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________________ सुभाषितसंोहः 463) जातु स्थैर्याद्विचलति गिरिः शीततां याति वह्निर्यादोनाथः स्थितिविरहितो मारुतः स्तम्भमेति । तीव्रश्चन्द्रो भवति दिनपो जायते चाप्रतापः कल्पान्ते ऽपि व्रजति बिकृति सज्जनो न स्वभावात् ॥ १४ ॥ 464) वृत्तस्यागं विवति न ये नान्यवोषं ववन्ते १३२ नो याचन्ते सुहृदमनं नाशतो नापि दीनम् । नो सेवन्ते बिगतचरितं कुर्वते नाभिभूति नो लङ्घन्ते क्रमममालिनं सज्जनास्ते भवन्ति ॥ १५ ॥ 465) मासूस्वामिस्वजनजनक भ्रातृभार्याजनाथा वातुं शक्तास्सदिह न फलं सज्जना यद्ददन्ते । काचित्तेषां वचनरचना येन सा ध्वस्तदोषा यां शृण्वन्तः शमितकलुषा निर्वृत्त यान्ति सत्याः* ॥ १६ ॥ [ 463 १८-१४ कोपः विद्युत्स्फुरिततरलः, मंत्री ग्रावरेखेव, चरितं मेरुस्थे, सर्वजन्तूपचारः अचल, बुद्धिः धर्मग्रह्णचतुरा, वाक्यम् अस्तोपतापम् । अत्र लोके एभिः एव सुजनगुणैः किं न पर्याप्तम् ।। १३ ।। गिरिः स्थैर्यात् जातु विचलति वह्निः शीततां याति मादोनाथ: स्थितिविरहितः भवति मारुतः स्तम्भम् एति चन्द्रः तीव्रः भवति च विनपः अप्रतापः जायते । कल्पान्ते अि सज्जनः स्वभावात् विकृति न व्रजति ॥ १४ ॥ मे वृत्तत्यागं न विदषति अन्यदोषं न वदन्ते नाशतः अपि अघनं सुहृदं नो याचन्ते, दीनमपि न ( याचन्ते), विगतचरितं नो सेवन्ते, अभिभूति न कुर्वते, अमलिनं क्रमं नो लवन्ते, ते सज्जनाः भवन्ति ।। १५ ।। इह सज्जनाः यत् फलं दातुं शक्ताः तत् मातृस्वामिस्वजन जनक भ्रातृभार्याजनाद्याः न ददन्ते । येन तेषां पत्थरकी रेखा के समान स्थिर रहनेवाली है, चरित्र मेरु पर्वतके समान निश्चल है, समस्त प्राणियों की सेवा अचल है, बुद्धि धर्म ग्रहणमें प्रवीण है, और सन्तापसे रहित है- दूसरोंको सन्ताप देनेवाला नहीं है; ये सब सज्जनके गुण क्या यहाँ लोकमें पर्याप्त नहीं हैं ? पर्याप्त हैं बहुत है ॥ १३ ॥ कदाचित् पर्वत अपनी स्थिरतासे विचलित हो जावे - स्थिरताको भले ही छोड़ दे, अग्नि शीतलताको प्राप्त हो जावे, समुद्र स्थितिसे रहित हो जावे - अपनी सीमाको भले ही छोड़ दे, वायु निरोधको प्राप्त हो जावे -संचारसे रहित हो जावे, चन्द्रमा तीक्ष्णताको प्राप्त हो जावे, तथा सूर्य निस्तेज हो जावे; परन्तु सज्जन मनुष्य प्रलयकालके भी उपस्थिति हो जानेपर कभी अपने स्वभावसे विकारको प्राप्त नहीं होते । अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार उपर्युक्त पर्वत आदि कभी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते हैं उसी प्रकार सज्जन भी चाहे कितना ही संकट क्यों न आ जाये, किन्तु वह् अपने सज्जन स्वभावको नहीं छोड़ता है ॥ १४ ॥ जो चारित्रका परित्याग नहीं करते हैं, अन्यके दोषको नहीं कहते हैं - परनिन्दा नहीं करते हैं, सर्वनाशके होने पर भी न निर्धन मित्रसे और न अन्य किसी दीन पुरुष से भी याचना करते हैं, होन आचारवाले किसी नीच मनुष्यकी सेवा नहीं करते हैं, अन्यका तिरस्कार नहीं करते हैं, तथा निर्दोष परिपाटीका उल्लंघन नहीं करते हैं वे सज्जन होते हैं - यह सज्जन मनुष्यको पहिचान है ||१५|| यहाँ जिस अपूर्व फलको सज्जन मनुष्य देते हैं उसे माता, स्वामी, कुटुम्बीजन, पिता, माता और स्त्री आदि जन नहीं दे सकते हैं। उनकी वह वचन रचना कुछ ऐसी निर्दोष होती है कि जिसे सुनकर प्राणी पापसे रहित होते हुए मुक्तिको प्राप्त होते हैं ॥ १६ ॥ अतिशय स्थिर बुद्धिवाले सज्जन मनुष्य वृक्षके समान प्रेमको बढ़ाते हैं जिस १ स विलयति । २ स वहन्ते । ३ स भुतं । ४ स सत्यः, वाति सस्था ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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