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________________ १८. सुजननिरूपणचतुर्विंशतिः 468 : १८-१९ ] 466) नित्य च्छायाः फलभरनता: प्रोणितप्राणिसार्थाः क्षिप्त्यापेक्षामुपकृतिकृतो दत्तसत्त्वावकाशाः । शश्वत्तुङ्गा विपुलसुमनोचाजिनो ऽलङ्घनीयाः * प्रीति सन्तः स्थिरतरधियो' वृक्षवद्वषयन्ति ॥ १७ ॥ 487) मुक्त्वा स्वायं सपहृक्याः कुर्वते ये परार्थ ये निर्व्याज विजित कलुषां तन्वते धर्मबुद्धिम् । ये निर्वा विवर्षात हितं ते नापवादं ते पुंनागा जगति विरलाः पुष्पवन्तो भवन्ति ॥ १८ ॥ 468 ) हन्ति ध्वान्तं रयति' रजः सस्वमाविष्करोति प्रज्ञां सूते वितरति सुखं न्यायवृत्ति तनोति । ID धर्मे बुद्धि रचयतितरां पापबुद्धि पुनीते पुंसां नो वा किमिह कुरते संगतिः सज्जनानाम् ॥ १९ ॥ १३३ या वस्तदोषा काचित् वचनरचना, यां शृण्वन्तः शमितकलुषाः सत्त्वाः निवृति यान्ति ॥ १६ ॥ वृक्षवत् नित्यच्छायाः फलभरनताः, प्रीणितप्राणिसार्थाः प्रेक्षां क्षिप्त्या उपकृतिकृतः दत्तसत्त्वा वकाशाः शष्यसूङ्गाः, विपुलसुमनोघ्राजिनः, अलङ्घनीयाः स्थिरतरधिमः सन्तः प्रीति वर्षयन्ति ॥ १७ ॥ सकुपहृदयाः ये स्वार्थ मुक्त्वा परार्थ कुर्वते, ये विजिसकलुष नियांजां धर्मबुद्धि तन्वते ये निर्गव हितं विदधति, अपवादं न गुप्ते, ते पुण्यवन्तः पुंनागा: जगति विरलाः भवन्ति ॥ १८ ॥ इहू सज्जनानां संगतिः पुंसां किं वा न कुरुते । सा ध्वान्तं हन्सि, रजः रहयति सत्त्वम् आविष्करोति, प्रशां सूते, प्रकार वृक्ष निरन्तर पथिक जनोंको छाया प्रदान करते हैं उसी प्रकार सज्जन भी शरणागत जनोंको छाया प्रदान करते हैं - आश्रय देते हैं, जैसे वृक्ष फलोंके बोससे नत रहते हैं मुके रहते हैं वैसे ही सज्जन भी गुणोंके बोझसे नत रहते हैं, नम्रीभूत रहते हैं, यदि प्राणियोंके समूहको वृक्ष प्रसन्न करते हैं तो वे सज्जन भी उसे प्रसन्न करते हैं, वृक्ष जैसे उपकृत जनसे किसी प्रकारके प्रत्युपकारकी अपेक्षा न करके प्राणीमात्रको आश्रय देते हैं वैसे ही सज्जन भी विना प्रत्युपकारकी अपेक्षा किये ही प्राणिमात्रको आश्रय देते हैं, जिसप्रकार वृक्ष निरन्तर ऊंचे होते हैं उसी प्रकार सज्जन निरन्तर ऊँचे रहते हैं—गुणोंसे युद्धिगत होते हैं, वृक्ष यदि विपुल सुमनोंसे प्रचुर फूलोंसे सुशोभित होते हैं तो सज्जन भी विपुल सुमनसेउदार विशुद्ध मनसे – सुशोभित होते हैं, तथा जिस प्रकार वृक्ष अतिशय ऊँचे होनेसे किसीके द्वारा लधि नहीं जा सकते हैं उसी प्रकार सज्जन भी उन्नत गुणोंसे परिपूर्ण होनेसे किसीके द्वारा लांबे नहीं जा सकते हैं— कोई भी उनका तिरस्कार नहीं कर सकता है || १७ || जो सत्पुरुष हृदयमें दयाको धारण करते हुए स्वार्थको छोड़कर एक मात्र परोपकारको करते हैं, जो मायाचारको छोड़कर अपनी निर्मल बुद्धिको धर्म में लगाते हैं, तथा जो गर्वसे रहित होकर दूसरोंके हितको तो करते हैं किन्तु उनके अपवाद ( निन्दा या दोष) को नहीं ग्रहण करते हैं वे पुरुषश्रेष्ट संसारमें बिरले है - थोड़े ही है-और वे ही पुण्यशाली हैं ॥ १८ ॥ सज्जनोंकी संगति यहाँ पुरुषोंका क्या उपकार नहीं करती है ? सब कुछ करती है - वह अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करती है, पापदूर करती है, सत्त्व गुणको प्रकट करती है, विवेक बुद्धिको उत्पन्न करती है, सुखको देती है, न्याय व्यव को १ स नित्यं । २ सणताः । ३स प्रेक्षा ४स लङ्घनीयाः । ५ स प्रीतिमंतः प्रीतिः ६ स धियः धिया । ७ ससा । ८ स पुण्यवंते । ९ सहरयति । १० ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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