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सुभाषितसंदोहर
8 ) यदि भवति विचित्रं संचितं द्रव्यमर्थ्य परिजनसुतदारा भुञ्जते तन्मिलित्वा ।
न पुनरिह समर्थाध्वसितुं दुःखमेते तदपि यत विधत्ते पापमङ्गी तदर्थम् ॥ ८ ॥ १) धनपरिजनभार्याभ्रामित्रादिमध्ये व्रजति भवभृता यो नै एकोऽपि कचित् ।
सदपि गतविमर्षाः कुते तेषु रागं न तु विदधति धर्म यः समं याति यात्रा ॥ ९ ॥ 10 ) यदि भवति सौख्यं वीतकामस्पृहाणों न समरविभूनां नापि चक्रेश्वराणाम् ।
[8:2-2
इति मनसि नितान्तं प्रीतिमाधाय धर्मे भजत जहितै चैतान् कामशत्रून् दुरन्तान् ॥ १० ॥ 11 ) यदि कथमपि नश्येद् भोगलेशेनं नृस्वं पुनरपि तदधातिर्दुःखतो देहिनां स्यात् ।
इति इतविषयाशा धर्मकृत्ये यतध्ये यदि भवमृतिमुक्ते मुक्तिसौख्ये ऽस्ति वाच्छा ॥ ११ ॥
भवति [ तदा] परिजन-सुत-दाराः मिलित्वा तत् भुञ्जते । इह पुनः एते दुःखं ध्वंसितुं समर्थाः न [भवन्ति ]। तदपि अभी तदर्थ पावत (खे) || ८ || धनपरिजन भार्या भ्रामित्रादिमध्ये यः भवभृता [ सह ] ब्रजति एषः एक अपि कश्चित् न [[विद्यते ] | तदपि गतविमर्षाः तेषु रागं कुर्वते । तु यः यात्रा समं याति [तं ] धर्म न विवति ॥ ९ ॥ इह वीतकाम स्पृहाणां यत् स भवति तत् अमरविभूनाम् अपि न चक्रेश्वराणाम् अपि न रति मनसि नितान्तं प्रीतिम् आधाय धर्मं भजत च एतान् दुरन्तान् काम-शत्रून् जहित ॥ १० ॥ यदि देहिनां भोगलेशेन नृत्यं कथमपि नश्येत् पुनरपि तदवासिः दुःखतः स्यात् । यदि भव-मृतिमुक्त (जन्म-मरणरहिते) मुक्तिसौख्ये वाञ्छा अस्ति [ तदा ] हतविषयाशाः इति धर्मकृत्ये यतध्वम् ॥ ११ ॥
आदि सब कुटुम्बी जन मिल करके किया करते हैं । परन्तु उससे जो यहाँ प्राणीको दुख उत्पन्न होनेवाला है उसको नष्ट करनेके लिये ये कोई भी समर्थ नहीं होते हैं। फिर भी यह खेदकी बात है कि प्राणी उनके निमित्त पापको करता ही है ॥ ८ ॥ धन, परिजन (दास-दासी), स्त्री, भाई और मित्र आदिके मध्यमेंसे जो इस प्राणीके साथ जाता है ऐसा यह एक भी कोई नहीं है। फिर भी प्राणी चित्रेकसे रहित होकर उन सबके विषयमें तो अनुराग करते हैं, किन्तु उस धर्मको नहीं करते हैं जो कि जानेवालेके साथ जाता है ॥ विशेषार्थ धन, दासी दास, स्त्री और पुत्र आदि ये सब बाह्य पर पदार्थ हैं। इनका सम्बन्ध जिस शरीर के साथ है यह भी पर ( आत्मासे भिन्न) ही है। इसीलिये प्राणीका जब मरण होता है तब उसके साथ न तो वह शरीर ही जाता है और न उससे सम्बद्ध वे धन एवं स्त्री- पुत्रादि भी जाते हैं । फिर भी आश्वर्यकी बात है कि जो ये सब बाह्य पदार्थ प्राणीके साथ परलोकमें नहीं जाते हैं उन्हींके साथ यह प्राणी सदा अनुराग करता है और जो धर्म उसके साथ परलोकमें जानेवाला है उससे यह अनुराग नहीं करता है। यही कारण है जो वह इस लोक में तो उक्त कुटुम्बी जन आदिके भरण-पोषण आदिकी चिन्तासे व्याकुल रहता है और परलोक में इससे उत्पन्न पापके वश होकर वह दुर्गति आदिके दुखको संहता है। यह उसकी अज्ञानताका परिणाम है ॥ ९ ॥ जिनकी विषयभोगोंकी इच्छा नष्ट हो चुकी है उनको जो यहाँ सुख प्राप्त होता है वह न तो इन्द्रोंको प्राप्त हो सकता है और न चक्रवर्तियों को भी । इसीलिये मनमें अतिशय प्रीति धारण करके ये जो विषयरूप शत्रु परिणाम में अहितकारक हैं उनको छोड़ो और धर्मका आराधन करो ॥ १० ॥ प्राणी जितने भोगोंकी अभिलाषा किया करते हैं उनका लेशमात्र भी वे नहीं भोग पाते हैं । फिर यदि उन भोगोंमें अनुरक्त रहते हुए उनकी यह मनुष्यपर्याय किसी प्रकारसे नष्ट हो जाती है तो उसकी पुनः प्राप्ति उन्हें बहुत कसे हो सकेगी। इसलिये यदि जन्म और मरणकें दुखसे रहित मोक्षसुखकी प्राप्तिके विषय में अभिलाषा है तो विषयतृष्णाको नष्ट करके धर्माचरण में प्रयत्न करो ॥ ११ ॥
१ सदुःखमेतत् । २ स भृतां यो ३ सय, नैत्र ४ स शमं । ५ स खुहानां । ६ स चक्रेश्व'।७स जहीहि । ८ स 'लोभन