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सुभाषितसंोहः
469 ) अस्पत्युच्चैः शकलितवपुश्चन्वनो नारभगन्धं नेक्षुर्यन्त्रैरपि मधुरता पिधमानो जहाति । स्वर्ण न चति हितं छिन्नघुष्टो 'पतप्तं तद्वस्साधुः कुजननिहतो ऽप्यन्ययात्वं न याति ॥ २० ॥ 470 ) महद्भानुविसरति करैर्मोव मम्भोव्हाणां शीतभ्योतिः सरिवधिपति लब्धवृद्धि विषत्ते * । वार्यो लोकानुदकविसरैस्तर्पयत्पस्तहेतु
स्तद्वत्तोष" रचयति गुणैः सज्जनः प्राणभाजाम् ॥ २१ ॥ 471) देवा घोतकमसरसिजा: सौख्यवाः सर्वलोके
पृथ्वीपालाः प्रववति धनं कालतः सेव्यमानाः । कीर्तिप्रीतिप्रशमपटुता पूज्यत तत्त्वबोधाः संपद्यन्ते टिति कृतिनाश्चैव पुंसः स्थिरस्य ॥ २२ ॥
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[ 469 : १८-२०
सुखं विचरति, न्यायवृत्ति तनोति धर्मे बुद्धिरवयतितराम् पापबुद्धि घुनीते ॥ १९ ॥ उचैः कलितवपुः बन्दनः आत्मगन्धं न अस्यति । यन्त्रैः पीड्यमानः अपि इक्षुः मधुरतां न जहाति । यद्वत् छिन्नष्टोपतप्तं हितं सुवर्णन चलति व कुपननिहतः अपि साधुः अन्यथात्वं न याति ।। २० ।। यद्वत् अस्तहेतुः भानुः करें: अम्भोव्हाणां मोदं वितरति । शीतज्योतिः सरिदधिपति लम्बवृद्धि विधते । वार्यः लोकान् उदकविस १: तर्पयति । तद्वत् सज्जनः पुणैः प्रागभाजा तोषं रचयति ॥ २१ ॥ धौतक्रमसरसिजाः देवा: स्वर्गलोके सौख्यदाः भवन्ति । सेव्यमानाः पृथ्वीपालाः कालतः भनं प्रददति । स्थिरस्य कृतिनः पुंसः
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हारका विस्तार करती हैं, धर्ममें बुद्धिको अतिशय लगाती है, तथा पापबुद्धिको नष्ट करती है || १९ || जिस प्रकार चन्दन शरीरके अतिशय खण्डित किये जानेपर भी अपने गन्धको नहीं छोड़ता है— उसे अधिक ही फैलाता है, जिस प्रकार ईख (गन्ना) कोल्हू यंत्रोंके द्वारा पीड़ित होता हुआ भी अपनी मधुरताको ( मिठासको नहीं छोड़ता है, तथा जिस प्रकार हितकारक सुवर्ण छेदा जाकर घिसा जाकर एवं अग्निसे सन्तप्स हो करके भी अपने स्वरूपसे विचलित नहीं होता है—उसे और अधिक उज्ज्वल करता है; उसी प्रकार सज्जन मनुष्य दुष्ट जनोंके द्वारा पीड़ित हो करके भी विपरीत स्वभावको (दुष्टताको ) नहीं प्राप्त होता है || २० || जिस प्रकार निस्वार्थ होकर सूर्य अपनी किरणोंके द्वारा कमलोंके लिये मोदको देता है-- उन्हें प्रफुल्लित करता है, जिस प्रकार चन्द्रमा समुद्रको वृद्धिंगत करता है, तथा जिस प्रकार मेघ लोगोंको पानीकी वर्षासे सन्तुष्ट करता है; उसी प्रकार सज्जन मनुष्य प्राणियोंको अपने गुणोंके द्वारा सन्तुष्ट करता है ।। २१ । देव लोग चरण कमलोंके प्रक्षालित करने पर उनकी सेवा करने पर स्वयं लोकमें सुख देते हैं और राजा लोगोंकी सेवा करने पर वे समयानुसार ही धनको देते हैं । परन्तु सज्जन पुरुषके आश्रयमें गये हुए पुण्यशाली मनुष्यको कीर्ति, प्रीति, शान्ति, निपुणता, पूज्यपना और तत्त्वज्ञान ये सब शीघ्र ही प्राप्त होते हैं । अभिप्राय यह है कि देवोंकी आराधना करने पर वे केवल स्वर्ग में ही सुख दे सकते हैं, न कि सर्वत्र, इसी प्रकार राजाओंकी सेवा करने पर जब वे प्रसन्न होते हैं तब ही मनुष्यको वन देते हैं। परन्तु सज्जनको संगति करने पर मनुष्यको सर्वत्र और सदा ही कीर्ति आदि
१ स घुष्टो' । २स मंदमंत्रो । ३ स शीतपोतिः १४ स विदत्तं । ५ स स्तद्वद्दोष, स्तद्वतेषां । ६ स स्वर्गलोके । ७स कीर्तिः । ८ स 'पटुता पू तत्त्वयोधा । ९ स श्रितस्य ।