३ सum. कुलोनः । ४ स OL. बुधो। ५ सदेहोनुदमदन' । ६ स नीदि । ७ स ७ तरतरित रजग्रन्थ , देवोत्तरतदि । ८ स शक्तो। ९ स साधुजीव । १० स स्थाष्णुमे, स्थाष्णुभे, स्थाष्णुमेतत्सर्व ११ स दुरतं । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 425 : १६-२५ ] १६. जोषसंबोधनपञ्चविंशतिः ११५ 424) तीवत्रासप्रदायिप्रभवमृतिजराश्बापववातपाते दुःखोोजप्रसन्चे भवगहनवने ऽनेकयोन्यविरौद्रे'। भ्राम्यन्न प्रापि नत्वं कथमपि शमतः कर्मणो दुष्कृतस्य नो धर्म करोषि स्थिरपरमषिया वञ्चितस्त्वं तवात्मन् ॥२४॥ 425) ज्ञानं 'तत्त्वप्रबोधो जिनवचन चिशेनं घतदोषं चारित्र पापमुक्तं त्रयमित्रमुदितं मुक्तिहेतुं प्रधत्स्व | मुवस्वा संसारहेतुत्रित यमपि पर निन्धयोषाचवा रेरे जीवात्मवैरि अमितगतिसुते घेत्तवेच्छास्ति पूते ॥ २५ ॥ ॥इति जीवसंबोधनपञ्चविंशतिः ॥१६॥ संसारापातहेतुं मतिमतिदुरितं कार्यते ।। २३ ।। तीवत्रास-प्रदायिप्रभवमतिजराश्वापदवातपाते दुःखोर्वीजप्रपञ्च अनेक योन्यदिरोद्रे भवगहनवने भ्राम्पत् त्वं दुष्कृतस्य कर्मणः शमतः कथमपि नृत्वं प्रापि । हे आरमन्, स्थिरपरमधिया चेत् धर्म न करोपि तदा त्वं वञ्चितः ।। २४ ।। रे रे आत्मवैरिन् जीव, तक पते अमितगतिसुखे इच्छा अस्ति रेत् [तर्हि ] परम् अवद्य निन्दबोधादि संसारहेतुत्रितयपि मुक्त्वा ज्ञानं तत्वप्रबोधः जिनवचनरूचिः पूतदोषं वर्शनं, पापमुक्तं पारिवं [ मत् ] दं त्रयं मुक्तिहेतु उदितं तत् त्वं प्रयत्स्व ॥ २५ ।। इति जीवसंबोधनपञ्चविंशतिः ॥ १६ ॥ जो संसाररूपी भीषण वन तीव्र दुखको देनेवाले जन्म, मरण और जरारूप श्वापदों ( हिंसक पशु विशेषों ) के समूहसे परिपूर्ण है, दुःखोंरूप वृक्षोंसे घिरा हुआ है, तथा अनेक पर्यायरूप पर्वतोंसे भयानक है, उसमें परिभ्रमण करते हुए तूने पाप कर्मके शान्त होनेसे जिस किसी प्रकार यह मनुष्यभव पाया है। अब यदि तू स्थिर निर्मल बुद्धिसे धर्मको नहीं करता है तो फिर ठगा जाने वाला है। अभिप्राय यह है कि प्राणीने संसारमें परिभ्रमण करते हुए अनादि कालसे अनेक दुःसह दुःखोंको सहा है। यदि पाप कर्मके उपशमसे उसे मनुष्य पर्याय प्राप्त हो जाती है तो संयमादि धारण करके उसे आत्महित सिद्ध करना चाहिये और यदि बैसा न किया तो फिर भी उन दुःसह दुःखोंको चिरकाल तक सहना पड़ेगा ॥ २४ ॥ हे अपने आपके शत्रुस्वरूप जीव ! यदि तुझे पवित्र मुक्ति सुखकी इच्छा है तो तू रत्नत्रयसे भिन्न जो निकृष्ट मिथ्यादर्शनादि तीन संसार परिभ्रमणके कारण हैं उनको छोड़ करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रलवयको धारण कर। इनमें जिनवचनके विषयमें-सर्वज्ञ देवके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वके विषयमें-रुचि रखना इसे निदोष सम्यग्दर्शन, वस्तु स्वरूपको यर्थार्थ जानना इसे सम्यग्ज्ञान और हिंसादि पापोंसे विरत हो जाना इसे सम्यकचारित्र कहते हैं। ये तीनों ही मोक्षके कारण कहे गये हैं ।। २५ ॥ इस प्रकार पच्चीस श्लोकोंमें जोव संबोधन किया ।। १६ ॥ हेतु स्त्रि। १स यो न्यविरौद्रे । २ स ज्ञानं ते चप', ज्ञानं ते ऽधप्रबोधे। ३ स वजनरुचि । ४ स हेतुस्त ५स निन्द्यवध्या' । ६ स "वद्यान्, "वं । ७ स बैरीन्न । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७. दुर्जननिरूपणचतुर्विशतिः ] 426) पापं वर्षपते चिनोति कुमति कार्यङ्गानां मायति धर्म ध्वंसयते तनोति विपदं संपत्तिमुन्मति। मोति हन्ति विनीतिमात्र कुते कोपं पुनीते सम" किवा जनसंगतिनं कुरते मोकदय ध्वंसिनी ॥१॥ 427) न प्यानःशुभ मातुरोऽपि कुपितो नाशीविषः पन्नगो नारातिबलसत्वविकसितो मत्तः करोम्योन। तंबाक्लोलिन कर्तुमत्र नृपतिः कण्ठोरवो मोरपुरो पोषं बुर्जनसंगतिविसनुते तं देहिनां निग्विता ॥२॥ - 428) ध्यान पाक जंगसंगभयारका वरं सेवितं परमातोलतभीलवीचिनिचिनो वाषिर माहितः । विकोपारोत्तोलसशिखो वलिवर वाषित स्वैलोक्योबरवतियोषजनके नासाघुमध्ये स्थितम् ॥३॥ पत्रपतिमा दुर्जनसंगतिः पापं वर्षयते, कुमति विनोति, कीर्त्याना नश्यति, धर्म ध्वंसयते, विपदं तनोति, संपत्ति उन्मति, नीति इम्ति, विनीति कुरुते, असमं को धुनीते । किंवा म कुते ॥ १॥ बत्र निन्दिता दुर्जनसंगतिः बेहिनो यं दोषं बिसनुते, संयोपं कर्तुं न शुषयातुरः न्यानः न कुपितः आजीविषः पन्नगः, न बलसत्त्वबुद्धिकलितः राति: न च यत्तः करीन, म मृपतिः, न उपधुरः कण्ठीरवः शक्नोति ॥ २ ॥ ज्याघ्रव्यालभुजङ्गसंगभयकक्षं सेवितं वरम् । कस्पाम्पोद्गतमीमीधिनिषितः बाधिः गाहितः वरम् । विश्वप्लोषकरोखतौरवलशिक्षः वद्धिः आश्रितः बरम् । परं बलोस्यो दरवर्तिदोषजनके वसायुमध्ये स्थितं वरं न स्यात् ॥ ३॥ यः कोमलं सुखकरं वाक्यं जम्पति, अन्यथा कृत्यं करोति, दुष्टषीः यहाँ दुष्ट जनकी संगति पापको बढ़ाती है, दुविको संचित करती है, कीर्तिरूप स्वीको नष्ट करती है, धर्मका विध्वंस करती है, विपत्तिका विस्तार करती है, सम्पत्तिका नाश करती है, न्यायमार्गसे प्रष्ट करती है, अन्यायमें प्रवृत्त करती है, तथा असाधारण क्रोधको कम्पित करती है-बढ़ाती है। अथवा दोनों ही लोकोंको नष्ट करनेवाली वह दुर्जन संगति क्या नहीं करती है ? सब ही अनयोंको वह करती है ॥१॥ यहाँ निन्दित दुर्जनसति प्राणियोंके जिस दोषको ( अहितको) करती है उसको करनेके लिये न भूखसे पोड़ित व्याघ्र समर्थ है, न कोषको प्राप्त हुआ आशीविष सर्प समर्थ है, न बल वीर्य एवं बुद्धिसे सम्पन्न शत्रु समर्थ है, न उन्मत्त हामी समपं है, न राजा समय है, और न उद्धत सिंह भी समर्थ है ॥२॥ व्याघ्र दुष्ट हाथी और सपोक संयोगसे भयको उत्पन्न करनेवाले बनमें रहना अच्छा है, प्रलयकालोन वायुसे उठती हुई भयानक तरंगोंसे व्याप्त समुद्र में डूब जाना अच्छा है, और समस्त संसारको जलानेवालो ज्वालायुक्त अग्निको शरणमें जाना भी कहीं अच्छा है; परन्तु तीनों लोकके बीचमें रहनेवाले समस्त दोषोंके जनक दुर्जनोंके मध्यमें रहना अच्छा नहीं है ॥ ३ ॥ जो दुष्ट कोमल व प्रिय वचन बोलता है, परन्तु कार्य उसके विपरीत करता है, जो १स कीर्तिमनां । २ स बसति । ३.स मुज़्त । ४ स शर्म, समं । ५ स नये', 'द्वयं । ६ स सुधि । ७ स व्याध, व्याध 1 ८स काक्षं । ९ स जनकेनासाघ। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ +31 : १७-६] १७. दुर्जननिरूपणचतुर्विशतिः 429) वाक्यं जल्पति कोमलं सुखकर रुस्यं करोत्यन्यथा वक्रत्वं न जहाति जातु मनसा सो मचा दृष्टषोः । नो भूति सहते परस्प न गुणं जानाति कोपाकुलों यस्तं लोकविनिन्वितं खलबनं कसत्तमः सेवते ॥४॥ 430) नीचोच्चाविविवेकनाशकुभलो राधाकरोदेहिना माशाभोगनिरासनो मलिनता छानात्मला मल्कमः । सदृष्टिप्रसरावरोधनपटुमित्रप्रतापाहतः फूल्याकूस्थविदा प्रदोषसाशो बज्यः सदा जंगः ॥५॥ 431) वान्तध्वंसपरः फलतितनुमिक्षयोत्पादक: पदमाशी कुमुवप्रकाशनिपुगो सेवाकरो यो बरः। कामोद्गरसः समस्तविना लोक निझामाबवत कस्तं नाम जनो महासुलकर जानाति नो दुर्जनम् ॥ ६ ॥ सर्पः यया मनसा वक्रत्वं जातु न जहाति, परस्य भूति भो सहते, कोपाकुमः मुगं न जानाति तं लोकप्रिनिन्दितं सामजनं : ससमः सेवते ॥ ४ ॥ कृत्याकृत्यविदा नीबोच्याविविवेकनाकुसला देहिनां बाधाकरः, गाशाभोमनिरासनः, मलिनताम्नारमना वल्लमः, सदृष्टिप्रसरावरोषनपटुः, मित्रप्रतापाहतः, प्रदोषसदृशाः दुर्जनः सदा वयः ॥ ५॥ यः दुर्जनः निसानापवत् व्यान्तम्बंसपरः, काततनुः, वृद्धिक्षयोत्पादकः पद्याधी, कुमुदप्रकानिपुमः, दोषाकरः महः (अस्ति), लोके समस्तमविनां कामोदेगरसः तं महासुखकर दुर्जनं कः नाम जनः नो पानाति ॥ ६॥ यः दुष्टः सुखेन अन्वितम् अपरं पश्यन् दुःस्वं दुष्ट बुद्धि सर्पके समान मनसे कभी कुटिलताको नहीं छोड़ता है, जो दूसरेके वैभवको सहन नहीं करता है, तपा जो क्रोषसे व्याकुल होकर दूसरेके गुणको नहीं जानता है-कृतमता नहीं प्रगट करता है। उस लोक निन्दित तुष्ट जनकी सेवा भला कौन-सा सज्जन करता है? कोई नहीं करता ॥ ४ ॥ दुर्जन पुरुष प्रदोषकालरात्रिके पूर्व भागके समान है-जिस प्रकार प्रदोष कालमें कुछ बंधेरा रहनेसे नीची ऊंची पृथिवीका बोष नहीं हो पाता है उसी प्रकार दुर्जनके संसर्गमें रहनेसे नीच-ऊँच जनका ( अथवा मले-बुरे कार्यका) विवेक नहीं हो पाता है, जिस प्रकार ठीक-ठीक वस्तुओंको न देख सकने के कारण प्रदोष काल प्राणियोंको वाधा पहुंचाता है उसी प्रकार कुमार्गमें प्रवृत्त करा कर वह दुर्जन भी प्राणियोंको बाषा पहुँचाता है, जिस प्रकार प्रदोष काल आशा भोगकोदिशाओंके उपभोगको नष्ट करता है उसी प्रकार दुर्जन भी आशा भोगको आशा (इच्छा ) और भोग ( सुख ) को नष्ट करसा है, जिस प्रकार प्रदोष काल मलिन प्राणियोंको-चोर आदिको अच्छा लगता है उसी प्रकार दुर्जन मनुष्य भी मलिन प्राणियोंको-पापाचारियोंको बच्छा लगता है, जिस प्रकार समीचीन दृष्टि (निगाह) के विस्तारके रोकनेमें प्रदोष काल निपुण होता है उसी प्रकार दुर्जन भी समीचीन दृष्टि (सम्यग्दर्शन) के विस्तारके रोकने में निपुण होता है, तथा जिस प्रकार मित्र (सूर्य) के प्रतापसे प्रदोषकाल पीड़ित होता है-नष्ट होता है उसी प्रकार वह दुर्जन भी मित्र (बन्ध) के प्रभावसे पीड़ित होता है-दूर होता है। इसीलिये जिस प्रकार उत्तम कार्योंमें वह प्रदोष काल हेय माना जाता है उसी प्रकार इस दुष्टको भी हेय मानकर कार्यअकार्यके जानकार सज्जन पुरुषों को उससे सदा दूर रहना चाहिये ॥५॥ जो जड़ दुर्जन चन्द्रमाके समान ध्वान्त ध्वंसपर, कलंकित शरीरवाला, वृद्धि हानिजनक, पद्माशी, कुमुद प्रकाशमें चतुर, दोषाकर और समस्त १स जहातु । २ स "कुले । ३ स लोकनिन्दित । ४ स मलिनमा', मलिनिमा । ५ स हत। ६ स पनासी, पद्याश्री। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सुभाषितसंवोहा. [432 . १७-७ 432) दुष्टो यो विदधाति दुःखमपरं पश्यन्सुखेनान्वित दृष्ट्वा तस्य विभूतिमस्तधिषणो हेतुं विना कुप्यति । वाक्यं जल्पति किचिदाकुलमना दुःखावह यन्नृणां तस्माद्बुजंनतो विशुद्धमतयः काण्या'चया बिभ्यति ॥७॥ 433) यस्त्यक्त्वा गुणसंहति वितनुते गृह्णाति दोषान् परे दोषानेव करोति जातु न गुणं त्रेधा' स्वयं दुष्टीः । युक्तायुक्तविचारणाविरहितो विध्वस्त धमकियो लोकानन्विगुणो ऽपि को ऽपि न खलं शक्नोति त बोधितुम् ॥ ८॥ विदधाति, तस्य विभूतिं दृष्ट्वा अस्तधिषणः हेतुं विना कुम्यति, आकुलभनाः नृणां दुःखावह यत् किञ्चित् वाक्यं जल्पति । विशुद्धमतयः तस्मात् दुर्जनतः काण्डात् यथा बिम्धति ।। ७ ।। युक्तायुक्तविचारणाधिरहितः विध्वस्तधर्मक्रियः यः दुष्टधी. स्वयं गुणसहति त्यक्त्वा धा दोषान् वितनुते, गृह्णाति, परे दोधानेव करोति, गुणं जातु न। लोकानन्दिगुणोऽपि कोऽपि तं खलं बोधितुं न शक्नोति ॥ ८॥ दुष्टधिषणः यः स्वयमेव दोषेषु सदा वर्तमानः तत्र बन्यान त्रैलोक्यवङ्गिनः अपि स्थिति प्राणियोंको कामोद्वेगरस है उस महादुखदायी दुर्जनको लोकमें कौन मनुष्य नहीं जानता है ? अर्थात् सब हो जानते हैं ।। ६ ।। विशेषार्थ-यहां दुर्जनकी तुलना चन्द्रमासे की गई है । यथा--जिस प्रकार चन्द्रमा ध्वान्तध्वंसपर अर्थात् अन्धकारके नष्ट करनेमें तल्लीन है उसी प्रकार दुर्जन भी ध्वान्सध्वंसपर अर्थात् अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले सज्जनोंसे भिन्न है, जैसे कलंकयुक्त शरीरवाला चन्द्रमा है वैसे ही दुर्जन भी कलंकयुक्त ( दोषयुक्त ) शरोरवाला है, जिस प्रकार चन्द्रमा वृद्धि क्षयका उत्पादक-पनी कलाओं अथवा समुद्रको वृद्धि और हानिका जनक है उसी प्रकार दुर्जन भी वृद्धिक्षयका उत्पादक-दूसरोंके अभ्युदयका नाशक होता है, चन्द्रमा यदि पद्माशी-कमलोंको मुकुलित करनेवाला है तो दुर्जन भी पद्माशी-पद्मा ( लक्ष्मी ) को नष्ट करनेवाला है, जिस प्रकार चन्द्रमा कुमुद प्रकाश निपुण है-श्वेत कमलोंक विकसित करनेमें चतुर है- उसी प्रकार दुर्जन भी कुमुदप्रकाशनिपुण है-कुमुद ( कुत्सित हर्ष ) को प्रकाशित करने में चतुर है, जहाँ चन्द्रमा दोषाकर---रात्रिका करनेवाला है वहाँ दुर्जन दोषोंका आकर ( खानि ) है, चन्द्रमा यदि जह है-ड और ल में भेद न रहनेसे जलस्वरूप है तो दुर्जन भी जड़ ( मूर्ख ) है, तथा जैसे चन्द्रमा समस्त प्राणियोंके लिये कामके उद्वेगमें आनन्द उत्पन्न करता है वैसे ही दुर्जन भी कामके उद्वेगमें आनन्द मानता है । इस प्रकार जब वह दुर्जन प्रसिद्ध चन्द्रमाके समान है सब भला उससे कौन अपरिचित होगा? कोई नहीं। अभिप्राय यही है कि विवेकी जनको अनेक दोषोंके स्थानभूत एवं कुमागंमें प्रवृत्त करनेवाले उस दुर्जनको संगतिको अवश्य छोड़ना चाहिये ॥ ६ ॥ जो दुष्ट पुरुष दूसरेको सुखसे युक्त देखकर उसे दुखी करता है, जो उसकी विभूतिको देखकर विवेकसे रहित होता हुआ अकारण ही क्रोषको प्राप्त होता है, और जो व्याकुलचित्त होकर मनुष्यों के लिये दुःख पहुंचानेवाले जैसे तैसे वचन बोलता है; उस दुष्ट पुरुषसे निर्मल बुद्धि मनुष्य ऐसे डरते हैं जैसे कि लोग बाणसे डरते हैं ।। ७ 1। जो दुर्बुद्धि दुर्जन मनुष्य गुण समूहको छोड़ कर दोषोंका विस्तार करता है व उन्हींको ग्रहण करता है तथा जो दूसरेके विषयमें मन, वचन एवं कायसे दोषोंको ही करता है स्वयं कभी १स पश्यत्सु । २ स वाच्यं । ३ स तन्नृणां । ४ स काण्ड्या', कोडापषा । ४ स यस्त्यक्ता । ६ स धास्त्रयं । ७ स विष्वस्तधमक्रिया । ८स सं for तं । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 : १७-११] १७. दुर्जननिरूपणचतुविंशतिः 434) दोषेषु स्वयमेव दुष्टधिषणो यो वर्तमानः सवा तत्रापानपि मन्यते स्थितियतस्त्रलोक्यवर्त्यङ्गिनः । कृत्यं निन्दितमातनोति वचनं यो दुःश्रवं जल्पति चापारोपितमार्गणादिव खलात् सन्तस्ततो बिभ्यति ॥९॥ 435) यो ज्येषां भषणोद्यतः श्वशिशुवच्छिन्द्रेक्षणः सर्पव वग्राह्यः परमाणुवन्मुरजवक्त्र येनान्वितः । नानारूपसमन्वितः सरट धद्वको भुजंगेशवत कस्यासोन करोति वोषनिलयश्चित्र व्या वर्जतः ।।१०।। 4361 गाढं शिलष्यति वरतोऽपि करते ऽभ्युत्थानमाद्वेक्षणो दसे ऽर्घासनमातनोति मधुरं वाक्यं प्रसन्नाननः। 'चित्तान्तर्गतवञ्चनो विनयवान् मिथ्यावषिष्टधी? दुःखामृतभर्मणा विषमयो मन्ये कृतो दुर्जनः ॥ ११ ॥ वतः मन्यते । यः निन्दितं कृत्यम् आतनोति, च दुःश्रवं वां जल्पति, सन्तः चापारोपितमार्गणादिव ततः हलात बिभ्यति ॥९॥ यः श्वशिशुवत् अन्येषां भषणोद्यतः, सपंवत् छिद्रेक्षणः, परमाणुवत् अग्राह्मः, मुरजवत बक्ये न अन्यितः, सरटवत् नानारूपसमन्वितः जङ्गेशवत् वक्रः, दोषनिलयः, असो दुर्जनः, कस्य चित्रव्यथां न करोति ।। १०॥ य: दूरतः अपि आद्रेक्षणः अभ्युत्थानं कुरुते, गावं श्लिष्यति, अर्षासनं दत्ते, प्रसन्नाननः मधुरं वाक्यम् आतनोति । चित्तान्तर्गतवञ्चनः, गुणको नहीं करता है; इसके अतिरिक्त जो योग्य-अयोग्यके विचारसे रहित होकर धर्म कार्योको नष्ट करता है ऐसे उस दुर्जनको समस्त संसारको आनन्दित करनेवाले गुणोंसे संयुक्त भी कोई मनुष्य समझानेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है ।॥ ८॥ जो दुर्बुद्धि दुर्जन निरन्तर स्वयं ही दोषोंमें स्थित रहता है और दूसरे भो तीनों लोकोंके प्राणियोंको उक्त दोषों में स्थित समझता है अपने समान दूसरोंकों भो दुष्ट मानता है, तथा जो घृणित कार्यको करता है और श्रवणकटु वचनको बोलता है, उस दुर्जन मनुष्यसे सज्जन मनुष्य धनुष पर चढ़ाए हुए बाणके समान डरते हैं ।। ९ ॥ जो दुर्जन कुत्ताके बच्चे (पिल्ले ) के समान दूसरों के प्रति भोंकनेमें उद्यत होता है, सर्पके समान छिद्रको ढूंढता है, परमाणुके समान अग्राह्य है, मृदंगके समान दो मुखोंसे सहित है, सरड ( गिरगिट ) के समान अनेक रूपवाला है तथा रार्पराजके समान कुटिल है; वह अनेक दोषोंका स्थानभूत दुर्जन किसके चित्तको दुखी नहीं करता है--सभीके मनको खिन्न करता है ।। १० ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार कुत्ता दूसरोंको देखकर भोंकता है-गुर्राता-उसी प्रकार दुर्जन भी दूसरोंको देखकर गुर्राता है-क्रोधित होता है, जिस प्रकार सर्प छिद्र ( बिल) के खोजने में उद्यत रहता है उसी प्रकार दुर्जन भी छिद्र ( दोष ) के खोजने में उद्यत रहता है। जिस प्रकार परमाणु सूक्ष्म होनेसे इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता उसी प्रकार दुर्जन भी गूढहृदय होनेसे दूसरोंके द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है-उसके अभिप्रायको दूसरे जन नहीं जान सकते हैं। जिस प्रकार मृदंग दो मुखवाला होता है दोनों ओरसे शब्द करता है उसी प्रकार दुर्जन भी दो मुखवाला होता है-वह जो कुछ कहता है उसे बदल जाता है और फिर उससे विपरीत कहने लगता है, जिस प्रकार सङ्गिनां। २ स योनेपा । ३ स ग्राह्य। ४ स टुक्र । ५ स शरद । ६ स चित्त । ७ स दत्त्वा । ८ स चिन्ता। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [437 : १७-१२ १२० सुभाषितसंबोहः 437) यच्चन्दनसंभवो ऽपि वहनो वाहारमकः सर्वदा संपन्नोऽपि समुद्रपारिणि यथा प्राणान्तको इन्दभिः'। दिव्याहारसमुवभवो ऽपि भवति ख्याधिर्यथा बाधक स्तनवदुःखकरः खलस्त नुमतो जातः कुले ऽप्युत्तमे ॥ १२ ।। 438) लत्रं जन्म यतो यतः पृथगुणा जीवन्ति यत्राश्रिता ये तत्रापि जने भने फलपति प्लोर्ष पुलिन्दा इव । निस्त्रिशा वितरम्ति घूतमतयः शश्वत्खलाः पापिनस्ते मुन्नन्ति कर्ष विचाररहिता जीवन्तमन्यं जनम् ॥ १३ ॥ विनयवान्, मिथ्यावधिः, दुष्टयो:, विषमयः, दुर्जनः अमृतभर्मणा दुःखाय कृतः [इति ] मन्ये ।। ११॥ यद्वत् चन्दनसंभवः अपि दहनः सर्वदा दाहात्मकः, यथा समुद्रवारिणि संपन्नः अपि दुन्दुभिः प्राणान्तकः, यथा विव्याहारसमुद्भवः अपि व्याधिः बाधकः भवति, तद्वत् उत्तमे कुले अपि जातः खलः तनुमतां दुःखकरः ॥ १२॥ यतः अन्म लब्ध; यतः पृषुगुणाः, यत्र आश्रिताः जीवन्ति, तत्रापि फलवति बने पुलिन्दाः इव ये धूतमतयः निस्त्रियाः पापिनः खला: जने शश्वत् प्लोषं वितरन्ति गिरगिट लाल आदि अनेक रूपोंको धारण करता है उसी प्रकार दुर्जन भी अनेक रूपोंको धारण करता हैधोखा देनेके लिये अनेक आकारको ग्रहण करता है, तथा जिस प्रकार सपं कुटिल गतिसे चलता है उसी प्रकार दुर्जन भी कुटिल चाल चलता है-कपटपूर्ण व्यवहार करता है। इस प्रकारसे वह दुर्जन मनुष्य चूंकि अनेक दोषोंसे सहित होकर दूसरोंको अकारण ही कष्ट दिया करता है अतएव उसके संसर्गसे सदा बचना चाहिये ॥१०॥ दुष्ट बुद्धिको धारण करनेवाला दुर्जन मनुष्य दूरसे ही आँखोंमें पानी भरकर खड़ा होता हुआ स्वागत करता है, गाढ़ आलिंगन करता है, आषा आसन देता है, प्रसन्नमुख होकर मधुर भाषण करता है, मनमें वंचनाका भाव रखकर वाह्य में नम्रता दिखलाता है, तया मर्यादाका उल्लंघन करता है। इस विश्वरूप दुर्जनको ब्रह्मदेवने मानों दूसरे प्राणियोंको दुःख देने के लिए ही उत्पन्न किया है, ऐसा मैं मानता हूँ ॥ ११॥ जिस प्रकार चन्दनसे उत्पन्न हुई भी अग्नि निरन्तर दाहस्वरूप हो होती है, समुद्रके जलमें प्राप्त भी विष जैसे प्राणघातक होता है, तथा दिग्य भोजनसे उत्पन्न भी रोग जैसे कष्टप्रद होता है। वैसे ही उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ दुष्ट पुरुष प्राणियों को दुखकारक होता है ॥ १२ ॥ विशेषार्थ-यद्यपि चन्दनका वृक्ष स्वभावसे शीतल होता है, परन्तु उससे उत्पन्न हुई अग्नि तद्गत शीतलताको छोड़कर दाहक स्वरूपको धारण करती है, इसी प्रकार विष यद्यपि समुद्रके शीतल जलमें-जिसे कि दूसरे शब्दसे जीवन भी कहा जाता है-उत्पन्न होकर भी बैसे प्राणनाशक होता है, तथा जिस प्रकार दिव्य ( स्वास्थ्यप्रद ) भोजनसे भी उत्पन्न हुआ रोग अपने दिव्य स्वरूपको छोड़कर अस्वास्थ्यप्रद एवं कष्टदायक होता है, उसी प्रकार उत्तम कुलमें भी उत्पन्न हुआ दुष्ट मनुष्य यदि कुल गत उत्तमताको छोड़कर नीच स्वभावको प्राप्त होता हुआ दूसरोंको दुख देता है तो इसमें कुछ भो आश्चर्य नहीं है॥१२॥ जिस प्रकार भील जिस वनमें जन्म लेते हैं, जिससे महागुणोंको ( आजीविका आदिको ) प्राप्त होते हैं तथा जिसका आश्रय पाकर जीवित भी रहते हैं उसी फलवाले बनमें निर्दय होकर आग लगा देते हैं; उसी प्रकार जो अविवेकी पापी दुष्ट जिससे जन्म लेते हैं, जिससे उत्तम गुणोंको प्राप्त १ सदुंदुभिः, मुण्डुभिः । २ सप्लोषा । ३ स पुलोंद्रा, पुलिंदा । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 439 : १७–१४ ] १७. दुर्जन निरूपण चतुविशतिः 439 ) यः सावित मन्त्र गोवरमतिक्रान्तो द्विजिह्वाननः क्रुद्धो रक्तविलोचनो ऽसिततमो मुखत्यवाच्यं विषम्' । रौद्रो दृष्टिविषो विभीषितजनो रन्ध्रावलोकोद्यत: ४ कस्तं बुनपन्नगं कुटिलगं शक्नोति कर्तुं वशम् ॥ १४ ॥ १२१ विषाररहिताः ते जीवन्तम् अन्यं जनं कथं मुचन्ति ॥ १३ ॥ यः सादितमन्त्र गोचरम् अतिक्रान्तः, द्विजिह्वाननः कुखः, रक्तविलोचनः, असिततमः अवाच्यं विषं मुञ्चति, रौद्र, विभीषितजन, रन्धाव लोकोद्यतः दृष्टिविषः तं कुटिलगं दुर्जनपद्मकः वशं कर्तुं शक्नोति ।। १४ ।। पयः पिवन् अपि पन्नगः निषु तदिषः नो संपद्यते । पयोमधुघटः सिक्तः अपि करते हैं तथा जिसका सहारा पाकर जीवित रहते हैं उस उपकारी मनुष्यको भी जब वे योग्य-अयोग्यका विचार छोड़कर निरन्तर सन्तप्त करते हैं तब भला वे दूसरे किसी मनुष्यको कैसे जीवित छोड़ सकते हैं ? नहीं छोड़ सकते हैं । अभिप्राय यह कि दुष्ट मनुष्य का स्वभाव हो ऐसा होता है कि वह अन्य मनुष्योंकी तो बात क्या, किन्तु अपने उपकारीका भी उपकार नहीं मानता और उसे अनेक प्रकारसे कष्ट दिया करता है । अतएव उससे किसी प्रकार भलाईकी आशा करना व्यर्थ है ॥ १३ ॥ जो सज्जनोंके द्वारा उपदिष्ट योग्य शिक्षा-वचनका उल्लंघन करता है, दो जीभोंसे संयुक्त मुखको धारता है, क्रोधयुक्त है, लाल नेत्रोंसे सहित है, अतिशय काला है, विषके समान न बोलनेके योग्य वचनको बोलता है, भयको उत्पन्न करनेवाला है, दृष्टिमें विषको धारण करता है, प्राणियोंको भयभीत करता है, और छिद्रके देखनेमें उद्यत है; ऐसे उस कुटिल गतिवाले दुर्जनरूपी सर्पको वशमें करनेके लिये मला कौन समर्थ है ? कोई समर्थ नहीं है । १४ ॥ विशेषार्थ - दुर्जनका स्वमा ठीक सर्प समान होता है। कारण कि जैसे दुष्ट सर्प योग्य रीतिसे उच्चारित मन्त्रका विषय नहीं होता है-उसके वश नहीं होता है वैसे हो दुर्जन भी सज्जन मन्त्रका विषय नहीं होता हैवह उनकी योग्य शिक्षाको नहीं मानता है, जिसप्रकार के मुखमें दो जिह्वायें होती हैं उसी प्रकार दुर्जनके भी मुखमें दो जिह्वायें होती हैं वह अपने वंचनके ऊपर स्थिर नहीं रहकर कभी कुछ कहता है और कमी कुछ, सर्प जैसे क्रोधित होता है वैसे ही दुर्जन भी क्रोधित होता है, क्रोधसे लाल नेत्र जैसे सर्पके होते हैं वैसे ही पुरुषोंके द्वारा कहे गये अतिशय काला होता है - हृदयमें वहाँ दुर्जन भी मुहसे विषको उगभयानक होता है वैसे ही वह दुर्जन वे दुजनके भी होते हैं, सपं यदि अतिशय काला होता है तो वह दुर्जन भी अतिशय मलिनताको धारण करता है, सर्प जहाँ मुहसे विषको उगलता है लता है - विषके समान भयानक कठोर वचन बोलता है, देखने में जेसे सर्प भी भयानक होता है, सर्पको दृष्टिमें यदि प्राणघातक विष विद्यमान रहता है तो वह दुर्जनकी भो दृष्टिमें विद्यमान रहता है— उसकी दृष्टि प्राणियोंको विधके समान भयको उत्पन्न करनेवाली होती है, मनुष्योंके लिये जैसे सपंको देखकर भय उत्पन्न होता है वैसे ही उन्हें दुर्जनको भी देखकर भय उत्पन्न होता है, तथा जिस प्रकार सर्प छिद्र (बिल) के देखने में उद्यत होता है उसी प्रकार दुर्जन भी छिद्रके देखने में दूसरोंके दोषोंके देखने में- उद्यत होता है । इस प्रकार दुर्जन जब कि सपंके समान भयानक एवं कष्टदायक है तब विवेकी जनोंको उससे सदा दूर ही रहना चाहिये ||१४|| जिस प्रकार दूधको पीकर भी सर्प कभी विषसे रहित नहीं होता है, १ सहसा । २ सदाच्या 'वाच स विपं । ४ स लोकोदितः, "लोक्योद्यत । 795 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सुभाषितसंदोहः [440 : १७-१५ ___440) नो निधू तविषः' पिवन्नपि पयः संपद्यते पानगो निम्बागः कटुतां पयोमधुघट सिक्तो ऽपि नों* मुश्चति । नो शोरैरपि सर्वका विलिखित धान्यं वदात्यूषरं' नवं मुञ्चति वक्रता खलजनः संसेवितोऽप्युत्तमः ।। १५ ।। 441) वैरं यः कुरुते निमित्सरहितो मिथ्यावधो भाषते नीयोक्स वचनं शृणोति सहते स्तोति स्वमन्यं जनम् । नित्यं निन्वति' गर्वितो ऽभिभवति स्पर्धा तनोत्पूजिता___ मेवं दुर्जनमस्ताराषिषर्ण सन्सो वदम्पङ्गिनम् ॥ १६ ॥ 442) मानोः शीतमतिग्मगोरहि"मता शृङ्गात्पयो धेनुतः पीयूवं विषतो ऽमृताहिषलता शुक्लारवमङ्गारतः। बलारि ततो मल: सुरसर्ज निम्बाव भवेज्जातु चि न्नो वाक्यं महितं सतां हतमतेस्त्पयते दुर्जनात् ॥ १७॥ निम्बागः फटुतां नो मुञ्चति । सीरैः सर्वदा विलिखितम् अपि कषरं धान्य नो ददाति । एवम् उत्तमजनैः संसेवितः अपि खलजनः वक्रतां न मुञ्चति ।। १५ ॥ यः निमित्तरहितः वैरं कुरुते, मिच्या बचः भाषते, नीचोक्तं वचने शृणोति, सहते, स्वं स्तीति, मन्यं जनं नित्यं निन्नति, गर्वितः अभिभवति, ऊजिता स्पर्धा तनोति । सन्तः अस्तशुदधिषणम् मशिन दुर्जनम् एवं वदन्ति ॥ १९ ।। आतुचित् भानोः शीतं, अतिग्मगोः अहिमता, धेनवः अङ्गात् पयः, विषतः पीयूषम्, अमृतात् विषलता अङ्गारतः शुक्लत्वं, वह्नः वारि, ततः अनलः, निम्बात् सुरसजं भवेत् । परं हतमतेः दुर्जनात् सतां महितं वाक्यं नो उत्पचते जिस प्रकार दूध और शहद के घड़ोंसे सोचा गया भी नीमका वृक्ष कडुवेपनको नहीं छोड़ता है, तथा जिस प्रकार हलोंके द्वारा जोती गई भी कसर भूमि कभी अनाजको नहीं देती है; उसी प्रकार सज्जन पुरुषोंके समागममें । रहकर भी दुर्जन कभी अपनी कुटिलताको नहीं छोड़ता ।। १५ ॥ विशेषार्थ-कितने ही भोले-भाले सज्जनोंका यह विश्वास होता है कि यदि दुर्जन मनुष्यको अपने समागममें रखा जाय तो वह अपनी दुष्टताको छोड़कर सज्जन बन सकता है। ऐसे भोले प्राणियोंको लक्ष्यमें रखकर यहाँ यह बसलाया है कि जैसे सर्प दूधको पो करके भी कभी अपने विषको नहीं छोड़ता है, जैसे दूध आदि मधुर द्रव द्रव्योंसे सींचा गया भी नीम कमी कडवेपनको नहीं छोड़ता है, तथा जैसे अच्छी तरहसे जोती गई भी ऊसर भूमि अपने अनुत्पादन स्वभावको छोड़कर कभी अनाजको नहीं उत्पन्न करती है वैसे ही सज्जनोंके साथ रह करके भी दुर्जन अपनी दुष्टताको छोड़कर कभी सज्जन नहीं बन सकता है। इसीलिये तो यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि 'नीम न मोय होय खाये गुड़ पीसे' | तात्पर्य यह है कि जिसका जैसा स्वमाव होता है वह कभी छूटता नहीं है । अतएव हमारे साथ रहनेसे दुर्जन अपनी दुष्टताको छोड़ देगा, इस उत्तम विचारसे भो कभी सज्जन पुरुषोंको दुर्जनको संगति नहीं करनी चाहिये ।। १५ ॥ जो प्राणो बिना किसी कारणके दूसरेसे वैर करसा है, असत्य वचन बोलता है, नीच पुरुषोंके द्वारा कहे गये वचनको सुनता व सहन करता है, अपनी प्रशंसा करता है, दूसरे जनकी सदा निन्दा करता है, अभिमानको प्राप्त होकर दूसरोंका तिरस्कार करता है, और अन्यके वैभवको देखकर अत्यन्त ईर्ष्या करता है; उस दुष्टवुद्धि प्राणीको सज्जन मनुष्य दुर्जन बतलाते हैं ।। १६ ॥ कदाचित् सूर्य शीतल हो जाय, १स "विर्ष । २ स यथ for पयः । ३ स निम्बाङ्गः। ४ स न । ५ स विलषितं, विलसितं । ६ स "त्यूषरे । ७ स संसेव्यते । ८ स हसते । ९ स मंदति, नंदवि । १० स त्यगिनां। ११ स तिमगोवदिता, हितता । १२ स त्पयो ऽधेनुतः । १३ स ऽनिलः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 : १७२०] १७. दुर्जननिरूपणचतुविशतिः 443) सत्या योनि' रुजं वदन्ति यमिनों दम्भ शुचे तंतां लज्जालोर्जडतां पटोर्मुखरतां तेजस्विनो गर्वताम् । शान्तस्या क्षमतामृजोरमतितां धर्मायिनो मूर्खतामित्येवं गुणिनां गुणास्त्रिभुवने नो' सूषिता दुर्जनेः ॥ १८ ॥ 444) प्रत्युत्थाति समेति नौति' नमति प्रह्लावते सेवते भुले भोजयते धिनोति वचनैर्गृह्णाति ते पुनः । अङ्गं श्लिष्यति संतनोति वदनं विस्फारिताप्रेक्षणं चित्तारोपितवक्रिमा "नुकुषले कृत्यं यदिष्टं खलः ॥ १९ ॥ 445) सर्वोद्वेगविचक्षणः प्रचुरा मुञ्चन्नवाच्यं विषं प्राणाकर्ष पदोपदेशकुटिलस्वान्तो द्विजिह्नान्वितः । भीमभ्रान्तविलोचनो ऽसमगतिः शश्वद्दयार्वाजतछिद्रान्वेषणतत्परो भुजगवद्वय बुधैर्युर्जनः ॥ २० ॥ १२३ मनुष्य कभी सज्जनके समान मधुर ॥ १७ ॥ दुर्जनाः समाः योनिराजं यमिनः दम्भं, शुर्यः धूर्तता, लज्जालोः जडतो, पटोः मुखरतां, तेजस्विनां गवतां, शान्तस्य अक्षमताम् ऋजः अमतितां धर्मार्थिनः मूर्खता वदन्ति । इत्येवं त्रिभुवने दुर्जनैः गुणिनां [के ] गुणाः नो दूषिताः ॥ १८ ॥ चित्तारोपितवक्रिमा खलः प्रत्युत्पाति, समेति, नौति, प्रह्लादते, सेवसे, भुङ्क्ते, भोजयते, बचनैः चिनोति गृह्णाति पुनः दत्ते, अगं दिलण्यति वदनं विस्फारिताप्रेक्षणं संतनोति । यत् इष्टं कृत्यं तदर्थम् अनुकुस्ते ।। १९ ।। सर्वोद्वेगविचक्षणः चन्द्रमा उष्ण हो जाय, गायके सींगसे दूध निकलने लग जाय, विषसे अमृत हो जाय, अमृतसे विषबेल उत्पन्न हो जाय, अंगारसे श्वेतता भाविभूत हो जाय, अंगार जल करके श्वेत बन जाय, अग्निसे जल प्रगट हो जाय, जलसे अग्नि उत्पन्न हो जाय, और कदाचित् नीमसे सुस्वादु रस भले हो प्रगट हो जाय; परन्तु दुष्टबुद्धि दुर्जनसे कभी सज्जन पुरुषोंको प्रशस्त वाक्य नहीं उपलब्ध हो सकता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सूर्य आदि कभी शीतलता आदिको नहीं प्राप्त हो सकते हैं उसीप्रकार दुर्जन भाषी भी नहीं हो सकता है ॥ १७ ॥ दुर्जन मनुष्य सत्ती (शोलवती) स्त्रीके योनिका रोग, व्रती जनके कपट, सदाचारीके धूर्तता, लज्जायुक्त मनुष्यके मूचंता, चतुर वक्ता के वाचालता, पराक्रमी जनोंके अभिमानता, शान्त (सहनशील) पुरुषके दुर्बलता, सरल (निष्कपट) मनुष्यके बुद्धिहीनता और धर्माभिलाषी जनके मूर्खता बतलाते हैं । इस प्रकारसे दोनों लोकोंमें गुणो जनोंके ऐसे कौनसे गुण शेष हैं जिन्हें कि दुर्जन मनुष्य दोषयुक्त न बतलाते हों ? अर्थात् वे गुणी जनोंके सबही गुणोंको सदोष बतलाया करते हैं ॥ १८ ॥ दुर्जन मनुष्य दूसरोंको देखकर उठ खड़ा होता है, आगे बढ़कर स्वागत करता है, स्तुति करता है, नमस्कार करता है, आनन्द प्रकट करता है, सेवा करता है, भोजन करता व कराता है, वचनों के द्वारा प्रसन्न करता है, ग्रहण करता है, बान देता है, शरीरका आलिंगन करता है, तथा आँखों में पानी भरकर उन्हें फाड़ता हुआ सुखसे हर्ष प्रकट करता है । इस प्रकार मन में कुटिलताको धारण करके दुष्ट पुरुष अपनेको जो कार्य अभीष्ट है उसीके लिये सब करता है ॥ १९ ॥ जो दुर्जन सर्पके समान समस्त प्राणियोंको उद्विग्न करनेमें चतुर है, अतिशय कोधी है, विषके १ स येनि, सत्या (?) यो निरुजं । २ स यमनो, मिनं । ३ स दंभे । ४ स "रमिततां । ५ स गुणं । ६ सना | ७ स प्रत्युद्धाति । ८ स स्तौति । ९ स विस्कारिताईक्षणां । १० स "वक्रिमी, चितांगेपिचक्रिमान । ११ स जनः for चलः । १२ स °क्षणाः । १३ स प्रचुररुन्मु रुम्मु Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सुभाषितसंदोहः 1446:१७-२१ 146) धर्माधर्मविचारणा विरहिताः सन्मार्गविवेषिणो निन्द्याचारविधी समुद्यतषियः स्वार्थकनिष्ठापराः । दुःखोत्पादकवाक्य भाषणरताः सर्वाप्रशंसाकरा अष्टव्या अपरिग्रह प्रतिसमा विद्वज्जनैजनाः ॥ २१ ॥ प्रचुररुक् [ रुट् ] अवाच्य विर्ष मुञ्चन्, प्राणाकर्षपदोपदेशकुटिलस्वान्तः, दिजिह्वान्वितः भीमभ्रान्तविलोचनः, असमतिः, शववद्दयावजितः, छिद्रान्वेषणतत्परः, भुजगवत् दुर्जनः बुधः वयः ॥ २०॥ विद्वज्जनः धर्माधर्मविचारणाविरहिताः, सन्मान विद्वेषिणः, निन्द्याचारविधौ समुद्रातषियः, स्वार्थे कनिष्ठापराः, दुःखोत्पादफवाक्यभाषणरताः, सर्वांप्रशंसाकराः, दुर्जनाः अपरिग्रहयतिसमा द्रष्टव्याः ।। २१ !! मार्दवत: मान, प्रशमतः क्रुष, संतोषतः लोभ, तु आर्जवतः मायां, अवमतेः जनो, जिह्वासमान कष्टदायक न कहने योग्य वचनको बोलता है। जिसका व्यवसाय, उपदेश और कुटिल मन दूसरोंके प्राणोंका धातक है-उन्हें कष्टमै डालता है, जो दो जीभोंसे सहित है-अपने कहे हुए वचनोंको बदलता रहता है, जिसके नेत्र भयानक एवं चंचल हैं, जिसकी प्रवृत्ति विषम है, जो निरन्तर दयासे रहित है, तथा दूसरों के दोषों. के देखनेमें तत्पर रहता है। उससे विद्वानोंको दूर ही रहना चाहिये ।। २० ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार सर्प सब प्राणियोंको उद्विग्न करता है उसी प्रकार दुर्जन भो सब प्राणियोंको उद्विग्न करता है, अतिशय क्रोधी जैसे सर्प होता है वैसे ही वह दुर्जन भी अतिशय क्रोधी होता है, सर्प यदि मुंहसे प्राणघातक विषको उगलता है तो दुर्जन भी अपने मुंहसे विषके समान कष्टकारक निन्द्य वचनको निकालता है, सर्पका स्थान ( स्थिति । जहाँ प्राणघातक व अन्तःकरण कुटिल होता है वहां दुर्जनका स्थान व उपदेश भी प्राणघातक तथा अन्तःकरण कुटिल होता है, सपं यदि दो जीभोंसे सहित होता है तो दुर्जन भी दो जीभोंसे सहित होता है- वह पहले जिस बासको जिस रूपसे कहता है पीछे उसे बदल कर अन्यया रूपसे कहता है तथा एकसे कुछ कहता है तो दूसरे कुछ और ही कहता है, दृष्टि जैसे भ्रान्त व भयानक सर्पको होती है वैसे ही दुर्जनकी भी वह होती है, सर्प यदि असमगति है-कुटिल चालसे चलता है तो दुर्जन भी असमगति है हो—वह कुटिल ( मायापूर्ण ) व्यवहार करता है, दयासे रहित जैसे सर्प होता है वैसे ही दुर्जन भी दयासे रहित होता है, सथा सर्प जहाँ छिद्र (बिल) के खोजनेमें उद्युक्त रहता है वहाँ दुर्जन भी छिद्र ( दोष ) के खोजने में उद्युक्त रहता है। इस प्रकारसे सपके सब हो गुण उस दुर्जनमें पाये जाते हैं। अतएव बुद्धिमान मनुष्य सर्पको प्राणघात जानकर जैसे उससे सदा दूर रहते है वैसे ही दुर्जनको भी अनेक भवमें कष्टप्रद जानकर उससे भी उन्हें सदा दूर रहना चाहिये ।। २० ।। जो दुर्जन धर्म-अधर्मके विचारसे रहित, समीचीन मार्गसे द्वेष करनेवाले, निन्दनीय आचरण करने में उद्यत, स्वार्थको सिद्धिमें तत्पर, दुखको उत्पन्न करनेवाले वाक्योंके बोलने में उद्यत और सबकी निन्दा करनेवाले हैं उन्हें विद्वान् मनुष्य परिग्रहके नियमसे रहित अवतियोंके समान समझें ।। २१ ॥ विशेषायं-जिस प्रकार अव्रती जन धर्मअधर्मका विचार नहीं करते हैं उसी प्रकार दुर्जन भी धर्म-अधर्मका विचार नहीं करते हैं, समीचीन मार्ग मोक्षमार्गसे जैसे अग्रती द्वेष करते हैं उससे दिमुख रहते हैं वैसे ही दुर्जन भी उससे ( समोचीन मार्ग-सत्प्रवृत्तिसे ) वेप करते हैं, निन्ध आचरणमें जैसें अव्रती जनको बुद्धि प्रवर्तमान होती है वैसे ही दुर्जनोंकी भी बुद्धि उसमें प्रवर्तमान रहती है, अपने स्वार्थकी सिद्धिका ध्यान जैसे अवतो जनको रहता है वैसे ही वह दुर्जनोंको भो १ स विचारिणा । २ स स्वार्थोक' । ३ स वाच्य । ४ स ग्रहा' सम । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ 148 : १७-२३ 1 १७ दुर्जननिरूपणचतुविशतिः 447) मानं मार्दवतः क्रधं प्रशमतो लोभ व संतोषतो मायामार्जवतो' जनीमवमोजिह्वाजयान्मन्मथम् । ध्वान्तं भास्करतो ऽनलं सलिलतो मन्त्रात्समीराशनं नेतु शान्तिमलं कुतोऽपि न खलं मस्या निमित्तावभुवि ।। २२ ।। 448) वोक्ष्या त्मीयगुणै णासधवलयंवर्धमान जनं राहर्वा सितबीधिति' सुखकरैरानन्वयन्तं जगत् । नो नोचः सहते निमित्तरहितो न्यक्कारबद्ध स्पूहः किचिन्नात्र तवद्भुतं खलाने "येनेहगेष स्पितिः ॥२३॥ अयात् मन्मथं, भास्करतः ऽत्रान्तं, सलिलतः अनलं, मन्त्रात् समीराशनं शान्ति नेतुम् अलम् । भुवि मर्त्यः कुतोऽपि निमि तात् स्वलं (शान्ति नेतुं। न (अलम्) ॥ २२ ॥ मृणालघवले: सुख-करः जगत् बानन्दयन्तं सितवीधिति राहुर्वा आत्मीयगुणै: वर्षमानं जनं वीक्ष्य निमित्तरहितः, न्यक्कारबद्धस्पृहः नीचः नो सहते। अत्र किंचित् तत् अद्भुतं न । येन खलजने ईदृगेव स्थितिः [ भवति ] ॥ २३ ॥ यद्वत् काकाः करटिनः मौक्तिकसंहति त्यक्त्वा पलं मुहन्ति । मक्षिकाः चन्दनं त्यक्त्वा कुपिते रहता ही है, जिसप्रकार दूसरोंको दुख देनेवाला भाषण अवती करते हैं उसोप्रकार दुर्जन भी वह करते ही हैं, दूसरोंकी निन्दा जैसे अव्रती करते हैं वैसे ही दुर्जन भी दूसरोंकी निन्दा करते ही हैं। इसीलिये जिसप्रकार कोई भी विचारशील मनुष्य अवती जनके संसर्गमें नहीं रहना चाहता है उसीप्रकार उन्हें दुर्जनके भी संसर्गमें नहीं रहना चाहिये ।। २१ ॥ मानवको मार्दव गुणसे शान्त किया जा सकता है, क्रोधको प्रशम (क्षमा) गुणसे शान्स किया जा सकता है, लोभको सन्तोषसे शान्त किया जा सकता है, मायाको आवसे-मन वचन व कायको सरलतासे शान्त किया जा सकता है, स्त्रीको अपमानित करके शान्त किया जा सकता है, कामको जिह्वा इन्द्रियके जीतनेसे-कामोद्दीपक गरिष्ठ भोजनके परित्यागसे-शान्त किया जा सकता है, अन्धकारको सूर्यसे शान्त किया जा सकता है, अग्निको पानीसे शान्त किया जा सकता है, तथा सर्पको भी मन्त्रसे शान्त किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य पृथ्वी पर दुर्जनको किसी भी निमित्तसे शान्त नहीं कर सकता है ॥ २२|| जिसप्रकार कमलनालके समान श्वेत एवं सुखकारक अपनी किरणोंके द्वारा संसारको आनन्दित करनेवाले चन्द्रको देखकर उसे राहु सहन नहीं करता है-वह उसे ग्रस्त कर लेता है-उसीप्रकार कमलनालके समान श्वेत (प्रशस्स) एवं सुख कारक आत्मीय गुणोंसे-वृद्धिको प्राप्त होनेवाले मनुष्यको देखकर यदि-अकारण ही तिरस्कार करनेकी इच्छा रखनेवाला नीच (दुष्ट) पुरुष सहन नहीं करता है तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है ! कारण यह कि दुष्ट मनुष्यकी ऐसी ही स्थिति है-उसका स्वभाव ही ऐसा है ।। २३ ॥ जिसप्रकार कौवे हाथोके मुक्तासमूह को छोड़कर मांसको ग्रहण करते हैं, जिसप्रकार मक्खियाँ चन्दनको छोड़कर दुर्गन्धयुक्त सड़े गले पदार्थपर जाती है व वहाँ नाशको प्राप्त होती हैं, तथा जिसप्रकार कुत्ता मनोहर एवं सुस्वादु अनेक प्रकारके भोजनको १स "वतोजनी' । २ स वीक्षा' । ३ स • दीपति मुख । ४ स बद्धः स्पृहः । ५ स येन वृकेय, येन Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सुभाषितसंदोहः [449:१७-१४ 449) त्यक्त्वा' मौक्तिकसंहति करटिनो गृहन्ति काकाः पलं त्यवस्था चन्दनमाश्रयन्ति कुथिते ऽम्येत्य क्षयं मक्षिकाः । हित्वान्न विविध मनोहररस श्वानो मलं भुखते यल्लान्ति गुणं विहाय सततं दोषं तथा बुर्जनाः ॥ २४ ॥ इति दुर्जननिरूपण चतुर्विशतिः ॥ १७ ॥ अभ्येत्य भयम् आश्रयन्ति । श्वानः विविध मनोहररसम् अन्नं हित्वा मलं भुञ्जते । तथा दुर्जनाः गुणं विहाय सततं दोन लान्ति ॥ २४ इति दुर्गननिरूपणचतुर्विश्चतिः ॥ १७ ॥ छोड़कर मलका भक्षण करता है; उसी प्रकार दुष्ट जन गुणको छोड़कर निरन्तर दोषको ग्रहण करते हैं ॥ २४ ॥ इस प्रकार चौबीस श्लोकोंमें दुर्जनका निरूपण हुआ ॥ १७ ॥ १स मुक्ता । २ स कुपितेभ्यो ऽतिक्षयं, कुषितेभ्येति भयं । ३ स यदल्लात्ति । ४ स निरूपणम् । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८. सुजननिरूपणचतुर्विंशतिः ] 450 ) ये जल्पन्ति व्यसनविमुखां भारतीमस्तदोषां ये' श्रीनीतिद्युति मतिष तिप्रीतिशान्तीवंदन्ते । येम्य: कीर्तिर्विगलित मला जायते जन्मभाजां शश्वत्सन्तः कलिलहतये ते नरेणात्र सेव्याः ॥ १ ॥ 451) नैतच्छधामा किसहरिणीलोचना कोरनासा मृद्वालापा कमलवदना पक्वबिम्बाधरोष्ठी । मध्ये क्षामा विपुरुजघना कामिनी कान्तरूपा यन्निर्दोषं वितरति सुखं संगतिः सज्जनानाम् ॥ २ ॥ 452) यो नाक्षिप्य प्रववति कर्षा नाम्पसूर्या विधते न स्तोति स्वं हसति न परं वक्ति नान्यस्य ममं । हन्ति क्रोधं स्थिरयति शमं* प्रीतितो न व्यपैति सन्तः सन्तं व्यपगतमयं तं सदा वर्णयन्ति ॥ ३ ॥ ये व्यसनविमुखाम् अस्तदोषां भारत जल्पन्ति ये श्रोनीतिद्युतिमतिधृतिप्रीतिशान्तीः ददन्ते । येभ्यः जन्मभाजां विगतिमला कीर्तिः जायते ते सन्तः अत्र नरेण कलिलहतये शश्वत् सेव्याः ॥ १ ॥ सज्जनानां संगतिः यत् निर्दोषं सुखं वितरति एततु श्यामा, चक्तिरिणीलोचना, कोरनासा, मुढालापा, कमलवदना, पक्वविम्बाधरोष्ठी मध्ये क्षामा, विपुलजघना कान्तरूपा कामिनी न वितरति ॥ २ ॥ यः आक्षिप्य कथा न प्रवदति, अभ्यसूयां न विधसे, स्थं न स्तोति परं न इसति, अन्यस्य मर्म न वक्ति, कोषं हन्ति, शमं स्थिरयति, प्रीतितः न व्यमेति । सन्तः व्यपगतमदं तं सदा सन्तं वर्णयन्ति ॥ ३ ॥ जो सज्जन व्यसनोंसे विमुख करनेवाली निर्मल वाणोको बोलते हैं; जो लक्ष्मी, नीति, कान्ति, बुद्धि, धैर्य, प्रीति एवं शान्तिको प्रदान करते हैं; जिनकी संगति से प्राणियोंकी निर्मल कीति फैलती है; मनुष्यको यहाँ अपने पापको नष्ट करनेके लिये निरन्तर उन सज्जन पुरुषोंकी सेवा करना चाहिये ॥ १ ॥ सज्जन पुरुषोंकी संगति जिस निर्दोष सुखको देती है उसे वह सुन्दर स्त्री नहीं देती जो कि श्याम वर्ण, भयभीत हिरणी के समान चंचल नेत्रों वाली, तोके समान नाकसे सहित, मृदुभाषिणी, कमलके समान सुन्दर मुखवाली, पके कुंदर फलके समान लाल अधरोष्ठसे सुशोभित, मध्य में कुश और विपुल जघनवाली है ॥ २ ॥ जो आक्षेप करके कथाको नहीं कहता है - किसी व्यक्ति विशेषको लक्ष्य करके प्रवचन नहीं करता है, जो ईर्ष्याको नहीं करता है, अपनी प्रशंसा नहीं करता है, दूसरे की हँसी नहीं करता है - निन्दा नहीं करता है, दूसरेके रहस्यको नहीं कहता है, कोको नष्ट करता है, शान्तिको स्थिर करता है, और प्रोतिसे च्युत नहीं होता है-उसे स्थिर रखता है; उस निरभिमानी मनुष्य को विद्वान् पुरुष सज्जन कहते हैं ॥ ३ ॥ वृक्ष फलोंको बार-बार धारण करके नम्रतापूर्वक दूसरोंको देते हैं, मेघ बार-बार जलको प्राप्त करके संसारका पोषण करनेके लिये वर्षा करते हैं, तथा सिंह १ स यो प्री० । २ स शांति । स नाशा । ४ स ममं मम । ५ स समं । ६ स व्यपीति व्ययीति व्ययति, पयोनि । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [453 : १८-४ १२८ सुभाषितसंदोहः 453) धृत्वा धृत्वा वदति तरवः सप्रणाम फलानि प्राप्त प्राप्तं भुवनभूतये वारि वार्दाः क्षिपन्ति । हत्या हत्वा वितरति हरिवन्तिनः संश्रितेभ्यों भो' सापना भवति भुवने को ऽप्यपूर्वो ऽत्र पन्थाः ॥४॥ 454) वाघेश्चन्द्रः किमिह कुरुते नाकि मार्गस्थितोऽपि बसौ ति यति यवयं तस्य हानौ च हानिम् । अज्ञातों या भवति महतः कोऽप्यपूर्वस्वभावो बेहेनापि वमति' सनुतां येन दृष्ट्वान्यदुःखम् ॥५॥ 455) सत्या वाचा" ववति कुरुते नामांसाम्पनिम्बे नो मात्सर्य प्रति तनुते नापकारं परेषाम् । नो शप्तोऽपि व्रजति विकृति नैति मन्यु कदाचिस् केनाप्येतन्निगवितमहो चेष्टितं सजनस्प॥६॥ तरवः फलानि धृत्वा धृत्वा सप्रणाम ददति । वार्दाः प्राप्तं प्राप्तं वारि भुवनभूतये क्षिपन्ति । हरिः दन्तिनः हत्वा हत्या संश्रितेम्यः वितरति । भो अत्र भुक्ने सापून कः अपि अपूर्वः पन्थाः भवति ।। ४॥ माफिमार्गस्थितः अपि चन्द्रः इह वार्षे: किं करोति यत् अयं तस्य वृद्धो वृद्धि हानौ च हानि श्रयति । वा महतः शातः कः अपि अपूर्वस्वमावः भवति, मेन अपदुःखं दृष्ट्वा देहेन अपि तनुतां यजति ।। ५॥ [ सज्जनः ] सत्यां वाचां वपति, मात्मषंसान्यनिन्दे न कुहवे, माल श्रयति, परेषाम् अपकारं न तनुते, शप्तः अपि विकृति नो प्रति, कदाचित् मन्युं न एति । अहो केन अपि सज्जनस्य एतब हाथियोंको बार-बार मार करके आश्रित अन्य प्राणियोंके लिये देते हैं। ठोक है, यहाँ लोकमें सज्जनोंका मार्ग कुछ अपूर्व हो होता है उनकी प्रवृत्ति अनोखी ही होती है ॥ ४ ॥ आकाशमार्गमें स्थित चन्द्र भला समुद्रका क्या करता है जिससे कि वह उसकी (चन्द्रकी) वृद्धि होनेपर बढ़ता है और हानिके होनेपर हानिको प्राप्त होता है । अथवा ठोक ही है-महापुरुषका कोई ऐसा अज्ञात अनुपम स्वभाव होता है कि जिससे वह दूसरोंके दुःखको देखकर शरीरसे भी कृशसाको प्राप्त होता है ॥५॥ विशेषार्थ-सज्जन मनुष्यका ऐसा अनोखा स्वभाव होता है कि जिससे वह दूसरोंके दुखको देखकर दुखी और उनके सुखको देखकर सुखी होते हैं। यह उनका व्यवहार उनके शरीरसे प्रगट होता है। कारण कि जब वे दूसरोंको कष्टमें देखते हैं तो उनका शरीर कृश होने लगता है तथा जब वे अन्य जनको सुखी देखते हैं तो उनका यह शरीर स्वस्थ दिखने लगता है। उदाहरणके रूपमें देखिये कि चन्द्र आकाश में उत्तने ऊपर रहता है जो कि समुद्रका कुछ भी मला बुरा नहीं करता है, फिर भी उसकी वृद्धिको देखकर वह समुद्र तदनुसार शुक्ल पक्षमें वृद्धिको प्राप्त होता है और उसकी हानिको देखकर वह कृष्ण पक्षमें स्वयं भी हानिको प्राप्त होता है । सज्जनोंको इस सज्जनताका परिचय अन्य मनुष्य उनके शरीरको देखकर भले ही प्राप्त कर लें, परन्तु वे स्वयं उसे कभी प्रगट नहीं करते हैं-अन्य जनोंका उपकार करके भी वे कभी उसे दूसरोंमें प्रगट नहीं होने देते ॥ ५॥ जो सज्जन सत्य वचन बोलता है, अपनी प्रशंसा व दूसरेकी निन्दा नहीं करता है, मत्सरताका आश्रय नहीं लेता है-कभी किसीसे इर्ष्या नहीं करता है, १ स बा २ स सश्रुतेभ्यो, संशृतेभ्यो, संसृतम्यो, सरतम्यो। ३ स om. मो, adds वा । ४ स भवने । ५स मार्गे । ६ स यदियं । ७ स om. तस्य । ८ से ज्ञातो । १ स om. व्रजति ७ प्रति in Virar 61 १० स सत्यं । ११ स वाचं। १२ स तापकारं। १३ स नि for नो । १४ स मान्यं, मन्य। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ 456 : १८-७] १८. सुजननिरूपणचतुविशतिः 456) नश्यत्तन्नो भुवनभवनोद्भूततस्वप्रवर्शी सम्यग्मार्गप्रकहनपरो ध्वस्तदोवाकरधीः । पुष्यत्पनों गलिततिमिरो दत्तमित्रप्रतापो राजत्तेजा विवससहवाः सजनो भाति लोके ॥७॥ प्रेष्टितं निगदितं [ किम् ] ॥ ६ ॥ लोके नश्यत्तन्द्रः, भुवनभवनोद्भूततत्त्वप्रदर्शी, सम्पङमार्गप्रकटनपरः, ध्वस्तदोषाकरपीः, पुष्यत्ययः, गलिततिमिरः, दत्तमित्रप्रतापः, राजत्तेजाः सज्जनः, दिवससदृशः भाति ॥ ७॥ जगप्ति माश्याचाराः ये अनपेक्षाः सन्तः सापकारे जने कारण विषति, धरिश्याः मण्डनं ते जनाः विरलाः । ये स्वस्वकृरयप्रसिद्ध ध्रुवम् उपकृति कुर्वन्ति, दूसरोंका अपकार नहीं करता है, कोई यदि शाप देता हैगाली देता है या दुष्ट वचन बोलता है-तो भी जो विकारको नहीं प्राप्त होता है और न कभी क्रोध करता है आश्चर्य है कि उस सज्जन पुरुषकी इस चेष्टाको किसीने कहा है क्या ? अर्थात् उसको प्रवृत्ति अनिर्वचनीय है । अथवा आश्चर्य है कि उस सजनकी इस चेष्टाका सद्व्यवहारका किसीने निरूपण किया है ।। ६ ॥ आलस्यसे रहित, लोकरूप घरमें उत्पन्न हुए तत्त्वोंको दिख. लानेवाला, समोचीन मार्गको प्रगट करनेवाला, पपा (लक्ष्मी) को पुष्ट करनेवाला, अज्ञानरूप अन्धकारसे रहित, मित्रको प्रताप देनेवाला और तेजसे शोभायमान सजन लोकमें दिनके समान सुशोभित होता है ।।७।। विशेषार्थ--यहां सज्जनको शोभा दिनके समान बतलाई गई है। वह इस प्रकारसे-जिसप्रकार दिन दूसरोंकी तन्द्राको नष्ट करता है-उनको निद्रा एवं आलस्यको दूर करता है-उसी प्रकार सज्जन भी स्वयं निरालस होकर दूसरोंके भी आलस्यको दूर करता है, जिसप्रकार दिन अन्धकारके दूर हो जानेसे संसारको समस्त वस्तुओंको दिखलाता है उसी प्रकार सज्जन भी लोकको समस्त वस्तुओंको दिखलाता है-अपने सदुपदेशके द्वारा समस्त वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपको प्रगट करता है, दिन यदि रास्तागीरोंके लिये जानेके योग्य मार्गकोरास्तेको-दिखलाता है तो सज्जन मनुष्य भी आत्महितैषी जनोंके लिये योग्य मार्गको दिखलासा है-मोक्षके मार्गभूत सम्यग्दर्शनादिका उपदेश देता है, दिन जहाँ दोषाकरकी श्रीको नष्ट करता है-रात्रिको करनेवाले चन्द्रकी कान्तिको फीका करता है-वहाँ सज्जन भी उस दोषाकरको श्रीको नष्ट करता है-दोषोंकी खानिभूत दुर्जनको शोभा (प्रभाव) को नष्ट करता है, दिन यदि सूर्यका उदय हो जानेसे कमलोंको प्रफुल्लित करता है तो सज्जन पुरुष पनाको प्रफुल्लित करता है-उसे पुष्ट करता है, दिन जैसे रात्रिके अन्धकारको नष्ट कर देता है वैसे ही सज्जन भी अन्धकारसे रहित होकर-अज्ञानसे स्वयं रहित होकर दूसरोंके भी अज्ञानान्धकारको नष्ट कर देता है, दिन यदि मित्रको सूर्यको-प्रतापशाली करता है तो सज्जन भी मित्रको-स्नेही बन्धुजनको प्रतापशाली करता है, तथा जिसप्रकार दिन सूर्यके तेजसे सुशोभित होता है उसी प्रकार वह सज्जन भी अपने ज्ञानरूप तेजसे सुशोभित होता है । इसीलिये जिसप्रकार सब ही जन दिनसे प्रेम करते हैं उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्योंको सज्जनके प्रति भो प्रेमभाव रखकर सदा उसको ही संगतिमें रहना चाहिये ।। ७॥ जो सज्जन सदाचरणसे संयुक्त होते हुए अपने अपकारी जनके प्रति भी किसी प्रकारके प्रत्युपकारको अपेक्षा न करके दयाका व्यवहार करते हैं वे पृथ्वीके भूषणभूत सज्जन संसारमें बिरले ही है-थोड़े-से ही हैं। किन्तु जो जन १ स भविनो°, भवतो भूत । २ स पुष्पत्पद्यो । सु. सं. १७ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सुभाषितसंदोहः [457 : १८-१० 457 ये कारुण्यं विवधति' जने सापकारे ऽनपेक्षा मान्याचारा जगति विरला मण्डनं ते धरित्र्याः। ये कुर्वन्ति ध्रुवमुपकृति स्वस्वकृत्यप्रसिद्ध माः सन्ति प्रतिगृह ममो काश्यपीभारभूताः ॥ ८॥ 458) सम्यग्धर्मव्यवसितपरः पापविध्वंसदक्षों' मित्रामित्रस्थित सममनाः सौल्यवुःखै कचेताः । ज्ञानाम्यासात प्रशमितमवक्रोघलोभप्रपञ्चः सवृत्ताडयो मुनिरिव जने सज्जनो रामते ऽत्र ॥ ९॥ 459) यः प्रोत्तुङ्गः परमगरिमा स्थैर्यवान्या नगेन्द्रः पमानन्दी विहताडिमा" भानुववधूतवोषः। शीतः सोमा"मृतमयवपुश्चन्द्रवद्वान्तघाती पुण्याचारो जगति सुजनो भात्यसो ख्यातकीतिः ॥१०॥ अमी काश्यपीभारभूताः माः प्रतिगृहं सन्ति ।। ८ ॥ बत्र बने सम्यग्धर्मव्यवसितपरः, पापविध्वंसदक्षः, मित्राभित्र स्थित-! सममनाः, सौख्यदुःखकचेताः, सानाम्यासात् प्रशमितमदकोषलोभप्रपञ्चः, सवृत्तादयः मुनिरिव सज्जनः राजते ॥ ९॥ नगेन्द्रो वा यः जगति स्थैर्यवान् प्रोत्तुङ्गः परमगरिमा, यः भानुवत् पमानन्दी, विहतमहिमा धूतदोषः, यः चन्द्रवत् शीतः निश्चयतः अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये दूसरोंका उपकार करते हैं वे पृथ्वीके भारभूत मनुष्य प्रत्येक घरमें विद्यमान हैं बहुत हैं ॥ ८॥ यहाँ लोकमें सज्जन मनुष्य मुनिके समान शोभायमान होता है। कारण यह कि जैसे मुनि समीचीन धर्मके व्यवसाय (आचरण) में लीन रहता है वैसे ही सज्जन भी उसमें लीन रहता है, पापके, नष्ट करनेमें जैसे मुनि समर्थ होता है वैसे ही उसमें सज्जन भी समर्थ होता है, मित्र और शत्रुकी स्थितिमें जिसप्रकार मुनिका मन समान रहता है-राग-द्वेषसे सहित नहीं होता है उसी प्रकार सज्जनका मन भी उक्त शत्रु और मित्रकी स्थितिमें समान ही रहता है, यदि सुख और दुखमें मुनि एकचित्त-हर्ष-विषादसे रहित होता है तो सज्जन भी उनमें एकचित्त रहता है, जिसप्रकार ज्ञानके अभ्याससे मद (गर्व), क्रोध और लोभके विस्तारको मुनि शान्त करता है उसी प्रकार सज्जन भी उन्हें शान्त करता है, तथा जिसप्रकार समीचीन आचरणसे सहित मुनि होता है उसी प्रकार उससे सहित सज्जन भी होता ही है ॥ ९॥ जो सुमेरुके समान उन्नत, अतिशय गुरुत्वको धारण करनेवाला एवं स्थिर होता है जो सूर्यके समान निर्दोष, पद्यानन्दो एवं जडिमाको नष्ट करने वाला है तथा जो चन्द्रमाके समान शोत, सोम व अमृतमय शरीरसे सहित और अन्धकारको नष्ट करनेवाला है; वह उत्तम आचारवाला सज्जन लोकमें सुशोभित होता है। उसकी प्रसिद्ध कीति समस्त दिशाओंको व्याप्त करती है ॥ १० ॥ विशेषार्थ-जिसप्रकार सुमेरु उन्नत (ऊंचा), अतिशय गरिमा (भारीपन) से सहित और स्थिर (अडिग) है उसी प्रकार सज्जन भो उन्नत उत्तमोत्तम गुणोंका धारक, गरिमा (आत्म गौरव) से सहित और स्थिर-सम्पत्तिव विपत्तिमें समान तथा भोग्य मार्गसे विचलित न होनेवाला होता है; अतएव वह सुमेरुके समान है। जिसप्रकार सूर्य पद्मानन्दो-कमलोंको विकसित करनेवाला, जडिमा (शैत्य) का विघातक और धूत १स विश्धते । २ स सापकारिनयेक्षा, शाप पेक्षा, कारणपेक्षा । ३ स मपकृति । ४ स सिद्धौ । ५ स प्रतिग्रह। ६ स दक्षो। ७ स स्थिरसम°। ८ स जनो। ९ स यत्रो ११० स गरिमास्थ । ११ स विहितपडिमो। १२ स सोमो। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 : १८-१३] १८. सुजननिरूपणचतुर्विशतिः 460) तृष्णा छिन्ते' शमयति मदं ज्ञानमाविष्करोति नोति सूते हरति विपद संपवं संचिनोति । पुंसां लोकद्वितयशुभवा संगतिः सज्जनानां कि वा कुर्यान्न फलममलं बुःखनिशिक्षा ॥११॥ 461) चित्तालावि श्यसनविमुखं शोकतापापनोवि प्रजोत्पादिश्रवणसुभगं न्यायमार्गानुयामि। तभ्यं पश्यं व्यपगतम' सायकं मुक्त बाघ यो निर्वोषं रचयति वचस्तं युषाः सन्तमाहुः ॥ १२॥ 462) कोपो विद्युत्स्फुरित तरलो प्रावरेखेव मैत्री मेस्थेयं चरित मचलः सर्वजन्तूपचारः । बुद्धिधमंग्रहमचतुरा बाक्य"मस्तोपता कि पर्याप्तं न सुजनगुणरेभिरेषात्र लोके ॥ १३ ॥ मोमामृतमययपुः, ध्वान्तघाती, रूपातकीतिः, पूज्याचारः मसौ सुजनः भाति ॥ १० ॥ लोकद्वितयशुभदा दुःसनिशिक्षा सज्जनानां संगतिः पुंसां तृष्णां छित्त, मदं शमयति, ज्ञानम् आविष्करोति, नीति सूते, विपर हरति, संपवं संचिनोति । कि वा अमलं फलं न कुर्यात् ॥ ११ ॥ यः चित्तालादि, पसनविमुखं, शोकतापापनादि, प्रमोत्पादि, श्रवणसुभगं, न्यायमार्गाजुयायि, तथ्य, पथ्यं, व्यपगतमदं, सार्थक, मुक्तबाघ निर्दोष बचा रचति, जुधाः तं सन्तम् आहुः ॥ १२॥ [ सता] दोष-दोषा (रात्रि) के संयोगसे रहित होता है उसी प्रकार सज्जन भी पद्मानन्दी-पद्मा (लक्ष्मी) को आनन्दित करनेवाला, जडिमा (अज्ञानता) का विघातक और धूतदोष-दोषोंसे रहित होता है; अतएव वह सूर्यके समान है। जिसप्रकार चन्द्रमा शीत (शीतल), सोम (अमृतको उत्पन्न करनेवाला), अमृतमय शरीरसे सहित और अन्धकारका विनाशक होता है उसी प्रकार सजन भी शीत-जीवको सन्तप्त करनेवाले क्रोधादिसे रहित, सोम व अमृतमय शरीरसे सहित प्राणियोंको आह्लाद कारक शान्त शरीरसे सहित और अज्ञानरूप अन्धकारका विनाशक होता है, अतएव चन्द्रमाके भी समान है। इसीलिये उसका यश सब दिशाओंमें व्याप्त रहता है । उसको सदाचारिताके कारण लोग उसकी पूजा करते हैं ॥ १० ॥ प्राणियोंके लिये दोनों ही लोकोंमें उत्तम फलको देनेवाली सज्जनोंको संगति विषयतृष्णाको नष्ट करती है, गर्वको शान्त करती है, समीचीन ज्ञानको प्रगट करतो है, नीति (न्याय आचरण) को उत्पन्न करती है, विपत्तिको हरती है और सम्पत्तिको संचित करती है। अथवा ठीक ही है जो सम्जन संगति प्राणियोंके समस्त दुःखोंके नष्ट करनेमें समर्थ है वह कौन-से निर्दोष फलको नहीं उत्पन्न कर सकती है ? अर्थात् वह सब ही उत्तम फलको उत्पन्न करती है ॥ ११॥ जो वचन मनको प्रमुदित करता है, द्यूतादि व्यसनोंसे विमुख करता है, शोक व सन्तापको नष्ट करता है, बुद्धिको विकसित करसा है, कानोंको प्रिय लगता है, न्यायमार्गका अनुसरण करता है, सत्य है, हितकारक है, अभिमानसे रहित है, सार्थक है और बाधासे रहित है, ऐसे निर्दोष वचनको जो रचता है-बोलता है-उसको पण्डित जन सज्जन बसलाते हैं ।। १२ ।। सज्जनोंका क्रोध बिजलीकी चमकके समान चंचल है-शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है, मित्रता १ स तृष्णा चिते । २ स विपदां संपदा । ३ स दक्ष्या, °दक्षाः । ४ स °ल्हादित्र्यसन । ५ स °मुखः । ६ स "नुजायि । ७ स मलं । ८ स मुक्ति । ९ स स्फुरति तरलो। १० स चरत°, चरति । ११ स वाध्य । १२ स पपातं । १३ स om. कि । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंोहः 463) जातु स्थैर्याद्विचलति गिरिः शीततां याति वह्निर्यादोनाथः स्थितिविरहितो मारुतः स्तम्भमेति । तीव्रश्चन्द्रो भवति दिनपो जायते चाप्रतापः कल्पान्ते ऽपि व्रजति बिकृति सज्जनो न स्वभावात् ॥ १४ ॥ 464) वृत्तस्यागं विवति न ये नान्यवोषं ववन्ते १३२ नो याचन्ते सुहृदमनं नाशतो नापि दीनम् । नो सेवन्ते बिगतचरितं कुर्वते नाभिभूति नो लङ्घन्ते क्रमममालिनं सज्जनास्ते भवन्ति ॥ १५ ॥ 465) मासूस्वामिस्वजनजनक भ्रातृभार्याजनाथा वातुं शक्तास्सदिह न फलं सज्जना यद्ददन्ते । काचित्तेषां वचनरचना येन सा ध्वस्तदोषा यां शृण्वन्तः शमितकलुषा निर्वृत्त यान्ति सत्याः* ॥ १६ ॥ [ 463 १८-१४ कोपः विद्युत्स्फुरिततरलः, मंत्री ग्रावरेखेव, चरितं मेरुस्थे, सर्वजन्तूपचारः अचल, बुद्धिः धर्मग्रह्णचतुरा, वाक्यम् अस्तोपतापम् । अत्र लोके एभिः एव सुजनगुणैः किं न पर्याप्तम् ।। १३ ।। गिरिः स्थैर्यात् जातु विचलति वह्निः शीततां याति मादोनाथ: स्थितिविरहितः भवति मारुतः स्तम्भम् एति चन्द्रः तीव्रः भवति च विनपः अप्रतापः जायते । कल्पान्ते अि सज्जनः स्वभावात् विकृति न व्रजति ॥ १४ ॥ मे वृत्तत्यागं न विदषति अन्यदोषं न वदन्ते नाशतः अपि अघनं सुहृदं नो याचन्ते, दीनमपि न ( याचन्ते), विगतचरितं नो सेवन्ते, अभिभूति न कुर्वते, अमलिनं क्रमं नो लवन्ते, ते सज्जनाः भवन्ति ।। १५ ।। इह सज्जनाः यत् फलं दातुं शक्ताः तत् मातृस्वामिस्वजन जनक भ्रातृभार्याजनाद्याः न ददन्ते । येन तेषां पत्थरकी रेखा के समान स्थिर रहनेवाली है, चरित्र मेरु पर्वतके समान निश्चल है, समस्त प्राणियों की सेवा अचल है, बुद्धि धर्म ग्रहणमें प्रवीण है, और सन्तापसे रहित है- दूसरोंको सन्ताप देनेवाला नहीं है; ये सब सज्जनके गुण क्या यहाँ लोकमें पर्याप्त नहीं हैं ? पर्याप्त हैं बहुत है ॥ १३ ॥ कदाचित् पर्वत अपनी स्थिरतासे विचलित हो जावे - स्थिरताको भले ही छोड़ दे, अग्नि शीतलताको प्राप्त हो जावे, समुद्र स्थितिसे रहित हो जावे - अपनी सीमाको भले ही छोड़ दे, वायु निरोधको प्राप्त हो जावे -संचारसे रहित हो जावे, चन्द्रमा तीक्ष्णताको प्राप्त हो जावे, तथा सूर्य निस्तेज हो जावे; परन्तु सज्जन मनुष्य प्रलयकालके भी उपस्थिति हो जानेपर कभी अपने स्वभावसे विकारको प्राप्त नहीं होते । अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार उपर्युक्त पर्वत आदि कभी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं उसी प्रकार सज्जन भी चाहे कितना ही संकट क्यों न आ जाये, किन्तु वह् अपने सज्जन स्वभावको नहीं छोड़ता है ॥ १४ ॥ जो चारित्रका परित्याग नहीं करते हैं, अन्यके दोषको नहीं कहते हैं - परनिन्दा नहीं करते हैं, सर्वनाशके होने पर भी न निर्धन मित्रसे और न अन्य किसी दीन पुरुष से भी याचना करते हैं, होन आचारवाले किसी नीच मनुष्यकी सेवा नहीं करते हैं, अन्यका तिरस्कार नहीं करते हैं, तथा निर्दोष परिपाटीका उल्लंघन नहीं करते हैं वे सज्जन होते हैं - यह सज्जन मनुष्यको पहिचान है ||१५|| यहाँ जिस अपूर्व फलको सज्जन मनुष्य देते हैं उसे माता, स्वामी, कुटुम्बीजन, पिता, माता और स्त्री आदि जन नहीं दे सकते हैं। उनकी वह वचन रचना कुछ ऐसी निर्दोष होती है कि जिसे सुनकर प्राणी पापसे रहित होते हुए मुक्तिको प्राप्त होते हैं ॥ १६ ॥ अतिशय स्थिर बुद्धिवाले सज्जन मनुष्य वृक्षके समान प्रेमको बढ़ाते हैं जिस १ स विलयति । २ स वहन्ते । ३ स भुतं । ४ स सत्यः, वाति सस्था । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. सुजननिरूपणचतुर्विंशतिः 468 : १८-१९ ] 466) नित्य च्छायाः फलभरनता: प्रोणितप्राणिसार्थाः क्षिप्त्यापेक्षामुपकृतिकृतो दत्तसत्त्वावकाशाः । शश्वत्तुङ्गा विपुलसुमनोचाजिनो ऽलङ्घनीयाः * प्रीति सन्तः स्थिरतरधियो' वृक्षवद्वषयन्ति ॥ १७ ॥ 487) मुक्त्वा स्वायं सपहृक्याः कुर्वते ये परार्थ ये निर्व्याज विजित कलुषां तन्वते धर्मबुद्धिम् । ये निर्वा विवर्षात हितं ते नापवादं ते पुंनागा जगति विरलाः पुष्पवन्तो भवन्ति ॥ १८ ॥ 468 ) हन्ति ध्वान्तं रयति' रजः सस्वमाविष्करोति प्रज्ञां सूते वितरति सुखं न्यायवृत्ति तनोति । ID धर्मे बुद्धि रचयतितरां पापबुद्धि पुनीते पुंसां नो वा किमिह कुरते संगतिः सज्जनानाम् ॥ १९ ॥ १३३ या वस्तदोषा काचित् वचनरचना, यां शृण्वन्तः शमितकलुषाः सत्त्वाः निवृति यान्ति ॥ १६ ॥ वृक्षवत् नित्यच्छायाः फलभरनताः, प्रीणितप्राणिसार्थाः प्रेक्षां क्षिप्त्या उपकृतिकृतः दत्तसत्त्वा वकाशाः शष्यसूङ्गाः, विपुलसुमनोघ्राजिनः, अलङ्घनीयाः स्थिरतरधिमः सन्तः प्रीति वर्षयन्ति ॥ १७ ॥ सकुपहृदयाः ये स्वार्थ मुक्त्वा परार्थ कुर्वते, ये विजिसकलुष नियांजां धर्मबुद्धि तन्वते ये निर्गव हितं विदधति, अपवादं न गुप्ते, ते पुण्यवन्तः पुंनागा: जगति विरलाः भवन्ति ॥ १८ ॥ इहू सज्जनानां संगतिः पुंसां किं वा न कुरुते । सा ध्वान्तं हन्सि, रजः रहयति सत्त्वम् आविष्करोति, प्रशां सूते, प्रकार वृक्ष निरन्तर पथिक जनोंको छाया प्रदान करते हैं उसी प्रकार सज्जन भी शरणागत जनोंको छाया प्रदान करते हैं - आश्रय देते हैं, जैसे वृक्ष फलोंके बोससे नत रहते हैं मुके रहते हैं वैसे ही सज्जन भी गुणोंके बोझसे नत रहते हैं, नम्रीभूत रहते हैं, यदि प्राणियोंके समूहको वृक्ष प्रसन्न करते हैं तो वे सज्जन भी उसे प्रसन्न करते हैं, वृक्ष जैसे उपकृत जनसे किसी प्रकारके प्रत्युपकारकी अपेक्षा न करके प्राणीमात्रको आश्रय देते हैं वैसे ही सज्जन भी विना प्रत्युपकारकी अपेक्षा किये ही प्राणिमात्रको आश्रय देते हैं, जिसप्रकार वृक्ष निरन्तर ऊंचे होते हैं उसी प्रकार सज्जन निरन्तर ऊँचे रहते हैं—गुणोंसे युद्धिगत होते हैं, वृक्ष यदि विपुल सुमनोंसे प्रचुर फूलोंसे सुशोभित होते हैं तो सज्जन भी विपुल सुमनसेउदार विशुद्ध मनसे – सुशोभित होते हैं, तथा जिस प्रकार वृक्ष अतिशय ऊँचे होनेसे किसीके द्वारा लधि नहीं जा सकते हैं उसी प्रकार सज्जन भी उन्नत गुणोंसे परिपूर्ण होनेसे किसीके द्वारा लांबे नहीं जा सकते हैं— कोई भी उनका तिरस्कार नहीं कर सकता है || १७ || जो सत्पुरुष हृदयमें दयाको धारण करते हुए स्वार्थको छोड़कर एक मात्र परोपकारको करते हैं, जो मायाचारको छोड़कर अपनी निर्मल बुद्धिको धर्म में लगाते हैं, तथा जो गर्वसे रहित होकर दूसरोंके हितको तो करते हैं किन्तु उनके अपवाद ( निन्दा या दोष) को नहीं ग्रहण करते हैं वे पुरुषश्रेष्ट संसारमें बिरले है - थोड़े ही है-और वे ही पुण्यशाली हैं ॥ १८ ॥ सज्जनोंकी संगति यहाँ पुरुषोंका क्या उपकार नहीं करती है ? सब कुछ करती है - वह अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करती है, पापदूर करती है, सत्त्व गुणको प्रकट करती है, विवेक बुद्धिको उत्पन्न करती है, सुखको देती है, न्याय व्यव को १ स नित्यं । २ सणताः । ३स प्रेक्षा ४स लङ्घनीयाः । ५ स प्रीतिमंतः प्रीतिः ६ स धियः धिया । ७ ससा । ८ स पुण्यवंते । ९ सहरयति । १० । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंोहः 469 ) अस्पत्युच्चैः शकलितवपुश्चन्वनो नारभगन्धं नेक्षुर्यन्त्रैरपि मधुरता पिधमानो जहाति । स्वर्ण न चति हितं छिन्नघुष्टो 'पतप्तं तद्वस्साधुः कुजननिहतो ऽप्यन्ययात्वं न याति ॥ २० ॥ 470 ) महद्भानुविसरति करैर्मोव मम्भोव्हाणां शीतभ्योतिः सरिवधिपति लब्धवृद्धि विषत्ते * । वार्यो लोकानुदकविसरैस्तर्पयत्पस्तहेतु स्तद्वत्तोष" रचयति गुणैः सज्जनः प्राणभाजाम् ॥ २१ ॥ 471) देवा घोतकमसरसिजा: सौख्यवाः सर्वलोके पृथ्वीपालाः प्रववति धनं कालतः सेव्यमानाः । कीर्तिप्रीतिप्रशमपटुता पूज्यत तत्त्वबोधाः संपद्यन्ते टिति कृतिनाश्चैव पुंसः स्थिरस्य ॥ २२ ॥ १३४ [ 469 : १८-२० सुखं विचरति, न्यायवृत्ति तनोति धर्मे बुद्धिरवयतितराम् पापबुद्धि घुनीते ॥ १९ ॥ उचैः कलितवपुः बन्दनः आत्मगन्धं न अस्यति । यन्त्रैः पीड्यमानः अपि इक्षुः मधुरतां न जहाति । यद्वत् छिन्नष्टोपतप्तं हितं सुवर्णन चलति व कुपननिहतः अपि साधुः अन्यथात्वं न याति ।। २० ।। यद्वत् अस्तहेतुः भानुः करें: अम्भोव्हाणां मोदं वितरति । शीतज्योतिः सरिदधिपति लम्बवृद्धि विधते । वार्यः लोकान् उदकविस १: तर्पयति । तद्वत् सज्जनः पुणैः प्रागभाजा तोषं रचयति ॥ २१ ॥ धौतक्रमसरसिजाः देवा: स्वर्गलोके सौख्यदाः भवन्ति । सेव्यमानाः पृथ्वीपालाः कालतः भनं प्रददति । स्थिरस्य कृतिनः पुंसः 1 हारका विस्तार करती हैं, धर्ममें बुद्धिको अतिशय लगाती है, तथा पापबुद्धिको नष्ट करती है || १९ || जिस प्रकार चन्दन शरीरके अतिशय खण्डित किये जानेपर भी अपने गन्धको नहीं छोड़ता है— उसे अधिक ही फैलाता है, जिस प्रकार ईख (गन्ना) कोल्हू यंत्रोंके द्वारा पीड़ित होता हुआ भी अपनी मधुरताको ( मिठासको नहीं छोड़ता है, तथा जिस प्रकार हितकारक सुवर्ण छेदा जाकर घिसा जाकर एवं अग्निसे सन्तप्स हो करके भी अपने स्वरूपसे विचलित नहीं होता है—उसे और अधिक उज्ज्वल करता है; उसी प्रकार सज्जन मनुष्य दुष्ट जनोंके द्वारा पीड़ित हो करके भी विपरीत स्वभावको (दुष्टताको ) नहीं प्राप्त होता है || २० || जिस प्रकार निस्वार्थ होकर सूर्य अपनी किरणोंके द्वारा कमलोंके लिये मोदको देता है-- उन्हें प्रफुल्लित करता है, जिस प्रकार चन्द्रमा समुद्रको वृद्धिंगत करता है, तथा जिस प्रकार मेघ लोगोंको पानीकी वर्षासे सन्तुष्ट करता है; उसी प्रकार सज्जन मनुष्य प्राणियोंको अपने गुणोंके द्वारा सन्तुष्ट करता है ।। २१ । देव लोग चरण कमलोंके प्रक्षालित करने पर उनकी सेवा करने पर स्वयं लोकमें सुख देते हैं और राजा लोगोंकी सेवा करने पर वे समयानुसार ही धनको देते हैं । परन्तु सज्जन पुरुषके आश्रयमें गये हुए पुण्यशाली मनुष्यको कीर्ति, प्रीति, शान्ति, निपुणता, पूज्यपना और तत्त्वज्ञान ये सब शीघ्र ही प्राप्त होते हैं । अभिप्राय यह है कि देवोंकी आराधना करने पर वे केवल स्वर्ग में ही सुख दे सकते हैं, न कि सर्वत्र, इसी प्रकार राजाओंकी सेवा करने पर जब वे प्रसन्न होते हैं तब ही मनुष्यको वन देते हैं। परन्तु सज्जनको संगति करने पर मनुष्यको सर्वत्र और सदा ही कीर्ति आदि १ स घुष्टो' । २स मंदमंत्रो । ३ स शीतपोतिः १४ स विदत्तं । ५ स स्तद्वद्दोष, स्तद्वतेषां । ६ स स्वर्गलोके । ७स कीर्तिः । ८ स 'पटुता पू तत्त्वयोधा । ९ स श्रितस्य । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 479 १८-२४] १८. सुजननिरूपण चतुविशतिः 472) यद्वद्वाचः प्रकृतिसुभगाः सज्जनानां प्रसूताः शोकक्रोप्रभूति जखपुस्तापविष्वंसवक्षाः । पुंसां सौख्यं विदधतितरां शीतलाः सर्वकालं तच्छीत तिरुचिलवा' नामृतस्यन्दिनो ऽपि ॥ २३ ॥ 473) आष्टोऽपि व्रजति न स्वं भाषते नापभाष्यं नोत्कृष्टोऽपि प्रवहति मदं शोधैर्याविषः । यो यातोऽपि व्यसनमनिशं कातरत्वं न याति सन्तः प्राहुस्तमिह सुजनं तत्त्वबुद्धघा विवेच्य ॥ २४ ॥ इति 'सुजन निरूपणचतुर्विंशतिः १८ ॥ १३५ कोतिप्रीतिप्रशम पटुतापूज्यतातत्ववोधाः झटिति संपद्यन्ते ।। २२ ।। यद्वत् सज्जनानां प्रसूताः प्रकृतिसुभगाः शोकक्रोधप्रभूति - जब पुस्तापविध्वंसदक्षाः शीतला वाचः सर्वकालं पुंसां सौख्यं विदधतितराम् । तद्वत् अमृतस्यन्दिनोऽपि शीतद्युतिरुचिलवाः न सन्ति ।। २३ ।। आक्रुष्टः अपि यः वर्ष न व्रजति, अपमाध्यं न भापते, शौर्यधैर्यादिधर्मः उत्कृष्टः अपि मदं न प्रवहति । अनि व्यसनं यातः अपि यः कातरत्वं न याति । इह सन्तः तत्वबुद्या विवेच्य तं सुजनं प्राहुः ॥ २४ ॥ इति सुजननिरूपणचतु विंशतिः ॥ १८ ॥ उपर्युक्त उत्तम गुण प्राप्त होते हैं ।। २२ ।। जिस प्रकार सज्जनोंके मुखसे उत्पन्न हुए शीतल वचन स्वभावसे सुन्दर तथा शोक व क्रोध आदिके कारण उत्पन्न हुए शरीरके सन्तापको दूर करते हुए निरन्तर प्राणियोंको अतिशय सुख देते हैं उस प्रकार अमृतको बहाने वाले चन्द्रमाके शीतल किरण भी नहीं देते हैं। तात्पर्य यह कि सज्जनोंके वचन चन्द्रमाकी शीतल किरणोंकी अपेक्षा भी अधिक शान्ति प्रदान करते हैं ॥ २३ ॥ जो गालियोंको सुन करके भी न तो क्रोध करता है और न उसके प्रतीकारके लिये अपशब्द ही बोलता है-गालियाँ हो देता है, जो शूरवीरता एवं धीरता मादि धर्मोसे उत्कृष्ट हो करके भी कभी गर्वको धारण नहीं करता है, तथा जो निरन्तर पीड़ा को प्राप्त हो करके भी कभी कायरताको प्राप्त नहीं होता है; उसे यहाँ साधुजन यथार्थ दृष्टिसे देखकर सज्जन बतलाते हैं ॥ २४ ॥ इस प्रकार चौबीस श्लोकों में सुजनका निरूपण किया ॥ १८ ॥ १ स°लवानमृत° । २ स आकृष्टो, आकष्टो स नापभाषं । ४ स नो कुष्टो । ५ स सज्जननिरूपणम् । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९, दाननिरूपणचतुर्विशतिः ] 474) तुष्टिश्रद्धाविनयभजना'लुब्धताक्षान्तिसत्त्व प्राणत्राणव्यवसितिगुणज्ञानकालजताया। वानासक्ति जननमृतिभी श्चास्तिको भत्सरेय?" वक्षात्मा यो भवति स नरो वातमुल्यो जिनोक्तः ।। १॥ 475) काले ऽन्नस्य क्षुषमवहितो वित्समानो विधृत्य नो भोक्तव्यं प्रथममतिथेयः सवा तिष्ठतीति । तस्याप्राप्तावपि गतमलं पुण्यराशि अयन्त तं वातार जिनपतिमते मुल्यमाहोजनेन्द्राः॥२॥ 476) सर्वाभीष्टा बुधजननुता धर्मकामार्थमोक्षाः सत्सौख्यानां बितरणपरा दुःखविध्वंसयक्षाः । लब्बू शक्या जगति न यतो ओवितव्यं विनव तहानेन ध्रुवमसुभृतां कि न बत्तं ततो ऽत्र ॥३॥ यः नरः तुष्टिश्रद्धाविनयभजनालुब्धताशान्तिसत्त्वप्राणत्राणव्यवसितिगुणज्ञानकालजताढ्य दानासक्तिः जननमृतिभीः आस्तिकः अमत्सरेष्यः च दशात्मा भवति स जिनोक्तः दातमुख्यः भवति ।। १॥ दित्समानः यः अन्नस्य काले अबाहितः अतिथेः प्रथम नो भोक्तव्यम् इति शुधं विश्रुत्य सदा तिष्ठति तस्य अप्राप्तौ अपि गतमलं पुण्यराशि श्रयन्तं तं दातार जिनेन्द्राः जिनपतिमते मुख्यम् आहुः ॥२॥ यतः जगति सर्वाभीष्टाः बुधजननुताः दुःखविध्वंसदक्षाः सत्सौख्यानां वितरणपराः धर्मकामार्थ मोलाः जीवित विना लन्धु नैव शक्याः। ततः तहानन ध्रुवम् अत्र असुभता किन दत्तम् ।। ३ ।। जो मनुष्य सन्तोष, श्रद्धा, विनय, भक्ति, लोभ-हीनता, क्षमा, जीवरक्षानिरतता, गुणग्राहकता और कालज्ञता, इन गुणोंसे सम्पन्न है; दान देनेमें अनुराग रखता है, जन्म व मरणसे भयभीत है, तत्त्वश्रद्धानी है, मत्सरता और ईर्ष्यासे रहित है, तथा योग्यायोग्यके विचारमें दक्ष है वह श्रेष्ठ दाता होता है; ऐसा जिन देवने निर्दिष्ट किया है ॥ १ ॥ जो दान देनेका इच्छुक दाता आहारके समयमें सावधान रहकर 'अतिथिके पहलेमुनिको आहार देनेके पहले---भोजन करना योग्य नहीं है' ऐसा सोचकर भूखा रह करके निरन्तर स्थित रहता है वह भतिथिके अलाभमें भी निर्मल पुण्यराशिका संचय करता है। जिनेन्द्र भगवान् उस दाताको अपने मतमें मुख्य दाता बतलाते हैं ।। २ । जो धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ सब मनुष्योंके लिये प्रिय हैं, जिनकी पण्डित जन स्तुति करते हैं, जो समीचीन सुखके देने में तत्पर हैं और जो दुखके नष्ट करनेमें समर्थ हैं वे चूंकि जीवनके बिना संसारमें कभी प्राप्त नहीं किये जा सकते हैं अतएव उस जीवनके दानसे यहाँ प्राणियोंको निश्चयसे क्या नहीं दिया गया है ? अर्थात् सब कुछ ही दिया गया है ।। ३॥ विशेषार्थ---धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये पुरुषके प्रयोजनभूत चार पुरुषार्थ हैं । मनुष्य यदि जीवित है तो वह गृहस्थ अवस्थामें रहकर परस्परके १स भजता , भजना लब्धता क्षान्ति' । २ स व्यवसति, व्यवसित° । ३ सशक्ति। ४ समतिभि । ५ स मत्परोयों मत्स । ६ स न्यस्य । ७ स व्यवहितो। ८ स सयंते, श्रर्यते । ९ स नयतो। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ 479 : १९-६] १९. दाननिरूपणचतुर्विशतिः 477) कृत्याकृत्ये कलयति यतः कामकोपो लुनीते धर्मे श्रद्धां रचयति परां पापवुद्धि पुनीते। अक्षार्थेम्यो विरमति रजो हन्ति चित्तं पुनीते तदातव्यं भवति विदुषा शास्त्रमत्र तिम्यः ॥४॥ 471) भार्थाभ्रातृस्वजनतनयान्यनिमित्तं त्यमन्ति प्रजासत्त्वव्रतसमितयो यढिना यान्ति नाशम् । भुदरःलेन ग्लपितवपुषो भुञ्जते सत्वभक्ष्य' तदातव्यं भवति विदुषा संयतम्यान्नभुखम् ॥५॥ 479) सम्यग्निधाशमदमतपोध्यानमौनव्रतावर्ष श्रेयोहेतुर्गतरुनि सनौ जायते येन सर्वम् । तत्साधूनां व्यषितवपुषां तोवरोगप्रपत्रस्तद्रक्षार्थ वितरत जनाः 'प्रासुकान्योषधानि ॥६॥ यतः कृत्माकृत्ये कलयति, कामकोपो लुनौते, धर्म परां श्रद्धा रचति, पापबुद्धि धुनीते, अक्षार्थेम्यो विरमति, रजो हन्ति, चित्तं पुनीते, तत् शास्त्रम् अत्र विदुषा प्रतिभ्यः दातव्यं भवति ।। ४ ॥ निमित्तं भाभ्रिातृस्वानवनयान् त्यन्ति, प यदिना प्रज्ञासस्ववतसमितयः नाशं यान्ति, (च यदिना) सुदुःलेन ग्लपितवपुषः अभक्ष्यं भुजते, तत् बम्मनुढे विदुषा संयताय दातम्यं भवति ॥ ५ ॥ येन तनी गतरुजि सव' सम्यग्विद्याशमदमतपोध्यानमौनव्रताड्यं थेयोहेतुः जायते तत् तीनरोगप्रपञ्चैः व्यथितवपुषां साधूनां तद्रक्षार्थ [ हे ] जनाः प्रासुकानि औषधानि वितरत ।। ६ ॥ कन्यास्वर्गद्विपहपपरागो विरोधसे रहित धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थीका सेवन करता हुआ अन्तमें समस्त परिग्रहको छोड़कर चतुर्थ मोक्ष पुरुषार्थको भी सिद्ध कर सकता है। किन्तु यदि उसका जीवन ही नष्ट हो जाता है तो फिर उक्त पुरुषार्योंका सेवन करना असम्भव हो जाता है। इसीलिये जो दाता प्राणियोंके लिये जीवनदान देता है-सव प्रकारसे उनके प्राणोंको रक्षा करके उन्हें अभयदान देता है वह अतिशय प्रशंसाका पात्र है। कारण यह कि ऐसा करके उसने प्राणोको उक्त पुरुषार्थोके साधनमें समर्थ कर दिया जो कि सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है ॥ ३ ॥ जिस शास्त्रको सहायतासे प्राणी कार्य-अकार्यका निश्चय करता है, काम और क्रोधको नष्ट करता है, धर्मके विषयमें दृढ़ श्रद्धानको उत्पन्न करता है, पाप बुद्धिको दूर करता है, इन्द्रिय विषयोंसे ( भोगोंसे ) विरक्त होता है, कर्म रूप धूलिको नष्ट करता है, और चित्तको पवित्र करता है; विद्वान् मनुष्यको यहाँ व्रती जनोंक लिये उस शास्त्रका दान करना चाहिये-ज्ञानदान देना चाहिये ॥ ४॥ जिस भोजनके निमित्तसे मनुष्य स्त्री, भाई, कुटुम्बी जन और पुत्रको भी छोड़ देते हैं, जिसके बिना बुद्धि, बल, व्रत और समितियां नष्ट हो जाती हैं। तथा जिसके बिना मनुष्य भूखसे पीड़ित होकर अभक्ष्यका भक्षण करते हैं; विद्वान् मनुष्यको संयमी उनके लिये उस शुद्ध भोजनका दान करना चाहिये ।। ५॥ शरीरके नोरोग रहने पर हो कि समीचीन ज्ञान, शान्ति, दान्ति, तप, ध्यान, मौन और व्रतसे सम्पन्न सब ही कार्य कल्याणका कारण होता है; इसीलिये मनुष्योंको तीव्र रोगोंके विस्तारसे जिनका शरीर पोहित हो रहा है उन साधुओंके लिये निर्दोष औषधोंको प्रदान करना चाहिये । कारण कि ऐसा करनेसे उनको उक्त रोगोंसे रक्षा होती है और इससे वे यथार्थ सुखके माधनभूत उपर्युक्त सम्यग्ज्ञानादि १ स त्वभक्षं 1 २ स जताऔं । ३ सचि । ४ स प्राशुका । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ 1480 : १९ सुभाषितसंदोहः 480) साक्द्यत्वान्महवपि फलं न विधातुं समर्म कन्यास्वर्णद्विपहयषरागोमाहिण्याविवानम् । त्यक्त्वा' वद्याग्जिनमतदयाभेषजाहारदानं भरवाप्यल्पं विपुलफलदं दोषमुक्त नियुक्तम् ॥७॥ 481) नीतिश्रीतिश्रुतिमतितिज्योतिभक्तिप्रतीति प्रीतिज्ञातिस्मृतिरतियतिल्यातिशक्तिप्रगीतीः । यस्मादेहो जगति लभते नो विना भोजनेन तस्माद्दान स्पुरिह बदता ताः समस्ताः प्रशस्ताः॥८॥ 482) वर्पोद्रेकव्यसनम नकोषयुतप्रवाषा पापारम्भः क्षितिहतषियां जायते यन्निमित्तम् । 'यत्संगृह्य श्रयति विषयान् दुःखितं यत्स्वयं स्या'घदुःखाडप प्रभवति न तच्छलाध्यते ऽत्र प्रदेयम् ॥९॥ महिष्यादि दानं महदपि साववत्वात् फलं विधातुं समर्थ नो भवति । तत् त्यक्त्वा दोषमुक्तम् अल्पं भूत्वापि विपुलफलद जिनमतदयाभेषजाहारदानं नियुक्तं दद्यात् ।। ७ ।। यस्मात् देही जगति भोजनेन विना नीतिश्रीतिथुतिमतितिज्योतिभक्तिप्रतीति-प्रीतिज्ञातिस्मृतिरतियतिख्यातिशक्तिप्रगीती: नो लभते, तस्मात् इह दानं ददता [तः ] ताः समस्ताः प्रशस्ताः स्यु.॥८॥ यनिमित्तं क्षितिहतधियां वर्षोदेकण्यसनमथनकोषयुद्धप्रबाघापापारम्भः जायते, पत्संगृह विषयान् श्रर्यात, यत्स्वयं दुःखित स्यात्, यत् दुःखाढ्यं प्रभवति, अत्र तत् प्रदेयं न इलाध्यते ।। ९॥ यद् गृहीत्वा साघुः निजिताक्षः रत्न के धारण करनेमें समर्थ होते हैं ।।६।। कन्या, सुवर्ण, हाथी, घोड़ा, पृथिवी, गाय और भैंस आदिका दान अधिक प्रमाणमें हो करके भी उत्तम फलके करने में समर्थ नहीं है; क्योंकि, वह पापोत्पादक है। इसलिये उपयुक्त दानको छोड़कर जिन भगवान्के द्वारा निर्दिष्ट दया ( अभयता ) औषध और आहारका दान देना चाहिये । कारण कि जिनेन्द्र द्वारा नियुक्त ( आदिष्ट ) यह दान अल्प मात्रामें भी होकर निर्दोष होनेसे महान् फलको देनेवाला है ।। ७ ।। चूंकि संसारमें प्राणी भोजनके बिना नीति, परिपक्वता श्रुत, बुद्धि, धैर्य, ज्योति, भक्ति, ज्ञान, प्रीति, शाति, स्मरण, रति, संयम, प्रसिद्धि, शक्ति और प्रगीति ( गानप्रकर्षता ) को नहीं प्राप्त कर सकता है अतएव उस भोजनका दान करना चाहिये । उक्त आहारके देनेसे प्राणोके वे सब प्रशस्त गुण प्राप्त होते हैं ।। ८ ॥ जिस देय वस्तुके निमित्तसे अयसे प्रतिबद्ध बुद्धिवाले पात्रोंके अभिमानकी बुद्धि, कष्ट, आकुलता, क्रोध, युद्ध, प्रकृष्ट । बाषा और पापका आरम्भ होता है। जिसका संग्रह करके जोव विषयोंका बाश्रय लेता है, तथा जो स्वयं दुखित होता हुआ दुखसे व्याप्त जीवको प्रभावित करता है, उस देय वस्तुको यहाँ प्रशंसा नहीं की जाती है । अभिप्राय यह है कि जिस आहार आदिके ग्रहण करनेसे संयमी जनके आकुलता या अशान्ति उत्पन्न हो सकती है, विवेकी दाताको ऐसे किसी आहार आदिको दान नहीं करना चाहिये ॥ २॥ जिस देय वस्तुको ग्रहण करके इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करता हुआ साधु रत्नत्रयमें लीन हो जाता है, समस्त कल्याणकी जड़स्वरूप निर्मल धर्मको धारण १स पूत्वा । २ स वियुक्तं । ३ स प्रगीतिः। ४ समयनं । ५ स रंभ, रंभा, रम्भक्षितिहिति । ६ स तस्संगृह्य । ७ स श्रब्यति । ८ स om, यद् । १ स दुःखाचं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 : १२-१३ । १९. दाननिरूपणचतुर्विंशतिः 483) साधु रत्लत्रितयनिरतो जायते निजिताक्षो धर्म धत्तं व्यपगतमलं सर्वकल्याणमूलम् । रागद्वेषप्रतिमथन यद्गृहीत्या विषसे तदातव्यं भवति यिदृषा वेयमिष्टं सदेव' ॥ १०॥ 484) धर्मध्यानवतसमितिभूसंवतश्वास पात्रं व्यावृत्तास्मा असहननतः धावको मध्यमतु। सम्मष्टिवतविरहितः पावकः स्याजधम्म मेवं प्रेषा जिमपतिमते पात्रमाहः श्रुतमाः॥११॥ 485) यो जीवानां जनसहशः सत्यवायत्तमोजी सप्रेमस्त्रोनयनविशिस्त्राभिनषितः स्पिरात्मा। द्वेषा प्रथादुपरत मनाः सर्वपा निर्विताक्षों वातुं पात्रं व्रतपतिममुं 'वर्यमाहुजिनेन्द्राः ।। १२॥ 486) यद्वतीयं निपतति घनादेकाप रसेन . प्राप्याषारं सगुणमपुणं याति नानाविषत्वम् तदानं सफलमफलं "पात्रमाप्येति मत्वा देयं वा "शमयमभृतां संयतानां यतोमाम् ॥ १३ ॥ त्रितयनिरतः जायते, सर्वकल्याणमूलं व्यपगतमलं धर्म पत्ते, रागद्वेषप्रभृतिमथनं विपत्ते, विदुषा सदैव इष्टं तत् देयं दातव्यं भवति ।। १० ।। धर्मध्यानवतसमितिभृत् संयतः पार पात्रम् । तु सहननतः व्यावसारमा श्रावक: मध्यम पात्रम् । व्रतविरहितः सम्यग्दृष्टिः पावकः जघन्य पात्रं स्यात् । श्रुतज्ञाः जिनपतिमसे एवं विधा पात्रं प्राहुः ॥ ११ ।। यः जीवानां जनकसदशः, सत्यवाक, दतभोजी, सप्रेमस्त्रीनयनविशिवाभिम्नचित्तः, स्थिरात्मा, रोषा ग्रन्यादुपरवमनाः, सर्वथा निजिताक्षः अम् व्रतपति जिनेन्द्राः दातुं वर्य पात्रम् आहुः॥ १२ ॥ मत् बनात् रसेन एकरूपं तोयं निपतति, सगुणम् बाधारं प्राप्य नानाकरता है, तथा राग-द्वेष आदिको नष्ट करता है: विद्वान् मनुष्यको निरन्तर ऐसी हिसकर वस्तुको देना चाहिये ॥ १० ॥ धर्मध्यान, व्रत { महाव्रत ) एवं पांच समितियोंको धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र; सहिंसासे रहित श्रावक मध्यम पात्र, और व्रतोंसे रहित सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य पात्र होता है। इस प्रकार आगमके जानकार गणश्रादि जिनेन्द्रके शासनमें पात्रको तीन प्रकार बतलाते हैं ॥ ११ ॥ जो पिताके समान जीवोंका रक्षण करता है-अहिंसा महायतका पालन करता है, सत्य वचन बोलता है अर्थात् सत्यमहाव्रतको धारण करता है, दिये गये आहारको ग्रहण करता है--अदत्तग्रहणका सर्वथा त्याग करके अचौर्यमहावतका परिपालन करता है, जिसका चित्त प्रेम करनेवाली स्त्रियोंके नेत्र ( कटाक्ष ) रूप बाणोंसे भेदा नहीं जाता है जो ब्रह्मचर्य महाव्रतका धारी है, अपने कार्य में दृढ़ है, जिसका मन दोनों प्रकारके परिग्रहसे सर्वथा विरक्त हो चुका है-जो अपरिग्रह महावतका पालन करता है, तथा जिसने इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है। उस व्रतपरिपालक मुनिको जिनेन्द्र भगवान् दान देनेके लिये उत्तम पात्र बतलाते हैं ।। १२ ।। जिस प्रकार जल मेघसे तो रसको अपेक्षा एक रूप ही गिरता है, परन्तु वह गुणवान और गुणहोन आधारको-ईख व सर्पके मुल आदि १स दत्ते । २ स प्रभृति मथनं । ३ स तदेव, तदेव, सदैव । ४ स भाप सहननतः । ५ स स्याजधान । ६ स °मेव । ७ सदुपरम । ८ स निज्जितायो । ९ स चर्य°, वल । १० स विधित्वं । ११ स पापमपीति, पावमप्येति । १२ स तद्वद्दानं । १३ स सम" । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सुभाषित संबो 437 ) यद्वत्क्षिप्तं गलति सकलं छिद्रयुक्ते घटे इम्भ'स्तिकतालाबूनिहितमहितं जायते दुग्धमुखम् आमे पात्र रचयति भिवां तस्य नाशं च याति तद्दत्तं विगततपसे केवलं ध्वंसमेति ॥ १४ ॥ 488) छतविरहिताः क्रोधलोभाविवन्तो : नानारम्भप्रहितमनसो ये भवप्रन्थसक्ताः ' । ते वातारं कथमसुखतो रक्षितुं सन्ति शक्ता नावा लोहं न हि जलनिधेस्तायंते लोहमय्या || १५ ॥ [ 487 : १९-१४ विधत्वं याति । तद्वत् दानं पात्रम् माप्य सफलम् अफलं भवति इति मत्वा शमयमभूतां संयतानां यतीनां दानं देयम् ॥ १३ ॥ यत् छिद्रयुक्ते घटे क्षिप्तं सकलम् अम्भः गलति । तिक्तालाबूनिहितम् उद्धं दुग्धम् अहितं जायतें । आमे पात्रे निहितं दुग्धं तस्य भिदां रचयति नाशं गाति च । तद्वत् विगततपसे दत्तं केवलं ध्वंसम् एति ॥ १४ ॥ ये शश्वच्छीलव्रत विरहिताः कोषलोभादिवन्तः नानारम्भप्रहितमनसः मदग्रन्थसमता ते दातारम् असुखतः रक्षितुं कथं शक्ताः । हि लोहमय्या नावा जलनिधे लोहं न तायते ।। १५ ।। यथा क्षेत्र द्रव्यप्रकृतिसमयान् वीक्य उप्तं बीजं चारुसंस्कारयोगात् को - पाकर अनेकरूपताको प्राप्त हो जाता है; उसी प्रकार दान भी पात्रको प्राप्त करके सफल अथवा निष्फल हो जाता है । यह विचार करके शान्ति एवं संयमको धारण करनेवाले संयमी मुनियोंके लिये दान देना चाहिये || १३ || जिस प्रकार छिद्रयुक्त घड़े में रखा हुआ समस्त जल नष्ट हो जाता है, कडुवी तुंबड़ीमें रखा हुआ प्रशस्त ( मधुर ) दूध अहित कारक ( कडुवा ) हो जाता है, तथा कच्चे मिट्टीके पात्रमें रखा हुमा जल या दूध उसको नष्ट कर देता है और स्वयं भी नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार तपसे हीन मनुष्यको दिया गया दान केवल नाशको प्राप्त होता है ॥ १४ ॥ विशेषार्थं जिस प्रकार छिद्रयुक्त घड़े में रखा गया जल अथवा ऊसर भूमिमें बोया गया बोज व्यर्थ जाता है उसी प्रकार अपात्रके लिये दिया गया दान भी व्यर्थ हो जाता है - दाताको उसका कुछ भी फल प्राप्त नहीं होता, जिस प्रकार कडुवो बड़ो में रखा हुआ दूध अथवा सर्पके जाता है-उसी प्रकार दुष्ट जनके लिये तथा जिस प्रकार कच्चे मिट्टोके में गया हुआ दूध विकृत हो जाता है - कडुवा और विषैला हो दिया गया दान भी विकृत हो जाता है-दाताके लिये अहितकर हो जाता है, वर्तनमें रखा गया जल स्वयं तो नष्ट होता हो है साथमें वह उस वर्तनको भी नष्ट कर देता है उसी प्रकार अयोग्य पात्रके लिये दिया गया दान भी स्वयं नष्ट होकर उस पात्रको भी नष्ट कर देता है—उसे विषयव्यामुग्ध करके नरकादि दुर्गतिमें पहुँचाता है। इसीलिये बुद्धिमान दाताको पात्रके योग्यायोग्यका विचार करके ही दान देना चाहिये || १४ || जो मनुष्य निरन्तर शील व व्रतोंसे रहित हैं, क्रोध व लोभ आदिसे कलुषित हैं, अनेक प्रकारके आरम्भमें मनको लगाते हैं, तथा मद व परिग्रहमें आसक्त है; वे भला उस दाताकी दुखसे रक्षा करनेके लिये कैसे समर्थ हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं। ठीक है - लोहनिर्मित नाव समुद्रसे लोहेको पार नहीं पहुँचाती है | अभिप्राय यह कि जिसप्रकार लोहेकी नाव स्वयं तो समुद्रमें डूबती ही है, साथ ही वह उसमें रखे हुए लोहे आदि भारी द्रव्यको भी उसमें डुबा देती है, उसी प्रकार अयोग्य जनके लिये दिया हुआ दान यों ही १ स ॰स्त्यक्त्वालाछू”, “लांबू । २ समुद्धं मुग्धं, "मुर्य, दुग्धमथम् । ३ स आमाप्रये । ४ स नाशत्वयात | ५ स तद्वदस्तं । ६ स शक्ताः। ७ स स्तोते । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ 191 : १९-१८] १९. दाननिरूपणचतुर्विंशतिः 489) क्षेत्रद्रव्यप्रकृति समयान्वीक्ष्य' योजं यथोप्तं दत्ते सस्यं विपुलममलं चारसंस्कारयोगात् । वत्तं पात्र गुणवति तथा बानमुक्तं फलाम सामनीतो भवति हि जने सर्वकार्यप्रसिद्धिः ॥ १६ ॥ 490) नानादुःखव्यसननिपुणान्नाशिनो तृप्तिहेतून् कर्मारातिप्रचपनपरीस्तरवतो ऽवेस्थ' भोगान् । मुक्त्याफाझा विषयविषर्या कर्मनिशनेको वादानं प्रगुणमनसा संपतायापि विद्वान् ॥ १७ ॥ 491) यस्मै गत्या विषयमपरं बीयते पुण्यवद्भिः" पात्र तस्मिन् गहमुपगते संयमाघारभूते। नो यो महो वितरति बने विद्यमाने ऽप्यनल्पे तेनात्मात्र स्वयमपषिया वनितो मानबेन ॥१८॥ विपुलम् अमलं सस्यं दत्ते, तथा गुणयति पात्रे दत्तं दानं फलाय उक्तम् । हि जमे सामग्रीतः सर्वकार्यप्रसिद्धिः ॥ १६॥ नानादुःखव्यसननिपुणान् नाशिनः अतृप्तिहेतुन् कर्मारातिप्रपयनपरान् भोगान् तत्त्वत: अवेत्य विषयविषयो काक्षां मुफ्त्या कर्मनिर्णाशनेच्छः विद्वान् प्रगुणमनसा संयताय दानम् अपि दद्यात् ।। १७ ॥ अपरं विषयं गत्वा पुण्यवद्रिः यम्भ बीयते, संयमाधारभूत तस्मिन् पाने गृहम् उपगते सति अनपे घने विद्यमाने अपि यो मूढः नो वितरति तेन अपषिया मानवेन यत्र जाकर उस पात्र और दाताको भी नष्ट कर देता है उन्हें आपत्तिग्रस्त कर देता है ।। १५ ।। जिस प्रकार भूमि, द्रव्य, प्रकृति और कालको देखकर बोया गया बीज सुन्दर संस्कारके सम्बन्धसे-निराने गोड़ने आदिके निमित्त से-बहुत अधिक उत्तम अनाजको देता है उसी प्रकार गुणवान् पात्रके लिये दिया गया दान भी महान् फलको देता है—भोगभूमि या स्वर्गके अभ्युदयको प्राप्त कराता है, ऐसा आगममें निर्दिष्ट है। ठीक हो है मनुष्यके लिये समस्त कार्यसिद्धि सामग्री के निमित्तसे ही होती है ॥ १६ ॥ विशेषार्थ--जिस प्रकार यदि सुयोग्य किसान भूमि, बीज और ऋतु आदिको योग्यताको देखकर खेतमें बीज बोता है तथा समयानुसार उसकी निराई मादि भी करता है तो उसे इसके फलस्वरूप निश्चयसे कई गुना अनाज प्राप्त होता है । ठीक इसी प्रकारसे जो विवेकी दाता दानको विधि ( नवधा भक्ति आदि ), देने योग्य द्रव्य ( आहार आदि), दाताके गुण और पात्रके भी गुणोंका विचार करके तदनुसार ही पात्रके लिये दान देता है तो वह यदि सम्यग्दृष्टि है तो नियमसे उत्तम देवोंमें उत्पन्न होता है और तत्पश्चात् मनुष्य होकर समयानुसार मोक्षको भी प्राप्त कर लेता है। परन्तु यदि वह सम्यग्दृष्टि नहीं है--मिथ्याइष्टि है--तो भी वह यथायोग्य लत्तम, मध्यम अथवा जघन्य भोगभूमिके भोगोंको भोगकर तत्पश्चात् देवोंमें उत्पन्न होता है । अन्तत: मोक्षमार्गमें स्थित होकर वह भी मोक्ष सुखको प्राप्त कर लेता है ॥ १६ ॥ कर्मनाशका इच्छुक विद्वान् विषयभोगोंको यथार्थत: अनेक दुःखों एवं आपत्तियोंको प्राप्त करानेवाले, नश्वर, तृष्णाके बढ़ानेवाले और कर्मरूप शत्रुओंके संचयमें तत्पर जानकर तद्विषयक अभिलाषाको छोड़ता हुमा संयमी जनके लिये सरल चित्तसे दान देवे ।। १७ । पुण्यात्मा जम जिसके लिये दूसरे देशमें जाकर दान देते हैं संयमके आश्रयभूत ( संयमी ) उस पात्रके स्वयं ही पर आ जानेपर तथा बहुत धनके रहनेपर भी १ स भूति° । २ स वीक्ष । ३ स वासिनो। ४ स वेत्यभोगान् । ५ स पुण्यविद्भिः, "विति। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 492 : १९-१३ १४२ सुभाषितसंदोहः 492) श्रुत्वा वानं कथितमपरैर्दीयमानं परेण श्रद्धां धत्ते व्रजति च परां तुष्टिमुत्कृष्टबुद्धिः। दृष्ट्वा दानं जनयति मुदं मध्यमो दीयमानं दृष्ट्वा श्रुत्वा भजति मनुजो नानुराग जघन्यः ॥ १९ ॥ 493) वीर्घायुष्कः शशिसितयशोव्याप्तविषयकवाल: सद्विद्याथीकुलबलषनप्रीतिकोतिप्रतापः । रो धोरः स्थिरतरमना निर्भयश्वारूप स्त्यागी भोगी भवति भविना दामोतिप्रदायी ॥ २०॥ 494) कर्मारण्यं वहति शिखिचन्मातृवत्पाति दुःखात सम्यग्नीति वदति गुरुवत्स्वामिवरद बिति । तस्वातत्स्वप्रकटनपटुः स्पष्टमाप्नोति पूतं तत्संज्ञानं विगलितमलं शानरानेन मर्पः ॥ २१ ॥ मात्मा स्वयं वञ्चितः ॥ १८॥ उत्कृष्टबुद्धिः परेण दीयमानम् अपरैः कथितं दानं श्रुत्वा यदां धत्तं च परां तुष्टि प्रति । | मध्यमः दीयमानं दानं दृष्ट्वा मुदं जनयति । अबन्यः मनुजः (दीयमान) दृष्ट्वा च श्रुत्वा अनुरागं न भजति ॥ १९ ॥ भविनाम् अभीतिप्रदायी देही दीर्घायुष्कः शशिसितयशोव्याप्त दिक्चक्रमल:, सद्विद्याथीकुलवलघनपोतिकीर्तिप्रतापः, सरः, धीरः, स्थिरतरमनाः, निर्भयः चारुरूपः, त्यागी, भोगी भवति ॥ २० ॥ यत् शिखिवत् करण्यं दति, मातृवत् दुःखात् पाति, गुरुवत् सम्यक नीति बदति, स्वामिवत् विति, तत् स्पष्ट, पूतं, विगलितमलं संज्ञान मत्यः तत्त्वातत्वप्रकटनपटुः [ सन् ] आप्नोति ॥ २१ ॥ मत्यः अन्नस्य दानात् दाता, भोक्ता, बहुधनपुतः, सर्वसत्त्वानुकम्पी, सत्सोभाग्यः, मधुरवचनः, जो मूर्ख दान नहीं देता है बह दुर्बुद्धि मनुष्य स्वयं अपने आपको ठगता है-दुर्गसिमें डालता है ॥ १८ ॥ उत्तम वुद्धिका धारक मनुष्य दूसरेके द्वारा दिये जानेवाले दानके विषय में दूसरोंसे की गई प्रशंसाको सुनकर उत्कृष्ट श्रद्धाको धारण करता हुआ अतिशय सन्तोषको प्राप्त होता है। मध्यम बुद्धिका धारक मनुष्य स्वयं या दूसरेके द्वारा भी दिये जानेवाले दानको देखकर हर्षित होता है । परन्तु होनबुद्धि मनुष्य दिये जानेवाले दानको देखकर और सुनकर भी अनुरागको नहीं प्राप्त होता है ।। १९ ।। प्राणियोंके लिये अभयदान देनेवाला मनुष्य लम्बी आयुसे सहित, चन्द्रके समान धवल यशसे दिङ्मण्डलको व्याप्त करनेवाला; सम्पग्ज्ञान, उत्कृष्ट लक्ष्मी, उत्तमकुल, बल, धन, प्रीति, कीति और प्रतापसे संयुक्त; पराक्रमी, धीर, अतिशय दृढ़चित्त, निर्भय, सुन्दर रूपवाला, त्यागी तथा भोगो होता है ।। २० ।। जो सम्यग्ज्ञान अग्निके समान कर्मरूपी वनको जलाता है, माताके समान दुःखसे रक्षा करता है, गुरुके समान समोचीन नीतिको बतलाता है, स्वामीके समान पोषण करता है, और तत्त्व-अतत्त्वके प्रगट करनेमें दक्ष होता है; उस स्पष्ट, पवित्र एवं निर्मल सम्यग्ज्ञानको मनुष्य शानदानके द्वारा प्राप्त करता है ।। २१ ॥ मनुष्य आहारके देनेसे दाता, सुखका भोक्ता, बहुत धनसे सहित, समस्त जीवोंपर दया करनेवाला, पुण्यशाली, मिष्टभाषी, कामदेवसे भी अधिक सुन्दर, विद्वान् और अहंकारसे १ स सानुराग जंपन्याः । २ स "यशो व्याप्त । ३ स वीरः । ४ स भवति । ५ स सस्मि । ६ स. पटुः। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ 497 : १९-२४] १९. दाननिरूपणचतुविंशतिः 495) दाता भोक्ता बढेषनयुतः सर्वसस्वानुकम्पी 'सत्सौभाग्यो मधुरवचनः कामरूपातिशायी। शश्वद्भक्त्या बुषजनशतेः सेवनीयाशिघ्रयुग्मो ___मर्यः प्राज्ञो व्यपगतमदो जायते ऽस्मात्य दानात् ॥ २२॥ 496) रोगतिप्रभृतिजनितहिभिर्वाम्बुमग्नः सर्वाङ्गीणव्यथनपटुभिर्वाषितुं नो स शक्यः । आजन्मान्तः परमसुखिनः जायते चोषपाना दाता यो निर्जर'कुलवपुःस्थानकान्तिप्रतापः ॥ २३ ॥ 497) दत्त्वा वानं जिनमतरूचिः कर्मनि शनाय भुक्त्वा' भोगास्त्रियशवसतो दिव्यनारीसनाथः । मावासे वरकुलवपुजैनधर्म विषाय हत्या कर्म स्थिरतररिपुं मुक्तिसोल्यं प्रयाति ॥ २४ ॥ __ इति वाननिरूपण चतुर्विशतिः ॥ १९॥ कामरूपातिशायी, भक्त्या बुधजनशतः शाश्वत् सेवनीयांतियुग्मः, व्यपगतमदः प्राशः जायते ॥ २२ ॥ यः औषधानां दाता, सः वह्निभिः अम्बुमरतः वा वातप्रभूतिजनित: सर्वाङ्गीणज्यपनपटुभिः रोगैः वाषितुं न शक्यः । आजन्मान्तः परमसुखिना [तः ] निर्जरकुलवपुःस्थानकान्तिप्रतापः जायते ॥ २३ ॥ जिनमतरुचिः कर्मनिाशनाय दानं दत्वा त्रिदशवसतो दिग्यनारीसनापः भोगान् भुक्त्वा भल्वासे वरकुलवपुः जैनधर्म विधाय, स्थिरतर्रारपुं कर्म हत्वा मुक्तिसौख्यं प्रयाति ॥ २४ ।। __इति दाननिरूपणचतुर्विंशतिः ॥ १९ ॥ रहित होता है। उसके चरणयुगलकी सेवा निरन्तर भक्तिपूर्वक सैकड़ों विद्वान करते हैं ॥ २२ ॥ जो मनुष्य अतिशय सुखप्रद औषधियोंको देता है उसे जिस प्रकार जलमें डूबे हुए प्राणीको अग्नि बाधा नहीं पहुंचा सकती उसी प्रकार वात आदि ( पित्त व कफ से उत्पन्न होकर समस्त अंगोंको पीड़ित करनेवाले रोग बाधा नहीं पहुंचा सकते हैं। वह जन्मसे मरण पर्यन्त अतिशय सुखी रहकर विशिष्ट कुल, शरीर, स्थान, कान्ति और प्रतापसे संयुक्त होता है ॥ २३ ॥ जिनमतमें रुचि रखनेवाला ( सम्यग्दृष्टि ) जो मनुष्य कर्मको नष्ट करने के लिये दान देता है वह प्रथमतः स्वर्गमें देवांगनाओंके साथ उत्तम भोगोंको भोगता है और फिर मनुष्यलोकमें उत्तम कुल एवं शरीरको धारण करके जैन धर्मको ग्रहण करता हुआ कर्मरूप प्रबल शत्रुको नष्ट करता है । इस प्रकारसे वह मोक्ष सुखको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ इस प्रकार चौबीस श्लोकोंमें दानका निरूपण किया ॥ १९ ॥ १ स तत्सौ° 1 २ सद्भक्ता। ३ स याहि ।४ स मुषितो, सुखितां । ५ स जाये, जायता । ६ म निर्भर निझरे । ७ स भुक्ता। ८ स हृत्वा कर्म स्थिर° १९ स °निरूपणम् । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०, मद्यनिषेधपञ्चविंशतिः ] 498) भवति मधवशेन मनोभ्रमो' भजति कर्म मनोभ्रमतो यतः । बजति कर्मवशेन च दुर्गति त्यजत' मखमतस्त्रिविषेन भोः ॥१॥ 499) हसति नृत्यति गायति बल्गति भ्रमति पावति मूर्छति शोचते। पतति रोदिति जल्पति गावं घमति धाम्यति मधमदातुरः ॥२॥ 500) स्वसृसुताजननोरपि मानवो वमति सेषितुमस्तमति र्यतः । . सगुणलोकविनिन्दितमद्यतः किमपरं खनु कष्टतरं ततः ॥३॥ 501) गलति वस्त्रमषस्तनमोक्यते सकलमन्यतया लपते तनुः । स्खलति पावयुगं पथि गच्छतः किमु न मद्यवशाच्यते जनः ॥ ४ ॥ 502) असुभृतां यषमाचरति क्षणावति वाक्य 'मसामसूनतम् । परकलनधनान्यपि वाञ्छति न कुरुते किमु मघमवाकुलः ॥ ५ ॥ मद्यवशेन मनोभ्रमो भवति । यतः मनोभ्रमतः नरः कर्म मजति । कर्मवशेन च दुर्गति तजति । अतः भो: त्रिविधेन | मधं त्यजत ॥ १।। मद्यमदातुरः हसति, नृत्यति, गायति, वल्गति, प्रमति, पावति, मुम्छति, शोचते, पतति, रोदिति, गद्गदं जल्पति, धमति, पाम्यति ॥ २ ॥ यतः सगुणशोकविनिन्दितमद्यतः अस्तमतिः मानवः स्वस्सुताजननी. अपि सेवितुं व्रजति । ततः खल अपरं कष्टतरं किम ॥३॥ मद्यवशात जन: किम न श्रयते । अपस्तनं वस्त्रं गलति । सकलमन्यतया ईक्ष्यते । तनुः श्लयते । पथि गच्छतः पादयुगं स्खलति ।। ४ ।। मद्यपदाकुलः असुभृतां क्षणात् वधमाचरति । असह्यम् वसू चूंकि मद्यके प्रभावसे मनोभ्रम होता है-भले-बुरेका विचार नष्ट हो जाता है, इस मनोभ्रमसे प्राणी कम की सेवा करता है-पापका संचय करता है, तथा उस कर्मके वश होफर वह नरकादि दुर्गतिको प्राप्त होता ।। है; इसीलिये हे भव्य जीवो! आपलोग उस मद्यका मन, वचन और कायसे परित्याग कर दें ॥१॥ महाके | नशेमें चूर होकर मनुष्य हंसता है, नाचता है, गाता है, चलता है, चक्कर काटता है, दौड़ता है, मूर्छित हो | जाता है, शोक करता है, गिरता है, रोता है, गद्गद् होकर भाषण करता है, फूंकता है और .....है ॥२॥ | गुणवान् लोगोंके द्वारा निन्दित मद्यका पान करनेसे मनुष्य बुद्धिहीन होकर चूंकि बहिन, पुत्री और माताको भी भोगनेके लिये उद्यत हो जाता है; अतएव इससे और अधिक कष्टकी बात क्या हो सकती है ? अभिप्राय । यह कि जिस मद्यके पीनेसे मनुष्य माता और पत्नी आदिके भी विवेकसे रहित हो जाता है उस मद्यका सर्वथा त्याग करना चाहिये ॥ ३ ॥ मद्यके प्रभावसे मनुष्यका वस्त्र गिर जाता है, मद्यपायो मनुष्य अपनेको सर्वश्रेष्ठ समझकर दूसरोंको नीचा देखता है उन्हें तुच्छ मानता है, उसका शरीर शिथिल हो जाता है और मार्गमें चलते हुए उसके पैर लड़खड़ाते हैं। ठीक है-उस मद्यके प्रभावसे मनुष्य भला किसका आश्रय नहीं लेता है ? अर्थात् वह सब अनर्थोको करता है ॥ ४ ॥ मद्यके नशेसे व्याकुल मनुष्य क्या नहीं करता है ? अर्थात् वह सब ही अकार्यको करता है-वह क्षणभरमें प्राणियोंको हिंसा करता है, असह्य असत्य वचनको बोलता है और १ स मतिभ्रमा । २ स स्पति । ३ स भो। ४ स चलाति, वलाति । ५ सरोदति। ६ स मद्य मुदारधी । ७ गति° । ८ स सगुणि° 1 ९ समीक्षते। १० स यत: for जनः । ११ स वाच्य । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 507 : २०-१०] २०. मद्यनिषेधपञ्चविंशतिः 503) व्यसनमेति जनैः परिभूयते गदमुपैति न सत्कृतिमश्नुते । भजति नीचजनं व्रजति कलम किमिह कष्टमियति न मद्यपः ॥ ६॥ 504) प्रियतमामिव पश्यति मातरं प्रियतमा जननीमिव मन्यते । प्रचुरमद्यविमोहितमानसस्तविह नास्ति.न यत्कुरुते जनः ॥७॥ 505) अहह कर्मकरीयति भूपति नरपतोयति कर्मकरं नरः । जलनिधीयति कूपमा निर्षि गतजलीयति मनमा कुलः ॥ ८ ॥ 506) निपतितो पवते धरणीतले वमति सर्वजनेन विनिन्द्यते। श्वशिशुभिर्वदने परिचुम्बिते बप्त सुरासुरतस्य च मूत्र्यते ॥९॥ 507) भवति जन्तुगणो मदिरारसे "तनुसभुविविषो रसकायिकः। पिवति तं मदिरारसलालसः अति दुःखममुत्र ततो जनः ॥ १०॥ -..---. ..-- नृतं वाक्यं वदति । परकलधनानि अपि वाञ्छति । किम न कुत्ते ।। ५ ।। मद्यपः म्यसनम् एति, जनैः परिभूयते, गदम् उपैति, सत्कृति न अश्नुते, नीनजनं भवति, क्लमं प्रजति । इह कि काटन इयति ॥ ६ ॥ प्रचुरमद्यविमोहितमानसः जनः मातरं प्रियतमाम् इव पश्यति । प्रियतमा जननीम् इव मन्यते । यत् [ सः ] न कुरुते, इह तत् नास्ति ॥ ७ ॥ मद्यमदाकुल: नरः अहह भूपति कर्मकरीयति, कर्मकरं नरपतीति, कूप जलनिधीयति, अपां निर्षि गतजलीयसि ॥ ८॥ सुरासु रतस्य श्वशिशुभिः परिचुम्बिते वदने मूश्यते । [ सः ] धरणीतले निपतितः घदते, वमति, सर्वजनेन विनिन्धते बत ॥ ९॥ मदिरारसे तनुतनुः विविधः रसकायिकः जन्तुगणः भवति । मदिरारसलालसः जनः तं पिबति, ततः अमुत्र दुःखं श्रयति ।। १० ॥ परस्त्री एवं परधनकी इच्छा करता है ॥ ५ ॥ मद्यको पीनेवाला मनुष्य आपत्तिको प्राप्त होता है, वह मनुष्योंके द्वारा तिरस्कृत किया जाता है, रोगको प्राप्त होता है, सत्कारको कभी नहीं पाता है, नीच जनकी सेवा करता है, और खेदका अनुभव करता है। ठीक है वह यहां कौन-से कष्टको नहीं प्राप्त होता है ? अर्थात् मद्यपायो मनुष्य सब ही प्रकारके कष्टको सहता है. ॥ ६ ॥ मद्यपायी मनुष्य माताको वल्लभाके समान और वल्लभाको माताके समान मानता है। ठीक है--जिस मनुष्यका मन मद्यकी अधिकतासे मोहको (अज्ञानताको) प्राप्त हुआ है वह यहाँ ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे न करता हो । अभिप्राय यह कि मद्यको पीनेवाला मनुष्य सब हो अविवेकपूर्ण कार्योंको करता है ।। ७ ॥ खेद है कि मद्यके नशेसे व्याकुल हुआ मनुष्य राजाको तो सेवकके समान समझ लेता है और सेवकको राजाके समान मान बैठता है। उसे कुआं तो समुद्र के समान विशाल दिखता है और अपार जलवाला समुद्र निर्जल प्रतीत होता है ।। ८ ।। जो मनुष्य मद्यपानमें मासक्त होता है वह पृथिवीके ऊपर गिरकर अकदाद करता है, वमन { उल्टी ) करता है, तथा सब मनुष्योंके द्वारा निन्दित होता है । खेद है कि कुत्तके बच्चे ( पिल्ले ) उसके मुहको चूमकर उसमें मूत भी देते हैं ।। ९॥ मद्यके रामें रसरूप शरीरको धारण करनेवाले सूक्ष्म शरीरके धारक अनेक प्रकारके क्षुद्र जीवोंका समुदाय होता है। चूंकि मद्यके स्वादको अभिलाषा रखनेवाला मनुष्य उस मद्यका पान करता है इसीलिये वह परलोकमें दुःखको सहता है ॥ १० ॥ मनुष्य मद्यको पी करके कष्टको ( या विनाशको ) प्राप्त होता है, धनका नाश करता है, १ स मथुते, "मश्नुतो। २ स क्षमं । ३ स जने, जनं। ४ स कूपमा विधि । ५ स °महाकुलः । ६ स वदति । ७ स 'तलं । ८ स वदनं परि सुम्यते । ९ स मूत्रति, मूत्रते । १७ से "गुणो। ११ स तनु तनु । १२ स "कायकः। १३ स पिबति....मदिराशति । सु. सं. १९ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 508 : २०-११ | सुभाषितसंदोहः 508) व्यसनमेति करोति धनक्षयं मवमुपैति न वेत्ति हिताहितम् । क्रममतोस्य तनोति विषेष्टितं भजति मद्यवशेन न कां क्रियाम् ॥११॥ 509) रटति कष्यति 'तुष्यति वेपते पतति त्रुह्यप्ति नीव्यति खिद्यते। नमति हन्ति जनं पहिलो यथा यवपि किचन जल्पति मखतः ॥ १२॥ 510) व्रततपोयमसंयम नाशिनी निखिलवोषकरों मविर पिवन् । वदति मर्मवयो" गतचेतनः किम् परं पुरुषस्य विडम्बनम् ॥ १३॥ 511) श्रयति पापमपाकुवते वृर्ष त्यजति सद्गुणमन्यमुपार्षति । ब्रजति बुगंतिमस्पति सद्गति किमयना कुरुते म सुरारतः ।। १४ ।। 512) नरकसंगमनं सुखनाशनं प्रजति यः परिपीय सुरारसम्। बत विवार्य मुखं परिपाच्यते" प्रभुरखुःखमयो ध्रुवमन्त्र सः ॥ १५ ॥ 513) पिवति यो मदिरामप लोलुपः अति दुर्गतिवुःखमसौ जनः । इति विचिन्त्य महामसयस्त्रिधा परिहरन्ति सहा मविरारसम् ॥ १६ ॥ मचत्रशेन व्यसनम् एति, धनक्षयं करोति, मवम् उपति, हिताहितं न वेत्ति, क्रमम् बतीत्य विचेष्टितं तमोति का क्रियां न भवति ॥ ११ मयतः महिलयथा रटति, वष्यति, तुष्यति, वेपते, पतति, मुहाति, दीव्यति, सिघते, नमति, जनं हन्ति, यदपि किंचन जल्पति ॥ १२॥ व्रततपोयमसंयमनाशिनी निखिलदोषकरी मदिरा पिवन् गतचेतन: मर्मवचः वदति । पुर षस्य परं विडम्बनं किम् ।। १३ ॥ सुरारतः पापं अयति, वृषम् अपाकुरुते, सद्गुणं त्यजति,अन्यम् उपार्जति, दुर्गति ब्रजति, सद्गतिम् अस्यति, अथवा किं न कुरुते ।। १४ ।। मः अत्र सुरारसं परिपीय सुखनाशनं नरकसंगमनं व्रजति प्रचुरदुःखमयः सः मुखं विदार्य ध्रुवं परिपाट्यते बत ॥ १५ ।। अष यः लोलुपः जनः मदिरा पिवति असौ दुर्गतिदुःखं श्रर्यात । इति गर्वको धारण करता है, हित और अहितको नहीं जानता है, और मर्यादाका उल्लंघन करके प्रवृत्ति करता है । ठीक है-पद्यके वशसे प्राणी कौन-से कार्यको नहीं करता है ? अर्थात् वह सब ही अहितकर कार्यको करता है ।। ११ ।। मनुष्य मद्यसे ग्रहपीड़ित प्राणीके समान भाषण करता है, क्रोधित होता है, सन्तुष्ट होता है, काँपता है, गिरता है, मोहको प्राप्त होता है, क्रीड़ा करता है, खिन्न होता है, नमस्कार करता है, प्राणीका घात करता है, तथा कुछ भी बोलता है ॥ २॥ वत्त, तप, यम और संयमको नष्ट करके समस्त दोषोंको करनेवाली मदिराको पीनेवाला मनुष्य मूर्छित होकर मर्मवचन ( मर्मभेदी वचन ) को बोलता है। ठीक है-इससे अधिक पुरुषको और विद्धम्बना क्या हो सकती है ? ॥ १३॥ मनुष्य मद्यको पीता हुआ धर्मको नष्ट करके पापका आश्रय लेता है, समीचीन गुणोंको छोड़कर दोषका संचय करता है, तथा सद्गतिको नष्ट करके दुर्गतिको प्राप्त होता है । अथवा मद्यपानमें आसक्त हुआ प्राणी क्या नहीं करता है ? सब कुछ करता है।॥ १४ ॥ जो प्राणी मद्यको पीकरके सुखका नाश करनेवाली नरकको संगतिको प्राप्त होता है-नरकमें जाता है उसे वहाँ नियमसे मुखको फाड़ करके अतिशय दुखदायक लोहा पिलाया जाता है, यह कष्टकी बात है ॥ १५ ॥ जो लोलुपी मनुष्य मद्यको पीता है वह नरकादि दुर्गतिके दुखको भोगता है, ऐसा सोचकरके विवेकी जीव निरन्तर उस मद्यका मन वचन कायसे परित्याग करते हैं ।। १६ ॥ जिस प्रकार अग्नि प्रबल इन्धनको जला देती है उसी १ स om. तुष्यति । २ स खिद्यति । ३ स om. संयम । ४ स वदत्यधर्म , वदति धर्म, वदत धर्म' । ५ स °वचा। ६ स पाजिते, "पाजते । स न कुरुते । ८ स परिपाय । १ स मुधारसम् । १० स द विवादर्य । ११ स परिपायते । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ SIB : २०-२१] २०. मनिषेधपञ्चविंशतिः 514) मननदृष्टिचरित्रतपोगुणं वहति वहिरिवेग्धनभूजितम् । पविह मवमपाकृतमुत्तमेनं परमस्ति ततो दुरितं महत् ॥ १७ ॥ 515) त्यति' शौचमिति विनिन्द्यातां भयति बोपमपाकुरुते गुणम् । भजति पर्वमपास्यति सदानं हतममा मवियरसहिषतः १०॥ 516) प्रचुरदोषकरोमिह वारिणों पिवति यः परिगृा भनेन ताम् । अतुहरं विषमुपमसौ स्फुट पिवति मूहमतिननिम्दितम् ॥१९॥ 517) सविहीं दूवनमाङ्गिगमस्य नो विवरिभुजगोपरचीपतिः । सबसुलं व्यसमधमकार वितानुले मदिरा नुचिनिन्दिता ॥२०॥ 518) "मतितितिकोतिकपाङ्गनाः परि हरति वेव नाचिता। नरमवेक्ष्य सुराङ्गानयाषितं न हि परी सहते वनिताङ्गनाम् ॥२१॥ विचिन्त्य महामतयः सदा मदिरारसं त्रिषा परिहरन्ति ॥ १६ ॥ वलिः जितम् इन्धनम् इव मवं ममनदृष्टि चरित्रत्यागुगं वहति । यत् उत्तमैः अपाकृतम् । इह ततः महत परं दुरितं न अस्ति ।। १७ ॥ मदिरारसलस्वितः तमनाः शीर्ष स्पति, विनिम्यताम् इयति, दोषं अयति, गुणम् अपाकुस्ते, गर्व मजति, सदगम् अपास्यति ॥ १८॥ इह यः पनेन प्रचुरदोषकरौं जो वारुणीं परिगृह्य पिवति, असौ मूढमतिः स्फुट बननिन्दितम् सवाम् बसूहरं विषं पिबति ॥ १९ ॥ इह गुमिनिन्दिता मदिरा अङ्गिगणस्य व्यसनभ्रमकारणं यह भमुखं दुषनं बिकनुठे व विषम् गरिः भुजनः परलोपतिः नो वितनुते ॥ २० ॥ जनाविता: मतिषविद्युतिकीतिकपाङ्गमाः सुराङ्गनया नितं परम् मौल्य रुवा इस परिहरन्ति । हि बनिता पराम् अङ्गना म सहते ॥ २१ ।। इह मधिरावशः तं कलहम् मातनुते, येन जीवितं निरस्पति, वृषम् अपास्यते, महं संचिनुते, पनम् अपति, प्रकार जो मद्य वृद्धिंगत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप गुणोंको भस्म कर देता है। उसका यहाँ उत्तम पुरुषोंने परित्याम किया है। उससे दूसरा और कोई महापाप नहीं है-वही सबसे बड़ा पाप है ॥ १७ ॥ मदिरासे आक्रान्त मनुष्य विमनस्क होकर-विवेकसे रहित होकर-पवित्र आवरणको छोड़ देता है और निन्ध माचरणको करता है, गुणको नष्ट करके दोषका बाश्रय सेवा है, तथा समोचोन मुखका पात करके गर्वको धारण करता है ॥ १८ ॥ जो मनुष्य यहाँ अनेक दोषोंको उत्पन्न करनेवालो उस मदिराको घनसे ग्रहण करके-खरीद करकेपोसा है वह दुर्बुद्धि स्पष्टतया लोगोंसे निन्दित, प्राण-पासक एवं भयानक तीन विषको पोता है। तात्पर्य यह कि मदिरा प्राणीका विषसे अधिक अहित करनेवाली है ॥ १९॥ प्राणिसमूहके लिये कष्टकारक, संसार परिभ्रमणके कारणभूत जिस दुखदायक दोषको गुणो जनसे निन्दित वह मदिरा करती है उसको न तो विष करता है, न शत्रु करता है, न सर्प करता है, और न राजा भी करता है ॥२०॥ मनुष्योंसे पूजित बुद्धि, पति (धैर्य), कोनि और दया रूप स्त्रियां मनुष्यको मदिरारूप अन्य स्त्रीके वशीभूत देखकर मानो क्रोधसे ही उसे छोड़ देती हैं। ठीक है-एक स्त्री किसी दूसरी स्त्रोका रहना नहीं सहती है ॥ २१ ॥ विशेषार्थ-जो मद्यको पीता है उसको बुद्धि, धैर्य, यश और दया आदि उत्तम गुण नष्ट हो जाते हैं। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि चूंकि पुरुष बुद्धि आदिरूप उन स्त्रियोंकी उपेक्षा करके मदिरारूप अन्य स्त्रीसे अनुराग करने लगता है इसीलिये ही मानों वै रुष्ट होकर उसे छोड़ देती हैं ॥ २१ ॥ मदिराके वशमें हुआ मनुष्य यहां दूसरोंके १सत्यज्यति । २ स तदिय । ३ स परिणी। ४ स गुण° । ५ स मृतिति । ६ सङ्गना । ७ स परहरन्ति । चितं । ८ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सुभाषितसंबोहः 519) कलहमातपुते मविरावशस्तमिह येन निरस्यति जीवितम्' । वृषभपास्यति संचित मलं धनमपैति जनैः परिभूयते ॥ २२ ॥ 520) स्वजनमन्यजनीयति मूढधीः परजनं स्वजनोमति मद्यपः । किमथवा बहुना कथितेन भी द्वितयको कविनाशकरी सुरा ॥ २३ ॥ 52.) भवति मद्यवशेन मनोभवः * “सकळवोक्करो उत्र शरीरिणः । भजति तेन विकारमनेकधा गुणयुतेन' सुरा परिवज्यंते ॥ २४ ॥ 522) प्रचुबोकरी* मविशमिति द्वितयसम्मविवापविचक्षणाम् । मिथितत्त्वविवेचक' मानसाः परिहरन्ति सदा मुनिनो जनाः ।। २५ ।। इति मद्यनिषेधविशतिः ॥ २० ॥ [519 २०-२२ जनैः परिभूयते ॥ २२ ॥ मद्यनः मूढधीः स्वजनम् अम्यजनीयति, परजनं स्वजनीयति । अथवा बहुना कथितेन किम् । भोः, सुरा तिलोकविनाशकरी ।। २३ ।। अत्र मधवशेन शरीरिणः सकलदोषकरः मनोभवः भवति । तेन शरीरी अनेकषा विकारं भवति । [ : ] गुणयुतेन सुरा परिवते ।। २४ ।। निखिलस्यविवेचकमानसाः गुणिनः जनाः इति प्रचुरदोषकरीं द्वितयजम्भविवाषविचक्षणां मदिरां सदा परिहरन्ति ।। २५ ।। इति मन्त्रभिषेषपाविशतः ॥ २० ॥ साथ ऐसा लड़ाई-झगड़ा करता है जिससे कि वह अपने जीवनको नष्ट कर बैठता है। वह धर्मको नष्ट करके पापमलका संचय करता है, धनका नाश करता है, तथा दूसरे लोगों के द्वारा तिरस्कृत होता है ॥ २२ ॥ मद्यको पीनेवाला मूर्ख मनुष्य अपने कुटुम्बी जनको अन्य समझने लगता है और अन्य जनको कुटुम्बी समझने लगता है। अधिक कहनेसे क्या काम है ? हे मध्य जन । वह मदिरा इस लोक और परलोक दोनोंको ही नष्ट करनेवाली है ॥ २३ ॥ मद्य प्रभावसे प्राचीके यहाँ समस्त दोषोंको उत्पन्न करने वाला काम उद्दीप्त होता है और उससे वह अनेक प्रकारसे विकारको भजता है-स्वस्त्री और परस्त्री आदिका विवेक न रखकर जिस किसी भी स्त्रीके साथ रमण करता है तथा अन्यान्य व्यसनोंमें भी आसक्त होता है। इसीलिये गुणवान् मनुष्य उस मद्यका परित्याग करता है ॥ २४ ॥ अपने मनको समस्त सत्वोंके विचार में लगानेवाले गुणवान् मनुष्य अनेक दोषोंको उत्पन्न करके दोनों ही लोकोंमें दुख देनेवाली उस मदिराका निरम्सर त्याग करते हैं ॥ २५ ॥ इस प्रकार पच्चीस श्लोकोंमें मद्यका निषेध किया ॥ २० ॥ १ स जीवितां । २ सवैति । ३ स सुधा ४ स मनोमक। ५ स म्रफल ं । ६ स गुणवतेन । ७ स करीं । ८ स विचक्षणम्। ९ स विवेकक । १० स निषेध निरूपणम् । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१. मांसनिरूपणपड्विंशतिः] 523। मांसावानाम्जीववषानुमोबस्ततो भवेत् पापमानामुपम् । ततो वोर्गम्तिमुप्रयोा मत्येति मांस परिमनीयम् ॥१॥ 524) तनुदभव' प्रांसमवनमेवं न्याय सामवननलियाम् । निस्त्रियचितोमिनिकासमा मुनो' विकतना ॥२॥ 525) मातापिनो नास्ति बासुभाबा बया विना नास्ति बनस्य पुष्यम् । पुष्पं विना पाति पुरस्त संसारकान्तारमसम्पपारम् ॥३॥ 526) पलादिनो नास्ति मस्त पापं बायेति मासाशिवानप्रभुत्वम् । सतो 'वास्सिलामतो ऽममस्मानि:पापबादी नरकं प्रयाति ॥४॥ मांसाशनात् जीवववानुमोदः, ततः बनम्तम् न पापं भवेत् । सतः नदोषो दुर्गतिं वेद । इति मस्या मांसं परिपर्वनोमम् ॥ १॥ तनसम् बमेभ्य सम्बासयं साधुजनप्रनिम्वं विनिष्टगन्ध मासम्मबन लिस्विशषित: मा बुनः विशेष रूप समते ॥ २ ॥ मांसाशिनः असुभाजा दया नास्ति, दयां बिना कामस्य पुज्यं नास्ति, पुष्पं बिना मसभ्यपारं दुस्सदुःख संसारकान्तारं याति ॥ ३ ॥ पक्षादिनः जनस्व पापं नास्ति इति वावा मांसासिवन्प्रभुत्वम् । ततः बषास्तिवम्, अतः अपम् अस्मात् निःपापवादी मरर्फ प्रयाति ॥४॥षदकोटिलं पलम् अश्नतः दोषः नो पस्ति, इति मे नष्टश्मिः वदन्ति , मांसके खानसे जीवहिंसाका अनुमोदन होता है, उससे अनन्त तोब पाप होता है, और उससे प्राची बड़े भारी दोषोंसे परिपूर्ण नरकादि दुर्गतिको प्राप्त होता है। यह सोचकर बास्महितेषी प्राणियों को उस मांसपक्षणका परिस्याग करना चाहिये ॥१॥ जो मांस प्राणीके शरीरसे उत्पन्न होता है, अपवित्र है. मट आदि क्षत्र कीड़ोंका स्थान है, सम्धनोंके द्वारा निन्दनीय है सपा दुर्गन्धसे. युक्त है उसको सानेवाला मनुष्य मला कुत्तेसे कैसे विशेषताको प्राप्त होता है ? नहीं होता-उसमें बोर कुत्त में कोई भेद नहीं रहता है ॥२॥ विशेषार्थ अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार विवेकसे रहित कुत्ता मासके दोषों तथा उसके माणसे उत्पन्न होनेवाले पापका विचार न करके उसको खाता है उसीप्रकार यदि अपनेको श्रेष्ठ समझनेवाला मनुष्य भी उस अनेक दोषोंसे परिपूर्ण पापोत्पादक मांसको खाता है तो फिर उसे उसे कुत्ते के ही समान समझना चाहिये। कारण कि उसमें जो कुत्तेको अपेक्षा कुछ जानकी मात्रा अधिक वी सो उसका वह उपयोग करता नहीं है ॥२॥ जो मांसको खाता है उसे प्राणियोंके प्रति क्या नहीं रहती, दयाके बिना मनुष्यके पुष्पका उपार्जन नहीं होता, इसीलिए उक्त पुण्यके बिना प्रापी उस संसार रूप वनमें परिभ्रमण करता है वो दुविनाश दुःखोंसे परिपूर्ण और अपार है ।। ३ ॥ जो प्राणी मांसको खाता है उसके कोई पाप नहीं होता; इसप्रकारके वचनसे मांसभोजी मनुष्योंको प्रभुता प्राप्त होती है, उससे बीवहिंसा होती है, इससे पाप और इससे मांसभक्षी प्राणीको निष्पाप बतलानेवाला मनुष्य नरकको जाता है ॥ ४ ॥ षट्कोटिशुद्ध मांसको खानेवाले जीवके कोई दोष नहीं होता, १ स तनूदगवं । २ स निस्वंश', निस्तूंश, निस्तृश । ३ स वनो, अनी । ४ स न । ५ दिना । ६ स वध्या', ७ स मतोषमस्मा । - - --.. --..-- .. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सुभाषितसंबोहः [527 : २१-५ 527) षट्कोटिशुद्धं पलमश्नतो नो दोषो ऽस्ति ये नष्टधियो वदन्ति। नराविमांसं प्रतिषिसमेतैः कि कि न वोढास्ति विशुद्धिरत्र ॥ ५ ॥ 528) बझ्नाति यो मांसमसौ विषसे वभानुमोवं त्रसदेहभाजाम् । गृहाति रेपोसि' ततस्तपस्वी तेम्मो दुरन्तं भवमेति जन्तुः ॥ ६ ॥ 529) आहारभोजी कुरुते नुमो नरो वये स्थावरजङ्गमानाम् ।। तस्यापि तस्मादबुरितानुषङ्गमित्याह यस्तं प्रति बाम' किंचित ॥७॥ 530) ये ऽग्नाशिनः स्थावरजन्तुपातामांसाशिनो प्रसजोवघातात् । गोवस्तयोः स्थास्परमाणुमेबार्यवान्तरं बुद्धिमतेति वेयम् ॥८॥ 581) बन्लाशने स्यात्परमाणुमात्रः प्रवाश्यते शोषमितुं तपोभिः । मांसाशने पर्वतराजमानो नो भापते शोषयितुं महत्वा ॥९॥ 532) मांसं यथा देहमृतः शरीरं सवालमणि शरीरतात:। ततस्तयोदोषगुणो समानावेताको युक्ति विमुक्तमत्र ॥१०॥ एत: नराविमसि कि प्रतिषितम् । बत्र कोडा विशुद्धिः न अस्ति किम् ।। ५ ।। यः मांसम् अनाति बसो बसदेहभाजाम् बधानुमोदं विधसे । ततः रेपांसि गृहाति । तेभ्यः तपस्वी बन्तुः दुरतं भवम् एति ।।६॥ माहारभोजो नरः स्थावरजन्ममाजांबरे अनुमोद कुइते । तस्मात् तस्यापि दुरितानुषप्रं यः आह, तं प्रति किंचित् प्रतिवच्मि ॥७॥ ये अन्लाशिनः [ तेषां ] स्थावरजन्तुधातात, ये मांसामिन: [ Bषा ] सजीवातात् दोषः स्यात् । इति बुद्धिमता तयोः परमाणुमेोः पषा अन्तरं वेबम् ।। ८ ।। अन्नाशने परमाणुमात्र: [ दोषः ] स्यात् । [स: ] तपोभिः शोषयितुं प्रशक्यते । मांसाशने पर्वतराजमात्रः [सः ! महत्वात् शोधयितुं नो शक्यते ॥९॥ यथा मांसं देहभृत: शरीरं तथा बानम् अपि अङ्गिशरीरतात.। ऐसा जो दुर्बुद्धि मनुष्य कहते हैं वे मनुष्य आदिके मांसका निषेध क्यों करते हैं, क्या इसमें छह प्रकारकी ! विशुद्धि नहीं है ? अर्थात् यदि हिरण आदिके मांसमें छह प्रकारको विशुद्धि है तो फिर वह मनुष्यके मांसमें भी होनी चाहिये, अतएव उसके खानेमें भी फिर कोई दोष नहीं समझा जाना चाहिये ॥ ५॥ जो जीव मांसको खाता है वह उस जीवोंको हिंसाका अनुमोदन करता है-उसको प्रोत्साहन देता है। इससे वह बेचारा निन्दित पापोंको ग्रहण करता है जिससे कि दुविनाश संसारको प्राप्त होता है अनन्त संसार परिभ्रमणके दुःखको सहता है ॥ ६॥ अन्नका भोजन करनेवाला मनुष्य स्थावर प्राणियोंकी हिंसाका अनुमोदन करता है, अवएव उसके पापका प्रसंग प्राप्त होता है; ऐसी जो आशंका करता है उसके प्रति उसररूपमें कुछ कहता . है उसके लिए निम्न प्रकारसे उत्तर दिया जाता है ।। ७ ।। जो मनुष्य अन्नको खाते हैं उनके स्थावर जीवोंकी हिंसासे पाप होता है, किन्तु जो मांसको खाते हैं उनके प्रस जीवोंकी हिंसासे पाप होता है। इस प्रकारसे यपि पापके भागो वे दोनों ही प्राणी होते हैं, फिर भी बुद्धिमान मनुष्यको उनके पापमें परमाणु और मेह. पर्वतके समान अन्तर समझना चाहिये ।। ८ ।। अन्नके खाने में जो परमाणु प्रमाण स्वल्प पाप होता है उसको तपोंके द्वारा शुद्ध किया जा सकता है। परन्तु मांसके खाने में जो मेरुके समान भारी पाप होता है उसको अतिशय महान होनेसे शुद्ध नहीं किया जा सकता है ।।९॥ जिस प्रकार मांस प्राणीका शरीर है उसी प्रकार अन्न भी प्राणीका शरीर है। इसलिये उन दोनोंमें गुण और दोष समान है। इस प्रकारको जो यहाँ यह १ स रेफांसि । २ स न मोवं । ३ स OL. स्थावर 0 येन्नाशिनः । ४ स वयि, प्रतिवच्मि । ५ स यो। ६ स यस्त्र, ये न सजीवघातान् । ७ स न । ८ स महत्वात् । र स प्या, प्यङ्गि श°। १० स तप्तः । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 : २१-१४] २१. मांसनिरूपणषड्विंशतिः 533) मांसं शरीरं भवतोह जन्तोर्जन्तोः शरीरं न तु मांसमेव । यथा तमालो नियमेन वृक्षो वृक्षात्समालो' न तु सर्वथापि ॥ ११ ॥ 534) रसोत्कटरवेन करोति गदि मांसं यथान तथात्र जातु । जास्वेति मांसं परिषज्यं साषराहारमश्नातु विशोध्य पूतम् ॥ १२ ॥ 535) करोति मांसं बलमिन्द्रियाणां ततोऽभिवृद्धि मवनस्य तस्मात् । करोत्ययुक्ति प्रविचिन्त्य बुष्या' स्यन्ति मासं त्रिविषेन सन्तः ॥ १३ ॥ 536) गृद्धि विना भक्षयतो न दोषो मांस नरस्यान्नमस्तकोषम् । एवं वचः केचितुवाहरन्ति युक्त्या विसं तापोह लोके ॥१४॥ संतः तयोः दोषगुणो समानौ । अत्र एताचः युक्तिविमुक्तम् ।। १० । इह मांसं जन्तोः शरीरं भवति । सु जन्तोः शरीरं मांसम् एव न । यथा तमाल: नियमेन वृक्षः । तु वृक्षः सर्वथा अपि समाल: न ।। ११ ॥ यया रसोत्कटत्त्वेन मांसं गाँव करोति, तथा अत्र अन्नं जातु न । इति ज्ञात्वा मांसं परिवर्त्य साधुः विषोभ्य पूतम् आहारम् मश्नातु ॥ १२ ॥ मांसम् इन्द्रियाणां बलं करोति । ततः मदनस्य अभिवृद्धि (करोति)। तस्मात् अयुक्ति करोति । इति बुध्या प्रविचिन्त्य सम्तः विविधेन मांसं त्यजन्ति ॥ १३ ॥ अन्नवत् अस्तदोषं मांसं गृढि विना भक्षयतः नरस्य न दोषः, एवं वचः केचित् उदाहरन्ति आशंका की जाती है वह युक्तिसे रहित है ॥ १० ॥ उक्त शंकाके उत्तर में कहते हैं कि यहां मांस प्राणीका शरीर है, परन्तु प्राणीका शरीर मांस ही नहीं है। जैसे-तमाल नियमसे वृक्ष ही होता है, किन्तु वृक्षा सर्वथा समाल ही नहीं होता है ॥ ११ ॥ विशेषायं-ऊपर श्लोक १०में यह शंका की गयी थी कि जिस प्रकार मांस मृग आदि प्राणियोंका शरीर है उसी प्रकार अन्न भी तो वनस्पति कायिक प्राणियोंका शरीर है फिर क्या कारण है जो अन्नके भोजनमें तो परमाणुके बराबर ही पाप हो और मांसके खाने में मेरुके बराबर महान् पाप हो वह दोनोंके खानेमें समान ही होना चाहिये, न कि होनाधिक । इस आशंकाके उत्तरमें यह बतलाया है कि मांस प्राणीका शरीर अवश्य है, परन्तु सब ही प्राणियों का शरीर मांस नहीं होता है। उन दोनोंमें समाल और वृक्षके समान व्याप्य-व्यापकभाव है--जिस प्रकार जो तमाल होगा यह वृक्ष अवश्य होगा, किन्तु जो वृक्ष होगा वह तमाल ही नहीं होगा, वह तमाल भी हो सकता है और नीम आदि अन्य भी हो सकता है। उसी प्रकार जो मांस होगा, वह प्राणीका शरीर अवश्य होगा किन्तु जो प्राणीका शरीर होगा वह मांस हो नहीं होगा- वह कदाचित् मांस भी हो सकता है और कदाचित् गेहूँ व चावल आदि रूप अन्य भी हो सकता है। इसीलिये मांसमें जिस प्रकार अन्य त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होती देखी जाती है उस प्रकार गेहूं आदिमें वह निरन्तर नहीं देखी जाती है। अतएव मांसके खाने में जो महान् पाप होता है वह अन्नके खाने में समानरूपसे नहीं हो सकता है उसकी अपेक्षा अत्यल्प होता है। अतएव बुद्धिमान् मनुष्यों को निरन्तर मांसका परित्याग करके अन्नका ही भोजन करना चाहिये ॥११॥ जिस प्रकार यहाँ स्वादिष्ट रसको अधिकत्तासे मांस लोलुपताको उत्पन्न करता है उस प्रकार अन्न कभी नहीं उत्पन्न करता, ऐसा जान करके सज्जन मनुष्य के लिए मांसका परित्याग करके संशोधन पूर्वक पवित्र आहारको खाना चाहिये ।। १२ ।। मांस इन्द्रियोंके बलको करता है--उन्हें बल प्रदान करता है, इससे . कामकी वृद्धि होती है, और उससे फिर प्राणी अयोग्य आचरणको कला है, इस प्रकार बुद्धिसे विचार करके सज्जन मनुष्य उस मांस का मन, वचन और कायसे परित्याग करते हैं ।। १३ । अन्नके समान निदोष १ स वृक्षस्तनुमालो न । २ स om, न, यथान्नेन न । ३ स संशोध्य । ४ स सर्व lor बुध्या। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ . सुभाषितसंवोहः [ 537:२१-१ 537) आहारवर्ग' सुलभ विचित्रे विमुक्तपापे भुवि विद्यमाने। प्रारम्भवुःख विविधं प्रपोष्य वस्ति गुदिनं किमति मांसम् ॥ १५ ॥ 538) यरं विषं भक्षितमुग्रवोर्ष ययेकवारं कुरुते ऽसुनाशम् । मांसं महादुःखमनेकवारं वदाति जन्ध मनसामि पुंसाम् ॥ १६॥ 539) अश्नाति यः संस्कुस्ते निहन्ति ववाति गल्लात्पनुमन्यसे च । एते षडप्यत्र विनिन्दनीया भ्रमन्ति संसारवने निरन्तम् ॥ १७ ॥ 540) चिरायुरारोग्यसुरू एकान्तिप्रोतिप्रतापप्रियंपावितायाः। गुणा विनिन्यस्य सता नरस्य मासाशिनः सन्ति परत्र नेमे ॥१८॥ इह लोके तत् अपि युक्त्या विरुवम् ॥ १४ ॥ गतिः न अस्ति बस मुवि विमुक्तपापे विचित्र सुलभे आहारवर्ग विद्यन्यो । विविष प्रारम्भदुःसं प्रपोष्य मांस किम् अत्ति ।। १५ ।। ननदोषं विषं मक्षितं वरम् । यत् एकवारम् असुनाशं कुरुते । मनसा | अपि जाधं मांसं पुंसाम् अनेकबारं महादुःखं ददाति ॥ १६॥ मत्र यः [मांसम् ] अश्नाति, संस्कुरुते, निहन्ति, ददाति गृह्मति, अनुमन्यते च । एते षट् अपि विनिन्दनीयाः संसारवने निरन्तरं श्रमन्ति ।। १७ ।। सतां विनिन्यस्य मांसाविर. नरस्य परत्र चिरायुरारोग्यसुरूपकान्तिप्रीतिप्रतापप्रियवादितावाः इमे गुणाः न सन्ति । १८ ।। विद्यावयासंयमसत्यशौचष्यामांसको यदि मनुष्य लोलुपतासे रहित होकर खाता है तो उसके कोई दोष उत्पन्न नहीं होसा, ऐसा कितने हो । जन कहते हैं । उनका यह कथन भी युक्सिके विरुव है। कारण यह कि यदि मांसके खाने में लोलुपता न होती तो फिर पृथ्वीपर विद्यमान अनेक प्रकारके निर्दोष आहारसमूह ( गेहूं, चावल आदि धान्य )के सुलभ होनेपर भी प्रारम्भमें बहुत प्रकारके दुःखको पुष्ट करके मनुष्य उस मांसको क्यों खाता है ।। १४-१५ ॥ विशेषार्थऊपर कहा गया है कि मांस चुकि गृद्धिको उत्पन्न करके इन्द्रियोंको उद्धत करता है जिससे कि मनुष्य काम अधीन होकर असदाचरण करने लगता है, अतएव वह मांस हेय है। इसके ऊपर यह शंका हो सकती थी कि मनुष्य यदि लोलुपतासे रहित होकर उसे खाता है तो उसमें अन्नाहारके समान कोई दोष नहीं होना चाहिये। इस शंकाके उत्तरस्वरूप यहाँ यह बतलाया है कि मांसके खानेमें जब लोलुपता होती है तब ही मनुष्य कष्टपूर्वक उसे प्राप्त करके खाता है। यदि उसे उसके खानेमें अतिशय अनुराग न होता तो फिर जब अनेक प्रकारका निर्दोष अन्नाहार यहाँ विद्यमान है और वह सुलम भी है तब मनुष्य हिंसाजनक उस दुर्लभ मासके खानेमें क्यों उद्यत होता है ? इससे उसकी सविषयक लोलुपता ही सिद्ध है। तोव दोषको उत्पन्न करनेवाले विषका भक्षण करना अच्छा है, क्योंकि वह केवल एक बार ही प्राणोंको नष्ट करता है। परन्तु मांसका मनसे भी भक्षण करना-उसके खानेका विचार मात्र करना अच्छा नहीं है, क्योंकि वह अनेक बार प्राणोंका घात आदि करके मनुष्योंको महान् दुःख देता है ।। १६ ॥ जो मनुष्य यहाँ मांसको खाता है, उसे पकाता है, उसके | लिए जीवघात करता है, उसे दूसरेको देता है, स्वयं ग्रहण करता है, और उसका अनुमोदन करता है, ये छहों प्रकारके मनुष्य निन्दाके पात्र होकर अनन्त संसारमें परिभ्रमण करते हैं ।। १७ ।। जो मनुष्य मांसको खाता है उसको इस लोकमें तो सत्पुरुष निन्दा किया करते हैं तथा परलोकमें उन्हें दीर्घ आयु, नीरोगता, सुन्दर रूप, कान्ति, प्रीति, प्रताप और प्रियवादित्व आदि गुण नहीं प्राप्त होते हैं ।। १८॥ जो मनुष्य मांसका भक्षण १स वर्ग । २ स प्रपोभ्यं । ३ स प्रपो [ ज्य मरनतः ] चेदस्त । ४ स किमत्त, किमस्ति । ५ स ददास्य । ६ स निरः | न्तरम् निरन्तरे । ७ स स्वरूप । ८ स प्रेयं°। ९स सत्ता, सतानुख्या । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ 46 : २१-२४] २१ मांसनिरूपणषड्विंशतिः 541} विद्यावयासंघमसत्यशौचध्यानव्रतज्ञानवमक्ष'मायाः । संसारनिस्तारनिमित्तभूताः पलाशिनः सन्ति गुणाः न सर्वे ॥ १९ ॥ 542) मृगान्वरा कांचालतो ऽपि तूर्ण निरागसो त्यत्तविभोतचित्तान् । ये ऽश्नन्ति मांसानि निहस्य पापास्तेम्यो निकृष्टा अपरे"न सन्ति ॥ २०॥ 543) मांसान्यशित्या विविधानि मा यो निर्वयात्मा नरकं प्रयाति | निकृस्य शस्त्रेण परमिकृष्टः प्रखाग्रते मांसमसौ स्वकीयम् ॥ २१ ॥ 544) निवेद्य 'सस्वेष्वपदोषभावं मे अनन्ति पापाः पिशितानि गधाः । तैः कारितो जीव वधः समस्तस्तेम्यष्ठको नास्ति च हिंसको हि ॥२२ ।। 545) शास्त्रेषु मेष्यङ्गिवषः प्रवृत्तः "ठकोत्तशास्त्राणि यथा न तानि। प्रमाणमिच्छन्ति विबुद्धतत्वा: संसारकान्सारम"निम्बनीयाः ॥ २३ ।। 546) यद्वक्तरेतोमल चोर्यमङ्गमांसं "तदुभूतमनिष्टगन्धम् । यद्यश्नतो ऽमेष्य "समं म दोष"स्तहि "श्वचण्डालतका न दुष्टाः ।। २४ ।। नवतशानदमक्षमाद्याः संसारनिस्तारनिमित्तभूताः सर्वे गुणाः पलाशिनः न सन्ति ॥ १९ ॥ निरागसः अत्यन्तविभीतचित्तान तू चलत: अपि बराकान् मृगान् निहत्य ये पापा: मांसानि प्रश्नन्ति तेम्यः अपरे निकृष्टाः न सन्ति ।। २० ॥ यः निदयात्मा मयः विविधानि मांसानि अशित्वा नरकं प्रयाति असो परैः निकृष्टः शस्त्रेण निकृत्य स्वकीयं मांसं प्रसाधते ॥ २१ ॥ ये पापाः गधाः सत्त्वेषु अपदोषभावं निबेद्य पिशितानि अफ्नन्ति, तः अतीव समस्तः वधः कारितः । हि तेम्यः ठकः हिसकः प नास्ति ।। २२ ॥ येषु शास्त्रषु अङ्गिवषः प्रवृत्तः तानि ठकोक्तशास्त्राणि, विबुद्धतत्त्वाः अनिन्दनीमाः, प्रमाणं यथा न इच्छन्ति ! [ यतः ते ] संसारकान्तारं न इच्छन्ति ॥ २३ ॥ यत् अङ्गं रक्तरेतोमलवोयं तदुद्भूतम् अनिष्टगन्धं मांसम् । करता है उसके संसारनाशके कारणभूत विद्या, दया, संयम, सत्य, शौच, ध्यान, व्रत, शान, दया, क्षमा आदि ये सब गुण नहीं होते हैं ॥ १९॥ जो मृग बेचारे तीव्र वेगसे भी चलते हैं—दोड़ते हैं, किसीका कुछ अपराध नहीं करते हैं तथा जिनका चित्त अतिशय भयभीत है उनको मारकर जो पापी मांसको खाते हैं उनसे निकृष्ट और दूसरे कोई नहीं हैं--वे सबसे अधम हैं ।। २० ॥ जो कर मनुष्य अनेक प्रकारके मांसको खाकर नरकमें आता है उसे दूसरे निकृष्ट प्राणी शस्त्रसे उसका ही मांस काटकर खिलाते हैं ।। २१ ॥ जो मांसके लोलुपी । पापो प्राणी लोगोंमें निर्दोषता प्रगट करके मांसको खाते हैं उन्होंने समस्त हो वधको अत्यधिक रूपसे किया है अर्थात् वे सबसे अधिक पापको करते हैं । जनसे अधिक दूसरा कोई ठग और हिंसक नहीं है वे सबसे अधिक घूतं ( आत्म-परवंचक ) और पापी हैं ॥ २२ ।। जिन गास्त्रोंमें प्राणिहिंसा प्रवृत्त है अर्थात् जो शास्त्र जोवोंको । प्राणिहिंसा में प्रवृत्त करनेवाले हैं उन्हें तत्त्वके जानकार अनिन्दनीय सत्पुरुष धूर्तोसे रचे गये शास्त्रोंके समान प्रमाण नहीं मानते हैं, क्योंकि वे संसाररूप वनमें परिभ्रमण करनेवाले हैं ॥ २३ ॥ जो शरीर रुधिर, शुक्र, मल एवं वीर्य स्वरूप है उससे उत्पन्न हुआ मांस दुर्गन्धसे युक्त होता है। यदि उसे खानेवाले मनुष्यके पवित्र अन्नाहारको खानेवालेके समान कोई दोष न हो तो फिर कुत्ता, चाण्डाल और भेड़िया भी दुष्ट नहीं कहे जा १सक्ष्यमाद्याः । २ स वराक्यरचलित । ३ स पर्णान् for तूर्ण, तूणान्नि" : स °चित्ताः । ५ स अपरेण । ६ स । प्रवाद्यते । ७ स सत्त्वश्रूपदोष° 1 ८ स तेभ्यो बको, तेम्यो वको। ९ स for च । १० स योक्त°, येकांकशास्त्राणि, वकोक्त । ११ स निनिद्यनीयः, विनिन्दनीयः । १२ स वार्षमंग, "रेतो भलवार्य । १३ स तदोद्भूत । १४ स । यद्यश्नते, यद्यद्भुते, पद्मश्नुते । १५ स मेध्य । १६ स योग । १७ स स्ववाण्डाल । सु. सं. २० Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [547 : २१-२९ । १५४ सुभाषितसंबोहः 547) धर्ममस्यास्तमालस्य मूलं निर्मूलमुम्मूलितमङ्गभाजाम् । शिवाविकल्याणफलप्रदस्थ मासाशिना स्याल कथं नरेण ॥ २५ ॥ 548) दुःलानि यान्यत्र' योनिजानि भवन्ति सर्वाणि नरस्य तानि । पलाशनेनेति विचिरस्य सन्तस्त्यजन्ति मांस त्रिविषेन नित्यम् ॥२६॥ ॥इति मांस निरूपणवविंशतिः ॥ २१॥ यदि अमेष्यसमम् अश्नतः न दोषः तहि चाण्डालकाः न दुष्टा: !! २४ । अङ्गभाजां शिवादिकल्याणफरुप्रस्य अस्तमलस्य धमस्य मूलं मांसाशिना नरेण निमूलं कषम् उन्मीलितं न स्यात् ।। २५ ।। अब नरस्य यानि सर्वाणि कुयोनिजानि दुःखानि भवन्ति, तानि पलाशनेन इति विषिस्य सन्तः मसिं नित्यं त्रिविधेन त्यजन्ति ॥ २६ ॥३ इति मोसनिरूपणषड्विंशतिः ॥ २१ ॥ सकेंगे ॥ २४ ॥ विशेषार्थ--लोकमें कुत्ता, चाण्डाल और भेड़िया आदि मांसभोजी हिंसक प्राणी इसोलिये तो दुष्ट समझे जाते हैं कि वे अन्य प्राणियोंको मारकर उनके अपवित्र मांसको खाते हैं। यदि मनुष्य भी उस अपवित्र मांसको खाता हुआ अपनेको अन्नभोजोके समान निर्दोष मानने लग जाये तो फिर उक्त कुत्ते आदिको भी क्यों दुष्ट समझा जायगा ? तात्पर्य यह है कि विवेकी कहलानेवाले जो मनुष्य उस घृणित एवं पापोत्पादक मांसका भक्षण करते हैं उन्हें कुत्ता और मेडिया आदि पशुओंसे भी निकृष्ट समझना चाहिये ।। २४ ॥ जो मनुष्य मांसको खाता है वह प्राणियोंके लिये मोक्ष मादिके. सुखरूप फलको देनेवाले निर्मल धर्मरूप वृक्षकी जड़को पूर्णतया कैसे नहीं नष्ट करता है ? अर्थात् वह धर्मरूप वृक्षको जड़ मूलसे ही उखाड़ता है ।। २५ ।। संसारमें नरकादि दुर्गतिसे उत्पन्न होनेवाले जो भी दुख हैं वे सब ही मनुष्यको मांसके खानेसे प्राप्त होते हैं; यह विचार । करके सज्जन पुरुष उस मांसका निरन्तर मन, वचन और कायसे त्याग करते हैं ।। २६ ॥ इसप्रकार छब्बीस श्लोकोंमें मांसका निरूपण किया । १समानत्र २स योनियानि । ३ सानिपेषनरूपणम। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२. मधुनिषेधद्वाविंशतिः । 549) मध्यस्यतः कपा नास्ति पुण्यं नास्ति को बिना। विना पुण्यं नरो दुःखी पर्यटेव भवसागरे ॥१॥ 550) एकेको संख्यजीवानां घासतो मधुनः कणः ।। निष्पयते यतस्तेन मध्वस्यति' कथं सुषः ॥२॥ 551) प्रामाणां सप्तके' दग्धे यद्भवेत्सर्वथा नृणाम् । पापं तदेव निविष्टं भक्षिते मधुनः कणे ॥ ३ ॥ 552) एकैकस्य यथावाय पुष्पस्य मषु संचितम्। किचिन्मधुकरीवर्ग स्तवयानन्ति निघणाः ॥४॥ 553) बनेकजीवघातोत्थं म्लेच्छोच्छिष्टं महावितम् । मलाक्तपात्रनिक्षिप्त' कि शौचं लिहतो" मधु ॥५॥ · 554) वरं हालाहलं पोतं सत्रः प्राणहरं विषम् । ___न पुनर्भनितं' शश्वद् दुःखर्व मषु देहिनाम् ॥६॥ मषु अस्पतः कृपा नास्ति । कृपां बिना पुग्यं नास्ति । पुण्यं विना दुःखी नरः भवसागरे पर्यटेत् ॥ १॥ यतः असंख्यजीवानां धाततः मधुनः एकैकः कण; निष्पद्यते, तेन बुधः कयं मधु अस्पति ॥ २ ॥ यामागां सप्तके पवे नृणां यत्पा सर्षमा भवेत्, तदेव मधुनः कणे भक्षिते निर्दिष्टम् ॥ ३ ॥ मधुकरीवर्गः एकैकस्य पुष्पस्य किंभित् मधु मादाय संचितं तदपि निधुणाः अश्नन्ति ॥ ४॥ अनेकजीवधातोस्थं म्ले छोच्छिष्टं मलाविलं मलाक्तपात्रनिक्षिप्तं मधु लिहतः शौचं मवेत किम् ॥ ५ ॥ सबः प्रागहरं हालाहलं विषं पीतं वरम् । पुनः वेहिनां स्वत् दुःसदं मधु मक्षितं न वरम् ॥६॥ संसारे ___जो मनुष्य मघु ( शहद ) को खाता है उसके दया नहीं रहती है, दयाके बिना पुष्पका उपार्जन नहीं होता, और पुण्यके बिना मनुष्य दुखी होकर संसाररूप समुद्र में गोता खाता है ॥१॥ मधुका एक-एक कण चूँकि असंख्यात जीवोंके घातसे उत्पन्न होता है इसीलिये विद्वान् मनुष्य उसे कैसे खासा है ? अर्थात् उसे विवेकी मनुष्य कभी नहीं खाता है ॥ २ ॥ सात गांवोंके भस्म होने पर मनुष्योंके वो सर्वथा पाप होता है वही पाप मषुके एक कणके खाने पर होता है। ऐसा आगममें कहा गया है ॥ ३॥ मक्खियोंके समूहने एक-एक फूलसे कुछ थोड़ा-थोड़ा लेकर जिस मधुको संचित किया है उसे भी निर्दय मनुष्य खा जाते हैं, यह खेदकी बात है ।। ४ ।। जो मधु अनेक जीवोंके घातसे उत्पन्न हुआ है, म्लेच्छोंके द्वारा जूठा किया गया है, मलसे परिपूर्ण है, और मलसे लिप्त पात्रमें रखा गया है उसको खानेवाले मनुष्यके भला पवित्रता कैसे रह सकती है ? नहीं रह सकती ||५|| जो हलाहल विष शीघ्र ही प्राणोंको हरनेवाला है उसका पी लेना कहीं अच्छा है, परन्तु प्राणियोंको निरन्तर दुख देनेवाले मधुका भक्षण करना योग्य नहीं है ॥६॥ संसारमें जो भी अनेक प्रकारके दुख विद्य १ स मध्वश्रतः । र स पर्यटति । ३ स सागरः । ४ स पातितो। ५ स मध्वश्यति । ६ स सप्तको । ७ स भक्षतः, भक्षते । ८ स वर्ग। ९ स निघणाः, निघृणा, निघृणः । १० स पात्रं निक्षिप्तं । ११ स लिहते। १२ स : ।.. १३ स भक्षत, भक्षतः । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सुभाषितसंदोहः [555 : २२-७ 355) दुःखानि यानि' संसारे विद्यन्ते ऽनेकभेदतः । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते जीधेन मधुभक्षणात्।।७।। 556) शमो वमो ध्या धर्मः संयमः शौचमाश्रयम् । पुंसस्तस्य न विद्यन्ते यो लेडि मधु सालसः ॥८॥ 557) औषधायापि यो मस्र्यो मध्वस्पति विवेतनः । कुयोनो जायते सो ऽपि कि पुनस्तत्र लोलुपः ॥ २॥ 558) प्रभावेनापि यत्पीतं भवभ्रमणकारणम् । तवश्नाति कर्य विद्वान् भीतचित्तो भवान्मधु ॥ १० ॥ 559) एकमप्यत्र यो बिन्दु भक्षयेन्मनो नरः। __ सोऽपि दुःखवृषा कोणे पतते भवसागरे ॥ ११ ॥ 560) ददाति लाति यो भुङ्क्ते निर्विशत्यनुमन्यते । गृह्णाति माक्षिकं पापः षडेते समभागिनः ।। १२ ॥ 561) एकत्रापि हते जन्सी पापं भवति वारणम् । न सूक्ष्मानेकजन्तूनां घातिनो मधुपस्य किम् ॥ १३ ॥ बनेकमेदतः यानि दुःखानि विद्यन्ते जीवेन मधूभक्षणात् तानि सर्वाणि लभ्यम्ते ॥ ७ ॥ लालसः यः मधु लेळि तस्य पुंस: शमः दमः दया, धर्मः, संयमः, शौचम् आर्जवं न विद्यन्ते ॥ ८ ।। बिचेतमः यः मर्त्यः औषषाय अपि मषु अस्यति सः अपि कुयोनौ जायते तत्र लोलुपः पुनः क्रिम् ॥ ९ ॥ प्रमोदनापि यत् पीतं भवभ्रमणकारणं भवति तत् मषु भवात भीतचित्तः विद्वान् कथम् अश्नाति ।। १०.॥ अत्र यः नरः मधुनः एक बिन्दुम् अपि भक्षयेत् सः अपि दुःखवषाकीणें भवसागरे पतते ॥ ११ ॥ यः पापः माक्षिक ददाति, यः लाति, यः भुङ्क्ते, मः निर्दिशति, यः अनुमन्यते, यः गृह्मति, एते षट् समभागिनः ॥ १२ ॥ एकत्र जन्ती अपि ह्ते दारुणं पापं भवति । सूक्ष्मानेकजन्तूनां षातिनः मधूपस्य [ पुनः ] किम् ॥ १३ ।। मान हैं वे सब जीवको मधुके खानेसे प्राप्त होते हैं ।। ७ ॥ मधुमें आसक्ति रखनेवाला जो पुरुष उसका स्वाद लेता है उसके शम, दम, दया, धर्म, संयम, शौच और आर्जव ये गुण नहीं होते हैं ।। ८ ।। जो मूर्ख मनुष्य औषधिके लिये भी मधुको खाता है वह भी जब दुर्गतिको प्राप्त होता है तब भला उसमें आसक्सि रखनेवाले मनुष्यके विषयमें क्या कहा जाय ? अर्थात् उसे तो दुर्गतिका महान् दुख सहना ही पड़ेगा ||९|| प्रमादसे भी पिया गया जो मधु संसार परिभ्रमणका कारण होता है उसको संसारसे भयभीत विद्वान् मनुष्य कैसे खाता है ? अर्थात् नहीं खाता है ॥ १० ॥ जो मनुष्य यहाँ एक ही मधुकी बूंदको खाता है वह भी दुखरूप मछलियोंसे व्याप्त संसाररूप समुद्रमें गिरता है। अभिप्राय यह कि जब एक बिन्दु मात्र मधुको खानेवाला मनुष्य संसारपरिभ्रमणके दुखको भोगता है तब उसे निरन्तर आसक्तिपूर्वक अधिक मात्रामें खानेवाला मनुष्य तो नियमसे उस संसारपरिभ्रमणके दुःसह दुखको भोगेगा ही, इसमें सन्देह ही क्या है ? ॥ ११ ॥ जो पापी मनुष्य मक्खियोंके मघुको देता है, ग्रहण करता है, खाता है, निर्देश करता है, अनुमोदन करता है और लेता है। ये छहों प्राणी समान पापके भागी होते हैं ।।१२।। एक ही जीवका घात होने पर जब भयानक दुख होता है तब सूक्ष्म अनेक जीवोंका घात करनेवाले मधुपायी मनुष्यके क्या वह भयानक दुख न होगा? अवश्य होगा ॥ १३ ॥ जो निदंय १ am, यानि । २ स मघुलालसः । ३ स यत्पापं । ४ स विदं । ५ स झषा", "तृषाकीर्णः। ६ स "सागरः । ७स मामिव । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ 567 : २२-१९] २२. मनिषेधद्वाविंशतिः 562) यो ऽइनाति मघ निस्त्रिशस्तज्जोवास्तेन मारिताः । चेन्नास्ति खादक:' कश्चिद्वधकः स्यासदा' कथम् ॥१४॥ 563) एकत्र मधुनो बिन्दो भलाते। इसंख्यदेहिनः यो हि न स्यात्कृपा तस्य तस्मान्मषुः न भक्षयेत् ॥ १५ ॥ 564) अनेकदोषदुष्टस्य मधुनो' पास्तदोषताम् । यो वृते तद्रसासक्तः सो ऽसत्याम्बुधिरस्तषोः ॥ १६ ॥ 565) यशल्पे ऽपि हते द्रव्ये लभन्ते व्यसनं बनाः । निःशेष मधुकर्य" मुष्णन्तो" म कथं व्यर्थः ॥ १७ ॥ 566) मथुप्रयोगतो वृद्धिर्मवनस्य ततो जनः । संचिनोति महत्पापं यात्यतो नरकावनिम् ॥१८॥ 567) बोनमंधुकरवर्गः संचितं मन कुण्डतः । यः स्वीकरोति निस्त्रिशः सो ज्यस्यजति कि नरः ॥ १२ ॥ यः निस्त्रिशः मधु अश्नाति वेन बज्जीवाः मारिताः । चेत् कश्चित् साक: नास्ति तदा वधकः कथं स्यात् ॥ १४ ।। हि यः मधुनः बिन्दौ असंख्यदेहिनः भक्षते, तस्य कृपा न स्यात् । तस्मात् मधुन भक्षयेत् ॥ १५ ।। तहसासक्तः यः अनेकदोषदुष्टस्य मधुनः पास्तदोषतां ब्रूते सः अस्तषी: असत्याम्बुधिः ॥ १६ ॥ यदि अल्पे अपि द्रव्ये हते जनाः व्यसनं लभन्ते [तहि ] निःशेषं मधुकथं मुष्णन्तः कथं न व्यषुः ।। १७ ॥ मधुप्रयोगतः मदनस्य वृद्धिः । ततः जनः महत्पापं संचिनोति। अतः (जनः) नरकान याति ।। १८॥ यः निस्त्रिंशः नरः दीनः मधुकरः वगैः कृपछुतः संचित मधु स्वीकरोति सः अन्यत् प्राणी मधुको खाता है वह तद्गत जीवोंको मारता है। ठीक है-यदि खानेवाला न हो तो जीववध करनेवाला कैसे होगा? नहीं होगा ॥ १४ ॥ विशेषार्थ-जो यह विचार करता है कि स्वयं जीववध न करके यदि वह मधु दूसरेके पाससे प्राप्त होता है तो उसके खाने में कोई हानि नहीं है। कारण कि उसके लिये जो जीववध किया गया है वह अपने निमित्तसे नहीं किया गया है। ऐसा विचार करनेवालेको लक्ष्य करके यहां यह बतलाया है कि जब मधुके ग्राहक रहते हैं तब ही घातक मनुष्य निरपराध प्राणियोंका बध करके मधुको प्राप्त करता है, न कि ग्राहकोंके अभाबमें । अतएव वैसी अवस्थामें भो मधुभोजी मनुष्य प्राणिहिंसाके पापसे मुक्त नहीं हो सकता है ।। १४ ॥ जो मनुष्य मधुको एक बूंदमें असंख्यात जीवोंको खाता है उनका नाश करता है उसके हृदयमें दया नहीं रह सकतो है। इसलिये मधुके खानेका त्याग करना चाहिये ।। १५ । जो मनुष्य मधुके स्वादमें बासक्त होकर अनेक दोषोंसे दूषित उस मधुको निर्दोष बतलाता है वह मूर्ख असत्यका समुद्र है-अतिशय झूठ बोलता है ॥ १६ ॥ यदि थोड़ा-सा भी धन हरा जाता है तो मनुष्य दुखको प्राप्त होते हैं। फिर भला जो मनुष्य मधुमक्खियोंके सब ही धन (मधु) को अपहरण करते हैं वे उन्हें कैसे दुखी नहीं करते हैं ? अवश्य ही दुस्सी करते हैं ॥१७॥ मधुके उपयोगसे कामको वृद्धि होती है, उससे मनुष्य पापका संचय करता है, और फिर इससे वह नरक भूमिको प्राप्त होता है-नरक गतिके दुःसह दुखको सहता है ॥ १८ ॥ जिस मधुको बेचारी मक्खियोंके समूहोंने बड़े कष्टसे संचित किया है उसको जो निर्दय मनुष्य स्वीकार करता है-खाता है—वह भला और १ स खादिकः । २ स तथा । ३ स भक्षिते, भक्ष्यते । ४ स भक्षते । ५ स मधुनोपास्त । ६ स om. यो। ७ स तद्रसयोशक्तः । ८ स शक्सः सो सत्यो बुद्धिरस्तधीः। ९ स ति for पि । १. स °कये, कार्यार्थ । ११ स मुष्णतो, मुष्णति । १२ स मधुनो यो । १३ स महापापं ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित संदोह : 568) पञ्चाप्येवं' महादोषान्यो धत्ते मधुलम्पट : ३ संसारकूपतस्तस्य नोशारो जातु जायते ॥ २० ॥ 569 ) संसारमीभिः सद्विजिनाशां परिपालितुम् । यावज्जीवं परित्याज्यं सर्वथा मधु मानवः ॥ २१ ॥ 570) विज्ञायेति महादोषं मधुनो बुधसत्तमाः । १५८ संसारासारतस्त्रस्ता विमुञ्चन्ति मधु त्रिधा ॥ २२ ॥ इति मधुनिषेध द्वाविंशतिः २२ ॥ [568: २२-२० किं स्यजति ॥ १९ ॥ य: मघुलम्पटः एवं पञ्च अपि महादोषान् घत्ते तस्य संसारकूपतः जातु उत्सारः न जायते ॥ २० ॥ संसारभीरुभिः सद्भिः मानवः जिनाज्ञां परिपालितुं यावज्जीवं सर्वथा मधु परित्याज्यम् ॥ २१ ॥ संसारासारतः त्रस्ताः बुधसत्तमाः इति मधुनः महादोषं विज्ञाय त्रिषा मधु विमुञ्चन्ति ।। २२ ।। इति मधुनिषेधद्वाविंशतिः ॥ २२ ॥ क्या छोड़ सकता है ? कुछ भी नहीं- - सब हो अभक्ष्य वस्तुओंको खाता है ॥ १९ ॥ इसप्रकार जो मघुलोलुपी मनुष्य पाँचों ही महापापोंको धारण करता है उसका उद्धार संसाररूप कुएँके भीतरसे कभी भी नहीं हो सकता है ॥ २० ॥ जो मनुष्य संसारके दुखसे भयभीत हैं वे जिन देवकी आशाका परिपालन करनेके लिये जीवन पर्यन्त उस मधुका सर्वथा परित्याग कर दें ॥ २१ ॥ इसप्रकार मधुके महान् दोषको जानकर जो श्रेष्ठ विद्वान् संसारकी असारतासे दुखी हैं वे उस मधुको तीन प्रकारसे मन, वचन व कायसे छोड़ देते हैं ॥ २२ ॥ इसप्रकार बाईस श्लोकोंमें मधुका निषेध किया। १ स°ध्येव । २ स पालतु । ३ स मधु त्यजत सतमा ४ स ^ निषेषनिरूपप्पम् । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. कामनिषेधपञ्चविंशतिः ] 571) यानि' मनस्तनुजानि जनानां सन्ति जगत्रितये ऽप्यसुखानि । कामपिशाचवशीकृतचेतास्तानि नरो लभते सकलानि ॥१॥ 572) ध्यायति धावति कम्पनियति धाम्यति ताम्यति नश्यति नित्यम् । रोदिति सीवति जल्पति दोन गायति नृत्यति मूर्छति कामी ॥२॥ 573) रुष्यति तुष्यति दास्यमुपैति कर्षति पोष्यति सौव्यति वस्त्रम् । किन करोत्ययका हतबुद्धिः कामयशः पुरुषो जननिन्धम् ॥ ३॥ 574) वेत्ति न धर्ममधमनियति म्लायति शोचति याति कृशत्वम् । नीचजनं भजते 'बजतोयां मन्मथराजविदितचित्तः ॥ ४ ॥ 575) नैति रति गहपत्तनमध्ये प्रामधनस्वजनाम्यजनेषु । वर्षसम क्षणमेकमवैति पुष्पषनुशतामुपयातः ॥ ५ ॥ ___ जगत्रितये अपि जनानां यानि मनस्तनुजानि असुखानि सन्ति कामपिशाचवशीकृतचेताः नरः तानि सकलानि लभते ।। १ ।। कामी नित्यं ध्यायति, पारति, कम्पम् यति थाम्पति, ताम्पति, नश्यति, रोदिति, सीदसि, दीनं जल्पति, गायति, नृत्यति, मूछति ॥ २॥ कामवशः हतबुद्धिः पुरुषः सष्यति, तुष्यति, दास्यम् उपति, कर्षति, दीव्यति, वस्त्र मोष्यति । अथवा जननिन्धं किं न करोति ॥ ३ ॥ मम्मपराजविदितचित्तः धर्म न वेत्ति, अधर्मम् इयति, म्लायति, शोवति कृसत्वं माति, नीधजनं भजते, ईष्या नजति ॥ ४॥ पुष्पधनुर्वशताम् उपयातः गृहपत्तनमध्ये ग्रामधनस्वजनान्यजनेषु रति __ तीनों लोकोंमें प्राणियोंके मानसिक व शारीरिक जो भी दुःख हैं उन सबको कामरूप पिशाचसे पीड़ित हुआ मनुष्य प्राप्त करता है ॥ १॥ कामी मनुष्य निरन्तर कामके विषयमें चिंतन करता है, इसके लिये दौड़ता है, कम्पनको प्राप्त होता है, परिश्रम करता है, सन्तप्त होता है, नष्ट होता है, रोता है, विषाव करता है, दोन वचन बोलता है, गाना गाता है, और मूर्छाको प्राप्त होता है ।। २॥ वह क्रोधको प्राप्त होता है, सन्तुष्ट होता है, सेवा करता है, खेती करता है, जुमा गावि खेलता है और वस्त्रको सीता है । अथवा ठीक है-कामके वशीभूत हुआ दुर्बुद्धि मनुष्य कौन-से लोकनिन्ध कार्यको नहीं करता है ? अर्थात् वह सब ही लोकनिन्द्य कार्योंको करता है ।। ३ ।। जिस मनुष्यका मन कामसे पीडिस होता है वह धर्मके स्वरूपको नहीं जानता है, अधर्मको प्राप्त होता है, खिन्न होता है, शोक करता है, दुर्बलताको प्राप्त होता है, नीच जनकी सेवा करता है, और ईर्ष्याको धारण करता है ।। ४ । जो मनुष्य कामको पराधीनताको प्राप्त हुआ है वह घर और नगरके भीतर स्थित होकर गांव, धन, कुटुम्बी जन तथा अन्य मनुष्योंके विषयमें अनुराग नहीं करता है। यह एक क्षणको वर्षके समान समझता है, अर्थात् उसका एक-एक क्षण बड़े कष्टसे बीतता है ॥ ५॥ कामके वशीभूत हुए मजामि।२स जातिजनाना। ३ सथामति। ४स रोदति । ५ सदानं । ६स °वशो।७स om. °मधर्म । ८स शोचमति । ९ स वजत्पुय्या । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सुभाषितसंदोहः [576 : २३-६ 576) सर्वजनेन विनिन्दितमतिः सर्वविचारबहिर्भवबुद्धिः'। सर्वजनप्रथितां निजकीति मुशति कन्तुयशो गतकान्तिः ॥६॥ 577) भोजनशान्ति विहाररताना सामन'साषवतां श्रमणानाम् । आममपा मिव पात्रमपात्रं ध्वस्तसमस्तसुखो मवनातः।। ७ ।। 578) चारगुणो विविताखिलशास्त्रः कर्म करोति कुलीनविनिन्द्यम् । भातृपितृस्वजनान्यजनाना नेति वशं मदनस्प बशो ना ॥८॥ 579) तावदोषविचारसमर्थस्तावरण्डितमृच्छति' मानम् । तावरपास्तमलो मननीयो याववनङ्गवशो न मनुष्यः ॥९॥ 580) शोचति विश्वमभीच्छति प्रष्टुमाषयति ज्वरमृच्छति" वाहम् । मुश्चति भक्तमुपैति विमोह मायति वेपति याति मृति ॥१०॥ 581) एकमपास्तमतिः क्रमतोत्र पुष्पषनुवंशवेगविषतः।। किन जनो लभते जननिन्यो" दुःसमसामनन्तमवाच्यम् ।। ११ ॥ नैति । एक क्षणं वर्षसमम् अवैति ॥ ५ ।। सर्वजनेन विनिन्दितमूर्तिः सर्वविचारबहिर्भवबुद्धिः गतकान्तिः कन्सुवशः सर्वजनप्रपिता निजकीर्ति मुवति ।। ६ ।। आम पात्रम् अपाम् इव ध्वस्तसमस्तसुखः मवनात: भोजनशान्तिविहाररताना सजनसाधुवा श्रमणानाम् अपात्रं भवति ।। ७ ॥ चारुगुणः विदिताखिलशास्त्र: ना मदनस्य वशः कुलीनविनिन्धं कर्म करोति च मातृपितृस्वजनान्यजनानां वशं न एति ।। ८ 1 यावत् मनुष्पः अनावशी न [ भवति ] तावत अशेषविचारसमर्थः तावत् अखण्डितं मानं ऋच्छति तावत् अपास्तमलः मननीयः भवति ॥ ९ ॥ [ अनङ्गवशी नरः ] शोषति, विश्वं द्रष्टुम् अभीच्छति । ज्वरम् आश्रयति, दाहम् ऋच्छति, भक्तं मुञ्चति, विमोहम् उपति, माद्यति, वेपति, मृति न याति ॥ १० ॥ एवं पुष्पधनुर्द मनुष्यको सबलोग निन्दा करते हैं, उसकी बुद्धि सब योग्यायोग्यके विचारसे बहित होती है, तथा वह दीप्तिसे रहित होकर समस्त जनमें प्रसिद्ध अपनी कीतिको छोड़ता है-नष्ट करता है।॥ ६ ॥ जिस प्रकार कच्चा मिट्टीका बर्तन अल रखनेके योग्य नहीं होता है उसी प्रकार कामसे पीड़ित मनुष्य समस्त सुखसे रहित होकर उन मुनियोंके अथवा उनके धर्म (मुनिधर्म ) के योग्य नहीं होता है जो कि भोजन, शान्ति एवं विहार में तत्पर रहते हुए सज्जन व कुलीन जनोसे सहित होते हैं ।। ७॥ जो मनुष्य कामके वशीभूत हुआ है वह उत्तम गुणोंसे सहित और समस्त शास्त्रोंका जानकार हो करके भी ऐसे अयोग्य कार्यको करता है जिसको कि कुलीन जन निन्दा किया करते हैं। वह माता, पिता, कुटुम्बी जन और अन्य जनोंके वशमें नहीं होता है॥ ८॥ मनुष्य जब तक कामके वशमें नहीं होता है तब तक हो वह समस्त योग्यायोग्यके विचारमें समर्थ होता है, तब तक हो उसकी अखण्डित प्रतिष्ठा रह सकती है, और तब तक ही वह निर्दोष होकर मननीय भी होता है ।।९॥ कामके यशमें हुआ निबुद्धि मनुष्य शोक करता है चिन्तन करता है, विश्वको देखनेकी इच्छा करता है, [ दोषं निःश्वासोंको छोड़ता है, ] ज्वरका आश्रय लेता है, दाहको प्राप्त होता है, भोजनका त्याग करता है, म को प्राप्त होता है, उन्मादसे युक्त होता है, कांपता है, और अन्तमें मृत्युको प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार क्रमसे इन कामके दश वेगोंसे पीड़ित होता है । ठीक है-कामान्ध मनुष्य लोगोंके द्वारा निन्दित होकर १स मुदिः । २ स कीर्ति । ३ स om. °निन्दित- कान्तिः । ४ स "शाति', 'सीति", "शीति , शीत । ५ स सज्जन सा । ६ स सज्जन', घमणाना, श्रवणानां । ७ स बाममया। ८ सभा for ना 1 ९ स मूच्छिति । खण्डित मूर्छति । १० समभीष्टति, मतिष्ठति । ११ स ज्वरमिछति । १२ स भक्तु , मक्ति । १३ स निद्ये । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. कामनिषेधपञ्चविंशतिः 587: २३-१७ ] 582) चिन्तनकीर्तन' भाषण के लिस्पर्शनवर्शनविभ्र महास्यैः । अष्टविधं निगदन्ति मुनीन्द्राः काममपाकृतकामविबाधाः ।। १२ ।। 583) सर्व जनैः कुलजो जनमान्यः सर्वपदार्थविचारणवक्षः 1 मन्मथबाण विभिन्नशरीरः क न नरः कुरुते जननिन्द्यम् ॥ १३ ॥ 584) अह्नि रविवहति त्वचि वृद्धः पुष्पधनुर्वहति प्रबलोढम् । रात्रिविनं पुनरन्तरमन्तः संवृतिरस्ति रथेनं तु कन्तोः ॥ १४ ॥ 585) स्थावरजङ्गमभेदविभिन्नं जोवगणं विनिहन्ति समस्तम् । निष्करुणं कृतपात कचेष्टः कामवशः पुरुषो ऽतिनिकृष्टः ॥ १५ ॥ 586) निष्ठुरमश्रवणीयमनिष्टं वाक्यमसह्यमवद्य महृह्यम् । जल्पति 'धक्रमवाच्यमपूज्यं मद्यमवाकुलवन्मदनातः ॥ १६ ॥ 587) स्वायंपरः परदुःखमविद्यन्प्राणसमा न्यपरस्य घनानि । संसृतिदुःख विधाय विदित्वा पापमनङ्गशोहरते ऽङ्गी ॥ १७ ॥ १६१ शवेगविधूतः जननिन्धः अपास्तमतिः जनः असह्यम् अनन्तम् अवाच्यं दुःखं न लभते किम् ॥ ११ ॥ अपाकृतकाम विवाधा मुनीन्द्राः चिन्तनकीर्तन भाषण के लिस्पर्शन दर्शनविश्व महास्यैः अष्टविधं कामं निगदन्ति ॥ १२ ॥ कुलजः सर्वजनैः जनमान्यः सर्वपदार्थ विचारणवशः मन्मथ वाणविभिन्नशरीरः नरः जननिन्थं किं न कुरुते ।। १३ ।। अह्नि वृद्धः रविः त्वचि दहति । पुनः पुष्पधनुः रात्रिंदिनं प्रबलोकम् अन्तरम् अन्तः दहति । रवेः संवृतिः अस्ति तु कन्तोः न ।। १४ । कामवशः अतिनिकृष्टः पुरुषः कृतपातकचेष्टः स्थावरजङ्गमभेदविभिन्नं समस्तं जीवगणं निष्करुणं निहन्ति ।। १५ ।। मदनाः मद्यमदाकुलवत् निष्ठुरम् अश्रवणीयम् अनिष्टम् असह्यम् अवधम् अहृद्यं वक्रम् अवाच्यम् अपूज्यं वाक्यं जल्पति ।। १६ ।। अनङ्गवशः स्वार्थ किस असह्य, अनन्त एवं अनिर्वचनीय दुखको नहीं प्राप्त होता है ? अर्थात् वह सब ही दुःसह दुःखोंको भोगता है ।। १०-११ ॥ जो मुनीन्द्र कामको बाधासे रहित हो चुके हैं वे चिन्तन, कीर्तन, भाषण, केलि, स्पर्शन, दर्शन, विभ्रम और हास्य इसप्रकारसे कामके आठ प्रकार बतलाते हैं ॥ १२ ॥ जो मनुष्य सब जनोंसे आदरणीय, कुलीन और समस्त पदार्थोंका विचार करने में समर्थ हो करके भी कामके बाणोंसे छेदा मेदा गया है वह कौन-से लोकनिन्द्य कार्यको नहीं करता है ? अर्थात् वह निन्द्य कार्यको करता ही है ॥ १३ ॥ सूर्य उदयको प्राप्त होकर दिनमें बाह्य चमड़े के भीतर दाह उत्पन्न करता है, परन्तु कामदेव प्रबलता से धारण किये गये ( या विवाहित ) पुरुषको रात-दिन भीतर जलाता है— उसके अन्तःकरणको सन्तप्त करता है। सूर्यका आवरण हो सकता है-छत्री आदिके द्वारा उसके तापको रोका जा सकता है, परन्तु कामका आवरण नहीं है - उसके वेगको नहीं रोका जा सकता है ॥ १४ ॥ कामके बशोभूत हुआ अतिशय हीन पुरुष पाप चेष्टाओं को करके निर्दयतापूर्वक स्थावर और जसके भेदों में विभक्त समस्त प्राणिसमूहको नष्ट करता है ||१५|| कामसे पीड़ित मनुष्य मद्यको पीकर उसके नशेसे उन्मत्त हुएं पुरुषके समान कठोर, श्रवणकटु, अनिष्ट, असह्य, पापस्वरूप, अमनोहर; कुटिल, निन्द्य एवं न कहने योग्य वाक्यको बोलता है ।। १६ ।। कामके वशीभूत हुआ प्राणी दूसरोंके दुखका अनुभव न करके स्वार्थ में लीन होता हुआ उनके प्राणोंके समान प्रियधनको हरता है । इससे जो उसके संसार दुखको बढ़ाने वाला पाप होता है उसकी भी वह परवाह नहीं करता है ।। १७ । जो १ स कीर्ति । २ स विधि | ३ स भगति । ४ स ' वाणभिन्न । ५ स हि । ६ स वचवृद्धं शुचिवृद्धः । ७ सापक° । ८ स वक्तुं for वक्रं । ९ स विद्वान् १० स समान" । सु. सं. २१ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सुभाषितसंवोहः | 588 : २३-१४ 588) यो ऽपरिचिन्त्य भवार्णवदुःखमन्यकलत्रमभीमति कामी। साधुजनेन विनियमगम्यं तस्य किमत्र पर परिहार्यम् ॥ १८ ॥ 589) तापकर पुरुपातकमूलं दुःखशतार्थमनर्थनिमित्तम्। लाति वशः पुरुषः कुसुमेयोग्रन्थमनेकविध दुनिन्धम् ॥ १९ ॥ 590) एवमनेकविध विषाति यो जननार्णवपातमिमित्तम् । चेष्टितमङ्गल बाणविभिन्नो नेह सुखी न परत्र सुखी सः ॥ २० ।। 591) दृष्टिचरित्रतपोगुणविद्याशीलदयावमशौचशमाद्यान् । कामशिखी वहति क्षणतो नुहिरिवन्धनमूजितमत्र ॥ २१ ॥ 592) किंबहुना कथितेन नरस्य कामक्शस्य न किंचिवकृत्यम् । एवमवेत्य सवा मतिमतः कामरिघु क्षयमत्र नयन्ति ।। २२ ॥ 593) नारिरिमं विदधाति नराणां रोजमना नपतिनं करीतः। दोषमहिनं न तीवविषं वा यं वितनोति मनोमववेरी ॥ २३ ॥ परः परदुःखम् अविद्यम् अङ्गी संसृतिदुःखविधौ पापम् अविदित्वा अपरस्य प्राणसमानि धनानि हरते ।। १७ ॥ यः कामी भवार्णवदुःखम् अपरिचिन्त्य साधुजनेन विनिन्धम् अगम्यम् अन्यकलत्रम् अभीमति । तस्य अत्र परं परिहार्य किम् ॥ १८ ॥ कुसुमेषोः वशः पुरुषः तापकरं पुरुषातकमूलं दुःखशतार्थम् अनर्थनिमित्तं बुधनिनाम् अनेकवित्रं पन्थं लाति ॥ १९ ॥ अङ्गजवाणविभिन्नः यः एवं जननार्णवपातनिमित्तम् अनेकविध चेष्टितं विदधाति सः इह न सुली परत्र न सुखी ॥ २० ॥ वह्निः ऊर्जितम् इन्धनम् इव अत्र नुः कामशिखी दृष्टिमरित्रतपोपुणविद्याशीलदयादमशौचधमाद्यान् क्षणतः दहति ॥ २१ ।। बहना कषितेन किम् । कामवशस्य नरस्य किंचित् अकृत्य म । एवम् अवेत्य अत्र मतिमन्तः कामरिपुं सवा क्षयं नयन्ति ॥ २२ ॥ मनोभवरी नराणां ये दोषं वितनोति, इमम् अरिःन विवषाति । रौद्रमनाः नृपतिः म, करीन्द्रः न, अहिः न, तीव्रवि कामी पुरुष संसाररूप समुद्रके दुखका विचार न करके सज्जनोंके द्वारा निन्दनोय, अगम्य (अनुराग के अयोग्य परस्त्रीको इच्छा करता है वह यहां अन्य किस पापको छोड़ सकता है ? अर्थात् वह सब पापोंके करनेमें उद्यत रहता है ॥ १८॥ कामके बाणके वशीभूत हुआ मनुष्य उस अनेक प्रकारके परिग्रहको ग्रहण करता है जो कि संतापको उत्पन्न करता है, महापापका कारण है, सैकड़ों दुःखोंको देनेवाला है, अनर्थका कारण है, और विद्वानोंके द्वारा निन्दनीय है ॥ १९ ॥ जो प्राणी कामके बाणोंसे भेदा गया है वह संसाररूप समुद्रमें गिरानेवाली अनेक प्रकारकी चेष्टाको करता है इससे वह न इस लोकमें सुखी होता है और न पर लोकमें भो । तात्पर्य यह कि वह दोनों ही लोकोंमें दुखी होता है ॥२०॥ जिसप्रकार यहाँ अग्नि प्रबल इन्धनको क्षणभरमें जला देतो है उसीप्रकार कामरूप अग्नि भी मनुष्यके सम्यग्दर्शन, चारित्र, तप, शान, शोल, दया, दम, शोच और शम मादि गुणोंको क्षण भरमें जला देती हैं उन्हें नष्ट कर देती है ।। २१ ॥ बहुत कहने से क्या? कामके वशीभूत हुए मनुष्यके लिये न करनेके योग्य कुछ भी नहीं रहता वह सब हो अकार्यको करता है, इसप्रकार जान करके यहाँ बुद्धिमान् मनुष्य उस कामल्प शत्रुको नष्ट करते हैं ।। २२ ॥ मनुष्योंके जिस दोषको कामरूप शत्रु करता है उसको न शत्रु करता है, न मनमें रुद्रताको धारण करनेवाला राजा करता है, न मदोन्मत्त हाथी करता है, भ सपं करता है, और न तीव्र विष भी करता है ॥ २३ ॥ शत्रु और सर्पका दुख एक भवमें होता है, किन्तु १ स यो परि । २ स भीप्सति । ३ स "हाय । ४ स कुसुमेषु [ २ ] ५ स विधि । ६ स मंगि । ७ स सुखं । ८ स मतिवंतः । ९ स रिपुतयमत्र । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ 595; २३-२५ २३. कामनिषेधपञ्चविंशतिः 594) एकभवे रिपुपन्नगदुःखं जन्मशतेषु मनोभवदुःखम् । चारुधियेति विचिन्त्य महान्तः कामरिपुं क्षणतः क्षपयन्ति ॥ २४ ॥ 595) संयमधर्मविबद्ध शरीराः साधुभटाः स्मरवैरिणमुग्रम् । । शीलतपःशितशस्त्रनिपातैवर्शनम्रोध बलाविध नन्ति ॥ २५ ॥ इति कामनिषेध पविशतिः ॥ २३ ॥ वा न ।। २३ ।। एकभवे रिपुपन्नगदुःखं, जन्मशतेषु मनोमवदुःखम्। इति चारुधिया विचिन्स्य महान्तः कारिपुं क्षणतः सपपन्ति ॥ २४ ।। संयमधर्मविबद्धशरीराः साधुभटाः दर्शन बोधदलात् शीलतपःशितशस्त्रनिपात: उमं स्मरवरिण विधनन्ति ।। २५ ।। इति कामनिषेधपञ्चविंशतिः ।। २३ ।। कामजनित दुख प्राणियोंके लिये सैकड़ों भवोंमें सहना पड़ता है; ऐसा निर्मल बुद्धिसे विचार करके महापुरुष उस कामरूप शत्रुको क्षणभरमें हो नष्ट कर डालते हैं ।। २४ ।। जिनका शरीर संयमरूप धर्मसे विशेष संबद्ध है वे साधुरूप योद्धा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानकी सहायतासे शील एवं तपरूप तीक्ष्ण शस्त्रोंके प्रहारसे उस भयानक कामरूप शत्रुको नष्ट करते हैं ॥ २५ ॥ इसप्रकार पच्चीस श्लोकोंमें कामका निरूपण हुआ । १ स एकत्रभवे । २ स वित्तिति । ३ स "विवर्ड । ४ स शन", शरवरि', सम°१५ स योष । ६ स विधुनोति । ___७ स निषेनिरूपणम् । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४. वेश्यासंगनिषेधपञ्चविंशतिः । 596) सत्यशौचशमसंयमविद्याशीलवृत्त गुणसस्कृतिलज्जाः। याः क्षयन्ति पुरुषस्य समस्तास्ता बुधः कमिहेछति वेश्याः॥१॥ 597} यासु सक्त मनसः क्षयमेति ख्यमापदुपयाति समृद्धिम् । नियता भवति मश्यति कोसिसा भजन्ति गणिकाः किमु मान्याः ॥२॥ 598) धर्ममति तनुते पुरु पापं या निरस्यति गुणं कुरुते ऽन्यम् । सोस्यमस्यति स्वाति व बुलं तां विगस्तु गणिकां बहुपोषाम् ॥३॥ 599) अल्पनं व जघनं च यवीयं निन्धलोकमल विग्ध"मवाव्यम् । पथपोषितम"ननिमित्ता तां नरस्य भजतः किमु शौचम् ॥ ४॥ 600) संवाति हवये ऽज्यमनुष्यं याभ्यमावति दृष्टिविशेषः । अम्पमपिनमतो भगते सो को दुषः भयति पय"पुरंधीम् ॥ ५॥ याः पुरुषस्य समस्ताः सत्यशोचशमसंयमविद्याशीलवृप्तगुणसत्कृतिलज्जाः क्षयन्ति ताः वेश्याः इह बुधः कथम् इच्छति ॥ १॥ यासु सक्तमनसः दम्य भयम् एति, आपत् समृद्धिम् उपयाति, निम्धता भवति, कीति: नश्यति ताः गणिकाः मान्याः भजन्ति किम् ॥ २ ॥ या धर्मम् अत्ति, पुरु पापं तनुते, गुणं निरस्यति, अम्यं कुस्ते, सोस्यम् अस्यति, दुःखं च ददाति, तां बहुदोर्षा गणिकां पिक अस्तु ॥ ३ ॥ यदीयं जल्पनं च जपनं च निन्दलोकमलविषम् अवाच्यम् । अननिमित्ता ता पण्पयोषित भजतः नरस्य शौचं किमु ॥४॥ या हृदये अन्धमनुष्यं संवधाति, अम्यं दृष्टिविशेष : आह्वयति, अतः अन्यम् अधिनं भजते । कः युधः तां पथ्यपुरुषी अयति ॥ ५ ॥ पण्पयोषिति विषक्तमनस्कान् श्रीकृपाम तितितिकीतिप्रीतिकान्तिसमसापटुतासा: जो वेश्यायें यहाँ पुरुषके सत्य, शौच, शम, संयम, विद्या, शील, चारित्र, गुण, सरकार और लज्जा इन सब गुणोंको नष्ट कर देती हैं उन वेश्याओंकी विद्वान मनुष्य कैसे इच्छा करता है ? नहीं करता है उनको अभिलाषा अविवेकी जन ही किया करते हैं ॥ १ ।। जिन वेश्यों के विषयमें आसक्तचित्त मनुष्यका धन नाशको प्राप्त होता है, विपत्ति वृद्धिंगत होती है, निन्दा होती है, और कीर्ति नष्ट होती है उन वेश्याओंका सेवन क्या कभी मान्य (प्रतिष्ठित) पुरुष करते हैं ? नहीं करते ॥ २॥ जो धर्मको खा जाती है-नष्टकर डालती है, महापापको विस्तृत करती है, गुणको नष्ट करती है, दोषको उत्पन्न करती है, सुखका विघात करती है, और और दुखको देती है; उस बनेक दोषोंसे परिपूर्ण वेश्याको धिक्कार हो ॥ ३॥ जिसका मुख और जघन नीच लोगोंके मलसे लिप्त और अवाच्य होता है उस अनर्थको कारणभूत वेश्याका सेवन करनेवाले मनुष्यके क्या पवित्रता रह सकती है ? नहीं रह सकती ॥ ४ ॥ जो वेश्या मनमें अन्य मनुष्यको लक्ष्य करती है-मनसे किसी अन्य पुरुषका विचार करती है, कटाक्षोंके द्वारा दूसरेको बुलाती है, तथा इससे भिन्न दूसरे धनी मनुष्यका सेवन करती है; उस वेश्याका आश्रय कौन-सा विद्वान करता है ? कोई नहीं॥५॥ जिन मनुष्योंका मन १ स वृत्ति , °वत । २ स क्षिपंति । ३ स समस्तो को वुध कथ। ४ सशक्त । ५ स तां । ६ स गणिकां । ७ स गुरु १८ सा for या । १ स गणिकाबहदोपं 1 १० ल II. च । ११ सदाब १२ सयोषितमर्थ । १३ स को वुधा, बुधैः । १४ स पुण्य । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 : २४-११ ] २४. वेश्यासंगनिषेषपञ्चविंशतिः 501) श्रीकृपामतितिद्युतिफोतिप्रीतिकान्तिसम'तापटुताधाः। योषितः परिहरन्ति क्षेष पण्यपोषिति विषक्तमनस्कान् ॥६॥ 602) या करोति बहुचाटुशतानि व्यवातरि जने प्यकुलीने । निधनं त्यजति काममपि स्त्री तो विशुवषिषणा न भजन्ति ॥७॥ 603) उत्तमो ऽपि फुलमो ऽपि मनुष्यः सर्वलोकमाहितोऽपि बुधो ऽपि । वासतां भजति यो भजमानस्तां भवन्ति गणिका किमु सन्तः ॥ ८॥ 604) मा विचित्रविटकोटिनिवृष्टा मद्यमांसनिस्तासिनिष्टा । कोममा बसि चेतसि पुष्टाहा भवन्ति गमिका न बिशिष्टाः ॥९॥ 605) यासंग्रहपरातिनिष्टा सत्यशोषसमधर्मबहिष्ठाः । सर्वदोषनिस्यातिनिकृष्टा' सांभयन्ति गणिकां किमु शिष्टाः ॥१०॥ 606) या कुलोनमकुलोनममान्य" मान्यमाभितगुनं गुणहीनम् । वेति नो कपटसंकटचेष्टा सा व्रजन्ति मणिकां किमु शिष्टाः ११॥ योषितः रुषेव परिहरन्ति ॥६॥ या स्त्री अकुशीने अपि पवातरि जने बह पाटशवानि करोति । मिर्षन कामम् अपि रयति । तां विशुद्धधिषणाः न भजन्ति ॥ ७॥ यो मजमान: मनुष्य: उत्तमोपि दुसाः अपि सर्वलोकहितः अपि बुषः अपि दासता भजति । सन्तः तां गणिका भजन्ति किमु ॥ ८॥ या विचित्रविटकोटिनिवृष्टा, मामांमनिरता, अतिनिकृष्टा, वचसि कोमला, चेतसि दुष्टा, तां गणिका विशिष्टाः न भवन्ति ॥ ९॥ या वर्षसंग्रहमरा बतिनिषष्टा, सत्यक्षोश्चमधर्मबहिष्ठा, सर्वदोषनिलया, असिनिकृष्टा तो गषिको शिष्टाः पयन्ति किम् ॥ १०॥ या कुलीनम् अकुलीनम्, मान्यम् बमान्यम्, मानिसगुणं गुणहीनं नो वेत्ति, या कपटसंकटचेष्टा, तां गणिकां शिष्टाः सन्ति किम् ॥ ११॥ कुसनोऽपि यावत् वेश्यामें आसक्त है, उनको लक्ष्मी, दया, बुद्धि, धृति (धेय) द्युति, कोति, प्रीति, कान्ति, समता और निपुणता आदि स्त्रियाँ मानों क्रोधसे ही छोड़ देती हैं। अभिप्राय यह है कि वेश्यासक्त पुवकी लक्ष्मी, दया एवं बुद्धि आदि सब कुछ नष्ट हो जाता है ॥ ६ ॥ जो स्त्री (वेश्या) धन देनेवाले नीच पुरुषकी भी सैकड़ों प्रकारसे खुशामद करती है तथा कामके समान सुन्दर भी निर्धन मनुष्यको छोड़ देती है उस वेश्याका निर्मकबुद्धि मनुष्य सेवन नहीं करते हैं ॥ ७॥ जिस वेश्याको सेवन करनेवाला मनुष्य उत्तम, कुलीन, सन लोगोंसे पुलिस और विद्वान हो करके भी सेवकके समान बन जाता है उस वेश्याका क्या सज्जन मनुष्य सेवन करते हैं ? नहीं करते ।। ८ ।। जो वंश्या अनेक प्रकारके करोड़ों व्यभिचारियोंके द्वारा सेवित होती है, मद्य और मांसमें अनुरक्त होती है, अतिशय निकृष्ट होती है, तथा वचनमें कोमल व मनमें दुष्ट होती है; उसको सज्जन मनुष्य कभी सेवन नहीं करते हैं ॥ ९॥ जो वेश्या धनके संग्रहमें लीन होतो है, व्यभिचारी जनसे अतिपाय सेवित होती है; शौच, शम और धर्मसे बहिर्भूत होती है, शमस्त दोषोंसे सहित होती है, तथा इसीलिये जो अतिशय निन्द्य समझी जाती है। उसका क्या कभी शिष्ट जन आश्रय लेते हैं ? नहीं लेते ॥ १०॥ जो वेश्या कुलीन और अकुलीन, मान्य और अमान्य तथा गुणवान और गुणहीन पुरुषों में विवेक नहीं रखती है; उस कपटपूर्ण माचरण करनेवाली वेश्याका क्या सज्जन पुरुष सेवन करते हैं ? नहीं करते ॥ ११ ॥ कुलीन भी मनुष्य वेश्याको १ स 'शम° । २ स बहुधादुशतानि । ३ स कुलेने । ४ स स्त्री। ५ स कोमलो, कोमले। ६ स दुष्टो । ७ स कृष्टा । ८ स वहिष्टा । ९ स क्वष्टा, निलयादिनिष्टा । १. समान्यमन्यमा । ११ स चेष्टा । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [607 : २४-१२ १६६ सुभाषितसंदोहः .. 607) तायवेव वयितः कुलजो ऽपि याचदर्पयति भूरिधनानि । येशुवत्त्यजति निर्गतसारं तत्र हो किमु सुखं गणिकायाम् ॥ १२ ॥ 608) तावदेव पुरुषो जनमान्यस्ताववाश्रयति चारुगुमश्रीः।। तावदामनति धर्मवासि यायवेति न वशं गणिकायाः ॥१३॥ 609) मन्यते न धनसौख्यविनाशं नाम्युपैति गुरुसज्जनवाश्यम् । नेक्षते भवसमुद्रमपारं दारिकापितमना गप्तबुद्धिः ॥ १४ ॥ 610) धारिराशिसिकतापरिमाण सर्पराविजलमध्यगमार्गः।। ज्ञायते व निखिलं ग्रहचर्क नो मनस्तु चपलं गणिकायाः ॥ १५ ॥ 611) या शुनोव बहुचाटुशतानि दानतो' वितनुतो मशभक्षा । पापकर्मजनिता कपटेष्ठा यान्ति पम्पवनिता न बुषास्ताम् ।। १६ ॥ 612) मद्यमांसमलविन्धमशौचं नीघशोकमुखसुभ्यनवलम् । यो हि सुम्थति' मुखं गणिकाया नास्ति तस्य सदृशो ऽतिनिकृष्टः" ॥ १७ ॥ भूरिधनानि अर्पयति तावत् एव स दयितः। ही, या निर्गतसारम् क्षुवत् त्यजति, तत्र गणिकायां सुखं स्यात् किमु ॥ १२॥ | पुरुषः यावत् गणिकायाः वशं न एति, तायवेव जनमान्यः । तावत् पारुगुणोः [ तम् ] आधयति । तावत् [सः ] धर्मवासि आमनति ।। १३ ।।दारिकार्पितमनाः गतवृद्धिः धनसोल्यविनाशं न मन्यते, गुरुसज्जनवाक्यं न अभ्युपैति, अपार भवसमुद्रं न ईक्षते ॥ १४ ।। वारिराशिसिकतापरिमाणं, सर्पराविजलमध्यगमागः, निखिलं महचक्रं च ज्ञायते । तु गणिकाया. चपलं मनः नो शायते ॥ १५ ।। मलभक्षा शुमीव या दानतः बहुचाटुशताति वितनते, या पापकर्मबनिता कपटेष्टा, वां पश्यवनितां बुधाः न यान्ति ॥ १६ ॥ हि यः मयमांसमलदिग्धम् अशोचं नीचलोकमुखचुम्बनक्कं गणिकायाः मुसं चुम्वति, तस्य सदृशः मतिनिकृष्टः न अस्ति ।। १७ ॥ नितिशा या नरस्य जातु न विश्वसिति, तु प्रत्ययं कुरुते । कृतथ्मी उपकारम् तब तक ही प्रिय लगता है जब तक कि वह उसे बहुत-सा धन देता रहता है । जो वेश्या धनसे रहित हो जाने पर उसे रसहीन ईसके समान छोड़ देती है उस वेश्याके सेवनमें सुख हो सकसा है क्या? नहीं हो सकता है ॥१२॥ पुरुष जब तक वेश्याके वशमें नहीं होता है तब तक ही उसका मनुष्य सम्मान करते हैं, तब तक ही उत्तम गुणरूप लकभी उसका आश्रय लेती है, और तब तक ही वह धर्मवचनोंको मानता है-धर्मोपदेशको सुनसा मीर तदनुसार आचरण करता है।॥१३ ।। जिस बुद्धिहीन मनुष्यका मन वेश्यामें मासक्त है वह अपने धन और सुखके नाशको नहीं देखता है, गुरु और सज्जनके वचनको नहीं प्राप्त होता है नहीं सुनता है, तथा अपार संसाररूप समुद्रको भी नहीं देखता है ॥ १४ ॥ समुद्रकी बालुका प्रमाण जाना जा सकता है; सर्प, रात्रि और अलके मध्यसे जानेवाले मार्गको जाना जा सकता है, तथा समस्त ग्रहमण्डलको भी जाना जा सकता है। परन्तु वेश्याके चंचल चित्तको नहीं जाना जा सकता है ॥ १५ ॥ जो वेश्या मलको खानेवाली कुत्तोके समान घनके निमित्त सैकड़ों प्रकारसे बहुत खुशामद करती है, पाप कर्मसे वेश्या हुई है, तथा जिसे कपटाचरण हो प्रिय रहता है उसे ज्ञानी जन स्वीकार नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ जो वेश्याका मुख मद्य व मांससे लिप्त, अपवित्र एवं नीच जनके चमनेमें तत्पर रहता है उस मुखका जो मनुष्य चुम्बन करता है उसके समान नीच दूसरा कोई नहीं है ॥ १७ ॥ कपटाचरणमें चतुर जो वेश्या मनुष्यका कभी विश्वास नहीं करती है, परन्तु उसे विश्वासका १स व्येसुव । २ स हो । ३ स °वाज्यं । ४ स °मना मपि । ५ सपरिपाणां । ६ स दामतो।' ७ स कपटेष्टा । ८ स येन for यो हि। ९ स चुबित, बुवितं । १० स तेन tor तस्य । ११ स पि नकृष्टः, न्य for °ति । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 : २४-२३ ] २४. वेश्यासंगनिषेघपचविशतिः 613 ) या न विश्वसिति जातु नरस्य प्रत्ययं तु कुरुते निकृतिशा' । नोपकारमपि वेत्ति कृतघ्नी करत स्त्यजत तां खलु वेश्याम् ॥ १८ ॥ 614) रागमोक्षणयुगे तनुकम्पं बुद्धिसत्व 'धनवीर्यविनाशम् । या करोति कुशला त्रिविधेन तां त्यनम्ति गणिकां मंदिरां वा ॥ १९ ॥ 615 ) योपता पनप राग्निशिखेव वित्तमोहनकरी मदिरेव । बेकारण पदुश्शुरिकेव तां भजन्ति कथमापणयोवाम् ॥ २० ॥ 616) सर्व सौख्यव तपोधनचौरी' सर्वदुःखनिपुणा जनमारी । "मत्यंत करिबन्धनवारी निर्मितात्र विधिना पण नारी ॥ २१ ॥ 617) श्वव सुरसा कपाटं यात्र मुक्तिसुखकाननवह्निः । तत्र दोषcent गुणनत्रौ कि अयन्ति सुखमापणनार्याम् ॥ २२ ॥ 618) यन्निमित्तमुपयाति मनुष्यो वास्यमस्यति फुलं विदधाति । कर्म निन्दितमनेकमसज्ज : " सा न पण्यवनिता श्रवणीया ॥ २३ ॥ ૧૬૭ अपि न वेत्ति, तां वेश्यां खलु दूरतः त्यजत ।। १८ ।। कुशला या मंदिरा वा ईक्षणयुगे रागं, तनुकम्पं बुद्धिसत्त्वधनवीर्यविनाशं करोति तां गणिकां मदिरां वा त्रिविधेन त्यजन्ति ॥ १९ ॥ या अग्निशिखा इव उपतापपरा, मदिरा इव चित्तमोहनकरी, छुरिका इव देहदारणपटुः । ताम् आपणयोषां कथं भजन्ति ।। २० ।। अत्र विधिना आपणनारी सर्वसौख्यदतपोधनचौरी, सर्वदुःखनिपुणा जनमारी, मर्त्यमत्तरिबन्धनवारी निर्मिता ॥ २१ ॥ अत्र या श्वभ्रवर्त्म, सुरस कपाटं, मुक्तिसुखकाननवह्निः । दोषवसती गुणरात्री तब मापणनाय [ जनाः | सुखं श्रयन्ति किम् ॥ २२ ॥ बलज्जः मनुष्यः मन्निमित्तं दास्यम् उपयाति कुलम् अस्यति, अनेकं निन्दितं कर्म विदधाति सा पुण्यवनिता न श्रयणीया ।। २३ ।। जगति दुःखदान ज्ञान कराती है; तथा जो कृतघ्न होकर दूसरोंके द्वारा किये गये उपकारको भी नहीं जानती है— उसको भूल जाती है, उसको आप लोग दूरसे ही छोड़ दें ॥ १८ ॥ जो चतुर वेश्या मदिराके समान दोनों नेत्रोंमें लालिमाको शरीरमें कम्पको करती है तथा बुद्धि, बल, घन एवं वीर्यका विनाश करती है उसका सज्जन मनुष्य मन, वचन और कायसे परित्याग करते हैं ॥ १९ ॥ जो वेश्या अग्निकी ज्वालाके समान संतापको उत्पन्न करती है, मदिरा के समान मनको मुग्ध करती है, तथा छुरीके समान शरीरको विदीर्ण करती है उस वेश्याका भला विद्वान् मनुष्य कैसे सेवन करते हैं ? अर्थात् उसका सेवन विद्वान् मनुष्य कभी नहीं करते हैं, किन्तु अविवेकी जन ही उसका सेवन करते हैं ॥ २० ॥ यह ब्रह्माने वेश्याको सब प्रकारके सुखको देनेवाले तपरूप घनको चुरानेवाली, सब दुःखोंके देने में दक्ष, मनुष्योंको नष्ट करनेके लिये मारि ( प्लेग आदि संक्रामक बीमारी } के समान तथा मनुष्यरूप मदोन्मत्त हाथीको बाँधनेके लिये वारी ( गजबन्धनी) के समान बनाया है ॥ २१ ॥ जो वेश्या यहाँ नरकका मार्ग है- नरकगतिको प्राप्त करानेवाली है, स्वर्ग प्रवेशके लिये कपाटके समान है - स्वर्ग प्राप्तिमें अतिशय बाधक है, मोक्ष सुखरूप वनको भस्म करनेके लिये अग्निके समान है, दोषोंका घर है, तथा गुणोंका शत्रु है – उनको नष्ट करनेवाली है; उस वेश्याके संग से क्या सुख मिल सकता है ? कभी नहीं ॥ २२ ॥ मनुष्य जिस वेश्या के निमित्तसे दासताको प्राप्त होता है, कुलको नष्ट करता है, तथा निर्लज्ज होकर अनेक निन्द्य १ स जानि । २ स निकृतज्ञा । ३ स दूरतस्तां त्यजत । ४ सयुते । ५ स बुद्धिस्तवजन', 'जनवीर्यं । ६ स गणिका । ७ स मदिरेव मंदिरे वा, मदिरा वा । ८ स दारुण, दारण्यदु छु । ९ स चोरी । १० स ० म । ११ स विधिनापननारी, विधिना परनारी । १२ स स्वभ्रव । १३ स "सुरलक्ष्म° १४ स धर्म [ धर्मनि° ] । १५ सलज्जं । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सुभाषितसंदोहा 1619:२४-२४ _619) चेन्न पण्यवनिता जगति स्यादनुःखवाननिपुणा' कयमेते। ___ प्राणिनो जननदुःखमपारं प्राप्नुवन्ति पुरु' सोमशक्यम् ॥ २४ ॥ 620) दोषमेयमय गम्य मनुष्य: शुद्धबोधजलधौतमनस्कः। तत्त्वतस्त्यजति पण्यपुरन्ध्री जम्मसहारनिपातनवक्षाम् ।। २५ ॥ इति वेश्यासंगनिषेष पञ्चविंशतिः ॥ २४ ॥ निपुण पष्यवनिता न स्यात् चेत् एते प्राणिनः अपारं पुरु सोढुम् अशक्यं जननदुःख कथं प्राप्नुवन्ति ॥ २४ ।। शुद्धबोधजलघोतमनस्कः मनुष्यः एवं दोषम् अवगम्य जन्मसागरनिपातनवला पण्यपुरन्धी तस्वतः त्यजति ॥ २५ ॥ इति बेश्यासंगनिषेषपञ्चविंशति ॥ २४ ।।। कार्योंको करता है; वह वेश्या आश्रयके योग्य नहीं है-उसकी संगितिसे सदा ही बचना चाहिये । २३ ।। यदि । संसारके भीतर दुख देने में चतुर वह वेश्या न हो तो ये प्राणो जन्म-मरणरूप संसारके अपार एवं असह्य महान् दुखको कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? नहीं हो सकते हैं। अभिप्राय यह है कि वेश्याके निमित्तसे असम संसारके दुखको भोगना पड़ता है, अतः विवेको जनको लससे सदा दूर रहना चाहिये ।। २४ ॥ जिस मनुष्यका मन सम्यग्ज्ञानरूप जलसे निर्मल हो चुका है वह इस प्रकार वेश्याके संगसे होनेवाले दोषको जान करके संसाररूप समुद्र में डुबाने वाली उस वेश्याका वास्तवमें त्याग कर देता है ॥ २५ ।। इसप्रकार पच्चीस श्लोकोंमें वेश्याकी संगतिका निषेध किया । १ स निपुणाः । २ स सुरु for पुरु। ३ स पुरुषोग्दं । ४ स am. "मव । ५ स दक्ष, दक्षा, दक्षी, पुरन्ध्रीजन्म, दक्षम् । ६ स निषेपनिरूपणम् । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५, तनिषेधैकविंशतिः ] 621) यानि कानिचिदनयंपोधिके जन्मसागरजले निमजताम् । सन्ति बुःखनिल यानि देहिमां सानि चाक्षरमणेन निश्चितम् ॥१॥ 622) तायवत्र पुरुषा विवेकिनस्तावदेति' सुजनेषु पूज्यताम् । तावदुत्तमगुणा भवन्ति च याववमरमणं न कुषते ॥२॥ 623) सत्यशौचशमशमयजिता धर्मकामधनतो बहिष्कृताः । गृतदोषमलिना विचेतनाः कं" न बोषमुपचिन्दले जनाः ॥३॥ 624) सत्यमस्यति करोस्यसत्पता दुर्गति नयति हम्ति सदगतिम् । धर्ममत्ति वित्तनोति पातकं घूसमन्त्र कुरुते ऽथवा न किम् ।। ४ ॥ 625) घ ततोऽपि कुफ्तिो विकम्पले विग्रहं भजाति तन्नरो यतः। जायते मरणमारणनिया तेन तभमतिनं बोष्यति ॥५॥ 626) छतवेदनरतस्य विद्यते देहिना न करना विना तया । पापमेति पुरुखःसकारण श्वन बासमुपयाति तेन सः ॥६॥ __ अनर्थवीचिके जन्मसागरजले निमज्जतां देहिनां यानि कानिचिद् दुःसनिलयानि सन्ति तानि अक्षरमणेन निश्चित भवन्ति ॥ १ ॥ यावत् अत्र पुरुषा क्षरमणं न कुर्वते तावत् विवेकिनः, तावत् सुजनेषु पूज्यताम् एति, च तावत् उत्तमगुणाः भवन्ति ॥ २॥ छूतदोषमलिना विचेतनाः जनाः सत्यशौचशमशर्मवनिताः धर्मकामघनतो बहिष्कृताः [सन्तः ] के दोषं न उपचिन्वते ॥ ३ ॥ यूतं सत्यम् अस्यति, असत्यता करोति, दुर्गति नयति, सद्गति हन्ति, धर्मम् अत्ति, पातकं वितनोति । अथवा अत्र किं न कुरुते ।। ४ ॥ यतः नरः यूततः कुपितः विकम्पते, विग्रहम् बपि मजति । तेन मरणमारणकिया च जायते । सन्छुभमतिः न दोव्यति ॥ ५॥ तदेवनरतस्य देहिनां करुणा न विद्यते । तया बिना पुरुःखकारणं पापम् अनर्थरूप लहरोंसे परिपूर्ण संसाररूप समुद्र में डूबनेवाले प्राणियोंके लिये जितने कुछ भी दुखके स्थान है वे सब निश्चयसे जुआ खेलनेसे प्राप्त होते हैं।शा पुरुष अब तक यहाँ चूतकीड़ा नहीं करते हैं-जुमा नहीं खेलते हैं तब तक ही विवेकी रह सकते हैं, तब तक ही सज्जनोंके बीच में पूजाके योग्य रह सकते हैं, और सब सक हो उत्तम गुणोंसे सहित रहते हैं ॥ २॥ जो अविवेकी प्राणो यतकोड़ाके दोषसे मलिन होते है-जुआ खेलते हैं ये सत्य, शौच, शम और सुखसे रहित तथा धर्म, काम और धन इन तीन पुरुषार्थोसे विमुख होकर किस दोषको संचित नहीं करते हैं ? अर्थात् वे सब ही दोषोंको संचित करते हैं ।। ३ ।। द्यूत सत्यको नष्ट करके असत्यताको करता है, उत्तम गतिको नष्ट करके दुर्गतिको ले जाता है, तथा धर्मका भक्षण करके पापको उत्पन्न करता है। अथवा ठीक ही है-यूत यहाँ क्या नहीं करता है ? वह सब ही अनर्थको करता है ॥४॥ तसे चेंकि मनुष्य के क्रोध उत्पन्न होता है, इससे उसका शरीर कांपने लगता है, वह लड़नेके लिये उद्यत हो जाता है, तथा इससे मरने या मारनेकी क्रिया उत्पन्न होती है, इसीलिये निमंलबुद्धि मनुष्य उम द्यूतको नहीं खेलता है ॥५॥ जो १ सजने । २ स दुःखलयानि । ३ स अतावति [ on a ] प्रति जनेगु, स्तानदप्रति, it. सु । ४ स मतिना । ५ स किं for कं । ६ सद्यतदेवनर वस्य । ७सom. विद्याटसहिना । १ स करुणां । १० स तये। ११स पर। . सं. २२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित संदोह 627) पैशुनं' कटुकमश्रवः सुखं वक्ति वाक्यमनृतं विनिन्दितम् । वचनाय कितवो विचेतनस्तेन तिर्यगति मात्रमेति सः ॥ ७ ॥ 628) अन्यदीयमविचिन्त्य पातकं निर्घुणो हरति जीवितोपमम् । sues feast विचेतनस्तेन गच्छति कदर्थनां चिरम् ॥ ८ ॥ 629) व दुःखपटुकमंकारिणों कामिनीमपि परस्य दुःखदाम् । धूतवषमलिनो ऽभिलष्यति संसृतावहति तेन दुःखितः ॥ ९ ॥ 690) जीवनाशनमनेका' बषद् ग्रन्यमक्षरमणोद्यतो नरः । १७० १० ॥ स्वीकरोति "बहूनुः ख 'मस्तधीत्तत्प्रयाति भवकाननं यतः ॥ 631 ) साघु पितृमातृसज्जनान्मन्यते' न न बिभेति दुःखतः । ज्जते न तनुते मलं कुले धूतरोक्तिमना निरस्सीः ॥ ११ ॥ 632) द्यूतना शितधनो गताशयो मातृवस्त्रमपि यो ऽपकर्षति । शीलवृत्ति कुलजातिदूषणः किं न कर्म कुरुते स मानवः ॥ १२ ॥ 40 [627 २५-१२ ॥ एति । तेन सः श्वासम् उपयाति ॥ ६ ॥ विचेतनः कितवः वञ्चनाय पैशुनं कटुकम् अभवः सुखं विनिन्दितम् अनु वाक्यं वक्ति । तेन सः अतिमात्रं तिर्यक् एति ॥ ७ ॥ अत्र विचेतनः कितवः पातकम् अविचिन्त्य अन्यवीयं जीवितोपत्र व्यं निर्घुणं हरति । तेन चिरं कदनां गच्छति ॥ ८ श्रुतदोषमलिनः परस्य दुःखयां श्वभ्रुदुः खपटुकर्मकारिणों कामिनीम् अपि अभिलष्यति । तेन दुःखितः संसुतो भटति ।। ९ ।। अक्षरमणोद्यतः मस्तषीः नरः जीवनाशनम् अनेकषा ग्रन्थं वषत् बहुदुःखं स्वीकरोति । यतः तत् भवकाननं प्रयादि ॥ १० ॥ यूतरोपितमनाः निरस्तधीः साधुबन्धुपितृमातृसज्जनान् न मन्यते । दुःखतः न बिभेति न सज्जते, कुले मलं तनुते ॥ ११ ॥ बूदनाशितपनः गताशयः यः मानव: मातृवस्त्रमपि जो मनुष्य द्यूतकोड़ामें आसक्त है उसके जीवोंके प्रति दया नहीं रहती है, उस दयाके बिना महादुस्खके कारणभूत पापका संचय होता है, और उससे वह नरकवासको प्राप्त होता है- नरकके दुःसह दुखको सहता है ॥६॥ मूर्ख जुवारी मनुष्य दूसरोंको ठगनेके लिये ऐसे निन्दित असत्य वचनको बोलता है जो दुष्टतासे परिपूर्ण, कडुवा और कानोंको दुखप्रद होता है तथा इससे वह अतिशय तिरछा जाता है- तिर्यग्गतिको प्राप्त होता है ॥ ७ ॥ मूर्ख जुवारी मनुष्य पापका विचार न करके यहाँ निर्दयता पूर्वक दूसरेके प्राणोंके समान प्रिय वनको हरता है और उससे चिरकाल तक पीड़ाको प्राप्त होता है ॥ ८ ॥ जो मनुष्य द्यूतके दोषसे मलिन होता है वह नरकगतिके दुखको उत्पन्न करनेवाले कार्यको करानेवालो दुखप्रद परस्त्रोकी भी अभिलाषा करता है और उससे दुखित होकर संसार में परिभ्रमण करता है ॥ ९ ॥ द्यूतक्रीड़ा में उद्यत मनुष्य अज्ञानतासे जीव घातके कारणभूत अनेक प्रकारके परिग्रहको धारण करता हुआ बहुत दुखको देनेवाले पाप कर्मको स्वीकार करता है, जिससे कि संसाररूप वनमें परिभ्रमण करता है ॥ १० ॥ जो दुर्बुद्धि मनुष्य द्यूत्तमें मनको लगाता है वह साधु बन्धु, पिता, माता और सज्जनका सम्मान नहीं करता है; दुखसे डरता नहीं है, लज्जाको छोड़कर निर्लज्ज हो जाता है, तथा कुलमें दाग लगाता है || ११ || जिस मनुष्यका घन द्यूतसे नष्ट किया जा चुका है तथा इसीलिये जो हतबुद्धि होकर मात्ताके वस्त्रको भी खींच लेता है वह शील, संयम कुल और जातिको मलिन करके कौन से १ स पैशुकं । २ स वा श्रुवा° ३ स वाच्य । ४ स तेन तिर्यगतिमेति [ तिर्ज, तिर्यग्ग° ] तेन सः ॥ ५ ७ स वहुदोषम् । ८ स "मिस्तवि° । ९स मन्यते न तनुते भलं कुले द्यूती शुभ्र यतः | १० स कुलनीतिदु° । शुभ्र । ६ वासमुपयत् का Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ 638 : २५-१८] २५. चूतनिषेधैकविंशतिः 633) घ्राणकर्णकरपादकतन' यशेन लभते शरीरवान् । तत्समस्तसुखधर्मनाशनं च तमाश्रयति क: सचेतनः ॥ १३ ॥ 634) धर्मकामधनसौख्यनाशिना वरिणाक्षरमणेन बेहिनाम् । सर्वदोषनिलयेन सर्वचा संपवा खलु सहाश्वमाहिषम् ॥ १४ ॥ 635) यदशा दद्वितयजन्मनाशनं युद्ध राटिफलहावि कुर्वते। तेन शुद्धषिषणा न तन्वते तमत्र ममसापि मामवाः ॥ १५ ॥ 636) घ तनाशितसमस्तभूतिको वम्भ्रमीति सकला भुवं नरः । ओर्णवस्त्रकृतबेहसंवृति मस्तकाहितभरः क्षुधातुरः॥ १६ ॥ 637; याचते नटति पाति दोनता लज्जते म कुछते विसम्मनाम् । सेवते नमति याति दासतां चूतसेवमपरो मरो ऽषमः" ॥१७॥ 638) सम्यते २ ऽन्यकितवेनिषेप्यते मध्यसेवधनमुच्यते कटु । नोद्यते ऽत्र परिभूयते मरो हन्यते च कितयो विनिन्द्यते ॥१८॥ __अपकर्षति सः शीलवृत्ति-कुलजातिदूषणः कि कर्म न कुरुते ।। १२ ।। यदशेन सरीरवान् प्राणकर्णकरपावकर्तनं लभते तत् समस्तसुखधर्मनाशनं द्यूतं कः सवेतनः आश्रयति ।। १३ । धर्मकर्मधनसौख्यनाशिना सर्वोपनिलयेन देहिनां वैरिणा असरमणेन संपवा सह खलु सर्वदा अश्वमाहिएं [ विद्यते ॥ १४ । मवशात् मानवाः द्वितयजमनाशनं युद्धराटिकलहादि कुर्वते । तेन अत्र शुधिषणा: मनसा अपि यूतं न तन्वते ।।१५।। द्यूतनाशितसमस्तभूतिकः, जीर्णवस्त्रकृतदेहसंहतिः, मस्तकाहितभरः अधातुरः नरः सकलां भुवं बम्भ्रमीति ॥ १६ ॥ तसेवनपरः अधमः नर याचते, नटसि, दीनतां याति, न लज्जते, विडम्बनां कुरुते, सेवते, नमति, दासतां याति ।। १७ ॥ अत्र कितवः नरः अन्यक्तिवः ध्यते, निषेध्यते, बध्यते, कटु कार्यको नहीं करता है ? अर्थात् जुवारी मनुष्य जुएमें धनको गमाकर सब कुछ करने लगता है ॥ १२ ॥ जिस द्यूतके वशमें होकर मनुष्यको नासिका, कान, हाथ और पैरके काटे जानेके दुखको सहना पड़ता है उस समस्त सुख और धर्मको नष्ट करनेवाले द्यूतका कौन-सा सचेतन प्राणी आश्रय लेता है ? कोई नहीं लेता | तात्पर्य यह कि जो इसप्रकारसे दुख देनेवाले द्यूतमें आसक्त होता है उसे जड़ ही समझना चाहिये ।। १३ ।। जो छूतरूप शत्रु प्राणियोंके धर्मकर्म, धन और सुखको नष्ट करनेवाला तया सब दोषोंका स्थान है उसके साथ सम्पत्तियोंका सदा अश्व और भैसके समान वैर रहता है। अभिप्राय यह कि जुवारी पुरुषकी सब सम्पत्ति नष्ट हो जाती है जिससे कि वह अतिशय दुखी होता है ॥ १४ ॥ चूंकि धूतके वशमें होकर मनुष्य इस लोक और परलोक दोनों हो लोकोंको नष्ट करता है तथा युद्ध, राटि और कलह आदिमें प्रवृत्त होता है इसीलिये यहाँ निर्मल बुद्धि मनुष्य मनसे भी उस द्यूतको नहीं स्वीकार करता है ।। १५ । जिस मनुष्यको विभूति घूतके द्वारा नष्ट हो चुकी है वह जीर्ण वस्त्रसे शरीरको आच्छादित करके भूखसे पीड़ित होता हुवा मस्तक पर बोझको धारण करता है और समस्त पृथिवीपर घूमता है ।! १६ ।। जो नीच मनुष्य द्यूतको सेवामें तत्पर है वह भीख मांगता है, नाचता है, दौनताको प्राप्त होता है, लज्जाको छोड़ देता है, विडम्बना करता है, सेवा करता है, नमस्कार करता है और दासताको प्राप्त होता है ॥ १७ ।। जुआरो मनुष्यको यहाँ दूसरे जुआरी जन सेहते हैं, निषेव करते हैं बध करते सकर्तन पदर्शन, यदशेन। २ स नाशिनी, 'नाशिनी, om. १/३ चरणौ। ३ वरिणी । ४ स संपदा । ५ स शाहितय । ६ स शुद्धराद्रि', 'राटि कलह । ७ स °धिषणो। ८ स तन्यते । ९स मूतिके। १० स संहति , संतति । ११ - [:] धमो नरः । १२ स शुध्यते न । १३ स वध्यते । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 639 : २५-१९ १७२ सुभाषितसंवोहः 639) हन्ति ताडयति भाषते वनः कर्कशं रटति खिद्यते' व्ययाम् । संतनोति विवधाति रोधनं द्यूततोऽय कुरुते न कि नरः ॥ १९ ॥ 640) जल्पितेन बहुना किमत्र भो चूसतो न परमस्ति दुःखवम् । चेतसेति परिचिन्त्य सज्जनाः कुर्वते न रतिमत्र सर्वया ॥ २० ॥ 641) शीलवृत्तगुणधर्मरक्षणं स्वर्गमोक्षसुखदानपेशलम्।। कुर्वताक्षरमणं न तत्वतः सेव्यते सकलदोषकारणम् ॥ २१ ॥ इति द्यूतनिषेक विशतिः ॥ २५ ॥ वचनम् उच्यते, नोचते, परिभूयते हन्यते, विमिन्यते च ॥ १८ ।। द्यूततः नरः हन्ति, तारुमति, कर्कशं वच: भाषते, रति, विद्यते, व्यथा संतनोति, रोषनं विदधाति । अथ कि न कुखते ।। १९॥ भोः अत्र बहु जल्पितेन किम् । घूततः परं दुःख न अस्ति । सज्जनाः इति चेतसा परिचिन्त्य अत्र सर्वथा रतिं न कुरुते ॥ २० ॥ स्वर्गमोक्षसुखदानपेशलं शोलवृत्तगुणधर्मरक्षणं कुर्वता तत्वतः सकलदोषकारणम् अक्षरमण न सेव्यते ॥ २१ ॥ ___इति धूतनिषेधैकविंशतिः ॥ २५ ।। हैं, कटु वचन बोलते हैं, पोड़ा देते हैं, सिरस्कृत करते हैं, मारते हैं, और निन्दा करते हैं ॥ १८॥ मनुष्य जुआके निमित्तसे दूसरेका घात करता है, उसे ताड़ित करता है, कठोर वचन बोलता है, परिभाषण करता है, दोन बनाता है, कष्ट पहुंचाता है, और निरोध करता है। अथवा ठीक है-द्यूतसे यहाँ मनुष्य क्या नहीं करता है? सब ही निन्ध कार्यको बह करता है ॥ १९ ॥ भो भव्य जन! बहत कहनेसे क्या लाभ है ? द्यूतसे अन्य और कोई भी कार्य दुख देनेवाला नहीं है-धूत ही प्राणियोंके लिये सबसे अधिक दुख देता है। यही मनसे विचार करके सज्जन पुरुष यहाँ जुआमें अनुराग नहीं करते हैं-उससे वे सर्वथा दूर हो रहते हैं ।। २० । जो स्वर्ग और मोक्षके सुखके देनेमें दक्ष शील, संयम, गुण एवं धर्मको रक्षा करता है वह समस्त दोषों के कारणभूत द्यूतका वास्तवमें सेवन नहीं करता है ।। २१ ।। इसप्रकार इक्कीस श्लोकोंमें छूतका निषेध किया । १स विद्यते । २ स on. दान। ३ स निधनिरूपणम् । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६. आप्तविचारद्वाविंशतिः ] 642) वान्छत्यङ्गी समस्तः सुखमनयरतं कर्मविध्वंसतस्त चारित्रात्स प्रबोधाद्भवति तवमलं स श्रुतादाप्ततस्तत् । निर्दोषात्मा स बोषा जगति निगदिता द्वेषरागावयो ऽत्र ज्ञात्वा मुक्त्यै तु दोषाधिकलितविपदो नाश्रयन्त्य सतन्द्राः॥१॥ 643) जन्मापारमध्यं मृतिजननजरावर्तमत्यन्तभोमं नानावुःखोपनकभ्रमणकलुषितं व्याधिसिन्धुप्रयाहम् । नोयन्ते प्राणिवर्गा गुरुदुरितभरं यैनिरूप्यारसन्तस्ते रागद्वेषमोहा रिपुववसुखदा येन धूताः स आप्तः ॥२॥ समस्तः अङ्गी अनवरतं सुख वाञ्छति । तत् कर्मविध्वंसतः, स चारित्रात्, अमलं तत् प्रबोधात् भवति । स श्रुतात्, तत् आप्ततः, स निर्दोषात्मा । दोषाः तु अत्र जगति द्वेषरागादयः निगदिताः। विकसितविपदः अस्तनिद्रा: [इनि ] ज्ञात्वा मुक्त्यै दोषान् न आश्रयन्ति ॥ १ ॥ यः गुरुदुरितभरं निरूप्य आरसन्तः प्राणिवर्गाः मृतिजननजरावर्तम्, अत्यन्तभीमम्; नानादुःखोग्रनक्रनमणकलुषितं, व्याधिसिन्धुप्रवाह, जन्माकूपारमध्यं नीयन्ते, ते रिपुवत् असुखदाः रागद्वेषमोहाः येन धूताः सः आप्तः ।। २ ।। येन अस्तवैर्यः शम्भुः गिरिपतितनयां देहार्धे नीतवान् । मुरहिट लक्ष्मी वक्षः (नीतवान्) । पयसिज समस्त प्राणिसमूह निरन्तर सुखकी अभिलाषा करता है, वह सुख ककि क्षयसे होता है, कोका क्षय चारित्रसे होता है, वह निर्मल चारित्र सम्यग्ज्ञानसे होता है, सम्यग्ज्ञान श्रुतके अभ्याससे होता है, उस श्रुतकी उत्पत्ति आप्तसे होती है, आप्त निर्दोष होता है, और दोष यहाँ रागद्वेषादि कहे गये हैं: यह जानकर सावधान सज्जन विपत्तियोंसे रहित होकर मुक्तिके निमित्त उक्त रागादि दोषोंका कभी आश्रय नहीं करते हैं ।। १ ॥ जो राग द्वेष व मोह भारी पापके बोझको देखकर शब्द करते हुए प्राणियोंके समूहको उस संसाररूप समुद्रके मध्यमें ले जाते हैं जो कि मृत्यु, जन्म और जरा रूप भेबरोंसे सहित है, अतिशय भयानक है, अनेक दुखरूप भयानक मगरोंके घूमनेसे कलुषित है, तथा व्याधिरूप नदियोंके प्रवाहसे सहित हैं; उन शत्रुके समान दुख देनेवाले राग, द्वेष व मोहको जो नष्ट कर चुका है वह आप्त है ।। २ ॥ विशेषार्थ----आप्त शब्दका अर्थ विश्वस्त है । जो राग द्वेष व मोह आदि अठारह दोषोंसे रहित, सर्वज्ञ और हितोपदेशी है वह आप्त कहलाता है। जो व्यक्ति राग व द्वेष आदिसे कलुषित होता है वह यथार्थवक्ता नहीं हो सकता है। कारण कि वह उन रागद्वेषादिसे प्रेरित होकर कदाचित् असत्य भाषण भी कर सकता है। प्राणीके राग-द्वेष आदि ही वास्तविक शत्रु हैं, क्योंकि इन्हींके निमित्तसे वह गुरुत्तर पाप कर्मको उपाजित करता है और फिर उसीके वश होकर ससाररूप समुद्रमें गोते खाता हुआ अनेक प्रकारके दुःसह दुखको सहता है । यह जान करके ही मुमुक्षु जन उन रागद्वेषादिको ध्वस्त करके शाश्वतिक सुखको प्राप्त करते हैं ।। २॥ जिस कामदेवके वशमें होकर अधीर होते हुए १स समस्तं । २ स चारित्रात्स्यात्प्र । ३ स सं, सत्रुता । ४ स सदोषण । ५स मुक्त, मुक्त्य सदोषा' । ६ स विपदे । सश्रयत्व ,वाश्रयंव।८स वर्त्य, वयम । ९ स पुरु for गुरु । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [644 : २६-३ १७४ सुभाषितसंबोहः 644) 'देहायेन शम्भुगिरिपतितनयां नीतवान् ध्वस्तधैर्यो धक्षो' लक्ष्मी मुरहिट पयसिजनिलयो ऽष्टावक्त्रो बभूव । गीर्वाणानामघोशो दशशतभगतामस्तबुद्धिः प्रयातः प्रध्यस्तो येन सो ऽपि कुसुमशररिपुर्ववमाप्तं तमाहुः ॥३॥ 645) पृथ्वीमुद्धतमीशा: सलिलधिसलिलं पातुर्माद्रि प्रपेष्ट ज्योतिश्चक्र निरोवर्ष 'प्रचलितमलिनं ये ऽशितु सत्त्ववन्तः । निनेंतु ते ऽपि यामि प्रथितपृथुगुनाः शक्नुवन्ति स्म नेन्द्रा यो ऽत्रामूनीत्रियाणि विजगति जितवानाप्तमाहस्तमीशम् ॥ ४॥ 646) वर्णोष्ठ स्पन्चमुक्ता सकूदखिलजनान्' बोषयन्ति विबापा "निर्वाञ्छोच्छवासदोषा मनसि निवषती" साम्यमानन्दधात्री। ध्रौव्योत्पावव्ययाभ्यं त्रिभुवममखिलं भावतेयस्य वाणी तं मोक्षाय भयन्तु स्थिरतरषिषना वेवमाप्तं मुनोन्द्राः ॥ ५॥ निलयः अष्टावक्त्रः बभूव । गीर्वाणानाम् बोचः बस्तबुद्धिः [ सन् ] दशशतभगतां प्रयावः । सोऽपि कुसुमशररिपुः येन प्रध्वस्तः सं देवम् आप्तम् आतुः ।। ३ ।। ये पृथ्वीम् उद्धहुँ, सलिलपिसलिलं पातुम्, अनि प्रपेष्टु, ज्योतिश्चक्र निरोधु, प्रचलितम् अनिलम् अशितुम् ईशाः, ते प्रथितयुगुगाः सत्त्ववन्तः इन्द्राः अपि अत्र यानि निजेतुं न शक्नुवन्ति स्म, अमुनि इन्द्रियाणि विजगति यः जितवान् तम् ईशम् आप्तम् आहुः ॥ ४॥ यस्य वर्णोष्ठस्पम्दमुक्ता, अखिळजनान् सकृत् बोषयन्ती, विवापा, निर्वासोच्छ्वासदोषा, मनसि साम्यं निदधती, आनन्दधात्री, बाणी घोम्योत्पादव्ययारम्पम् अनिलं त्रिभुवनं भाषते, वम् प्राप्तं देवं स्थिरतरधिषणाः मुनीन्द्राः मोक्षाय श्रपन्तु ॥ ५॥ यस्य लोकालोकावलोकी बोषः त्रिभुवनभवनाम्यन्तरे वर्त महादेवने पार्वतीको अपने बाधे शरीरमें धारण किया, कृष्णने लक्ष्मीको वक्षस्थल पर धारण किया, ब्रह्मा चार मुखोंसे संयुक्त हुमा, तथा देवराज (इन्द्र) बुद्धिहीन होकर एक हजार योनियोंको प्राप्त हुआ; उस सुभट कामदेवको भी जिसने नष्ट कर दिया है जो कभी उसके वशमें नहीं हुआ है उस कामदेवके शत्रु स्वरूप देवको आप्त कहते हैं ॥ ३ ॥ तीनों लोकोंमें जो इन्द्र आदि पृथ्वीका उद्धार करने में समर्थ थे, जो समुद्र के समस्त जलके पोने में समर्थ थे, जो पर्वतमें प्रवेश करनेके लिये समर्थ थे, जो ज्योतिषियोंके समूहको रोकनेके लिये समर्थ थे, तथा जो चलती हुई वायुके खानेमें समर्थ थे, प्रसिद्ध महागुणोंको धारण करनेवाले वे भी जिन इन्द्रियोंको नहीं जीत सके उन इन्द्रियोंको जो बीत चुका है उस ईश्वरको आप्त कहते हैं ॥४॥ जिसको वाणी वर्ण (अकरादि) और ओठोंके हलन-चलनसे रहित है, एक साथ सब ही प्राणियोंको वस्तु स्वरूपका बोध कराती है, बाघासे रहित है, इच्छा एवं उच्छ्वासके दोषसे दूर हैं, मनमें समताभावको करनेवाली है, आनन्दको उत्पन्न करती है; तथा ध्रौव्य उत्पाद व व्यय स्वरूप समस्त लोकका निरूपण करती हैं; अतिशय स्थिर बुद्धिके धारक मुनिजन मोक्षकी प्राप्तिके निमित्त उस आप्त देवका आश्रय लें-उसको ही यथार्थ देव समझकर उसके सदुपदेशको सुनें जिससे कि निर्बाध मोक्षसुख प्राप्त हो सके ।। ५॥ लोक और अलोकको देखनेवाला स देहाई । २ स नीति । ३ स वक्षोलक्ष्मी । ४ स मुद्ध, मुरुविद्, मुरद्विद्ययसि , मुरद्विषयसि । ५ स प्रवेष्टुं । ६ स प्रचलत°, प्रचित । ७ स ये शिशु सत्ववंता । ८ स वर्णोष्टस्यन्द मुक्त्वा । ९स जना शोधयंति । १० स निर्वावोछास', निवांछे । ११ स विवधती । १२ स भाष्यते । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. 648 : २६-७] २६. बाप्तविचारद्वाविंशतिः ___647) भावाभावस्वरूपं सकलमसकलं दृष्यपर्याय तस्वं भेदाभेवावलीढं त्रिभुवनभवनाभ्यन्तरे वर्तमानम् । लोकालोकावलोको 'गतनिखिल मल लोकते यस्य बोध स्तं देव मुक्तिकामा भवभवनभिदे भावयन्स्वाप्तमत्र ॥६॥ 648) स्थाध्चेन्नित्यं समस्तं परिणतिरहितं कर्तृकर्मव्युवासा त्संबन्यस्तत्र दृश्यम्न फल फलवतोनयिनित्ये समस्ते । पर्यालोज्येति येन प्रकटितमुभयं ध्वस्तदोषप्रपञ्च से सेवध्वं विमुक्त्यै जनननिगलिता' भक्तितो देवमाप्तम् ॥ ७॥ मानं भावाभावस्वरूपं, सकलम् असकलम्, भेदाभेदावलीळ, द्रव्यपर्यायतत्त्वं गनिखिलमलम् आलोकते, तम् आप्तं देवम् अत्र मुक्तिकामाः भवभवनभिदे भावयन्तु ।। ६ ।। समस्तं परिणतिरहितं नित्यं स्यात् चेत् तत्र कर्तृकमब्युदासात् फलफलवतोः संबन्धः न दृश्येत् । समस्ते अनित्येऽपि (स संबन्धः) न (दृश्येत्) । इति पर्यालोच्य येन ध्वस्तदोषप्रपञ्चम् उभयं प्रकटितम् ठम् आप्तं देव जनननिलिताः विमुक्रम भक्तितः सेवध्वम् ॥ ७ ॥ कर्ता नो चेत् भोक्ता न । यदि विभुः भवति वियोगेन जिसका शान तीन लोकरूप गृहके भीतर स्थित भाव व अभाव स्वरूप, समस्त व असमस्त स्वरूप तथा मेद व अभेद स्वरूप (अनेकान्तात्मक) द्रव्य एवं पर्याय तत्त्वको स्पष्टतया देखता है--जानता है-मुक्तिके अभिलाषी भव्य जीव संसाररूप गृहको नष्ट करनेके लिये यहाँ उसी आप्त देवका चिन्तन करें॥६।। यदि समस्त वस्तुसमूह सर्वथा नित्य व परिणमनसे रहित हो तो फर्ता व कर्म आदिका अभाव हो जानेसे उसमें कार्यकारणभाव भी न दिख सकेगा उसके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। इसी प्रकार उक्त समस्त वस्तुसमूहके अनित्य होनेपर भी उक्त कार्य-कारणभाव न बन सकेगा। यही विचार करके जिसने उक्त बस्तु तत्त्वको सब दोषोंसे रहित उभयस्वरूप-कथंचित् नित्यानित्य-बतलाया है । जन्मरूप सांकलसे बंधे हुए संसारो प्राणी उपत बन्धनसे छुटकारा पाने के लिये उस माप्त देवका भक्तिपूर्वक आराधन करें ॥७॥ विशेषार्थ-वस्तु न सर्वपा निस्य है और न सर्वथा अनित्य भी, किन्तु वह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है। यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो उसमें किसी भी प्रकारका परिणमन नहीं हो सकता है और उस परिणमनके अभावमें फिर 'यह कुम्भकार घटका कर्ता और वह घट कर्म है इस प्रकारको कर्ता और कर्म आदिको भी व्यवस्था नहीं बन सकता है। ऐसी अवस्थामें लोगोंको सर्वदा अनुभवमें आनेवाले कार्यकारणभावके भी अभावका प्रसंग अनिवार्य होगा। इससे सिद्ध है कि वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है, किन्तु परिणमन स्वभाववाली है इसी प्रकार वह सर्वथा अनित्य भी नहीं हो सकती है, क्योंकि वस्तुका प्रतिक्षण निरन्वय विनाश मानने पर पूर्वोक्त कार्य-कारणभावके अभावका प्रसंग ही तदवस्थ रहेगा। इसका कारण यह है कि वस्तुको उत्तरोत्तर होनेवाली पर्यायोंमें यदि सामान्य स्वरूपसे द्रव्यका अवस्थान न माना जायगा तो प्रतिक्षण विनष्ट होनेवाली पर्यायोंमें कर्ता व कर्म आदिको व्यवस्था नहीं रह सकती है। इससे सिद्ध है कि जिसप्रकार वस्तु सर्वथा नित्य नहीं हो सकती है उसीप्रकार वह सर्वथा अनित्य भी नहीं हो सकती है। किन्तु वह द्रव्यको अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य भी है। 'व्यवहारमें देखा भी जाता है कि जब घट विनष्ट होता है तो उसका सर्वथा अभाव नहीं हो जाता है, किन्तु ठोकरों १ स 'पर्यायि । २ स भुवना' । ३ स om. गत, गति । ४ स निखिलं लोकते, लोकने । ५ स बंदे for देवं । ६ स कामो, भवनकन । ७ से oun. फल 1 ८ स तत् । ९ स गलितो । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सुभाषितसंघोहः [649; २६-४ 649) नो चेत्कर्ता न भोक्ता यदि भवति विभुनों वियोगें न दुःखी स्याच्चेवेकः शरोरो प्रतितनु स तदान्यस्य दुःखे न दुःखी । स्थाविज्ञायेति जन्तुर्गत निखिलमलं यो 'ऽभ्यघत्तेजबोधं त पूज्याः पूजयन्तु प्रशमितविपवं देवमाप्तं विमुक्त्यै ॥८॥ दुःखी नो स्यात् । प्रतितनु एकः शरोरी स्यात् चेत् तदा सः जन्तुः अम्यस्य दुःखेन दुःखी स्यात् । इति विज्ञाय यः गतनिखिलमलम् एसबोधम् अम्प्रधत्त, तं प्रशमितविपदम् आप्तं देवं पूज्याः विमुक्त्य पूजयन्तु ।। ८॥ या रागद्वेषमोहान् जनयति, के रूपमें उसका अस्तित्व पूर्वके समान बना ही रहता है। अतएव उक्त द्रव्यका अस्तित्व समस्त पर्यायोंमें विद्यमान रहनेसे उसकी अपेक्षा वस्तु नित्य है। किन्तु साथ ही चूँकि यह घट फूट गया है, इत्यादि पर्याय निमित्तक नाशका भी व्यवहार देखने में आता है अतएव पर्यायकी अपेक्षा उसे अनित्य मानना भी युक्तियुक्त हो है । इसप्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तुका जो विवेचन करता है वह वीतराग सर्वज्ञ ही यथार्थ देव हो सकता है, अन्य नहीं। अतएव वही एक सत्पुरुषोंका आराधनीय होता है ॥७॥ यदि पुरुष कर्ता नहीं है तो वह भोक्ता भी नहीं हो सकता है। जीव यदि व्यापक है तो उसे इष्ट वस्तुके वियोगसे दुखी नहीं होना चाहिये था। यदि प्रत्येक शरीरमें एक ही जीव होता तो फिर उसे दूसरेके दुखसे दुखी होना चाहिये था। इसप्रकार जान करके जिसने निर्दोष वस्तु स्वरूपका व्याख्यान किया है उस विपत्तियोंको शान्त करके केवल ज्ञानरूप प्रदीप्त ज्योतिको धारण करनेवाले आप्स देवको पूज्य पुरुष मुक्ति प्राप्तिके निमित्त पूजा करें।८ ॥ विशेषार्थ--सांख्य सिद्धान्तमें प्रकृतिको कर्ता और पुरुषको भोक्ता स्वीकार किया गया है । इसको लक्ष्यमें रखकर यहां यह बतलाया है कि यदि पुरुष कर्ता नहीं है तो फिर उसे भोक्ता स्वीकार करना योग्य नहीं है कारण यह कि जो जिसका कर्ता होता है वही उसके फलका भोक्ता देखा जाता है। लोक व्यवहारमें भी देखने में आता है कि जो हत्या या चोरी आदि करता है वही दण्डिस होकर उसके फलको मोगता है। इसीलिये एकको कर्ता और दूसरेको भोक्ता मानना युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता। नैयायिक व वैशेषिक आदि कितने ही प्रवादी आत्माको व्यापक मानते हैं। इस सम्बन्धमें यहाँ यह निर्देश किया है कि यदि आत्मा सर्वत्र व्यापक है तो फिर उसे कभी इष्टका वियोग तो हो नहीं सकता है, क्योंकि जहाँ कहीं भी वह इष्ट वस्तु रहेगी वहाँ वह व्यापक होनेमे विद्यमान ही है। ऐसी अवस्थामें भला उसे इष्टवियोगजनित दुख क्यों होना चाहिये? नहीं होना चाहिये या। परन्तु वह होता अवश्य है । अतएव उसे सर्वथा व्यापक मानना भी उचित नहीं है। इसीप्रकार यदि अद्वैत सिद्धान्तके अनुसार भिन्न-भिन्न शरीरोंके भीतर एक ही आत्मा मानी जाती है तो वैसी अवस्थामें जब किसी एकको दुख होता है तब अन्य सब ही प्राणियोंको भी दुख होना चाहिये, क्योंकि जीव तो सब शरीरोंमें एक ही है। परन्तु एकके दुखित होने पर भी चूंकि दूसरे दुखी नहीं देखे जाते हैं इसीलिये सिद्ध है कि प्रत्येक शरीरमें आत्मा भिन्न-भिन्न ही है, न कि एक । और वह भी प्राप्त शरीरके ही प्रमाण है, न कि व्यापक अथवा अणुके प्रमाण। इसप्रकारसे जिसने जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ व्याख्यान किया है वही वास्तविक देव है जो पूज्य जनके द्वारा भी पूजनेके योग्य है ॥ ८॥ जो स्त्री राग, द्वेष एवं मोहको उत्पन्न करती है। १स विभो । २ स वियोगेन 1 ३ स प्रतिदिनु । ४ स दुःखेन । ५ स गति । ६ स.योन्मवत्ते, मोम्यधस, बोध । ७ स सं for तं । ८ स प्रशसित । ९ म विमुक्तौ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ 486 : २६-११] २६. आप्तविचारद्वाविंशतिः 650) पा रागद्वेषमोहा'नयति हरते चारचारित्ररत्न भिन्तें मानोच्चशेलं मलिनपति कुलं कीर्तिवल्ली सुनीते । तस्यां ये यान्ति नार्यामुपहतमनसा सक्तिमत्यन्समूढा देवाः कन्दपंतप्ता पति तनुमतां ते कर्थ मोक्षलक्ष्मीम् ।। ९॥ 651) पोन श्रोणीनितम्बस्तनजघनभराक्रान्तमन्चप्रमाणा स्तारण्योद्रेकरम्या मवनशरहताः कामिनीर्ये भमन्ते । स्थूलोपस्थस्थलोना कुशलकरतलास्फाललीलाकुलास्ते वेवाः स्युश्वेज्जगत्यामिह ववत विकः कीदृशाः सन्त्यसन्तः ॥१०॥ 652) ये संगृह्मायुधानि क्षतरिपुरुधिरैः पिचराण्याप्तरेला वनेष्वासासिचकक्रकचहलगवाशूलपाशाविकानि । रौवभूभङ्गवस्त्राः सकलभवभूतां भौति"मुत्पादमन्ते ते चेद्देवा भवन्ति प्रणिगवत बुधा लुषकाः के भवेयुः ॥११॥ चाश्चारितरत्नं हरते, मानोच्चशैलं भिन्ते, कुलं मलिनयति, कीर्तिवल्ली लुनीते, तस्यां नाया उपहतममसा कन्दपंतप्ता. अत्यन्तमूकाः ये देवाः आसक्ति यान्ति, ते तनुमतां मोक्षलक्ष्मों कथं ददति ॥ ९॥ ये पीनप्रोणीनितम्बस्तनजघनभराकान्तमन्दप्रयाणाः तारुण्योद्रेकरम्याः मदनशरहताः कामिनी: भजन्ते, (ये) स्थूलोपस्थस्थलीना कुशलकरतलास्फाललीलाकुलाः, ते इह जगत्या देवा स्युः पेत् [हे ] विवः असन्तः कीदृशाः सन्ति ववत ।। १०॥ में भरिपुरुधिरैः पिराणि वनेष्वासासिचक्रककचहलगदामूलपाशादिकानि आयुधानि संगृह्य आप्तरेलाः रौदभ्रूभनवक्त्राः सकलभवभृतां भौतिम् उत्पादयन्ते, ते चेत् देवा भवन्ति, [ भो ] बुधाः प्रणिगदत, सुन्धकाः के भवेयुः ॥ ११ ॥ येन व्याध्याधिव्यापकीर्णे विषयभूगगणे कामकोनिर्मल चारित्ररूप रत्नको नष्ट करती है, स्वाभिमानरूप उन्नत पर्वतको भेदती है, कुलको मलिन करती है और कीर्तिरूप लताको छेदती है; उस स्त्रीक विषयमें मतिशय मुग्ध होकर जो विवेकसे रहित होते हुए आसक्तिको प्राप्त होते हैं वे कामसे संतप्त रहनेवाले प्राणियोंके लिये मोक्ष लक्ष्मीको कैसे दे सकते हैं ? नहीं दे सकते हैं ॥९॥ जो स्त्रियां पुष्ट श्रोणी, नितम्ब, स्तन और अघनके बोझसे दब करके मंद गतिसे चलती हैं; यौवनके प्रभावसे रमणीय दिखती हैं, तथा कानके बाणोंसे विद्ध रहती हैं उनके स्थूल योनिस्थलको जो कुशल हाथोंसे थपथपानेकी क्रीक्षामे ज्याकुल होकर उनका सेवन करते हैं वे यदि इस संसार में देव हो सकते हैं तो फिर हे विद्वज्जन ! यह कहिये कि असज्जन कैसे होते हैं। अभिप्राय यह है कि ऐसे कामासक्त प्राणी कभी देव नहीं हो सकते हैं। कारण कि यदि ऐसे होन मनुष्य भो देव होने लगें तो फिर इस संसारमें सब ही देव बन जावेंगे, हीन कोई भी न रहेगा ॥ १० ॥ जो कपटको प्राप्त होते हुए बाहत (घायल ) शत्रुओंके रक्तसे पीतवणं हुए चन, धनुष, तलवार, चक्र, करॊत, हल, गदा, शूल और पाश आदि अस्त्र-शस्त्रोंका संग्रह करके समस्त प्राणियोंको भय उत्पन्न करते हैं तथा जिनकी भृकुटि तिरच्छी व मुख भयानक रहता है वे यदि देव हो सकते है तो हे विद्वज्जनो । यह कहिये कि व्याध कोन हैं। अभिप्राय यह है कि जिनका भयावह वेष है तथा जो नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको धारण करते हैं वे कभी देव नहीं हो सकते हैं। कारण कि वे उन व्याघोंके ही समान है जो निरन्तर प्राणिबघ किया करते हैं । ११ ।। जिन स्त्री, मांस और मद्य इन तोनके कारण जीव उस संसार १ "मोहानल ज° 1 २ स भित्ते, नित्ये for भिन्त। इस मलन' । ४ स शक्ति । ५ स तत्वाः । ६ स श्रेणी। ___७ स विदत । ८ स विह, विदाः। १ स रुचिरैः । १० स व for चक्र । ११ स नीति° । १२ स प्रणिगदित । सु सं. २३ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [653 : २६-१२ १७८ सुभाषिससंदोहः 653) व्याध्याधिव्याघकोणे विषयमृगगणे कामकोपादिसपें कुःखक्षोणी रुहाढये भवगहनबने भ्राम्यते येन जीवः । ये तत्स्त्रीमद्यमांसत्रयमिदमधिपा निन्दनीयं भजन्ते देवाश्चेत्ते ऽपि पूज्या निगवत' सुधियो निन्विताः के भवेयुः ॥ १२॥ 654) निद्राचिन्ताविवाश्रममवन मवस्वेवसेवप्रभाव - क्षुद्रागद्वेषतृष्णामृतिजननजराव्याषिशोकस्वरूपाः । पस्यैते ऽष्टादशापि त्रिभुवनभवभूष्यापिनः सन्ति दोषा स्तं देवं नाप्तमाहुर्ननिपुणषियो मुक्तिमार्गाभिषाने ॥ १३ ॥ 655) 'रक्तार्वेभेन्द्रकृति नदति गणपतो यः श्मशाने गहीत्वा निस्त्रिशो मांसमसि त्रिभुवनविना दक्षिणे नाननेन । गौरीगङ्गाङ्गसङ्गो त्रिपुरवहनकृदयविध्वंसवभ-- स्तं वं रौद्ररूपं कथममलषियो निन्धमाप्तं वदन्ति ॥ १४ ॥ पादिसर्प दुःखक्षोणीमहाळमे भवगहनवने जीयः भ्राम्यते, तद् इदं निन्दनीयं स्त्रीमधमासत्रयं ये अधिपाः भजन्ते, ते देवाः अपि पूज्याः चेत् [हे ] सुषियः निगदत, निन्दिताः के भवेयुः ॥ १२॥ यस्य निद्राचिन्ताविषादश्रममदनमदस्वेदखेदप्रमाद क्षुद्रागद्वेषतृष्णामृतिजननजराव्याधिशोकस्वल्पाः रिभुवनभवव्यापिनः एते अष्टादश अपि दोषाः सन्ति, तं देवं नयनिपुणघियः मुक्सिमागाभिधाने आप्तं न आहुः ॥ १३ ॥ यः गणवृतः रक्ताभेन्द्रकृति गृहीत्वा श्मशाने नटति, निस्त्रिशः त्रिभूधनविना मांसं दक्षिणेन आमनेन अत्ति, गौरीगङ्गाङ्गसंगी, त्रिपुरवहनकुत्, दैविध्वंसदक्षः, तं रोद्ररूपं निन्यं रुद्रम् अमल रूप गहन वनमें परिभ्रमण करता है जो कि व्याधि (शारीरिक पीड़ा) व आषि ( मानसिक पीड़ा ) रूप भीलोंसे व्याप्त, इन्द्रियविषयरूप मृगोंके समूहसे सहित, काम एवं क्रोध आदिरूप साँसे परिपूर्ण तथा दुःखोंरूप वृक्षोंसे सधन रहता है; उन निन्दनीय तीनोंका जो स्वामी बनकर सेवन करते हैं वे यदि देव होकर पूज्य बन सकते हैं तो हे सद्बुद्धि मनुष्यो! यह कहिये कि फिर निन्दित प्राणी कौन होंगे। तात्पर्य यह है कि जो नीच जनके समान स्त्री, मांस एवं मद्यका सेवन किया करते हैं वे देव कभी नहीं हो सकते, अन्यथा देव और निन्दित जनों में कोई भेद ही नहीं रहेगा ॥ १२ ॥ जिसके निद्रा, चिन्ता, विषाद, श्रम, काम, मद, स्वेद, खेद, प्रमाद, क्षुधा, राग, द्वेष, तृष्णा, मरण, जन्म, जरा, रोग, और शोक; ये तीनों लोकोंके प्राणियोंको व्याप्त करनेवाले अठारह भो दोष नहीं होते हैं उसे नयके ज्ञाता मोक्षमार्गके निरूपणमें देव बतलाते हैं, इसके विपरीत जो उन अठारह दोषोंसे रहित नहीं होता है वह आप्त नहीं हो सकता है, इसोलिये उसे मोक्षमार्गके प्रणेता होनेका अधिकार नहीं है ॥ ३ ॥ जो निर्दय रुद्र ( शिव ) रुधिरसे गोले गजराअफे चर्मको ग्रहण करके प्रमयादि गणोंसे वेष्टित होता हुआ श्मशानमें नाचसा है, जो दक्षिण मुखसे तीनों लोकोंके प्राणियोंके मांसको खाता हैप्रलय करता है, जो पार्वती एवं गंगाफे अंगसे संगत है-उन्हें अपने शरीरपर धारण करता है, तीन पुरोंको दग्ध करनेवाला है, तथा दैत्योंके विनाशमें दक्ष है; उस भयानक वेषके धारक निन्द्य रुद्रको निर्मलबुद्धि मनुष्य कैसे आप्त कहते हैं ? अर्थात् वह कभी आप्त नहीं हो सकता है ॥ १४ ॥ विशेषार्थ यहाँ महादेवको त्रिपुरका १ स दुखद्राणी । २ स निगदित । ३ स मदाश्वेद । ४ स प्रमादा । ५ स ते। ६ स रक्तादे', रक्ताभद्रकृति, रक्तादेवेंद्र, रक्ताद्रे, । ७ स नटयति । ८ दक्षणेन', दक्षिणो नाननेन । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 657 : २६-१६ ] २६. आप्तविचारद्वाविंशतिः 656 ) त्यक्त्वा पद्मास निन्द्यां मबनशरहतो गोपनारों 'सिषेवे निद्राविद्राणचित्तः कपटशतमयो दानवारातिघातो । रागद्वेषावधूतो पतिसुतरये सारथिर्यो ऽभवसं कुर्वाणं प्रेम वियतिशयं नाप्तमाहुर्मुरारिम् ॥ १५ ॥ 657) यः कन्तु सप्तचित्तो विकलितचरणो ऽष्टावक्त्रत्वमाप नानानाप्रयोगे त्रिदशपतिवधू वत्तवीक्षा "कुलाः । कुद्धश्चिच्छेव शम्भुक्तियवचनतः पचमं यस्य वक्त्रं स 'ब्रह्मासो ऽतिनीचः प्रणिगवत कथं कम्यते तस्वयोः ॥ १६ ॥ ૨૩૨ धियः आप्तं कथं वदन्ति ॥ १४ ॥ यः अनिन्द्यां पद्मां त्यक्वा मदनशरहृतः गोपनारी सिषेवे । निद्राविवाणचित्तः कपटशतमयः दानवारातिघाती रागदेषानभूतः यः पतिसुतरचे सारथिः अभवत् । बिटवत् नार्या॑म् अतिशयं प्रेम कुर्बाणं तं मुरारिम् आप्तं न आहुः ।। १५ ।। यः नानानाट्यप्रयोगे त्रिदशपतिवधूदत्त वीक्षा कुलाक्षः कन्तु तप्तचित्तः क्रुद्धः शम्भुः यस्य पश्च दक्त्रं विच्छेद । सः अतिनीचः ब्रह्मा तत्वबोधः कथम् आप्तः कथ्यतं प्राणिगदत ॥ १६ ॥ यः प्रतिदिनं भ्रान्त्वा असुरैः दाहक निर्दिष्ट किया गया है। उसके सम्बन्धमें श्रीभागवत आदिमें निम्न प्रकार कथानक पाया जाता है - पूर्वकालमें देवोंने जब असुरोंको जीत लिया था तब वे मायावियोंके उत्कृष्ट माचार्य मयके पास पहुंचे। उसने सुवर्ण, रजत एवं लोमय तीन अदृश्य पुरोंका निर्माण करके उनके लिये दिये। उन्होंने उक्त पुरोंसे अलक्षित रहकर पूर्व केरके कारण स्वामियोंके साथ लोन लोकों को नष्ट कर दिया। तब स्वामियोंके साथ लोकोंने महादेवकी उपासना की । महादेवने देवोंको 'तुम डरो मत्त' कहकर बनुषपर बाणोंको चढ़ाया और उन पुरोंके ऊपर छोड़ दिया । उक्त बाणोंसे विद्ध होकर उन पुरोंमें रहनेवाले वे देत्य गतप्राण होकर गिर गये । महायोगी मने उन असुरोंको लाकर पुरत्रयमें स्थित सिद्ध अमृतरसके कूपमें रख दिया। वे उस रसको छूकर दृढ़ शरीरको प्राप्त होते हुए उठकर खड़े हो गये । तब विष्णु, गाय और ब्रह्मा वत्स होकर पुरत्रयमें प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने रसकूपके अमृतका पान किया । असुरोंने विष्णुकी मायासे मोहित होकर उन्हें नहीं रोका। तब विष्णुने अपनी शक्तियोंसे शिदके लिये युद्धके उपकरण स्वरूप रथ, सारथि और धनुष-बाण आदिको किया । महादेव सुसज्जित होकर रथपर बैठ गये। उन्होंने धनुषपर बाणको आरोपित करके मध्याह्नकालमें उक्त पुरत्रयको भस्म कर दिया || १४ || जिसने निर्दोष लक्ष्मीको छोड़कर कामके बाणोंसे पीड़ित होते हुए ग्वाल स्त्रीका सेवन किया है, जिसका चित्त निद्रासे विद्राण ( सुप्त ) है, जो सैकड़ों कपटस्वरूप है, देत्यरूप शत्रुओं का नाश करतेवाला है, राग-द्वेषसे कलुषित है, इन्द्रके पुत्र अर्जुनके रयपर सारथिका काम करता रहा है तथा जो स्त्रीके साथ जारके समान अतिशय प्रेम करता है उस विष्णुको विद्वान् आप्त नहीं कहते हैं ॥ १५ ॥ जो ब्रह्मा अनेक नाटयों के प्रयोग में इन्द्रकी पत्नियोंके देखने में नेत्रोंको देता हुआ व्याकुल रहा है, जो कामसे सन्तप्त होकर संयमसे रहित होता हुआ चार मुखोंको प्राप्त हुआ है तथा महादेवने असत्यभाषणके कारण क्रुद्ध होकर जिसके पाँचवें मुखको काट डाला है; उस अतिशय नीच ब्रह्माको तत्वज्ञ जन आप्त कैसे कहते है, यह बत्तलाइये ॥१६॥ १. स नारी शिखेव । २ सनाय । ३ स श्रानानाय कुलादयः । ६ स ब्रह्माप्नोतित्रीन: प्तातिवीजः t ७ स प्रणिगदित । द्य", "नाट्यप्रयोग । ४ स वधूं । ५ स वीक्ष्या Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 658 : २६-१७ १८० सुभाषितसंबोहः ___658) यो भ्रान्त्वोदेति कृत्या प्रतिविनमसुरेयिग्रहं व्याधिवितो यो दुवरिण दीनो भयचकितमना ग्रस्यते राहणा च । मूढो विध्यरतबोषः कुसुमशरहतः सेवते कामिनी यः सन्तस्तं भानुमाप्तं भवगहनबनपिछत्तये' नाशयन्ति ॥ १७॥ 659) मूढः कन्दर्पसप्तो वनचरयुवतो भग्नवृत्तः षडास्य स्तद्भार्यासक्त चित्तस्त्रिदापतिरभूव गौतमेनाभिशप्तः । बहिनिःशेषभक्षी विगतकृपमना साङ्गको मालोलो नेकोऽपोतेषु देवो विगलितहसिलो दृश्यते सस्वरूपः। 660) रागान्धा पौनयोनिस्तनमनभरा शान्तनारीप्रसंगात कोपावारातिधाताः प्रहरणधरणाषिणो भीतिमन्तः । आत्मीयानेकदोषाम्यवसितविरहा: स्नेहतो दु:खिनश्च ये देवास्ते कथं वः शमयमनियमान् दातुमीशा विमुक्त्यै ॥ १९ ॥ विग्रहं कृत्वा उदेति । च व्यापिवितः दीनः भयचकितममाः दुरिण राहणा प्रस्यते । बिध्वस्तबोधः मूढः यः कुसुमशरहतः कामिनी सेवते । सन्तः भवगहनबनच्छिसये तं भानुम् आप्तम् [ इति ] न आश्रयन्ति ॥ १७ ॥ कन्दपंतप्तः मूढः षडास्यः वनचरयुवती भग्नवृत्तः । गौतमेन तदासिक्तचित्तः त्रिदशपतिः अभिशप्तः अभवत् । वलिः निःघोषभक्षी विगतकृपमनाः । लागली मद्यलोलः 1 एतेषु विगलितकलिलः तस्वल्पः एकः अपि देवः न दृश्यते ॥ १८॥ ये देवाः पौनयोनिस्तमजधनमराकान्तनारीप्रसंगात् रागाम्या:, कोपात् आरातिषाताः, प्रहरणधरणात् वेषिणः भौतिमम्तः, आत्मीयानेकदोषात् व्यवसित जो सूर्य असुरोंके साथ युद्ध करके भ्रमम करता हुआ प्रतिदिन उदयको प्राप्त होता है, जो व्याधि (कोढ़ से पीड़ित है, जो बेचारा मनमें भयभीत होकर दुनिवार राहुके द्वारा प्रस्त किया जाता है, तथा जो मूर्ख अशानतावश कामबाणसे पीड़ित होकर स्त्री ( कुन्ती )का सेवन करता है; उस सूर्यको आप्त मानकर सज्जन पुरुष संसाररूप वनका विध्वंस करनेके लिये कभी आश्रय नहीं लेते हैं ।। १७ ॥ मूर्ख कार्तिकेयने कामसे संतप्त होकर भील युधसिके विषयमें अपने चारित्रको नष्ट किया है, इन्द्र गौतम ऋषिकी पस्नीमें आसक्त होकर उसके द्वारा अभिशापको-सौ योनियोंको-प्राप्त हुवा है, अग्नि निर्दयचित्त होकर समस्त प्राणियोंको भक्षित करनेवाला है, और बलदेव मद्यके लोलुपी हैं। इस प्रकार इनमें से एक भी कोई निष्पाप ( निर्दोष ) यथार्थ देव नहीं दिखता है ॥ १८ ॥ जो देव पुष्ट योनि, स्तन और जघनके भारसे अभिभूत स्त्रीके प्रसंगसे रागमें अन्ध हैं; क्रोधके कारण शत्रुको नष्ट करनेवाले हैं, आयुधोंके घारक होनेसे द्वेषी एवं भयभीत हैं, अपने अनेक दोषोंके कारण निश्चित विरहसे संयुषस हैं, तथा स्नेहके कारण दुखी भी हैं वे देव आपलोगोंको मुक्तिके निमित्त शम, यम और नियमको देनेके लिये कैसे समर्थ हो सकते हैं ? नहीं हो सकते ॥ १९ ॥ विशेषार्य-यथार्य देव ( आप्त ) वही हो सकता है जो कि रागादि दोषोंसे रहित हो। लोकमें जो ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदिको देव माना जाता है वे वास्तवमें देव नहीं हो सकते हैं। कारण यह कि दे उपर्युक्त रागादि दोषोंसे सहित हो हैं, न कि रहित । वे रागी तो इसलिये हैं कि स्त्रियोंमें आसक्त हैं। यथा-ब्रह्मा यदि इन्द्रके द्वारा भेजी गई १ स स्थित्तये ? । २ स "शक्त' । ३ स भिशक्तः। ४ स भने । ४ स कृपमना, 'कुतमनां । ४b स लांगलिः । ४८ स लोभो । ५ स तत्र रूप । ६ स "धराकान्त' । ७ स प्रसंगा। ८ स "धरणाः । ९ स विरहास्नेहतो, स्नेहिनो । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ 62 : २६-२१ ] २६. आप्तक्विारद्वाविंशतिः 661) पर्यालोच्य वमत्र स्थिरपरमधियस्तत्त्वतो बेहभाजः संत्यज्यैतान कुवेवास्त्रिविधमलभूतो वीर्घसंसारहेतून् । विध्वस्ताशेषदोषं जिनपतिमखिल प्राणिनामापदन्तं ये वन्दन्ते ऽनवयं मदनमवनुदं से लभन्ते सुखानि ॥ २० ॥ 662) दृष्टं ननेन्द्रमन्बधलयमुकुटतटीकोटिविलिष्टपुष्प भ्राम्यवनौषधोपैजिनपतिनुतये ह्यावरा जिनस्य । पावत तं प्रभूत प्रसभभवभयंभ्रंशि भक्त्या क्तचिसस्तैराप्तोक्तं विमुक्त्यै पवमपवमय व्यापा"माप्तमाप्तम् ॥ २१॥ विरहाः, स्नेहतः दुःखिनः च । ते वः विमुक्त्यै समयमनियमान् दातुं कथम् ईशाः ॥ १९ ॥ एवमत्र तत्त्वतः पर्याकोच्य ये स्थिरपरमधियः देहभाजः त्रिविधमलभुतः दीर्घसंसारहेतून एतान् कुदेवान् संत्यज्य विश्वस्ताग्रेषदोष मदनमदनुदम् अखिलप्राणिनाम् आपदन्तम् अनवद्यं जिनपति वदन्त, से सुखानि लभन्ते ।। २० ।। भक्त्यात्तचित: य: आदरात नम्रन्त्रमम्वरलषमुकुटवटीकोरिविषिलष्टपुष्पभ्राम्यद्भगौधघोषः जिनपतिनुतये प्रभूतप्रसभभवभयभ्रंशि पादतं दृष्टम् । अथ से: म्यापयाम् अपदम् आप्तोक्तम् आप्तं पदं विमुक्त्यै आप्तम् ॥ २१॥ मया एषां दोषाः वयनपटुसया द्वेषतः रागतः वाम उमताः । तिलोत्तमा अप्सरामें आसक्त हुआ है तो विष्णु सदा लक्ष्मीको वक्षस्थलमें धारण करता हुआ ग्वाल स्त्रियोंके साथ क्रोड़ा करता है और शिवने तो कामातुर होकर पार्वतीको अपने आधे शरीरमें हो धारण कर लिया है। इससे उनका रागान्ध होना निश्चित है। वे क्रोधी भी हैं, क्योंकि अनेक शत्रुओंका-त्रिपुर, नरकासुर एवं मुरासुर आदिका---उन्होंने घात किया है। इसके अतिरिक्त चूंकि वे गदा एवं त्रिशूल आदि आयुधोंको धारण | करते हैं अतएव वे निश्चित ही भयभीत एवं विद्वेषी प्रतीत होते हैं। इस प्रकार जो स्वयं रागी, द्वषी एवं कामो हैं वे अन्य मुमुक्षु जनके लिये शम-यमादिको प्रदान करके मोक्षमार्गमें कभी प्रवृत्त नहीं कर सकते हैं। इसलिये उनको देव समझना योग्य नहीं है । १९ ।। स्थिर एवं उत्कृष्ट बुद्धिके धारक जो प्राणी यहाँ उक्त प्रकारसे देव एवं कुदेवका वस्तुत: विचार करके तीन प्रकारके मलको धारण करनेवाले-द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म रूप तीन प्रकारके मलसे मलिन तथा अनन्त संसारके कारणभूत इन कुदेवोंको--शिव, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, कात्तिकेय, इन्द्र और अग्नि आदिको---छोड़ देते हैं तथा रागादि समस्त दोषोंसे रहित, सब प्राणियोंके कष्टको दूर करनेवाले एवं कामके विजेता निर्दोष जिनेन्द्र देवकी वन्दना करते हैं वे यथार्थ सुखोंको प्राप्त करते हैं ॥ २० ॥ जिन भव्य जीवोंने भक्तिमें चित्त देकर जिनेन्द्रको नमस्कार करने में नम्रीभूत हुए इन्द्रके मन्द द शिथिल मुकुटतटके अग्रभागसे पृथक् हुए पुष्पोंके ऊपर घूमते हुए भ्रमरसमूहके गुंजारके साथ प्रचुर संसारके __ भयको बलपूर्वक नष्ट करनेवाले जिन भगवान्के चरणयुगलका विनयपूर्वक दर्शन किया है उन्होंने मुक्तिको प्राप्त करनेके लिये समस्त आपत्तियोंके हरनेवाले जिनोपदिष्ट आप्तके पदको ही पा लिया है, ऐसा समझना चाहिये ॥ २१ ॥ मैंने इन उपर्युक्त कुदेवोंके दोषोंको वचनकी निपुणता ( कवित्वशक्ति से, द्वषसे अथवा रागसे-जिनानुरागसे--नहीं दिखलाया है। किन्तु मेरा यह प्रयत्न यहाँ केवल सर्वज्ञ एवं वीतराग आप्तका बोध करानेके लिये है। इसका कारण यह है कि परके रहनेपर-रागादि दोषोंसे कलुषित कुदेवके विद्यमान होने १ स लोध्येव । २ स °मखिलं । ३ स 'पदं तं । ४ स पुष्यद्धा । ५ स नुतयो। ६ स ध्याहराम्य व्याहराब । ७ स भूतं । ८ स भयाभंशि। १ स °भ्रंसि भक्त्यात्त ।१० स व्यापदप्राप्त । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [663 : २६-२२ १८२ सुभाषितसंबोहः 663) नैषां दोषा मयोक्ता वचनपटुतया द्वषतो रागतो वा कि त्वेषो ऽत्र प्रयासो मम सकलविदं ज्ञातुमाप्तं विवोषम् । शक्तो बोधून चात्र त्रिभुवनहितकृविद्यमानः परत्र भानु!देति यावन्निखिलमपि तमो नावधूतं हि सावत् ॥ २२ ॥ इत्याप्त विचार द्वाविंशतिः ॥ २२ ॥ किंतु विदोषं सकलविदम् आप्तं ज्ञातुम् अत्र एष मम प्रयासः। परस्त्र विद्यमानः त्रिभुवनहितकृत अत्र बोर्बु न च शक्तः । यावत् निखिलम् अपि तमः न अवधूतं तावत् भानुः न उदेति ।। २२ ॥ इत्याप्तविचारताविशतिः ॥ २६ ।। पर तीनों लोकोंके समस्त प्राणियोंका हित करनेवाले यथार्थ देवका बोध नहीं हो सकता है । ठीक है-जव तक सूर्य समस्त अन्धकारको नष्ट नहीं कर देता है तब तक वह उदयको शप्त नहीं होता है ॥ २२ ॥ विशेषार्थ -यहाँ ग्रन्थकर्ता श्री अमितगति आचार्य यह बतलाते हैं कि मैंने यहाँपर जो देवस्वरूपसे माने जानेवाले ब्रह्मा व विष्णु आदिके कुछ दोषोंका निर्देश किया है वह न सो अपनी कवित्व शक्तिको प्रगट करनेके लिये किया है और न किसी राग-द्वेषके वश होकर ही किया है। इसका उद्देश्य केवल यही रहा कि उपर्युक्त दोषों और गुणोंको देखकर मुमुक्षु जीव यथार्य देवकी पहिचान कर सकें। उदाहरणके रूपमें जब रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है तब ही सूर्यका उदय देखा जाता है। इसी प्रकार अन्य ब्रह्मा आदिमें जो दोष देखे जाते हैं उन सबसे रहित हो जानेपर ही जीव यथार्थ आप्त ( मोक्षमार्गका प्रणेसा ) हो सकता है। इस प्रकार बाईस श्लोकोंमें आप्तका विचार किया। १ स नेते । २ स टु तथा । ३ स विद्यमाने, विद्यमानो । ४ स इत्याप्तयिवेचनम् । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७. गुरुस्वरूपनिरूपणपविंशतिः ] 664) जिनेश्वरक्रमयुगभक्तिभाविता विलोकि तत्रिभुवनवस्तु विस्तराः । द्विषता (?) डिह गुणांश्चरन्ति ये नमामि तान् भवरिपुभित्तये * गुरून् ॥ १ ॥ 665 ) समुद्यतास्तपसि जिनेश्वरोबिसे वितन्वते निखिलहितानि निःस्पृहाः । सदा न ये मवनमदेरपाकृताः सुदुर्लभा जगति मुनोशिनो ऽत्र ते ॥ २ ॥ 666) वचांसि ये' शिवसुखानि तन्वते न कुर्वते स्वपरपरिग्रहम् । विजिता: सकलममत्व वर्णः श्रयामि तानमलपदाप्तये यतीन् ॥ ३ ॥ 667 ) न बान्धवस्वजनसुतप्रियादयो वितन्वते तमिह गुणं शरीरिणाम् । 10 विभित्तितो भवभयभूरिभूभूतां" मुनीश्वरा विवधाति यं कृपालयः १२ ॥ ४ ॥ 663) शरीरिण: 13 कुलगुणमार्गणावितो विबुध्य ये* विद्याति निर्मला बयाम् । विभोरको जननतुरन्त दुःखतो भजामि ताञ्जनकसमान् गुरून् सदा ॥ ५ ॥ जिनेश्वरक्रमयुगभक्तिभाविताः विलोकित त्रिभुवनवस्तुविस्तराः ये इह द्विषड्हतान् षट्गुणान् चरन्ति तान् गुरून् भवरिपुभित्तये नमामि ॥ १ ॥ ये जिनेश्वरोदिते तपसि समुखताः निःस्पृहाः निखिलहितानि वित्तन्यते ये सदा मदनमः न बघाकृताः, ते मुनीशिन्दः अत्र जगति सुदुर्लभाः ॥ २ ॥ ये सकलममत्वदूषणैः विवजिताः शिवसुखदानि वचांसि तन्वते, स्वपरपरि ग्रहग्रहं न कुर्वते तान् यतीन् ममलपदाप्तये श्रयामि ॥ ३ ॥ कृपालय मुनीषवराः भवभयमूरिभूभूतां विभितितः यं गुणं विदति इह बान्धवस्वजनसुतप्रियादयः शरीरिणां तं गुणं न वितन्वते ॥ ४ ॥ कुलगुणमार्गणादितः शरीरिण: विबुध्य ये 7 जो जिनेश्वरके चरणयुगलमें अनुराग रखते हैं, तीनों लोकोंकी वस्तुओंके विस्तारको देखते- जानते हैं और गुणका परिपालन करते हैं उन गुरुयोंको में संसाररूप शत्रुको नष्ट करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ जो मुनिराज जिन भगवान् के द्वारा प्ररूपित तपश्चरणमें उद्यत हैं, निःस्वार्थ होकर समस्त प्राणियोंका कल्याण करते हैं, तथा जो निरन्तर कामके मदसे तिरस्कृत नहीं किये जाते हैं - कामविकारसे सदा रहित होते हैं वे मुनिराज यहाँ संसार में अतिशय दुर्लभ हैं ॥ २ ॥ जो मोक्षसुखके देनेवाले वचनोंका विस्तार करते हैं-हितकारक वचन बोलते हैं, अभ्यन्तर व बाह्य दोनों प्रकारके परिग्रहरूप पिशाचको ग्रहण नहीं करते हैं, तथा समस्त राग-द्वेषरूप दोषोंसे दूर रहते हैं उन मुनियोंका में निर्मल पद ( मोक्ष ) के प्राप्त्यर्थं आश्रय लेता हूँ ॥३॥ मित्र, कुटुम्बी जन, पुत्र और प्रियतमा आदि यहाँ प्राणियों के उस उपकारको नहीं करते हैं जिसे कि दयालु मुनिराज संसारके भयरूप प्रचुर पर्वतोंके भेदनेसे करते हैं। अभिप्राय यह है कि मुनिजन अपने सदुपदेशके द्वारा प्राणियों को संसारके दुखरूप पर्वतके भेदनेमें प्रवृत्त करके जिस महान् उपकारको करते हैं उसको बन्धु-बान्धव आदि कभी भी नहीं कर सकते हैं। अतएव कुटुम्ब आदिके मोहको छोड़कर उन सद्गुरुओंकी उपासना करना चाहिये || ४ || जो संसारके दुःसह दुखसे भयभीत होकर कुल, गुणस्थान एवं मार्गणा आदिसे जीवोंको जान १ स विलोकिता, विलोकितस्त्रि २ स तन्त्र, चस्त for वस्तु । ३ स षट् हतान् षटहतान् । ४ सक्षिये, fभयो । ५ स नये । ६ स ये तिशिष । ७ स प्रकुर्वते । ८ स श्रयाणि । ९स वितन्वे । १० स विभिदितो, विभितो । ११ स भृतो । १२ स कृपालया । १३ ६ शरीरिणां । १४ स दिबुद्धये ३ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सुभाषितसंदोहः [669 : २२७-६ 669) बदन्ति ये वचनमनिन्वितं बुधरपोडकं सकलशरीरधारिणाम् । मनोहरं रहितकषायवूषणं भवन्तु ते मम गुरवो 'विमुक्तये ॥६॥ 670) न लाति यः स्थितपसिताविकं धनं पुराफरक्षिति'धरकाननाविषु। त्रिधा तृणप्रमुखमवत्तमुत्तमो नमामि तं जननविनाशिनं गुरुम् ॥ ७ ॥ 671) त्रिधा स्त्रियः स्वसृजननीसुतासमा विलोक्य ये कपनविलोकनादितः । पराङमुखाः शमितकषायशत्रवो यजामि तान्विषयविनाशिनो गुरुन् ॥ ८॥ 672) परिग्रह विविधमपि विधापि ये न गृहसे तनुममताविजिताः । विनिर्मलस्थिरशिवसौख्यकाङ्क्षिणो भवन्तु ते मम गुरवो भवच्छिवः ॥९॥ 673) विजन्तुके दिनकररश्मिभासिते वजन्ति ये पथि दिवसे युगेक्षणाः । स्वकार्यतः सकलशरीरधारिणां क्यालयो बति सुखानि से गिनाम् ॥१०॥ जननदुरन्तदुःखतः विभीरवः निर्मलां दया विदति तान् जनकसमान गुरून सदा भजामि ॥ ५॥ ये सकलशरीरधारिणाम अपीडकं बुधः अनिन्दितं रहितकषायदूषणं मनोहरं वचनं वदन्ति ते गुरषः मम विमुक्तये भवन्तु ।। ६॥ उत्तमो या पुराकरक्षितिधरकाननादिषु स्थितपतितादिकम् अदत्तं तृणप्रमुखं धनं न लाति तं जननविनाशिनं गुरुं विधा नमामि ॥ ७ ॥ ये स्वसृजननीसुतासमाः विधा स्त्रियः विलोक्य कयनविलोकनादितः पराङ्मुखाः शर्मितकषायशत्रवः तान् विषयविनाशिनः गुरुन् यजामि ।। ८ ॥ तनुममताविवर्जिताः विनिर्मलस्थिरशिवसौख्यकाक्षिणः ये द्विविधम् अपि परिग्रहं त्रिधापि न गृह्णते ते गुरवः मम भवच्छिदः भवन्तु ॥ ९ ॥ सफलशरीरधारिणां दयालवः ये युगेक्षणाः दिवसे विजन्तुके दिनकररश्मिभासिते पथि स्वकार्यतः व्रजन्ति ते अङ्गिनां सुखानि ददति ॥ १० ॥ ये दिगम्बराः श्रुतोदितं मधुरं अपैशुनं स्वपरहितावह गृहिजन कर निर्मल दयाको करते हैं, अर्थात् अहिंसा महाप्रप्तका परिपालन करते हैं उन पिताके समान गुरुओंकी में निरन्तर भक्ति करता हूँ ॥ ५॥ जो विद्वानोंके द्वारा अनिन्दित-उनके द्वारा प्रशंसनीय, समस्त प्राणियों के लिये सुखकर, मनोहर और कषायरूप दूषणसे रहित वचनको बोलते हैं वे सत्यमहाव्रतके धारी गुरु मेरे लिये मुक्तिके कारण होवें ॥ ६ ॥ जो उत्तम गुरु नगर, खानि, पर्वत और वन आदिमें स्थित अथवा गिरे हुए आदि तृणप्रभृति धनको बिना दिये मन, वचन एवं कायसे नहीं ग्रहण करता है; जन्म-मरणरूप संसारका विनाश करनेवाले उस अचौर्यमहावतके धारक गुरुके लिये मैं नमस्कार करता हूँ॥७॥ जो गुरु तोन प्रकारको (युवत्ति, वृद्धा एवं बाला ) स्त्रियोंको बह्नि, माता और पुत्रीके समान मानकर उनके साथ सम्भाषण एवं अवलोकन मादिसे विमुख रहते हुए कषायरूप शत्रुको शान्त करते हैं; विषयभोगोंके विनाशक उन ब्रह्मचर्यमहाव्रतधारी गुरुओंको मैं पूजा करता हूँ॥८॥ शरीरमें भी ममत्वबुद्धि न रखनेवाले जो गुरु बाह्य व अभ्यन्तर दोनों ही प्रकारके परिग्रहको मन, वचन व कायसे नहीं ग्रहण करते हैं तथा जो निर्मल एवं शाश्वतिक मोक्षसुखकी अभिलाषा करते हैं वे अपरिग्रहमहाव्रतके परिपालक गुरु मेरे संसारका नाश करनेवाले हो ॥ ९॥ जो गुरु सूर्यको किरणोंसे प्रकाशित निर्जन्तु मार्गमें स्वकार्यवश--चर्या आदिके निमित्त-दिनमें युगप्रमाण ( चार हाथ ) देखकर गमन करते हैं; समस्त प्राणियोंके ऊपर दया करनेवाले वे ईर्यासमितिका पालन करनेवाले गुरु जीवोंको सुस देते हैं ॥ १० ॥ जो नग्न दिगम्बर गुरु मधुर ( मिष्ट ), दुष्टता व परनिन्दासे रहित, आगमसे अविरुद्ध, स्त्र व १ स on. वि । २ स जः । ३ स "क्षति° । ४ स सुतादयो। ५ स विलोक्यते, जे for ये । ६ स कथमविलोकनाहितः । स ययामि। ८ स ताननाशिनो। ९ स परिपह"द्विविधं त्रिघापि ये न गृह्यते व तनुमता वि । १० स भाषिते। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ 678 : २७–१५ ] २७. गुरुस्वरूपनिरूपणषड्विंशतिः 674) दिगंबरा मधुरमपैशुनं वचः श्रुतोवितं स्वपरहितावह मितम् । अवन्ति ये गृहिजनजल्पनोजिमतं भवारितः शरणमितो ऽस्मि तान् गुरून् ॥ ११ ॥ 675) स्वतो मनोवचनशरीरनिमितं समाशयाः कटुकरसाविकेषु ये। न भुञ्जते परमसुखैषिणो ऽशनं मुनीश्वराः मम गुरको भवन्तु ते ॥१२॥ 676) शनैः पुराः विकृतिपुरःसरस्य ये विमोक्षणप्रहणविधी वितन्वते । कृपासरा जगति 'समस्तदेहिनां पुनन्ति ते जननजराविपर्ययाम् ॥ १३ ।। 677) सविस्तरे धरणितले ऽविरोधके ऽनिरोक्षिते परजनताविनाकते।। ___ त्यजन्ति ये तनुमलमणिजिते पतोहवरा मम गुरुखो भवन्तु ते॥१४॥ 678) मनःकरी विषयवनाभिलायुको" नियम्य य: "शमयमखलवृतम् । पशीकृतो मन निशिताशेः सदा तपोषना मम गुरषो भवन्तु ते ॥ १५ ॥ कल्पनोज्झितं मितं वचः बुवन्ति तान् गुरुन् भवारितः शरणम् इतः अस्मि ॥ ११ ॥ कटुकरसादिकेषु समाशयाः परमसुखैषिणः ये मुनीश्वराः स्वतः मनोपचनशरीरनिर्मितम् अशनं म भुञ्जते ते मम पुरकः भवन्तु ॥ १२ ॥ ये विकृतिपुरःसरस्प शनैः पुराः विमोक्षणग्रहणविधीन वितम्बते, जगति समस्तदेहिना पापराः ते अमनजराविपर्ययान् पुनन्ति ॥ १३ ॥ ये यतीश्वराः सविस्तरे अविरोधके निरीभिते परजनताविनाकृते अविजिते घरणित तनुमलं त्यजन्ति, ते मम गुरवः भवन्तु ॥ १४ ॥ यैः विषयवनाभिलाषुकः मनःकरी शमयमपालः दृढ नियम्य मननशिताः वशीकृतः ते तपोधनाः सदा मम गुरवो भवन्तु ।। १५ ॥ ये जिनवचनेषु समुद्यताः मौनिनः निष्करं कटुकं अबद्यवदनम् अनर्थम् अप्रियं वदनं न पर दोनोंके लिये हितकारक, परिमित और गृहस्य अनके भाषणसे रहित-आरम्भ व परिग्रहके सम्बन्धसे रहित-ऐसे वचनको बोलते हैं; मैं संसाररूप शत्रुसे भयभीत होकर उन भाषासमितिके परिपालक गुरुभोंकी शरणमें प्राप्त हुआ हूँ ॥ ११॥ उत्कृष्ट सुख ( मोक्षसुख ) की अभिलाषासे कटुक व मधुर आदि रसोंमें समान अभिप्राय रखनेवाले ( राग-द्वेषसे रहित ) जो मुनीन्द्र अपने आप मन, वचन, कायसे तैयार किये गये भोजनको नहीं ग्रहण करते हैं-भिक्षावृत्तिसे श्रावकके घर जाकर आगमोक्त विधिसे आहारको ग्रहण करते हैंएषणासमितिके धारी मुनीन्द्र मेरे गुरु होवें मेरे लिये मोक्षमार्गदर्शक होवें ॥ १२ ॥ संसारमें सब प्राणियोंके ऊपर दयाभाव रखनेवाले जो गुरु निकटमें स्थित विकारस्वरूप राख, मिट्टी व कमण्डलु बादिको धीरेसे छोड़ने और ग्रहण करनेरूप कार्योको करते हैं वे आदान निक्षेप समितिके धारक गुरु जीवोंके जन्म, जरा और मिथ्याबुद्धिको नष्ट करें ॥ १३ ॥ जो मुनीश्वर विस्तृत, विरोधसे रहित ( जहाँपर किसीको विरोध नहीं है ), मले प्रकार देखे शोधे गये, अन्य जनके संचारसे रहित और निर्जन्तु पृथिवीतलपर शरीरके मल (विष्ठा, मूत्र व कफ भादि) को छोड़ते हैं वे प्रतिष्ठापन समितिके परिपालक मुनीश्वर मेरे गुरु होवें ॥ १४॥ जिन तपस्वियोंने विषरूप वनमें परिभ्रमणको इच्छा रखनेवाले मनरूप हाबीको राम और संयमरूप सांकलोंके द्वारा दृढ़तापूर्वक नियंत्रित करके ज्ञान-ध्यानरूप तीक्ष्ण अंकुशोंके द्वारा वशमें कर लिया है वे तपरूप धनके धारक साधु सदा मेरे गुरु होवें ॥ १५ ।। जिन वचनोंमें उद्यत जो साधु कठोर; श्रवणकटु, पापवर्धक, निरर्थक और १स श्रुता । २स शरणमत्र च्छिदोदतः । ३ स शमाश्रिया, समाश्रयाः, शमाश्रयाः । ४ स ते for ये। ५स विधि1 ६स समस्ति दे० । ७स विरोधके । ८स निरीक्ष्यते। एसजनता विमाकृतं । १० सज्जिता 1११स लापको, वनानि लापुको । १२ स शममय । १३ स मननि । सु. सं. २४ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सुभाषितसंवोहः [679 : २७-१६ 679) न निष्ठुर कटुक भवद्यवर्धनं वदन्ति ये वचनमनर्यमप्रियम् । समुद्यता जिनवचनेषु मौनिनो गुणगुरुन् प्रणमत तान् गुरुन् सदा ॥ १६ ।। 680) न कुर्वते कलिलवियाकक्रियाः सवोद्यताः शमयमसंयमादिषु । रता न ये निखिलजनक्रियाबिधो भवन्तु ते मम हरये कृतास्पवाः ॥ १७ ।। 681) शरीरिणामसुखशतस्य कारणं तपोदयाशमगुणशोलमाशनम् । __जयन्ति ये धृतिबकासो ऽक्षरिणं भवन्तु ते यतिवृषभा मुदे मम ॥ १८ ॥ 682) वृष चिसं व्रतमियमरनेकधा विनिमलस्थिरसुखहेतुमुत्तमम् । विषन्वतो' सटिति कषायवैरिणो विनाशकानमालषियः स्तुवे गुरुन् ॥ १९॥ 683) विनिजिता हरिहरपलिजादयो विभिन्नता युवतिकटाक्षतोमरैः । मनोभुवा परमबलेन येन तं विभिन्दतो नमत गुरून् शमेषुभिः ।। २० ॥ 684) न रागिणः वचन न रोषबूषिता न मोहिनो भवभय भवनोयताः। गृहीतसन्मननवरित्रदृष्टयो भवन्तु मे मनसि मुवे तपोधनाः ॥ २१ ॥ वदन्ति, गुणः गुरुन् तान् गुरुन् सवा प्रणमत ॥ १६ ॥ शमयमसंयमादिषु सवा उद्यताः, निखिलजनक्रियाविधौ न रताः, मे कलिलवर्षकक्रियाः न कुर्वते, ते मम हृदये कृतास्पदाः भवन्तु ।। १७ ॥ ये शरीरिणाम् असुखशतस्य कारणं, तपोदयाशमगुणपकिनाशमम् अक्षवैरिणं तिबलतः जयन्ति ते पतिवृषभाः मम मुवे मवन्तु ।। १८॥ प्रतनियमः बनेकधा चितं विनिर्मलस्थिरसुखहेतुम् उत्तम वृषं टिति विघुन्वतः कषायवैरिणः विनाशकान् अमलपियः गुरुम् स्तुबे ॥ १९॥ युवतिकटाक्षठोमरैः विभिन्दता मेन मनोभुवा परमबलेन हरिहरवह्निजादयः विनिर्जिताः तं शमेषुभिः विभिन्वतः गुरून नमत ॥२०॥ [2 ] क्वचन रागिणः न, रोषदूषिताः न, मोहिनः न, भवभयभेदनोधताः गृहीतसन्मननचरित्रदृष्टयः [ ते तपोधनाः मे मनसि मुदे भवन्तु ॥ २१ ॥ ये तपोषनाः सुखासुखस्वपरवियोगयोगिताप्रियाप्रियव्यपगतजीवितादिभिः सममनसः भवन्ति ते अप्रिय वचनको नहीं बोलते हैं; तथा प्रतिकूलताके होनेपर जो मौनका अवलम्बन करते हैं उन गुणोंमें महान् गुरुओंको सदा नमस्कार करना चाहिये ॥ १६ ॥ जो मुनि शम, यम और संयम आदिमें निरन्तर उद्यत रहकर पापके बढ़ानेवाले कार्योंको नहीं करते हैं तथा जो समस्त जनसाधारणकी संसारवर्धक क्रियाओंसे विरत रहते हैं वे मेरे हृदय में निवास करें ।। १७ ।। जो इन्द्रियरूप शत्रु प्राणियों के लिये सैकड़ों दुःखोंका कारण है; तप, दया, दम; गुण व शीलको नष्ट करनेवाला है उसके ऊपर जो श्रेष्ठ मुनि धेर्यके बलसे विजय प्राप्त करते हैं वे मेरे लिये आनन्दके कारण होवें ॥ १८ ॥ जो कषायल्प शत्रु प्रत व नियमोंके द्वारा अनेक प्रकारसे संचित तथा निमल व स्थिर सुखके कारणभूत उत्तम धर्मको शीघ्र हो नष्ट कर देता है उसका विनाश करनेवाले निर्मलबुद्धि गुरुओंकी में स्तुति करता हूँ ॥ १९॥ जिस अतिशय बलवान् कामदेवने युवतियोंके कटाक्षरूप बाणोंके द्वारा भेदकर विष्णु, शिव और कात्तिकेय आदिको जीत लिया है उस सुभट कामदेवको भी शमरूप बाणोंसे विद्ध करनेवाले गुरुओंको नमस्कार करना चाहिये ॥२०॥ सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाले जो तपस्वी संसारभयके नष्ट करने में उद्यत होकर न किन्हीं इष्ट पदार्थोंमें राग करते हैं, न अनिष्ट पदार्थोंमें द्वेष करते हैं, और न कहीं पर मोहको भी प्राप्त होते हैं वे तपस्वी मेरे मन में आनन्दके लिये होवे ॥ २१ ॥ जो तपस्वी सुख और दुख, स्व और पर, वियोग और संयोग, इष्ट और अनिष्ट तथा विनाश १स कटुमनव' । २ स विषद्ध न । ३ स विभुन्वते, वितन्वते । ४ स विभिन्दिता, विभिदिती। ५ स भये । ६ स नुदे। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 689 : २७-२६ ] २७. गुरुस्वरूपनिरूपणषड् विशतिः 635) सुखासुखस्वपरवियोगयोगि 'साप्रियाप्रियव्यपगत जोधिताविभिः । भवन्ति ये 'सममनसस्तपोधना भवन्तु ते सम गुरवो भवच्छिदः ॥ २२ ॥ 686) जिनोदिते वचसि रता वितम्यते तपांसि ये कलिलकल मुक्तये । विवेचकाः स्वपरमषश्यतत्त्वतो हरन्तु ते मम दुरितं मुमुक्षवः ॥ २३ ॥ 687) अवन्ति ये जनकसम्मा मुनिश्वराश्चतुविधं गणमनवद्यवृत्तयः । स्वदेहवलितमवाष्टकारयो भवन्ति ते मम गुरवो भवान्तकाः ॥ २४ ॥ 688) वदन्ति मे जिनपतिभाषितं वृषं वृषेश्वराः सकलशरीरिणां हितम् । भवान्पितस्तरणमनर्थं मानं नयन्ति ते शिवपदमाश्रितं जनम् ॥ २५ ॥ 689 ) तनूभूतां नियमतपोक्तानि ये दयान्विता वर्षात समस्तलक्ष्ये । चतुविधे" विनयपरा' गणे सदा वहन्ति ते दुरितवनानि साधवः ॥ २६ ॥ इति गुरुस्वरूपनिरूपण 'षविशति ॥ २७ ॥ .१८७ गुरवः गम भवच्छिदः भवन्तुः ॥ २२ ॥ जिनोदिते वचसि रताः ये कलिलकलमुक्तये वपांसि वितन्वते । स्वपरमवदय [ मतस्य ] तत्त्वतः ये विवेचकाः ते मुमुक्षवः मम दुरितं हरन्तु ।। २३ ।। अनवद्यवृत्तयः ये मुनीश्वराः चतुविषं मणं जनकसमाः अवन्ति । स्वदेवत् दलितमदाष्टकारयः ते गुरवः मम भवान्तकाः भवन्तु ॥ २४ ॥ ये वृषेश्वराः सकलशरीरिणां हितं भवाब्धितः तरणम्, अनर्थनाशनं निपतिभाषितं वृषं वदन्ति ते आश्रितं जनं शिवपदं नयन्ति ।। २५ ।। दयान्विताः ये समस्तलब्धये तनूभूतां नियमतपोव्रतानि ददति, चतुविधे गणे सदा विनयपराः ते साधवः दुरितवनानि दहन्ति ।। २६ ।। इति गुरुस्वरूपनिरूपणषविशतिः ॥ २७ ॥ और जीवन इनमें समबुद्धि रहते हैं- --न सुख आदिमें हर्षको प्राप्त होते हैं और न दुख आदिमें विषादको प्राप्त होते हैं - वे तपरूप धनको धारण करनेवाले गुरु मेरे संसारका नाश करनेवाले होवें ॥ २२ ॥ जो जिन भगवान्के द्वारा कहे गये वचन में – जिनागम में – अनुरागको प्राप्त होकर पापरूप मैलको नष्ट करनेके लिये तपोंको करते हैं तथा प्रयोजनीभूत स्व-पर तत्त्वका [ मतका ] यथार्थ विवेचन करते हैं ये मुमुक्षु गुरु मेरे पापको नष्ट करें || २३ || निष्पाप आचरण करनेवाले जो मुनीन्द्र चार प्रकारके गणकी - अनगार, यति, मुनि और ऋषि अथवा मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविका संघकी—विताके समान रक्षा करते हैं तथा जिन्होंने अपने शरीरके समान आठ मदरूप शत्रुओं को नष्ट कर दिया है वे गुरु मेरे ससारका अन्त करनेवाले होवें ॥ २४ ॥ जो जिन देवके द्वारा प्ररूपित धमं समस्त प्राणियोंका हित करनेवाला है, उन्हें संसाररूप समुद्र से पार उतारता है, तथा अनर्थको नष्ट करता है उस धर्मका जो धर्मेश्वर गुरु व्याख्यान करते हैं वे शरणमें आये हुए जनको मोक्षपदमें ले जाते हैं ।। २५ ॥ जा दयालु होकर प्राणियों की समस्त अभीष्टका प्राप्ति के लिये (मुक्त लाभार्थ ) नियम, तप और व्रतको प्रदान करते हैं तथा जो अनगार, यति, मुनि और ऋषिरूप चार प्रकारके संघकी विनय करने में सदा तत्पर रहते हैं वे साघु पापरूप वनों को भस्म करते है || २६ ॥ इस प्रकार छब्बीस श्लोकोंमें गुरुका निरूपण किया । १ स योगिनो; वियोग वियोगता, योगिता त्रिमा २ स राम । ३ वंदति के । ४ स लक्ष्यः । ५ स "विधा, विवेदि । ६ स परागणे । ७ स निरूपणम् । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८. धर्मनिरूपणद्वाविंशतिः ] 690) अवति निखिललोकं यः पितवाहतास्मा वहति दुरितराशि पावको' वेन्धनोधम् । वितरति शिवसौख्यं हम्ति संसारखg विवषतु शुभमुखधा तं पुषा धर्ममत्र ॥१॥ 691) अनन जलधिमज्जज्जन्तुनियाजमित्र विवधति जिनधर्म ये नरामादरेण । कथमपि नरजम्म प्राप्य पापोप्रशान्ते विमलमणिमनष्यं प्राप्य से बर्जयन्ति ॥२॥ 692) बति निखिललोकः शब्दमात्रेण धर्म विरचयति विद्यारं आतु नो को ऽपि तस्य । ब्रजति विविषभेवं शब्दसाम्ये ऽपि धर्मों जगति हि गुणतोऽयं क्षीरवत्तवतोत्र ॥३॥ यः अत्र पितेव आवृतात्मा निखिललोकम् अवति । पावकः इन्धनोघं वा दुरितराशि दहति । शिवसोस्यं वितरति संसारश हन्ति । बुधाः शुभयुष्या तं धर्म विदधतु ॥ १॥ ये नराः पापोपशान्तेः कथमपि नरजन्म प्राप्य जननजलधिमज्जवन्तुनिजिमित्रं जिनधर्मम् आदरेण न विवति, ते अनर्घ्य विमलमणि प्राप्य वर्जयन्ति ॥ २ ॥ निखिललोक: शब्दमात्रेण धर्म यति । आतु तस्य कोऽपि विचारं नो विरचयति । अन्न जगति अयं धर्मः शन्दसाम्मेऽपि गुणतः तत्वतः क्षीरवत् जो विशुद्ध धर्म यहाँ समस्त प्राणियोंकी पिताके समान रक्षा करता है, जिस प्रकार अग्नि इन्धनके समूहको जला देती है उसी प्रकार जो पापके समूहको जला देता है, जो मोक्ष सुखको देता है, तथा जो संसाररूप शत्रुका घात करता है उस घमंको विद्वान् पुरुष निर्मल बुद्धिसे धारण करें ॥१॥जो मनुष्य जिस किसी प्रकार तीय पापके उपशान्त होनेसे मनुष्य जन्मको पा करके भी संसाररूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियोंका उससे निष्कपट मित्रके समान उद्धार करनेवाले जिनधर्मको आदरपूर्वक नहीं धारण करते हैं वे अमूल्य निर्दोष मणिको पा करके भी छोड़ देते हैं। अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त करके धर्मको नहीं धारण करते हैं वे अनन्त संसारमें परिभ्रमण करते हुए दुःसह दुखको सहते हैं। उन्हें वह मनुष्य पर्याय फिरसे बड़ी कठिनता. से प्राप्त हो सकेगी ॥२॥ संसारमें समस्त जन शब्द मात्रसे धर्मको कहता है, परन्तु कोई उसका विचार कभी भी नहीं करता है । यह धर्म शब्दकी समानता होने पर भी गुणको अपेक्षासे वास्तवमें दूधके समान अनेक भेदको प्राप्त होता है ॥ ३ ॥ विशेषार्थ--जिसप्रकार गाय, भैंस और बकरी आदिका दूध 'दूध' इस नामसे समान हो करके भी सुपाच्यत्व आदि गुणको अपेक्षा अनेक प्रकारका होता है उसी प्रकार वैदिक, बौद्ध एवं जैन आदि धर्म 'धर्म' इस नामसे समान होने पर भी फलदानको अपेक्षा अनेक प्रकारका है-कोई धर्म यदि स्वर्ग-मोक्षका देनेवाला है तो कोई नरकादि दुःखका भी कारण है । इसलिये जिस प्रकार अपनी-अपनी प्रकृति १सपादकेवे। २स विदधति । ३ स जननि । ४ स शाम्ये । ५ स गुणतोयं । ६ स तत्वता । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 695 : २८-६ 1 २८. धर्मनिरूपणद्वाविंशतिः 693) सततविषयसेवाविह्वलोभूतचित्तः शिवसुखफलदात्री' प्राण्यहिंसा विहाय । श्रयति पशुवादि यो नरो धर्ममनः प्रपिति विषमुग्रं सोऽमृतं वे अविहाय ॥४॥ 694) पशुवधपरयोषिन्मग्रमांसादिसेवा' वितरति यदि धर्म सर्वकल्याणमूलम् । निगवत" मतिमम्तो जायते फेन पुंसां विविधजनन सावधभूनिम्दनीया ॥५॥ 695) विचलति गिरिराजो जायते शीतको ऽग्नि स्तरति पयसि कोल: स्याच्छवी तीव्रतेजाः । उपयति विक्षि भानुः पश्चिमापी कराषित न तु भवति कदाचिजीवधातेन धर्मः ॥६॥ विविधमवति ॥ ३ ॥ सततविषयसेवाविह्वलीभूतचितः यः अशः नरः प्राण्यहिसां विहाय पगुफ्षावि धर्म श्रयति सः वं अमृतं विहाय उग्रं विषं प्रपिबति ॥४॥ पशुवषपरयोषिन्मधमांसाविसेवा यदि सर्पकल्पागमूल धर्म वितरति [ तहि ] हे मतिमन्तः पुंसां विविधजननदुःखा निन्दनीया वभ्रमूः केन जायते निगदत ॥ ५ ॥ कदापि गिरिराज विषाति, मग्निः शीतल: जायते, पयसि शैलः तरति, शशी तीव्रतेजाः स्यात्, भानुः पश्चिमायां दिशि उदयति । तु जीवपातेन कदाचित् वर्गः अथवा आवश्यकताके अनुसार कोई मनुष्य गायका और कोई भैंस आदिका दूध लेते हैं उस प्रकार कितने ही विवेकी मुमुक्षु जीव यदि जैन धर्मको धारण करते हैं तो दूसरे कितने ही मनुष्य अज्ञानसासे अन्य धर्मका भी आश्रय लेते हैं। तात्पर्य यह है कि संसारमें धर्म नामते अनेक पंथभेदके प्रचलित रहने पर भी बुद्धिमान मनुष्यको परीक्षा करके उस धर्मको स्वीकार करना चाहिये जो वास्तविक सुखका कारण हो ॥ ३ ॥ जिस मनुष्यका चित्त निरन्तर विषय भोगोंके सेवनसे विफलताको प्राप्त हुआ है, इसीलिये जो मोक्ष सुखकी देनेवाली जीवोंकी अहिंसा ( जीवदया ) को छोड़कर जीवबध आदि रूप कल्पित धर्मका माश्रय लेता है वह अज्ञानी निश्चयसे अमृतको छोड़कर तीव्र विषको पीता है ।। ४ ।। विशेषार्थ-जो प्राणियोंको यथार्थ सुखमें धारण कराता है वह धर्म कहलाता है । ऐसा धर्म जीव दया व सम्यग्दर्शन आदि ही हो सकता है। जो अज्ञानी मनुष्य पशुबधको धर्म समझ उसमें प्रवृत्त होते हैं उस मुर्ख ममुष्पके समान अपना माहित करते हैं जो कि प्राप्त अमृतको छोड़कर अज्ञानतासे विषको पीता है। पशुओंकी हिंसा, परस्त्री विषयक अनुराग एवं मद्य-मांस आदिका सेवन यदि समस्त कल्याणके कारणभूत धर्मको देता है-इम निम्ध क्रियाओंसे यदि धर्म व सुख हो सकता है तो बुद्धिमान मनुष्य यह बतलायें कि जीवोंके लिये अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाली निन्द्य नरक भूमि किस कार्यसे प्राप्त होती है । अभिप्राय यह है कि पशुहिंसनादि कार्य कभी सुखप्रद नहीं हो सकते हैं, अतः उनको धर्म समझना उचित नहीं है ।। ५ ।। कदाचित मेरु पर्वत अपने स्थानसे विचलित हो जाय, अग्नि शीतल हो जाय, पर्वत जलके ऊपर तैरने लग जाय, चन्द्रमा सन्साप जनक हो जाय; और सूर्य कदाचित् पश्चिम दिशामें उदित हो जाय, किन्तु जीवहिंसासे धर्म कभी भी सम्भव नहीं हो सकता है ।। ६ ।। जिसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है वह यदि एक १ स दात्री, दात । २ स °वधादि । ३ स om. वै। ४ स सर्वा । ५ स निगदित । ६ स जनित दुःखाश्वभ्र ७स विचरति । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोह : 696) विगलितधिषणो ऽसावेकदा हन्ति जीवान् यति वितथवाक्यं ब्रव्यमन्यस्य लाति । परयुवतिमुपास्ते" संगमङ्गीकरोति भवति न वृषमात्रो ऽप्यत्र सन्तो वदन्ति ॥ ७ ॥ 697 ) अति कुपितमनस्के को 'निष्पत्तिहेतुं विवति सति शत्रौ विक्रियां चित्ररूपाम् । वदति वचनमुच्चैःश्रवं फर्क शादि agaraat या " क्षमां वर्णयन्ति ॥ ८ ॥ 698) कुलबलजातिज्ञानविज्ञानरूप १९० प्रभूति जमव मुक्तिर्या विनीतस्य साधोः । अनुपम गुणराशेः शील चारित्रभाजः प्रणिगदत १३ विनीता सार्वयत्वं मुनीन्द्राः ॥ ९॥ 699) कपटशतनवीर्ये रिभिर्वञ्जितोऽपि निकृतिकरणart stuत्र संसारभीरः १४ । तनुवचन मनोभिवंत यो न याति गतमलमृजु "मानं तस्य साधोवंदन्ति ॥ १० ॥ [ 696 : २८-७ न भवति ।। ६ ।। विगलितधिषणः असौ एकदा जीवान् हन्ति, वितथवाक्यं वदति, अन्यस्थ द्रव्यं लाति परयुवतिम् उपास्तें, संगम् अङ्गीकरोति । अत्र वृषमात्रोऽपि न भवति [ इति ] सन्तः वदन्ति ॥ ७ ॥ अतिपितमनस् त्र कोपनिष्पत्तिहेतुं चित्ररूपां विक्रियां विदधति सति, उच्चैः दुभवं कर्कशादिवचनं वदति सति या कलुषनिकलता तो क्षमां वर्णयन्ति ॥ ८ ॥ अनुपमगुणराशेः शीलचारित्रभाजः विनीतस्य साधोः या व्रत कुलबलजातिज्ञान विज्ञानरूपप्रभृतिजमदमुक्तिः तां है विनीता मुनीन्द्राः मार्दवत्वं प्रणिगदत्त ।। ९ ।। कपटशतनवीष्णैः वैरिभिः वञ्चितः अपि निकृतिकरणदक्षः अपि अत्र संसारभीहः यः बार जीवोंका घात करता है, असत्य भाषण करता है, अन्यके धनको ग्रहण करता है- चोरी करता है परस्त्रीका सेवन करता है, तथा परिग्रहको स्वीकार करता है तो इसमें उसे लेशमात्र भी धर्म नहीं होता है; ऐसा सज्जन बतलाते हैं || ७ || जिसके मनमें अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ है ऐसे किसी शत्रुके द्वारा क्रोधके उत्पादक अनेक प्रकारके विकार के करनेपर तथा अतिशय श्रवण कटु एवं कठोर आदि वचनके बोलने पर भी कलुषताको प्राप्त न होना, इसे क्षमा कहते हैं || ८ || अनुपम गुणोंके समूहसे सहित तथा शील व चरित्रका आराधक विनयवान् साधु जो व्रत, कुल, बल, जाति, ज्ञान, विज्ञान और रूप आदिका अभिमान नहीं करता है; इसे नम्र गणधरादि मार्दव कहते हैं || ९ || जो संसारसे भयभीत साधु सैकड़ों कपटों रूप नदियों में स्नान करनेवाले - अतिशय मायाचारी - शत्रुओं के द्वारा ठगा जा करके भी तथा स्वयं माया व्यवहारमें कुशल हो करके भी यहाँ शरीर, वचन और मनसे कुटिलताको नहीं प्राप्त होता है; उसके निर्मल मार्जव धर्म होता है, ऐसा गणधर आदि बतलाते हैं ॥ १० ॥ अभिमान, काम, कषाय, प्रेम और सम्पत्ति आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुआ वचन चाहे झूठ हो १ स [8] सौ चैकदा । २ स जीवा । ३ स तवति । ४ स वाच्यं । ५ स मास् । ६ स विषामत्रो। ७स अपि कुपित, अतिकुपितकृत्तस्ते ८ स कोषि को sपि नि° । ९ स शति । १० स शत्रोः शत्रो, शत्रोनिं । ११ स "तां यां, विकलतायां । १२ स पीलि° १३ स गर्दाति । १४ स "भीतः । १५ समृजिमानं मृजु मानं । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९" 103 : २८-१४] २८. धर्मनिरूपणद्वाविंशतिः 700) मदमदनकषायप्रीतिभूत्यादिभूतं वितयमवितयं च प्राणिवर्गोपतापि । श्रवणकटु विमुच्य स्वापरेम्यो हितं यद वचनमवितथं तत्कण्यते तथ्यबोधैः ॥ ११॥ 701) वहति झटिति लोभो लाभतो वर्धमान स्तुणचयमिव वह्नियः सुखं देहभाजाम् । व्रत्तगुणशमशीलध्वंसिनस्तस्य नाश प्रणिपदत" मुमुक्षोः साधवः साधु' शौचम् ॥ १२ ॥ 702) विषयविरतियुक्ति जिताक्षस्य साघो निखिलतनुमतां यद्रक्षणं स्यात् त्रिधापि । तनुभयमनवचं संयम धर्णयन्ते मननरविमरोषध्यस्तमोत्रान्धकाराः॥१३॥ 703) गलितनिखिलसंगो ऽनङ्गसंगे" ऽप्रवीणो" विमलमननपूतं कर्मनि शनाय । चरति चरितमय संयतो यन्मुमुक्षुमयितस्कृतमान्या"स्तत्तपो वर्णयन्ति ॥ १४ ॥ उनुभनवचोभिः वक्रता न याति, तस्य साधोः ऋजुमानं गतमलं वदन्ति ।। १० । मदनमदकषायप्रीतिभूल्यादिभूतं प्राणिवर्गोपतापि, श्रवणकटु, वितथम् अवितथं च वचनं विमुच्य स्वापरेभ्यो हितं यद्वचनं तत् तत्त्वयोधं. अवितयं कथ्यते ।। ११ ॥ वर्धमानः बह्निः तृणधयम् इव लाभतो वर्धमानः यः लोभः देहभाजां सुख झटिति दहति । [ भोः ] साघवः व्रतगुणशमशोलध्वंसिनः तस्य नाशं मुमुक्षो साघु शोचं प्रणिगदत ।। १२ ।। मननरविमरीचिध्वस्तमोहान्धकाराः जिताक्षस्प सापोः या विषयविरतियुक्तिः, निखिलतनुमतां त्रिपा यत् रक्षणमपि तत् उभयम् अनवचं संयम वर्णयन्तं ॥ १३ ।। गलितनिखिलसंगः अनङ्गभङ्मप्रवीणः मुमुक्षुः संयत: कर्मनिनाशनाय विमलमनसि पूतम् अभ्यं यत् परितं परति मथितसुकृतमान्धाः तत् तपः चाहे सत्य भी हो; किन्तु यदि वह प्राणि समूहके लिये संतापजनक एवं कर्ण कटु है तो उसको छोड़कर जो वचन अपने लिये व अन्य प्राणियों के लिये हितकारक है उसको तत्त्वके जानकार सत्य वचन बतलाते हैं ।।११।। जिस प्रकार तृण समूहको पाकर अग्नि वृद्धिंगत होती है, उसी प्रकार जो लोभ इष्ट वस्तुओंके लाभसे वृद्धिगत होकर प्राणियोंके सुखको शीघ्र भस्म कर देता है; हे सज्जनो ! उस व्रत, गुण, सम और शीलके नाशक लोभके अभावको मुमुक्षुका निर्मल शौच कहा जाता है ॥ १२॥ जितेन्द्रिय साधु जो पांचों इन्द्रियों के विषयोंसे विरक्त होता है तथा मन, बचन और कायसे समस्त प्राणियोंकी रक्षा करता है; इसे ज्ञानरूप सूर्यको किरणोंसे मोहरूप अन्धकारको नष्ट कर देनेवाले सर्वज्ञ देव दो प्रकारका ( इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम ) निर्दोष संयम वतलाते हैं ॥ १३ ॥ समस्त परिग्रहसे ममत्वको छोड़कर कामकी वासनाको नष्ट कर देनेवाला जो मुमुक्षु साधु अपने निर्मल मन में पूजाके योग्य पवित्र आचरणको करता है उसे पुण्यविषयक अविवेकको नष्ट कर देनेवाले गणधरादि तप बतलाते हैं। अभिप्राय यह है कि इच्छाओंको रोककर जो अनशन आदि रूप पवित्र अनुष्ठान १ स स्वापदेभ्यो । २ स धौधौ । ३ स यत्सुखं। ४ स नाशः । ५ स"गदति । ६ स ताशीयम् । ७ स यौजिता । ८स भक्षण। ९स मनिय संघमं वर्णयन्ति । १. सकारः । ११स संगा, संग। १२ स प्रवीणों । १३ त मनसिपूर्त 1१४ समागास्ताया, माद्यतत्तपा, मांद्यस्त°, माद्या । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सुभाषितसंवोहः { 704 : २८-१५ 704) जिनगवितमनयध्वंसि शास्त्र विचित्रं परममृतसमं यत् सर्वसत्त्वोपकारि। प्रकटनमिह तस्य प्राणिनां यद् वृषाय तव भिवपति शान्तास्स्यागधर्म यतोन्द्राः ॥ १५ ॥ 705) पविह जहति जोवा जोबजोवोत्यभेवात् विविधमपि मुनीन्द्राः संगमङ्गे ध्यसंगाः । जनन मरणभीता जन्तुरक्षा नदीष्मा गतमलमनसस्तत् स्यात्सवाकिंचनत्वम् ॥ १६ ॥ 706) वरतनुरति मुक्तीक्षमाणस्य नारीः स्वसृवृहितसवित्रीसंनिभाः सर्वदेव । जननमरणभीतः कर्मवत्संवृतस्य गुरुकुलवसतिर्या ब्रह्मचर्य तदाहः ॥ १७ ॥ 707) जननमरणभीतिध्यान विध्वंसपक्ष कषितनिखिलबोषं भूषणं देहभाजाम् । इति दशविषमेनं धर्ममनोविमुक्ता" विवितभुवनतत्वा वर्णयन्ते जिनेन्द्राः ॥१८॥ वर्णयन्ति ॥ १४ ॥ इह अनयम्यसि, विचित्रम्, अमृतसम, सर्वसत्त्वोपकारि, परं, जिनगदितं यत् शास्त्र, तस्य प्राणिनां बषाय यत् प्रकटनं तत् शान्ता यतीन्द्राः त्यागधर्मम् अभिदपति ॥ १५ ।। इह जनममरणभीताः जन्तुरक्षानदीष्णाः मतमलमनसः अगे अपि असंगा: मुनीन्द्राः जीवाजीवजीवोत्यमेवात् त्रिविधम् अपि संग यत् सदा जति तत् अकिञ्चनत्वं स्मात् ॥ १६ ॥ सर्वदेव नारीः स्वसहितसवित्रीसंनिभाः वीक्षमाणस्य वरतनुरतिमुक्तेः जमनमरणमीतः कूममत् संवृतस्य [ मुनेः ] या गुरुकुरुवसतिः तत् ब्रह्मचर्यम् आहुः ॥ १७ ॥ एनोविमुक्ताः विदितभुवनतत्त्वाः जिनेन्द्राः जननमरणभीतिध्यान किया जाता है इसे तप कहते हैं ॥ १४ ॥ जो शास्त्र जिन देवके द्वारा प्ररूपित है, अनर्थका नाशक है, विचित्र है, उत्कृष्ट है तथा अमृत के समान समस्त प्राणियोंका उपकार करनेवाला है उसको यहाँ प्राणियोंको धर्ममें प्रवृत्त करनेके लिये जो प्रगट करना है; इसे शान्त मुनीन्द्र त्याग धर्म कहते हैं ।। १५ । जो मुनीन्द्र जन्म और मरणसे भयभीत जीवदयारूप नदीमें स्नान करनेवाले, निर्मल मनसे सहित सथा अपने शरीरमें भी निर्ममत्व होकर जीव, अजीव और जीवाजीवके भेदसे तीन प्रकारके परिग्रहका निरन्तर स्याग करते हैं उनके आकिंचन्य धर्म होता है। अभिप्राय यह कि परिग्रहका पूर्णतया परित्याग कर देनेका नाम बाचिन्म धर्म है ॥ १६ ॥ जो अपने उत्तम शरीरमें अनुराग नहीं करता है; स्त्रियोंको सदा बहिन, बेटी और माताके समान देखता है; जन्म व मरणसे भयभीत है, तथा फछुएके समान इन्द्रियको आवत रखता है उसका जो गुरुकुलमें निवास करना है; यह ब्रह्मचर्य कहलाता है |॥ १७ ॥ जो धर्म जन्म, मरण, भय और चिन्ताको नष्ट करके समस्त दोषोंका घात करता है वह प्राणियोंके लिये भूषणस्वरूप है । उसको पापसे रहित और समस्त तत्त्वोंके जानकार जिनेन्द्र सकारी। २ स बितरति घुतदोषं प्राणिनां सर्वदा ये निगदति गुणिनस्तं त्यागवंतं भुनींद्रा om. प्रकटन - यतींद्राः। ३ स तमभिदधति । ४ स जीवा जो वो ज्यभे°। ५ स जननजलतरंड दुःखकव [ ] [रदाबंगत° [ तममलमनस । ६ स दीक्षा for रक्षा। ७ स मुफ्ते। ८ स वीक्ष्य', 'मुक्तेवीळमाणस्य । १ स ध्याति । १० कथिस । ११ स विमुक्त-। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 710 : २८-२१ ] २८. धर्मनिरूपणद्वाविंशतिः 700) हरति जननदुःखं मुक्तिसौख्यं विधत्ते रचयति शुभबुद्धि पापबुद्धि धुनोते । अवति सकलजन्तून् कर्मशत्रून्निहन्ति प्रशमयति मनो' यस्तं बुधा धर्ममाहुः ॥ १९ ॥ 709) विषयरतिषिमुक्तिर्यत्र वातानुरक्तिः शमयमदम सक्तिर्मन्मथारातिभक्तिः । जननमरणभीतिद्वेषरागावतिभजत तमिह धर्म कर्मनिमूलनाय ॥२०॥ 710) गुणितनुमति सुष्टि मित्रता शत्रुवर्गे गुरुचरणयिनीति तस्वमार्गप्रणोतिम् । जिनपति पदभक्ति 'बूषणानां तु मुक्ति विदति सति अन्तो धर्ममुत्कृष्टमाहुः ॥२१॥ विध्वंसदक्षं कषितनिखिलदोषम् इति दशविधम् एनं धर्म बेहभाजां भूषणं बर्णयन्त ॥ १८ ॥ यः जननदुःख हरति, मुक्तिसौख्यं विधत्ते, शुभद्धि रचयति, पापबुद्धि घुनीते, सकलजन्तून् भवति, कर्मशवून निहन्ति, मनः प्रशमयति, तं बुधाः धर्मम् आतुः ।। १९ ॥ यत्र विषयरतिविमुक्तिः, दानानुरक्तिः, शमयमदमसक्तिः, मन्मधारातिभक्तिः , जननमरणभीतिः, देषरागावधूतिः, तं धर्मम् इह कर्मनिर्मूलनास भगत ॥ २० ॥ जन्तो गुणितनुमति तुष्टि, शत्रुवर्ग मित्रता, गुरुवरणविनोति, तस्वमार्गप्रणीति, जिनपतिपदभक्ति तु दूषणानां मुक्ति विदधति सति जन्ती धर्मम् उत्कृष्टम् आहुः ॥ २१ ॥ य: शिवपव देव उपर्युक्त प्रकारसे दस प्रकारका बतलाते हैं ॥ १८ ॥ जो जन्म-मरणरूप संसारके दुखको नष्ट करता है, मुक्तिके सुखको करता है, उत्तम बुद्धिको उत्पन्न करता है, पाप बुद्धिको नष्ट करता है, समस्त प्राणियोंको रक्षा करता है, कर्मरूप शत्रुओंको नष्ट करता है, तथा मनको शान्त करता है। उसे पण्डित जन धर्म कहते है ॥ १९ ॥ जिस धर्मके होनेपर यहां विषयोंसे विरक्ति होती है, दानमें अनुराग होता है; शम, यम और दममें आसक्ति होती है; कामरूप शशुका नाश होता है. जन्म और मरणसे भय उत्पन्न होता है, तथा राग और द्वेषका विनाश होता है; उस धर्मका कर्मनाशके लिये आराधन करें ॥२०॥ जो प्राणो गुणी जनको देखकर सन्तुष्ट होता है. शत्रु समूहमें मित्रताका भाव रखता है, गुरुके चरणोंमें नत होता है अथवा गुरु और चारित्रकी विनय करता है, तत्त्वमार्गका प्रणयन करता है-वस्तुस्वरूपका यथार्थ उपदेश करता है, जिनेन्द्रके चरणोंकी भक्ति करता है तथा दोषोंको नष्ट करता है; उसके उत्कृष्ट धर्म होता है, ऐसा गणधरादि बतलाते हैं॥ २१ ॥ जो मनुष्य मनमें मोक्ष सुखके कारणभूत तथा दोघं संसाररूप समुद्रसे पार होनेके लिये पुलस्वरूप सम्यग्ज्ञान, १ स मनार्यस्तं । २ स शक्ति', भक्तिः । ३ स भजति । ४ स गुणिनुत्ति वृष्टि । ५ स विनीतं । ६ स जिनपदपदभुक्ति । ७ स भूषणामंत्र मु । सु. सं. २५ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ सुभाषितसंदोहः {711 : २८-२२ ! 711) मनति मनसि यः सज्जानचारित्रदृष्टीः शिवपवसुखहेतून दोघंसंसारसेतून् । परिहरति च मिभ्याज्ञानचारित्रदृष्टीभवति विगतदोषस्तस्य मस्यस्य धर्मः ॥ २२ ॥ इति धर्मनिरूपण द्वाविंशतिः ॥ २८॥ सुखहेतून् दीर्घसंसारसेतून् सशानचारित्रदृष्टीः मनसि मनति, मिथ्याशानधारिषदृष्टीः च परिहरति, सः तस्य मर्यस्य विगत. दोषः धर्मः भवति ॥ २२॥ इति धर्मनिरूपणवाविंशतिः ॥२८॥ सम्पचारित्र और सम्यग्दर्शनका मनन करता है उन्हें धारण करता है तथा मिय्यादर्शन; मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको दूर करता है उसके निर्मल धर्म होता है ।। २२ ।। इसप्रकार बाईस श्लोकोंमें धर्मका निरूपण किया। १ स दृष्टी । २ स वृष्टी । ३ स निरूपणम् । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९. शोकनिरूपणाष्टविंशतिः ] 712) पुरुषस्य विनश्यति पेन सुखं वपुरेति कृशस्वमुपैश्यबलम् । मृतिमिच्छति मूति शोकवस्स्यजतैतमतस्त्रिविधेन बुधाः ॥ १॥ 713) वितनोति वचः करणं विमना विनोति करो चरणौ च भृशम् । रमते न गृहे न धने न जने पुश्यः कुरते न किमत्र शुधा ॥२॥ 714) उवितः समयः श्रयते ऽस्तमयं कृतकं सकलं लभते विलयम् । सकलानि फलानि पतन्ति तरोः सकला जलधि समुपैति नदी ॥३॥ 175) सकलं सरसं शुषिमेति यथा सकल: पुरषो मृतिमेति तथा। मनसेति विचिन्त्य सुषो न शुचं विदधाति मनागपि तत्त्वरचिः ॥ ४ ॥ 716) स्वजनो ऽन्यजनः कुरुती म सुखं न धनं न वृषो विषयो' न भवेत् । विभतेः स्वहितस्य शुचा भविनः स्तुतिमस्य न कोऽपि करोति बुधः ॥५॥ येन पुरुषस्य सुखं विनश्यति, वपुः कृशत्वम् एति, अबलम् उपैति । शोकवशः मृतिम् इच्छति, मछति । अतः हे बुधाः एतं त्रिविधैन त्यजत ॥ १ ॥ विमनाः पुरुषः करुणं वचः वितनोति । करो चरणी च भृशं विधुनोति । गृहे न रमते, वनेन (रमते), जने च न (रमते)। अत्र पुरुषः शुचा कि न कुरुते ॥ २ ॥ उदितः समयः अस्तमयं श्यते। तरोः सकलानि फलानि पतन्ति । सकला नदी जलाध समुपैति । सकलं कृतकं विलयं लभते ॥ ३ ।। यथा सकलं सरसं शुपिमेति, तथा सकलः पुरुषः मतिमेति । इति मनसा विचिन्त्य तत्त्वचिः बुधः मनाक् अपि शुच न विदधाति ।। ४ ।। शुवा स्वहितस्प विमतेः भविनः स्वजनः अन्यजनः सुखं न कुरुते । न धनं (सुखं कुरुते) । अस्य वृषः न, विषयः [च ] न मवेत् । कोऽपि चूंकि शोकके वशमें होनेसे पुरुषका सुख नष्ट हो जाता है, शरीर निर्बलताको प्राप्त होकर कृश होने लगता है, वह मरनेकी इच्छा करता है, तथा मूछित हो जाता है, इसीलिये पण्डित जन उस शोकका मन, वचन और कायसे परित्याग करें ॥१॥ पुरुष यहाँ शोकसे क्या नहीं करता है ? सब कुछ करता है-यह विमनस्क होकर करुणापूर्ण वचन बोलता है, हाथ-पैरोंको अतिशय कम्पित करता है-उन्हें इधर-उधर पटकता है। तथा उक्त शोकके कारण उसे न धरमें अच्छा लगता है, न वनमें अच्छा लगता है, और न मनुष्योंके बोचमें भी अच्छा लगता है ।। २ ।। उदयको प्राप्त हुआ समय (दिवस) नाशको प्राप्त होता है, उत्पन्न हुए सब फल वृक्षसे नीचे गिरते हैं, तथा समस्त नदियां समुद्र में विलीन होती हैं। ठीक है-कृत्रिम सब ही पदार्थ नाशको प्राप्त होते हैं । ऐसी अवस्थामें उनके नष्ट होनेपर बुद्धिमान् मनुष्यको शोक करना उचित नहीं है, यह उसका अभिप्राय है ।। ३ ।। जिस प्रकार सब आई पदार्य शुष्कताको प्राप्त होते हैं-सूख जाया करते हैं-उसी प्रकार पुरुष मृत्युको प्राप्त होता है, इस प्रकार मनसे विचार करके तत्त्वश्रद्धानी विद्वान् मनुष्य जरा भी शोक नहीं करता है ॥ ४ ॥ जो दुर्बुद्धि मनुष्य शोकसे अभिभूत होता है उसे कुटुम्बी और अन्य जन सुखी नहीं कर सकते हैं, धनसे भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता, वह न तो धर्ममें अनुराग करता है और न विषयमें भी अनुराग करता है, तथा उसकी कोई भी बुद्धिमान मनुष्य प्रशंसा नहीं करता है ।। ५ ॥ लोकमें जो बुद्धिहीन मनुष्य किसो १स पतिं बलं । २ स "मृष्ठति । ३ स गृहं । ४ स कृतकः सकलो । ५ स सुखमेति । ६ स वृपं विषयं । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोहः 717) स्वकरापितवाम'कपोलतलो विगते च मृते च तनोति शुचम् । भुवि यः सबने दहनेन हते खनतोह स कूपमपास्तमतिः ॥६॥ 718) यवि रक्षणमन्यजनस्य भवेद् यवि को मिकरोति बुधः स्तवनम् । यदि किचन सौख्यमय स्वतनोर्यवि कश्चन' तस्य गुणो भवति ॥७॥ 719) यवि वागमनं कुरुते ऽत्र मृतः सगुणं भुवि 'शोचनमस्य तदा । विगुणं विमना बहु शोधति यो विगु स वा लमते मनुजः ॥८॥ 720) पथि पान्थगणस्य यया बातो भवति स्थितिरस्थितिरेव तरो। जननायनि जीवगणस्य तथा जननं मरणं च सदैव कुले ॥ ९॥ 721) बहुवेशसमागतपान्धगणः ० "प्लवमेकमिवैति नबोतरणे। बहुवेशसमागतजन्तुगणः कुलमेति पुनः स्वकृतन भवे ।।१०।। 722) हरिणस्य यथा भ्रमतो गहने शरणं न हरेः पतितस्य मुखे। समसिमुखे पतिसस्य तमा शरणं बत कोऽपि न बेहवतः ॥११॥ बुधः स्तुति न करोति ।। ५ ॥ इह भुवि अपास्तमतिः स्वकरापितवाममपोलतलः यः विगते व मृते च शुवं तनोति सः सदने दहनन हृते कूपं खनति ॥ ६॥ यदि अन्यजनस्य रक्षणं भवेत्, मदि कोपि बुधः स्तवने करोति, पदि स्वतनोः किचन सौक्यं भवेत् ], अप यदि तस्य कश्चन गुणो भवति, यदि वा मृतः अत्र आगमनं कुरुते, तदा अस्य शोचनं भुवि सगुणम् । यः विमना: मनुजः विगुणंबर शोचति सः विगुणां दशा लभते ।। ७-८ ॥ यथा पषि व्रजतः पान्यगणस्य तरौ स्थितिः अस्थितिः एव भवति । तया जननाश्वनि जीवगणस्य कुले जननं मरणं च सदैव ॥ ९ ॥ बहुदेशसमागतवान्यगणः नदोतरणे एक प्लवम् एव भवे बहुदेशसमागतजन्तुगणः पुनः स्वकृतेन कुलम् एति ॥ १० ॥ यथा गहने भ्रमतः हरेः मुखे पतिवस्य हरिणस्य शरणं न तपा समवतिमुखे पतितस्य देहवतः कोऽपि शरणं न बत ॥ ११ ॥ वनमध्यगताग्निसमः अकक्षणः समवति इष्टका वियोग अथवा मरण हो जानेपर अपने हाथके ऊपर कपोलको रखकर शोक करता है वह उस मूखं मनुष्यके समान है जो कि अग्निके द्वारा घरके भस्म कर देनेपर उसके बुझानेके लिये यहाँ कुएंको खोदता है ॥ ६ ॥ शोक करनेसे यदि अन्य जनको रक्षा होती है, विद्वान् मनुष्य उसकी प्रशंसा करता है, अपने शरीरको कुछ सुख प्राप्त होता है, उसको कुछ लाभ होता है, अथवा यदि मृत मनुष्यका फिरसे यहाँ आगमन होता है तो फिर लोकमें इसका शोक करना सफल हो सकता है। परन्तु वैसा होता नहीं है। अतएव जो मनुष्य विमनस्क होकर व्यर्थमें बहुत शोक करता है वह गुणहीन अवस्थाको प्राप्त होता है ॥७-८! जिसप्रकार मार्गमें गमन करता हुआ पथिक समूह किसी वृक्षके नीचे स्थित होता है और फिर वहाँसे गमन करता है उसी प्रकार संसारमार्गमें परिभ्रमण करनेवाले प्राणिसमूहका कुटुम्बमें सदा ही जन्म और मरण हुआ करता है ॥९॥ जिस प्रकार अनेक देशोंसे आये हुए पथिकोंका समूह किसी नदीको पार करने के लिये एक नौकाका आश्रय लेता है उसी प्रकार अनेक देशोंसे आये हुए प्राणियोंका समूह अपने पुण्य-पापके अनुसार एक कुलका आश्रय लेता है ॥ १० ॥ जिस प्रकार वनमें घूमते हुए हिरणके सिंहके मुखमें पड़ जानेपर कोई उसको रक्षा नहीं कर सकता है खेद है कि उसी प्रकार यमराजके मुखमें गये हुए प्राणोकी भी कोई रक्षा नहीं कर सकता है ।। ११ ।। १स वास for वाम । २ स बुधस्त। ३ स कश्चिन् । ४ स च for । ५ स स्वगुणं । ६ स तु विशोचन ।। ७ स शोधति यः । ८ स विगुणा रा दशा, सदशा, दृशा। ९ स स्थिरतेव । १० स गणा। ११ स लवमेकमिवत्य । १२ स 'तरणेः । १३ स सुक्रतेन, शुकृतेन । . . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ 728 : २९-१७ ] २९. शोकनिरूपणाष्टविंशतिः 723) सगुणं विगुणं सघनं विधनं सवृषं विषं तरुणं ध शिशुम् । वनमध्यगताग्निसमो करुणः समवतिनृपो न परिस्यजति ॥ १२ ॥ 724) भुवि यान्ति हयद्विपमय॑जना गगने शकुनिग्रहशीतकराः। जलजन्तुगणाश्च जले बलवान् समवतिषिभुनिखिले भुवने ॥ १३ ॥ 725) विषयः स समस्ति न यत्र रवि शशी' न शिखो पवनोन तणा । मस को ऽपि न पत्र कृतान्तनृपः सकलाङ्गिविनाशकरः प्रबलः १४ ॥ 726) इति तत्त्वधियः परिचिन्त्य बुषाः सकलस्य जनस्य विनश्वरताम् । न मनागपि चेतसि संवरसे शुचमङ्ग यश-सुखनाशकराम् ॥ १५॥ 727) घनपुत्रकलत्रवियोगकरो घनपुत्रकसनषियोगमिह। लभते मनसेति विचिन्त्य घुषः परिमुअतु शोकमनथंकरम् ॥ १६ ॥ 728) यदि पुण्यशरीरसुखे लभते यदि शोककृती पुनरेति मृतः । यवि वास्य' मृतौ स्वमृतिनं भवेत् पुरुषस्य शुचात्र तवा सफला ॥१७॥ नपः सगुणं विगुणं सधनम् विधनं सवृषं विष तरुणं च शिशु न परित्यजति ।। १२॥ हयद्विपमयंजनाः मुवि यान्ति । शकुनिग्रहणीतकराः गगने (यान्ति) । च जलजन्तुगणाः जले यान्ति । समवतिविभुः निखिले भुवने बलवान् ॥ १३ ॥ यत्र रविः न, शशी न, शिखी न, तथा पवन: न, स विषयः समस्ति । यत्र सकलाङ्गिविनाशकरः प्रबलः कृतान्तनुपः न स कोऽपि (विषयः) न ।। १४ ।। तत्त्वधियः बुधाः इति सकसस्य जनस्य विनश्वरता परिचिन्त्य चेतसि अङ्गयशःसुखनाशकरां शुचं मनाक् अपि न संदघते ॥ १५ ॥ घनपुत्रकलावियोगकरः इह धनपुत्रकलवियोग लभते । इति मनसा विचिन्त्य वृषः अनर्थकरं शोकं परिमुवतु ॥ १६ ।। यदि शोककृतौ पुण्यशरीरसुख लभते, यदि मृतः पुनः एति, यदि वा अस्य मृतो स्वमतिः वनके मध्यमें लगी हुई अग्निके समान निर्दय यगकाल रूप राजा गुणवान् और निर्गुण; धनवान और निधन, धर्मात्मा और पापी, तथा तरुण और बालक किसीको भी नहीं छोड़ता है-सबको ही वह नष्ट कर डालता है ॥ १२ ॥ घोड़ा, हाथी और मनुष्य प्राणी पृथ्वीके ऊपर गमन करते हैं; पक्षी, ग्रह शनि आदि) चन्द्र आकाशमें गमन करते हैं; और मगर-मत्स्य आदि जलजन्तुओंके समूह जलके भीतर गमन करते हैं; परन्तु बलवान यमराज समस्त हो लोकमें गमन करता है-उसके पहुंचनेमें कहीं भी रुकावट नहीं है ॥ १३ ॥ वह देश यहाँ विद्यमान है जहाँपर कि न सूर्य है, न चन्द्र है, न ग्नि है और न वायु है। परन्तु वह कोई प्रदेश नहीं है जहाँपर कि समस्त प्राणियोंको नष्ट करनेवाला प्रबल यमराज रूप राजा न हो वह सर्वत्र विद्यमान है ।। १४ ॥ इस प्रकार वस्तुस्वरूपके जानकार विद्वान पुरुष समस्त प्राणियोंकी नश्वरताका विचार करके शरीर, यश और सुखको नष्ट करनेवाले उस शोकको जरा भी मनमें नहीं धारण करते हैं ॥ १५॥ दूसरोंके धन, पुत्र और स्त्रोके वियोगको करनेवाला प्राणी यहाँ अपने धन, पुत्र और स्त्रीके वियोगको प्राप्त होता है। ऐसा मनसे विचार करके विद्वान् पुरुष अनर्थके करनेवाले उस शोकका परित्याग करे ।। १६॥ यदि शोकके करनेपर मनुष्य पुण्य और शरीरसुखको प्राप्त करता है, मरा हुआ प्राणी जीवित होकर फिरसे बा जाता है, अथवा यदि इसके मरनेपर अपना मरण नहीं होता है; तो यहाँ पुरुषका शोक करना सफल हो सकता है। परन्तु वैसा होता नहीं है, अतएव उसके लिये शोक करना व्यर्थ है ॥ १७ ।। जो विचार शून्य मनुष्य किसी इष्टका वियोग १ स शशी रघो रचनं न तथा । २ स पचनं । ३ स °मङ्गय । ४ स 'करम् । ५ स °सुखं । ६ स चास्य । ७ स स्वभूतिर्भविता ! ८ स सफलं। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ माल सुभाषितसंबोहः [ 729 : २९-१८ 729) अनुशोचनमस्तविचारमना विगतस्य मृतस्प च यः कुरुते। स गते सलिले तनुतं वरणं भुजगस्य गतस्य गति' भिपति ॥१८॥ 730) सुरवस्म समुधिहतं कुरते सिकतोस्करपीडनमातनुते । श्रममात्मगतं न विचिन्त्य नरो भुवि शोचति यो मृतमस्तमतिः ॥ १९ ॥ 731) त्यजति स्वयमेव शुचं प्रवरः सुवचःश्रवणेन च मध्यमनाः । निखिलाङ्ग विनाशकशोकहतो मरणं समुपैति जघन्यजनः ॥२०॥ 732) स्वयमेव विनश्यति शोककसिर्जनस्थितिमविदो गुणिनः । नयनोस्थ जलेन च मध्यषियो मरणेन जघन्यमतेभविमः ॥२१॥ 733) विनिहन्ति शिरो वपुरातमना बहु रोदिति दीनवचः कुशलः । कुरुते मरणार्थमनेकविधि पुरशोकसमाकुलधीरवरः ॥ २२॥ 734) बहुरोक्नताम्रतराक्षियुगः परिक्षशिरोरुहभीमतनुः। कुरुते सकलस्य जनस्प शुचा पुरषो भयमत्र पिशाचसमः ।। २३ ॥ न भवेत्, तदा अत्र पुरुषस्य शुचा सफला ।।१७।। अस्तविचारमनाः यः विगतस्य मृतस्य च अनुशोचनं कुरुते, सः सलिले गते वरणं तनुते, गतम्य भुजगस्प गति तिपति ॥ १८ ॥ भुवि अस्तमतिः यः नरः आत्मगतं श्रमं न विचिन्त्य शोचति, उ सुरवत्म मुष्टिहतं कुरुते, सिकतोत्करपीडनम् आतनुते ॥ १९ ॥ प्रपरः स्वयमेव शुच त्यजति । मञ्यमनाः च सुवचःश्रवणेन । निखिलाङ्गविनाशकयोकहतः जषम्पजनः मरणं समुपैति ॥ २० ॥ जननस्थितिभट्विदः गुणिनः शोककलि: स्वयमेव विनश्यति । मध्यषियः नयनोरथजलेन । जघन्यमतेः भविनः व मरणेन ।। २१॥ पुरुशोकसमाकुलषीः अवरः आर्तमनाः शिरः वपुः [ च ] विनिहन्ति, दोनवचः कुशलः बहु रोदिति, मरणार्थम् अनेकविधि कुरुते ॥ २२॥ शुचा बहुरोदनताम्रतरासिमुगः परिक्षशिरोरुहभीमतनुः पिशाचसमः पुरुषः अत्र सकलस्य जनस्य भयं कुरुते ॥ २३ ॥ गुरुशोकपिशाचवशः मनुवः अथवा मरण होनेपर शोक करता है वह उस मूर्खके समान है जो कि पानीके निकल जानेपर पुलको बांधत्ता है अथवा सर्पके चले जानेपर उसकी गतिको (लकीरको) पीटता है ॥ १८५] लोकमें जो दुर्बुद्धि मनुष्य मरणको प्राप्त हुए प्राणीके लिये शोक करता है वह अपने परिश्रमका विचार न करके मानो आकाशको मुठ्ठियोसे आहत करता है अथवा [ तेलके निमित्त ] बालुके समूहको पीड़ित करता है ॥ १९ !! उत्तम मनुष्य शोकका परित्याग स्वयं ही करता है, मध्यम मनुष्य दूसरेके उपदेशसे शोकको छोड़ता है, परन्तु हीन मनुष्य समस्त शरीरको नष्ट (पीड़ित) करनेवाले उस शोकसे आहत होकर मरणको प्राप्त होता है ॥ २०॥ जो गुणवान् उत्तम मनुष्य उत्पत्ति, स्थिति और व्ययको जानता है उसका शोकरूप सुभट स्वयं ही नष्ट हो जाता है, मध्यम बुद्धि मनुष्यका वह शोक नेत्रोंसे उत्पन्न जलसे-कुछ रुदन करनेके पश्चात् नष्ट होता है, तथा हीन बुद्धि मनुष्यका शोक मरणसे नष्ट होता है-वह शोकसे पीड़ित होकर मरणको ही प्राप्त हो जाता है ॥ २१ ॥ होन मनुष्य महान शोकसे व्याकुल होकर मनमें खेदको प्राप्त होता हुआ शिरको आहत करता है. दोन वचनमें कुशल होकरकरुणाजनक विलाप करके बहुत रोता है, तथा मरनेके लिये अनेक प्रकारका प्रयल करता है ॥ २२ ॥ जिस मनुष्यके दोनों नेत्र शोकके कारण बहुत रोनेसे अतिशय लाल हो रहे हैं तथा बाल रूखे व शरीर भयानक है वह यहाँ पिशाचके समान दिखता हुआ सब प्राणियोंके लिये भयको उत्पन्न करता है ॥ २३ ॥ मनुष्य महान १ स गतिः, गतिर, मही । २ स सुमुष्टि । ३ त प्रचुरः । ४ स "लाड्वि । ५ स 'नोत्य, सुजनोथ, जननोथ, वलेन tor जलेन । ६ स 'वचा, बनाः, 'यो । ७ स पुर। ८ स पोररवः, oru. १/४ चरण । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 739 : २९-२७ ] २९. शोकनिरूपणाष्टविंशतिः 735) परिधावति रोविति' पूत्कुरुते पतति स्खलति त्यजते वसनम् । व्ययते इलथते लभते न सुखं गुरुशोकपिशाचवशो मनुजः ॥ २४ ॥ 736) क्व जयः क्य तपः क्व सुखं क्व शमः क्व यमः क्व वमः क्व समाविविधिः । व धनं क्व बलं व गृहं क्व गुणो बत शोकवशस्य नरस्य भवेत् ॥ २५ ॥ 737) त तिनं मतिन गतिनं रतिनं यतिम नतिर्न नुतिनं रुचिः। पुषस्य मतस्य हि शोकवशं व्यपयाति सुखं सकलं सहसा ॥ २६ ॥ 738) बवासि मो ज्यत्र भवे शरीरिणामनेकपा दुःखमसामायतम् । इहैव कृत्वा बहुवुःख पद्धति स सेव्यते शोफरिपुः कथं सुधैः ॥ २७ ॥ 739) पूर्वोपाजितपापपाकवशतः शोकः समुत्पद्यते धर्मात्सर्वसुखाकराजिममसान्नश्परययं सत्त्वतः । परिधावति, रोदिति, पूस्कुरते, पतति, स्खलति, वसनं त्यजते, व्यथते, श्लयते, सुखं न लभते ॥ २४ ॥ शोकवंशस्य मरस्य जयः क्य, तपः क्व, सुखं क्व, शमः क्व, यमः क्व, दमः क्व, समाधिविधिः क्य, धनं क्य, वलं क्व, गृहं क्य, मुणः क्व भवेत् बत ।। २५ ॥ शोकवां गतस्य पुषस्य धूप्तिः न, मतिः न, गतिः न, रतिः न, पतिः न, नतिः न, नुतिः न, कधिः न । हि [ तस्य ] सकलं सुखं सहसा ध्यपयाति ॥ २६ ।। इहैव बहुदुःखपति कृत्वा यः अन्यत्र भवे शरीरिणाम् असह्यम् आयतम् अनेकया दुःखं ववाति सः शोकरिपुः कथं सेभ्यते ॥ २७ ॥ शोक: पूर्वोपार्जिसपापपाक्वशतः समुत्पद्यते । अयं तत्त्वतः सर्वसुखाकरात् जिनमतात् धर्मात् नश्यति । इति विज्ञाय संसारस्थितिवेदिभिः बुधजनैः भवोरिहः समस्तदुःससक शोकरूप पिशाचके अधीन होकर दौड़ता है, रोता है, चिल्लाता है-आक्रन्दन करता है, पड़ता है, इधरउधर गिरता है, वस्त्रको छोड़ देता है, पीडाको प्राप्त होता है और शिथिल पड़ जाता है। इस प्रकारसे उसे जरा भी सुख प्राप्त नहीं होता-वह अतिशय दुखी होता है ।। २४ ॥ शोकके वशीभूत हुए मनुष्यके जय कहाँ, तप कहाँ, सुम्स कहा, शान्ति कहाँ, संयम कहाँ, दम कहाँ, ध्यान कहाँ, धन कहाँ, बल कहाँ, गृह कहाँ, और गुण कहाँ हो सकता है ? अर्थात् शोकसे व्याकुल हुए मनुष्यको जय [ जप ], तप व सुख-शान्ति आदि कभी नहीं प्राप्त होती, यह खेदकी बात है ॥ २५ ॥ जो पुरुष शोकके वशीभूत हुआ है उसको न धैर्य रहसा है, न बुद्धि रहती है, न गसि रहती है, न प्रेम रहता है, न विश्रान्ति रहती है, न नम्रता रहती है, न स्तुति रहती है और न रुचि रहती है । उसका सब कुछ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ॥ २६ ॥ जो शोकल्प शत्रु इस लोकमें ही प्राणियोंको बहुत दुःखोंकी परिपाटीको करके परभवमें भी अनेक प्रकारके असह्य दीर्घ दुखको देता है उसकी आराधना विद्वान् मनुष्य कैसे करते हैं ? अर्थात् विद्वान् मनुष्योंको इस लोक और परलोकमें भी दुख देनेवाले उस शोकके वशमें होना उचित नहीं है ॥ २७ || शोक पूर्वोपार्जित पाप कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है और यह वास्तवमें जिन देवको अभिमत व समस्त सुखोंको खानिस्वरूप धर्मसे नष्ट होता है, ऐसा जान करके संसार स्वरूपके ज्ञाता विद्वान् मनुष्य समस्त दुखों रूप बहुत-सी जड़ोंसे सहित व संसाररूप पृथिवीके ऊपर १स रोदति । २ स त्यजति । ३ स . लभते। ४ स जपः । ५ स on.. नरस्य । ६ स on. न गसिर । ७ स Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० [ 739 : २९-२८ सुभाषितसंवोहः विज्ञायेति समस्तदुःखसकलामूलो भवोर्वोरुहः संसारस्थितिवेविभिर्बुधजनैः शोकस्त्रिधा त्यज्यते ॥ २८॥ इतिशोकनिरूपणाविंशतिः ॥ २९॥ लामूलः शोकः त्रिधा त्यज्यते ॥ २८ ।। ___ इति शोकनिरूपणाष्टाविंशतिः ॥ २९॥ उत्पन्न होनेवाले उस शोकरूप वृक्षका मन, वचन व कायसे परित्याग करते हैं ।। २८ ।। इसप्रकार अट्ठाईस श्लोकोंमें शोकका निरूपण हुआ । १स निरूपणम् । १ निरूपणम् । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३०. शौचनिरूपणंद्वाविंशतिः] 740) संसारसागरमपारमतीस्थ पूर्त मोझ यदि 'द्रजितुमिच्छत मुलवायम् । समानवारिणि विधुतम मनुष्याः स्नानं कुरुध्यमपहाय हाभिषेकम् ॥१॥ 741) तो शुष्यति अले: शततोऽपि भीती नान्सर्गी विविषपापमलावक्षिप्तम् । विसं विचिन्त्य मनसेति विशुखबोषाः सम्यक्त्वपूतसलिलेः कुक्ताभिषेकम् ॥२॥ 742) तीर्थाभिषेककरणाभिरतस्य बायो नश्यत्ययं सकलनेहमको मरस्य । नाम्सर्गतं कलिकमित्यवधार्य सो प्रसप्रचारित्रवारिणि निमम्मति 'सुबिहेतोः ॥३॥ [ भो ] मनुष्याः अपारं संसारसागरम् अतीत्य यदि पूतं मुक्तमा मोक्षं वजितुमिच्छत तत् जलाभिषेक अपहाय विधूतमले जानवारिणि स्नानं कुरुष्वम् ।। १ ।। अन्तर्गत विविधपापमलावलिप्तं चित्तं तीषु जलैः शतधः श्रोत शुष्यति इति मनसा विचिन्त्य [ हे ] विशुद्धबोषाः सम्यक्त्वपूतसलिले. अभिषेकं कुरुत ॥२॥ तीर्थाभिक र नरस्य अयं बाह्यः सकलहमल: नश्यति । भम्तर्गतं कलिलं न, इति अवार्य सः शुद्धिहेतोः बावचारित्रवारिणि निमजति ॥ ३ ॥ यत् जिनवाक्यसीप मानवर्शनचरितमलायमुक्त सजानदर्शनचरित्रवलं क्षमोमि सबमल अस्ति हे मनुष्यों ! यदि तुम लोग अपार संसारस्प समुद्रको लांघकर निर्वाध व पवित्र मोक्ष जानको उच्छा करने हो तो जलसे अभिषेकको छोड़कर निमल झानरूप अलमें स्नान करो । अभिप्राय यह है कि जम स्नान करने से केवल शरीरको शुद्धि ( बाह्म शौच ) होती है, न अन्तःकरणकी। अन्तःकरणको शुद्धि सो समयाजानके द्वारा होती है। अतएव जो मोक्ष प्राप्तिके निमित्त जस अन्तःकरणको शुद्ध करना चाही। उन्हें उस सम्यग्ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये ॥१॥ अनेक प्रकारके पापरूप मैलसे लिप्त रहने वानसर्गस नित ( मन्तःकरण ) गंगा आदि तीर्थोंमें जलसे सैकड़ों बार धोये जाने पर भी शुद्ध नहीं हो सका। इस प्रकार मनसे विचार करके निर्मल सम्यामानके धारक आप लोग सम्यग्दर्शनरूप पवित्र जलसे भक्ति करें ॥२॥ जो मनुष्य तीर्थमें स्नान करनेमें लवलीन है उसका यह शरीरका समस्त बाहिरो, मल तो हो जाता है, परन्तु भीतरी पाएमल नष्ट नहीं होता है; ऐसा निश्चय करके बहू, अन्त शुद्धिके नि मन चारित्ररूप जलमें गोता लगाता है-निर्मल सम्यक्चारित्रको धारण करता है ॥ ३ ॥ जो जिनवचनका तर्ष सम्यग्ज्ञान, १ स वजा प्रतत् । २ स "वाघां, वाषां! ३ स चारिणि । म अाम'। ५ स Eिस वायो। स शुद्ध । सु.सं. २६ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 743 : ३०-४ . २०२ सुभाषितसंदोहः 743) समानदर्शन चरित्र'जलं क्षमोमि कुजानवर्शनचरित्रमलावमुक्तम् । यत्सकममलमुजि नवाक्यतीयं स्मानं विववमिह नास्ति जलेन शुद्धिः॥४॥.... 744) तीर्थेषु वेत्क्षयमुपैति समस्तपापं स्नानेन तिष्ठति कर्थ पुषस्व पुण्यम् । नेफस्य पन्धमल्यो तयोः शरीरे। दृष्टा" स्थितिः ससिलशुद्धिविषो समाने ॥५॥ 745) तीर्थाभिषेकशतः सुगति जगत्या पुग्यविनापि यदि यान्ति नरास्तदेते। नानाविषोकसमुदभवजन्तुवर्गा' 'बालत्वचाश्मरणान्न कथं प्रजन्ति ॥६॥ इह स्नान विवध्वम् । जलेन शुचिः न अस्ति ॥ ४॥ तीर्येषु स्नानेन समस्तपापं भयम् उपैति चेत् पुरुषस्य पुण्यं कवं तिष्ठति । सलिलादिविषो समाने, पारीरे धृतयोः गन्धमलयोः एकस्य स्थितिः न दृष्टा ॥ ५ ॥ जगत्यां नराः यदि पुयः विना अपि तीर्थाभिषेकवशतः सुगति यान्ति, तत् एते नानाविषोदकसमृद्भवजन्तुवर्गाः बासत्वचारुमरणात् (सुगति) कपं न सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र रूप जलसे परिपूर्ण, क्षमारूप लहरोंसे सहित; मिथ्याशान, मिथ्यादर्शन और मिप्याचारित्र रूप मलसे रहित सया समस्त कर्ममलसे मुक्त है उसमें स्नान करो। कारण कि जलके द्वारा अन्तरंग शुद्धि नहीं हो सकती है ॥ ४॥ यदि तीर्थोंमें स्नान करनेसे पुरुषका समस्त पाप नष्ट हो जाता है तो फिर पुण्य केसे शेष रह सकता है ? उसे भी नष्ट हो जाना चाहिये। कारण यह कि जलसे शुद्धिके विधानके समान होने पर शरीरमें धारण किये गये गन्ध द्रव्य और मल इन दोनोंमें से एक कोई शेष रहा नहीं देखा गया है॥५॥ विशेषार्थ-जो लोग यह समझते हैं कि गंगा मादि तीर्थोमें स्नान करनेसे मनुष्यका पाप नष्ट हो जाता है और पुण्य वृद्धिंगत होता है उनको लक्ष्य करके यहां यह बसलाया है कि जलमें स्नान करनेसे जिस प्रकार शरीरगत मलके साथ ही उसमें लगाया गया सुगन्धिस लेपन आदि भी नष्ट हो जाता है उसीप्रकार सीर्थमें स्नान करनेसे पापके साथ ही पुण्य भी घुल जाना चाहिये। कारण कि उन दोनोंके शरीरमें स्थित होने पर उनमेंसे एक (पाप) का विनाश और दूसरे ( पुण्य ) का शेष रह जाना युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता है। तात्पर्य यह कि तीर्थ स्नानसे बाह्य शारीरिक मल ही दूर किया जा सकता है, न कि अभ्यन्तर पापमल । अतएवं उसको दूर करनेके लिये समीचीन रलत्रयको धारण करना चाहिये ॥५॥ संसारमें पुण्यके बिना भी यदि केवल तीर्थमें किये गये स्नानके प्रभावसे ही मनुष्य सुगतिको प्राप्त होते हैं तो फिर ये जलमें उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके प्राणिसमूह बाल्यावस्थासे मरणपयन्स जलमें ही स्थिति रहनेसे क्यों नहीं सुगतिमें जाते हैं ? उन्हें भी सुगतिमें जाना चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं होता है, अतएव निश्चित है कि सुगतिका कारण प्राणीका पूर्वोपार्जित पुण्य है, न कि तीर्थस्नान ।। ६ ॥ जो शरीर वीर्य व रजसे उत्पन्न हुआ है, दुर्गन्धसे व्याप्त है, १ स चारित्रजल । २ स मुक्तिन । ३ सध्त यो, तयोः, (तयोः । ४ स शरोरं । ५ स दृष्टवा [:] । ६ सस्तदेतो, स्तदंते, स्तदेवः 1 ७ स वर्गा | ८ स वालव', कांस', पालत्ववास । १ स मरणोन्न । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. शौचनिरूपणद्वाविंशतिः 749: ३०-१० ] 746) यच्छुक शोणितसमुत्थमनिष्टगन्धं नानाविध कृमिकुलाकुलितं समन्तात् । पाण्याविदोषमलसच विनिन्दनीयं तद्वारितः कथमिर्च्छति शुद्धि भङ्गम् ॥ ७ ॥ 747 ) गर्भे शुचौ कृमिकुलैनिचिते शरीर यति मलरसेन नवेह मासान् । वर्चोगुहे कुमिरिवातिमलावलिप्ते शुद्धिः कथं भवति तस्य जलप्लुतस्य ॥ ८ ॥ .. 748) निन्द्येन वागविषयेण विनिःसृतस्य न्यूनोन्नतेन कुथिताविभृतस्य गर्भे । मासानवाशुचिगृहे वपुषः स्थितस्य शुद्धिः" प्लुतस्य न जलैः शतशो ऽपि सर्वैः ॥ ९ ॥ 749) यन्निमितं कुतितः कुयितेन पूर्ण सदा क्वथितमेव विभुते ऽङ्गम् । प्रक्षाल्यमानमपि मुनति रोमकूपैः प्रस्वेदवारि कथमस्य जलेन शुद्धिः ॥ १० ॥ २०३ व्रजन्ति ॥ ६ ॥ यत् शुक्रशोणितसमुत्यम निष्टगन्धं समन्तात् नानाविधकृमिकुलाकलितं व्याध्यादिदीप मलसा विनिन्दनीयं तत् अङ्गम् इह वारितः कथं शुद्धिम् ऋच्छति ॥ ७ ॥ अतिमलावलिप्ते वचगृहे कृमिः इव यत् शरीरं कृमिकुलैः निचिते अशु गर्भे इह मलरसेन नव मासान् वर्षितं जलप्लुतस्य तस्य कथं शुद्धिः भवति ॥१८॥ अशुचिगृहे गर्भे नव मासान् स्थितस्य कुथितादिभृतस्य न्यूनोन्नतेन वागविषयेण निन्द्येन विनिःसृतस्य सर्वः जलैः शतशः अपि प्लुतस्य वपुषः शुद्धिः न भवति ॥ ९ ॥ यत् बङ्गं कुथिततः निर्मितं कुथितेन पूर्ण सदा स्रोत्रं क्वषितम् एव विमुञ्चते प्रक्षाल्यमानम् अपि अनेक प्रकारके लट आदि क्षुद्र कीड़ोंसे सर्वतः परिपूर्ण है, व्याधि आदि दोषों एवं मलका स्थान है, तथा निन्दनीय है, वह यहाँ जलसे केसे शुद्धिको प्राप्त हो सकता है ? नहीं हो सकता है ॥ ७ ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार किसी वस्त्रादिमें यदि काला आदि धब्बा पड़ जाता है तो वह जल व साबुन आदिसे धो डालनेसे नष्ट हो जाता है, परन्तु जो कोयला स्वभावसे काला है वह जलमें रगड़-रगड़ कर धोये जानेपर भी कभी उस कालिमासे रहित हो सकता है क्या । ठीक इसी प्रकारसे जो शरीर स्वभावतः मलस्वरूप है वह गंगास्नानादिसे कभी निर्मल नहीं हो सकता है, उससे केवल उसके कपरका ही मल दूर हो सकता है। अतएव उसकी शुद्धि के लिये निर्मल सम्यग्दर्शनादिको धारण करना चाहिये ॥७॥ जिस प्रकार अतिशय मलसे परिपूर्ण पुरीषालय (पाखाना ) में क्रीड़ा वृद्धिको प्राप्त होता है उसी प्रकार प्राणीका जो शरीर कीड़ोंके समूहसे व्याप्त और मलसे परिपूर्ण अपवित्र माताके गर्भमें नो मास तक मलरससे वृद्धिको प्राप्त हुआ है उसकी भला जलमें स्नान करने से कैसे शुद्धि हो सकती है ? नहीं हो सकती है ॥ ८ ॥ जो शरीर अपवित्र मल-मूत्रादिके गृहस्वरूप गर्भ में नौ महोने तक स्थित रहकर दुर्गन्धित पदार्थोंस पुष्ट होता हुआ उस निन्द्य योनिमार्गसे बाहर निकलता है जो कि नीचाऊँचा द वचनके अगोचर है, उसकी शुद्धि जलोंसे सैकड़ोंवार भी धोनेगर नहीं हो सकती ॥ ९ ॥ जो शरीर दुर्गन्धयुक्त सड़े-गले पदार्थोंसे रचा गया है, उन्हीं दुर्गन्धित वस्तुओंसे परिपूर्ण है, निरन्तर १ स सुद्ध, शुद्ध" । २ स शरीरे । ३ स °लिप्तो । ४ स न्यूनान्मतेन, न्यूनान्मृतेन, न्यूनारमतेन । ५ स शुद्ध ६ स श्रोत्रः । ७ स कुथिसमेव, कुथितमेव । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 750 : ३०-११ २०४ सुभाषितसंवोहः 750) दुग्धेन' शुध्यति मषोयटिका यथा नो दुग्ध तु यातिर मलिन स्वमिति स्वरूपम् । नाङ्ग" विशुध्यति तथा सलिलेन बीतं पानीयमेति तु मलीमसतां समस्तम् ॥११॥ 751) आकाशतः पतितमेत्य नवाविमध्यं तत्रापि पावनसमुत्थमलावलिप्तम् । नानाविषावनिगताधुचिपूर्णमों यत्तेन शुद्धिमुपयाति कर्ष शरीरम् ॥१२॥ 752) माल्याम्बराभरणभोजनमानिनीनां लोकातिशायिकमनीयगुणान्वितानाम् । हानि गुणा झटिति यान्ति यमाणितानां __ देहस्य तस्य सलिलेन कथं विशुद्धिः ॥ १३ ॥ 753) जन्त्विन्द्रिया समिदमत्र जमेन शोध केनापि दुष्टमतिना कथितं जनानाम् । यद्देहथुढिमपि कतुंमलं बलं मो तत्पापकर्म विनिहन्ति कर्ष हि सन्तः" ॥१४॥ सेमकूपैः प्रस्वेदवारि मुञ्चति । अस्य जफेन शुद्धिः कर्ष स्यात् ॥ १०॥ यया मषीवटिका दुग्धेन नो इष्पति तु दुग्धं मलिनत्वं याति । तथा सलिलेन पोत्रम् महल न विशुध्यति । तु समस्तं पानीयं मलीमसताम् एति; इति स्वरूपम् ।। ११ ।। यत् अर्णः आकाशतः पतितं नानाविषावनिगताशुचिपूर्ण नवादिमध्यम् एत्य तत्रापि पावनसमुत्यमालिप्तं भवति तेन शरीरं कर्म शुद्धिम् उपयाति 11 १२ ॥ यम् आश्रिताना सोनतिशामिकमनीयगुणान्विताना माल्याम्बरामरममोजनमामिनीनां मुगाः शरिति हानि यान्ति तस्य देहस्य ससिलेन कथं विशुद्धिः स्यात् ।। १३ ।। अत्र केनापि दुष्टमतिना जनानां जलेन शौचं नौ स्रोतोंसे दुर्गन्धित मलको हो छोड़ता है, तथा वो धोया जा करके भी रोमछिद्रोंसे पसोनाके जलको बाहिर निकालता है; इस शरीरकी शुदिष भला जलसे कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है ॥ १०॥ बिस प्रकार दुषसे स्याहीको वटिका ( गोली ) तो शुद्ध नहीं होती है, किन्तु वह दूध मलिन हो जाता है, उसी प्रकार पानीसे धोनेपर शरीर तो शुद्ध नहीं होता है, किन्तु वह समस्त पानी ही गंदला हो जाता है। यह वस्तुस्वभाव है ॥ ११ ॥ जो जल आकाशसे गिरकर पृथिवीके कपर स्थित अनेक प्रकारको मलिन वस्तुओंसे पूर्ण होता हुआ नदियों के मध्यमें पहुंचता है और फिर वहाँपर वेमसे बहने के कारण उत्पन्न हुए मलसे संयुक्त होता है उससे यह शरीर कैसे शुद्ध हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥ १२ ॥ जिस शरीरके आश्रित होकर अलौकिक व रमणीय गुणोंसे संयुक्त माला, वस्त्र, बाभूषण, भोजन और स्त्रीरूप वस्तुओंके गुण शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं उस शरीरकी शुद्धि भला पानीसे कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है ॥ १३ ॥ यहाँ कोई दुर्बुद्धि मनुष्य जो प्राणियोंको जलसे शुद्धि बसलाता है, यह कोरा इन्द्रवाल है-इन्द्रजालके समान भ्रमपूर्ण है। कारण यह कि जो शरीरकी शुद्धिके भी करनेमें समर्थ नहीं है, हे सज्जनों! वह भला पाप कर्मको कैसे नष्ट कर सकता है ? १ स दुःखेन। २ स दुःखे । ३ स बातु for याति, मातु । ४ स नलिन । ५ स नाग । ६ स नु for तु । ७१ समस्तां.। ८ स माला"। ९ स गुणाटिति । १. स यत्त्विद्रिजाल , बात्विद्रियाल । ११ स orm. verse 14 | Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ 757 : ३०-१८ ३०. शोधनिरूपणद्वाविंशति 754) मेरूपमान मधुपद्रमसेवितान्तर चेज्जायते वियति कामनन्तपत्रम् । कायस्य जातु जलतो मलपूरितस्य शुद्धिस्तवा भवति निन्धमलोडवस्य ॥ १५ ॥ 755) कि भाषितेत बहुना न जलन शुद्धि जन्मान्तरेण भवतीति विचिन्त्य सन्तः। प्रेषा विमुच्य जलधौतकृताभिमानं कुर्वन्तु बोधसलिलेन शुचिस्वमत्र ॥ १६ ॥ 756) दुष्टाष्टकर्ममलशुद्धिविधा समय निःशेषलोकभवतापविघातवसे । सज्ज्ञानवर्शनचरित्रजले विशाले शौचं विवध्वमपविध्य जलाभिषेकम् ॥ १७ ॥ 757) निःशेष पापमल बाषनवक्षमयं ज्ञानोबकं विनयशीलतटद्वयावयम् । चारित्रवोचिनिधय मुर्वितामलवं मिथ्यात्यमोनविकलं करुणादिगाधम् ।। १८॥ कषितम् । इदं जन्त्विन्द्रियालम् । हे सन्तः, यत् जलं देहशुद्धिमपि कर्नु नो अलं, तत्पापकर्म कथं विनिहन्ति ।। १४ ।। वियति मल्पमानमधुपवजसेवितान्तम् अनन्तपत्रं कन्जं जायते चेत् तदा मलपरितस्य निन्दमलोद्भवस्य कायस्य जलतो जातु झुद्धिः भवति ॥ १५ ॥ बहुना भाषितेन किम् । जलेन जम्मान्तरेण शुद्धिः न भवति इति विचिन्स्य सम्तः श्रेधा जलधौतकृताभिमान विमुच्य अत्र बोषसलिलेन शुचित्वं कुर्वन्तु ॥ १६ ॥ जलाभिषेकम् अपविम्य दुष्टाष्टकर्ममसद्धिविधी समर्षे निःशेषलोकभवतापविघातदक्षे विशाले सज्ज्ञानदर्शनचरित्रजले शौचं विदध्वम् ।। १७ ॥ निःशेषपापमलबाघनदक्षाम् अयं विनय नहीं कर सकता है ।। १४ ॥ यदि आकाशमें अनन्त पत्रोंसे संयुक्त और मेरुके बराबर भ्रमरोंके समूह सेवित कमल उत्पन्न हो सकता है तो कदाचित् निन्द्य मलसे उत्पन्न और उस मलसे परिपूर्ण शरीरकी शुद्धिकलसे हो सकती है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार आकाशमें कमलका उत्पन्न होना असम्भव है उसी प्रकार अलसे शरीरका शुद्ध होना भी असम्भव है ॥ १५ ॥ बहुत कहने से क्या लाभ है ? जलसे शरीरकी शुद्धि जन्मान्तरमै भी नहीं हो सकती है, ऐसा विचार करके सज्जन मनुष्य यहाँ मन, वचन और कायसे जलस्नानसे होनेवाली शुद्धिके अभिमानको छोड़कर ज्ञानरूप जलसे यात्मशुद्धिको करें ॥ १६ ॥ जो विस्तृत सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यचारित्रल्प नल दुष्ट आठ कमरूप मसकी शुद्धिके करनेमें समर्थ और समस्त प्राणियोंके संसाररूप संतापके नष्ट करनेमें निपुण है उसमें शुद्धिको करो और जलसे अभिषेकको छोड़ो ॥ १७ ॥ जो जिनवचन ( जिनागम ) रूप तीर्थ समस्त पापरूप मलको बाधा पहुँचानेमें-उसे नष्ट करने में समर्थ है, पूजाके योग्य है, ज्ञानरूप जलसे परिपूर्ण है, विनय व शोल रूप दो सटोंसे सहित है, चारित्ररूप लहरोंसे व्याप्त है, हर्षरूप १स पमान । २ °सेवितांते । ३ स भवभीति वि । ४ स "मपि विष्य । ५ स निशोष । ६स निचर्यमु। सकरुणाद्यगांध, करणा°, करुणाय । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 758 : ३०-१९ २०६ सुभाषितसंबोहः 758) सम्यक्त्यशोलमनघं जिनवाक्यतोर्य यत्तत्र चारुधिषणाः कुरुताभिषेकम् । तीर्थाभिषेकवतो मनसः कवाचित नान्तर्गतस्य हि मनागपि शुद्धि'बुद्धिः ॥ १९ ॥ 759) चित्तं विशुष्यति अलेन मकावलिप्तं यो भाषते ऽनतपरो न परोऽस्ति तस्मात् । बाह्यं मलं तनुगतं व्यपहन्ति नीर गन्धं शुभेतरमपीति वदन्ति सन्तः ॥२०॥ 760) वाग्निभस्म रविमन्त्रधराविभेदा पछुद्धि ववन्ति बहुधा भुवि किं तु पुंसाम् । सज्ञान शोलशामसंयमशुद्धित्तो न्या नो पापलेपमपहन्तु मलं विशुद्धिः ।। २१॥ शोल्तदयाढ्यं चारित्रवोचिनिधयं मुदितामरुत्वं मिथ्यात्वमीनविकलं करुणादिगाषं ज्ञानोदकम् अनघं सम्यक्त्वशीलं यत् जिनवाक्यतीर्थ यत्र चारुषिषणाः अभिषेकं कुरुत । हि तीर्थाभिषेकवतः अन्तर्गतस्य मनसः कदाचित् मनाक् अपि शुद्धिबुद्धिः न भवति ॥ १८-१९ ।। जलेन भलावलिप्तं चित्तं विशुष्यति इति यो भाषते, तस्मात् परः अनुतपरः न अस्ति । नौर तनुगतं वाह्य पर्ल शुभेतरं गन्धम् अपि अपहन्ति इति सन्तः वदन्ति ।। २० ॥ भुवि वार्यग्निभस्मरविमन्त्रधरादिभेदात् बहुधा शुद्धि वदन्ति । किंतु सज्ञानशीलशमसंयमद्धितः अन्या विशुद्धिः पापलेपम् अपहन्तुं नो अलम् ।। २१ ॥ यः जिनेन् - निर्मलतासे संयुक्त है, मिथ्यात्वरूप मछलियोंसे रहित है, दया आदिरूप थाहसे सहित है , सम्यक्त्व व शोलसे सुशोभित है, तथा पापके संसर्गसे रहित है; हे निमंलबुद्धि सज्जनों ! उस जिनवचनरुप तीर्थमें आप स्नान करें। कारण यह कि भीतर स्थित मनकी शुद्धि गंगादि तीर्थोंमें स्नानके वशसे कभी व किंचित् भी नहीं हो सकती है ॥ १८-१९ ॥ मलसे लिप्त मन जलसे शुद्ध होता है, ऐसा जो कहता है उसके समान असत्यभाषी और दूसरा नहीं है। कारण यह कि जल शरीरमें संलग्न बाह्य मलको तथा तद्गत सुगन्ध और दुर्गन्धको भी नष्ट करता है, ऐसा सज्जन मनुष्य कहते हैं। अभिप्राय यह है कि चूंकि तत्वज्ञ पुरुष यह बतलाते हैं कि जलमें स्नान करनेसे शरीरगत बाह्म मल व सुगन्ध आदि ही नष्ट होती है, न कि अन्तर्गत पापमल; अतएव जो जन यह कहते हैं कि जलसे मनकी शुद्धि होती है, उनका वह कयन सर्वथा असत्य है ॥ २० ॥ लोकमें जल, अग्नि, भस्म, सूर्यकिरण, मंत्र और पृथिवी ( मिट्टी) आदिके भेदसे शुद्धि अनेक प्रकारकी बतलायी जाती है । परन्तु सम्यग्ज्ञान, शोल, शम और संयमरूप शुद्धिको छोड़कर अन्य कोई भी शुद्धि मनुष्योंके पापरूप मलको नष्ट नहीं कर सकती है ।। २१ । जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान्के मुखसे निकले हुए वचन ( जिनागम ) रूप • ....-.---... १ स शुद्ध , सिद्ध २ स परोऽस्ति जनों न, यस्मात् । ३ स om, verse 20 3/4 चरण ! - ४ स भस्मि । ५ स सुज्ञान" । ६ स 'हन्तु मलं । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ ___761 : ३०-२२] ३०. शौचनिरूपणद्वाविंशतिः 761) रत्नत्रयामलजलेन करोति शुद्धि' धित्वा जिनेन्द्रमुखनिर्गतवाक्यतीर्थम् । योऽन्तर्गत निखिलकममलं' दुरन्त प्रक्षाल्य मोक्षसुलमप्रतिमं स याति ॥ २२ ॥ इति शौचनिरूपण द्वाविंशतिः ॥ ३०॥ मुखनिर्गतवाक्यतीर्थ श्रित्वा रत्नत्रयामलजलेन शुचि करोति, सः अन्तर्गतं दुरन्तं निखिलकर्ममलं प्रक्षाल्य अप्रतिमं मोक्षसुखं पाति ॥ २२ ॥ इति शोचनिरूपणद्वाविंशतिः ॥ ३० ॥ तीर्थका आश्रय ले करके रत्नत्रयरूप निर्मल जलसे शुद्धिको करता है वह दुविनाश समस्त कर्मरूप अभ्यन्तर मलको धो करके अनुपम मोक्ष सुखको प्राप्त होता है ॥ २२ ॥ इसप्रकार बाईस श्लोकोंमें शौचका निरूपण हुआ। १ स orn. शुद्धि । २ स श्रुत्या, श्रुत्वा । ३ स °फलं । ४ स प्रfur स । ५ स निरूपणम् ।। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तदशोत्तरं शतम् ] 762 ) श्रीमज्जनेश्वरं नत्वा सुरासुरनमस्कृतम् । भुतानुसारतो वक्ष्ये व्रतानि गृहमेधिनाम् ॥ १ ॥ 763) पषाणुव्रतं त्रेधा गुणव्रतमुवीरितम् । शिक्षावतं चतुर्धा स्यादिति द्वावशषा स्मृतम् ॥ २ ॥ 764) स्यु' प्रियादिभेवेन चतुर्षा श्रसकायकाः । विज्ञाय रक्षणं तेषामहसाणुव्रतं मतम् ॥ ३ ॥ 765 ) मद्यमांसमक्षीरक्षोणिफलाशनम् । वर्जनीयं सदा सद्भिस्त्रसरक्षणतश्परैः ॥ ४ ॥ 766) हिंस्यन्ते प्राणिनः सूक्ष्मा' "चत्राशुच्यपि ' भश्यते । तात्रिभोजनं सन्तो न कुर्वन्ति कृपा पराः ॥ ५ ॥ 767) भेषजातिथिमन्त्राविनिमितेनापि नाङ्गिनः । प्रथमावता सतहिंसनीयाः कवाचन ॥ ६ ॥ 768) यतो निःशेषतो हन्ति स्थावरान् परिणामतः । त्रसान् पारूपले' ज्ञेयो विरताविरतस्ततः ॥ ७ ॥ सुरासुरनमस्कृतं श्रीमज्जिनेश्वरं नत्वा भुतानुसारतः गृहमेधिनां व्रतानि वक्ष्ये ॥ १ ॥ अणुव्रतं पचषा गुणवतं श्रेषा उदीरितम् । शिक्षाव्रतं चतुर्धा स्यात् । इति द्वादशधा व्रतं स्मृतम् ॥ २ ॥ त्रसकायका डीन्द्रियादिभेदेन चतुर्षा स्युः । विज्ञाय तेषां रक्षणम् अहिंसाणुव्रतं मतम् ॥ ३ ॥ त्रसरक्षणतत्परः मद्यमांसमधुक्षीरक्षोणीस्टफलाशनं सदा वर्जनीयम् ॥ ४ ॥ यत्र सूक्ष्माः प्राणिन: हिंस्यन्ते । यत्र अशुचि अपि भक्ष्यते । तत् कृपापराः सन्तः रात्रिभोजनं न कुर्वन्ति ॥ ५ ॥ प्रथमाणुव्रतासक्तैः भेषजातिथिमन्त्रादिनिमित्तेन अपि अङ्गिनः कवाचन न हिंसनीयाः ॥ ६ ॥ यतः निःशेषतः स्थावरान् हन्ति परि देवों और असुरोंसे नमस्कृत श्रीमान् जिनेन्द्र देवको नमस्कार करके आगमके अनुसार गृहस्थोके व्रतोंको ( देश चारित्रको ) कहता हूँ ॥ १ ॥ पाँच प्रकारका अणुव्रत, तीन प्रकारका गुणवंत और चार प्रकारका शिक्षाव्रत; इसप्रकार देशचारिक बारह प्रकारका माना गया है ॥ २ ॥ जो सकायिक जीव दो इन्द्रिय आदिके भेदसे चार प्रकार के हैं उनको जान करके रक्षण करना, इसे अहिंसाणुव्रत माना गया है ॥ ३ ॥ जो सद्गृहस्य सजीवोंके रक्षणमें उद्यत हैं उन्हें निरन्तर मद्य, मांस, मधु और दूध युक्त वृक्षोंके फलोंके खानेका परित्याग करना चाहिये || ४ || जिस रात्रि भोजनमें सूक्ष्म जीवोंका घास होता है तथा अपवित्र वस्तु भी खाने में आ जाती है उसको दयालु सज्जन पुरुष नहीं करते हैं ॥ ५ ॥ जो श्रावक प्रथम अहिंसामुक्त के पालने में आसक्त हैं उन्हें कभी औषध, अतिथि और मंत्र आदिके निमित्त भी प्राणियोंकी हिंसा न करना चाहिये ॥ ६ ॥ श्रावक चूंकि स्थावर जीवोंका घात तो पूर्णरूपेण करता है, परन्तु वह भावसे त्रस जीवोंका रक्षण करता है; इसीलिये १ सस्यः द्वि०, द्रियाणिभेदेयु । २ स शुद्धीन्द्रियाणि भेदेषु चतुषोत्र सकायकाः । ३ स हिंस्यते, हिसते । ४ स सुक्ष्म्या, सूक्ष्मो । ५ स पत्राशु, यत्रासु । ६ स "व्यभिभक्ष्यति, भक्ष्यते, व्यभिभक्षति । ७ स दयापराः । ८ सशक्तं । ९ पालयतो, पलायते । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावकधर्मकथन सप्तदशोत्तरं शतम् 774 : ३१-१२ ] 769) क्रोधलोभनदद्वेषरागमोहादिकारणैः । असत्यस्य परित्यागः सत्याणुव्रत मुच्यते ॥ ८ ॥ 770) प्रवर्तन्ते यतो दोषा हिसारम्भभवावयः' सत्यमपि न वक्तव्यं तद्वचः सत्यशालिभिः ॥ ९ ॥ 771) हासकर्कशशुन्य निष्ठुरादिवचोमुचः । द्वितीयाणुव्रतं पूरा देहिनो लभते स्थितिम् ॥ १० ॥ 772) यद्वदन्ति शठा धर्म यन्म्लेच्छेष्वपि निन्वितम् । वर्जनीयं त्रिधा वाक्यमसत्यं तद्धितोद्यतैः ॥ ११ ॥ 773) ग्रामावी पतितस्याल्पप्रभूतेः परवस्तुनः 1 आदानं न त्रिधा यस्य तृतीयं तदणुव्रतम् ॥ १२ ॥ 774) इह दुःखं नृपादिभ्यः परत्र नरकादितः । प्राप्नोति स्तेयतस्तेन स्तेयं त्याज्यं सदा बुधैः ॥ १३॥ २०२ गारातः सान् पालयते । ततः विरताविरतः ज्ञेयः ॥ ७ ॥ क्रोध लोभमदद्वेषरागमोहादिकारणैः असत्यस्य परित्यागः सत्याणुव्रतम् उच्यते ॥ ८ ।। यतः हिंसारम्भभवादयः दोषाः प्रवर्तन्ते तद् वचः सत्यम् अपि सत्यशालिभिः न वक्तव्यम् ॥ ९ ॥ हास कर्कशपैशुन्यनिष्ठुरादिवचोमुत्रः देहिनः पूतं द्वितीयाणुव्रतं स्थिति लभते ॥ १० ॥ शठाः यत् धर्म वदन्ति यत् म्लेच्छेषु अपि निन्दितं तत् असत्यं वाक्यं हितोद्यतः त्रिधा वर्जनीयम् ।। ११ ।। यस्य ग्रामादौ पतितस्य अल्पप्रभूतेः परवस्तुनः त्रिषा न आदानं तत् तृतीयम् अणुव्रतम् ॥ १२ ॥ इह स्तेक्तः नृपादिभ्यः दुःखं प्राप्नोति परत्र नरकादितः दुःखं प्राप्नोति । तेन उसे विरताविरत जानना चाहिये ॥ ७ ॥ विशेषार्थ - देशव्रती श्रावक चूंकि आरम्भ व परिग्रहमें रत होता है अतएव वह स्थावराहसा परित्याग नहीं कर सकता है। किन्तु वह संकल्प पूर्वक सहिंसाका त्यागी अवश्य होता है। साथ ही वह आरम्भादिमें होनेवाली सहिसाके विषय में भी अत्यधिक सावधान रहता है-यत्नाचार पूर्वक ही आरम्भादिमें प्रवृत्ति करता है इसीप्रकार वह असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहका भी स्थूलरूप से परित्याग करता है। वह चूंकि उक्त पापोंका स्थूल रूपसे हो त्याग करता है, पूर्णतया उनका त्याग नहीं करता है; इसीलिये उसे विरताविरत या देशव्रती कहा जाता है ॥ ७ ॥ क्रोध, लोभ, मद, द्वेष, राग और मोहके कारणसे असत्यभाषणका परित्याग करना; इसे सत्याणुव्रत कहा जाता है || ८ | जिस वचनसे हिसा आरम्भ और भय आदि दोषोंकी प्रवृत्ति होती है मत्याणुव्रती श्रावकोंको उस सत्य वचनको भी नहीं बोलना चाहिये ॥ ९ ॥ जो मनुष्य हास्यपूर्ण, कठोर, पिशुनता ( चुगलखोरी या परनिन्दा ) से युक्त और निर्दयतापूर्ण वचनको छोड़ देता है उसका निर्मल सत्याणुव्रत स्थिरताको प्राप्त होता है ॥ १० ॥ मूर्ख मनुष्य जिस पशुहिंसादि कर्मको धर्म बतलाते हैं तथा जिसकी म्लेच्छ जन भी निन्दा करते हैं उसको सूचित करनेवाले असत्य वाक्यका हितेषी जनको मन, वचन और कायसे परित्याग करना चाहिये ॥ ११ ॥ जो श्रावक ग्राम आदिमें गिरी पड़ी हुई दूसरेकी अल्प आदि ( थोड़ी अथवा बहुत ) वस्तुको ग्रहण नहीं करता है उसके वह तीसरा अचौर्यापुव्रत होता है ॥ १२ ॥ प्राणी चोरोके कारण चूंकि इस लोकमें तो राजा आदिसे तथा परलोक में नरकादि दुर्गतिकी प्राप्तिसे दुखको प्राप्त होता है इसीलिये विद्वान् जनोंको निरन्तर चोरीका परित्याग करना चाहिये ॥ १३ ॥ चूंकि प्राणी धनके सहारे बन्धु जनोंके साथ जोवित रहते हैं इसीलिये उस धन के १ स भया दमाः । २ सय ३ स मुक्तः, "मुलः मुन । ४ स om verse 12 th i मु सं. २७ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सुमाहितसंबोहः [775 : ३१-१३ 775) जीवन्ति प्राणिनो येन द्रव्यतः सह बन्युमिः। जीवितव्यं ततस्तेषां हरेसस्याहारतः ॥१३॥ 776) ये 'पहिसाबयो धर्मास्तेऽपि नश्यन्ति मोर्यतः । मस्वेति न त्रिमा पाह्यं पराव्यं विचाः ॥१५॥ 777) वर्षा बहिबारा प्राणाः प्राषिनी येन सर्वया । परतव्यं ततः सन्तः पश्यन्ति सवृशं मृदा ॥ १६॥ 778) मातृस्वसृसुसातुल्या निरोक्ष परयोषितः । स्वकालत्रेण यस्तोवरणतु तवणुव्रतम् ॥१७॥ 779) यार्गला स्वर्गमार्गस्य सरणि: वनसपनि । कृष्णाहिदृष्टिवर डोहा दुस्पग्निशिखेव या॥१८॥ 780) दुःखाना निषिरन्यस्त्रो सुखानां प्रख्यानमः। व्याषिवददाखवस्थाज्या वरतः सा नरोत्तमैः ॥ १९॥ 781) स्वभर्तारं परित्यज्य यां परं पाति निस्त्रापा। विश्वासं अयते तस्यां कवमन्यः स्वयोषिति ॥२०॥ बुधः स्तेयं सदा स्याज्यम् ॥ १३ ॥ येन द्रव्यतः प्राणिनः बन्वमिः सह जीवन्ति, ततः तस्य अपहारतः तेषां जीवितव्य हरेत् ॥ १४॥ ये बहिसादयः अपि धर्माः [ सन्ति ]ते चौर्यतः नश्यन्ति : इति मत्वा विचक्षणः परद्रव्यं त्रिधा न ग्राह्यम् ॥ १५ ।। येन अपाः प्रापिनां सर्वथा बहिरूपराः प्राणाः, ततः सन्तः परदन्यं मृदा सदृशं पश्यन्ति ॥ १६ ॥ परयोषितः मातृस्वस सुतातुल्याः निरीक्ष्य स्वकलोण य: दोषः तत् चतुर्षम् अणुवतम् ॥ १७॥ मा अन्यस्त्री स्वर्ममार्गस्य अर्मना, श्वभ्रसपनि सरभिः, कृष्णाविद् द्रोहा, या अग्निशिखा इव दुःस्पर्धा, दुःखानां निधिः, सुखाना प्रलयानल:, सा नरोत्तमः व्याधिवत् दुःसवत् पुरतः त्याज्या ॥ १८-१९॥ निस्त्रपा या स्वमारं परित्यज्य परं याति, अन्यः तस्यां स्वपोनिति (इव) 'अपहरणसे मनुष्य उन सबके जीवनका भी अपहरण करता है। अभिप्राय यह कि चोरी करनेवाला मनुष्य केवल चोरी जन्य पापको ही नहीं करता है, किन्तु इसके साथ ही वह हिंसाजन्य पापको भी करता है । कारन कि घनके नष्ट होने पर प्राणी अतिशय संकट में पड़कर प्राों तकका त्याग कर देते हैं और इस सब पापका कारण उक्त घनका अपहरण करनेवाला ही होता है ।॥ १४॥ जो भी हिंसा आदि धर्म हैं वे भी चोरोसे नष्ट हो जाते हैं, यह समझ करके विद्वान् मनुष्योंको मन, वचन बोर कायसे दूसरेके वनको नहीं ग्रहण करना चाहिये ॥ १५ ॥ अर्थ ( सुवर्ण, चांदी, धान्य व पशु बादि) चूंकि प्राषियोंके बाहर संचार करनेवाले सर्वथा प्राण जैसे ही होते हैं इसीलिये सत्पुरुष दूसरोंके धनको मिट्टीके समान समझते हैं वे कभी दूसरोंके धनका अपहरण नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ दूसरे मनुष्योंकी स्त्रियोंको माता, बहन और पुत्रीके समान मानकर जो केवल अपनी पत्नोके साथ सन्तोष रखा जाता है इसे ब्रह्मचर्यानुवत नामका चोषा अणुव्रत जानना चाहिये ॥ १७ ॥ जो परस्त्री स्वर्ग मार्गको बगंला ( बेड़ा) के समान है-स्वर्गप्राप्तिमें राधक है, नरकरूप घरका मार्ग हैनरकमें पहुंचानी वालो है, काले सर्पकी दृष्टिके समान घातक है, बग्निको ज्वालाके समान स्पर्श करनेमें दुसप्रद है, दुःखोंका स्थान है, तथा जो सुखोंको नष्ट करलेके लिये प्रलय कालोन बग्निके सहन है; उस परस्त्रीका श्रेष्ठ पुरुषोंको व्याधिके समान दुखदायक जानकर दूरसे ही परित्याग करना चाहिये ।। १८-१९ ॥ जो परस्त्री १स पेप्याहि । २ व शोर्यत । ३ स निरौल । ४.स शरनिः, सेषिः । ५ सद्रोही । ६ स कामिन्यांक for कथमन्यः। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ 787 : ३१-२६ ] ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तदशोसरं शतम् 782) कि सुखं लभते मत्यः सेवमानः परस्त्रियम् । केवलं कर्म बजाति श्वनभूम्यादिकारणम् ॥ २१ ॥ 783) वर्च:सवनवा स्पा जल्पने जघने सथा। निक्षिपन्ति मलं निन्ध निन्दनीया जनाः सदा ।। २२ ॥ 784) मधमांसाविसक्तस्य या विषाय विडम्धनम् । नीचस्यापि मुखं न्यस्ते रोना व्यस्य लोमतः ।। २३ ॥ 785) तां पेक्ष्या सेवमानस्य मम्मपाकुलचेतसः । तन्मुखं चुम्बतः पुंसः कर्य तस्याप्यणुवतम् ॥ २४ ॥ 786) तो ऽसौ पयरमणो चतुर्षवतपालिना। यावज्जीवं परित्याज्या जातनिघणमानसा ॥ २५ ॥ 787) सप्रस्वघराधान्य'धेनुभूत्यादिवस्तुनः । या" गृहोतिः प्रमाणेन पाम तवणुवतम् ॥ २६ ॥ - कथं विश्वास अयते ।। २० ।। परस्त्रियं सेवमानः मर्त्यः सुखं लभते किम् । मेवलं विभूम्यादिकारणं कम बध्नाति ॥ २१॥ वर्गः सदनवत यस्याः अल्पने तथा जपने निन्दनीयाः जनाः सदा निम्नं मलं निक्षिपन्ति ।। २२ ।। दीना या विडम्बनं विधाय मद्यमांसादिसक्तस्य नीचस्य अपि मुखं व्यस्म लोभतः निस्ते ।।२३।। तां वेश्या सेवमानस्य, तन्मुखं चुम्यतः, मन्मथाकुलचेतसः तस्य पुंसः अपि कथम् अगुवतम् ।।२४।। ततः चतुर्थनतपालिना असो जातनिघृणमानसा पण्परमणी पावज्जीवं परित्याग्या । २५॥ सप्रस्वर्णपराधान्यधेनुभृत्यादिवस्तुनः प्रमाणेन या गृहोतिः तत् पञ्चमम् अणुव्रतम् ॥२६॥ श्रावकैः दिवानिश वर्धमानः दावाअपने पतिको छोड़कर निर्लज्जतापूर्वक दूसरे पुरुषके पास जातो है उस अपनी स्त्रीके विषयमें अन्य पुरुष ( उसका पत्ति } कैसे विश्वास कर सकता है ? नहीं कर सकता है ॥ २० ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय इसका यह है कि बो स्त्री अपने पतिको छोड़कर दूसरे जनके पास जाती है और उसके प्रति अनुराग प्रगट करतो है उसके ऊपर दूसरे जनको कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये । कारण कि जो अपने विवाहित पतिको छोड़कर अन्य मनुष्यके पास जाती है वह समयानुसार उसको भो छोड़कर किसो तीसरेसे भी अनुराग कर सकती है। अतएव विवेकी जनको परस्त्रीसे दूर रहकर अपने ब्रह्मचर्याणुव्रतको सुरक्षित रखना चाहिये ॥ २० ॥ परस्त्रीको भोगनेवाला मनुष्य इसमें क्या सुख पाता है ? कुछ भी नहीं। वह केवल नरकादि दुर्गतिके कारणभूत कर्मको ही बांधता है ॥ २१ ॥ जिस वेश्याके मुख और जघनमें नीच मनुष्य पुरीषालय (पाखाना ) के समान निरन्तर घृणित मलका क्षेपण करते हैं, तथा जो घनके लोभसे दीनताको प्राप्त होती हुई धोखा देकर मद्य व मांस बादिमें आसक्त रहनेवाले नीच पुरुषके भो मुखको चूमती है; उस वेश्याका जो मनुष्य कामसे व्याकुलचित्त होकर सेवन करता है और उसके मुखको चूमता है उसका अणुवत कैसे सुक्षित रह सकता है ? नहीं रह सकता है ।। २२-२४ ।। इसीलिये ब्रहाचर्याणुव्रतका पालन करनेवाले श्रावकको उस कठोर हृदयवाली वेश्याका जीवन पर्यन्तके लिये परित्याग करना चाहिये ॥ २५ ॥ घर, सुवर्ण, भूमि, धान्य, गाय और सेवक आदि वस्तुओंका जो प्रमाण निर्धारणपूर्वक ग्रहण किया जाता है; उसे परिग्रहप्रमाण नामका पांचवां अणुमत समझना १ सदनवतस्या, °सदनं यस्यापि, वत्तस्या । २ स निवाः । ३ स om. verse 24th । ४ स जाति° । ५ स "मानसाः । ६ स पान्या । ७ सयो महीत । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [788 : ३१-२७ २१२ सुभाषितसंदोहः 788) दावानलसमो लोभी वर्धमानो दिवानिशम् । विधाव्यः' श्रावकैः सम्यक संतोषोद्गा वारिणा ।। २७॥ 789) संतोषाश्लिष्टचिसस्य यत्सुखं शाश्वतं शुभम् । कुतस्तृष्णाग्रहीतस्य तस्य' शो ऽपि विद्यते ।। २८ ।। 790) यावत् परिग्रहं लाति साचिसोपजायते । विज्ञायेति विधातव्यः । संग: परिमितो बुधैः ॥ २९ ॥ 793) हिंसातो विरतिः' सत्यमबसपरिवर्जनम् । स्वस्त्रीरतिः प्रमाणं च पनपाणवतं मतम् ॥ ३०॥ 792) यविषायावधि विशु वशस्वपि निजेच्छपा। नाकामति पुनः प्रोक्तं प्रथम तद्गुणवतम् ॥ ३१ ।। 793) वारयेव धावमानस्य निरवस्पस्य चेतसः । अवस्थानं कृतं तेन येन सा नियतिः कता ॥३२॥ नलसमः लोमः संतोषोद्गाढवारिणा विषाव्यः ॥२७॥ संतोषाश्लिष्टचित्तम्य यत् शुभं शाश्वतं सुखं भवति तृष्णागृहीतस्य तस्य लेशः अपि कुतः विद्यते ॥ २८ ॥ यावत् परिप्रहं लाति, तावत् हिसा उपजायते इति विज्ञाय बुधैः संगः परिमितः विधातव्यः ।। २९ ।। हिंसातः विरतिः, सत्यम्, अदतपरिवर्जनम, स्वस्त्रीरतिः च प्रमाणम् अणुतवं पञ्चषा मतम् ।।३०।। यत् दशसु दिक्षु अपि मिच्छया अवधि विधाय पुनः न आक्रामति, तत् प्रथम गुणवतं प्रोक्तम् ॥३१॥ येन सा नियतिः कुता तेन वाट्या इव धावमानस्य निरवचस्य नेतसः अवस्थानं कृतम् ॥ ३२ ॥ ततः परतः त्रसस्थावरजीवानां रक्षातः पावकस्यापि एवं तत्वतः चाहिये ॥ २६ ॥ लोभ दावानलके समान दिन-रात बढ़नेवाला है। श्रावक जनोंको उसे उत्तम सन्तोषरूप दृढ़ जलके द्वारा शान्त करना चाहिये ॥ २७ ॥ जिस मनुष्यका चित्त सन्तोषसे आलिंगित है-उससे परिपूर्ण हैउसको जो निरन्तर उत्तम सुख होता है उसका लेशमात्र भी तृष्णायुक्त मनुष्यके कहाँसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है । अभिप्राय यह कि सन्तोषी मनुष्य सदा सुखी और तृष्णातुर मनुष्य सदा दुखी रहता है ॥ २८ ॥ जब तक मनुष्य परिग्रहको प्रहण करता है-उसमें मूर्छित रहता है-तब तक हिंसा होती है, यह जान करके विद्वानोंको उस परिग्रहका प्रमाण करना चाहिये ॥ २९ ॥ हिंसासे निवृत्ति ( अहिंसाणुव्रत ), सत्य, अदत्तपरिवर्जन ( अचौर्याणुव्रत ), स्वस्त्रीसन्तोष और परिणहप्रमाण; इसप्रकार अणुव्रत पाँच प्रकारका माना गया है ।। ३० ॥ दश ही दिशाओंमें अपनी इच्छानुसार जाने-आनेकी मर्यादा करके उसका उल्लंघन नहीं करना, इसे दिग्वत नामका प्रथम गुणवत कहा गया है ॥ ३१ ॥ जिस पुरुषने दिशाको नियत कर लिया है-उसका प्रमाण कर लिया है-उसने वायुमण्डलके समान इधर उधर दौड़नेवाले निर्दोष ( या अस्थिर ) मनका अवस्थान कर लिया है-उसे अपने अधीन कर लिया है ॥ ३२ ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जब तक दिशाओंमे जानेआनेको कोई मर्यादा नहीं रहती है तब तक ही चित्त व्यापारादिके निमित्त सर्वत्र जानेके लिये व्याकुल रहता है। परन्तु जब पूर्वादिक दिशाओंमें जाने-आनेकी मर्यादा कर ली जाती है । जैसे पूर्व में कलकत्ता व दक्षिणमें कन्याकुमारी आदि तक ) तब वह चित्त स्थिर हो जाता है-मर्यादाके बाहर जानेका वह विचार नहीं करता १स विधाप्पः, विष्याप्प [:], विष्याप्य । २ स तोपो (?) झाद । ३ स om. तस्य, यिझते भुवि । ४ स विवासव्यं । ४ स विरुतिः । ६ स तद्गुणं यत । ७ स कृतस्तेन 1 ८ सनियता। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 : ३१-३८ ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तदशोत्तरं शतम् २१३ 794) सस्थावरजीवानां रक्षातः' परतस्ततः । महाव्रतमित्येवं श्रावकस्यापि तस्वतः ।। ३३ ।। 795) चेतो निवारितं येन घावमानमितस्ततः । कि न लब्धं सुखं तेन संतोषामृतलाभतः ॥ ३ ॥ 796) यति विज्ञानतः कृत्वा वेशावधिमनिशम् । नोल्लहध्यते पुनः पुंसां द्वितीयं तवगुणवतम् ॥ ३९ ॥ 797) महायतत्वमत्रापि वाच्यं तत्वविधानतः । परतो लोभनिर्मुक्तो लाभे सस्यपि तत्त्वतः ॥ ३ ॥ 798) शक्यते गवितुं केन सत्यं तस्य महात्मनः। तणवत्यज्यते येन लग्यो ऽप्यों व्रताविना ।। ३७ ॥ 799) लूना तुष्णालता तेन वर्षिता धृतिवल्लरी। देशतो विरतियन कुता नित्यमण्डिता ।। ३८ ॥ महाद्रतत्वम् ॥ ३३ ॥ येन इतस्ततः पावमानं चेतः निवारितं तेन संतोषामृतलाभतः किं सुखं न लम्भम् ॥ ३४ ॥ यदि विज्ञानतः अहर्निशं देशावधि करवा पुनः न उल्लङ्गम्यते तत् पुंसां द्वितीयं गुणवतम् ॥ ३५ ॥ अत्रापि तत्त्व विधानतः महाव्रतत्वं वाच्यम् । परतः वत्वतः लाभे सत्यपि लोभनिर्मुक्तः भवति ॥३६॥ येन व्रताधिना लयः अपि अर्थः तृणवत् त्यज्यते, | तस्य महात्मनः सत्यं गदितुं केन शक्यते ॥ ३७॥ येन देशतः विरतिः निरयम् अस्मण्डिता कता, तेन तृष्णालता सूना, है। इस प्रकारसे दिग्नतोके मर्यादाके बाहर अहिंसादि व्रतोंका पूर्णतया पालन होता है ॥ ३२ ॥ चूंकि की गई 'उस मर्यादाके बाहिर त्रस और स्थावर जीवोंका पूर्णरूपसे संरक्षण होता है अतएव इस प्रकारसे श्रावक भी वास्तवमें महाव्रती जैसा हो जाता है ।। ३३ ।। जिस श्रावकने इधर उधर दौड़नेवाले पित्तका निवारण कर लिया है उसने सन्तोषरूप अमृतको प्राप्त करके कौन-से सुखको नहीं प्राप्त कर लिया है ? अर्थात् सन्तोसको प्राप्ति = हो जानेसे उसे सब कुछ सुख प्राप्त हो मया है, ऐसा समझना चाहिये । कारण कि सुख और दुखका स्वरूप वास्तवमें सन्तोष और असन्तोष ही है ।। ३४ ॥ यदि विज्ञानसे-प्राम, नदी एवं पर्वत आदिरूप चिह्नोंके भवपारणसे-निरन्तर देशकी मर्यादा करके उसका अतिक्रमण नहीं किया जाता है तो पुरुषोंके देशवत नामका वह द्वितोय गुणवत होता है ॥ ३५ ॥ विशेषार्थ-दिग्बतमेंकी गई मर्यादाके भीतर भी कुछ संकोच करके नियमित समयके लिये किसी ग्राम, नगर एवं पर्वत आदिकी सोमा करके तब तक उसके आगे नहीं जाना; इसे देशवत कहते हैं। दिग्वतमें जो दिशाओंमें जाने-आनेकी मर्यादाको जातो है वह जन्म पर्यन्तके लिये की जाती है और उसमें मर्यादित क्षेत्र भी विशाल होता है। परन्तु देशवत कुछ नियमित (घड़ी, दिन, पक्ष व मास आदि ) समयके लिये लिया जाता है तथा मर्यादा भी उसमें दिग्वतको सीमाके भीतर ही ली जाती है ॥ ३५ ॥ इस देशवतमें भी वास्तवमें अणुवतीको महाबतो जैसा ही कहना चाहिये। कारण यह कि यहाँ भी लाभके होने. पर भी श्रावक मर्यादाके बाहर यर्थार्थमें लोभसे रहित होता है। अतएव वहाँ अहिंसादिवतोंका उसके पूर्णतया पालन होता है ॥ ३६ ।। व्रतको इच्छा करनेवाले जिस महात्माने प्राप्त भो पदार्थको तृणके समान तुच्छ समझ करके छोड़ दिया है उसका दृढ़ताको प्रशंसा करनेके लिये भला कौन समर्थ है ? कोई नहीं-वह अतिशय स्तुति करनेके योग्य है ।। ३७ ।। जिसने निरन्तर अखण्डित देशव्रतका पालन किया है उसने तृष्णारूप लताको १स रक्षते । २ स bu. verse 34 th ) ३ स तुणवम्पज्यते । ४ स लुता । ५ स °लतास्तेन । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ [ 800 : ३१-३९ सुभाषितसदोहः 800) पप्रधानर्थदण्डस्य परं पापोपकारिणः। क्रियते यः परित्यागस्तृतीयं तद्गुणवतम् ॥ ३९ ॥ a01) दुष्ट तिरपाया- पापकर्मोपदेशनम् । प्रमादः शस्त्रदानं च पज्ञानी' भवन्स्यमी ॥ ४० ॥ WO2, शारिकाशिनिमार्जारताम्रचून्शुकादयः। बनकारिणस्त्याज्या बहवोवा मनीषिभिः ॥ ४१ ।। 803) नोलोमदनलाक्षायःप्रभूतानिनिवाबयः । बनर्यकारिणस्त्याज्या बहवोवा मनीषिभिः ॥ २॥ धृतिवल्लरी वर्षिता ॥ ३८।। पापोपकारिणः पञ्चषा बनर्षदस्य यः परित्यागः क्रियते तत् तृतीयं परं गुणवतम् ॥ ३९ ॥ दुष्टश्रुतिः, अपध्यान, पापकर्मोपदेशनं, प्रमादः, शस्त्रदानं च अमी पञ्च बनाः भवन्ति ॥ ४० ॥ मनीषिभिः बहुदोषाः अनषकारिणः शारिकाशिलिमारिताम्रचूडशकादयः त्याग्याः ॥ ४॥ मनीषिभिः बहुदोषा: अनर्थकारिणः नीलीमदनलाक्षायःप्रमुताग्निविषादयः त्याज्याः ॥ ४२ ॥ विग्देशानदण्डेम्प. या विरतिः विधीयते तत् त्रिविघं गुणव्रतं जिनेश्वर काटकर धैर्य ( सन्तोष ) रूप लताको वृद्धिंगत किया है। अभिप्राय यह कि अखण्डित देशवतके धारण करनेसे मनुष्यको तृष्णा नष्ट होती है और उसके स्थानमें सन्तोषको वृद्धि होती है ॥ ३८ ॥ पापको बढ़ानेवाले पांच प्रकारके अनर्थ दण्डका जो परित्याग किया जाता है, यह उत्कृष्ट अनर्थदण्डवत नामका तीसरा गुणवत्त है ॥ ३९ ॥ वे पांच अनयंदण्ड ये हैं-दुःश्रुति, अपध्यान, पापोपदेश, प्रमाद और शस्त्रदान !|४०॥ विशेषार्थजिन कार्योसे बिना किसी प्रकारके प्रयोजनके ही प्राणियोंको कष्ट पहुँचाता है वे सब अनर्थदण्ड कहे जाते हैं। वे स्थूल रूपसे पांच हैं-पापोपदेश, हिंसादान, दुःश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या । जिस वाक्यको सुनकर प्राणियोंकी पापजनक हिंसादि कार्योंमें प्रवृत्ति हो सकती है उस सबको पापोपदेश कहा जाता है जैसे किसी व्याघके लिये यह निर्देश करना कि मृग जलाशयके पास स्थित हैं 1 हिंसाजनक विष एवं शस्त्र आदिका दूसरोंके लिये प्रदान करना, यह हिंसादान कहलाता है। जिन उपन्यास एवं कथाओं आदिको सुनकर प्राणोके हृदयमें कामादि विकार उत्पन्न हो सकते हैं उनके सुननेका नाम दुःश्रुति है। अपध्यानका अर्थ कुत्सित ध्यान है-जैसे राग या द्वेषके वश होकर अन्यको स्त्री आदिके बध-बन्धन आदिका विचार करना । वह दो प्रकारका है-आत्तं और रोद्र । अनिष्ट पदापोंका संयोग और इष्ट पदार्थोंका वियोग होनेपर जो उसके लिये चिन्तन किया जाता है वह मार्सध्यान कहलाता है। हिंसा, असत्य, चोरी एवं विषय संरक्षण आदिके चिंतनको रौद्रध्यान कहा जाता है। व्यर्यमें पृथिवीका खोदना, वायुका व्याघात करना, अग्निका बुझाना, पानीको फैलाना और वनस्पतिका छेदन करना; इत्यादि कार्य प्रमादचर्याके अन्तर्गत हैं। ये पांचों हो अनर्थदण्ड ऐसे हैं कि जिनसे प्राणियोंको व्यर्थमें कष्ट पहुंचता है। अतएव देशवती श्रावक इन पांचोंका परित्याग करके अनर्थदण्डवत्तका परिपालन करता है ॥ ४० ॥ शारिका { मैना ), मयूर, बिलाव, मुर्गा और तोता आदि जो पश-पक्षी अनेक दोषोंसे सहित होकर अनर्थको उत्पन्न करनेवाले हैं उन सबका भी बुद्धिमान् पुरुषोंको परित्याग करना चाहिये ॥४१॥ नौलो (नील) मैन, लाख, लोहसे निर्मित अस्त्र-शस्त्रादि, अग्नि और विष आदि जो १स पंचान्यो । २ सप्रगा। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 807: ३१-४६] ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तवंशोत्तरं शतम् 804) दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिर्या विधीयते'। जिनेवधरसमाख्यातं त्रिविघं तवगुणवतम् ॥ ४३ ॥ 805) नमस्कारादिकं जेयं शरणोत्तममङ्गलम् । संध्या'नत्रितये शश्वदेकाप्रक्तचेतसा ॥४॥ 806} सर्वारम्भ परित्यज्य कृत्वा द्रव्याविशोषनम् । आवश्यक विधातन्यं व्रतवपर्यमुत्तमः॥४५॥ 807) व्यासनदावशावर्ता' चतुर्मस्तकसंततिः। ___त्रिविशुद्धचा विषातव्या वन्दना स्वहितोगतैः॥६॥ समाख्यातम् ।। ४३ ।। एकाग्रकृतचेतसा शश्वत् संध्यानपितये नमस्कारादिकं शरणोत्तममङ्गलं ज्ञेयम् ।। ४४॥ उतमः व्रतशुष्वर्ष सर्वारम्भं परित्यज्य द्रव्यादिशोधनं कृत्वा आवश्यक विधातम्यम् ॥ ४५ ।। स्वहितोचतः म्यासनद्वादशावर्ता चतुर्मस्तकसनतिः बन्दना विविशुध्द्या विषातव्या ॥ ४६ ॥ मासे चत्वारि पर्वाणि सन्ति, तेषु यः सदा उपवासः विधीयते वस्तुयें बहुत दोषोंसे सहित तथा अनर्थको करनेवाली हैं उन सबका भी बुद्धिमान् मनुष्योंको परित्याग करना चाहिये ॥ ४२ ॥ दिशा, देश और और अनर्थदण्डसे जो व्रत किया जाता है जिनेन्द्रके द्वारा वह तीन प्रकारका ( दिग्नत, देशव्रत व अनर्थदण्डवत ) गुणव्रत कहा गया है || ४३ ।। श्रावकको एकाग्रचित होकर निरन्तर तीनों सन्ध्याओंमें नमस्कारको आदि लेकर शरण, उत्तम और मंगलको जानना चाहिये ।। ४४ ॥ विशेषार्थ-इसका अभिप्राय यह है कि सामायिक करते समय श्रावकको सर्वप्रथम पंचनमस्कार-मंत्रका उच्चारण करते हुए पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार करना चाहिये । तत्पश्चात् "चत्तारि मगलं-अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगल साहू मंगलं | केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा–अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, फेवलिपग्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवजामि अरिहते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि ।" इस पाठको पढ़ें और अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवलीकथित धर्मका मंगल, लोकोत्तम व शरण स्वरूपसे चिन्तन करे ।। ४४ ॥ उत्तम श्रावकोंको व्रतशुद्धिके निमित्त | समस्त आरम्भको छोड़ करके और द्रव्य क्षेत्रादिको शुद्धि करके सामायिक आवश्यकको करना चाहिये ।। ४५ ।। सामायिक शिक्षाप्रतके धारक श्रावकोंको अपने आत्महितमें उद्यत होते हुए पद्मासन व खगासन इन दो आसनों से किसी एक आसनसे बारह बावर्त और चार शिरोनतियोंसे सहित मन, वचन व कायको शुद्धिपूर्वक वन्दनाको करना चाहिये ।। ४६ ॥ विशेषार्थ-सामायिक पद्मासन और खगासन इन दो आसनोंमेंसे किसी भी एक आसनसे की जाती है । इसमें वन्दना कमको करते हुए श्रावकको बारह आवत्तं और चार शिरोनतियोंको करना चाहिये । आवर्तका अर्थ है मन, वचन और कायका नियमन । ये पंचनमस्कार मंत्रके आदिमें और अन्तमें तीन तीन तथा चतुर्विशतिस्तवके बादि व अन्तमें तीन तीन इस प्रकार बारह किये जाते हैं। दोनों हायोंको जोड़कर शिरके नमानेका नाम शिरोनति है। यह पंचनमस्कार मंत्रके आदि और अन्तमें एक एक । तथा चतुर्विंशतिस्तवके आदि और अन्त में एक एक इस प्रकारसे चार बार की जाती है। इस विधिसे सामा. १स विषोयते । २स संध्यानां, सदयानं। ३सचेतसः । ४ स आवश्यका, आवशक्यं । ५ स सिन्ध,°विष्य, इध। ६ स °वर्ताश्चतु° । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सुभाषितसंदोहः [808 : ३१-४७ । 808) जत्वारि सन्ति पर्वाणि मासे तेषु विधीयते। उपवासः सवा घस्सत्प्रोषध'वतमीयते ॥७॥" 809) त्यक्तभोगोपभोगस्य सर्वारम्भविमोचिन: । चतुर्विषाशनत्याग उपचासो मतो मिनः ॥४८॥ 810) अभुक्त्य'नुपयासेकमुक्तयों मक्तितत्परैः। नियन्ते कर्मनाशाय मासे पचतुष्टये ॥४९॥ 8I1) कर्मेन्वनं सर्वज्ञानात् संचितं जम्मकानने। उपवासशिखी सवं तवभस्मीकुरुते क्षणात ।। ५०॥ 812) भोगोपभोगसंख्यानं क्रियते पवितात्मना । भोगोपभोगसंख्यानं सच्छिक्षा'तमुच्यते ॥५१॥ तत्प्रोपपव्रतम् ईर्यते ।। ४७ ॥ जिनः त्यक्तभोगोपभोगस्य सर्वारम्भविमोचिनः चतुर्विधाशनत्यागः उपवासः मतः ॥ ४८ ॥ भक्तितत्परः मासे पवंचतुष्टये कर्मनाशाय अभुक्त्यनुपवास कभुक्तयः क्रियन्ते ।। ४९ ॥ जन्मकानने अज्ञानात् यत् कर्मन्धनं संचितम्, तत् सर्वम् उपवासशिखी क्षणात् भस्मीकुरुते ।। ५० ॥ हितात्मना यत् भोगोपभोगसंख्यानं क्रियते, तत् भोगोपयिकमें श्रावकको मन, वचन और कायको शुद्धिपूर्वक वन्दनाको करना चाहिये । ४६ ॥ प्रत्येक मासमें चार पर्व ( दो अष्टमी व दो चतुर्दशी ) होते हैं। उनमें जो निरन्तर उपवास किया जाता है वह प्रोषघव्रत कहा जाता है ।। ४७ ॥ भोग और उपभोग वस्तुओंके परित्यागके साथ समस्त आरम्भको छोड़कर जो चार प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है वह जिन भगवान्को उपवास अमोष्ट है ।। ४८ ।। विशेषार्थ—जो वस्तु एक बार भोगनेमें आती है उसे भोग कहते हैं जैसे पान, लेपन व भोजन आदि । तथा जो वस्तु अनेक बार भोगनेमें बाती है उसे उपभोग कहा जाता है जैसे स्त्री, शय्या व वस्त्र आदि । उपवासके दिन श्रावकको इन भोग-उपभोग वस्तुओंका परित्याग करके समस्त बारम्भको भी छोड़ देना चाहिये । कारण यह कि उपवासका बर्ष केवल आहारका परित्याग नहीं है, किन्तु उसके साथ ही उपवासमें कषाय और विषयोंका परित्याग भी अनिवार्य समझना चाहिये । अन्यथा फिर उपवास और लंघनमें कोई विशेष भेद ही नहीं रहेग ॥ १८ ॥ भक्तिमें तत्पर श्रावक प्रत्येक मासके चारों पोंमें कर्मनाशके लिये अभुक्ति ( उपवास ), अनुपवास अपवा एकभुक्ति ( एकाशन ) को किया करते हैं ।। ४९॥ विशेषार्थ---जो श्रावक शक्तिके अनुसार उपबास, अनुपवास और एकाशन ( एक स्थान ) इनमेंसे किसी भी एकको करता है वह प्रोषधकारी कहा जाता है। इनमें अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चार प्रकारके आहारोंके परित्यागका नाम उपवास है । अनुपवासका अर्थ है ईषत् { थोड़ा ) उपवास । तात्पर्य यह कि बलको छोड़कर शेष सब प्रकारके आहारके परित्याग कर देनेको अनुपवास माना जाता है। एक स्थानमें बैठकर एक ही बार जो भोजन किया जाता है उसे एकभुक्ति या एकासन समझना चाहिये । ये सब यथायोग्य कर्म- निराके कारण हैं ॥ ४२ ॥ संसाररूप वनमें स्थित रहकर प्राणोने अज्ञानतासे जिस फर्मरूप इन्धनका संचय किया है उस सबको उपवासरूप अग्नि क्षण भरमें ही भस्म कर डालती है ।। ५० ॥ आत्महितेषी श्रावक जो भोग और उपभोग रूप वस्तुओंकी संख्या कर लेता १स प्रोषप'। २ स °मीयते । ३ स om. 47। ४ स तक्त , त्यक्ता । ५ स भोगे ऽस्य । ६ स अभुक्ता। ७ स भक्तयो मुक्ति । ८ स यदा । १ स जन्म कानने। .१० स तात्मनः । ११ स तरिक्ष्या, तछिया, तच्छित्या । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 818 : ३१-५७ ] ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तदशोत्तरं शतम 813 आहारपानताम्बूल गन्धमाल्यफलावयः भुज्यन्ते' यरस' भोगश्च तन्मतः साधुसत्तमैः ॥ ५२ ॥ 814) वाहनाशन पल्यङ्कस्त्रोवस्त्राभरणावयः । भुज्यन्ते ऽनेकधा यस्मादुपभोगाय ते मताः ॥ ५३ ॥ 315) संतोषी' भाषितस्तेन वैराम्यमपि वशितम् । भोगोपभोगसंख्यानं व्रतं येन स्म घायंते ॥ ५४ ॥ 816) चतुषियों बराहारो दीयते संयतात्मनाम् । 'शिक्षावतं तदाख्यातं चतुषं गृहमेधिनाम् ॥ ५५ ॥ 817) स्वयमेव गृहं साधुर्यो ऽत्राम्यतति संयतः । अर्थयेदिभिः प्रोक्तः सो ऽतिथिर्युनिपुङ्गवैः ॥ ५६ ॥ 818) श्रद्धामुत्सत्त्वविज्ञानतितिक्षाभवत्य "लुब्धताः । एते" गुणा हितोयुक्तैप्रियन्ते ऽतिथिपूजनेः ॥ ५७ ॥ २१७ भोगसंख्यानं शिक्षाव्रतम् उच्यते ॥ ५१ ॥ यत् आहारपानताम्बूलगन्धमाल्यफलावयः भुज्यन्ते तत् साधुसलमैः सः भोगः मतः ।। ५२ ।। यस्मात् वानासनपत्यस्वीवस्त्राभरणादयः अनेकषा भुज्यन्ते ते उपभोगाय मठाः ॥ ५३ ॥ येन भोगोपभोगसंख्यानं वतं धार्यते स्म तेन संतोषः भाषितः । तेन वैराग्यम् अपि दर्शितम् ॥ ५४ ॥ संयतात्मनां चतुविधः वराहारः दीयते, तत् गृहमेधिन अतुर्थ शिक्षाव्रतम् आख्यातम् ।। ५५ ।। अत्र यः संयतः साधुः स्वयमेव गृहम् अम्पतति । अन्वर्थवेदिभिः मुनिपुङ्गवैः सः अतिथिः प्रोक्तः ॥ ५६ ॥ हितो दुक्तः अतिथिपूजने श्रद्धायुत्सत्त्वविज्ञानविविक्षा भक्त्यलुब्धताः एते है- उनका प्रमाण करके शेषको छोड़ देता है - इसे भोगोपभोग संस्थान नामक शिक्षाव्रत कहा जाता है ॥५१॥ आहार, पान ( जलादि पेय वस्तु), ताम्बूल, सुगन्धित माला और फल आदि जो वस्तुएँ एक बार भोगी जाती हैं। उनको साधुओं में श्रेष्ठ गणधरादि भोग बतलाते हैं ॥ ५२ ॥ वाहन (हाथी-घोड़ा आदि), आसन, पलंग, स्त्री, वस्त्र और आभरण आदि चूँकि अनेक बार भोगे जाते हैं अतएव वे उपभोगके लिये माने गये हैं- उन्हें उपभोग कहा जाता है ॥ ५३ ॥ जिसने भोगोपभोगपरिमाणव्रतको धारण कर लिया है उसने अपने सन्तोषको सूचित कर दिया है तथा वैराग्यको भी दिखला दिया है। अभिप्राय यह है कि जो श्रावक भोगोपभोगपरिमाणव्रतका पालन करता है उसे अपूर्व सन्तोष प्राप्त हो जाता है और इसीलिये उसका बेराग्यभाव जागृत हो उठता है ॥ ५४ ॥ मुनिजनोंके लिये जो चार प्रकारका श्रेष्ठ आहार दिया जाता है वह श्रावकोंका चौथा शिक्षाव्रत (अतिथि संविभाग ) कहा गया है ॥ ५५ ॥ जो संयम साधु स्वयं हो गृहपर आता है उसे अन्वर्थं संज्ञाके जानकार श्रेष्ठ मुनि अतिथि कहते हैं। तात्पर्य यह कि जो साधु किसी तिथिका विचार न करके किसी भी तिथिको आहारके निमित्त स्वयं ही श्रावकके वरपर जाता है वह अतिथि कहलाता है ॥ ५६ ॥ विज्ञान, आत्महितमें उद्यत श्रावक अतिथिपूजाके विषय में — उन्हें आहार आदिके देनेमें-- श्रद्धा, प्रमोद, सत्त्व, क्षमा, भक्ति और निर्लोभता इन सात गुणोंको धारण करते हैं ॥ ५७ ॥ विशेषार्थ -- प्रशंसनीय दाता वही होता है जिसमें कि उपर्युक्त सात गुण विद्यमान रहते हैं । उनका स्वरूप इस प्रकार है। श्रद्धा - साधुओंके लिये जो १ स भुजं तत्स रस यत्सम ३स "नाशन । ४ स भुजं । ५ स भोगा ये मताः, "भोगा यते । ६ स ९ १० स यति for मुनि । ११ स "भय", सन्तो यो । ७ स चातुविधो । ८ स शिल्या शिष्या । "भक्त, भ° । १२ स लुब्धता । १३ स एतंर्गुणा । गु. सं. २८ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सुभाषितसंदोहः [819:३१-५८ 819) प्रतिपहोचवेनाप्रिक्षालन पूजनं नतिः । त्रिशुद्धिरन्नशुद्धिश्च पुण्याय नवषा विधिः ॥१८॥ 820) 'सामायिकाविभेवेन शिक्षा प्रतमुदीरितम् । चतुति गृहस्थेन राणीयं हितैषिणा ॥ ५९॥ 82}) द्वादशाणुवतान्येवं कषितानि जिनेश्वरः। गृहस्थैः पालनीयानि भवदुः जिहासुभिः ॥ ६ ॥ 822) स्वकीयं जीवितं प्रात्या त्यक्त्या सर्वा मनःशिसिम् । बन्धनापृच्छ्म निःशेषांस्त्यक्त्वा बेहाविमच्छनाम् ॥ ६१ ॥ 823) माझमम्यन्तरं संग मुक्स्वा सर्व विषानतः। विषायालोचना शुदा हृदि न्यस्य नमस्कृतिम् ॥ ६२ ॥ गुणाः ध्रियन्ते ।। ५७ । प्रतिग्रहोम्मदेशानिक्षालन, पूजनं नतिः, त्रिशुद्धिः च अनशुद्धिः इति नवधा विधिः पुष्पाय भवति ॥ ५८ ॥ सामायिकादिभेदेन इति चतुर्षा उदोरितं शिक्षाव्रतं हितैषिणा गृहस्थेन रक्षणीयम् ।। ५९ ॥ एवं जिनेश्वरः कषितानि द्वादश अणुप्रतानि भवदुःख जिहाभिः गृहस्थः पालनीयानि ।। ६० ॥ स्वकीय जीवितं ज्ञात्वा, सर्वां मनःस्पिति त्यक्त्वा निःशेषान् बन्धून् आपच्छ्य देहादिमूर्छनां त्यक्त्वा सर्व बाह्यम् अभ्यन्तरे संग विधानतः मुक्त्वा शुद्धाम् आलोचनां गृहस्य दान देता है वह अभीष्ट फलको प्राप्त करता है, इस प्रकारका दाताको विश्वास होना चाहिये । प्रमोद-दाताको दान देते समय अतिशय हर्ष होना चाहिये । उसे यह समझना चाहिये कि आज मेरा गृह साधुके आहार लेनेसे पवित्र हुआ है, यह सुयोग महान् पुण्यके उदयसे ही प्राप्त होता है । सत्त्व-धन थोड़ा-सा भी हो, तो भी सात्त्विक दाता भक्तिवश ऐसा महान् दान देता है जिसे देखकर बड़े-बड़े धनाढ्य पुरुष भी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। विज्ञान-दाताको द्रव्य (देय वस्तु), क्षेत्र काल, भाव, दानविधि एवं पात्र आदिका यथार्थ ज्ञान होना चाहिये। क्योंकि इसके बिना वह दान देनेके योग्य नहीं होता है। क्षमा-कलुषताके कारणके रहते हुए भी श्रेष्ठ दाता कभी क्रोधादिको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय भी वह क्षमाको ही धारण करता है। मक्ति-भक्तियुक्त दाता सत्पात्रके गुणोंमें अनुराग रखता है, वह आलस्यको छोड़कर स्वयं ही पात्रको आहारादि प्रदान करके उसकी सेवा-शुश्रूषा करता है । निर्लोभता-निर्लोभ दाता ऐहिक और पारलौकिक लामकी अपेक्षा न करके कमी दानके फलस्वरूप सांसारिक सुखको याचना नहीं करता है। प्रतिग्रह- मुनिको देखकर 'नमोस्तु, तिष्ठत' इस प्रकार तीन बार कहकर स्वीकार करना, मुनिको घरके भीतर ले जाकर निर्दोष ऊँचे बासमपर बैठाना, पादप्रक्षालन, गन्ध-अक्षतादिके द्वारा पूजा करना, पंचांग प्रणाम करना, मनकी शुद्धि, वचनको शुद्धि, कायकी शुद्धि और भोजनकी शुद्धि; यह नो प्रकारको विधि पुष्पके लिये होती है ॥ ५८॥ सामायिक आदिके भेदसे जो यह चार प्रकारका शिक्षावत कहा गया है उसको कल्याणाभिलाषी श्रावकको रक्षा करना चाहिये ॥ ५९॥ उपयुक्त प्रकारसे जिनेन्द्र देवने जो बारह अणुवत बतलाये हैं उनका संसारदुखको नष्ट करनेकी इच्छा करनेवाले गृहस्थोंको पालन करना चाहिये ॥६० ॥ अन्तमें उत्तम श्रावक अपने जीवितको जान करके–परणकालको निकटताका निश्चय करके--समस्त मनोविकल्पको छोड़ देते हैं और सब कुटुम्बी एवं संबन्धी जनोंको पूछ करके शरीर आदि सब ही बाह्य वस्तुबोंमें निर्ममत्व हो जाते १स पतिग्रहोच । २ स क्षालन । ३ स ODI, 58। ४ स सामायक°। ५ स शिख्या', शिष्या। ६ स संग द्विधा मुच्य विधानत । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावकधर्मकयन सप्तदशोत्तरं शतम् ४२३१-६८ 1 824 ) जिनेश्वरक्रमा भोजभूरिभक्ति' भरानतैः 1 सल्लेखना विधातव्या मृत्युतो नरसत्तमैः ॥ ६३ ॥ 825) दुर्लभं सर्वदुःखानां नाशकं बुधपूजितम् । सम्यक्त्वं रलवद्धार्यं संसारान्तं विवासुभिः ॥ ६४ ॥ 826) षद्रव्याणि पदार्थाश्च नव 'तत्वादिभवतः । जायते श्रद्दधज्जीवः सम्यग्दृष्टिनं संशयः ॥ ६५ ॥ 827) अतीतेऽनन्तश: काले ओवेन भ्रमता" भवे । कानि दुःखानि नाप्तानि विना जैनेन्द्रशासनम् ॥ ६६ ॥ 828) निर्द्वन्यं निर्मलं पूतं यं जैनेन्द्रशासनम् । मोक्षवति कर्तव्या मतिस्तेन विचक्षणः ॥ ६७ ॥ 829 ) ज्योतिर्भावन भौमेषु षट्स्वषः श्वभ्रभूमिषु । जायते स्त्रीषु सद्दृष्टिनं मिया द्वादशाङ्गिषु ॥ ६८ ॥ २१९ विधाय हृदि नमस्कृति न्यस्य जिनेश्वरक्रमाम्भोजभूरिभक्ति भरानतः नरसत्तमैः मृत्युतः सल्लेखना विधातव्या ॥ ६१-६३ ॥ संसारान्तम् इयासुभिः रत्नवत् दुर्लभं सर्वदुःखानां नाशकं बुधपूजितं सम्यक्त्वं धार्यम् ।। ६४ ।। षड् द्रव्याणि पदार्थान् व नवतत्त्वादिभेदतः षचत् जीवः सम्यग्दृष्टिः जायते । न संशयः ॥ ६५ ॥ अनन्तशः अतीते काले भवे भ्रमता जीवन जैनेन्द्रशासन दिन कानि दुःखानि न काप्तानि ॥ ६६ ॥ तेन विचक्षणः निर्ग्रन्यं निर्मलं पूतं तथ्यं जैनेन्द्रशासनं मोक्षव इति मतिः कर्तव्या ॥ ६७ ॥ सद्दृष्टिः ज्योतिर्भावनभौमेषु षट्सु बधः श्वभ्रभूमिषु स्त्रीषु मिथ्या द्वादशानिषु न है । इस प्रकार वे बाह्य एवं अभ्यन्तर सब परिग्रहको छोड़कर विधिपूर्वक शुद्ध आलोचनाको करते हुए जिनेन्द्रके चरणकमलों में अतिशय भक्ति प्रगट करते हैं तथा नम्रतापूर्वक उन्हें अन्तःकरणसे नमस्कार करते हैं। इस विधिसे वे मृत्युसे सल्लेखनाको स्वीकार करते हैं- आवश्यक कर्तव्य समझ करके वे आगमोक्त विधिसे समाधिमरणको अंगीकार करते हैं ।। ६१-६३ ।। जो श्रावक संसारको नष्ट करना चाहते हैं वे उस निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करें जो कि रत्नके समान दुर्लभ, समस्त दुःखों का नाशक और विद्वानोंसे पूजित है । ६४ ।। जो जीव छह द्रव्य, नो पदार्थ और जीवाजीवादिके भेदसे सात तत्व आदिका श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है; इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ॥ ६५ ॥ यह जीव अनन्त अतीत कालसे संसारमें परिभ्रमण करता रहा है। उसने वहां जैनधर्मके बिना कौन से दुख नहीं प्राप्त किये हैं ? अर्थात् उसने वहीं सब प्रकारके दुःखोंको सहा है ॥ ६६ ॥ इसलिये तत्त्वज्ञ जनोंको यह विचार करना चाहिये कि परिग्रहसे रहित, निर्मल, पवित्र एवं यथार्थ जिनेन्द्रकथित धर्म ही मोक्षका मार्ग है- अन्य सब संसारपरिभ्रमणके ही कारण हैं ॥ ६७ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव ज्योतिषी, भवनवासी व व्यन्तर देवों में नीचे की शर्कराप्रभादि छह नरकभूमियों में, स्त्रियोंमें तथा मिथ्यात्वसे लुषित इन वारह प्रकारके प्राणियों में भी नहीं उत्पन्न होता है—१ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त २ बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, ३ सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, ४ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त ५ दोइन्द्रिय पर्याप्त ६ दोइन्द्रिय अपर्याप्त, ७] तो इन्द्रिय पर्याप्त ८ तीनइन्द्रिय अपर्याप्त, ९ चारइन्द्रिय पर्याप्त १० चारइन्द्रिय अपर्याप्त, ११ असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और १२ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त ॥ ६८ ॥ जो जीव एक क्षणके लिये भी सम्यग्दर्शनको १ स भक्त । २ स "वष्या मृत्युतो । ६ स "पूजकं ४ स नयसत्त्वा तत्वानि । ५ स भ्रमतो । ६ स तथ्यं पूतं । ७ स भवनभोमे । 2 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 630 : ३१-६९ २२० सुभाषितसंदोहः 830) एकमपि क्षणं लब्ध्वा सम्यक्त्वं यो विमुञ्चति । संसारार्णवमुत्तीयं लभते सो ऽपि निव॒तिम् ॥ ६९ ॥ 831) रोचते' वितं तत्त्वं जोवः सम्यक्त्वभावितः । संसा रोगमापन्लः संवेगादिगुणान्वितः ॥७॥ 332) पत्किचिव दृश्यते लोके प्रशस्तं सचराचरम् ।। तत्सवं लभते जीवः सम्यक्त्वामलरलतः ॥७१ ।। 833) शङ्कावियोवनिर्मुक्तं संवेगाविगुणान्वितम् । यो धत्ते दर्शनं सोऽत्र शंनी कथितो जिनैः ॥७२॥ 834) दुरन्तर सारसंसारजनिताशान्तसंततेः।। यो भीतो ऽणुव्रतं पाति प्रतिनं तं विदुव॒षाः ॥ ७३ ।। 835) आर्तरोगपरित्यक्तस्त्रिकालं विवषाति यः। सामायिक विशुद्धारमा स सामामिकवान्मतः ॥७४ ॥ 836) मासे चत्वारि पर्वाणि तेषु यः फुगतें सवा । उपवासं निरारम्भः प्रोषधी स मतो जिः ।।७५॥ जायते ॥ ६८ ॥ एकम् अपि क्षणं सम्यक्त्वं लम्ध्वा मः विमुञ्चति सः अपि संसारार्णवम् उत्तीयं निति लभते ।। ६९ ॥ संसारोगम् आपन्नः संवेगादिगुणान्वितः सम्यक्त्वभावितः बीवः दर्शितं तत्त्वं रोषते ॥ ७० ।। खोके पस्किचित् सवराचर प्रशस्तं दृश्यते जीवः सम्यात्वामलरत्नसः तत् सर्व लभते ।। ७१ ॥ यः शङ्काविदोषनिमुक्तं संवेगादिगुणान्वितं दर्शने पत्ते, जिनैः अत्र सः दर्शनी कषितः ।। ७२ ॥ दुरन्तासारसंसारजनिताशान्तसंततः, भीत, गः अणुवतं याति तं बुधाः प्रतिनं विदुः ।। ७३ ॥ आर्तरोद्रपरित्यक्तः विशुद्धारमा यः त्रिकालं सामायिक विदधाति स सामायिकवान् मतः ।। ७४ ।। मासे वस्वारि पर्वाणि । तेषु निरारम्भः यः सदा उपवासं कुरुते सः जिनः प्रोपर्धा मतः ॥ ७५ ।। संयमासक्तचेतस्क: यः अपश्वं प्राप्त करके पश्चात् उसे छोड़ देता है वह भी संसाररूप समुद्रसे पार होकर मोक्षको प्राप्त होता है ॥ ६ ॥ सम्यक्त्वभावनासे सम्पन्न जीव संसारसे उद्विग्न होकर संवेग आदि ( प्रशम, आस्तिक्य व अनुकम्पा ) गुणोंसे विभूषित होता हुआ सर्वज्ञके द्वारा दिखलाये हुए जीवादि तत्त्वोंसे प्रीति करता है उनके ऊपर दृढ़ श्रद्धा रखता है॥ ७० ॥ लोकमें जो कुछ भी चेतन व अचेतन प्रशस्त वस्तुएं दिखती हैं उन सबको ही सम्पग्दृष्टि जीव निर्मल सम्यग्दर्शनरूप रत्नके प्रभावसे प्राप्त कर लेता है॥ ७१।। जो जीव शंकादि दोषोंसे रहित और संवेगादि गुणोंसे सहित निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करता है उसे यहाँ जिन भगवानके द्वारा दर्शनी (दर्शनप्रतिमाधारी) कहा गया है ।। ७२ ॥ जो जीव दुविनाश असार संसारमें परिभ्रमण करनेसे उत्पन्न हुई अशान्त (दुख) परम्परासे भयभीत होकर अणुव्रतको (देशचारित्रको) प्राप्त होता है उसे विद्वान् गणधरादि व्रती (द्वितीय प्रतिमाधारी) कहते हैं ॥ ७३ ।। जो विशुद्ध जीव आर्त और रोद्र ध्यानसे रहित होकर सीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या) में सामायिकको करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी माना गया है ।। ७४ ।। प्रत्येक मासमें चार पर्व आते हैं । उनमें जो श्रावक निरन्तर आरम्भसे रहित होकर उपवासको करता है वह जिन देवके द्वारा प्रोषधी (चतुर्थ प्रतिमाधारी) माना गया है । ७५ ।। जो संयमका विचार करनेवाला श्रावक कच्चे १ स रोचिते । २ स संसारा' । ३ स रत्नयः । ४ स orn, 72 । ५ स दुरंतानंतर । ६ स सात for शान्त । ७स प्रोषधीः । ८ स जनः । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ 1813 : ३१-८२] ३१. श्रावकधर्मकयनसप्तदशोत्तरं शतम् 837) न भक्षयति यो ऽपक्वं कन्दमूल फलादिकम् । संपमासक्तचेतस्कः सचित्तात् स पराइमुखः ॥ ७६ ॥ 838) मैथुनं भजते मयों न विवा यः कबाचन । दिवामैथुननिर्मुक्तः स बुधैः परिकीर्तितः ।। ७७ ॥ 839) संसारभयमापन्नो मैयुनं भजते न यः । सवा वैराग्यमारतो ब्रह्मचारी स भव्यते ।। ७८॥ 840) निरारम्भः स विडेयो मुनीमहंत करमरः । कृपासुः सर्वजीवानां भारम्भ विवधाति यः ॥ ७९ ॥ 841) संसारखममूलेन किमनेन ममेति यः । निःशेषं त्यजति प्रन्थं निग्रंवं सं विजिनाः ॥ ८॥ 842) सर्वदा पापकापेषु कुरुते ऽनुमति न यः। तेनानुमननं मुक्त' भव्यते बुद्धिशालिना ॥ ८१ ॥ 812) स्वनिमित्तं त्रिधा येन कारितोऽनुमतः कृतः । नाहारों" गहाते पुंसा त्यक्सोद्दिष्टः स भण्यते॥ ८२॥ कम्पमूलफलादिकं न भक्षयति स: समित्तात् पराङ्मुलः ॥ ७६ ॥ यः मयः कदाचन दिया मैथुन न भजते बुधः सः दिवामैथुननिमुक्तः परिकीर्तितः ॥ ७७ ॥ संसारभयमापन्नः बैराग्यमाला यः सदा मैथुनं म बजते स पह्मवारी भन्यते ॥ ७८॥ कृपालुः यः सर्वजीवानाम् [ विषातकम् ] आरम्भं न विदधाति, इतकल्मषः मुनीन्द्र: स: मिरारम्भः विज्ञेयः ॥७९॥ संसारदुममूलेन अनेन मम किम् इति यः निःशेष प्रन्यं त्यजति, तं युधाः निग्रन्थं विदुः ।। ८० ॥ यः सर्वदा पापकार्येषु अनुमति न कुरुते, बुद्धिशालिमा तेन अनुमननं मुक्तं भण्यते ।। ८१ ॥ पेन पुंसा स्वनिमित्तं कारितः बनुमतः कृतः आहारः विधा न गृह्यते स त्यक्तोद्दिष्टः भण्यते ॥ ८२ ।। यः नरः एवं क्रमतः एकावर गुणान् पत्ते, असौ मरामरप्रियं भुक्ला कन्द, मूल और फल आदिको नहीं खाता है वह सचित्त वस्तुसे पराङ्मुख अर्थात् सचिस्तविरत होता है ।। ७६ ॥ जो मनुष्य मैथुनका सेवन दिनमें कभी-भी नहीं करता है वह विद्वानोंके द्वारा दिवामैथुनविरत कहा गया | है ।। ७७ ।। जो मनुष्य संसारसे भयभीत होकर कभी भी मैथुनका सेवन नहीं करता है, किन्तु उससे निरन्तर विरक्त रहता है उसे ब्रह्मचारी कहा जाता है ॥ ७८ ॥ जो दयालु श्रावक समस्त जीवोंके घातक आरम्भको नहीं करता है उसे निर्मल गणधरादि देव भारम्भविरस समझते हैं ।। ७९ ॥ यह परिग्रह संसाररूप वृक्षको स्थिर रखने के लिये मूलके समान है इससे मेरा क्या हित हो सकता है ? कुछ भी नहीं। इस प्रकार विचार करके जो श्रावक समस्त परिग्रहका परित्याग कर देता है उसे पण्डित जन निर्ग्रन्थ (परिग्रहविरत) बतलाते हैं ।। ८०॥ जो पाप कार्योंके विषय में कभी अनुमोदना नहीं करता है उसने अनुमतिको छोड़ दिया है-वह अनुमतित्याग प्रतिमाधारो है, ऐसा वृद्धि ऋद्धिके धारक गणधर कहते हैं । ८१ ॥ जो पुरुष अपने निमित्तसे स्वयं किये गये दूसरेसे कराये गये तथा अनुमोदित भी भोजनको नहीं ग्रहण करता है मन, बचन और कायसे उसे उद्दिष्टत्यागी कहा जाता है ।। ८२ ॥ जो मनुष्य क्रमसे उपर्युक्त प्रकार ग्यारह गुणोंको धारण करता है वह मनुष्य (चक्रवर्ती १ स स चितात् स । २ स इत, दंत' । ३ स जना । ४ स नति, नु मति । ५ स "नुमतिमुक्ति तत म. मुक्तं for मुक्तं, तेनान [ नमति ] युक्तं । ६ स शालिभि । ७ स नाहार । ८ स पुंसां । १ स त्यक्तो दृष्टः, त्यवतो दिष्टः । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 844:३१-८३ २२२ सुभाषितसंदोहः 841) एकादश गुणानेवं धत्ते यः क्रमतो गरः । मामरश्रियं भुक्त्वा यात्यसौ मोक्षमक्षयम् ॥ ८३ ॥ ४.5) वधो रोधो ऽनपानस्य गुरुभारातिरोहणम् । बन्धच्छेदों मला. पन प्रथमवतगोचराः॥८४ । 86) कूटलेखक्रिया मिथ्यावेशनं न्यासलोपनम् । ___ पैशुन्य मन्त्रभेदश्च द्वितीयव्रतगा मलाः ॥ ८५ ॥ 847) स्तेनानीतसमादानं स्नानामनुयोजनम् । विरुखे ऽतिकमो राज्ये फूटमानादिकल्पनम् ।। ८६ ॥ 848) कृत्रिमव्यवहारश्च तृतीयव्रतसंभवाः । अतिचारा जिनः पञ्च गविता धुतकर्मभिः ॥ ८७ ।। 849) अनङ्गसेवनं तीनमन्मथाभिनिवेशनम् । गमनं पुंश्चलोनार्योः स्वीकृरोत ररूपयोः ॥ ८८ ।। अक्षयं मोक्ष याति ॥ ८३ ॥ वधः, अन्नपानस्य रोधः; गुरुभागतिरोहणं, दन्धच्छेदी इमे पञ्च मलाः प्रथमवतगोचराः ॥८॥ कटलेखक्रिया. मिथ्यादेशन, न्यासलोपनं. पैशम्य मन्त्रभेदः च [इमे 1 मलाः द्वितीयवतगाः भवन्ति ।। ८५ ॥ स्तेनातोत. समादानं, स्तेनानामनुयोजन, विरुवं राज्ये अतिक्रमः, कूटमानादिकल्पन, कृषिमम्यवहारः च घुतकर्मभिः जिनः तृतीयवतसंभाः पञ्च अतिचाराः कदिताः ॥ ८६-८७ ॥ अनङ्गसेवनं, तीव्रमम्मवाभिनिवेशनं, स्वीकृतेतररूपयोः पुस्पलीनायों: आदि ) और देवोंकी लक्ष्मीको भोग करके अविनश्वर मोक्षको प्राप्त होता है ।। ८३ ॥ वध ( लकड़ी या चावुक आदिसे मारना ), आहार-पानीका रोक देना, न्याय्य बोझसे अधिक बोझा लादना, रस्सी आदिसे बांधना और नासिका आदिका छेदना; ये पांच प्रथम अहिंसाणुव्रत सम्बन्धी दोष हैं-इनसे वह अहिंसाणुव्रत मलिन होता है ।। ८४ ॥ कूटलेखक्रिया ( दूसरेने जो बात नहीं कही है या जो कार्य नहीं किया है उसने वैसा कहा था या वैसा किया था, इस प्रकार किसीको प्रेरणासे लिखना), मिथ्या उपदेश ( स्वर्ग-मोक्षकी साधनभूत क्रियायोंमें अन्य जीवोंको विपरीततासे प्रवर्ताना अथवा धोखा देना ), न्यासलोप { किसीके अपनी रखी हुई धरोहरके विषयमें भूलसे कम मांगनेपर तदनुसार कम देना--पुरा न देना), पैशून्य (स्त्री-पुरुषोंके द्वारा एकान्तमें की गई क्रियाओंको प्रकट करना ) और मन्त्रभेद { प्रकरणवश अथवा मुखके आकार आदिको देखते हुए दूसरेके अभिप्रायको जानकर इा आदिके कारण उसे प्रगट करना ); ये पांच अतिचार द्वितीय व्रत ( सत्यागुवत ) को मलिन करनेवाले हैं ।। ८५ ॥ चोरीसे लाई गई वस्तुओं ( सुवर्ण व चांदी आदि )का ग्रहण करना, चोरोंको चोरी कर्ममें प्रवृत्त करना, विरुद्ध राज्यातिक्रम अर्थात् विपरीत राज्यमें अल्प मूल्यमें प्राप्त होनेवाली वस्तुओंको लेना । तात्पर्य यह कि न्यायमार्गसे च्युत होकर वस्तुओं का क्रय-विक्रय करना, नापने व तौलनेके उपकरणोंको हीन व अधिक रखना और कृत्रिम व्यवहार अर्थात् बहुमूल्य वस्तुमें अल्प मूल्यवालो वस्तुको ( जैसे सुवर्णमें ताँबा आदि ) मिलाकर बेचना अथवा बहुमूल्य वस्तुके स्थानमें अल्पमूल्य वस्तुको ( जैसे सुवर्णके स्थानमें पीतल ) घोखा देकर बेचना; ये पांच अतिचार कर्मोको नष्ट कर देनेवाले वीसराम देवने अचौर्याणुव्रतमें सम्भव होनेवाल कहे हैं ॥ ८६-८७ ॥ कामसेवनके अंगभूत योनि और १ मव्ययं । २ स °छेदो, छेदैः । ३ स मलापं च । ४ स "ति कमो । ५ स गमने । ६ स स्वोकृतेतारू । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ स 855 : ३१-२४] ३१. श्रावकधर्मकयनसप्तदशोत्तरं शतम् 850) अन्यदीयविवाहस्य विधानं जिनपुंगवैः । अतिचारा मताः पञ्च चतुर्थव्रतसंभवाः ।। ८९ ।। 151) हिरण्यस्वर्षयोर्वास्तुक्षेत्रयोधनधान्ययोः । कुप्यस्य दासदास्योश्च प्रमाणे ऽतिकमाभिधाः ॥९॥ 852) अतिचारा जिनैः प्रोक्ताः पञ्चामी पञ्चमे व्रते। वजनीयाः प्रयत्लेन व्रतरमाविचक्षणः ॥२१॥ 853) क्षेत्रस्य वर्धनं तिरंगाधो व्यतिलहुन्नम् । स्मृत्यन्तरविषिः पञ्च मता विग्विरतेमलाः ॥१२॥ 854) आनीतिः पुदग लक्षेपः" प्रेष्य'लोकानुयोजनम् । शब्दरूपानुपातौ च स्युर्वेशविरतेमलाः ॥१३॥ 855) असमीक्षक्रिया भोगोपभोगानर्थकारिता। बहुसंबन्धभाषित्व कौफुज्यं मदनार्तता" ॥१४॥ गमनम्, अन्यदीयविवाहस्प विधानं, जिनपुंगवैः चतुर्थवतपञ्चकस्य पञ्च अतिचाराः मताः ॥ ८८-८९ ॥ पञ्चमे यते हिरण्यस्वर्णयोः, बास्तुक्षेत्रयोः, पनघान्मयोः, कुष्यस्य दासदास्योः च प्रमाणे अतिक्रमाभिषाः पञ्च अतिचाराः जिन: प्रोक्ताः । . वतरक्षाविचक्षणः ते प्रयत्नेन वर्जनीयाः ॥ ९०-९१ ।। क्षेत्रस्य वर्धनं, तिर्यगृषिो म्यतिलङ्घनं, स्मृत्यन्तरविधिः दिग्विरते: पञ्च मलाः मताः ॥ ९२ ।। आनीतिः, पुद्गलक्षेपः, प्रेष्यलोकानुयोजनं च शब्दरूपानुपाती देशविरतेमलाः स्युः ॥१३॥ समस्तयस्तुविस्तार दिभिः जिनपुङ्गवैः असमीक्ष्य क्रिया, भोगोपभोगानकारिता, बहसंबन्धभाषित्वं, कोत्तुच्य, मदनातं ता, मेहनके सिवाय अन्य अंगोंसे कोड़ा करना, विषय भोगकी अतिशय लालसा रखना, स्वीकृत (विवाहित) अथवा अस्वीकृत (अविवाहित वेश्या अथवा विधवा आदि) व्याभिचारिणी स्त्रियों के यहां जाना ये दो तथा दुसरोंका विवाह करना; ये पांच जिनेन्द्र देवके द्वारा ब्रह्मर्याणुव्रतमें सम्भव होनेवाले अतिचार माने गये हैं ।। ८८-८९ ।। चांदी और सोनेके प्रमाणका उल्लंघन करना, घर और खेतके प्रमाणका उल्लंघन करना, धन (गाय; भंस व धोड़ा आदि) और धान्य (गेहूँ, जौ व चावल आदि) के प्रमाणका उल्लंघन करना, कुप्य (सुवर्ण व चांदोके अतिरिक्त कांसा पीतल आदि तथा साधारण व रेशमी वस्त्रादि) के प्रमाणका उल्लंघन करना तथा दास और दासीके प्रमाणका उल्लंघन करना; ये पांच जिन भगवान्के द्वारा पांचवें परिग्रहपरिमाणवतके अतिचार कहे गये हैं। व्रतके पालनमें निपुण पुरुषोंको इनका प्रयत्नपूर्वक परित्याग करना चाहिये ॥ ९०-९१ ॥ की हुई मर्यादाका बढ़ा लेना, तिरछी सीमाका उल्लंघन करना, पर्वतादिके कार चढ़ते हुए ऊर्व दिशाको मर्यादाका उल्लंघन करना, कुएं व खान बादिमें जाकर अघोदिशा संबंधी मर्यादाका उल्लंघन करना तथा की हुई मर्यादाको भूल जाना, ये पांच दिग्वतके अतिचार माने गये हैं ॥९२ ॥ स्वयंको हुई मर्यादाके भीतर स्थित रहकर मर्यादाके बाहरको वस्तुको मंगानेके लिये दूसरेको आशा देना, कंकड़ आदिको फेंककर मर्यादाके बाहर स्थित व्यक्तिके ध्यानको खींचना, मर्यावाके बाहर कार्य कराने के लिये किसी अन्यको नियुक्त करना; खांसने आदिके शब्दसे मर्यादाके बाहर स्थित व्यक्तिके ध्यानको खोंचना, अपने आकारको दिखाकर उसका ध्यान खींचना, ये पांच देशवत्तके अतिचार हैं ।। ९३ ॥ असमीक्षक्रिया अर्थात् प्रयोजनका विचार न करके अधिकता १ स तिक्रमाद्दिया, °मिधा, °विघा, प्रमाणेति क्रमाद्विधा । २ स orn. 9। ३ स आनीति, अनीतिपु० । ४ स पुद्गलः । ५ स °क्षेपाः । ६ स प्रेक्ष्य लोका° ७ स on. 93 | ८ स "क्रियाभो । १ स संवन्धनाक्षित्वं । १० स कौत्कुच्यं । ११ स मदनार्द्रता । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ सुभाषितसंदोहः 856) पञ्चैते ऽनयँबण्डस्य विरतेः कथिता मलाः । समस्त वस्तुविस्ता' रवेदिभिजिनपुंगवः ॥ ९५ ॥ 857) अस्थिरस्यामृत योगदुष्क्रियानादरा मलाः । सामायिक व्रतस्यैते मताः पञ्च जिनेश्वरेः ॥ ९६ ॥ 858) अदृष्टा माजितोत्सर्गादान "संस्तारक' क्रियाः । अस्मृत्वानावरी पञ्च प्रोषधस्य मलाः मताः ।। ९७ ॥ 859 ) सचित्त मिश्र संबद्धदुः 'पक्याभिषवाशिताः । भोगोपभोगसंख्याया मलाः पञ्च निषेविताः ॥ ९८ ॥ 860) सचित्ताच्छादनक्षेपकालातिक्रममत्सराः । सहान्यव्यपवेशेन वाने पञ्च मला मताः ॥ ९९ ॥१ 861} पञ्चत्वजीविताशंसे " मित्ररागसुखाग्रहः । निवानं चेति निर्दिष्टं संन्यासे मलपञ्चकम् ॥ १०० ॥ [ 856 : ३१-१५ अनर्थदण्डस्य विरतेः एवं पञ्च मला कविताः । ९४-९५ ।। जिनेश्वरे अस्थिरत्वास्मृत योगदुष्क्रियानादराः एते पञ्च सामायिकव्रतस्य मलाः मताः । ९६ ।। प्रोषषस्य दृष्टामाजितोत्सर्गादानसंस्तारकक्रियाः अस्मृत्वानादरी पञ्च मला मताः ॥ ९७ ॥ भोगोपभोगसंख्यायाः सचित्तमिश्रसंयदुः पचवाभिषवाशिताः पञ्च मलाः निवेदिताः ॥ ९८ ॥ दामे अम्यव्यपदेशेन सह सचित्ताच्छाद निक्षेपकाला विक्रममत्सराः पञ्च मला मताः ॥ ९९ ॥ संन्यासे पञ्चत्वजीविताशंसे मित्ररागसुखाग्रहः च से कार्य करना, जितने अर्थसे भोग और उपभोगका कार्य चलता है उससे अधिक अर्थको रखना, बहुत और असम्बद्ध भाषण करना, कौत्कुच्य ( शरीर की कुचेष्टा करना ) और मदनातंता ( कामपीडा ) अर्थात रागके वश होकर हास्यसे परिपूर्ण अशिष्ट वचन बोलना; ये पाँच समस्त वस्तुनोंके विस्तारको जाननेवाले जिनेन्द्र देवके द्वारा अनर्थदण्डव्रत अतिचार कहे गये हैं ।। ९४-९५ ।। अस्थिरत्वास्मृत ( स्मृत्यनुपस्थान ) अर्थात् सामायिकमें एकाग्रताका न रहना; योगदुष्क्रिया अर्थात् मन, वचन एवं काय इन तीन योगोंका सामद्यमें प्रवृत्त होना, और अनादर ( उत्साह न रखना) जिनेन्द्रके द्वारा ये पाँच सामायिक व्रतके अतिचार माने गये हैं ।। ९६ ॥ अदृष्टाप्रमात्रितोत्सर्ग अर्थात् बिना देखी और विना शोधी हुई भूमिके ऊपर मल-मूत्रादि करना, बिना देखे और बिना शोधे पूजाके उपकरणों व वस्त्र आदिको ग्रहण करना, बिना देखे और बिना शोघे विस्तर आदिका बिछाना, अस्मरण और अनादर ये पाँच प्रोषधके अतिचार माने गये हैं । ९७ ॥ सचित्त ( ओबोंसे प्रतिष्ठित वनस्पति आदि ) भोजन, सचित्तसे मिला हुआ भोजन, सचितसे सम्बद्ध भोजन, ठीकसे नहीं पका हुआ भोजन और अभिषव अर्थात् गरिष्ठ भोजन; ये पाँच भोगोपभोगपरिमाण व्रतके अतिचार कहे गये हैं ।। ९८ ॥ सचिन्त पद्मपत्रादिसे आच्छादित आहारको देना, सचित्त पत्ते आदिमें रखे हुए आहारको देना, आहारके कालका उल्लंघन करके आहार देना, दूसरे दाता श्रावकके गुणोंको न सहना - उससे ईर्ष्या रखना और परव्यपदेश अर्थात् स्वयं आहारदान न करके दूसरेके लिये देय वस्तु ( आहार ) को देते हुए उसे आहार देनेके लिये कहना; ये पांच दान ( अतिथिसंविभाग ) के अतिचार माने गये हैं । ९९ ॥ व्याविसे अतिशय पीड़ित होकर मरनेको १ स सामाथिका दिभेदांपत्र वंदिभि° । २ स अस्थिरत्वं । ३ स स्मृतं । ४ स अदृष्ट, अदृष्ट्व । ५ स ० दानं° । ६ स "संस्तरक:°, "संस्तरक" । ७स क्रियाम्, ° क्रिया । ८ स सच्चित" । ९ स " संबंध, वासिताः, दुष्पक्वात्रिषवासिता । १० स om. 99 ११ स शंसो, संशे, संशे । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 867 : ३१-१०६] ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तवंशोत्तरं शतम् ___162) शङ्काकाक्षाचिकित्सान्य'प्रशंसासंस्तवा मलाः । पञ्चेमे दर्शनस्योक्ता जिनेन्नेषुत कल्मषैः ॥ १०१॥ 863) इत्येवं सप्ततिः प्रोक्ता मलानाममलाशयैः । सस्या धुवासतो षायें भावकैवतमुत्तमम् ॥ १०२॥ 864) यो वषाति नरः पूतं श्रावकव्रतचितम् । मामरश्रियं प्राप्य यात्यसो मोसमक्षयम् ॥ १०३॥ 865) भ्रनेत्रा गुशिहुंकारशिरःसंशाधिपातम् । कुर्भोिजनं कार्य भावकमौनमुत्तमम् ॥ १४ ॥ 866) शरच्चन्द्रसमा कोति मैत्री सर्वजनानुगाम् । कन्दर्पसमरूपत्वं ओरत्वं दुषपूज्यताम् ॥ १०५॥" 867) आदेयत्वमरोगित्वं सर्वसस्वानुकम्पिताम्"। धनं धान्य घरों धाम सौख्यं सर्वजनाधिकम् ॥ १०६ ॥ निदानम् इति मलपञ्चक निर्दिष्टम् ।। १०० ॥ धूतकल्मषैः शाकाङ्क्षाचिकित्सान्यप्रशंसासंस्तवाः इमें दर्शनस्य पञ्च मला. उक्ताः ॥ १०१॥ अमलाशयः इति एवं मलानां सप्ततिः प्रोक्ता । तस्याः व्युदासतः श्रावकै उत्तम व्रत मार्यम् ।। १५२ ॥ यः नरः पूतम् अचितं श्रावकवतं दधाति, असी मामरश्रियं प्राप्य अक्षयं मोक्षं याति ॥ १०३ ॥ भ्रनेत्राङ्गलि कारशिरःसंज्ञायपाकृतं भोजनं कुर्वद्भिः श्रावकः उत्तम मौनं कार्यम् ॥ १०॥ [मौनेन बन: ] शरच्चन्द्रसमा कीति, सर्वजनानुगां मैत्री, कम्दपसमरूपरवं, पीरत्वं, बुधपूज्यतां, आदेयत्वम्, अरोगित्वम्, सर्वसस्वानुकम्पिता, धनं, धान्यं, धरा, घाम, सर्व इच्छा करना, जीनेकी इच्छा करना, मित्रोंसे अनुराग रखना, अनुभूत सुखका स्मरण करना और निदान अर्थात् आगामी भवमें भोगोंकी इच्छा करना; ये पांच संन्यास-सल्लेखनाके अतिचार कहे गये हैं।। १०० ॥ जिनवचन. में सन्देह रखना, सुखको स्थिर मानकर उसकी इच्छा करना, साधुके मलिन शरीरको देखकर घृणा करना, मिथ्यादृष्टिके गुणोंकी मनसे सराहना करना और मिथ्याष्टिके गुणोंकी वचनों द्वारा प्रशंसा करना; ये पांच वीतराग जिनेन्द्रके द्वारा सम्यग्दर्शनके अतिचार कहे गये हैं ॥१०१॥ इस प्रकारसे निर्मल अभिप्राय रखनेवाले जिनेन्द्र देवने सत्तर अतिचार ( बारह व्रत, सल्लेखना और सम्यग्दर्शन इनमेंसे प्रत्येकके पांच पांच ) कहे हैं। उन सबका निराकरण करके श्रावकोंको निर्मल प्रतका परिपालन करना चाहिये ॥ १०२।। जो मनुष्य पवित्र एवं पूजित इस श्रावकवतको धारण करता है वह मनुष्य एवं देवोंको लक्ष्मीको प्राप्त करके अविनश्वर मोक्षको प्राप्त होता है ॥ १०३ ॥ श्रावकोंको भृकुटि, नेत्र, अंगुलि, हुंकार (हूं हूं शब्द ) और शिरके संकेत आदिको छोड़कर भोजन करते हुए उत्तम मौनको धारण करना चाहिये ॥ १०४ ॥ मौनको धारण करनेवाले मनुष्यको शरत्कालीन चन्द्रमाके समान धवल कौति फैलती है, उसको समस्त जनसे मित्रता होती है-उससे कोई भी द्वेष नहीं करता है, वह कामदेवके समान सुन्दर होता है, धीर होता है, विद्वानोंसे पूजा जाता है, कान्तिमान होता है, नोरोग होता है, समस्त प्राणियोंके ऊपर दयालु होता है; धन, धान्य, पृथिवी और गृहसे संयुक्त होता है, समस्त जनोंसे अधिक सुखी होता है, उसकी वाणी १स चिकित्सादि। २ स पञ्चमे । ३ स दुत', 'धूत, 'दुत । ४ स तस्य । ५ स मुत्तमं । ६ स नरो । ७ स "मव्ययम् । ८ स शिर संख्या । १ स शम° । १० स पूजतां । ११ स om. !051 १२ स पिता, कपितं । १३ सपरा । सु. सं. २९ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सुभाषिससंदोहः [ 868 : ३१-१०७ । 868) गम्भीरां मधुर वाणी सर्वोत्रमनोहराम् । निःशेषशास्त्रनिष्णातां बुद्धि ध्वस्ततमोमलाम् ॥ १०७ ।। 169) घण्टाकालभृङ्गारचन्द्राय'कपुरःसरम् । विधाय पूजन देयं भक्तितो जिनसपनि ॥ १०८॥ 870) चतुर्विधस्य संघस्य भक्त्यारोपितमानसैः। वानं चतुविषं देयं संसारोण्वमिभिः ॥ १०९॥ 871) यावज्जीवं जनो मोनं यो विषत्ते ऽतिभक्तित.। मोद्यो"तनं परं कृत्वा निर्वाहात कथितं जिनः ॥ ११०॥ 852) एवं त्रिधापि यो मौनं विधते विधिवन्नरः । न दुर्लभं त्रिलोके ऽपि विद्यते तस्य किचन ।। १११ ।। 873) विचित्रशिखराधारं विचित्रध्वनमण्डितम् । विधातव्यं जिनेन्द्राणां मतिरं मम्बरों पमम् ॥ ११२॥ 874) येनेह कारितं सोमं जिनभक्तिमता भुवि । स्वर्गापवर्गसौख्यानि तेन हस्ते कृतानि ॥ ११३ ॥ 875) यापत्तिष्ठति जैनेन्नमन्दिरं परणीतले। धर्मस्थितिः कृता सावज्जैनसोपविधायिना ॥११४ ॥ जनाधिकं सौख्यं, गम्भीरां मधुरां, सर्वोत्रमनोहरी वाणी, श्यस्ततमोमलां निःशेषशास्त्रनिष्णातां बुदि [ लभते ] ॥ १०५१०७ ।। जिनसपनि भक्तितः पूजनं विधाय घण्टाकाहलङ्गारचन्द्रायकपुरःसरं देयम् ।। १०८॥ भक्त्यारोपितमानसः संसारोच्छेदमिछुभिः चतुर्विधस्य संघस्य चतुविषं दानं देयम् ॥ १०९॥ यः जनः अतिमक्तितः यावज्जीव मोनं विधत्ते, जिन: निर्वाहात् परं कृत्वा उद्योतनं न कथितम् ॥ ११॥ यः नरः विधिवत् त्रिधापि मौनं विधत्ते तस्य त्रिलोके अपि किंचन दुर्लभं न विद्यते ॥ ११॥ विचित्रशिखराधार विचित्रध्वजमम्हितं मन्दरोपमं जिनेन्द्राणां मन्दिरं विषातभ्यम् ॥११२।। इह भुवि जिनभक्तिमता येन सौषं कारितं तेन स्वर्गापवर्गसौख्यानि वै कृतानि ।। ११३ ।। जनसोधविधायिना धरणीतले गम्भोर, मधुर और सब श्रोताओंके मनको हरनेवाली होती है, तथा उसकी निर्मल बुद्धि समस्त शास्त्रोंमें प्रवीण होती है ।। १०५-१०७॥ जिनमन्दिर भक्तिपूर्वक पूजा करके घण्टा, मेरी, मृदंग, झारी और चंदोबा आदिको देना चाहिये ।। १०८ ॥ जिनका मन भक्सिसे ओत-प्रोत है तथा जो संसारका नाश करना चाहते हैं उन्हें चार ! प्रकारके संघके लिये चार प्रकारका दान देना चाहिये ॥ १०९ ॥ जो मनुष्य अतिशय भक्तिसे जन्म पर्यन्त मौनको धारण करता है उसके लिये जिन मगवान्ने निर्वाहसे भिन्न उद्यापन नहीं बतलाया है उसके लिये मौनव्रतका उद्यापन विहित नहीं है ॥ ११० । इस प्रकार जो मनुष्य विधिपूर्वक मन, वचन और कायसे उस मोनको धारण करता है उसके लिये तीनों ही लोकोंमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है-उसे सब कुछ सुलभ है ॥ १११ ॥ श्रावकके लिये विचित्र शिखर व आधार सहित तथा विचित्र ध्वजाओंसे सुशोभित मेरुके समान जिनेन्द्रोंके मन्दिर ( जिनभवन ) को कराना चाहिये ॥ ११२ ।। जिसने जिनभक्ति से प्रेरित होकर यहां पृथिवीपर जिनभवनका निर्माण कराया है उसने निश्चयसे स्वर्ग और मोक्षके सुखको हाथमें कर लिया है-उसे स्वर्ग-मोक्षका सुख निश्चित ही प्राप्त होनेवाला है ।। ११३ ॥ जब तक पृथिवीतल पर जिनमन्दिर स्थित रहता १ स चंद्रोपक । २ स.मनो । ३ स om. यो। ४ स विषले चाति' । ५ स नो यातनं, नो द्योतनं। ६ स जनः । ७स मंदिरो। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ 739 : २९-२७ ] ३१. श्रावकधमंकथनसप्तदशोत्तरं शतम् 876) येनाङ्गुष्ठप्रमाणार्चा' जैनेन्द्री क्रियते गिना। तस्याप्यनश्वरी लक्ष्मीन दूरे जातु जायते ॥ ११५ ॥ 877) य: करोति जिनेन्द्राणां पूजनं स्नपनं नरः। स पूजामाप्य निःशेषों लभते शाश्वतों श्रियम् ॥ ११६ ॥ 878) सम्यक्त्वज्ञानभाजो जिनपतिकथितं ध्वस्तबोषप्रपञ्च संसारासारभोता विवधति सुधियो ये व्रतं श्रावकोयम् । भुक्त्वा भोगा'नरोगान् परयुवतिपुताः स्वर्गमत्येश्वराणां ते नित्यानन्तसौल्यं शिवपदमपदं व्यापयाम्ति माः ॥ ११७ ॥ ॥ श्रावकधर्मफ धनसप्तदशोसरं शतम् ॥ ३१ ॥ यावत् जैनेन्द्रमन्दिरं तिष्ठति तावत् धर्मस्थितिः कृता ॥ ११४॥ येन अङ्गिमा अङ्गष्ठप्रमाणा बेनेग्री अर्चा क्रियते तम्य अपि अनश्वरी लक्ष्मीः जातु दूरे न जायते ।। ११५ ।। यः नरः जिनेन्द्राणां पूजन स्नपनं करोति स निःशेषां पूजाम आप्य शाश्वती श्रियं लभते ।। ११६ । सम्परत्वशानभाजः संसारासारभोताः सुधिय: ये मर्त्याः जिनपतिवमितं ध्वस्तदोषप्रपन श्रावकीयं व्रतं विदधति ते बरयुवतियुताः स्वर्गमयैश्वराणाम् अरोगान् भोगान् भुक्त्वा व्यापद्यम् भपदं नित्यानन्तसौम्य शिवपदं यान्ति ।। ११७ ।। इति प्रावकधर्मकथनसप्तदशोत्तरं शतम् ॥ ३१ ॥ है तब तकके लिये उक्त जिनमन्दिरका निर्माण करानेवाला श्रावक धर्मको स्थितिको कर देता है तब तक वहाँ धर्मकी प्रवृत्ति चालू रहती है ॥ ११४ ।। जो प्राणो अंगूठेके बराबर भी जिनेन्द्र देवकी प्रतिमाको करता है है उसके भी अविनश्वर लक्ष्मी ( मोक्ष लक्ष्मी ) कभी दूर नहीं रहती है, अर्थात् वह भी शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मीका स्वामी बन जाता है ॥ ११५ ।। जो मनुष्य जिनेन्द्र देवको पूजा एवं अभिषेकको करता है वह समस्त पूजाको प्राप्त होकर-सबका पूज्य होकर-नित्य लक्ष्मीको (मोक्ष सुखको) प्राप्त करता है ॥ ११६ ॥ जो निर्भल. बुद्धि मनुष्य संसारको असारतासे भयभीत होकर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे विभूषित होते हुए जिन भगवानके द्वारा प्ररूपित निर्दोष श्रावकके व्रतको देश चारित्रको धारण करते हैं वे उत्तम युवति स्त्रियोंसे सेवित होते हुए नीरोग रहकर इन्द्र और चक्रवर्तीके भोगोंको भोगते हैं और फिर अन्तमें नित्य एवं अनन्स सुखसे संयुक्त निरापद मोक्ष पदको प्राप्त होते हैं ॥ ११७ ॥ इसप्रकार एक सौ सतरह श्लोकोंमें श्रावक धर्मका निरूपण किया। १ स णाा , 'चं, 'त्व । २ स पुजामप्य । ३ स भोगानरो 17 स व्यापदं । ५ स निरूपणम् । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२. द्वादशविधतपश्चरणषट्त्रिंशत् ] . 879) प्रणम्य सर्वतमनन्तमोपवरं जिनेन्द्रचन्द्रं धुत'कर्मवन्धनम् । विनाश्यते येन तुरन्तसंसृतिस्तदुच्यते मोहतमोपहं तपः ॥१॥ 880) विनिर्मलानन्तसुखेककारणं दुरन्तदुःखानलवारिवागमम् । द्विषा तपो ऽभ्यन्तरबागभेदतो ववन्ति षोढा पुनरेकशी जिनाः ॥ २ ॥ 381) करोति साधुनिरपेक्षमानसो विमुक्तये मन्मथशत्रुशान्तये। तवास्मशक्त्याननं तपस्यता विधीयते येन मनःकपिर्वशः ॥३॥ 882) शमाय रागस्य वशाय चेतसो जयाय निवातमसो बलीयसः । श्रुताप्तये संयमसामनाय च तपो विषसे मित भोजनं मुनिः ॥ ४ ॥ धुतकर्मबन्धनं सर्वशम् अनन्तम् ईपवरं जिनेन्द्रचन्द्रं प्रणम्य येन दुरन्तसंसृतिः विनाश्यते तत् मोहतमोपहं तपः उच्यते ॥ १ ॥ जिना: विनिर्मलानन्तसुखककारणं दुरन्तदुःखामलवारिवागमम् अभ्यन्तरगाह्मभेदसः द्विषा तपः वदन्ति । पुनः एकशः षोडा वदन्ति ॥ २॥ निरपेक्षमानसः साधुः मन्मपशत्रुशान्तये विमुक्तये तत् अनशनं तपः करोति । आरमशक्त्या तपस्यता येन मनःकपिः दशः विधीयते ।। ३॥ मुनिः रागस्य शमाय, चेतसः वशाय, वलीयसः निद्रातमसो जयाथ __ सर्वज्ञ, अनन्त, ईश्वर और कर्मबन्धसे रहित जिनेन्द्ररूप चन्द्रको प्रणाम करके जिस तुपके द्वारा दुविनाश संसार नष्ट किया जाता है तथा जो मोहरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाला है उस तपकी प्ररूपणा की जाती है॥१॥ जो तप निर्मल अनन्त सुखका प्रधान कारण होकर दुविनाश दुखरूप अग्निको शान्त करनेके लिये मेघोंके आगमनके समान है जसे जिनदेव बाह्य एवं अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका बतलाते हैं । इनमें भी प्रत्येक के छह छह भेद हैं ।। २ ॥ जिस अनुष्ठित अनशन तपके द्वारा मनरूप मर्कट वशमें किया जाता है उसको मुनि मनमें किसी प्रकारके सांसारिक फलकी अपेक्षा न रखकर कामरूप शत्रुको शान्त करके मोक्षप्राप्तिके लिये अपनी शक्तिके अनुसार करते हैं ॥ ३ ॥ विशेषार्थ-इच्छाओंके रोकनेका नाम तप है। वह दो प्रकारका है बाह्य तप और अभ्यन्तर तप। जिस तपका प्रभाव बाह्य शरीर एवं इन्द्रियोंके ऊपर पड़ता है तथा जो बाह्यमें प्रत्यक्ष देखा जा सकता है वह बाह्य तप कहा जाता है। उसके छह मेद हैं-अनशन, मितभोजन { ऊनोदर ), वृत्तिपरिसंस्थान, रसपरित्याग, कायक्लेश और विविक्तशय्याशन । इनमें अन्न-पानादि चार प्रकारके आहारके परित्यागको अनशन तप कहा जाता है । जिसप्रकार बंदर इधर उधर वृक्षादिके ऊपर दौड़ता हुआ कभी स्थिर नहीं रहता है उसी प्रकार मनुष्यका मन भी विषयोंमें निरन्तर दौड़ता हुआ कभी स्थिर नहीं रहता है । उसको प्रकृत अनशन तपके द्वारा स्थिर किया जाता है। कारण यह है कि भोजनके द्वारा ही इन्द्रियाँ एवं मन उद्धतताको प्राप्त होते हैं । अतएव उक्त भोजनके परित्यागसे वे स्वभावतः शान्त रहते हैं। इनकी शान्तिसे प्रबल काम ( विषयवांछा ) भी स्वयं शान्त हो जाता है । इस प्रकारसे साधु अपनी शक्तिके अनुसार उक्त अनशन तपको करता हुआ कामको शान्त करके अन्तमें मुक्तिको भी प्राप्त कर लेता है ।। ३ ।। मुनि राग-द्वेषको शान्त करनेके लिये, मनको वशमें करनेके लिये, अतिशय बलवान् निद्रारूप अन्य.. १ स "दुत°, "द्रुत । २ स विनाशते । ३ स तमः । ४ स 'कारिणे । ५ स तपोभ्यन्तर । ६ स तपस्पतो, तपस्यते । ७ स वशम् । ८ स मिति । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 885 : ३२-७] ३२. द्वादशविधतपश्चरणपत्रिंशत् 883) विचित्रसंकल्पलता विशालिनों यतो यतिर्दुःखपरंपराफलाम् । लनाति तष्णावति समलतस्तदेव वेश्मादिनिरोधनं तपः ॥५॥ 884) विजित्य लोकं निखिलं सुरेश्वरा वशं न नेतुं प्रभवो भवन्ति यम् | प्रयाति येनाक्षगणः स पश्यतां रसोजमनं तषिगदन्ति साधवः ॥६॥ 885) विचित्रभेदा तनुबाधनक्रिया विधीयते या श्रुतिसूचितामात् । तपस्तनुक्लेशमदः प्रचक्ष्यते "मनस्तनुक्तेशविनाशनक्षमम् ।। ७ ।। अताप्तये व संयमसाधनाय मिनभोजनं तपः विधत्ते ॥ ४ ॥ यतः यतिः दुःसपरंपराफला विशालिनी विचित्रसंकल्पलतां तृष्णावति समूलतः लुनाति, तदेव वेश्मादिनिरोधनं तपः अस्ति ।। ५ ॥ सुरेश्वराः निखिलं लोकं विजित्य यं वर्श नेतुं प्रभवः न भवन्ति स अक्षगणः मैन वश्यतां प्रयाति, साघवः तत् रसोजानं निगदन्ति ।। ६ ।। या विचित्रभेदा तनुबाचनक्रिया श्रुतिसूचितकमात् विधीयते, मनस्तनुक्लेशविनाशनक मम् बदः सनुपलेशं तपः प्रवक्ष्यते ॥ ७ ॥ स्त्रीपशुपण्डवजिते निवासे कारको जीतनेके लिये, आगमज्ञानको प्राप्त करनेके लिये तथा संयमको सिद्ध करनेके लिये मितभोजन ( अवमोदर्य तपको करते हैं-अनशनकी शक्ति न रहने पर संयम एवं स्वाध्यायके साधनार्थ अल्प भोजनको ग्रहण करते हैं।॥ ४ ॥ जो विस्तृत तृष्णारूप बेल अनेक प्रकारकी संकल्प-विकल्परूप शाखाओंसे सहित होकर दुख-परम्परारूप फलोंको उत्पन्न करती है वह जिस तपके द्वारा जड़-मूलसे छिन्न-भिन्न कर दी जाती है उसे वेश्मादिनिरोध ( वृत्तिपरिसंख्यान ) कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि आहारके लिये जाते हुए संयमके साधनार्थ जो दो चार गृह जाने आदिका नियम किया जाता है उसे वेश्मादिनिरोध या वृत्ति परिसंख्यान तप कहते हैं ॥५॥ विशेषार्थ—इस तपमें साधु गृह, दाता एवं पात्र आदिके विषयमें अनेक प्रकारके नियमोंको करता है। यथा आज मैं दो ही घरों में प्रवेश करूंगा; यदि इनमें विधिपूर्वक निरन्सराय आहार प्राप्त हुआ तो लूंगा, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार वृद्ध, युवा अथवा महिला यदि जूतोंसे रहित ( नंगे पैर) होकर मार्गमें प्रतिग्रह करेगी तो मैं आहार ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं। वह पात्रके विषयमें भी नियम करता है कि यदि आज सुवर्ण अथवा चाँदीके पात्रसे आहार प्राप्त होगा तब ही उसे ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं ! इसप्रकारसे वह संयमको सिद्ध करने तथा सहनशीलताको प्राप्त करनेके लिये अनेक प्रकारके नियमोंको करता है तथा तदनुसार यदि आहार प्राप्त हो जाता है तो उसे ग्रहण करता है। परन्तु यदि इस प्रकारसे उसे आहार नहीं प्राप्त होता है तो वह इसके लिये न तो खिन्न होता है और न दाताको भी अविवेकी या मूर्ख समझता है ||५|| इन्द्र समस्त लोकको जीत करके भी जिस इन्द्रियसमूहको वशमें करनेके लिये समर्थ नहीं होते हैं वह इन्द्रियसमूह जिस तपके द्वारा अधीनताको प्राप्त होता है उसे साघु जन रसपरित्याग तप कहते हैं । अभिप्राय यह कि दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक इन छह रसोंमेंसे अथवा तिक्त, कडुआ, कषाय, आम्ल और मधुर इन पांच रसोंमेसे एक दो आदि रसोंका परित्याग करना, इसे रस परित्याग सप कहा जाता है ॥ ६॥ आगममें सूचित क्रमके अनुसार शरीरको बाधा पहुँचानेवाली जो अनेक प्रकारको क्रिया (जैसे दण्डके समान स्थिर रहकर सोना तथा पर्यकासन एवं वीरासन आदिको लगाकर ध्यान करना आदि ) की जाती है उसे कायक्लेश तप कहा जाता है। वह मन एवं शरीरके संक्लेशको नष्ट करने में समर्थ है ।। ७ ।। मुनि स्वाध्याय व ध्यान आदि १स फलम् । २ स तदेक । ३ स स्वरे' । ४ स यः, ये । ५ स साधक ! ६ स विपित्रा येन तनु । ७ स प्रवक्षते । ८ स मनुस्त। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० सुभाषितसंदोहः [886 : ३२-८ 886) यदासन स्त्रीपशुषणढवाजते मुनिनिवासे पठनादिसिद्धये। विविक्त शय्यासनसंज्ञकं तपस्तपोधनस्तद्विदधाति मुक्तये ॥ ८॥ 887) मनोवचःकायवशानुपागतो विशोध्यते येन मलो मनीषिभिः। श्रुतानुरूपं मलयशोधनं तपो विधीयते तदातशुबिहेतवे ॥ ९॥ 888) प्रयाति रत्नत्रयमुज्ज्वलं यतो" यतो हिनस्यजितकर्म सर्वथा। यतः सुखं नित्यमुपैति पायन विधीयते ऽसौ बिनयो यतीश्वरैः ॥ १० ॥ 'पठनादिसिद्धये यत् आसनं तत विविक्तशय्यासनसंज्ञक तपः । तपोधनः तत् मुक्तये विदधाति ॥ ८॥ मनीषिभिः येन । मनोवचःकायवशात् उपागतः मलः विशोध्यते, तत् मलशोधनं तपः अतदिहेतवे श्रुतानुरूपं विधीयते ।। ९ ॥ यतः पतिः उज्ज्वलं रलत्रयं प्रयाति । यतः अजितकर्म सर्वथा हिनस्ति । यतः पावनं नित्यं सुखम् उपति, यतीश्वरः असो बिनयः विधीयते ॥ १०॥ व्रतशोलशालिनाम् मनेकरोगादिनिगीहितात्मना तपोधनानाम् आदरात शरीरतः च प्रासुकभेषजेन की सिद्धि के लिये जो स्त्री और पशुओंके समूहसे रहित निरुपद्रव स्थानमें आसन लगाकर स्थित होते हैं उसे विविक्तशय्यासन नामक सप कहते हैं। उसे तपरूप धनके धारक साधु मुक्तिप्राप्तिके निमित करते हैं।॥ ८॥ बुद्धिमान मनुष्य जिस तपके द्वारा मन, वचन एवं कायकी प्रवृत्तिके वश उत्पन्न हुए मलको आगमानुसार शुद्ध करते हैं उसे मलशोषन ( प्रायश्चित्त ) तप कहते हैं। उसे साधुजन व्रतकी शुद्धिके लिये किया करते हैं ॥९॥ जिस सपसे जीव निर्मल रत्नत्रयको प्राप्त होता है, जिससे संचित कर्मको सर्वथा नष्ट कर देता है, तथा जिससे पवित्र शास्वतिक सुखको प्राप्त करता है; उस विनय तपको मुनिराज किया करते हैं ।। १० । विशेषार्थविनयका अर्थ है उद्धतताको छोड़कर नम्रताको धारण करना। वह पांच प्रकार है-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचार विनय । इनमें शंकादि दोषोंको छोड़कर निःशांकित आदि आठ अंगोंसे सहित निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करना तथा पांच परमेष्ठियोंकी भक्ति आदि करना, यह दर्शनविनय कहलासा है। कालशुदिपूर्वक हाथ-पांव आदिको धोकर पल्यंक आसनसे स्थित होते हुए बहुत भादरके साथ जिनागमका पढ़ना या व्याख्यान करना, यह ज्ञानविनय है। ज्ञानविनयसे विभूषित साधु उस आगम गुरुकी पूजा व स्तुति करता है, वह जिस मागमको पढ़ाता है या जिसका व्याख्यान करता है उस आगमके तथा जिस गुरुके पास उसने अध्ययन किया है उस गुरुके भी नामको नहीं छिपाकर उसका कीर्तन करता है; इसके अतिरिक्त वह व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि एवं तदुभयशुद्धिके साथ पठन-पाठन करता है। इस प्रकारसे उक्त ज्ञानविनय बाठ प्रकारका हो जाता है । इन्द्रिय एवं कषायोंका निग्रह करना तथा समिति एवं गुप्तियोंका परिपालन करना, यह सब चारित्रविनय है। आतापन आदि उत्तर गुणोंमें उत्साह रखना, उनमें होनेवाले कष्टको निराकुलसापूर्वक सहन करना, उनके विषय में श्रद्धा रखना, उचित छह आवश्यकोंकी हानि या वृद्धि नहीं करना, जिस आवश्यकका जो नियमित समय हो उसी समयमें करना-उसमें हानि या वृद्धि न होने देना, जो साधु अधिक तपस्वी हैं उनमें अनुराग रखना तथा हीन सपस्वियोंकी अवहेलना न करना; यह सब तपविनयके अन्तर्गत है । आचार्य आदिके आनेपर उठकर खड़े हो जाना, उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करना, नम्रतापूर्वक परिमित व मधुर भाषण करना, इत्यादि उपचार विनय है ॥ १० ॥ जो मुनि तपरूप धनसे सम्पन्न हैं तथा १ स यदाशनं । २ स जितो, वजिता, वज्जिते । ३ स विचित्र । ४ स "संज्ञिक । ५ स तपो। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ 894 : ३२-१६] ३२. द्वादशविघतपश्चरणषट्त्रिंशत् 889) तपोधनानां व्रतशोलशालिनामनेकरोगादिनिपीडितात्मनाम् । शरोरतः प्रासुकभेषजेन च विधीयते व्यापति रुज्ज्वलावरात् ।। ११ ॥ 390) नियम्पते येन मनो ऽतिचलं बिलीयते येन पुराजितं रजः । बिहीयते येन भवात्रवो ऽखिल: स्वधीयते तज्जिनवाक्य मचितम् ॥१२॥ 8:1) ददाति यत्सौख्यमनन्तमव्ययं तनोति बोधं भुवनावबोधकम् । क्षणेन भस्मीकुरुते च पातक विधीयते ध्यानमिवं तपोधनः ॥ १३ ॥ 892) यतो जनो भ्राम्यति जन्मकानने यतो न सौख्यं लभते कदाचन । यतो व्रतं नश्यति मुक्तिकारणं परिग्रहो ऽसौ द्विविधो विमुच्यते ॥१४॥ 893) इवं तपो द्वादशभेवचितं प्रशस्तकल्याणपरंपराकरम् । विधीयते यमुनिभिस्तमोपहन लभ्यते तैः किमु सौरुपमव्ययम् ॥१५॥ 894) तपो ऽनुभाषो न किमत्र बुध्यते विशुद्धबोधेरियताक्षगोधरः। यवन्यनिःशेषगुणरपाकृत स्तपो ऽघिकश्चेज्जगतापि पूज्यते ॥१६॥ उज्वला ब्यापतिः विधीयते ॥ ११ ॥ येन अतिचञ्चलं मनः नियभ्यते, येन पुराजितं रजः विलीयते, येन अखिलः भवासवः बिहीयते तत् अचितं जिनवाक्यं स्वधीयते ॥ १२॥ यत् अनन्तम् अव्ययं सौख्यं ददाति, भुवनावबोधक बोध तनोति, क्षणेन च पातकं भस्मीकुरुते, इदं ध्यान तपोषनः विधीयते ॥ १३॥ यतः जनः जन्मकानने भ्राम्यति, यतः सौख्यं कदाचन न लभते, यतः मुस्तिकारणं व नश्यति, असौ द्विविधः परिग्रहः विमुच्यते ॥ १४ ॥ यः मुनिभिः इवं प्रशस्तकल्याणपरंपराकर तमोपहम् अचितं द्वादपाभेदं तपः विधीयतें तैः अव्ययं सौरमं न लभ्यते किम् ॥ १५ ॥ इयता विशुद्धबोधः अब अक्षगोचरः तपोनुभावः न बुध्यते किम् । यत् तपोऽधिक: अनिःशेषगुणैः अपाकृतः अपि जगता पूज्यते ॥ १६॥ विवेकिलोकः दिवाव्रत एवं शीलोंके धारक हैं उनके अनेक रोगों आदिसे पीड़ित होनेपर जो शरीरसे तथा प्रासुक औषधके द्वारा उनके रोगादिको नष्ट करनेका आदरपूर्वक निर्दोष व्यापार ( प्रयत्न ) किया जाता है उसे वैय्यावृत्य कहते हैं ॥ ११॥ जिस जिनवाक्य ( जिनागम ) के द्वारा अतिशय चंचल मनको नियमित ( अधीन ) किया जाता है पूर्वोपार्जित कर्मको नष्ट किया जाता है, तथा जिसके द्वारा संसारके कारणभूत आस्रवको रोका जाता है; उस पूज्य जिनवाक्यका जो उत्तम रोतिसे अध्ययन किया जाता है उसे स्वाध्याय तप कहते हैं ।। १२ ॥ जो ध्यान अनन्त एवं अविनश्वर सुखको देता है, विश्वको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानको विस्तृत करता है, तथा पापको क्षणभरमें नष्ट कर देता है उसे ध्यान कहा जाता है। इसको मुनिजन किया करते हैं ॥ १३ ॥ जिस परिग्रहके निमित्तसे मनुष्य संसाररूप वनमें परिभ्रमण करता है, जिसके कारण वह कभी भी सुखको नहीं पाता है, तथा जिसके निमित्तसे मोक्षका कारणभूत संयम नष्ट हो जाता है वह परिग्रह बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है। उसका परित्याग करना, इसे व्युत्सर्ग तप कहा जाता है। परिग्रहभेदके अनुसार इस तपके भी दो भेद हो जाते हैं-बाह्योपधिब्युत्सर्ग और अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग ॥ १४ ॥ देवादिकसे पूजित यह बारह प्रकारका तप उत्तम कल्याण परम्पराका कारण है । जो मुनि अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले इस तपको करते हैं वे क्या अविनश्वर सुख ( मोक्षसुख ) को नहीं प्राप्त करते है ? अवश्य प्राप्त करते हैं ॥ १५ ॥ निर्मल सम्यग्ज्ञानी जीव क्या इतने मात्रसे उस तपके इन्द्रियगोचर ( प्रत्यक्ष ) प्रभावको नहीं जानते हैं ? कारण कि जो तपमें अधिक है वह अन्य शेष गुणोंसे रहित भी हो तो भी विश्वसे पूजा जाता है ।। १६ । विवेको जन १ स शरीरतो प्राशुक । २ स न्याश्रिपृथि , व्यापृथगु', व्यापथि । ३ स भवानवो । ४ स वाच्य । ५ स 'चरः । ६ सकृतं ! Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सुभाषितसंबोहः [895 : ३२-१७ 895) विवेकिलोफैस्तपसो विवानिशं विधीयमानस्य विलोकितो' गुणः । तपो विषत्ते स्वहिताय मानवः समस्तलोकस्य व जायते प्रियः ॥१७॥ 