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________________ २१० सुमाहितसंबोहः [775 : ३१-१३ 775) जीवन्ति प्राणिनो येन द्रव्यतः सह बन्युमिः। जीवितव्यं ततस्तेषां हरेसस्याहारतः ॥१३॥ 776) ये 'पहिसाबयो धर्मास्तेऽपि नश्यन्ति मोर्यतः । मस्वेति न त्रिमा पाह्यं पराव्यं विचाः ॥१५॥ 777) वर्षा बहिबारा प्राणाः प्राषिनी येन सर्वया । परतव्यं ततः सन्तः पश्यन्ति सवृशं मृदा ॥ १६॥ 778) मातृस्वसृसुसातुल्या निरोक्ष परयोषितः । स्वकालत्रेण यस्तोवरणतु तवणुव्रतम् ॥१७॥ 779) यार्गला स्वर्गमार्गस्य सरणि: वनसपनि । कृष्णाहिदृष्टिवर डोहा दुस्पग्निशिखेव या॥१८॥ 780) दुःखाना निषिरन्यस्त्रो सुखानां प्रख्यानमः। व्याषिवददाखवस्थाज्या वरतः सा नरोत्तमैः ॥ १९॥ 781) स्वभर्तारं परित्यज्य यां परं पाति निस्त्रापा। विश्वासं अयते तस्यां कवमन्यः स्वयोषिति ॥२०॥ बुधः स्तेयं सदा स्याज्यम् ॥ १३ ॥ येन द्रव्यतः प्राणिनः बन्वमिः सह जीवन्ति, ततः तस्य अपहारतः तेषां जीवितव्य हरेत् ॥ १४॥ ये बहिसादयः अपि धर्माः [ सन्ति ]ते चौर्यतः नश्यन्ति : इति मत्वा विचक्षणः परद्रव्यं त्रिधा न ग्राह्यम् ॥ १५ ।। येन अपाः प्रापिनां सर्वथा बहिरूपराः प्राणाः, ततः सन्तः परदन्यं मृदा सदृशं पश्यन्ति ॥ १६ ॥ परयोषितः मातृस्वस सुतातुल्याः निरीक्ष्य स्वकलोण य: दोषः तत् चतुर्षम् अणुवतम् ॥ १७॥ मा अन्यस्त्री स्वर्ममार्गस्य अर्मना, श्वभ्रसपनि सरभिः, कृष्णाविद् द्रोहा, या अग्निशिखा इव दुःस्पर्धा, दुःखानां निधिः, सुखाना प्रलयानल:, सा नरोत्तमः व्याधिवत् दुःसवत् पुरतः त्याज्या ॥ १८-१९॥ निस्त्रपा या स्वमारं परित्यज्य परं याति, अन्यः तस्यां स्वपोनिति (इव) 'अपहरणसे मनुष्य उन सबके जीवनका भी अपहरण करता है। अभिप्राय यह कि चोरी करनेवाला मनुष्य केवल चोरी जन्य पापको ही नहीं करता है, किन्तु इसके साथ ही वह हिंसाजन्य पापको भी करता है । कारन कि घनके नष्ट होने पर प्राणी अतिशय संकट में पड़कर प्राों तकका त्याग कर देते हैं और इस सब पापका कारण उक्त घनका अपहरण करनेवाला ही होता है ।॥ १४॥ जो भी हिंसा आदि धर्म हैं वे भी चोरोसे नष्ट हो जाते हैं, यह समझ करके विद्वान् मनुष्योंको मन, वचन बोर कायसे दूसरेके वनको नहीं ग्रहण करना चाहिये ॥ १५ ॥ अर्थ ( सुवर्ण, चांदी, धान्य व पशु बादि) चूंकि प्राषियोंके बाहर संचार करनेवाले सर्वथा प्राण जैसे ही होते हैं इसीलिये सत्पुरुष दूसरोंके धनको मिट्टीके समान समझते हैं वे कभी दूसरोंके धनका अपहरण नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ दूसरे मनुष्योंकी स्त्रियोंको माता, बहन और पुत्रीके समान मानकर जो केवल अपनी पत्नोके साथ सन्तोष रखा जाता है इसे ब्रह्मचर्यानुवत नामका चोषा अणुव्रत जानना चाहिये ॥ १७ ॥ जो परस्त्री स्वर्ग मार्गको बगंला ( बेड़ा) के समान है-स्वर्गप्राप्तिमें राधक है, नरकरूप घरका मार्ग हैनरकमें पहुंचानी वालो है, काले सर्पकी दृष्टिके समान घातक है, बग्निको ज्वालाके समान स्पर्श करनेमें दुसप्रद है, दुःखोंका स्थान है, तथा जो सुखोंको नष्ट करलेके लिये प्रलय कालोन बग्निके सहन है; उस परस्त्रीका श्रेष्ठ पुरुषोंको व्याधिके समान दुखदायक जानकर दूरसे ही परित्याग करना चाहिये ।। १८-१९ ॥ जो परस्त्री १स पेप्याहि । २ व शोर्यत । ३ स निरौल । ४.स शरनिः, सेषिः । ५ सद्रोही । ६ स कामिन्यांक for कथमन्यः।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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