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________________ [ १९, दाननिरूपणचतुर्विशतिः ] 474) तुष्टिश्रद्धाविनयभजना'लुब्धताक्षान्तिसत्त्व प्राणत्राणव्यवसितिगुणज्ञानकालजताया। वानासक्ति जननमृतिभी श्चास्तिको भत्सरेय?" वक्षात्मा यो भवति स नरो वातमुल्यो जिनोक्तः ।। १॥ 475) काले ऽन्नस्य क्षुषमवहितो वित्समानो विधृत्य नो भोक्तव्यं प्रथममतिथेयः सवा तिष्ठतीति । तस्याप्राप्तावपि गतमलं पुण्यराशि अयन्त तं वातार जिनपतिमते मुल्यमाहोजनेन्द्राः॥२॥ 476) सर्वाभीष्टा बुधजननुता धर्मकामार्थमोक्षाः सत्सौख्यानां बितरणपरा दुःखविध्वंसयक्षाः । लब्बू शक्या जगति न यतो ओवितव्यं विनव तहानेन ध्रुवमसुभृतां कि न बत्तं ततो ऽत्र ॥३॥ यः नरः तुष्टिश्रद्धाविनयभजनालुब्धताशान्तिसत्त्वप्राणत्राणव्यवसितिगुणज्ञानकालजताढ्य दानासक्तिः जननमृतिभीः आस्तिकः अमत्सरेष्यः च दशात्मा भवति स जिनोक्तः दातमुख्यः भवति ।। १॥ दित्समानः यः अन्नस्य काले अबाहितः अतिथेः प्रथम नो भोक्तव्यम् इति शुधं विश्रुत्य सदा तिष्ठति तस्य अप्राप्तौ अपि गतमलं पुण्यराशि श्रयन्तं तं दातार जिनेन्द्राः जिनपतिमते मुख्यम् आहुः ॥२॥ यतः जगति सर्वाभीष्टाः बुधजननुताः दुःखविध्वंसदक्षाः सत्सौख्यानां वितरणपराः धर्मकामार्थ मोलाः जीवित विना लन्धु नैव शक्याः। ततः तहानन ध्रुवम् अत्र असुभता किन दत्तम् ।। ३ ।। जो मनुष्य सन्तोष, श्रद्धा, विनय, भक्ति, लोभ-हीनता, क्षमा, जीवरक्षानिरतता, गुणग्राहकता और कालज्ञता, इन गुणोंसे सम्पन्न है; दान देनेमें अनुराग रखता है, जन्म व मरणसे भयभीत है, तत्त्वश्रद्धानी है, मत्सरता और ईर्ष्यासे रहित है, तथा योग्यायोग्यके विचारमें दक्ष है वह श्रेष्ठ दाता होता है; ऐसा जिन देवने निर्दिष्ट किया है ॥ १ ॥ जो दान देनेका इच्छुक दाता आहारके समयमें सावधान रहकर 'अतिथिके पहलेमुनिको आहार देनेके पहले---भोजन करना योग्य नहीं है' ऐसा सोचकर भूखा रह करके निरन्तर स्थित रहता है वह भतिथिके अलाभमें भी निर्मल पुण्यराशिका संचय करता है। जिनेन्द्र भगवान् उस दाताको अपने मतमें मुख्य दाता बतलाते हैं ।। २ । जो धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ सब मनुष्योंके लिये प्रिय हैं, जिनकी पण्डित जन स्तुति करते हैं, जो समीचीन सुखके देने में तत्पर हैं और जो दुखके नष्ट करनेमें समर्थ हैं वे चूंकि जीवनके बिना संसारमें कभी प्राप्त नहीं किये जा सकते हैं अतएव उस जीवनके दानसे यहाँ प्राणियोंको निश्चयसे क्या नहीं दिया गया है ? अर्थात् सब कुछ ही दिया गया है ।। ३॥ विशेषार्थ---धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये पुरुषके प्रयोजनभूत चार पुरुषार्थ हैं । मनुष्य यदि जीवित है तो वह गृहस्थ अवस्थामें रहकर परस्परके १स भजता , भजना लब्धता क्षान्ति' । २ स व्यवसति, व्यवसित° । ३ सशक्ति। ४ समतिभि । ५ स मत्परोयों मत्स । ६ स न्यस्य । ७ स व्यवहितो। ८ स सयंते, श्रर्यते । ९ स नयतो।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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