896) तनोति धर्म विधुनोति कल्म हिनस्ति दुःख विवषाति संभवम् । चिनोति सस्वं विनिहन्ति तामसं सपो ऽयवा किन करोति वेहिनाम् ॥ १८ ॥ 897) अवाप्य नृत्वं भवकोटि बुलभं न कुर्वते ये जिनभाषितं तपः। महाधरनाकरमेत्य सागरं व्रजन्ति ते ऽगारमानसंग्रहाः ।। १९॥ 198) अपारसंसारसमुतारकं न तन्वते ये विषयाकुलास्तपः। विहाय से हस्तगतामृतं स्फुट पिवन्ति मूढाः सुलसिप्सया विषम् ॥२०॥ 899) जिनेन्द्रचन्द्रोक्तिमस्तदूषणं कषायमुक्त विवषाति यस्तपः। ___ नदुर्मभं तस्य समस्सविष्टपे प्रजायते वस्तु मनोज मोप्तितम् ॥ २१ ॥ 900) अहो तुरन्ता जगतो विमूढता विलोक्यता संसृतिदुःखदायिनी। सुसाध्यमप्पन्नविधानतस्तपो यतो जनो दुःखकरो ऽवमन्यते ॥ २२ ॥ . निशं विधीयमानस्य तपसः गुणः विलोक्तिः । मानवः स्वहिताय तपः विधत्ते च समस्तलोकस्य प्रियः जायते ॥ १७ ॥ तपः देहिनां धर्म तनोति, कल्मषं विषुनोति, दुःखं हिनस्ति, समदं विदधाति, सत्त्वं चिनोति, तामसं विनिहन्ति, अथवा कि न करोति ॥ १८ ।। भवकोटिदुर्लभं नत्वम् अवाप्य ये जिनभाषितं तपः न कुर्वते, ते महापरत्नाकर सागरम् एत्य अरत्नसंग्रहाः अगारं ब्रजन्ति ॥ १९॥ ये विषयाकुलाः अपारसंसारसमुदतारकं तपः न तन्वते ते मूडाः हस्तगतामृतं विहाय सुख लिप्सया स्फट विष पियन्ति ॥ २०॥ यः जिनेन्द्रचन्द्रोदितम् अस्तदूषणं कषायमुक्तं तपः विषाति, तस्य समस्सविष्टपे ईप्सित मनोश वस्तु दुर्लभं न प्रवायते ॥ २१ ॥ अहो जगतो दुरन्ता संसृतिदुःखदायिनी विमूढता विलोक्यताम् । अन्नविधानतो ऽपि दिन-रात किये जानेवाले तपके प्रभावको देख चुके हैं। जो मनुष्य अपने कल्याणके लिये उस तपका आचरण करता है वह समस्त लोकका प्रिय हो जाता है ।। १७ ॥ तप धर्मको विस्तारता है, पापरूप मेलको धो देता है, दुखको दूर करता है, हर्षको उत्पन्न करता है, बलको संचित करता है तथा अमानको नष्ट करता है । अथवा ठीक है-वह तप प्राणियोंके किस हितको नहीं करता है ? समस्त कल्याणको करता है ।। १८| जो मनुष्य भव करोड़ों भदोंमें बुलंभ है उसको प्राप्त करके भी जो जीव जिनोपदिष्ट तपको नहीं करते हैं वे महामूल्य रत्नोंको खान स्वरूप समुद्रको प्राप्त हो करके भो रत्लोंके संग्रहसे रहित होते हुए ही भरको जाते हैं ॥ १९ ॥ विशेषार्थ-प्राणीका अनन्त काल तो निगोद आदि निकृष्ट पर्यायोंमें वीतता है। उसे मनुष्य पर्याय बहुत कठिनाईसे प्राप्त होती है। इस मनुष्य पर्यायका प्रयोजन सम्यग्दर्शनादिको धारण करके मोक्षसुखको प्राप्त करना है। कारण यह कि वह मोक्ष मनुष्य पर्यायको छोड़कर अन्य किसी भी पर्यायसे दुर्लभ है। इसलिये जो जीव इस दुर्लभ मनुष्य भवको पा करके भी आरहितमें प्रवृत्त नहीं होते हैं वे उन मूखोंके समान है जो कि रत्नोंके भण्डारभूत समुद्रफे पास पहुंच करके भी खाली हाथ ही घरको वापिस जाते हैं ॥ १९ ॥ जो जीव विषयोंमें व्याकुल होकर अपार संसाररूप समुद्रसे तारनेवाले तपको नहीं करते हैं वे मूर्ख हाथमें स्थित अमृतको छोड़कर सुखको इच्छासे स्पष्टतया विषको पीते हैं ॥ २०॥ जो प्राणी मिनेन्द्ररूप चन्द्रसे प्ररूपित निर्दोष एवं कषायसे रहित सपको करता है उसके लिये समस्त संसारमें इच्छित कोई भी मनोज बस्तु दुर्लभ नहीं होती है ।। २१ ।। जगत्की संसारपरिभ्रमण जनित दुस्खको देनेवाली दुविनाश उस मूढताको तो देखो कि १ स विलोकिता । २४ om, 171 ३ स वन्ति । ४ स मनोन्य । ५ स दुरन्ताय गद्रो ! ६ स विमूढतां । ७ म विलोक्य तां । ८ सवापिनीम् । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 905 : ३२-२७ ] १२. द्वावशविवतपश्चरणधविशत् 901) कृत 'अमरद्विफलो न जायते कृतधमा 'वते ऽनचं सुखम् । कृतम पचेद्विवृते [?] फलाय च न स भ्रमः 'साधुजनेन मन्यते ॥ २३ ॥ 902) अमं विना नास्ति महाफलोदयः श्रमं विना नास्ति सुखं कदाचन । यतस्ततः साधुजनैस्तपः षमो न मन्यते ऽनन्तसुखो महाफलः ॥ २४ ॥ 903) अहर्निशं जागरणोद्यतो जनः श्रमं विषत्तं विषयेच्छया यथा । तपः अमं चेत् कुरुले तथा क्षणं किमस्तुते ऽनम्ससुखं न पावनम् ॥ २५ ॥ 904) समस्तद्दुः खायकारणं तपो विमुष्य "यो ऽङ्गी विषयान्निषेवते । विहाय सोमण सुखावहं विचेतनः स्वीकुरुते बतोपलम् ॥ २६ ॥ 905) ष्टियोगात् प्रियविप्रयोगतः परापमानात नहीन जीवितात्' । अनेकजम्मव्यसनप्रबन्धतो विभेति नो यस्तपसो विभेति सः ॥ २७ ॥ २३३ सुखाभ्यं तपः यतः दुःखकरो जमः अवमन्यते ॥ २२ ॥ कृतश्रमः विफलः न जायते चेत्, कृतश्रमा अनषं सुखं दधते चेत्, कृतमः फलाप विवृते चेतु, साधुजनेन सः श्रमः न मन्यते ॥ २३ ॥ यतः श्रमं विना महाफलोदयः न अस्ति । श्रमं विना कदाचन सुखं न अस्ति । ततः साधुजनः अनन्तसुखः महाफलः तपः श्रमः न मम्पते ॥ २४ ॥ अहर्निशं जागरणोचतो जनः यथा विषयेच्छया धर्म विषते तथा क्षणं तपःश्रमं कुरुते चेत् पावनम् अमन्सुखं न अनुते किम् ॥ २५ ॥ यः लङ्गी समस्तदुःखक्षयकारणं तपः विमुच्य विषयान् निषेवते सः विचेतनः सुखावहम् अनर्घ्यमणि विहाय उपलं स्वीकुवते व ॥ २६ ॥ यः उपसः विभेति सः अनिष्टयोगात् प्रियविप्रयोगतः परापमाभात् धनहीनजीविताद् मनेकजन्मध्यसमप्रयन्यतः मो जिसके कारण प्राणी अन्न के विधानसे उपवास एवं अवमोदयं व्यादिसे - सरलतासे सिद्ध करने योग्य भी सपको दुखकारक मानता है, यह आश्चर्यकी बात है ॥ २२ ॥ यदि किया हुआ परिश्रम व्यर्थ नहीं होता है, यदि श्रमको प्राप्त हुए मनुष्य निष्पाप सुखको धारण करते हैं, तथा किया हुआ परिश्रम यदि फलके निमित्त होता है तो साधु जन उसे श्रम नहीं मानते हैं || २३ ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय इसका यह है कि जिस परिश्रमका कोई फल नहीं होता है ( जैसे ऊसर भूमिको जोतकर उसमें बीज बोने आदिका परिश्रम ) अथवा जिस परि परिश्रम ही वास्तव में परिश्रम कहे श्रम से केवल दुख या किंचित् सुखके साथ अधिक दुख प्राप्त होता है वह जाने योग्य है, क्योंकि उससे प्राणी दुखी ही रहता है । परन्तु तपमें जो कुछ परिश्रम होता है उसे विवेकी साधु कभी परिश्रम ( कष्टकारक ) नहीं समझते हैं; क्योंकि वह निष्फल नहीं होता है, किन्तु मोक्षरूप फलका दायक होता है । अतएव सज्जनोंको सपके परिश्रमको कष्टप्रद न समझ उसमें प्रयत्नशील होना चाहिये ॥ २३ ॥ इसके अतिरिक्त चूंकि परिश्रमके बिना प्राणीको कभी महान् अभ्युदयकी प्राप्ति नहीं होती है तथा उक्त परिश्रमके बिना चूंकि कभी सुख भी नहीं होता है इसीलिये अनन्त सुखरूप महान् फलको देनेवाले तपके लिये परिश्रमको साधुजन कभी परिश्रम (अनिष्ट) नहीं मानते हैं ॥ २४ ॥ मनुष्य दिन-रात जागरण में उद्यत होकर जिस प्रकार विषयमुखकी इच्छासे परिश्रम करता है उस प्रकार यदि क्षण भरके लिये वह तपके लिये परिश्रम करता है तो क्या वह पवित्र अनन्त सुखको नहीं प्राप्त होता है ? अवश्य प्राप्त होता है ||२५|| जो प्राणी समस्त दुःखोंके नाशके कारणभूत सपको छोड़ करके विषयोंका सेवन करता है वह मूर्ख सुखदायक अमूल्य मणिको छोड़ करके पत्थरको स्वीकार करता है, यह खेवकी बात है || २६ || जो प्राणी अनिष्ट वस्तुके संयोग, इष्ट वस्तुके वियोग, १ कृतः श्रम २ जायेते । ३ स कृतः श्रम" भ्रम । ४ सदवले ५ स कृतः श्रम, भ्रमस्वि वि° । ६ संसुजनेन । ७ स योगी ८ स " हानि for होन । ९ स जीवनात् । सु. सं. २० Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ सुभाषितवोहः 906) न बान्धवा न स्वजना न वल्लभा न भृत्यवर्गाः सुहृदो न चा 'ङ्गणाः । शरीरिणस्तद्वितरन्ति सर्वथा तपो जिनोक्तं विदधाति यत्फलम् ॥ २८ ॥ 907) भुक्त्या भोगान रोगानमरयुवतिभिर्भ्राजिते स्वर्गवासे मर्त्यावाले ऽप्यनयन् शशिविशदयज्ञो राशिशुवली कृताशः । यात्यन्ते ऽनन्तसौख्य विबुधजननुतां मुक्तिकान्तां यतो ऽङ्गी जैनेन्द्र तत्तपो ऽलं धुतकलिलमलं मङ्गलं नस्तनोतु ॥ २९ ॥ 908) दुःखक्षोणिरुहायं दहति भववनं यच्छिलीवोद्यदच त्तं धूतबाधं वितरति परमं शाश्वतं मुक्तिसौख्यम् । जारि हन्तुकामा सवनमदभिदस्त्यक्तनिःशेषसंगास्तज्जैनेशं तपो ये विदधति यतयस्ते मनो नः पुनन्तु ॥ ३० ॥ 909 ) जोया जीवा वितत्त्वप्रकटनपटवो ध्वस्त कन्दपंदर्भा 3 निधू तक्रोधयोधा मुदि मदितमदा हृद्यविद्यानवद्याः । ये तप्यन्ते नपेक्षं जिनगविततपो मुक्तये मुक्तसंगास्ते मुक्ति मुक्तबाधाममितगतिगुणाः साधवो नो विशन्तु ॥ ३१ ॥ द [ 906 : ३२-२८ विभेति ॥ २७ ॥ जिनोगतं तपः शरीरिणः यत्फलं सर्वथा विदधाति तत्फलं न बान्धवाः, म स्वजनाः, म वल्लभाः न भृश्यवर्गाः, न सुहृदः, न च अङ्गजाः वितरन्ति ॥ २८ ॥ यतः अङ्गी अमरयुवतिभिः श्राजिते स्वर्गवासे अरोगान् भोगान् भुक्त्वा मयवासे अपि शशिविशदयशोरा शिशुबलीकृताशः अनर्थ्यान् भोगान् भुक्त्वा अन्ते विषुषजननुताम् अनन्तसौख्य मुक्तिकान्तां याति तत् धुतकलिमल जैनेन्द्र तपः नः अलं मङ्गलं तनोतु ।। २९ ।। उद्यचः शिखी व मत् दुःखक्षोणीहायं भवनं दहति यत् पूतं धूतबाधं परमं शाश्वतं मुक्तिसौख्यं वित्तरति तत् जैनेशं तपः ये जन्यारि हन्तुकामाः मदनमदभिदः त्यक्त निःशेपसंगाः यतयः विदधति, ते न मनः पुनन्तु ॥ ३० ॥ जीवाजीवादित्तत्त्वप्रकटनपटवः ध्वस्तकन्दर्पमः दूसरोंके द्वारा किये जानेवाले तिरस्कार, धनसे हीन जीवन तथा अनेक जन्मों में प्राप्त हुए दुःखोंके विस्तार से नहीं डरता है वह तपसे डरता है । अभिप्राय यह है कि जिसे इष्टानिष्टके वियोग संयोगादिकी चिन्ता नहीं वही तपसे विमुख रहता है, किन्तु जो उनसे भयभीत है वह विषयतृष्णाको छोड़कर तपका आचरण करता है || २७ ॥ तप प्राणियों के लिये जिस जिनकथित फलको करता है उसको किसी प्रकारसे न बन्धुजन देते हैं, न कुटुम्बीजन देते हैं, न स्त्री देती है, न सेवक समूह देते हैं, न मित्र देते हैं और न पुत्र भी देते हैं ।। २८ । जिस तपके प्रभाव से प्राणी देवांगनाओंसे सुशोभित स्वर्गमें रोगसे रहित भोगोंको भोगता है तथा जिसके प्रभावसे बड़ चन्द्रमाके समान निर्मल कीर्तिके समूहसे दिशाओं को धवलित करता हुआ मनुष्य लोकमें भी अमूल्य भोगोंको भोगता है और फिर अन्तमें गण्डित जनोंसे प्रशंसित व अनन्त सुखको देनेवाली मुक्तिमणिको प्राप्त करता है वह पापरूप मलको धो डालनेवाला निर्मल जैन तप हमारा अतिशय कल्याण करे ।। २९ । जो जैन तप ज्वालायुक्त, अग्निके समान दुःखोंरूप वृक्षोंसे व्याप्त संसाररूप वनको जला डालता है तथा जो बाधारहित निर्दोष अविनश्वर एवं उत्कृष्ट मोक्ष सुखको देता है उस तपकी समस्त परिग्रहको छोड़कर काम के अभिमानको नष्ट करनेवाले जो मुनि शरीररूप शत्रुको नष्ट करनेकी इच्छासे धारण करते हैं वे हमारे मनको पवित्र करें ॥ ३० ॥। जोव-अजीव आदि तत्त्वोंके प्रगट करनेमें निपुण, कामके मदको नष्ट करनेवाले, क्रोधरूप सुभटके १ सयांगजाः | २. 28 | ३ चर । ४ स तपोभुक्तये । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 912:३२-३४ ३२. द्वादशविधतपश्चरणपत्रिंशत् 910) ये विश्व जन्ममृत्युष्यसनशिखिशिखालीढमालोक्य लोकं संसारोद्वेगवेगप्रचकितमनसः पुत्रमित्रादिकेषु । मोहं मुक्त्या नितान्तं 'घृतविपुलशमाः सपवासं निरस्य याताश्चारित्रकृत्य प्रतिविमलधियस्तास्तुवे साधुमख्यान् ॥ ३२ ॥ 911) पस्मिञ्छुम्भवनोत्थज्वलनकवलनाद भस्मतां यान्त्यगौघाः' प्रोद्यन्मार्तण्डचण्डस्फुरदुर किरणाकोणदिक्चक्रवाला'। भूमिभूता समन्तादुपचित्ततपना संयता ग्रीष्मकाले तस्मिन्छे लानमुपंतविततधृतिच्छत्रकाः प्रश्रयन्ते ॥ ३३ ॥ 912) चश्वविद्युत्कलनाः प्रचुरकरटका० "वर्षधाराः क्षिपन्तोष यनेन्द्रेष्यासचित्रा अधिरित ककुभो मेघसंघा नवन्ति । "व्याप्ताशाकाशदेशास्तस्तलमबलाः संश्रयन्ते क्षपासु" "तत्रानेहस्पसंगाः सततगतिकृता रावभीमास्यभोताः ॥ ३४ ॥ निधू तक्रोधयोषाः मुदि मदितमदाः हृद्यविधानवद्याः मुफ्तरांगाः अमितगतिगुणाः ये साधवः मुक्तये अनपेक्षं जिनगदिततपः तप्यन्ते, ते नः मुक्तवाधा मुक्ति विशन्तु ॥ ३१ ॥ जन्ममृत्युव्यसनशिखिशिखालीढं विश्वं लोकम् आलोक्य संसारोद्वेगवेगप्रचकितमनसः पुत्रमित्रादिकेषु मोहं मुक्त्वा समवासं निरस्य घृतविपुलशमाः धृतिविमलधियः मे चारिश्यकृत्य याताः तान साधुमुख्यान् स्तुवे ॥ ३२ ॥ यस्मिन् शुम्भवनोत्यज्वलनकवलनात् अगौघाः भस्मतां यान्ति, यस्मिन् प्रोद्यन्मार्तण्डचण्डस्फुरदुरुकिरणाकीर्णदिक्चक्रवाला भूमिः समन्तात् उपचिततपना भूता तस्मिन् प्रीष्मकाले धृतवितततिच्छत्रकाः संयताः उग्रं शैला प्रश्रयन्ते ॥ ३३॥ यत्र पञ्चद्विद्युत्कलत्राः बधिरिसककुभः व्याप्ताशाकाशदेशाः मेघसंघाः नदन्ति, तत्र अनेहसि घातक, मदसे रहित तथा मनोहर विद्या ( सम्यम्ज्ञान ) से निष्पाप जो मुनि मुक्तिप्राप्तिके लिये परिग्रहको छोड़कर निःस्पृहतासे जिन भगवान्के द्वारा प्ररूपित तपको तपते हैं वे अपरिमित गुणों से युक्त साधु हमें निर्बाध मुक्तिको प्रदान करें ॥ ३१ ॥ जो साधु जन्म-मरणके दुखरूप अग्निको ज्वालाओंसे घिरे हुए समस्त लोकको देखकर मनमें संसारके दुखसे भयभीत होते हुए पुत्र मित्र आदिके विषयमें मोहको छोड़ चुके हैं तथा जो गृहवासको छोड़कर अतिशय शान्तिको धारण करते हुए चारित्ररूप कार्यके लिये वनमें जा पहुँचे हैं उन धैर्य एवं निर्मल वुद्धिके धारक श्रेष्ठ साधुओंकी में स्तुति करता हूँ॥ ३२ ।। जिस ग्रीष्मकालमें भासमान वनाग्निसे कवलित होकर वृक्षोंके समूह भस्म हो जाते हैं तथा जिसमें उदयको प्राप्त हुए सूर्यको तीक्ष्ण देदीप्यमान किरणोंसे व्याप्त किये गये दिङ मण्डलसे सहित पृथिवी चारों ओरसे संतप्त हो जाती है उसमें संयमी साधु विशाल धैर्यरूप छत्रको धारण करके भीषण पर्वतके शिखरका आश्रय लेते हैं उसके ऊपर स्थित होकर धीरतापूर्वक तप करते हैं ॥ ३३ ॥ जिस वर्षाकालमें चमकती हुई बिजलीरूप स्त्रोसे सहित, बहुत करटकोंसे (?) संयुक्त, जलको धारको छोड़नेवाले, इन्द्रधनुषसे विचित्र वर्णवाले तथा दिशाओंको बधरित ( बहरी ) करनेवाले मेघोंके समूह आकाश एवं दिशाओंको व्याप्त करके गर्जना करते हैं; उस वर्षाकालमें दिगम्बर साधु निरन्तर गतिसे १स घृति । २ पन' । ३ स त ।४ पौधाः । ५ स दुर°1 ६ स वालाः । स भूत्या, भूत्या, भूता। ८ स 'तपनासंयता । ९ स तस्मिश्च । १० स करविका [ : ], करविकावर्ण°, "करकिकाः । ११ स वर्ण । १२ स क्षयंते; क्षपन्ते, क्षियंतो । १३ स °घासाचित्रा। १४ स वधिरिति°, चित्रावधि । १५ सप्ता , व्याप्तांशा। १६ स क्षिपासु, क्षिपाशु । १७ स पाताने । १८ स गतिभाता। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषितसंदोह 913) यत्र प्रालेय राशिमन लिनवनोन्मूलनोद्यत्प्रमाणः सीत्कारी बन्तवीणादधि' कृतिचतुरः प्राणिनां वाति वातः । विस्तार्याङ्ग समग्रं प्रगतभूति 'चतुवंस्मंगा योगिवर्यास्ते ध्यानासक्तचित्ताः पुरुशिशिरनिशाः शीतलाः प्रेरयन्ति ॥ ३५ ॥ २३६ 914) चञ्चच्चारित्रयक प्रवित्रिति 'चतुराः प्रोच्चचर्चाप्रचर्या: " पञ्चाचार प्रचार" प्रचर रुचिचयाश्चारुचित्रत्रियोगाः । वाचामुच्चैः प्रपञ्चं रुचिरविरचने रथंनीयैरवख्यंमित्ययं २ प्राचिता नः पवमचलमनूचानकाश्चापयन्तु ॥ ३६ ॥ इति द्वादशविधतपश्चरणनिरूपणम् ॥ ३२ ॥ [ 913 : ३२-३५ यत्र मनलिनवनोन्मूलनोद्यत्प्रमाणः सततग्रतिकृतारावभीमासु क्षपासु अभीताः अतला असंगाः तत्तलं संश्रयन्ते ॥ ३४ ॥ प्रालेयराशिः, ( यत्र ) प्राणिनां सरकारी दन्तवीणारुचिकृतिचतुरः वाढः वाति [ पत्र ] समस्तम् अङ्गं विस्ता प्रगतधृतिचतुर्वगाः ध्यानासक्तचित्ताः ते योगिवर्याः शीतलाः पुरुशिशिरनिशाः प्रेरयन्ति ॥ ३५ ॥ चञ्चच्चारित्रचक्रप्रविचिति चतुराः प्रोन्चचर्चाप्रचर्याः पञ्चाचारप्रचारप्रचुररुचित्रयाः चारचित्रत्रियोगाः रुचिरविरचनैः अर्चनीयः वाचाम् उच्चैः प्रपञ्चः प्राचिताः अनूचानकाः इति अवयम् अर्घ्यम् अषलं पदं नः अर्पयन्तु ।। ३६ ।। इति द्वादशविधतपश्चरणनिरूपणम् ॥ ३२ ॥ किये गये शब्दोंसे भयको उत्पन्न करनेवाली रात्रियोंमें निर्भय होकर स्थिरतापूर्वक वृक्षतलका आश्रय लेते हैं || २४ || जिस शीतकाल में वृक्षों एवं कमलोंके बनको नष्ट करनेवाली प्रचुर बर्फ गिरती है और जिसमें सीसी शब्दको करानेवाली तथा प्राणियोंके दाँतोंरूप वीणा के शब्दके करनेमें चतुर वायु बहती है अर्थात् जिस शीतकालमें अति शीतल वायुसे प्राणियोंके दाँत किटकिटाने लगते हैं तथा वे सी-सी करने लगते हैं; उस शीतकालमें अतिशय धैर्यको धारण करके चतुष्पथ ( चौरास्ते) में स्थित वे श्रेष्ठ साधु अपने समस्त शरीरको विस्तृत करके ध्यान में मनको लगाते हुए अतिशय शीतल रात्रियोंको बिताते हैं || ३५ ॥ जो साधु निर्मल चारित्ररूप चक्रके संचयमें चतुर हैं, उत्कृष्ट तत्त्वचर्चा के कारण विशेष पूज्य हैं, सम्यग्दर्शनादिरूप पंचाचार के प्रचार में अनुराग रखते हैं, अनेक प्रकारके सुन्दर कार्यों में तीनों योगोंको प्रवृत्त करते हैं, देवादिकोंके द्वारा सुन्दर रचनावाले पूज्य वचनोंके विस्तारसे पूजित है, तथा सिद्धान्त के पारंगत है, वे हमें लोकपूज्य स्थिर पद (मोक्ष) को प्रदान करें ॥ ३६ ॥ इसप्रकार बारह प्रकारके तपश्चरणका निरूपण हुआ ! १स राशि २ सात्का", सात्कारं । ३ स इति । ४ स प्रा° प्राणि वातः । ५ स विस्तीर्याङ्गं विस्तार्यङ्गं । ६ स "वृत्त" । ७ स चक्रे । ८ स चित° । ९ स प्राच प्रचय, प्रोचदो (?) वीं, प्रोवचार्चीप्रवर्ध्यात्, प्रभ्ववाली, प्रोच्चचादी प्रचय। १० स चारे प्रचारः प्रचर । ११ स . प्रचुर । "य", "त्यव्यं, "वयं नित्यच्यं प्रातानः, प्राच्यंतानः प्राच्यंता, प्रांचिता । १३ स १२ स कार्म्य तु वर्ज्य नित्य, "बच्चे", दचार्जयंतु, रवर्जयंतु । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 915) 'आसीद्विध्यस्तकन्तोविपुलशमभूतः श्रीमतः कान्तिकः सुरेर्यातस्य पारं श्रुतसलिलनिषेवैवसेनस्य शिष्यः । विज्ञाता शेषशास्त्री व्रतसमिति भूतामप्रणीर स्कोपः श्रीमान्मान्यो मुनीनाममितगतियति स्वयंक्तनिःशेषसंग ॥ १ ॥ 916) अलङ्घ्य महिमालयो विपुलस स्ववान् रत्नषिवरस्थिरगभीरतो गुणमणिस्तपो वारिधिः । समस्तजनतामतां' श्रियमनवरों देहिनां "सदा मलजलच्युतो विबुधसेवितो बत्तवान् ॥ २ ॥ 917) तस्य ज्ञात समस्तशास्त्रसमयः शिष्यः सतामप्रणोः श्रीमन्मायुरसंघसाधु तिलकः श्रीनेमिषेणो ऽभवत् । शिष्यस्तस्य महात्मनः शमयुतो निघू तमोहद्विषः श्रीमान्माषवसेनसूरिरभवत् क्षोणीतले पूजितः ॥ ३॥ 918) कोपारातिविघातको ऽपि सक्नुपः सोमो ऽप्यदोषाकरो जैनो ऽभ्युप्रतपोरतो" गतभयो भीतो ऽपि संसारतः | निष्कामो ऽपि समिष्टमुक्तिवनितायुक्तो ऽपि यः संयतः सत्यारोपितमानसो भूतविधो ऽप्ययं प्रियो ज्यप्रियः ॥ ४ ॥ 13 कामवासना से रहित, अतिशय शान्तिके धारक, लक्ष्मीसे सम्पन्न, निर्मल कीर्ति से सहित तथा श्रुतरूप समुद्रके पार पहुँचे हुए श्री देवसेन सूरि हुए। उनके शिष्य अमितगति यति हुए। ये अमितगति यति समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता, व्रत व समितियोंके धारक साधुओं में श्रेष्ठ, क्रोधसे रहित, लक्ष्मीसे संयुक्त, मुनियोंके मान्य और समस्त परिग्रहसे सहित थे ॥ १ ॥ अलंघ्य महिमाके स्थानभूत, अतिशय सत्त्वशाली, उत्तम स्थिरता एवं गम्भीरतामें समुद्रके समान, गुणों में श्रेष्ठ, तपके समुद्र, निरन्तर मलरूप जलसे रहित और विद्वानोंसे पूजित वे अमितगति यति प्राणियोंके लिये समस्त जनताको अभीष्ट ऐसी अविनश्वर लक्ष्मीके देनेवाले ये ॥ २ ॥ उनके शिष्य समस्त शास्त्रोंके रहस्य के जानकार, सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ मोर श्रीसम्पन्न माथुर संघके साधुओं में अग्रगण्य श्रीनेमिषेण हुए। मोहरूप शत्रुको नष्ट कर देनेवाले उस ( नेमिषेण ) महात्मा के शमयुक्त व पृथिवीतलमें पूजित माधवसेन सुरि हुए ॥ ३ ॥ वे क्रोधरूप शत्रुके घातक हो करके भी दयालु थे, सोम (चन्द्र) अर्थात् आह्लाद जनक होते हुए भी दोषाकर ( चन्द्र ) अर्थात् दोषोंकी खान नहीं थे, जैन हो करके भी तीक्ष्ण तपमें आसक्त थे, निर्भय हो करके भी संसार से भयभीत थे, कामसे रहित हो करके भो अभीष्ट मुक्तिरूप स्त्रीसे सहित थेमोक्ष प्राप्तिको इच्छा रखते थे, संयत हो करके भी सत्यमें मन लगाते थे, वृष । बेल व धर्म ) के धारक हो करके भी पूज्य थे, तथा लोकप्रिय हो करके भी प्रेमसे रहित थे ॥ ४ ॥ कामरूप शत्रुको नष्ट करनेवाले, भव्य - 1 १ स आशीविष्वस्त । २ स कांत, कान्तकीर्तिः । ३ स समितिमिताभ ४ सom यति । ५ स After this uerse इति द्वादश ctc. ६ स आलिय । ७ स पपो, पयो । ८ स जनता सतां । ९ स सदा मत । १० स श्रीमान्मा । ११ सयुग्रतरस्तपो म्युग्रतरस्तपोगतभयो । १२ सom. ऽपि to यः । १३ स श्ययंत्रियो । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित संदोहः 919 ) दलितमदनशत्रो भव्य निर्व्याजबन्धोः शमदमयम मूर्तश्चन्द्रशुभ्रोरुकीर्तेः । अमितगतिरभूद्यस्तस्य शिष्यो विपश्चिद्विरचितमिदमयं तेन शास्त्रं पवित्रम् ॥ ५॥ 920) यः सुभाषितवोहं : शास्त्रं पठति भक्तितः । केवलज्ञानमासाद्य यात्यसौ मोक्षमक्षयम् ॥ ६ ॥ 921) यावच्चन्त्र दिवाकरो दिवि गतौ भिन्त स्तमः शावरं सावन्मेतरङ्गिणीपरिवृढौ' नो मुञ्चतः स्वस्थितिम् । यावद्याति तरङ्गभङ्गुरतनुगंङ्गा हिमाभू तावच्छास्त्रमिदं करोतु विदुषां पृथ्वीतले संभवम् ॥ ७ ॥ तत्रिदशवसति विक्रमनृपे २३८ 922) समा सहस्त्रे वर्षाणां प्रभवति हि पश्चाशदधिके । समाप्तं पञ्चम्यामदति धरणों मुझनृपतो सिते पक्षे पौधे बुधहितमिवं शशस्त्रममघम् ॥ ८ ॥ [ 919 : ३२-५ जनों के निष्कपट बन्धु राम, दम और यमकी मृतिस्वरूप; तथा चन्द्रके समान घवल महती कीर्तिसे सुशोभित उन माधवसेन सूरिके शिष्य जो विद्वान् अमितगति हुए उन्होंने इस अर्थपूर्ण पवित्र शास्त्रको रचा है || ५ || जो भक्तिपूर्वक इस सुभाषितरत्न संदोह शास्त्रको पढ़ता है वह केवलज्ञानको प्राप्त करके अविनश्वर मोक्षपदको प्राप्त होता है ॥ ६ ॥ जब तक आकाशमें स्थित चन्द्र और सूर्य रात्रिके अन्धकारको नष्ट करते हैं, जब तक मेरु और नदियोंका अधिपति समुद्र अपनी स्थितिको नहीं छोड़ते हैं, और जब तक तरंगोंसे क्षीण शरीरवाली गंगा नदी हिमालय पर्वत से पृथिवीको प्राप्त होती है— पृथिवीके ऊपर बहती है; तब तक यह शास्त्र पृथिवीतलपर विद्वानोंको प्रमुदित करे ॥ ७ ॥ विक्रम राजाके पवित्र स्वर्गको प्राप्त हुए पचास अधिक एक हजार ( १०५० ) वर्षोंके बीत जाने पर मुंज राजाके पृथिवी पर शासन करते हुए-मुंजके राज्यकालमें - पौष मास के शुक्ल पक्ष पंचमी तिथिको पण्डितजनोंका हित करनेवाला यह निर्दोष शास्त्र समाप्त हुआ ॥ ८ ॥ १ स मूर्ति । २ स ' कीर्तिः । ३ समये । " वसतिः, " वसतिवि सते for वसति । ८ स समाप्ते । ४स संदेहं संदोह । ५ । ६ स दृठौ । ७ स Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका अ० श्लोक ३२-३८ ७-२२ २८-१ २७-२४ ७-११ १०-२१ १४-२९ २१-१७ २१-६ ३१-९४ १-६ अक्ष्णोयुग्मं विलोकात् अचिन्त्यमतिदुःसहं मतिकुपितमनस्के अतियारा जिनः प्रोक्ता: अतीतेऽनन्तशः काले अत्यन्तभीमबनजीब अत्यन्तं कुस्ता रसायन अदृष्टमर्जितोत्सर्गा अधस्तनश्वभ्रभुवो अध्येति नृत्यति लुनाति अनगसेवनं तीन अनन्त कोपादि चतुष्टयो मनिल्यं निस्त्राणं अनिष्टयोगास्त्रियविप्र अनुगमोत्पादन वाम अनुशोचनमस्तवि बनेकगतिचित्रितं अनेक जीवपातोत्थं अनेक दोषदुष्टस्य अनेकतिप्रगुणेन अनेकपायगुण अनेकभव संचिता अनेकमलसंभवे मनायजे स्यात्परमा अन्यत्कृत्यं मनुजश्चिन्त अन्यदीयमविचिन्त्य अन्यदीय विवाहस्य अपायकलिता तनु अपारसंसारसमुद्र मब्धिन तृप्मति यथा अभव्यजीवो वचन अमुक्त्यनुपवासक अर्थः कामो धर्मः ब. श्लोक अर्था बहिस्सरा: प्राणाः ६-२ अलध्यमहिमालयो १०-११ अलब्धदुग्धादिरसो २८-८ अवति निखिललोक ३१-९१ अवन्ति ये जनकसमा ३१-६६ अवाप्य नृत्वं भवकोटि ४-१८ अवैति तत्वं सदसत्व १२-१५ अवैतु शास्त्राणि नरो ३१-९७ अशान्तहुतभुक शिखा ७-४२ अशुभोदय बनानां ४-१. अश्नाति यः संस्कुरुते ३१-८८ अनाति यो मांसमसो ७-२१ असमीक्ष्य क्रियाभोगो १३-२३ असुभृतां वधमाचरति ३२-२७ असुरसुरनरेशां ९-१६ अस्थिरत्वास्मृतयोग २९-१८ अस्यस्युच्चैः शकलित १०-१० अहर्निशं जागरणोचतो २२-५ अहह कर्म करीयति २२-१६ बहह नयने मिथ्या दृग्वत् ७-२४ अहो दुरन्ता जगतो विभू ८-१ अलि रविर्दहति त्वपि १०-१३ १०-५ आकाशतः पतितमेत्य २१-१ आक्रुष्टोऽपि व्रजति १४-२० आत्मप्रशंसापरः २५-८ बारमानमन्यमय हन्ति ३१-८९ आदाननिक्षेपविधे १३-७ आदित्यचन्द्रहरि १२-२० बादेयत्वमरोगिवं ५-१५ ानीतिः पुद्गलक्षेपः ७-१९ बापातमात्ररमणीय ३१-४९ वातरोद्रपरित्यक्तः १५-२१ आयासशोकमयदुःख १८-२० ३२-२५ २०-८ ११-२० ३२-२२ आ ३०-१२ १८-२४ ९-१५ २-९ ५-२१ ३१-१०६ ३१-९३ ५-१६ ३१-७४ ३-८ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आसीविश्वस्तकन्तो आस्तां महाबोधिबलेन आहारपान-ताम्बूल आहारभोजी कुरुते आहारवर्ग मुलभे सुभाषितसंदोहः ३२-३७ एको मे शाश्वतश्चात्मा ८-१२ एवं चरित्रस्य चरित्र ३१-५२ एवं विद्यापि यो मोनं २१-५ एवमनेकविध विद २१-१५ एवमपास्तमतिः क्रमतो एवं विलोक्यास्य गुणा एवं सर्वजगद्विलोक्य २१-१५ एवं सर्वजनानां १०.२५ ३१-१०२ ३२-१५ औषधायापि यो ३१-१११ २३-१० २३-११ ८-10 १२-२६ १५-२२ २२-९ इति तत्वषिय: परिचित्य इति प्रकुपितोरगप्रमुख इत्येवं समतिः प्रोक्ता इदं तपो द्वादशभेद इदं स्वजन देहजा इमा यदि भवन्ति नो इमा हास्थान स्वजन इमे मम धनाङ्गज इह दुःखं नृपादिभ्यः २८-१० ७-१४ २१-१३ ८-२८ १०-१४ १९-२१ १५-२० १६-२२ उत्तमकुलेऽपि जातः उत्तमोऽपि कुलजोऽपि उदितः सममः श्रयते उदत्तुं धरणों निशाकर उद्यगन्धप्रबन्ध उद्यज्ज्वालावलीभिः उद्यन्महानिलवशोत्थ उपधि बसति पिण्डान् उष्णोदकं प्रतिगृह उष्णोदकं साधुजनाः १५-१२ १३-१० कपटशतनदीष्णः करोति घोषं न तमत्र १०-१५ करोति मांस बल करोति संसारशरीर करोति साधुनिरपेक्ष १५-१६ करोम्यहमिदं तदा कारण्यं दहति शिखि २९-३ कमाणि यानि लोके १२-१३ कानिष्टं विधत्ते ६-२ कर्मन्धनं यदज्ञानात ६-१६ कर्षति वपति लुनौते ४-१४ करूय पुत्रादिनिमित्त १-१५ कलाहमातनुते मदिरा ९-१ कथाममुक्तं कथित कषायसंगो सहते कस्यापि कोपि कुरुते कात्र श्रीः प्रोणिबिम्बे २२-१५ कान्ता: किं न शशारूकान्ति २२-१३ कार्य मावदिदं करोमि २३-२४ कार्याणां गतयो भजन ३१-६९ कालेनस्य क्षुषभव २२-२१ किमत्र विरसे सुर्ख ३१-८३ किमस्म सुखमादितो ५-६ किमिह परमसोरूपं २२-४ कि बहना कथितेन २२-२ कि भाषितेन बहुना २०-२२ ९-२४ ९-२५ १४-३१ एकत्र मधुनो बिन्दी एकत्रापि ह्ते जन्ती एकभवे रिपुषन्नग एकमपि क्षणं लकवा एकमप्यत्र यो बिन्दु एकादश गुणाने एकैकमक्षविषयं एकैकस्य यदादाय एकैकोसंपजीवानां १२-१६ १३-१ १९-२ १०-४ १-१४ २३-२२ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रि सुख दुःख निमित्तं किं सुखं लभते मर्त्यः कुदर्शनज्ञान चरित्र कुन्तासि शक्ति भरतोमर कूटलेखक्रिया मिष्या कृतश्रमश्चेद्विफलो न कृत्या कृत्ये कलपति कृत्याकृत्ये न वेत्ति कृत्रिमव्यवहारवच कृष्टेष्वास विमुक्त कृष्णत्वं केशपाशे कोपः करोति पितृमातृ राति कोऽपि कोऽपीह लोहमतितम कोपेन कोऽपि यदि ताड कोपेन यः परमभीप्सति कोपो विद्युत्स्फुरित कोपोऽस्ति यस्य मनुजस्य क्रीणाति खलति याचति क्रोध लोभमदद्वेध को धुनीते विदधाति क्लेशाजितं सुखकरं क्षणेन शमवानता क्षेत्र द्रव्य प्रकृति क्षेत्रस्य वर्धनं द्वियं क्षेत्रे प्रकाशं नियतं क्य जयः क्व तपः सुखं गति विगलिता वपुः गन्तुं समुल्लङ्घ्य भवा गम्भीरां मधुरां वाणीं गर्भे विलीनं वरमत्र गर्भेऽशुचौ कृमिकुलैः गर्वेण मातृपितृ बान्धव गलितनिखिलसंगो गलितवस्त्रमधः गलति सकलरूपं गलत्यायु ग लोकानुक्रमणिका १४-१२ गलन्ति दोषाः कथिताः गाउँ रिलष्यति दूतोऽपि गायति नृत्यति वल्गति गिरिपति राजसानु ३१-२१ ७- ५१ ४- ११ ३१-८५ ३२-२३ १९-४ ६-१३ ३१-८७ १३-५ -6 २-१७ ३२-४० २- २० २-११ २-१६ १८-१३ १५-१८ ३१-८ ८- ३ चक्रे राकेश बहलायुध २- १ बक्षुः क्षयं प्रचुररोग वञ्चच्चारित्रचक्रप्रवि चञ्चद्विद्युरकलत्राः ३ - १७ १०- ९ १९- १६ गुण कमल शशाङ्क गुणितनुमतितुष्टि गृद्धि विना भक्षयतो गौरी देहाश्रीश ग्रामादिनष्टादिधनं ग्रामादौ पतितस्थाप ग्रामाणां सप्त दग्धे १०-५ ८-२२ ३१-१०७ ९-३१ ३०-८ 7-19 घण्टा -काल-भृङ्गार घ्राणकर्णकरपाद चतुविषस्य संघस्य चतुर्दिषे धमिजने चतुर्विधो वराहारो चत्वारि सन्ति पर्वाणि ३१-९२ चन्द्रादित्यपुरन्दरक्षिति ८-२० • चलयति तनुं दृष्टे भ्रान्ति २९-२५ चारुगुणो विदिताखिल चित्तं विशुद्धयति जलेन चिताह्नादि व्यसनविभु चित्रयति यन्मयूरान् चिन्तन कीर्तनभाषण चिरायुरारोग्यसु तो निवारितं येन क्षेत्र पण्यवनिता चौरादिदायादत्तनूज २८-१४ २०-४ ११-८ १३-१५ छाया वद्या न वन्ध्या घ २४१ ७-३४ १७-११ १५-८ १४-३२ १५-१४ २८-२१ २१-१४ ६–६ ९-११ ३१-१२ २२-३ ३१-१०८ २५-१३ ४- १७ ४-५ ३२-३६ ३२-३४ ३१-१०९ ७-३७ ३१-५५ ३१-४७ १२--७ ११-३ २३-८ ३०-२० १८-१२ १४- १९ २३-१२ २१-१८ ३१-३४ २४-२४ ولي ६-२१ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जननजलधिमज्ज जननमरणभीति जनयति परिभूति अनमति मुदमन्त जनयति वचोऽव्यक्तं जनस्य यस्यास्ति जन्त्वन्द्रिमालमिदमत्र जन्मक्षेत्रे पवित्रे जन्माकूपारमध्ये मृति जलधिगतोऽपि नक जल्पनं च जघनं च जल्पितेन बहुना कि जातुस्थैर्याद्विवलति निगदितमनर्थ जिनपतिपदभक्ति जिनेन्द्रचन्द्रामलभक्ति जिनेन्द्रचोदित जिनेश्वरक्रमयुग जिनेश्वरक्रमाम्भोज जिनोदिते वचसि रता जिल्ला सहस्त्र कलितोऽपि जीवनाशनमनेक जीवन्ति प्राणिनो पेन जीवाजीवादितत्त्व जीवान्निहन्ति विविध जीवान्निहन्यसत्यं जीवास्त्र सस्थावर शानं तत्त्वप्रबोधो ज्ञानं तृतीय पुरुषस्य ज्ञानं विना नास्त्यहितात् ज्ञानाद्धितं वेत्ति ज्ञानेन पुंसां सकला ज्ञानेन योग कुरुते ज्योतिर्भवन मोमे ज्वलितेऽपि जठर हुत वडिल्लोलं तुष्णा ज त सुभाषित संबोहः २८-२ २८ - १८ १-१६ तनूजजननीपित् १- १ तनूद्भवं मांसमदन् ११- १ तनूभूत नियम तपो ७-२८ तनोति धर्म-विधुनोति तनोति धर्मं विषुनोति तपो दया दानयम ३०-१४ १६- ५ २६-२ १४- १५ २४-४ २५- २० १८-१४ २८ - १५ १- २१ २५- १० ३१-१४ ३२- ३१ ४- १३ ७-५२ ३२-११ २७- १ ३१-६३ तावदेव दयितः २७-२३ तावदेव पुरुषो ३-११ तावसरः कुलीनो तावन्नरो भवति तत्त्व ततोऽसी पण्यरमणी तदस्ति न वपुर्भुता तदिह दूषणमगि ८- ५ ८- २३ ८ - २४ २१-६८ १५ - २३ तपोधनानां व्रतशील तपोऽनुभावो न किमत्र तमो धुनीते कुरुते तस्य ज्ञात समस्तशास्त्र तापकरं पुरुपातक तादण्योद्रेकरम्यां तावज्जल्पति सर्पति तावत्कुरुते पापं १३-२४ १५-९ तिष्ठन्तु ब्राह्मघनधान्य ९-४ तीर्थाभिषेककरणा १६- २५ तीर्थाभिषेकजपहोम ८- १५ तीर्थाभिषेकमपातः ८-१९ तीर्थेषु चेत्क्षयमुपैति तीर्थेषु शुद्धयति जलैः तावदत्र पुरुषाः तावदशेषविचारसम तो वेश्या सेवमानस्य तिमिरपिहिते नेत्रे तिष्ठज्जलेऽतिविमले तीव्रत्रासप्रदायि तुष्टिश्रद्धाविनयम सूषणां छिते शमम रक्तभोगोपभोगस्य स्यक्त्व पद्माभनिन्धा त्यक्त्वा मौक्तिकसंहतिम् ३१-२५ १०-६ २०–२० १०-१६ २१-२ २७-२६ ७-४४ ३२-१८ ८-१८ ३२-११ ३२-१६ ८-१० ३२-३९ २३-१९ १६-३ १५-१ १५-२४ २५-२ २३९ २४-१२ २४-१३ १५–६ ५-९ ३१-२४ ११-७ ५-२ ४-२० ३०-३ २-१८ ३०-६ ३०-५ ३०--२ १६-२४ १९-१ १८- ११ ३१-४८ २६-१५ १७-२४ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१-६४ ३१-४० 'त्यजत युवतिसौख्य त्पजप्त विषयान्दुःखो त्यजति शौचमिति त्यजति स्वयमेव चं त्यजसि न हते तृष्णायोषे प्रसस्थावरजीवानां विधा स्त्रियः स्वसृजननी त्रिलोक कालत्रय १७-७ ३२-३० ६-२४ ४-१८ २२-७ २१-२६ ९-१८ दत्वा दानं जिनपति दवाति दुःखं बहुधा । ददाति यत्सौरज्यमनन्त ददाति योऽन्यत्र भवे । ददाति लाति यो भुक्ते दवाति विषयदोषा ददातु दानं बहुधा दधातु धर्म दसधा दन्तीन्द्रदन्तदलनक दमोदयाध्यान बयादमध्यानतपो दयितजनेन बियोग दपोट्रेकव्यसन दलितमदनशनोभव्य दहति झटिति लोभो दाता भोक्ता बहुवन दातुं हत्तु किश्चित दावानलरामो लोमो यासस्वमेति वितनोति दासीभूय मनुष्यः दिगम्बरा मधुरमपंदिदेशानर्थवडेभ्यो दिशि विदिशि वियति | दोनमधुकरीवर्गः दीर्घायुष्कः शशिसित दुग्धेन शुभति मषी दुरन्तमिथ्यात्व तमो दुरन्तरामोपहतेषु रसंसार श्लोकानुक्रमणिका १-१९ दुर्लभं सर्वदुःखाना ११-१४ दुष्टश्रुतिरपध्यानं २०-१८ दुष्टाष्ट कर्म मलशुद्धि २९-२० दुष्टो यो विदधाति ११-१३ दुःखक्षोणीरुहाङ ३१-३३ दुःखं मुखं च लभते २७-८ दुःखाना निषिरन्यस्त्री ७-१२ दुःखाना या निषानं दुःखानि यानि नरके दुःखानि यानि संसारे दुःखानि यान्यत्र ३२-१३ दुःखाजित सलगतं दूरे विशाले जन २२-१२ दूर्वाड कुराशनसमृद्ध दृवोन्नतकुचात्र या दृष्टं नभेन्द्रमन्दरलथ दृष्टि चरित्र तपोगुण दृष्ट्वा लक्ष्मी परेषां ७-४० देवा घोतक्रमसरसि ७-१० देवाराषनमत्रतन्त्र १४-२८ देहाधे येन शम्भुगिरि १९-९ देवायत्तं सर्व जीवस्य ३२-४१ दोषभेनमवगम्य २८-१२ दोषं न तं नृपतयो १९-२२ दोषेषु सत्सु यदि कोऽपि १४-२६. दोषेषु स्वयमेव दुष्ट ३१-२७ द्युतिगतिति प्रज्ञा ५-१४ युतिगति मतिरति १५-१७ जूततोऽपि कुपितो २७-११ रातदेवजरतस्य ३१-४३ द्यूतनाशितसमस्त २२-१९ द्रव्याणि पुण्यरहितस्म १९-२० द्वात्रिंशन्मकुटावर्तसित ३०-११ द्वादशाणुव्रतान्येवं ७- द्वीपे चार समुद्र ७-३८ द्वीपे जलनिधिमध्ये ३१-७३ दूधासनद्वादशावर्ता २६-२१ २३-२१ १६-१२ १८-२२ १२-५ २६-३ २४-२५ २-३ २-१० ११-२३ १५-१० २५-५ २५-६ २५-१२ २५-१६ ४-१६ यूतनाशितधनो १४-१७ १४-२१ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ १३-२२ १४-३० १४-२२ १८-७ १५-१७ २३-२३ घनधान्यकोशनिया धन परिजन भार्या धनं पुत्रकलप वियोग धर्म कामपनसोस्य धर्मछमस्यास्तमल धर्मध्यानम्रतसमिति धर्ममत्ति तनुते पुरु धर्माधर्मविचारणा धर्मार्थ कामब्यवहार धर्मे चिर्त निषेहि धमें स्थितस्य यदिकोपि धाता अनयति तावत् घुत्वा धृत्वा ददति धैर्य धुनाति विधुनोति ध्यामति धावति कम्प ध्यान्वध्वंसपरः कलंक १२-२ • २००१ ३२-१२ सुभाषितसंदोहः न भ्याघ्रः क्षुधयातुरोऽपि १४-२४ न संसरे किश्चित् १-९ नश्यति हस्तादर्थः नश्यतु यातु विदेश २५-१४ नश्यत्तन्द्रोभुवन २१-२५ नानातक प्रसवसौरभ १९-११ नाना दुःखव्यसननि २४-३ नानाविषव्यतन १७-२१ नारिरिमं विदधाति ८-१७ नित्याछाया फलभर १६-१४ निस्पं व्याधिशताकुलस्य २-१३ निद्रा चिन्ता विषादत्रम निन्ोन वागविषयेग १८-४ निपतितो बदते घर २-५ निमित्ततो भूतमन नियम्यते येन मनो निरस्तभूषोऽपि यथा निरारम्भः स विज्ञेयः निन्थे निर्मलं पूर्त १३-१८ निधू ताभ्यवलोऽविचिन्त्य १०-२४ निवृत्तलोकव्यवहार २७-१७ निवेद्य सत्त्वेष्वय ९-२७ निष्ठमश्रवणीय १-२ निहतं यस्य मयूखैः ७-५ निःशेषकल्याण २९-२६ निःशेषपापमलबाधन १-३ नि:शेषलोकवनदाह २७-१६ नि:शेव लोकव्यवहार २७-४ नोपोन्मादि विवेकनाश ३२-२८ नीतिश्रीतिश्रुतिमति ७-४३ नीति निरस्पति विनीति ३१-७६ नोलीमदनलाक्षा यः ३१- तमध्याभा चकित ११-२२ नैति रसिं गृहपत्तन २०-१५ नैषां दोषा मयोक्का १४-२७ नोचकर्ता न भोक्ता २७-२१ .नो निधूतविषः पिवनपि २५-७ नो शक्य यन्निषेद्ध ९-२८ २१-२२ २३-१६ ३-१८ न कान्ता कान्तान्ते न कि तरललोचना न कुर्वते कलिलवि न चक्रनाथस्य न न तदरिरिभराजः न धूयमानो भवति नतिन मतिर्न गतिः न नर दिविजनाचा मनिष्ठूरं कटुकमवद्य न बान्धव स्वजनसुप्त न बान्धवान स्वजना न बान्धवा नो सुहृदो न भक्षयति योपक्वम् नमस्कारादिकं शेयं नयनयमले व्य रूप नरकसंगमनं सुख नरवर सुरवर विद्या न रागिणः मवचन न न लाति यःस्थितपतितादि ३१-४२ १८-२ २६-२२ १७-१५ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका २४५ ७-४७ २२-१० ३२-१० ३१-१ प्रमाणसिद्धाः कथिता जिने ३१-१०० प्रमादेनापि यत्पीतम ३१-२ प्रयाति रत्नत्रयमुज्ज्वलं ३१-३९ प्रबर्तन्ते यतो दोषाः ९-२२ प्रविशति वारिधिमय २२-२० प्रवृत्तयः स्वान्तवचस्तन् ३१-९५ प्राझं मूर्खमनार्यमार्य २९-९ प्रारब्धो असितुं यतेन ७-७ प्रियतमामिद पश्यति २७-६ ९-२० १२-४ १२-६ २९-१० २१-२३ १४-१. बहुदेशसमागतपान्य ११-२४ बहुरोदनतानतरा २९-२४ वाचाव्याधायकीणे बान्धवमध्येऽपि जनो ७-२६ वाइद्धन्दू न माला २६-२० बाह्यमाभ्यन्तरं सङ्ग २१-४ का २८-५ ३१-६२ १३-१६ (पञ्चत्वजीविताशंसे पञ्चधागुव्रतं त्रेधा पञ्चधानर्थदण्डस्थ पश्चाधिकार्विशतिरस्त पश्चाप्येवं महादोषान् पञ्चतेऽनर्थदण्डस्य पयि पान्थागणस्प यथा पयोयुतं शर्करया परिग्रह द्विविषमपि परिग्रहेणापि पुतान् परिणतिमतिस्पष्ट दृष्टवा परिधावति रोदिति परोपदेशं स्वहितो परोपदेन शशाङ्क पालोध्यवमत्र स्थिर पलादिनो नास्ति जनस्य पशुवधपरयोषिन्म पापं वर्षयते चिनोति पिति यो मदिरामय पीनश्रोणी नितम्ब पुण्यं चितं व्रततपो पुरुषस्य भाग्यसमये पुरुषस्य विनश्यति पूज्यं स्वदेशे भवतीह पूर्वोपार्जितपापपाक पृथ्वीमुद्धत्तु मीशाः पशुने कटुकमश्रवः प्रख्यातद्युतिकान्तिकीर्ति प्रचुरदोषफरी मदिरा प्रचुरदोषकरीमिह प्रच्छादितोऽपि कपटेज प्रणम्प सर्वज्ञमनन्त प्रतिग्रहोच्चदेशाधि प्रत्युत्याति समेति नोति प्रपूरितश्चमलवः प्रवलपवनापातध्वस्त ७-२० २०-१० २०-१ २०-२४ १३-१७ २०-१६ भजत्यतनुपीडिते २६-१० भजन्ति नैकैकगुणं २-२ भवति जन्तुगणो १४-११ भवति मद्यवशेन २९-१ भवति मद्यवशेन ८-९ . भवति मरणं प्रत्यासन्न २९-२८ भवति विषयान्मोस्तु २६-४ भवत्यवचमायहिमां २५-७ भवन्त्येता लक्ष्भ्यः १२-१८ भवाङ्गभोगेष्वपि २०-२५ भवार्णवोत्तारणपूत २०-१९ भवितव्यता विधाता ३-९ भवेत्र कठिनस्तनी ३२-१ भवेविहरतोऽभवन् ३१-५८ भानो शीतमतिग्मगो १७-१९ भाभ्रिातृस्वजन ७-८ भावाभावस्वरूपं ११-२ भुवस्वा भोगानरोगा ८-२१ १०-२२ १९-५ २६-६ ३२-२९ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ १२-१७ ३१-७५ भुबनसदनप्राणिनामप्रकम्प भुवि यान्ति ह्यद्विपमत्यंजना भुत्यो मन्त्री विपत्ती भेषजातिथिमन्त्रादि भोक्ता यत्र वितृप्तिरन्तक भोगा नश्यन्ति कालात भोगोपभोगमुखतो भोगोपभोगसंख्यानं भोजनशान्ति विहार मूनेवालि हुङ्कार धू भङ्गम गुरमुखो २१-१० २१-११ २१-२१ २१-३ १२-२४ २६-१८ २१-२० १२-२५ सुभाषितसंदोहः ११-१७ मानो विनीतिमपहन्ति २९-१३ मान्धाता भरतः शिबी ६-१२ माल्याम्बराभरण भोजन ३१-६ मासे चरवारि पाणि १२-१२ मासोपचासनिरतोऽस्तु १६-१३ मांसं या देहभृतः ४-५ मांसं शरीरं भवतीह ३१-५१ मांसान्यशित्वा विविधा २३-५ मांसाधनाज्जीक्वधा ३१-१०४ मांसाशिनो नास्ति २-१९ मांसासनसलालसामय मित्रत्वं याति शत्रु. मुक्त्वा स्वार्थ सकृष २०-२१ मुदितमनसो दृष्ट्वा स्यं मूढः कन्दर्पतप्तो कनचर मृगान्धराकांश्चलतोड २८-११ मृत्युष्याघ्रभयंकरानन १-१७ मेरूपमानमधुपवाज ३१-४ मैत्री तपो व्रत यशो २४-१७ मंत्री सत्त्वेषु मोदं ३१-२३ मैथुनं भजते मर्यो २२-१८ २२-१ पच्छुकशोणितसमुस्थ २८-२२ यतो जनो भ्राम्यति जन्म २०-१७ यतो निःशेषतो हन्ति यत्कर्मपुरा विहितं १०-२६ यत्कामाति घुनीते ३२-९ यत्किचिददश्यते लोके -४५ यत्कर्वन्नपि नित्यं २४-१४ यत्त्वङ्मासास्थिमज्जा यत्पाति हन्ति अनयति ७-४९ यत्र प्रालेयराशिम ३५-३६ यत्र प्रियाप्रियवियोग ८-२६ यत्रादित्यशशाडू मारुत ३१-१७ यत्रावलोक्य दिवि दोन १८-१६ मत्सौख्यदुःखजनके १५-२२ यथान्धकारान्धपटावृतो ३-४ यथा यषा ज्ञानबलेन १६-२१ ३१-७७ मतिघृतिधुतिकोति मत्सस्त्रीनेत्रलोलात मदनसदृशं यं पश्यन्ती मदमदनकषायप्रीत मदमदनकषाया मद्यमांसमघुक्षीर मद्यमांसमलदिग्ध मद्यमांसादिसक्तस्य मधुप्रमोगतो वृद्धि मध्यस्थतः कृपा नास्ति मनति मनसि मः सज्जा मननवृष्टिरित्र मनःकरीविषयवना मनोमवशरादितः स्मरति मनीवचः कायवशा मनोहरं सौरूपकरं मन्यते न घनसौख्य मस्य हर्षाकविषया मलेन दिग्पानवलोक्य महावतत्त्वमत्रापि मातापित्ताबन्धुजनः मातृस्वस्सुतातुल्या मातस्वामिस्वजन मानं मार्दवतः क्रुधं माने कृते मदि भवेबिह ३२-१४ २७-१५ ३१-७१ ३२-३५ ३-१३ १२-१० ३-१४ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ १८-१० १७-१४ ३२-४२ २४-७ २४-११ २५-१७ ३-१२ २४-१८ ३-१२ २६-१७ ३१-१८ । यथार्थ तत्त्वं कथितं यथार्थवाक्यं रहित | यदज्ञजीवो विधुनौति सदनीतिमतां लक्ष्मीः । यदासन स्त्रीपशुधन | यदि कयमपि नश्येत् । यदि पुण्यशरीरसुखे यदि भवति जठरपिठरी यदि भवति विचित्र यदि भवति समुद्रः यदि रक्षणमन्यजनस्य यदि घा गमनं कुरुते यदि विज्ञानतः कृत्वा यदिह जहति जीवाजीव यदिह भवति सौख्यं यद्यकरिष्यद्वातो यद्यल्पेऽपि ते द्रव्य यद्यतास्तरलेक्षणाः यद्यताः स्थिरयौवना: यदकरतोमलवीर्य यद्वच्चन्दनसंभवोऽपि यच्चित्त करोपि यहत्सिप्तं गलति यद्वत्तोयं निपतति यद्वदन्ति शठा धर्म यदद्भानुर्वितरति करैः यद्वाच; प्रकृति पाशाद्वितयजन्म यद्विधायावधि दिक्षु यन्निमित्तमुपयाति यन्निमितं फुषिततः यस्त्यक्त्वा गुणसंहति यस्मिशुम्भवनोत्य यस्मै गत्वा विषय यस्यां वस्तु समस्तं यः कन्तृत्तप्तचित्तो यः करोति जिनेन्द्राणां यः कारणेन वितनोति श्लोकनाक्रमणिका ७-३० यः प्रोत्तुरः परम ९-१० यः साधूदित मन्त्रगोचर ८-६ मः सुभाषितसन्दोहं १४-१४ या करोति बहु बाटु ३२-८ मा कुलीनमकुलीन १-११ या कूर्मोज्याज्रिपुष्ठा २९-१७ याचाहे नटति याति १५-७ या छेदभेदमनाङ्कन १-८ या न विश्वसिति जातु १-५ यानि कानिधिदन २९-७ यानि मनस्तनुजानि २९-८ या प्रत्ययं वुधजनेषु ३१-३५ या भ्रान्त्वोदेति कृत्वा प्रति २८-१५ या मातृभत पितृबान्धव १-१० या रागद्वेषभोहान १५-२ यार्गला स्वर्गमार्गस्य २२-१७ यार्थसंग्रहपराति १२-२३ यावच्चन्द्रदिवाकरों १३-३ यावज्जीवं जनो मौन २१-२४ मावतिष्ठति जैनेन्द्र मन्दिर १७-१२ यावत्परिग्रहं लाति १६-६ मा विचित्रविटकोटि १९-१४ या विश्वास नराणां १९-१३ या शुनीव बहुवाद ३१-११ या सोंच्छिष्ट वक्त्रा १८-२१ यासू सक्तमनसः १८-२३ युगान्तर प्रेक्षणत: २५-१५ युवतिरपरा नो भोक्तव्या ३१-३१ मे कारुण्यं विद्धति २४-२३ ये जल्पन्ति व्यसन ३०-१० येनाङ्गुष्ठप्रमाणा; १७-८ येनेन्द्रियाणि विजितानि ३२-३३ मेनेह कारितं सौधं १९-१८ येऽन्नाशिनः स्थावर १५-५ येऽप्यहिंसादयो धर्मा २६-१५ ये बुध्यन्तेऽत्र तत्वं ३१-११६ ये लोकेशशिरोमणि श्रुति २-४ ये विश्वं जन्ममृत्युव्यसन ३२-४३ ३१-११० ३१-३९ २४-९ २४-१६ ६-२३ २४-२ १८-८ २१-८ ३१-१५ ९६-१७ १२-८ ३२-३२ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ येषां स्त्रीस्तनचक्रवाक संयुधानि यो जीवानां जमक यो दधाति नः पूतं योनाक्षिप्य प्रवदति यांमेषां भूषणाद्यत: योपतापनपरा योपरिचिन्त्यभवा यो लोकंकशिरः शिखा सोनालि साबु निस्त्रिशः रक्ताद्रभेन्द्रकृत्ति नति तिरुपति तुष्यति रत्नत्रया मल जलेन रत्नवयों रक्षति येन रम्या: किन विभूतयोऽति रसोत्कटत्वेन करोति रागमीक्षणयुगे तनु रागं दृशोर्वपुषि कम्प रचयति मति धर्मे नीति रागान्धा पीनयोनिस्तन रागोऽपि देो रुष्यते ऽन्य कितवः रुष्यति तुष्यति दास्य रुपेश्वरस्वकुलजाति रे जीव त्वं विमुञ्च रे पापिष्ठातिदुष्ट रोगैर्वातप्रभृति रोचते दर्शितं तत्त्वम् लक्ष्मी प्राप्याप्यनय लज्जामपहन्ति गुणां लज्जाहीनात्मशो लब्ध जन्म यतो यतः लब्धेन्धन ज्वलनवत ना तृष्णा लता तेन ल सुभाषितसंवोहः १२- ११ लोकस्य मुग्धधिषणस्य २६-११ लोकाचितं गुरुजनं १९-१२ लोका चितोऽपि कुलजोऽपि ३१-१०३ लोभं विधाय विधिना १८-३ १७- १० २४- २० २३-१८ १२-२१ २२-१४ २६-१४ २०-१२ ३०-२२ ८-२ १२-२२ २१-१२ २४-१९ २–६ ११-९ २६-११. १६-२३ २५-१८ २३३ ३-१ १६-१० १६-१८ १९-२३ ३१-७० १६-४ १५-१३ वक्त्रं लालाच वच वक्षोजो कठिनी न वाग् वचनरचना जाता व्यस्ता १६ - १९ १७- १३ वचांसि ये शिवसुख वदति निखिललोकः वदन्ति मे जिनपति वदन्ति में वचनमिनि वधो रोषोऽन्नपानस्य वयुसनमस्यति वयं देभ्यो जाताः बरतनुरतिमुक्ते वरं निवासी नरके बरं विषं भक्षित वरं विषं भक्षित वरं विषं भुक्त वरं हालाहलं पीतं खर्चः सदनवत्तस्या वर्णोष्ठस्पन्दमुक्ता वर्धस्व जीव जय नन्द वस्त्राणि सीव्यति तनोति वाक्यं अस्पति कोमलं छङ्गी समस्तः वात्येव धावमानस्य वारिराशिसिकतापरि वाश्चन्द्रः किमिह कुरु वार्यग्तिभस्मरविमन्त्र वाहनासनपत्यङ्क विगतदशनं शरवल्लाला विगलितधिपोऽसा विगलित रसम स्थि ४-२ विचलति गिरिराजो ३१-३८ विचित्रभेदा तनुबाचन ४-९ ५-१९ ५-१८ ४-१९ ६-१९ ६-२० ११-११ २७-३ ९८-३ २७-२५ २७-६ ३१-८४ १३-६ १३-१९ २८-१७ ७-४१ ८-२४ २१-१६ ७--१३ २२-६ ३१-२२ २६-५ ४-४ ४-८ १७-४ २६-१ ३१-३२ २४-१५ १८-५ ३०-२५ ३१-५३ ११-१९ २८-७ १-१३ २८-६ ३२-७ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्रवर्णाति विचित्रशिखराधार विचित्रसंकल्पलता विजन्तुके दिनकर विजित्य लोकं निखिलं विजित्योर्वी सर्वा विज्ञायति महादोषं बितनोति वचः करुणं विताशया स्वनति भूमितलं विद्यादयाद्युतिरनु विद्यादया संयम विद्युद्योतेन रूप विद्वेपरिकलद्दाख विधाय नृपसेचनं विधाय यो जैनमत विनश्वरमिदं वपुः विनश्वरं पापसमृद्धि विनिर्जिता हरिहर विनिर्मले पार्वणचन्द्र विनिर्मलानन्त सुखक विनिहन्ति शिरोवपुः विपत्तिसहिताः श्रियो विपदोऽपि पुण्यभाजां विपरीते सति धारि विबोध नित्यत्व सुखित्व विमदमृषिवीकण्ठं वा विमुक्तसंगादि समस्त बिर्तकान्त विनीत विरागसर्वज्ञपदा विलोक्य मातृस्वस् विलोक्य रौद्रयतिनो विवेकविकलः शिशुः चिये किलोकैस्तपसो विशुद्धभावेन विधूत विशुद्धमेवं गुणमस्ति विश्वम्भरां विविधजन्तु विषमविषसमानान् श्लोकानुक्रमणिका ७ - १८ विषयरतिविमुक्तिः ३१-११२ विषयविरक्तियुक्तिः ३२- ५ विषयः स समस्ति न २७-१० ३२- ६ १३- १३ २२ - २२ २९-९ ४- ३ ५- १७ २१- १९ ६-१७ ३- १८ १०- १७ ७-२९ १०-१९ ८-८ २७-२० ९-३० ३२-२ २९-२२ १०-२० १४- १८ ई. १४-८ ७-४ विहाय देवीं गतिमाचितां श्रीपात्मीयगुणैर्मृणाल वृत्तत्त्यागं विदषति न ये वृषं वितं व्रतनियम वेत्ति न धर्ममधर्ममिति वैरं यः कुरुते निमित्त वैरं विधर्षयति सक्ष्य वैश्वानरो न तुष्यति व्यसनमेति कर ति व्यसन मेतिजनः व्याघ्रव्यालभुजङ्ग व्याध्यादिदोषपरिपूर्ण व्याध्याधिव्याषकीर्ण सकुलबलजाति व्रततपोयम संयम शक्यते गदितुं केन शक्येतापि समुद्रः शक्यो वशीकर्तुमिभो शक्यो विजेतुं न मनः शका काङ्क्षा विचिकि पाकादिदोष निर्मुक्तं शनैः पुरा विकृति पुरः राप्तोऽस्म्यनेन न तो शमं क्षयं मिश्रमुपा ११-१८ ७- २५ ७-२ शमाय रागस्य शाय ७-३१ शमो दम दया धर्मः ९-१२ शरच्चन्द्रसमा कीर्ति ७–५० शरीरमसुखावहं १०- १८ शरीरिण: कुलगुण १२- १७ शरीरिणामसुल ७-३६ शम्बच्छीलतविर शश्वन्मायां करोति ७ - ३९ ४-६ शारिकाशिखिमार्जार १-१२ शास्त्रेषु येष्वविधः २४९ २८-२० २८-१३ २९-१४ ७-४६ १७- २३ १८-१५ २७-१९ २३-४ १७-१६ २-२१ १५-४ २०-११ २०-६ १७-३ २-१२ २६-१२ २८-९ २०- १३ ३१-३७ १५-३ ८-२७ ८- १४ ३१-१०१ ३१-७२ २७-१३ २-१४ ९-२ ३२-४ २२-८ ३१-१०५ १०- २ २७-५ २७-१८ १९-१५ ६-१४ ३१-४१ २१-२३ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० शिविली भवति शरीरं शिरसि निभृतं कृत्वापादं शीतो रविर्भवति शीत शीलव्रतोद्यमतपः शम शीलवृत्तगुण शुभपरितोषकार शुभम्शुषं च मनुष्यैः शुश्रूषामाश्रय सं शोचक्षमासत्यतपो शोचति विश्वमभीच्छ श्रद्धा व विज्ञान श्रमं विना नास्ति महत्फलो श्रयति पापमपाकुरुते श्रियोऽपाया घाताः श्री कृपामतिवृत्ति द्युति श्री मज्जिनेश्वरं नत्वा श्रीमदमितगतिसौख्यं श्री विद्युपलाव श्री ही कीतिरतिद्युति श्रुतिमतिबलवीर्य श्रुत्वा दानं कथित श्रेणी समप्रपत्रः दुःखपटुक व सुरसुध षट्कोटिशुद्ध पलमश्नतो द्रव्याणि पदार्थाच सकलं सरतं सुखिमेति विगुणं स सूचित मिश्रसम्बद्ध सविज्ञाच्छाद निक्षेप सचेतनाचेत नभेदनो सज्जातिपुष्पकलिके सज्ज्ञानदर्शनचरित्र सतत विविधजीव सततबिषयसेवा स सुभाषित दोह १५-१५ सत्यमस्यति करोति ११ - १६ ४- १ ३-१६ २५-२१ सत्यां वाचां वदति १४- २३ १६- २ ८- २५ १५-२६ सद्दर्शनज्ञानतपो सदर्शनशानफलं सहर्शनशानबलेन सास्वर्णच राधान्य सद्यः पातालमेति सन्तोषाक्लिष्टचिन्तस्य सन्तोषो भाषितस्तेन २३-१० ३१ - ५७ ३२- २४ २०- १४ १३-१४ २४-६ ३१-१ १५-२५ १३- २ १२-२० २५-९ २४ - २२ सत्यशोचशमशर्म सत्यशौचशमसंयम २१-५ ३१-६५ सत्या योनिरुजं वदन्ति २९-४ २९- १२ सन्त्यक्तव्यक्तोषः समस्तजन्तुप्रतिपाल समस्ततत्त्वानि न सन्ति १-१८ सम्यक्वशीलमनघं १९ - १९ ६- २५ समस्तदुः खक्षयकारणं समारूढ़े पूतत्रिदश समुद्यतास्तपसि जिने सम्यक्त्वज्ञानभाजो जिन सम्यग्धर्मव्यवसिते सम्यग्विद्याशमदम स यातो मात्येष सर्पत्स्वान्तप्रसूत सर्पव्याधेभवरि सर्वजनेनविनिन्दित सर्वजनैः कुलजो जन सर्वदा पापकार्येषु सर्वसौख्यवत पोषन सर्वं शुष्मति सार्द्धमेति सर्वाभीष्टा बुधजन ३१-९८ सर्वारम्भं परित्यज्य ३१-९९ सर्वेऽपि लोके विषयो ९-१३ सर्वोद गवि भक्षणः ५-४ सविस्तरे घरणितले ३० -४ संशयं नश्वरमन्त १-७ सहात्र स्त्री किचित् २८-४ संज्ञातोऽपीन्द्रजालं २५-४ २५-३ २४-१ १७-१८ १८- ६ १-३३ ९-२३ ९-१ ३१-२६ १६-७ ३१-२८ ३१-५४ ६-५ ९-१९ 19-$ ३२-२६ ३२-४४ २७-२ ३१-११७ ३०-१९ १८- ९ १९--६ १३-२० १६-१ १६-२० २३-६ २३-१३ ३१-८१ २४-२१ १२-१८ १९-३ ३१-४५ १७-२० २७-१४ ९-२९ १३-१८ ६-२२ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकानुक्रमणिका २५१ २९-६ २०-२३ २४-२ स्वकरापितवामकपोल २३-५ स्वकीयं जीवितं ज्ञात्वा स्वजनमन्यजनो १५-११ स्वजनोऽन्यजनः कुरुते ३१-८० स्वतो मनोवचनशरीर ३१-७८ स्वनिमित्तं त्रिधा येन २२-२१ स्वभारंपरित्यज्य ५-८ स्वयमेव गृहं साधु: ३०-१ स्वयमेव विनश्यति १२-१ स्वसृसुता जननी २५-११ स्वार्थपरः परदुःख १९-१० स्वयाविहारसुखितो ३१-५१ २७-१२ ३१-८२ ३१-२० ३१-६६ २९-२१ २३-१७ सन्दधाति हृदयेऽन्य संयमधर्मविवड । संशुभत्याण्डुगण्डा . संसारतरणदक्षो संसारद्रुममूलेन संसारभयमापनो संसारभीभिः सङ्गिः संसारसागरनिरूपण संसारसागरमपार संसार भ्रमतां पुरा । साधुवधुपितृमातृ सापूरत्नवितयनिरतो सामामिकादिभेदेन सावद्यत्वान्महदपि सुखकरतनुस्पशी गोरों सुखमसुखं च विद्यते सुखं प्राप्तुं बुद्धिर्यदि सुखासुखस्वपरवियोग सुग्रीवाङ्गदनीलमारत सुरवर्त्म स मुष्टिहत सुरासुराणामय सुरेन्द्रनागेन्द्र सौख्यं यदा विजिते स्तन्धो विनासमुपति स्तनानीतं समादानं स्त्रीतः सर्वजनाव: स्थावरजंगमभेद : स्पर्शन वर्णेन रसेन - स्याच्चेन्नित्यं समस्त स्युर्तीन्द्रियादिभेदेन ९-७ १८-१९ २८-१९ २९-११ ११-१२ हतं घटीमन्यचतु १४-१६ हन्ति ध्वान्तं रहयति १३-२१ हरति जनन दुःखं २७-२२ हरति विषयान्दण्डालम्बे १२-१४ हरिणस्य ब्यथा भ्रमतो २९-१९ हसति नृत्यति गार्यात हसन्ति घनिनो जनाः ७-२७ हास कर्कशपैपन्य ५-१२ हिरण्यस्वर्णयोर्वावस्तु ३-९ हिंसातो विरतिः सत्य ३१-८६ हिंसानृतस्तेयजया ६-११. · हिंस्यन्ते प्राणिनः सूक्ष्मा २३-१५ होनाषिकेषु विषात्य ९-५ हीनानवेक्ष्य कुरुते २६-७ होनोऽयमन्यजननो ३१-३ हृषीकविषयं सुत्र १०-२३ ३१-१० ३१-९० ३१-३० ९-३ ३-१० १०-८ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ रत्नकरंड श्रावकाचार २ महामानव सुदर्शन ३ कुंदाकुंदाचे रत्नश्रय ४ आर्यादश भक्ति ५ नित्यनैमित्तिक जैनाचार ६ जीयंवर चरित्र ७ पांडव कथा ८ अंतिम उपदेश ९. रत्नाची पारख १० सम्यक्त्व कौमुदी कथा ११ भ० नेमिनाथ चरित्र (नवीन) १२ भ० ऋषभदेव १३ जसोधर रास १४ जिनसागर कविता | १५ जीवंधर पुराण १६ धर्मामृत १७ परमहंस कथा १८ चक्रवर्ती सुभीम १९ जैन धर्म H २० श्रेणिक चरित्र (पडा ) २१ भ० पार्श्वनाथ व महाबीर २२ पवनपुत्र हनुमान २३ यशोधर चरित्र श्री जैन संस्कृति संरक्षक संघ ( जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर -२ ) मराठी विभाग प्रकाशन सूची १ तिलोम्पति भाग १-२ Yashastilak & Indian Culture ३ पांडवपुराण ४ प्राकृत शब्दानुशासन हिंदी प्राकृत ग्रामर १२-०० १-२५ १-५० 1-00 (अप्राप्य ) १-७५ २-०० 00-80 ००-६० प्रेस में २-०० 2-00 8000 ४-०० २-०० 3-00 २ -०० १-२५ ४-०० 8-00 २-०० 2-00 (अप्राप्य ) 16-00 (अप्राप्य ) 80-00 २४ कुमार प्रीतिकर २५ भारतीय जैन सम्राट २६ तत्वार्थ सूत्र २७ भारतीय संस्कृतीस जैन धर्माची देगणो १२-०० २८ विश्व समस्या २९ - स्वयंभू स्तोत्र ३० सती चेलना ३१ पराक्रमी करोग ३२ सद्बोध दृष्टांत भाग १ ३३ प्राचीन कथा पंचक हिंदी विभाग प्रकाशन सूची ३४ प्रद्युम्न चरित्र ३५ इष्टोपदेश ३६ सद्बोध दृष्टांत भाग २ ३७ अनंतत्रतपूजा ३८ दशलक्षण धर्म ३९ श्रेयोमागं ४० समाधि शतक ४१ षोडश कारण भावना ४२ भद्रकथा कुंज भाग १ ४३ भ० महावीर उपदेश परंपरा ४४ भारतवर्ष नामकरण ४५ महापुराण (भाग १ ) ५ सिद्धांतसार संग्रह ६ Jainish in South India & Jain Epigraphs ७ जंबूदीवपण्णत्ती ८ भट्टारक सम्प्रदाय २-०० ३-०० १५००० 16.-00 २-५० २-०० २-०० १-५० ६-०० २-०० ६-०० ३-०० २-५० 7-00 २-५० २०-०० २५-०० १२-०० 16-00 १६-०० ८-०० Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૧૪ 9 कुंदकुंद प्राभूत 10 पयनन्दी पंचविंशति 11 आरमानुशासन 12 गणितसार 13 लोकविभाग 14 पुण्यास्रव कथाकोष Jainisrn in Rajasthan 16 विश्वतत्वप्रकाश 17 तीवंदन संग्रह 18 प्रमाप्रमेय se Erhical Doctiros in Jainism Po Jain View of Life 21 चन्द्रप्रभू चरित 22 पबला षटखंडागम भाग 1 23 वर्षमान चरित्र सुभाषितसंवोहः 6-00 24 धर्मरलाकर 20-0. 25 संधू ग्रंथावली 20-00 7-00 26 Ahinsa 12.00 27 श्रावकाचार संग्रह भाग 1 20-00 10-00 28 , , 2 20-00 10-00 २९पवला भाग 2 20-00 11-00 3. ज्ञानार्णव 20-00 12-00 31 सुभाषितरस्न संवोह 20-0. कन्नड़ विभाग 5-0. रत्नकरंड श्रावकाचार 15-00 12-00 २जैन धर्म 6-00 4 भारतीय संस्कृनिगे जैन धर्मद कोडगे 12-00 16-00 घवला पटसंहागम (शास्त्राकार) भाग 8 से 12 प्रत्येकी 12-00 15-0. पवला (ग्रंथाकार) भाग 10 ते 16 प्रत्येकी 12.00 •आगामी प्रकाशन : * राधू ग्रंथावली भाग 2 . सम्मइजिण चरिउ .धर्म परीक्षा प्रावकचार संग्रह भाग 3 * महापुराण भाग 2 . शीघ्र प्रकाशित हो रहे हैं।