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सुभाषितसंदोहः
[16 : १-१६
10 ) जनयति परिभूर्ति स्त्रीधनं नाशदुःखं दहेति विषययाच्छा बन्धनं बन्धुः । इति रिपु विमूढास्तन्वते सौख्यबुद्धि जगति धिगिति कथं मोहनीयं जनानाम् ॥ १६ ॥ 17 ) मदमदनकषायारातयो नोपशान्त्रो न च विषयविमुक्तिर्जन्यदुःखान्न भीतिः ।
न तनुमुलगि विद्यते यस्य जन्तोर्मयति जगति दीक्षा तस्य भुक्त्यै न मुक्तये ॥ १७ ॥ 18) श्रुतिमतिबलवीर्यप्रेमरूपी युरस्वजनसन यकान्ता भ्रातृपित्रादि सर्वम् ।
तितजंगराजले वा न स्थिरं वीतेगी तदपि यत विमूढो नात्मकृत्यं करोति ॥ १८ ॥ 19 ) त्यजैव युवतिसौयं क्षान्तिसौख्यं श्रयध्वं विरमत भयमार्गान्मुक्तिमोर्गे रमध्वम् ।
जहित विषयसंग ज्ञानसंग कुरुध्वममितगतिनिवासं येन नित्यं लभध्यम् ॥ १९ ॥
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नाशदुःखे [ जनयति ] विश्यवाञ्छा दहति बन्धुवर्गः बन्धनम् [अस्ति ], इति रिपुधु विमूढाः सौख्यशुद्धिं तन्वते । कष्टं जनानां मोहनीयं धिक् इति ॥ १६ ॥ जगति यस्य जन्तोः मदमदनकषायातियः न उपशान्ताः च विषयविमुक्तिः न, जन्मदुःखात् भीतिः न विद्यते तनुसुखविरागः न । तस्य जन्तोः दीक्षा भुक्त्यै भवति, मुक्त्यै न भवति || १७ ॥ अङ्गी श्रुतिमतिबलवीर्यप्रेमरूपायुरङ्गस्व जनतनयकान्ताभ्रातृपित्रादि सबै तित (चालनी) गाजलं वा स्थिरं न त्रीचते, तदपि विमूद्रः सन् आत्मकृत्यं न करोति च ॥ १८ ॥ [ भी भय्याः ] युवतिसौख्यै त्यजत । क्षान्तिसौख्यं श्रयध्वम् । भवमार्गात् विरमत मुक्तिमार्गे रमध्वम् । विषयसंग जहित । शानसंग कुरुध्वम् । येन नित्यम् अमितगतिनिवासं लभध्वम् || १९ || अत्र यस्य पुंसः सर्वदा अत्यन्तदीप्ताः
बन्धुजनोंका समुदाय बन्धन के समान पराधीनताजनक है। इस प्रकार यद्यपि ये सब अहितकारक होनेसे शत्रुके समान हैं, फिर भी अज्ञानी जन उनके विषयमें अतिशय मोहको प्राप्त होकर सुखकी बुद्धिको विस्तृत करते हैं - उन सबको सुखदायक समझते हैं। प्राणियोंके उस कष्टदायक मोहनीय कर्मको धिक्कार है ॥ १३ ॥ संसारमें जिस जीवके काम, मद और क्रोधादि कषायरूप शत्रु शान्त नहीं हुए हैं; जिसका चित्त विषयोंकी ओरसे हटा नहीं है, जिसे जन्म (संसार) के दुखसे भय नहीं है, तथा जिसे शरीर सुखसे विरक्ति नहीं हुई है; उसके लिये दी गई दीक्षा विषयोपभोगका कारण होती है, न कि मुक्तिका ॥ विशेषार्थ जिनदीक्षा ग्रहण करके जो तपश्वरण किया जाता है ॠ मुक्तिका साधक होता है । परन्तु जिसने जिनदीक्षाको ग्रहण करके भी अपने कामादि विकारोंको शान्त नहीं किया है, जिसके हृदयमें जन्म-मरणके दुःखोंसे भय नहीं उत्पन्न हुआ है, तथा जो शरीरादिमें अनुराग रखता है; यह उस जिनदीक्षाको लेकर भी कभी मोक्षको नहीं प्राप्त कर सकता है। किन्तु इसके विपरीत वह विषयभोगोंमें अनुरक्त रहकर संसारमें ही परिभ्रमण करता है ॥ १७ ॥ श्रुति ( आगमज्ञान ), बुद्धि, बल, वीर्य, प्रेम, सुन्दरता, आयु, शरीर, कुटुम्बीजन, पुत्र, खी, भाई और पिता आदि सब ही चालनी में स्थित पानीके समान स्थिर नहीं हैं-देखते देखते ही नष्ट होनेवाले हैं। इस बातको प्राणी देखता है, तो भी खेदकी बात है कि वह मोहवश आत्मकल्याणको नहीं करता है || १८ || हे भव्य जीवो ! आप लोग खीके संयोगसे प्राप्त होनेवाले सुखको छोडकर शान्तिसुखका आश्रय ले लें, संसारके मार्ग से ( मिथ्यादर्शनादिसे) दूर रहकर मुक्तिके मार्गस्वरूप नत्रयमें अनुराग करें, तथा विषयोंकी संगतिको छोडकर सम्यम्ज्ञानकी संगति करें; जिससे कि सदा अपरिमित ज्ञानवाले मोक्षमें निवासको प्राप्त कर सकें ॥ १९ ॥ संसार में जिस मनुष्यके पासमें अज्ञानरूप अन्धकारके नष्ट करनेमें समर्थ, सर्वदा अतिशय प्रकाशमान और न्यायमार्गको दिखलानेवाले ऐसे आगम, स्वाभाविक विवेकज्ञान एवं सत्संगति
१ स परभूतिं । २ स स्त्रीधनं । ३ स ददति । ४ स वर्गाः । ५ स शांती । ६ स मुक्तानन्य' । ७ स धिरोगो । ८ स भुक्त्यौ, मुक्त्यो | ९ श्रुत। १० स रूप । ११ सत्रीयते । १२ स त्यजति । १३ स मुक्तिमार्गेौ । १४ सom. ज्ञानसङ्ग ।