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________________ १३७ 479 : १९-६] १९. दाननिरूपणचतुर्विशतिः 477) कृत्याकृत्ये कलयति यतः कामकोपो लुनीते धर्मे श्रद्धां रचयति परां पापवुद्धि पुनीते। अक्षार्थेम्यो विरमति रजो हन्ति चित्तं पुनीते तदातव्यं भवति विदुषा शास्त्रमत्र तिम्यः ॥४॥ 471) भार्थाभ्रातृस्वजनतनयान्यनिमित्तं त्यमन्ति प्रजासत्त्वव्रतसमितयो यढिना यान्ति नाशम् । भुदरःलेन ग्लपितवपुषो भुञ्जते सत्वभक्ष्य' तदातव्यं भवति विदुषा संयतम्यान्नभुखम् ॥५॥ 479) सम्यग्निधाशमदमतपोध्यानमौनव्रतावर्ष श्रेयोहेतुर्गतरुनि सनौ जायते येन सर्वम् । तत्साधूनां व्यषितवपुषां तोवरोगप्रपत्रस्तद्रक्षार्थ वितरत जनाः 'प्रासुकान्योषधानि ॥६॥ यतः कृत्माकृत्ये कलयति, कामकोपो लुनौते, धर्म परां श्रद्धा रचति, पापबुद्धि धुनीते, अक्षार्थेम्यो विरमति, रजो हन्ति, चित्तं पुनीते, तत् शास्त्रम् अत्र विदुषा प्रतिभ्यः दातव्यं भवति ।। ४ ॥ निमित्तं भाभ्रिातृस्वानवनयान् त्यन्ति, प यदिना प्रज्ञासस्ववतसमितयः नाशं यान्ति, (च यदिना) सुदुःलेन ग्लपितवपुषः अभक्ष्यं भुजते, तत् बम्मनुढे विदुषा संयताय दातम्यं भवति ॥ ५ ॥ येन तनी गतरुजि सव' सम्यग्विद्याशमदमतपोध्यानमौनव्रताड्यं थेयोहेतुः जायते तत् तीनरोगप्रपञ्चैः व्यथितवपुषां साधूनां तद्रक्षार्थ [ हे ] जनाः प्रासुकानि औषधानि वितरत ।। ६ ॥ कन्यास्वर्गद्विपहपपरागो विरोधसे रहित धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थीका सेवन करता हुआ अन्तमें समस्त परिग्रहको छोड़कर चतुर्थ मोक्ष पुरुषार्थको भी सिद्ध कर सकता है। किन्तु यदि उसका जीवन ही नष्ट हो जाता है तो फिर उक्त पुरुषार्योंका सेवन करना असम्भव हो जाता है। इसीलिये जो दाता प्राणियोंके लिये जीवनदान देता है-सव प्रकारसे उनके प्राणोंको रक्षा करके उन्हें अभयदान देता है वह अतिशय प्रशंसाका पात्र है। कारण यह कि ऐसा करके उसने प्राणोको उक्त पुरुषार्थोके साधनमें समर्थ कर दिया जो कि सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है ॥ ३ ॥ जिस शास्त्रको सहायतासे प्राणी कार्य-अकार्यका निश्चय करता है, काम और क्रोधको नष्ट करता है, धर्मके विषयमें दृढ़ श्रद्धानको उत्पन्न करता है, पाप बुद्धिको दूर करता है, इन्द्रिय विषयोंसे ( भोगोंसे ) विरक्त होता है, कर्म रूप धूलिको नष्ट करता है, और चित्तको पवित्र करता है; विद्वान् मनुष्यको यहाँ व्रती जनोंक लिये उस शास्त्रका दान करना चाहिये-ज्ञानदान देना चाहिये ॥ ४॥ जिस भोजनके निमित्तसे मनुष्य स्त्री, भाई, कुटुम्बी जन और पुत्रको भी छोड़ देते हैं, जिसके बिना बुद्धि, बल, व्रत और समितियां नष्ट हो जाती हैं। तथा जिसके बिना मनुष्य भूखसे पीड़ित होकर अभक्ष्यका भक्षण करते हैं; विद्वान् मनुष्यको संयमी उनके लिये उस शुद्ध भोजनका दान करना चाहिये ।। ५॥ शरीरके नोरोग रहने पर हो कि समीचीन ज्ञान, शान्ति, दान्ति, तप, ध्यान, मौन और व्रतसे सम्पन्न सब ही कार्य कल्याणका कारण होता है; इसीलिये मनुष्योंको तीव्र रोगोंके विस्तारसे जिनका शरीर पोहित हो रहा है उन साधुओंके लिये निर्दोष औषधोंको प्रदान करना चाहिये । कारण कि ऐसा करनेसे उनको उक्त रोगोंसे रक्षा होती है और इससे वे यथार्थ सुखके माधनभूत उपर्युक्त सम्यग्ज्ञानादि १ स त्वभक्षं 1 २ स जताऔं । ३ सचि । ४ स प्राशुका ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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