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________________ -7 : १-७] १. विषयविचारैकविंशतिः 5) यदि भवति समुद्रः सिन्धुतोयेन तृप्तो यदि कथमपि वह्निः काष्ठसंघाततश्च । अयमपि विषयेषु प्राणिवर्गस्तदा स्यादिति मनसि विदन्तो मा विधुस्तेषु यत्नम् ॥५॥ 6) असुरसुरनरेशी यो न भोगेषु सप्तः कथमिहे मनुमानां तस्य भोगेयु तृप्तिः! जलनिधिजलपाने यो न जातो वितृष्णस्तृणशिखरगताम्मापानतः किं स तृप्येत् ॥ ६॥ 7) सततविविधजीवध्वंसनादथैरेपायः स्वजनतनुनिमित्तं कुर्वते पापमुग्रम् । व्यथिततनुमनस्का अन्तयो ऽमी सहन्ते नरकगतिमुपेता दुःखमेकाकिनस्ते. ॥ ७ ॥ ' अर्य प्राणिवर्गोऽपि विषयेषु तृप्तः स्यात् इति मनसि विदन्तः तेषु यत्ने मा विधुः ॥५॥ यः असुर-सुर-नरेशां मोगेषु न तृप्तः तस्य इह मनुजानां भोगेषु कथं तृप्तिः । यः जलनिधिजलपाने वितृष्णाः न जातः सः तृणशिखरगताम्भःपानतः तृप्येत् किम् । [नेच तृप्येत्।]॥ ६ ॥ अमी जन्तवः व्यथिततनुमनस्काः रुतः स्वजन-तनुनिमित्त सततविविधजीवध्वसमादयः उपायैः उन पापं कुर्वते । ते नरकगतिमुपेताः एकाकिनः [एव ] दुखं सहन्ते || ७ || यदि अर्य ( अभीष्ट) विचित्रं द्रव्यं संचितं अधिक रहती है। परन्तु उनको भी उससे सन्तोष नहीं होता। वे भी ऊपर ऊपरके देत्रोंकी अधिक ऋद्धिको देखकर ईर्ष्यालु होते हुए दुखी होते हैं। इसके अतिरिक्त मरणके छह मास पूर्वमें जब कुछ चिह्नविशेषोंसे- मालाके मुरझाने आदिसे- उन्हें अपने मरणका परिज्ञान होता है तब वे प्राप्त भोगसामग्रीके त्रियोगकी सम्भावनासे अतिशय दुखी होते हैं। अब विचार कीजिये कि अभीष्ट विषयसामग्रीको पाकर उससे जय देव भी सुखी नहीं हो सकते हैं तब इच्छानुसार विषयसामग्रीको न प्राप्त कर सकनेवाले साधारण मनुष्य कैसे सुखी हो सकते हैं ! नहीं हो सकते । जैसे-जो सिंह मदोन्मत्त हाथियोंको भी पादाकान्त करके दुखों करता है वह बेचारे दीन-हीन हिरणोंको छोड़ दे, यह कभी सम्भव नहीं है || ! यदि नदियोंके जलसे समुद्र किसी प्रकार तृप्त हो सकता है और यदि किसी प्रकार काष्ठसमूहसे अग्नि तृप्त हो सकती है तो यह प्राणिसमूह भी विषयोंमें तृप्त हो सकता है। [ अभिप्राय यह कि जिस प्रकार समुद्र कभी नदियोंके जलसे सन्तुष्ट नहीं हो सकता है तथा अग्नि कभी इन्धनसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती है उसी प्रकार यह प्राणिसमूह भी कभी उन विषयभोगोंसे तृस नहीं हो सकता है । ] इसीलिये ऐसा मनमें विचार करनेवाले विद्वान उक्त विषयोंके सम्बन्धमें प्रयत्न न करें॥ ५॥ जो प्राणी असुरेन्द्र, देवेंद्र और नरेन्द्र (चक्रवर्ती) के भोगोंमें सन्तोषको नहीं प्राप्त हुआ है वह यहां मनुष्योंके भोगोंमें भला कैसे सन्तोषको प्राप्त हो सकता है ! अर्थात् नहीं हो सकता है। ठीक है-जिसकी प्यास समुद्रप्रमाण जलके पी लेने पर भी नहीं बुझी है वह क्या तुणके अप्रभामपर स्थित बिन्दुमात्र जलके पीनेसे तृप्त हो सकता है ! कभी नहीं ॥६!शारीरिक एवं मानसिक कष्टको भोगते हुए ये जो प्राणी अपने कुटुम्बी जनोंके निमित्तसे और अपने शरीरके भी निमित्तसे निरन्तर जीवहिंसायुक्त अनेक प्रकारके उपायोंके द्वारा (जीवहिंसनादिके द्वारा ) तीव्र पाप करते हैं वे नरकगतिको प्राप्त होकर अकेले ही दुखको सहते हैं | विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जीवहिंसा आदि दुष्कायोको करके जीव जो भी पाप करता है उसे वह दूसरोंके निमित्तसे. करता है- शरीर एवं आत्मीय जनोंके भरण-पोषणादिके निमित्तसे करता है। परन्तु इससे जो उसके पापका संचय होता है उसका फल अकेले उस प्राणीको ही भोगना पड़ता है- उसमें कोई भी दूसरा हाथ नहीं बॅटाता है ।।७।। यदि अनेक प्रकारका अभीष्ट द्रव्य संचित हो जाता है तो उसका उपभोग निकटवर्ती सेवक जन, पुत्र एवं स्त्री . . .१.सख्यधुः। २ स नराणां। ३ स तुप्तो। ४ स कथमपि । ५.स वसनौधै, 'नाये 1..६ स मनस्काः । ७ स सहतो! ८ सकिनस्तु, किमस्तु ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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