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________________ 479 १८-२४] १८. सुजननिरूपण चतुविशतिः 472) यद्वद्वाचः प्रकृतिसुभगाः सज्जनानां प्रसूताः शोकक्रोप्रभूति जखपुस्तापविष्वंसवक्षाः । पुंसां सौख्यं विदधतितरां शीतलाः सर्वकालं तच्छीत तिरुचिलवा' नामृतस्यन्दिनो ऽपि ॥ २३ ॥ 473) आष्टोऽपि व्रजति न स्वं भाषते नापभाष्यं नोत्कृष्टोऽपि प्रवहति मदं शोधैर्याविषः । यो यातोऽपि व्यसनमनिशं कातरत्वं न याति सन्तः प्राहुस्तमिह सुजनं तत्त्वबुद्धघा विवेच्य ॥ २४ ॥ इति 'सुजन निरूपणचतुर्विंशतिः १८ ॥ १३५ कोतिप्रीतिप्रशम पटुतापूज्यतातत्ववोधाः झटिति संपद्यन्ते ।। २२ ।। यद्वत् सज्जनानां प्रसूताः प्रकृतिसुभगाः शोकक्रोधप्रभूति - जब पुस्तापविध्वंसदक्षाः शीतला वाचः सर्वकालं पुंसां सौख्यं विदधतितराम् । तद्वत् अमृतस्यन्दिनोऽपि शीतद्युतिरुचिलवाः न सन्ति ।। २३ ।। आक्रुष्टः अपि यः वर्ष न व्रजति, अपमाध्यं न भापते, शौर्यधैर्यादिधर्मः उत्कृष्टः अपि मदं न प्रवहति । अनि व्यसनं यातः अपि यः कातरत्वं न याति । इह सन्तः तत्वबुद्या विवेच्य तं सुजनं प्राहुः ॥ २४ ॥ इति सुजननिरूपणचतु विंशतिः ॥ १८ ॥ उपर्युक्त उत्तम गुण प्राप्त होते हैं ।। २२ ।। जिस प्रकार सज्जनोंके मुखसे उत्पन्न हुए शीतल वचन स्वभावसे सुन्दर तथा शोक व क्रोध आदिके कारण उत्पन्न हुए शरीरके सन्तापको दूर करते हुए निरन्तर प्राणियोंको अतिशय सुख देते हैं उस प्रकार अमृतको बहाने वाले चन्द्रमाके शीतल किरण भी नहीं देते हैं। तात्पर्य यह कि सज्जनोंके वचन चन्द्रमाकी शीतल किरणोंकी अपेक्षा भी अधिक शान्ति प्रदान करते हैं ॥ २३ ॥ जो गालियोंको सुन करके भी न तो क्रोध करता है और न उसके प्रतीकारके लिये अपशब्द ही बोलता है-गालियाँ हो देता है, जो शूरवीरता एवं धीरता मादि धर्मोसे उत्कृष्ट हो करके भी कभी गर्वको धारण नहीं करता है, तथा जो निरन्तर पीड़ा को प्राप्त हो करके भी कभी कायरताको प्राप्त नहीं होता है; उसे यहाँ साधुजन यथार्थ दृष्टिसे देखकर सज्जन बतलाते हैं ॥ २४ ॥ इस प्रकार चौबीस श्लोकों में सुजनका निरूपण किया ॥ १८ ॥ १ स°लवानमृत° । २ स आकृष्टो, आकष्टो स नापभाषं । ४ स नो कुष्टो । ५ स सज्जननिरूपणम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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