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________________ -16 : १.१५] १. विषयविचारकविंशतिः 12) विषमविषसमानान् नाशिनः कामभोगीस्त्यजति यदि मनुष्यो दीर्घसंसारहेतून् । प्रजति कथमनन्तं दुःखमत्यन्तघोरं त्रिविधमुपहतात्मा श्वभ्रभूम्यादिभूतम् ॥ १२॥ 13) विगलितरसमस्थि स्वादयन् दारितास्यः स्वकवदनजरते मन्यते श्वा सुखित्वम् । स्वतनुजनितखेाजायमानं जनानां तदुपममिह सौख्यं कामिनां कामिनीभ्यः ॥१३॥ 14) किमिह परमसौख्यं निःस्पृहत्वं यदेतत् किमथ परमदुःखं सस्पृहत्वं यदेतत् । इति मनसि विधाय स्यकसंगाः सदा ये विदधति जिनधर्म से नराः पुण्यवान्तः॥ १५॥ 15) उपधिवसतिपिण्डान राबते नो विरुद्धास्तनुषचनमनोमिः सर्वथा ये मुनीन्द्राः। व्रतसमितिसमेता ध्वस्तमोहप्रपश्चा ददतु मम विमुक्ति ते इतक्रोधयोधाः १५ ॥ यदि मनुष्य: दीर्घसंसारहेतून् विषमविषसमानान् नाशिनः कामभागान त्यजति [तर्हि ] उपहतालमा सन् श्वभ्रभूम्यादिभूतम् अत्यन्तरम् अनन्त त्रिविधं दुःखं कथं मजति ॥ १२॥ विगलितरसम् अस्थि स्वादयन् दारितास्य:श्रा वकवदनजरके सुस्तित्व मन्यते । इह कामिनां जनानां स्वतनुजनितखेदान् कामिनीभ्यः जायमानं सौग्य तदुपमम् [अस्ति ।। १३ ।। इह परमसौख्य किम्, यत् एतत् निःस्पृहत्वम् । अथ परमदुःगई किम् , गत् एतत् सस्पृहत्पम् । इति मनसि विधाय ये त्यतसंगाः सन्तः सदा जिनधर्म विदधति ते नराः पुण्यवन्तः सन्ति] |॥ १४ ॥ ये विरुद्धान् उपधि-वसति-पिण्डान् तनुवचनमनोमिः सर्वथा नो याते व्रतसमितिसमेताः ध्वस्तमोहप्रपञ्चाः हतकोधयोधाः ते मुनीन्द्राः मम विमुक्ति ददनु ।। १५ || जगति स्त्री परिभूति जनयति, धनं जो कामभोग भयानक विषके समान अहितकारक, विनश्चर और दीर्घ संसारके कारण हैं उनको यदि मनुष्य छोड़ देता है तो फिर वह अपनी आत्माको नष्ट करके नरकभूमि आदिके निमित्तसे होनेवाले अतिशय भयानक उस तीन प्रकारके (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक अथवा मानसिक, वाचनिक और कायिक) दुखको कैसे प्राप्त हो सकता है जिसका कि कुछ अन्त भी न हो ? अर्थात नहीं प्राप्त हो सकता है। अभिप्राय यह है कि जो विवेकी जीत्र दुखके कारणभूत उन इन्द्रियविषयोंसे विरक्त हो जाता है वह सब प्रकारके दुःस्त्रोंसे छूटकर निर्वाध मुक्तिसुखको प्राप्त कर लेता है। और इसके विपरीत जो उन विषयों में आसक्त रहता है यह अनन्त संसारमें परिभ्रमण करता हुआ नरकादिके अनन्त दुखको भोगता है॥१२॥ जिस प्रकार कुत्ता नीरस हड्डीका स्वाद लेता हुआ-उसे चबाता हुआ-मुखके फट जानेसे उसी मुखसे उत्पन्न हुए रक्तमें अपनेको सुखी मानता है उसी प्रकार कामी जन भी स्त्रियोंके संभोगवश होनेवाली वीर्यकी हानिसे जो अपने शरीरमें खेद होता है उससे उत्पन्न होनेवाले सुखका अनुभव करते हैं। अत एव उनका यह विषयसुख उस कुत्तेके ही सुखके समान है जो कि कठोर होको चबाकर. अपने ही मुँहसे निकलनेवाले रक्तका आस्वादन करता हुआ अपनेको सुखी समझता है ।। १३ ॥ संसारमें उत्कृष्ट मुख क्या है ! यह जो निःस्पृहता- विषयभोगोंकी अनिच्छा-है वही उत्कृष्ट सुख है। उत्कृष्ट दुख क्या है ! यह जो सस्पृहता-विषयभोगाकांक्षा- है वहीं उत्कृष्ट दुख है । इस प्रकार मनमें विचार करके जो भव्य जीव परिग्रहका परित्याग करते हुए निरन्तर जैन धर्मकी आराधना करते हैं वे पुण्यशाली हैं ॥ १४ ॥ जो मुनिराज मन, वचन और कायके द्वारा कभी मुनिधर्मके विरुद्ध उपधि (परिग्रह ), स्थान और आहारको सर्वथा नहीं ग्रहण करते हैं; जो पौंच महाव्रतों और पाँच समितियोंसे सहित है; मोहके विस्तारसे रहित हैं, तथा जिन्होंने क्रोधरूप सुभटको नष्ट कर दिया है वे मुनिराज मुझे मुक्ति प्रदान करें ॥ १५ ॥ संसारमें स्त्री अनादरको उत्पन्न कराती है, धन नष्ट होनेपर दुखको देता है, विषयतृष्णा सन्तप्त किया करती है, तथा १ स विषय । २ स भोगान् । ३ समास्थि, मति मस्थि। ४ सम्वेदात् । ५ स निस्पृहत्व ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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