SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१. श्रावकधर्मकथन सप्तदशोत्तरं शतम् 774 : ३१-१२ ] 769) क्रोधलोभनदद्वेषरागमोहादिकारणैः । असत्यस्य परित्यागः सत्याणुव्रत मुच्यते ॥ ८ ॥ 770) प्रवर्तन्ते यतो दोषा हिसारम्भभवावयः' सत्यमपि न वक्तव्यं तद्वचः सत्यशालिभिः ॥ ९ ॥ 771) हासकर्कशशुन्य निष्ठुरादिवचोमुचः । द्वितीयाणुव्रतं पूरा देहिनो लभते स्थितिम् ॥ १० ॥ 772) यद्वदन्ति शठा धर्म यन्म्लेच्छेष्वपि निन्वितम् । वर्जनीयं त्रिधा वाक्यमसत्यं तद्धितोद्यतैः ॥ ११ ॥ 773) ग्रामावी पतितस्याल्पप्रभूतेः परवस्तुनः 1 आदानं न त्रिधा यस्य तृतीयं तदणुव्रतम् ॥ १२ ॥ 774) इह दुःखं नृपादिभ्यः परत्र नरकादितः । प्राप्नोति स्तेयतस्तेन स्तेयं त्याज्यं सदा बुधैः ॥ १३॥ २०२ गारातः सान् पालयते । ततः विरताविरतः ज्ञेयः ॥ ७ ॥ क्रोध लोभमदद्वेषरागमोहादिकारणैः असत्यस्य परित्यागः सत्याणुव्रतम् उच्यते ॥ ८ ।। यतः हिंसारम्भभवादयः दोषाः प्रवर्तन्ते तद् वचः सत्यम् अपि सत्यशालिभिः न वक्तव्यम् ॥ ९ ॥ हास कर्कशपैशुन्यनिष्ठुरादिवचोमुत्रः देहिनः पूतं द्वितीयाणुव्रतं स्थिति लभते ॥ १० ॥ शठाः यत् धर्म वदन्ति यत् म्लेच्छेषु अपि निन्दितं तत् असत्यं वाक्यं हितोद्यतः त्रिधा वर्जनीयम् ।। ११ ।। यस्य ग्रामादौ पतितस्य अल्पप्रभूतेः परवस्तुनः त्रिषा न आदानं तत् तृतीयम् अणुव्रतम् ॥ १२ ॥ इह स्तेक्तः नृपादिभ्यः दुःखं प्राप्नोति परत्र नरकादितः दुःखं प्राप्नोति । तेन उसे विरताविरत जानना चाहिये ॥ ७ ॥ विशेषार्थ - देशव्रती श्रावक चूंकि आरम्भ व परिग्रहमें रत होता है अतएव वह स्थावराहसा परित्याग नहीं कर सकता है। किन्तु वह संकल्प पूर्वक सहिंसाका त्यागी अवश्य होता है। साथ ही वह आरम्भादिमें होनेवाली सहिसाके विषय में भी अत्यधिक सावधान रहता है-यत्नाचार पूर्वक ही आरम्भादिमें प्रवृत्ति करता है इसीप्रकार वह असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहका भी स्थूलरूप से परित्याग करता है। वह चूंकि उक्त पापोंका स्थूल रूपसे हो त्याग करता है, पूर्णतया उनका त्याग नहीं करता है; इसीलिये उसे विरताविरत या देशव्रती कहा जाता है ॥ ७ ॥ क्रोध, लोभ, मद, द्वेष, राग और मोहके कारणसे असत्यभाषणका परित्याग करना; इसे सत्याणुव्रत कहा जाता है || ८ | जिस वचनसे हिसा आरम्भ और भय आदि दोषोंकी प्रवृत्ति होती है मत्याणुव्रती श्रावकोंको उस सत्य वचनको भी नहीं बोलना चाहिये ॥ ९ ॥ जो मनुष्य हास्यपूर्ण, कठोर, पिशुनता ( चुगलखोरी या परनिन्दा ) से युक्त और निर्दयतापूर्ण वचनको छोड़ देता है उसका निर्मल सत्याणुव्रत स्थिरताको प्राप्त होता है ॥ १० ॥ मूर्ख मनुष्य जिस पशुहिंसादि कर्मको धर्म बतलाते हैं तथा जिसकी म्लेच्छ जन भी निन्दा करते हैं उसको सूचित करनेवाले असत्य वाक्यका हितेषी जनको मन, वचन और कायसे परित्याग करना चाहिये ॥ ११ ॥ जो श्रावक ग्राम आदिमें गिरी पड़ी हुई दूसरेकी अल्प आदि ( थोड़ी अथवा बहुत ) वस्तुको ग्रहण नहीं करता है उसके वह तीसरा अचौर्यापुव्रत होता है ॥ १२ ॥ प्राणी चोरोके कारण चूंकि इस लोकमें तो राजा आदिसे तथा परलोक में नरकादि दुर्गतिकी प्राप्तिसे दुखको प्राप्त होता है इसीलिये विद्वान् जनोंको निरन्तर चोरीका परित्याग करना चाहिये ॥ १३ ॥ चूंकि प्राणी धनके सहारे बन्धु जनोंके साथ जोवित रहते हैं इसीलिये उस धन के १ स भया दमाः । २ सय ३ स मुक्तः, "मुलः मुन । ४ स om verse 12 th i मु सं. २७
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy